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Monday, November 11, 2024

कैसे बने देश अपराध मुक्त ?


चुनाव संपन्न होने के बाद हर दल जो सरकार बनाता है या विपक्ष में होता है जनता के हित में किये गये चुनावी वादों को साकार करने की बात पर ज़ोर देता है। हाल ही में संपन्न हुए कुछ विधान सभा चुनावों और इससे पहले हुए लोकसभा 
के नतीजों से इस बात का स्पष्ट संकेत मिला है कि जनता नारों में बहकने वाली नहीं, उसे जिम्मेदार सरकार चाहिए। पिछले 75 वर्षों में हज़ारों अधिकारी जनता के पैसे पर अनेक प्रशिक्षण, अध्ययन व आदान-प्रदान कार्यक्रमों में दुनिया भर के देशों में जाते रहे हैं। पर वहाँ से क्या सीख कर आये, इसका देशवासियों को कुछ पता नहीं लगता। मुझे याद है 2009 में एक हवाई यात्रा के दौरान गुजरात के एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी से मुलाकात हुई तो उसने बताया कि वह छः हफ्ते के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद विदेश से लौटा है। प्रशिक्षण के बाद उसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के सामने यह बताना है कि इन छः हफ्तों में उसने जो कुछ सीखा, उसका लाभ उसके राज्य को कैसे मिल सकता है। मेरे लिये ये यह एक रोचक किन्तु प्रभावशाली सूचना थी। जिसका उल्लेख मैंने तब भी इस कॉलम में किया था। 



हम भारतीयों की एक आदत है कि हम विदेश की हर चीज की तारीफ करते हैं। वहाँ सड़के अच्छी हैं। वहाँ बिजली कभी नहीं जाती। सफाई बहुत है। आम जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। सरकारी दफ्तरों में काम बड़े कायदे से होता है। आम आदमी की भी सुनी जाती है, वगैरह-वगैरह। मैं भी अक्सर विदेश दौरों पर जाता रहता हूँ। मुझे भी हमेशा यही लगता है कि हमारे देशवासी कितने सहनशील हैं जो इतनी अव्यवस्थाओं के बीच भी अपनी जिन्दगी की गाड़ी खींच लेते हैं। पर मुझे पश्चिमी जगत की चमक-दमक प्रभावित नहीं करती। बल्कि उनकी फिजूल खर्ची देखकर चिंता होती है। पिछले हफ्ते जब मैं सिंगापुर गया तो जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित की, वह थी, इस देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति। वहाँ की आबादी में चीनी, मलय व तमिल मूल के ज्यादा नागरिक हैं। जिनसे कोई बहुत अनुशासित और परिपक्व आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। पर आश्चर्य की बात है कि सिंगापुर की सरकार ने  कानून का पालन इतनी सख्ती से किया है कि वहाँ न तो कभी जेब कटती है, न किसी महिला से कभी छेड़खानी होती है, न कोई चोरी होती है और न ही मार-पिटाई। बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि सिंगापुर में अपराध का ग्राफ शून्य के निकट है। एक आम टैक्सी वाला भी बात-बात में अपने देश के सख्त कानूनों का उल्लेख करना नहीं भूलता। वह आपको लगातार यह एहसास दिलाता है कि अगर आपने कानून तोड़ा तो आपकी खैर नहीं।



हमें लग सकता है कि कानून का पालन आम आदमी के लिए होता होगा, हुक्मरानों के लिए नहीं। पर आश्चर्य की बात ये है कि बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी कानून का उल्लंघन करके बच नहीं सकता। 1981-82 में सिंगापुर  के एक मंत्री तेह चींग वेन पर आठ लाख डॉलर की रिश्वत लेने का आरोप लगा। नवम्बर 1986 में सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने उसके विरूद्ध एक खुली जाँच करने सम्बन्धी आदेश पारित कर दिया। हालाँकि एटोर्नी जनरल को संबंधित कागजात 11 दिसम्बर को जारी किये गये। परन्तु फिर भी वह अपने आप को निर्दोष बताता रहा तथा 14 दिसम्बर को ही अपने बचाव हेतु पक्ष रखने से पूर्व उसने आत्महत्या कर ली।


