Monday, April 11, 2016

मठाधीशों के लिए मिसाल हैं अम्मा ?

हमारे देश में धर्माचार्यों, आश्रमों और मठों की भरमार है। पहले ये स्थान आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने या ऊपर उठाने के लिए और सामाजिक समरसता को बढ़ाने के लिए पावर हाउस का काम करते थे। कलियुग के प्रभाव से हर धर्म में इतनी गिरावट आयी है कि अब ये तथाकथित धर्म केंद्र मल्टीनेशनल काॅरपोरेशन की तरह व्यापारी बन गए हैं। जहां अमीर और बड़े दान देने वाले को पूजा जाता है और असहाय, गरीब और निरीह को उपेक्षा या धक्के मिलते हैं। यहां हर क्रिया व्यापार है। भागवत कथा करवानी है, तो इतना रूपया दो। तथाकथित आश्रम में ठहरना है, तो वीआईपी सूट का इतना किराया, एसी कमरे का इतना किराया, नाॅन एसी का इतना किराया, डोरमैट्री का इतना किराया। मानो आश्रम न हो, कोई होटल हो गया। रसीद फिर भी दान की ही मिलती है, क्योंकि जैसे ही कमरे के किराए की रसीद काटेंगे, उनके प्रतिष्ठान का आयकरमुक्ति प्रमाण पत्र रद्द हो जाएगा। आप ऐसी किसी भी संस्था में जाकर कहिए कि अगर आपने कमरे का निर्धारित शुल्क लिया है, तो उसकी रसीद हमें दे दें, वे नहीं देंगे।
ऐसे दौर में गरीबों और बेसहारा लोगों को गले लगाकर और उनका दुख दूर करने का गंभीर प्रयास करने वाली ‘अम्मा’ पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल हैं। यही कारण है कि वे जहां भी जाती हैं, उनके दर्शनों को हजारों लोग उमड़ पड़ते हैं। उनका भी कमाल है कि वे हरेक को गले लगाती हैं, चाहे उन्हें 2 दिन और 2 रात तक एक ही आसन पर लगातार क्यों न बैठा रहना पड़े। माता अमृतानंदमयी देवी (अम्मा) जहां भी जाती हैं, एक नया जोश, सामाजिक एकता, मानव का मानव के प्रति दायित्व, मनुष्य के प्रकृति के प्रति दायित्व क्या हैं, इनका बोध कराती हैं। केवल उपदेश नहीं देतीं, बल्कि स्वयं और अपने शिष्यों के माध्यम से उसे कर्म में ढ़ालकर दिखाती भी हैं।
मध्ययुग में भारतीय उपमहाद्वीप में जब-जब हमारी सामाजिक और धार्मिक परंपराओं पर आघात हुए, तो इसी तरह के संतों के रूप में दैवीय शक्ति प्रकट हुईं। ब्रिटिश राज में भारतीय समाज के हर क्षेत्र में पतन की गति और तेज हुई। उस अंधकार के समय स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरूष का अभ्युदय हुआ, जिन्होंने भारतीय समाज का आत्मगौरव बढ़ाने में मदद की। आज के दौर में पश्चिमी सभ्यता में रंगे सत्ताधीशों एवं मठाधीशों के द्वारा प्रजा के शोषण के कारण समाज में रोष, ईष्र्या, क्रोध, द्वेष, अशिक्षा, जातिवाद और धर्मांधता बढ़ती जा रही है। जिससे समाज में विघटन हो रहा है और मानव की मनोवृत्ति संकीर्ण होती जा रही है। मानवीय उदारता घटती जा रही है। आज के दौर में धन ही धर्म का प्रतीक हो गया है। ऐसे समय में अम्मा ने मानव को मानव से जोड़ने के लिए भागीरथी प्रयास किए हैं।
ब्रज चैरासी कोस क्षेत्र भगवान कृष्ण के काल से आजतक भक्ति और साधना का केंद्र रहा है। जहां समय-समय पर एक से एक बढ़कर संतों ने भजन किया और समाज को दिशा दी। ब्रजवासी यह बताना नहीं भूलते कि उनका संबंध श्रीकृष्ण से भगवान और भक्त का नहीं, बल्कि मित्र, पुत्र या पति जैसा है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा था कि ब्रजवासियों को देखो तो दूर से प्रणाम करो और उनके मार्ग से हट जाओ। कहावत है कि ‘दुनिया के गुरू सन्यासी और सन्यासियों के गुरू ब्रजवासी’। ऐसे ब्रज में अगर ब्रज के संत और ब्रजवासी किसी के आगे नतमस्तक हो जाए, तो उसकी दिव्यता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पिछले दिनों अम्मा अपने 2000 शिष्यों के साथ पहली बार वृंदावन आयीं, तो सारा ब्रज उनके मातृत्व और दैवीय शक्ति का स्वरूप देखकर उनका दीवाना हो गया। प्रातः 10 बजे से रात के 2 बजे तक अम्मा ने 10 हजार ब्रजवासियों को गले लगाया। कोई पूछ सकता है कि गले मिलने से क्या होगा ? आज का विज्ञान और तर्कवादी अपनी कसौटी पर कहीं भी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते हैं। लेकिन भारत की वैदिक परंपरा आदिकाल से ऐसे अनुभवों का समर्थन करती आयी है। 1993 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन को संबोधित करते हुए अम्मा ने कहा था कि दुनिया में धर्मों की, शास्त्रों की और धर्माचार्यों की कमी नहीं है, फिर समाज इतना दुखी और बिखरा हुआ क्यों है ? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि धर्म के मूल में है प्रेम। प्रेम के बिना संसार चल ही नहीं सकता। उन्होंने उदाहरण दिया कि अगर हमारी ही उंगली से हमारी आंख फूट जाए, तो क्या हम अपनी उंगली को तोड़ देते हैं या आंख का इलाज करते हैं और उंगली को कोई सजा नहीं देते। यही बात समाज में भी लागू होती है, अगर हम हर उस व्यक्ति को भी प्रेम करना सीख जाए, जिसने हमारा अहित किया है, तो संसार बहुत सुखमय हो जाएगा। आलिंगन कर अम्मा यही संदेश देती हैं। अब तक 4 करोड़ लोगों को दुनियाभर में गले लगाने वाली अम्मा के कंधों की हड्डियों के जोड़ों को देखकर चिकित्सक भी हैरान है कि ये अब तक घिसकर टूटी क्यों नहीं, जबकि सामान्य व्यक्ति अगर इस तरह का आलिंगन एक बार में 10-20 हजार लोगों को भी एक ले, तो उसके कंधे बोल जाएंगे। अम्मा से गले मिलने वाले लोगों का अनुभव है कि उनसे गले लगने के बाद मन में भरे हुए विषाद जोर मारकर बाहर निकलने लगते हैं और आंखों से स्वतः अश्रुपात होने लगता है।
अम्मा सिर्फ मलयालम बोलती हैं, फिर भी पूरी दुनिया के लोग उनसे संवाद कर लेते हैं। दक्षिण भारतीय संत अम्मा को ब्रज के लोगों ने भी बड़ी आशा भरी निगाहों से देखा। इससे एक बात तो तय है, भारतीय संस्कृति की जड़ें कितनी गहरी हैं। उसको प्रांत, भाषा, जाति या संस्कृति के नाम पर नहीं बांटा जा सकता है। अम्मा के आदर्शों को सिद्धांत बनाकर भारत सरकार यदि कोई पहल करती है, तो भारत में उपजी सामाजिक विषमता को समाप्त किया जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पहल की है ‘स्वच्छ भारत अभियान’। जो कि मूल रूप से अम्मा के ‘अमल भारतम् अभियान’ की प्रेरणा से ही शुरू हुआ है, लेकिन यह काफी नहीं है। अम्मा से प्रेरणा लेकर समाज के अनेक क्षेत्रों में ऐसी नीतियां बनाई जा सकती हैं, जिससे राष्ट्र का उत्थान हो। क्योंकि अपने विशाल कार्य क्षेत्र में अम्मा ने इसका प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं देखें  ूूूण्अपदममजदंतंपदण्दमज 

