Showing posts with label Legal. Show all posts
Showing posts with label Legal. Show all posts

Monday, December 6, 2021

क्या पुलिस कमिश्नर प्रणाली से कम हुआ अपराध?


देश में पुलिस प्रणाली, पुलिस अधिनियम, 1861 पर आधारित है। आज भी ज्यादातर शहरों की पुलिस प्रणाली इसी अधिनियम से चलती है। लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में टाइगर सरकार ने लखनऊ और नॉएडा में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी। दावा यह किया गया था कि इससे अपराध को रोकने और क़ानून व्यवस्था सुधारने में लाभ होगा। पर असल में
हुआ क्या ? 

कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर सर्वोच्च पद होता है।वैसे ये व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की है। जो तब कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में ही हुआ करता थी। जिसे धीरे-धीरे और राज्यों में भी लाया गया।  

भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 के भाग (4) के तहत हर जिला अधिकारी के पास पुलिस पर नियंत्रण रखने के कुछ अधिकार होते हैं। साथ ही, दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को कानून और व्यवस्था को विनियमित करने के लिए कुछ शक्तियाँ भी प्रदान करता है। साधारण शब्दों में कहा जाये तो पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नही हैं, वे आकस्मिक परिस्थितियों में डीएम या मंडल कमिश्नर या फिर शासन के आदेश तहत ही कार्य करते हैं। परन्तु पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू हो जाने से जिला अधिकारी और एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के ये अधिकार पुलिस आयुक्त को ही मिल जाते हैं। जिससे वे किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहता है । 

बड़े शहरों में अक्सर अपराधिक गतिविधियों की दर भी उच्च होती है। ज्यादातर आपातकालीन परिस्थितियों में लोग इसलिए उग्र हो जाते हैं क्योंकि पुलिस के पास तत्काल निर्णय लेने के अधिकार नहीं होते। कमिश्नर प्रणाली में पुलिस प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के लिए खुद ही मजिस्ट्रेट की भूमिका निभाती है। पुलिसवालों की मानें तो प्रतिबंधात्मक कार्रवाई का अधिकार पुलिस को मिलेगा तो आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर जल्दी कार्रवाई हो सकेगी। इस सिस्टम से पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के पास सीआरपीसी के तहत कई अधिकार आ जाते हैं और वे कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होते है। साथ ही साथ कमिश्नर सिस्टम लागू होने से पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही भी बढ़ जाती है। हर दिन के अंत में पुलिस कमिश्नर, जिला पुलिस अधीक्षक, पुलिस महानिदेशक को अपने कार्यों की रिपोर्ट अपर मुख्य सचिव (गृह मंत्रालय) को देनी होती है, इसके बाद यह रिपोर्ट मुख्य सचिव को दी जाती है।

पुलिस आयुक्त शहर में उपलब्ध स्टाफ का उपयोग अपराधों को सुलझाने, कानून और व्यवस्था को बनाये रखने, अपराधियों और असामाजिक लोगों की गिरफ्तारी, ट्रैफिक सुरक्षा आदि के लिये करता है। इसका नेतृत्व डीसीपी और उससे ऊपर के रैंक के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किया जाता है। साथ ही साथ पुलिस कमिश्नर सिस्टम से त्वरित पुलिस प्रतिक्रिया, पुलिस जांच की उच्च गुणवत्ता, सार्वजनिक शिकायतों के निवारण में उच्च संवेदनशीलता, प्रौद्योगिकी का अधिक से अधिक उपयोग आदि भी बढ़ जाता है। 

उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन और उससे भड़की हिंसा के समय यह देखा गया था कि कई ज़िलों में एसएसपी व डीएम के बीच तालमेल नहीं था। इसलिए भीड़ पर क़ाबू पाने में वहाँ की पुलिस नाकामयाब रही। इसके बाद ही सुश्री मायावती के शासन के दौरान 2009 से लम्बित पड़े इस प्रस्ताव को गम्भीरता से लेते हुए योगी सरकार ने पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को लागू करने का विचार बनाया। 

सवाल यह आता है की इस व्यवस्था से क्या वास्तव में अपराध कम हुआ? जानकारों की माने तो कुछ हद तक अपराध रोकने में यह व्यवस्था ठीक है जैसे दंगे के समय लाठी चार्ज करना हो तो मौक़े पे मौजूद पुलिस अधिकारी को डीएम से अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। इसके साथ ही कुछ अन्य धाराओं के तहत जैसे धारा-144 लगाने, कर्फ्यू लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107/16 में चालान करने जैसे कई अधिकार भी सीधे पुलिस को मिल जाते हैं। प्रायः देखा जाता है की यदि किसी मुजरिम को गिरफ़्तार किया जाता है तो साधारण पुलिस व्यवस्था में उसे 24 घंटो के भीतर डीएम के समक्ष पेश करना अनिवार्य होता है। दोनो पक्षों को सुनने के बाद डीएम के निर्णय पर ही मुजरिम दोषी है या नहीं यह तय होता है। लेकिन कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस के आला अधिकारी ही यह तय कर लेते हैं कि मुजरिम को जेल भेजा जाए या नहीं। 

चौंकाने वाली बात ये है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार जिन-जिन शहरों में ये व्यवस्था लागू हुई है वहाँ प्रति लाख व्यक्ति अपराध की दर में कोई कमी नहीं आई है। मिसाल के तौर पर, जयपुर में 2011 में जब यह व्यवस्था लागू हुई उसके बाद से अपराध की दर में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। 2009 के बाद से लुधियाना में यही आँकड़ा 30 प्रतिशत है। फ़रीदाबाद में 2010 के बाद से यह आँकड़ा 40 प्रतिशत से अधिक है। गोहाटी में 2015 में जब कमिश्नर व्यवस्था लागू हुई तो वहाँ भी 50 प्रतिशत तक अपराध दर में वृद्धि हुई। इन आँकड़ों से एक गम्भीर सवाल ज़रूर उठता है कि इस व्यवस्था को लागू करने से पहले क्या इस विषय में गहन चिंतन हुआ था या नहीं? 

ब्यूरो के आँकड़ों के एक अन्य टेबल से यह भी पता चलता है कि कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए गए लोगों में से दोषसिद्धि दर में भी भारी गिरावट आई है। पुणे में 14.14 प्रतिशत, चेन्नई में 7.97, मुंबई में 16.36, दिल्ली में 17.20, बेंगलुरु में 17.32, वहीं इंदौर जहां सामान्य पुलिस व्यवस्था है वहाँ इसका दर 40.13 प्रतिशत है। यानी पुलिस कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा नाहक गिरफ़्तार किए गए लोगों की संख्या दोषियों से काफ़ी अधिक है।

जिस तरह आनन-फानन में सरकार ने बिना गम्भीर विचार किए कृषि क़ानूनों को लागू करने के बाद वापिस लिया। उसी तरह देश के अन्य शहरों में पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाने से पहले सरकार को इस विषय में जानकारों के सहयोग से इस मुद्दे पर गम्भीर चर्चा कर ही निर्णय लेना चाहिए, रातों-रात बदलाव नहीं करना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह को विशेषज्ञों की एक टीम गठित कर इस बात पर अवश्य गौर करना चाहिए कि आँकड़ों के अनुसार पुलिस कमिश्नर व्यवस्था से अपराध घटे नहीं बल्कि बढ़े हैं और निर्दोष नागरिकों को नाहक प्रताड़ित किया गया है।