आश्चर्य की बात ये है कि तेह चींग वेन सिंगापुर को विकसित करने के लिए जिम्मेदार और उसके 40 वर्ष तक प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति रहे, ली क्वान यू का सबसे ज्यादा चहेता था। दोनों में गहरी मित्रता थी। यदि ली चाहते तो उसे पहली गलती पर माफ कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। तेह चींग वेन अपने प्रधानमंत्री को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या के नोट में लिखा, मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रहा हूँ तथा पिछले दो सप्ताह से तनाव में हूँ। मैं इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए अपने आप को जिम्मेदार मानता हूँ तथा मुझे लगता है कि इसकी सारी जिम्मेदारी मुझे ले लेनी चाहिए। एक सम्माननीय एवं जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे लगता है कि अपनी गलती के लिए मुझे बड़ी से बड़ी सजा मिलनी चाहिए।’’


उसके इस कदम से सिंगापुर वासियों का दिल पिघल गया। उन्हें लगा कि अब तो ली उसे माफ कर देंगे और उसके जनाजे में शिरकत करेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। लोगों को आश्चर्य हुआ कि अपने इतने प्रिय मित्र और लम्बे समय से सहयोगी के द्वारा प्रायश्चित के रूप में इतना कठोर कदम उठाने के बाद भी ली उसके जनाजे में शामिल क्यों नहीं हुए? इसका उत्तर कुछ दिन बाद ली ने यह कहकर दिया कि मैं अगर तेह चींग वेन के जनाजे में जाता तो इसका अर्थ होता कि मैंने उसकी गलती माफ कर दी। न जाकर मैं यह सन्देश देना चाहता हूँ कि जिस व्यवस्था को खड़ा करने में हमने 40 साल लगाये, वो एक व्यक्ति की कमजोरी से धराशायी हो सकती है। हम गैरकानूनी आचरण और भ्रष्टाचार के एक भी अपराध को माफ करने को तैयार नहीं है। ऐसा इसी सदी में, एशिया में ही हो रहा है, तो भारत में हमारे हुक्मरान अपने अफ़सरों और मंत्रियों पर ऐसे मानदण्ड क्यों नहीं स्थापित कर सकते?


बातें सब बड़ी-बड़ी करते हैं। पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश के 58 फीसदी लोग मानते हैं कि आजतक हमारे हुक्मरान बेहद भ्रष्ट रहे हैं। हर दल भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वायदा करके सत्ता में आता है और सत्ता में आने के बाद अपने असहाय होने का रोना रोता है। इस देश का आम आदमी जानता है कि कानून सिर्फ उस पर लागू होता है। हुक्मरानों और उनके साहबजादों पर नहीं। सी.बी.आई. और सी.वी.सी. इस बात के गवाह हैं कि ताकतवर लोगों की रक्षा में इस लोकतंत्र का हर स्तम्भ मजबूती से खड़ा है और वे कितना भी बड़ा जुर्म क्यों न करें, उन्हें बचाने का रास्ता निकाल ही लेता है। इसीलिए हमारे यहाँ अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि जितने अपराध होते हैं, उसके नगण्य मामले पुलिस के रजिस्टरों में दर्ज होते हैं। ज्यादातर अपराध प्रकाश में ही नहीं आने दिये जाते। फिर गुड गवर्नेंस कैसे सुनिश्चित होगी? क्या हमारे नेता सिंगापुर के निर्माता व चार दशक तक प्रधानमंत्री रहे, ली क्वान यू से कोई सबक लेंगे? आम जनता को लगातार क़ानून का डर दिखाने से पहले हुक्मरानों का आचरण, उनके निर्णय और उनकी नीतियाँ पारदर्शी व आम जनता के हित में होनी चाहिए। 

भगवतगीता के तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ अर्थात्- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वैसा ही व्यवहार अन्य लोग भी करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण छोड़ देता है, लोग उसी के अनुसार आचरण करते हैं।माना कि हमारा देश बहुत बड़ा है और तमाम विविधताओं वाला है, पर ‘जहाँ चाह वहाँ राह।’ 

Monday, May 8, 2023

विवादों में न घिरें सरकारी जाँच एजेंसियाँ !


बीते शुक्रवार को किसी समय देश की सबसे बड़ी रही निजी एयरलाइन के यहाँ सीबीआई के छापे पड़े। जेट एयरवेज़ पर 538 करोड़ रुपये के बैंक घोटाले के आरोप के चलते ये छापे पड़े। पिछले कई महीनों से जेट एयरवेज़ के नए स्वामी जालान कार्लॉक समूह को लेकर काफ़ी विवाद भी चल रहा है। अब इन छापों से जेट एयरवेज़ के गड़े मुर्दे फिर से बाहर आने लग गए हैं। इसके साथ ही लंबित पड़ी शिकायतों पर बहुत देरी से कार्यवाही करने वाली जाँच करने वाली एजेंसियाँ भी सवालों के घेरे में आएँगी।


ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी एयरलाइन जेट एयरवेज़ ने केवल बैंक घोटाला ही किया है। इस समूह ने देश के नागर विमानन क्षेत्र में अपनी दबंगई के चलते कई नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई और नागर विमानन मंत्रालय व अन्य मंत्रालयों ने आँखें बंद रखीं। 2014 से हमने जेट एयरवेज़ की तमाम गड़बड़ियों की सप्रमाण लिखित शिकायतें नागर विमानन मंत्रालय, डीजीसीए, गृह मंत्रालय, प्रधान मंत्री कार्यालय, सीवीसी और सीबीआई को दी। परंतु जेट एयरवेज़ के मालिक नरेश गोयल की ताक़त के चलते इन शिकायतों पर कछुए की चाल पर ही कार्यवाही हुई। आख़िरकार जब ये कंपनी दिवालिया हुई तो सभी शिकायतें भी ठंडे बस्ते में चली गयीं। परंतु आज जब सीबीआई ने बैंक घोटाले की शिकायत पर कार्यवाही शुरू की तो सवाल उठा कि केवल बैंक घोटाले पर ही जाँच क्यों? जेट एयरवेज़ पर नागर विमानन क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना। सोने व विदेशी मुद्रा की तस्करी करना। अपनी कंपनी के खातों में गड़बड़ी करना। कंपनी की सुरक्षा जाँच को लेकर गड़बड़ी करना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशी नागरिक को अपनी कंपनी में उच्च पद पर रखना। बिना ज़रूरी इजाज़त के ग़ैर क़ानूनी ढंग से विमान को विदेश में उतारना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशों में बेनामी सम्पत्ति अर्जित करना। अप्रवासन क़ानून तोड़ कर ‘कबूतर बाज़ी’ करना। पायलटों को तय समय सीमा से अधिक उड़ान भरवा कर यात्रियों की जान से खेलना। इन मामलों पर जाँच कब होगी?          



प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 9 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा।       


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत सरकार की श्रेष्ठ जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 



केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 9 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’  

 

मामला कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर लगे आरोपों का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो, नीरव मोदी विजय माल्या जैसे भगोड़ों का हो या किसी भी अन्य घोटाले का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, July 7, 2014

सीवीसी की नियुक्ति में कोई अड़चन नहीं आएगी

संसद में सबसे बड़ा विपक्षी दल इस बात को ले कर परेशान है कि सरकार उसके नेता को ‘नेता प्रतिपक्ष’ का दर्ज़ा क्यों नहीं देना चाहती | कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में इस मुद्दे पर सरकार को संसद में घेरने कि रणनीति बनाई है | वैसे ये फैसला लोकसभा की अध्यक्षा श्रीमती सुमित्रा महाजन को करना है | कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने एक सार्वजनिक बयान देकर यह चिंता जताई है कि नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति न होने से सीवीसी जैसे अनेक संवैधानिक पदों को भरना असंभव हो जायेगा | जबकि हकीकत यह नहीं है | सीवीसी एक्ट की धारा चार के अनुसार सीवीसी की नियुक्ति राष्ट्रपति के आदेश पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा की जाति है | जिसके अन्य दो सदस्य भारत के गृहमंत्री व नेता प्रतिपक्ष होते हैं | जैन हवाला काण्ड का फैसला देते समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए की थी | पर इसके साथ ही इस क़ानून के निर्माताओं ने संसद की मौजूदा स्थिति का शायद पूर्वानुमान लगा कर ही इस अधिनियम के सब-सेक्शन में यह स्पष्ट कर दिया है कि सीवीसी कि नियुक्ति के सम्बन्ध में ‘नेता प्रतिपक्ष’ का तात्पर्य लोक सभा में सबसे अधिक सांसदों वाले दल के नेता से है | ऐसे में अगर श्रीमती सुमित्रा महाजन कांग्रेस की मांग पर उसके नेता को सदन में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं देतीं तो भी सीवीसी कि नियुक्ति में कोई अड़चन नहीं आएगी |

ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सीवीसी की संरचना को लेकर सरकार कुछ नई पहल करे | जिस तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश ने विशेष मामलों के लिए सर्वोच्च न्यायायलय में विशेष योग्यता वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहल की है | उसी तरह सीवीसी के भी सदस्यों की संख्या में विस्तार किये जाने की आवश्यकता है | अभी परंपरा यह बन गयी है कि एक सदस्य भारतीय प्रशासनिक सेवा का होता है, एक भारतीय पुलिस सेवा का और एक बैंकिंग सेवा का | ये तीन तो ठीक हैं इनके अलावा एक सदस्य कर विशेषज्ञ होना चाहिए, एक सिविल इन्जीनियरिंग का, एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मामलों का और एक सदस्य कानूनविद होना चाहिए | इनकी भी नियुक्ति उसी तरह हो जैसी मौजूदा सदस्यों की होती है | क्योंकि सीवीसी के सामने जो ढेरों मामले आते हैं उनको जांचने परखने के लिए ऐसे विशेषज्ञों का होना अनिवार्य है |

इसके साथ ही एक सबसे बड़ी समस्या मंत्रालयों, सार्वजनिक उपक्रमों व अन्य सरकारी विभागों में नियुक्त सीवीओ को लेकर है | इस प्राणी का जीवन मगरमच्छ के मुंह में अटका है | उसी विभाग के संयुक्त सचिव स्तर के व्यक्ति को कुछ अवधि के लिए उसी विभाग का सीवीओ बना दिया जाता है | जिसका काम अपने विभाग में हो रहे भ्रष्टाचार की शिकयतों को सुलटाना होता है | अब यदि विभाग का अध्यक्ष ही टेंडर आदि में बड़े घोटाले कर रहा हो तो उसका अधीनस्त कर्मचारी उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत कैसे कर सकता है ? क्योंकि इस पद से हटने के बाद तो उसे उसी अधिकारी के अधीन शेष नौकरी करनी होगी | आवश्यक्ता इस बात की है कि सीवीसी को यह अधिकार दिया जाये कि वो देश के किसी भी राज्य या विभाग के किसी भी योग्य अधिकारी का चयन कर उसे सीवीओ नियुक्त करे, जिससे वह पूर्ण निष्पक्षता से कार्य कर सके |

सीवीसी की दूसरी बड़ी समस्या यह है कि उसके पास योग्य अफसरों का अभाव हमेशा बना रहता है |  ज्यादा नियुक्तियां करने से नाहक खर्च बढ़ेगा | अच्छा ये हो कि सीवीसी को अधिकार दिया जाये कि वह सेवानिवृत्त योग्य व अनुभवी अधिकारीयों को शिकायतों कि जाँच करने के लिए सलाहकार रूप में बुला सके | इससे पेंशनयाफ्ता खाली बैठे योग्य अधिकारियों का सदुपयोग होगा और जाँच की प्रक्रिया में तेज़ी भी आएगी |
 
वैसे तो सीबीआई की स्वायत्ता और उस पर सीवीसी के नियंत्रण को लेकर कई महत्वपूर्ण मुकदमें फिलहाल भारत के मुख्य न्यायधीश के विचाराधीन हैं | पर सरकार को भी इस मामले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए | लोकपाल के गठन और असर को लेकर कई पेच हैं | पर मौजूदा व्यवस्था में थोड़े से सुधार से भ्रष्टाचार को लेकर जो चिंता लोगों के मन में है उसके समाधान प्रस्तुत किये जा सकते हैं | इससे नई सरकार की प्रतिबद्धता भी स्पष्ट होगी और देश में एक सही सन्देश जायेगा |

Monday, February 10, 2014

केवल कानूनों से नहीं रूक सकता भ्रष्टाचार

इस देश के हर आम और खास आदमी को पता है कि देश में हो रहे अपराधों को रोकने के लिए सैकड़ों कानून हैं। पुलिस और सी.बी.आई. है और नीचे से ऊपर तक न्यायिक तंत्र है, पर क्या इसके बावजूद अपराध घट रहे हैं ? फिर भी लोगों को लगातार बहाकाया जा रहा है कि सख्त कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। जबकि अपराध शास्त्र के शोध बताते हैं कि कानून से केवल 5 फीसद अपराध कम होते हैं। बाकी 95 फीसद अपराध कम करने के लिए दूसरे प्रयासों की जरूरत होती है।