Monday, April 4, 2016

कितनी महत्वपूर्ण है कृषि क्षेत्र पर श्वेतपत्र की मांग

शुक्रवार को दिल्ली के जंतर मंतर पर किसान पंचायत में किसान नेताओं के अनुशासन ने सरकार को चैंका दिया। सबको पता है कि देश में किसानों की क्या हालत है। लग रहा था कि किसानों के इस आयोजन में किसान नेताओं के तेवर उग्र होंगे। लेकिन कारण जो भी रहे हों, किसानों ने अपनी पंचायत में गंभीरता से सोच विचार किया। इस पंचायत में किसानों ने एक बुद्धिमत्तापूर्ण मांग रखी कि बुंदेलखंड पर चैतरफा संकट के मद्देनजर भारत सरकार बुंदेलखंड पर श्वेतपत्र जारी करे। किसानांे ने पानी के संकट को लेकर सरकार को आगाह किया और याद दिलाया कि ऐसी परिस्थितियों में सरकारें हमेशा अतिरिक्त प्रबंध करती आई हैं। लेकिन इस साल यह काम उतनी शिद्दत से होता नहीं दिख रहा है।
श्वेतपत्र जारी करने की मांग दसियों साल बाद सुनाई दी है। ऐसी मांग पहले राजनीतिक क्षे़त्र में विपक्षी दल किया करते थे। याद पड़ता है कि 27 साल पहले सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान जब सफेद हाथी साबित होते जा रहे थे, तब सार्वजनिक क्षेत्र की स्थिति पर श्वेतपत्र जारी करने की मांग उठी थी। कुछ ही साल बाद पूरी दुनिया में ही निजीकरण और वैश्वीकरण का ऐसा दौर चला कि सार्वजनिक क्षेत्र का वजन कम होता चला गया।
बहरहाल जंतर मंतर पर किसानों की तरफ से उठी इस मांग को अगर गौर से देखें तो वाकई यह बड़े काम की मांग साबित हो सकती है। क्योंकि इतने बड़े देश में और अलग अलग भौगोलिक मिजाज के इलाकों के होने के कारण वाकई कोई एक सामान्य राष्ट्रीय नीति या कार्यक्रम लागू करना मुश्किल होता है। इस लिहाज से किसानों की तरफ से यह मांग करना जायज तो है ही सरकार के लिए भी बहुत काम की है। अभी आठ साल पहले ही बुंदेलखंड में जब मुश्किल हालात पैदा हुए थे तब उस समय की केंद्र सरकार को अपने तमाम घोड़े बुंदेलखंड की तरफ दौड़ाने पड़े थे। और तब पता चला था कि वहां के गांवों और किसानों की समस्या इतनी जटिल है कि तुरत-फुरत कोई इंतजाम नहीं किया जा सकता। यह वही दौर है जब बुंदेलखंड के लिए सात हजार करोड़ रूपए के पैकेज का एलान किया गया था।
बुंदेलखंड के तेरह जिलों के लिए सात हजार करोड़ रूपए से क्या-क्या हो सकता है, इसका हिसाब लगाए बगैर ही उस मदद का फौरी एलान हुआ था। उप्र और मप्र यानी दो प्रदेशों के भौगोलिक क्षेत्र में आने वाले बुंदेलखंड में यह रकम कोई भी असर नहीं डाल पाई। हां, इसमें कोई शक नहीं कि क्षेत्र में तरह-तरह के कामों से बुंदेलखंड के बदहाल लोगों के हाथों को कुछ काम मुहैया हो गया था और इससे उन्हें फौरी राहत मिल गई। लेकिन जल्द ही यह पता चल गया कि किसानों की समस्या का आकार प्रकार हम जान नहीं पाए है और तभी यह समझ में आया था कि खेती किसानी के बारे में पहले हमें तथ्यों को जमा करना पड़ेगा। यही बात एक अपै्रल को जंतर मतर पर आयोजित किसान पंचायत में हुई।
श्वेतपत्र की मांग के अलावा किसानों ने अपनी पंचायत में जल प्रबंधन पर भी सोच विचार किया। इस मुददे पर विचार-विमर्श के लिए किसान नेताओं ने बुंदेलखंड की जल समस्या पर शोधकार्य कर चुके कुछ अनुसंधानकर्ताओं को भी आमंत्रित कर रखा था। इन जल विशेषज्ञों को किसानों की तरफ सेे यह सुझाव सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि अब नई सिंचाई प्रणालियों पर निर्भर रहना ही अकेला विकल्प नहीं है। किसानों का सुझाव था कि पुरानी जल प्रणालियों और पुराने तालाबों और जलाशयों को भी पुनर्जीवित करना पड़ेगा। उनकी चिंता गांवों में पाट दिए गए पुराने तालाबों को फिर से जीवित करने की थी। बस वे नहीं सोच पाए तो यह नहीं सोच पाए कि यह काम किया कैसे जा सकता है। सभी ने माना कि यह अंदाजा नहीं पड़ पा रहा है कि समग्र रूप से ऐसा काम करने के लिए किस पैमाने पर मुहिम छेड़ना पडे़गी। तभी यह तय हुआ कि सबसे पहले सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग की जाए। वैसे यह बात भी एक तथ्य के रूप में है कि देश में साल दर साल बढ़ते जा रहे संकट को देखते हुए पिछलेे दो दशकों से कई स्वयंसेवी संस्थाएं जल प्रबंधन के क्षेत्र में विशेषज्ञता के साथ काम कर रही है। जाहिर है अब यह समय भी आ गया लगता है कि ऐसे कामों की संजीदगी से समीक्षा शुरू की जाए।
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि योजना या कार्यक्रम बनाने का काम सामाजिक स्तर पर उतना संभव नहीं है। जो स्वयंसेवी संस्थाएं अपने स्तर पर ऐसे कामों में लगी हैं, उनकी सीमाओं का अंदाजा भी हो चुका है। ये सस्थाएं अपनी सफलताओं से एक माॅडल बनाकर तो दे सकती हैं, लेकिन 130 करोड़ आबादी की इस विकट समस्या के समाधान के लिए कार्यक्रम बनाकर लागू नहीं कर सकती। यहीं यह बात उठती है कि सरकारें सामाजिक स्तर पर किए गए सफल कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए कम से कम उन्हें संसाधन मुहैया कराने की व्यवस्था तो बना सकती है। खासतौर पर देशभक्ति के प्रदर्शन के लिए आज अचानक बने माहौल में क्या जल प्रबंधन के सामाजिक कार्यों में लगीं स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करके देश के निर्माण की नई मुहिम नहीं छेड़ी जा सकती।


