Monday, July 19, 2021

कांग्रेस मुक्त भारत क्यों?

2014 के बाद से भाजपा के नेतृत्व ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा दिया था। कांग्रेस मुक्त यानी विपक्ष मुक्त। पर ऐसा हो क्यों नहीं पाया? भाजपा ने इस लक्ष्य को पाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सबका खूब सहारा लिया। हर चुनाव पूरी ताक़त और आक्रामक मुद्रा में लड़े। प्रचार तंत्र बनाम मीडिया उसके पक्ष में ही रहा है। हर चुनाव में पैसा भी पानी की तरह बहाया गया है। जिसका एक लाभ तो हुआ कि ‘मोदी ब्रांड’ स्थापित हो गया। पर भारत कांग्रेस या फिर विपक्ष मुक्त नहीं हुआ। दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाड, तेलंगना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल जैसे ज़्यादातर राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। गोवा, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा ने तोड़-फोड़ कर कैसे सरकार बनाई, वो भी सबके सामने है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों में से जब नेतृत्व नहीं मिल पाया तो विपक्षी दलों के स्थापित नेताओं को धन और पद के लालच देकर भाजपा में लिया गया। तो उसकी ये नीति भी कांग्रेस या विपक्ष मुक्त भारत के दावे को कमजोर करती है। क्योंकि इस तरह जो लोग भाजपा में आकर विधायक, सांसद या मंत्री बने, वे संघी मानसिकता के तो न थे, न बन पाएँगे। इस बात का गहरा अफ़सोस संघ परिवार को भी है।


यहाँ हमारा उद्देश्य इस बात को रेखांकित करना है कि लोकतंत्र में ऐसी अधिनायकवादी मानसिकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। लोकतंत्र का उद्देश्य ही है, वैचारिक विविधताओं का पारस्परिक सामंजस्य के साथ शासन चलाना। जब एक परिवार में दो सदस्य ही एक मत नहीं हो सकते, तो पूरे राष्ट्र को एक मत, एक रंग, एक धर्म में कैसे रंगा जा सकता है? जिन देशों ने ऐसा करने का प्रयास किया, उन देशों में तानाशाही की स्थापना हुई और आम जनता का जम कर शोषण हुआ और विरोध करने वालों पर निर्लज्जता से अत्याचार किए गए। जबकि भारत तो भौगोलिक, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक दृष्टि से विभिन्नताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से नागालैंड तक, अपनी इस विविधता के कारण भारत की दुनिया में अनूठी पहचान है। 



समाज के विभिन्न आर्थिक व सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व कोई एक विचारधारा नहीं कर सकती। क्योंकि हर वर्ग की समस्याएँ, परिस्थितियाँ और अपेक्षाएँ भिन्न होती हैं। जिनका प्रतिनिधित्व उनका स्थानीय नेतृत्व करता है। भारत की संसद ऐसे विभिन्न क्षेत्रों के चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से समाज के हर वर्ग के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है। इसलिए कांग्रेस या विपक्ष मुक्त नारा अपरिपक्व मानसिकता का परिचय दे रहा था। जिसे भारत की आम जनता ने बार-बार नकार कर ये सिद्ध कर दिया है कि उसे अनपढ़ या गंवार समझ कर हल्के में नहीं लिया जा सकता। सत्तारूढ़ दल पर मज़बूत विपक्ष का दबाव ही यह सुनिश्चित करता है कि आम जनता के प्रति सरकार अपने कर्तव्य के निर्वाह करे। लोकतंत्र में जब भी विपक्ष कमजोर होगा सरकार निरंकुश हो जाएगी। 


लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए न्यायपालिका और मीडिया की भी स्वतंत्रता होना अतिआवश्यक होता है। इनके कमजोर पड़ते ही आम आदमी की प्रताड़ना बढ़ जाती है। उसका शोषण बढ़ जाता है। उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। जिसका पूरे देश की मानसिकता पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ सालों से भारत की न्यायपालिका का आचरण चिंताजनक रहा है। राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों को भी न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ न्यायधीशों ने स्वार्थवश जिस तरह दबा दिया, उससे जनता का विश्वास न्यायपालिका पर  घटने लगा था। ग़नीमत है कि इस प्रवृत्ति में पिछले कुछ दिनों से सकारात्मक बदलाव देखा जा रहा है। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रवृत्ति का विस्तार सर्वोच्च न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालयों तक होगा, जिससे लोकतंत्र का ये एक पाया टूटने से बच जाए। 


इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले कुछ हफ़्तों में मीडिया की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिस तरह के आदेश पारित किए हैं या निर्देश दिए हैं उनका देश में अच्छा संदेश गया है। राष्ट्रद्रोह के औपनिवेशिक क़ानून का जितना दुरुपयोग गत सात वर्षों में, विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में हुआ है, वैसा पहले नहीं हुआ। इससे देश में भय और आतंक का वातावरण बनाया गया और विरोध या आलोचना के हर स्वर को पुलिस के डंडे से दबाने का बहुत ही घृणित कार्य किया गया। ऐसा नहीं है की पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसा नहीं किया, पर उसका प्रतिशत बहुत काम था। सोचने वाली बात यह है कि जब योगी आदित्यनाथ बहैसियत लोकसभा सांसद अपने ऊपर लगाए गए आपराधिक मामलों से इतने विचलित हो गए थे कि सबके सामने फूट-फूट कर रोए थे। तब लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने योगी जी को ढाढ़स बँधाया था। यह दृश्य टीवी के पर्दे पर पूरी दुनिया ने देखा था। प्रश्न है कि जब ठाकुर कुल में जन्म लेकर, कम उम्र में सन्यास लेकर, एक बड़े मठ के मठाधीश हो कर और एक चुने हुए सांसद हो कर योगी जी इतने भावुक हो सकते हैं, तो क्या उन्हें इसका अनुमान है कि जिन लोगों पर वे रोज़ ऐसे फ़र्ज़ी मुक़दमे थोप रहे हैं, उनकी या उनके परिवार की क्या मनोदशा होती होगी? क्योंकि उनकी आर्थिक व राजनैतिक पृष्ठभूमि तो योगी जी की तुलना में नगण्य भी नहीं होती। 


कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोकतंत्र में बोलने की और अपना प्रतिनिधि चुनने की आज़ादी सबको होती है। ऐसे में विपक्ष को पूरी तरह समाप्त करने या विरोध के हर स्वर को दबाने से लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। जबकि इक्कीसवीं सदी में शासन चलाने की यही व्यवस्था सर्वमान्य है। इस में अनेक कमियाँ हो सकती हैं, पर इससे हट कर जो भी व्यवस्था बनेगी वो तानाशाही के समकक्ष होगी या उसकी ओर ले जाने वाली होगी। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को यह समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ करना, हमेशा ही राष्ट्र और समाज के हित के विपरीत होता है। वैसे इतिहास गवाह है कि कोई भी अधिनायक कितना ही ताकतवर क्यों न रहा हो, जब उसके अर्जित पुण्यों की समाप्ति होती है, तो उसका अंत बहुत हिंसक और वीभत्स होता है। इसलिए हर नेता, दल व नागरिक को पूरी ईमानदारी से भारत के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने का प्रयास करना चाहिए, कमजोर करने का नहीं। 

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