 चूंकि भ्रष्टाचार भी एक अपराध है, तो हमें समझना होगा कि यह अपराध क्यों हो रहा है। इसको कैसे रोका जा सकता है ? जहां तक ताकतवर लोगों के भ्रष्टाचार का सवाल है, तो उसे अपराध शास्त्र की भाषा में ‘व्हाइट कालर क्राइम’ कहते हैं और इसकी परिभाषा यह है कि ‘वह अपराध, जिसे पकड़ा न जा सके’ यानि ताकतवार लोगों के भ्रष्टाचार को पकड़ना आसान नहीं होता। अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं। देशभर में राजनीति, प्रशासन, उद्योग और व्यापार से जुड़े ऐसे करोड़ों उदाहरण हैं, जहां बिना मेहनत के अकूत धन सम्पदा को जमा कर लिया गया है। इलाके के लोग जानते हैं कि यह संग्रह भ्रष्ट तरीकों से किया गया है। फिर भी इन अपराध करने वालों को पकड़ा नहीं जा पाता।
दरअसल भ्रष्टाचार के कारण दो हैं। एक-प्रवृत्ति और दूसरा-परिस्थिति। जितनी ही प्रवृत्ति और परिस्थिति ज्यादा प्रबल होगी, उतना ही उसे रोकने का कानून अप्रभावी होगा। प्रवृत्ति आती है, व्यक्ति के संस्कारों से और परिस्थितियां वो हालात हैं, जो एक आदमी को भ्रष्ट बनने का मौका देते हैं। अगर प्रवृत्ति सादा जीवन उच्च विचार की होगी, तो वह व्यक्ति भ्रष्ट आचरण करने से बचेगा। आज हम लोगों को यह बता रहे हैं कि खुशी पाने का तरीका है, रोज नई खरीददारी करते जाना। चाहे वह नई कारें का माॅडल हो या अन्य कोई सामान। बाजार की सभी शक्तियों, उनकी विज्ञापन एजेंसियों का एक ही मकसद है कि लोग खरीददारी करें। चाहे वो संपत्ति हो, उपकरण हों या सोना चांदी। इस तरह भूख और हवस को लगातार हवा दी जा रही है। जिससे समाज में सामाजिक और आर्थिक असंतुलन पैदा हो रहा है। नतीजा यह है कि लोग अनैतिक साधनों से अपनी इन कृत्रिम आवश्यकताओं को पूरा करने में संकोच नहीं करते और यही भ्रष्टाचार का कारण है।
इसके साथ ही समाज में नैतिक मूल्यों का तेजी से हृास हो रहा है। आज समाज के आदर्श कोई ज्ञानी, त्यागी या सिद्ध पुरूष नहीं हैं, बल्कि जिसके पास अकूत धन और ताकत है, उसी का समाज में बोलबाला है। वही धार्मिक, सामाजिक व शैक्षिक कार्यों को सहायता देता है और यश कमाता है। उसे देखकर हर व्यक्ति वैसा ही बनना चाहता है। फिर भ्रष्टाचार कैसे कम हो ? जो लोग सख्त कानून बनाकर भ्रष्टाचार रोकने की बात कर रहे हैं, वे यह भूल जाते हैं कि दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब सख्त कानूनों का विपरीत असर पड़ा है। फ्रांस के एक राजा ने मुनादी करवाई कि जेबकतरों को सरेआम फांसी दी जाएगी। अपेक्षा यह थी कि फांसी के डर से जेबकतरे जेबे नहीं काटेंगे। पर जब किसी अपराधी को सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाती थी, तो तमाशबीन लोगों की दर्जनों जेबें कट जाती थीं। मतलब साफ था कि फांसी पर लटकते हुए देखकर भी जेबकतरों के मन में डर पैदा नहीं होता था। यही बात भ्रष्टाचार विरोधी कानून की भी है। पिछले तीन बरस के हल्ले को छोड़कर अगर पीछे जाएं, तो पाएंगे कि मौजूदा कानून में ही एक क्लर्क से लेकर प्रधानमंत्री तक को पकड़ने की क्षमता थी। अगर उसका पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ, तो कानून की कमी के कारण नहीं, बल्कि उसको लागू करने वालों की प्रवृत्ति के कारण हुआ। फिर वो चाहे सी0बी0आई0 का पुलिस अधिकारी हो या सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश। नये कानून बनाकर भी यह परिस्थिति बदलने वाली नहीं है, क्योंकि लोग तो वही रहेंगे।
तो क्या कानून न बनाया जाए ? कानून की भी भूमिका केवल प्रतिरोध करने तक होती है, समाधान देने की नहीं। उस हद तक कानून की सार्थकता है, पर अगर भ्रष्टाचार से निपटना है, तो समाज में सादा जीवन व नैतिकता के मूल्यों पुर्नस्थापना करनी होगी। कोई प्रश्न कर सकता है कि संपन्न देशों में तो भौतिकता का स्तर ऊंचा है, फिर वहां आम आदमी के स्तर पर भ्रष्टाचार क्यों नहीं दिखाई देता। कारण स्पष्ट है कि वहां आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को सरकार पूरा कर देती है। चाहे उसे दूसरे देशों को लूटकर साधन जुटाने पड़ें, इसीलिए आदमी आसानी से भ्रष्टाचार करने का जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं करता। पर फिर भी अपराध वहां कम नहीं होते।
इसलिए हम बार-बार यही दोहराते आए हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध केवल कानून बनाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा। जो लोग कानून का मुद्दा पकड़कर तूफान मचा रहे हैं, वो भी मन में जानते हैं कि ये तो एक बहाना है, असली मकसद तो सत्ता पाना है। अब यह आम आदमी पर है कि वो नकाबों के पीछे की असलियत को देखे। क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं।