Monday, March 28, 2016

अखिलेश यादव की छवि सुधरी

 साइकिल पर उत्तर प्रदेश की यात्रा करके 2012 में समाजवादी पार्टी को भारी विजय दिलाने वाले युवा नेता अखिलेश यादव सत्ता संभालने के बाद लगभग 2 वर्ष तक ऐसा कुछ नहीं कर पाए, जिससे वे अपने मतदाताओं की उम्मीदों पर खरा उतरते। जबकि उनमें उत्साह, ऊर्जा और सद्इच्छा की कमी नहीं थी। उनकी पार्टी के और परिवार के हालात कुछ ऐसे थे कि वे इन दोनों ही संदर्भों में बचपन वाले ‘टीपू’ ही समझे गए। बड़े-बुजुर्गों ने उन्हें स्वतंत्र फैसले नहीं लेने दिए, जिससे उन्हें कुछ करके दिखाने का मौका नहीं मिला। उधर संगठन के सम्मेलनों में और सार्वजनिक मंचों पर उनके पिता व सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव को लगातार नसीहतें देते रहे और उनके नकारा मंत्रियों को फटकारते रहे। इससे भी ऐसा संदेश गया, मानो अखिलेश मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन जल्दी ही उन्हें इसका एहसास हो गया कि अगर राजनीति में लंबी पारी खेलनी है, तो अपनी शख्सियत को एक योग्य प्रशासक और नेता के रूप में स्थापित करना होगा।


नतीजतन वे बहुत सावधानी से और धीरे-धीरे टीपू के सांचे से निकलकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सांचे में ढलने लगे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि पिछले लोकसभा चुनाव में सभी दलों के जो युवा चुनाव जीते थे, उन युवा नेताओं में अखिलेश यादव का नाम आज सबसे ऊपर है। चाहे वे कांग्रेस के राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि हों, भाजपा के अनुराग ठाकुर, लोजपा के चिराग पासवान या हाल में बिहार विधानसभा चुनाव में जीतकर नेता बने लालू यादव के दोनों सुपुत्र। ऐसा किस्मत से नहीं हो गया। अखिलेश ने इसके लिए बड़ी सूझबूझ और दूरदृष्टि से शासन की बागडोर संभाली।

 पिछले दिनों मथुरा की सांसद और भाजपा के नेता हेमामालिनी मुझसे अखिलेश की सहृदयता और पाॅजीटिव सोच की तारीफ कर रही थीं। किसी विपक्ष के नेता से ऐसा प्रमाण पत्र मिलना वास्तव में अखिलेश की योग्यता का परिचय देता है। अखिलेश की जिस बात ने सबका मनमोहा है, वह है उनकी शालीनता और विनम्रता। आप युवा पीढ़ी के किसी भी नेता में यह गुण नहीं पाएंगे। वे चाहे सत्ता में हो या विपक्ष में, उन्हें अपनी विरासत और अपनी हैसियत का अहंकार होता ही है। जबकि अखिलेश के पास इन सब युवा नेताओं से बड़ी ताकत है, देश के सबसे बड़े सूबे की बागडोर और एक मजबूत जनाधार। इसलिए भी उनकी विनम्रता मिलने वाले को प्रभावित करती है।

 पर्यावरण इंजीनियर होने के नाते और देश-विदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा हासिल करने के कारण अखिलेश की दृष्टि संतुलित विकास की है। इसलिए उन्होंने अनेक कार्यक्रम और नीतियां अपनाकर उत्तर प्रदेश को पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में भारत के अग्रणी राज्यों के साथ खड़ा कर दिया है। पहले लोग उत्तर प्रदेश को ‘उल्टा प्रदेश’ कहते थे। पर आज प्रदेश का व्यापारी समुदाय हो या आम जनता, वह मानती है कि प्रदेश का शासन काफी कुछ ढर्रे पर चल रहा है। जातिगत पक्षपात के आरोप क्षेत्रीय दलों पर प्रायः लगा करते हैं। सपा इससे अछूती नहीं है, पर बावजूद इसके जाति के आधार पर उत्तर प्रदेश की जनता से भेदभाव हो, इसके उदाहरण थाना, प्रशासन स्तर पर कम ही देखने को मिलते हैं। जिससे ग्रामीण जनता को बहुत राहत मिली है।

 उत्तराखंड के अलग होने के बाद उत्तर प्रदेश में पर्यटन उद्योग को भारी झटका लगा था। पर अखिलेश यादव ने बुद्धा सर्किट, ताज सर्किट, ब्रज सर्किट जैसे अनेक नए पर्यटक सर्किट शुरू कर और उसमें स्वयं रूचि ले उत्तर प्रदेश के पर्यटन को सुधारने का काफी प्रशंसनीय कार्य किया है। यह बात दूसरी है कि योजनाओं के क्रियान्वयन में संस्थागत कमियों के कारण गुणवत्ता का अभाव अभी भी दिखाई देता है, जिसे सुधारने की जरूरत है। वह तभी संभव है, जब कार्यदायी संस्थाओं की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और योजनाओं के मानक लागू करने पर प्रशासनिक दबाव हो।

 दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। एक वर्ग है, जो मानता है कि कुछ भी कर लो पहले नंबर पर बसपा ही रहेगी। दूसरा वर्ग है, जो उम्मीद करता है कि अमित शाह की रणनीति उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को धु्रवीकरण में समेटकर भाजपा को सत्ता में ले आएगी। लेकिन जैसा हमने पिछले सप्ताह लिखा था कि आमजनता के स्तर पर उत्तर प्रदेश में भाजपा को लेकर आज की तारीख में कोई उत्साह नहीं है। आज की जमीनी हकीकत तो यह है कि उत्तर प्रदेश में मुकाबला सपा और बसपा में ही होता नजर आ रहा है। दोनों का ही नेतृत्व सशक्त है। अखिलेश यादव और मायावती दोनों में से जो जनता की कल्पनाशीलता में आश्वस्त करता नजर आएगा, उसे जनता उत्तर प्रदेश का शासन सौंप देगी। अब वो जमाने लद गए, जब सत्तारूढ़ दल को हराकर ही जनता संतुष्ट होती थी। अनेकों राज्यों के उदाहरण है, जहां सत्तारूढ़ दल 2 या 3 बार लगातार जीतकर सत्ता में रहा है। इधर यह स्पष्ट है कि अखिलेश यादव का आत्मविश्वास बढ़ा है और वे हर वो काम कर रहे हैं, जिससे उनको अगले चुनाव में फिर से जनता का विश्वास हासिल हो। इसके लिए जरूरी है कि वे जमीनीस्तर पर नौकरशाही को जवाबदेह और प्रभावी बनाएं और फैसले तीव्र गति से लें, जिनका परिणाम जमीन पर नजर आए।
 

Monday, March 21, 2016

संघ का एजेण्डा बम-बम

 बिहार चुनाव के बाद औधे मुंह गिरी भाजपा को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के घटनाक्रम से एक नई लीज मिल गई है। राष्ट्रवाद और देशद्रोह के सवाल पर मतदाताओं को लामबंद करने की योजना पर काम हो रहा है। इस उम्मीद में कि देशभक्ति एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर कोई बहस की गुंजाइश नहीं बचती। कौन होगा जो खुद को देशद्रोहियों की कतार में खड़ा करना चाहेगा। जवाब है मुट्ठीभर माओवादियों को छोड़कर कोई नहीं। वे भी खुलकर तो अपने को देशद्रोही मानने को तैयार नहीं होंगे। पर हकीकत यह है कि उनकी विचारधारा किसी देश की सीमाओं में बंधी नहीं होती। वे तो दुनिया के शोषित पीड़ितों के मसीहा बनने का दावा करते हैं।
 

भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सोचना यह है कि आने वाले दिनों में बंगाल, असम, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, पांडुचेरी, उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव में देशभक्ति और देशद्रोह के मुद्दे को जमकर भुनाया जा सकता है। ऐसा सोचने के पीछे आधार यह है कि जेएनयू के मुद्दे पर जिस आक्रामक तरीके से सोशल मीडिया, प्रिंट व टीवी मीडिया मुखर हुआ, उससे लगा कि यह मुद्दा घर-घर छा गया है और इसी मुद्दे को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है। यह सही है कि भारत के मध्यमवर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा देशभक्ति और देशद्रोह की इस बहस में उलझ गया है और अपने को देशभक्तों की जमात के साथ खड़ा देख रहा है। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि ये भावना केवल मध्यमवर्गीय समाज तक सीमित है। इसका असर फिलहाल गांवों में देखने को नहीं मिलता।
 
 वैसे भी भारत के मतदाता का मिजाज कोई बहुत छिपा हुआ नहीं है। चुनाव के पहले अगर मोदी जैसी आंधी चले या इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर चले, तो मतदाता भावुक होकर जरूर बह जाता है। पर ऐसी लहर हमेशा नहीं बनती। इसलिए ये मानना कि केवल देशभक्ति के मुद्दे पर देश का मतदाता भारी मात्रा में भाजपा के पक्ष में मतदान करेगा, शायद कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षी बात है। जमीनी हकीकत यह है कि चुनाव में अहम भूमिका किसान, मजदूर और गांवों के मतदाताओं की होती है और इतिहास बताता है कि अपवादों को छोड़कर देश का आम समाज और मध्यमवर्गीय समाज अलग-अलग सोच रखता है।
 
 आज जहां शहर के मध्यमवर्गीय समाज में देशभक्ति व देशद्रोह की चर्चा हो रही है। पर गांवों में इस चर्चा में कोई रूचि नहीं है। मैं लगातार देश में भ्रमण और व्याख्यान करने जाता रहता हूं और प्रयास करके उन राज्यों के देहाती इलाके में भी जाता हूं, ताकि आमआदमी की नब्ज पकड़ सकूं। पिछले कुछ दिनों में जब से जेएनयू विवाद उछला है, तब से जिन राज्यों के गांवों का मैंने दौरा किया वहां कहीं भी इस मुद्दे पर कोई बहस या चर्चा होते नहीं सुनी। गांवों के लोग अपनी बुनियादी जरूरतों को लेकर ही चिंतित रहते हैं। उन्हें आज भी नरेंद्र भाई मोदी से भारी उम्मीद है कि वे बिना देरी किए उनके खातों में 15-15 लाख रूपया जमा करवा देंगे, जो उन्होंने चुनाव के दौरान विदेशों से निकलवाने का वायदा किया था, पर अभी तक ऐसा नहीं हुआ। ये लोग अपनी पासबुक लेकर मुंबई जैसे बड़े शहर तक में बैंकों के पास जाते हैं और पूछते हैं कि हमारे खाते में 15 लाख रूपए आए या नहीं। प्रायः बैंक मैनेजर उनसे मजाक में कह देते हैं कि खाते में तो नहीं आए, आप जाकर मोदीजी से मांग लो। इससे ग्रामीणों को बहुत निराशा होती है। 2 साल के बाद भी जब कालेधन का हिस्सा उन्हें नहीं मिला, तब उन्हें लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है।
 