Monday, May 6, 2013

सीवीसी और सीबीआई को बाहरी दवाब से मुक्त करना होगा

हाल ही में कोल गेट मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कानून मंत्री व सीबीआई के बीच हुई बैठक पर कड़ा एतराज जताते हुए कहा कि 15 वर्ष पहले इसी अदालत के ‘विनीत नारायण फैसले‘ में सीबीआई की स्वायत्ता के जो निर्देश दिए गए थे, उनका आज तक अनुपालन नहीं हुआ। ‘कोलगेट केस‘ में उपलब्ध साक्ष्यों से यह स्पष्टतः स्थापित हो रहा है कि सीबीआई के लिए पेश होने वाले कानूनी अफसर, जाँच ऐजेन्सी की तर्ज पर ही चलते हैं और यह भूल जाते हैं कि उनसे अदालत को सच तक पहुँचने में मदद करने की अपेक्षा की जाती है। जैसा कि पहले कई बार इस कॉलम में उल्लेख किया जा चुका है कि जैन हवाला केस में भी कानूनी अधिकारियों ने सर्वोच्च अदालत से तथ्य छिपाने में सीबीआई की मदद की थी। इसलिए सीबीआई द्वारा नियुक्त किए जाने वाले कानूनी अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

अभी तक तो यही हुआ है कि हवाला मामले में 1997 दिसम्बर का वह ‘प्रसिद्ध फैसला‘ एक दन्तविहीन सीवीसी का गठन कर दरकिनार कर दिया गया। इसलिए यह देश के हित में बहुत महत्वपूर्ण है कि माननीय न्यायधीशगणों द्धारा 1997 के फैसले के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए समुचित निर्देश जारी किये जाएं। आगामी 8 मई को कोल गेट मामले में सुनवाई के दौरान इसकी संभावना व्यक्त की जा रही है।
आवश्यकता इस बात की है कि सीवीसी अधिनियम मे सुधार कर इसे 8/10 सदस्यों वाला ‘केन्दªीय सतर्कता आयोग‘ बना देना चाहिए, जोकि लोकपाल के लिए सोची जा रही भूमिका का निर्वहन कर सके। सीवीसी के सदस्यों के चयन की प्रक्रिया को व्यापक बनाते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसमें चहेते और विवादास्पद व्यक्ति सदस्य न बनें। मौजूदा तीन सदस्यों मे से एक आइएएस, दूसरा आइपीएस व तीसरा बैंकिग सेवाओं से लिया जाता है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भी नियुक्त किया जाना चाहिए। जिनका चयन भारत के मुख्य न्यायाधीश अपने बाद वरिष्ठता क्रम में तीन न्यायधीशों की सहमति से करें। क्योंकि विधायिका का हमारे देश के लोकतंत्र और शासन में भारी महत्व है इसलिए संसद के दोनों सदनों के वरिष्ठतम सांसदों मे से एक का चयन भी इस आयोग के सदस्य के रुप मे किया जाना चाहिए। इसके अलावा काँमनवैल्थ खेलों के घोटाले जैसे मामलों की जाँच के लिए इंजीनियरिंग योग्यता वाले दो-तीन विशेषज्ञ व वित्तीय घोटालों को समझने के लिए एक चार्टर्ड एकाउटेन्ट को भी इस आयोग का सदस्य बनाना चाहिए। ये सभी चयन यथासम्भव पारदर्शी होने चाहिए।
सीवीसी की सलाहाकार समिति मे कम से कम 11 सदस्य अपराध शास्त्र विज्ञान और फोरेन्सिक विज्ञान के विशेषज्ञ होने चाहिए। जो इस आयोग की कार्य क्षमता में प्रोफेशनल योगदान करेगें। साथ ही कार्य बोझ कम करने के लिए सीवीसी को बाहर से विशेषज्ञों को बुलाने की छूट होनी चाहिए, जो शिकायतों के ढ़ेर को छाँटने मे मदद करें। सीवीसी के दायरे मे फिलहाल केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के सभी कर्मचारी आते हैं, यह व्यवस्था ऐसे ही रहे। पर इस व्यवस्था को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए मंत्रालयों व विभागों के सीवीओ के चयन और कार्य पर सीवीसी का पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