 प्रधानमंत्री के लिए ये संभव ही नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को धता-बताकर विदेशी बैंकों में जमा भारत के कालेधन को एक झटके में देश में ले आएं। खुदा न खास्ता अगर वे ऐसा करने में सफल हो भी जाते हैं, तो भी पैसा नागरिकों के बैंक खाते में तो जाएगा नहीं। वो तो राजकोश में जाएगा, जिसका उपयोग विकास योजनाओं में किया जा सकता है। इसलिए आवश्यक है कि प्रधानमंत्री ग्रामीण जनता को यह स्पष्टतः समझा दे कि विदेशों में जमा कालाधन जनता के बैंक खातों में आने वाला नहीं है। अगर ये धन देश में आ भी गया, तो विकास कार्यों में तो भले ही खर्च हो जाए। पर उसे निजी हाथों में नहीं सौंपा जा सकता। ऐसा करने से जो उनकी नकारात्मक छवि बन रही है, वो नहीं बनेगी।
 
 गांवों की समस्याएं उनके जीवन और अस्तित्व से जुड़ी हैं। जिनके समाधान हुए बिना ग्रामीण मतदाता प्रभावित होता नहीं दिख रहा। इसीलिए हर चुनाव में वो विपक्षी दल को समर्थन देता है। इस उम्मीद में कि, ‘तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही’। यह सही है कि देशभक्ति का मुद्दा बहुत अहम है। पर उससे भी ज्यादा अहम है गांवों की दशा सुधारना और रोजगार उपलब्ध कराना। जो बिना भारत की वैदिक ग्रामीण व्यवस्था की पुर्नस्थापना के कभी किया नहीं जा सकता। गांधीजी के ग्राम स्वराज का भी यही सपना था। विकास के आयातित मॉडल आजतक विफल रहे हैं। जिनसे देश की बहुसंख्यक आबादी का दुख दूर नहीं किया जा सका है। ऐसा किए बिना केवल देशभक्ति के नारे से विधानसभा चुनावों में वैतरणी पार हो पाएगी, उसमें हमें संदेह लगता है।   

Monday, March 14, 2016

अदालतें निर्णय लटकाती क्यों हैं ?

श्री श्री रविशंकर का विश्व सांस्कृतिक महोत्सव होना था, हो गया। प्रधानमंत्री ने भी आकर आयोजकों की पीठ थपथपाई। सुना है कि दुनियाभर के कलाकारों ने सामूहिक प्रस्तुति देकर इंद्रधनुषीय छटा बिखेरी। पर, इसको लेकर जो विवाद हुआ, उसे टाला जा सकता था। अगर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को आपत्ति थी, तो जब इस कार्यक्रम के विरोध में जनहित याचिका दायर हुई थी, तभी निर्णय दे देना था। इतने महीने तक इसे लटकाया क्यों गया ? जब आयोजकों का करोड़ों रूपया इसके आयोजन में लग चुका, तब उनकी गर्दन पर तलवार लटकाकर, जो तनाव पैदा किया गया, उससे किसका लाभ हुआ? क्या पर्यावरण संबंधी चिंता का निराकरण हो गया ? क्या श्री श्री रविशंकर को आगे से ऐसा प्रयास न करने का सबक मिल गया ? क्या इससे यह तय हो गया कि भविष्य में अब कभी इस तरह के आयोजन पर्यावरण की उपेक्षा करके कहीं नहीं होंगे ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
दुर्भाग्य की बात है कि इस देश में न्यायपालिका का रवैया अनेक मुद्दों पर विवाद से परे नहीं रहता। जिसका बहुत गलत संदेश लोगों के बीच जाता है। दोनों पक्षों की सुनवाई हो जाने के बाद भी विभिन्न अदालतों में अक्सर सुना जाता है कि माननीय न्यायाधीश ने फैसला सुरक्षित कर दिया। सांप्रदायिक विवाद या ऐसे किसी मुद्दे को लेकर, जहां समाज में दंगा, उपद्रव या हिंसा होने की संभावना हो, फैसले को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है, जब तक कि स्थिति सामान्य न हो जाए। पर ज्यादातर मामले जिनमें फैसले लटकाए जाते हैं, उनमें ऐसी कोई स्थिति नहीं होती। मसलन, बड़े औद्योगिक घरानों के विरूद्ध कर वसूली के मामले में सुनवाई होने के बाद फैसला तुरंत क्यों नहीं दिया जाता ?
भारत के मुख्य न्यायाधीश तक सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत की अदालतों में नीचे से ऊपर तक कुछ न कुछ भ्रष्टाचार व्याप्त है और मौजूदा कानून भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में कुछ भी कर पाने में अक्षम है। केवल एक रास्ता है कि संसद में महाभियोग चलाकर ही ऐसे न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। अक्सर सुनने में आता है कि विभिन्न अदालतों में भ्रष्ट न्यायाधीशों के दलाल काफी खुलेआम सौदे करते पाए जाते हैं। यहां तक कि अदालत के पुस्तकालयों के चपरासी तक ये बता देते हैं कि किस न्यायाधीश से फैसला लेने के लिए कौन-सा वकील करना फायदे में रहेगा। ऐसा सब न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता। पर जिन पर यह आरोप लागू होता है, उनका आजतक क्या बिगड़ा है ? आजादी के बाद भ्रष्टाचार के आरोप में कितने न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाया गया है ? उत्तर होगा नगण्य। ऐसे में फैसले लटकाने की प्रवृत्ति के पीछे अगर कोई निहित स्वार्थ हो, तो क्या इस संभावना को नकारा जा सकता है ? इस तरह के न्यायाधीश अक्सर ऐसे फैसले जिनमें एक पक्ष को भारी आर्थिक लाभ होने वाला हो, अपने सेवाकाल की समाप्ति के अंतिम दो-तीन सप्ताहों में ही करते हैं। यह प्रवृत्ति अपने आपमें संशय पैदा करने वाली होती है।
श्री श्री रविशंकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। विभिन्न देशों व धर्मों की सरकारें उनका स्वागत अभिनंदन करती रही हैं। उनके शिष्यों का भी विस्तार पूरी दुनिया में है। जब ऐसे व्यक्ति को भी अदालत के कारण आखिरी समय तक सांसत में जान डालकर रहना पड़ा हो, तो इस देश के आमआदमी की क्या हालत होती होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। विपक्ष का आरोप है कि श्री श्री रविशंकर के इस आयोजन के लिए सरकार ने अपनी ताकत का दुरूपयोग किया। फौज, का इस्तेमाल कार्यक्रम की तैयारी के लिए करवाया। जनता के दुख-दर्दों पर ध्यान न देकर सरकार फिजूल खर्ची करवा रही है।
तो विपक्ष से भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि कांग्रेस के शासनकाल में जम्मू कश्मीर के ऊधमपुर जिले में पटनीटाॅप के पहाड़ी क्षेत्र पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने योग के नाम पर कैसे विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था ? जबकि इन सारे भवनों का निर्माण फौज राज्य और वन विभाग के सभी कानूनों का उल्लंघन करके किया गया था। भारी सैन्यबल से सज्जित इस क्षेत्र में धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने हवाई अड्डे से लेकर पांच सितारा होटल और प्रतिबंधित वन क्षेत्र में लंबी-लंबी सड़कें तक कैसे बनवाईं, किसी ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ? प्रधानमंत्री राजीव गांधी व सोनिया गांधी ने इस अवैध निर्माण का आतिथ्य लेने में क्यों संकोच नहीं किया ? इसी तरह राजीव गांधी के समय में उत्सवों की एक बड़ी श्रृंखला देश-विदेशों में चली, जिसमें उनके मित्र राजीव सेठी जैसे लोगों ने खूब चांदी काटी। तब किसी ने यह प्रश्न नहीं किया कि इन उत्सवों से आमआदमी को क्या लाभ मिल रहा है ? दरअसल हर दौर में ऐसा होता आया है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसमें नया क्या है ?
इसलिए किसी ऐसे विवाद को लेकर चाहे अदालत की भूमिका हो या विपक्ष की, विरोध अगर सैद्धांतिक होगा और व्यापक जनहित में होगा, तो उसका हर कोई सम्मान करेगा। पर अगर विरोध के पीछे राजनैतिक या कोई अन्य स्वार्थ छिपे हों, तो वह केवल अखबार की सुर्खियों तक सीमित रहेगा, उससे कोई स्थाई परिवर्तन या सुधार कभी नहीं होगा।

Monday, March 7, 2016

देशद्रोह और राजद्रोह में क्या अंतर है ?

 जो देश के विखंडन की बात करे, आतंकवाद का समर्थन करें, सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा करे निःसंदेह वह देशद्रोही है और उसे देश के कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए। पर देशद्रोह और राजद्रोह में अंतर है। अंग्रेज सरकार ने आजादी की मांग करने वाले सरदार भगत सिंह जैसे युवा देशभक्तों पर राजद्रोह के मुकदमें चलाए थे। पर आजाद भारत में राजद्रोह के आरोप लगाकर किसी को प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। क्योंकि चुनी हुई सरकार भी केवल एक तिहाई मतों से ही सत्ता में आती है। यानि दो तिहाई मतदाताओं का उसे समर्थन प्राप्त नहीं होता। जाहिर है कि ऐसे मतदाता चुनी हुई सरकार से मतभेद रखते हैं। इसलिए लोकतंत्र में उन्हें अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने की छूट होती है। इसलिए सरकार का विरोध करना राजद्रोह होता है। राजद्रोह को देशद्रोह नहीं माना जा सकता और देशद्रोह करने वाले को माफ नहीं किया जा सकता।


आज देशद्रोह को लेकर देश में एक बहस चल रही है। जहां राजद्रोह और देशद्रोह के भेद को गड्ड-मड्ड कर दिया गया है। आम लोग दोनों में अंतर नहीं कर पा रहे। पर जो लोग इस फर्क को समझते हैं, उन्हें कोई भ्रांति नहीं है। वे मानते हैं कि भारत की संप्रभुता और सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। लेकिन साथ ही उनका यह भी कहना है कि जो खान माफिया खनन के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का नृशंसता से, रात-दिन अवैध खनन कर रहा है और उन इलाकों में रहने वाले जनजातीय लोगों के जीने के साधन छीनकर उन्हें महानगरों की गंदी बस्तियों में धकेल रहा है, क्या वे देशद्रोही नहीं है ? जो बिल्डर माफिया निर्बल वर्ग की जमीनों का ‘लैंड यूज’ बदलवाकर उन पर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर अरबों के कारोबार कर रहा है, क्या वे देशद्रोही नहीं है ? जो उद्योगपति बैंकों से लाखों रूपया कर्जा लेकर डकार जाते हैं, ब्याज देना तो दूर मूल तक वापिस नहीं करते और इस देश के आम लोगों की मेहनत की कमाई को हड़प कर गुलछर्रे उड़ाते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं ? सीमा पर जान की बाजी लगाने वाले सेना के नौजवानों के लिए खरीदे जाने वाले सामान और आयुध की खरीद में जो अरबों रूपये का कमीशन डकार जाते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं ? सारे देश में गरीब किसानों के नौजवान बेटों से पुलिस में या स्कूल में अध्यापक की नौकरी देने के लिए जो रिश्वत लेते हैं, क्या ये लोग देशद्रोही नहीं हैं ? भारत के मुख्य न्यायाधीश तक ये बात सार्वजनिक रूप से मान चुके हैं कि अदालतों में नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार व्याप्त है, तो क्या भ्रष्टाचार करने वाले जज देशद्रोही नहीं हैं ?