सीवीसी को जाँच करने के लिए तकनीकी रुप से अनुभवी और सक्षम लोगो की टीम दी जानी चाहिए जो शिकायत की गंभीरता को जाँच कर यह तय कर सके कि किस मामले की जाँच सीबीआई को सौंपी जानी है या सीवीसी की टीम ही करेगी। शिकायत को पूरी तरह परख लेने के बाद की कारवाई के लिए सीवीसी को सरकार से पूर्वानुमति लेने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। जिन मामलों को सीवीसी सीबीआई को सौंपती है उनकी जाँच के लिए सीबीआई को सरकार के मंत्रालय या विभाग के वित्तीय नियन्त्रण से मुक्त रहना चाहिए। सीबीआई की जाँच पर निगरानी का अधिकार केवल सीवीसी का होना चाहिए, इसकी मौजूदा व्यवस्था मे सुधार किया जाना चाहिए। इसी तरह सीवीसी के सदस्यों की भाँति सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति भी व्यापक पारदर्शिता के साथ होनी चाहिए और सीबीआई के बाकी अधिकारियों की नियुक्ति और निगरानी का अधिकार सीवीसी को दिया जाना चाहिए।
भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों और इससे सम्बन्धित शिकायतों के संदर्भ मे शिकायतकर्ताओं के मामलों को सीवीसी के अधीन कार्यक्षेत्र में दे देना चाहिए जिससे इन सबके बीच बेहतर तालमेल स्थापित हो सके। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों का प्रभावी तरीके से लागू होना भी सुशासन के लिए अनिवार्य है। इसलिए यह जरूरी होगा कि राज्यों की भ्रष्टाचार विरोधी ऐजेन्सियों को भी राज्य सरकारों के हस्तक्षेप से इसी तरह मुक्त किया जाए।
यह सभी प्रस्ताव हमने सर्वोच्च न्यायालय के  माननीय न्यायधीशों के विचारार्थ भेज दिए हैं। पर इसके साथ ही हम यह भी जानते हैं कि व्यवस्था कोई भी बना लो, जब तक उसको चलाने वाले ईमानदार नहीं हैं, वो नहीं चल सकती। रिश्वत लेने वालों से ज्यादा दोष देने वालों का होता है। अपने फायदे के लिए मोटी रिश्वत लेने वाले व्यवस्था को भ्रष्ट बनाने के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। जब तक रिश्वत देने वाले रिश्वत देना बंद नहीं करेंगे, तब तक लेने वाले मौजूद रहेंगे। सिंहासन तो चीज ही ऐसी है जहां बैठकर बड़े-बड़े फिसल जाते है।  ‘माया तू ठगनी, हम जानी।‘ 

Friday, May 3, 2013

Widening the role of CVC and insulating CBI from extraneous pressures


May 3rd 2013
To
Hon’ble Chief Justice of India & his brother Judges
Supreme Court of India
New Delhi

Through
Registrar General
Supreme Court of India
New Delhi

Written Submissions in the matter titled
Manohar Lal Sharma Vs. The Principle Secretary & Others
Writ Petition (Criminal) 120 / 2012


Widening the role of CVC and insulating CBI from extraneous pressures

Your Lordships !

Your observations in the above matter regarding the functioning of CBI in reference to the 1997 judgement (Vineet Narain Vs. Union of India) of this Hon’ble Court has encouraged me to submit this written submission for your kind perusal and for consideration.

Your Lordships ! twenty years ago, when I petitioned in this Court, against the criminal negligence of CBI in a militancy and corruption related Jain Hawala Case, my expectation was that under the monitoring of the Apex Court, CBI, DRI and Income Tax agencies will do their duties to ensure proper investigations and will take the case to its logical conclusions. This was the time when there were no 24x7 TV channels, email and SMS facilities to mobilize public opinion on issue of corruption and militancy. Hence in 1993 it was a difficult fight against the 115 most powerful people of this country.