पर देशद्रोह के नाम पर आज देश में जो बहस चल रही है, उनमें ये सवाल नहीं उठाए जा रहे। इसलिए इस बहस का कोई दूरगामी परिणाम निकलने वाला नहीं है। यह भी एक और भावनात्मक मुद्दा बनकर कुछ ही दिनों में पानी के बुलबुले की तरह फूट जाएगा। क्योंकि बुनियादी सवाल खड़े किए बिना, उन पर बहस किए बिना, उनका समाधान खोजे बिना, ये मतभेद खत्म नहीं होगा। यह बात सरकार और उसके समर्थन में खड़े हर आदमी को समझ लेनी चाहिए, चाहे वो किसी भी दल का क्यों न हो। क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न आ जाए, उसके तौर-तरीके हालात में बहुत बुनियादी बदलाव नहीं ला पाते। इस विषय में वामपंथी दल भी कोई अपवाद नहीं है।

केरल और पश्चिम बंगाल में जहां लंबे समय तक जनता ने वामपंथी सरकार का काम देखा है, वहां की जनता यह कहने में कोई संकोच नहीं करती कि इन सरकारों ने आम आदमी की हैसियत में कोई सुधार नहीं किया, उसकी बदहाली दूर नहीं की। इतना ही नहीं इन सरकारों ने लोकतांत्रिक मूल्यों का भी सम्मान नहीं किया। नतीजतन वामपंथी सरकारों के विरूद्ध गुस्साई युवा पीढ़ी को नक्सलवाद का सहारा लेना पड़ा।

इस परिप्रेक्ष्य में जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया का, रिहाई के बाद का, भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। जहां एक तरफ उसने अपना वही तेज-तर्रार तेवर कायम रखा है और अपने तर्कों से स्वयं को निर्दोष बताते हुए मोदी सरकार की खुलकर खिंचाई की है, वहीं कन्हैया ने क्रांति का अपना लक्ष्य जोरदारी से उठाया है। जिससे उस पर लगे देशद्रोह के आरोप की धार भौंथरी हुई है। पर प्रश्न ये है कि मुट्ठी हवा में लहराकर मनुवाद का विरोध करने वाले वामपंथी कभी कठमुल्लेपन का और शरीयत का ऐसा ही जोरदार विरोध करते नजर क्यों नहीं आते, उनके इस इकतरफा रवैए से क्षुब्ध होकर ही वृह्द हिंदू समाज उन्हें देशद्रोही करार दे देता है। उधर वामपंथ की विचारधारा अपने जन्मस्थलों में ही असफल सिद्ध हो चुकी है। भारत में भी इसका प्रदर्शन कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया। इसके बावजूद क्या वजह है कि कन्हैया जैसे नौजवान केवल वामपंथ के रटे रटाए नारे लगाते हैं। पर उनके पास जनसमस्याओं के हल के लिए कोई ठोस समाधान उपलब्ध नहीं है। वे तो यह भी गारंटी नहीं ले सकते कि अगर कभी उनकी सरकार आ गई, तो उनके पास समाधान और विकास का कारामद ब्लू प्रिंट तैयार है ? ऐसा कोई ब्लू प्रिंट है ही नहीं, होता तो अब तक उसके परिणाम दुनिया में दिखाई देते। एक असफल विचारधारा को मरे सांप की तरह गले में लटकाने से कोई क्रांति नहीं होने जा रही।

रही बात व्यवस्था से लड़ने के लिए हिंसा अपनाने की, तो वैदिक संस्कृति का प्रमुख ग्रंथ भगवद् गीता ही हिंसक युद्ध की वकालत करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि आताताइयों, अत्याचारियों और देशद्रोह करने वालों से युद्ध लड़ना और उन्हें मार डालना, पुण्य प्राप्ति का मार्ग है, पाप का नहीं। माक्र्सवाद और गीतावाद के रास्ते अलग हो सकते हैं, पर लक्ष्य दोनों का समाज को सुखी और संपन्न बनाना है। अपने प्रयोग में विफल रहे माक्र्सवादियों को चाहिए कि अब कुछ दिन सनातन वैदिक ज्ञान और गीतावाद का प्रयोग करके देखें। उस ज्ञान का जिसका प्रकाश हर विषय पर समाधान देता है। पर उसे समझने और अपनाने का कोई ईमानदार प्रयास कभी हुआ नहीं। दूसरी तरफ दुनियाभर के देश खुलेआम या चोरी-छिपे सनातन वैदिक ज्ञान को आधार बनाकर भविष्य की संभावित जीवन पद्धति पर शोध कर रहे हैं। जबकि भारत में हम आज भी इस बहुमूल्य ज्ञान का उपहास उड़ा रहे हैं। इसे समझकर, विवेकपूर्ण तरीके से अपनाकर ही हम अपने समाज का भला कर सकते हैं।
 

Monday, February 29, 2016

पूरी शिक्षा पद्धति बदलनी चाहिए

एक तरफ जेएनयू के वामपंथी छात्र वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर मां दुर्गा पर अश्लील टिप्पणियांे वाले पर्चे बांटकर भारत की पारंपरिक आस्थाओं पर आघात करना अपना धर्म समझते हैं। दूसरी तरफ देश की शिक्षा व्यवस्था में निरंतर आ रहे ऐसे पतन से चिंतित मौलिक विचारक और चिंतक इस पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही भारत के लिए अभिशाप मानते हैं। क्योंकि पिछले साठ वर्षों में जो शिक्षा इस देश में दी जा रही है, वो अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गई है। आजादी के बाद पिछले 70 वर्षों में किसी राजनैतिक दल ये नहीं कहा कि वे चरित्रवान, मूल्यवान, नैतिक युवाओं का निर्माण करेंगे। वे कहते रहे कि विकास करेंगे और नौकरी देंगे। नौकरी दे नहीं पाते और विकास का मतलब क्या है? कैसा विकास, जिसमे चरित्र का विकास ही न हो ऐसी शिक्षा किस काम की? पर इसकी कोई बात कभी नहीं करता। आज देश में ज्यादातर विश्वविद्यालयों में नकल करके या रट्टा लगाकर केवल डिग्रियां बटोरी जा रही है। नाकारा युवाओं की फौज तैयार की जा रही है। जो न खेत के मतलब के हैं और न शहर के मतलब के हैं।

गत दिनों हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला में पुनरुत्थान विद्यापीठ के साझे प्रयास से देशभर के 500 से अधिक विद्वान अहमदाबाद में इकट्ठा हुए और शिक्षा व शोध की दिशा व दशा पर गहन चिंतन किया। इस सम्मेलन में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि शिक्षा में ऐसा बदलाव हो कि शिक्षा न सिर्फ लोगों को ज्ञानवान बनाये बल्कि चरित्रवान बनाये। उनकी कला उनके व्यक्तिव का विकास हो। उन्हें समाज के प्रति सम्वेदनशील बनाये और वे बिना किसी नौकरी की अपेक्षा के स्वावलम्भी हो कर भी जीवन जी सकें। समाज को दिशा दे सकें। समाज को सही रास्ते पर ले जा सकें। ऐसी शिक्षा का स्वरूप कैसा हो, इस बात पर गहन चिंतन हुआ। भारत में शिक्षा, राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता व धर्म कोई अलग-अलग विषय नहीं रहा। शिक्षा का मूल उद्देश्य आत्मबोध के लिए सुपात्र बनाना था। जो ब्रह्म विद्या का ही अंश था। जिसके लिए ऋषियों ने तप किया। ऐसे ज्ञान से मिली शिक्षा तप, आत्मबोध व राष्ट्र कल्याण की भावना से ओतप्रोत होती थी। आज की तरह केवल व्यवसाय पाने का और भौतिक सुख प्राप्त करने का कोई लक्ष्य ही नहीं था। पर आज शिक्षा को व्यवसाय बनाकर और रोजगार के लिए परिचय पत्र बनाकर हमने देश की कई पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया।

उधर हर वर्ग को समान शिक्षा की बात कर हमने भारत की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। एकलव्य का उदाहरण देकर भारत के इतिहास का मजाक उड़ाने वाले ये भूल जाते हैं कि जहां योग्य छात्रों को ऋषि परंपरा से शिक्षा मिलती थी, वहीं लोक जीवन में भी शिक्षा की समानांतर प्रक्रिया चलती रहती थी। रैदास, कबीर और नानक इस दूसरी परंपरा के शिक्षक थे, जो जूता गांठने, कपड़ा बुनने व खेती करने के साथ जीवन मूल्य की शिक्षा देते थे। आज दोनों ही परंपरा लुप्त हो गई।

जब तक राज्य, समाज और शिक्षा तीनों की तासीर एक जैसी नहीं होगी देश का उत्थान नहीं हो सकता। हम पूर्व और पश्चिम का समन्वय करके भारत के लिए उपयोगी शिक्षा पद्धति नहीं बना सकते। ये तो ऐसा होगा कि मानो बेर और केले के पेड़ को साथ-साथ लगाकर उनसे कहें कि आप दोनों आपसी प्रेम से रहो। ये कैसे संभव है ? बेर का पेड़ जब झूमेगा तो केले के पत्ते फाड़ेगा ही। कहां भोगवादी पश्चिमी शिक्षा और कहां आत्मबोध वाली तपनिष्ठ भारतीय शिक्षा।

वैसे भी शिक्षा के स्वरूप को लेकर भारत से ज्यादा संकट आज पश्चिम में है। पश्चिम भौतिकता की दौड़ में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचकर दिशाहीन हो गया है। इसलिए पश्चिम के विद्वान विज्ञान से ज्ञान की ओर व भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर रूख कर रहे हैं। जबकि हम अपनी ज्ञान की परंपरा छोड़कर विज्ञान के मोह में दौड़ रहे हैं। इस दौड़ में अब तक तो हम विफल रहे हैं। न तो हमने पश्चिम जैसी भौतिक उन्नति प्राप्त की, न प्राप्त करने की संभावना हैं और न उस्से समाज से सुखी होने वाला है। इस शिक्षा से हम सामथ्र्यवान पीढ़ी का निर्माण भी नहीं कर पाए। पूरी शिक्षा हमारे समाज पर अभिशाप बनकर रह गई है। एक ही उदाहरण काफी होगा। आजतक देश में कितने अरब रूपये पीएचडी के नाम खर्च किए गए ? पर इस तथाकथित शोध से देश की कितनी समस्याओं का हल हुआ ? उत्तर होगा नगण्य। यानि शोध के नाम पर ढकोसला हो रहा है या पश्चिम के शोध को नाम बदलकर पेश किया जा रहा है।

आजकल अखबार इन खबरों से भरे पड़े हैं कि हर परीक्षा केंद्र में ठेके पर नकल कराई जा रही है। प्रांतों की छोड़ो राजधानी दिल्ली के कालेजों तक में कक्षा में पढ़ाई नहीं होती। छात्र दाखिला लेने और फिर परीक्षा देने आते हैं। ऐसी शिक्षा को देश का करदाता कब तक और क्यों ढ़ोए ? इसलिए इस पूरी शिक्षा व्यवस्था के अमूल-चूल परिवर्तन का समय आ गया है। शिक्षा के उद्देश्य, उसकी सार्थकता, उसकी समाज के प्रति उपयोगिता व उसमें वर्तमान समस्याओं के समाधान की क्षमता पर स्पष्ट दृष्टि की जरूरत है। जिसके लिए देश में आज पर्याप्त योग्य चिंतक और अनुभवी शिक्षा शास्त्री मौजूद हैं। जिन्होंने अपने स्तर पर देशभर में गत दशकों में नूतन प्रयोग करके सार्थक समाधान खोजे हैं। आवश्यकता है राजनैतिक इच्छाशक्ति की और क्रांतिकारी सोच के लिए हिम्मत की। एक तरफ तो यह कार्य मानव संसाधन मंत्रालय को करना है। बिना इस बात की परवाह किए उस पर भगवाकरण का आरोप लगेगा। दूसरी तरफ यह कार्य उन लोगों को करना है, जो शिक्षा में बदलाव की बात करते हैं, पर औपनिवेशिक्षक सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल पाते।

उधर आजकल बाबा रामदेव पूरे देश में एक हजार स्कूल आचार्य कुल के नाम से स्थापित करने की तैयारी में है। उनमें जैसी ऊर्जा व जीवटता है, वे ये करके भी दिखा देंगे। पर क्या उस शिक्षा से भारत का आध्यात्मिक और नैतिक उत्थान हो पाएगा ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे गोरे साहब की जगह काले साहब आ गये, वैसे ही अंग्रेजी शिक्षा की जगह गुरूकुल शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति होकर रह जाए। क्योंकि भारत की शिक्षा पद्धति में मुनाफे का कोई खाना हो ही नहीं सकता। यह सोचना गलत है कि बिना मुनाफे की शिक्षा का माॅडल संभव नहीं है। संभव है अगर शिक्षा में गुणवत्ता है। केवल जोखिम उठाने के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है।