Due to the initiative of this Court, the matter did progress to some extent, but for various reasons, could not reach to its logical conclusions. For example 22 names mentioned in the Jain Diary have not been de-coded / deciphered, by the CBI till this date, when the author of the same is easily available to decode the same. Who knows that these payees could be hardened militants, narcotic operators or powerful people? Two affidavits filed by the petitioner (Vineet Narain Vs. Union of India case no. 340-43 of 1993) dated 08.04.1995 & 09.01.1996 were never answered by the CBI with the result the concerned file of the CBI was concealed from this Court. The evidence regarding the dilution of investigation and the manner in which the beneficiaries in the diary were saved is available in black & white but not a single delinquent official of the CBI responsible for inaction from June 1991 to March 1995 was even asked to explain his conduct which was adversely commented by the Apex Court in very strong words. In other words all the delinquents were saved rather rewarded. Inspite of intervention of this Hon’ble Court, the CBI, who kept the investigation in cold storage for more than 40 months ultimately succeeded in their original plan when all the accused persons were saved. However, the ‘famous’ judgement was pronounced, which gave the hope to the nation that things will change in future.

As Your Lordships have rightly observed that even after 15 years, nothing substantial has happened to make the investigating agencies free from the political interference. As pointed out above had the delinquents been punished, the misconduct could not have been repeated. In the absence of any deterrence the agency would continue to disregard the directions of the Apex Court with impunity. Inputs in the present Coalgate Case clearly establish that the law officers appearing for CBI tow the line of the investigating agency, forgetting that they are required to assist the Hon’ble Court in arriving at the truth. As pointed out above, the role of the law officers in the Hawala Case certainly helped the CBI in concealing the truth from the Apex Court. Therefore the appointment of law officers in the CBI also deserves to be reviewed.
The famous judgement has been sidelined by creating a toothless CVC. Hence, it is very important for the nation that Your Lordships’ review the situation and issue further guidelines to ensure effective implementation of the 1997 judgement. However, based on my experience of fighting corruption at the highest levels of governance, I would like to submit some suggestions and observations, which may assist this Hon’ble Court.
1.    The CVC Act should be amended providing for a 5/7 member Central Vigilance Commission which could broadly assume the role visualized for the Lokpal. The selection process of the CVC members could be made more broad based to prevent favorites or controversial persons from being appointed. Presently, three members are drawn from IAS, IPS and Banking services. However, it should include one retired judge of the Supreme Court appointed by the CJI in consultation with next four senior most judges. Since, legislative wing of our democracy is very important for the matters of governance, it would be worthwhile to include one Member of Parliament, selected from those, who have been the members of the either house for the longest duration. In addition to this two to three members should be of engineering expertise, to assess the scams like commonwealth games and one from the background of Chartered Accountancy to examine the financial scams. These selections should be made as transparent as possible. Co-opting a representative of Civil Societies will create unnecessary controversy because of their diverse backgrounds and agendas, hence, the role of Civil Society should be to generate awareness and act as a pressure group only.

2.    The CVC should constitute an Advisory Committee of at least 11 members drawn from the Criminologists and Forensic Science experts. This will augment the professional input in their functioning. Furthermore, to reduce the burden on CVC, it should be given the power to outsource any expert or professional to assist it in screening the loads of complaints.

3.    The jurisdiction of CVC, which presently covers all employees of the Central Govt. and the CPSUs, should remain unchanged. Already there is an administrative arrangement to delegate the vigilance administration over class II and lower formations to the ministries/departments concerned. However, if the lower formations are involved with the class I officers in a composite case, the CVC exercises a natural jurisdiction over all of them. To make this arrangement more effective, it would be important that the CVC exercises complete control over the selection, appointment and functioning of the CVOs.

4.    The CVC should have adequately experienced team to technically examine and assess the gravity of a complaint, which can then be assigned to CBI for investigation or can be investigated by this team. After assessing a complaint by this broad-based CVC, there should be no necessity to seek prior permission from the govt.

5.  In the cases assigned to it by the CVC, the CBI should be made functionally and financially independent of the controls of any Govt. Ministry/Department. The professional supervision over the investigations of CBI should rest only with the CVC and its nature should be decisively improved from what exists today.

6.    The methodology of appointment of the Director CBI should be similarly broad based as in the case of the CVC members, whereas the other inductions/appointments in the CBI should be brought under the overarching supervision of the CVC.

7.    For achieving better synergy between the Anti Corruption Laws and grievance handling, the laws relating to the whistleblowers and grievance redressal should be placed within the jurisdiction of the CVC.

8.  Effective administration of anti corruption laws at the grass roots level is the key to responsible governance. The state and their anti corruption agencies would therefore require to be equally insulated from the State Government’s interference on similar patterns.

Vineet Narain
Sr. Journalist and Petitioner in case titled WP340-43/93 in the Supreme Court of India
C-6/28, SDA, Hauz Khas, New Delhi – 110016