शुक्रवार को दिल्ली के जंतर मंतर पर किसान पंचायत में किसान नेताओं के अनुशासन ने सरकार को चैंका दिया। सबको पता है कि देश में किसानों की क्या हालत है। लग रहा था कि किसानों के इस आयोजन में किसान नेताओं के तेवर उग्र होंगे। लेकिन कारण जो भी रहे हों, किसानों ने अपनी पंचायत में गंभीरता से सोच विचार किया। इस पंचायत में किसानों ने एक बुद्धिमत्तापूर्ण मांग रखी कि बुंदेलखंड पर चैतरफा संकट के मद्देनजर भारत सरकार बुंदेलखंड पर श्वेतपत्र जारी करे। किसानांे ने पानी के संकट को लेकर सरकार को आगाह किया और याद दिलाया कि ऐसी परिस्थितियों में सरकारें हमेशा अतिरिक्त प्रबंध करती आई हैं। लेकिन इस साल यह काम उतनी शिद्दत से होता नहीं दिख रहा है।
श्वेतपत्र जारी करने की मांग दसियों साल बाद सुनाई दी है। ऐसी मांग पहले राजनीतिक क्षे़त्र में विपक्षी दल किया करते थे। याद पड़ता है कि 27 साल पहले सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान जब सफेद हाथी साबित होते जा रहे थे, तब सार्वजनिक क्षेत्र की स्थिति पर श्वेतपत्र जारी करने की मांग उठी थी। कुछ ही साल बाद पूरी दुनिया में ही निजीकरण और वैश्वीकरण का ऐसा दौर चला कि सार्वजनिक क्षेत्र का वजन कम होता चला गया।
बहरहाल जंतर मंतर पर किसानों की तरफ से उठी इस मांग को अगर गौर से देखें तो वाकई यह बड़े काम की मांग साबित हो सकती है। क्योंकि इतने बड़े देश में और अलग अलग भौगोलिक मिजाज के इलाकों के होने के कारण वाकई कोई एक सामान्य राष्ट्रीय नीति या कार्यक्रम लागू करना मुश्किल होता है। इस लिहाज से किसानों की तरफ से यह मांग करना जायज तो है ही सरकार के लिए भी बहुत काम की है। अभी आठ साल पहले ही बुंदेलखंड में जब मुश्किल हालात पैदा हुए थे तब उस समय की केंद्र सरकार को अपने तमाम घोड़े बुंदेलखंड की तरफ दौड़ाने पड़े थे। और तब पता चला था कि वहां के गांवों और किसानों की समस्या इतनी जटिल है कि तुरत-फुरत कोई इंतजाम नहीं किया जा सकता। यह वही दौर है जब बुंदेलखंड के लिए सात हजार करोड़ रूपए के पैकेज का एलान किया गया था।
बुंदेलखंड के तेरह जिलों के लिए सात हजार करोड़ रूपए से क्या-क्या हो सकता है, इसका हिसाब लगाए बगैर ही उस मदद का फौरी एलान हुआ था। उप्र और मप्र यानी दो प्रदेशों के भौगोलिक क्षेत्र में आने वाले बुंदेलखंड में यह रकम कोई भी असर नहीं डाल पाई। हां, इसमें कोई शक नहीं कि क्षेत्र में तरह-तरह के कामों से बुंदेलखंड के बदहाल लोगों के हाथों को कुछ काम मुहैया हो गया था और इससे उन्हें फौरी राहत मिल गई। लेकिन जल्द ही यह पता चल गया कि किसानों की समस्या का आकार प्रकार हम जान नहीं पाए है और तभी यह समझ में आया था कि खेती किसानी के बारे में पहले हमें तथ्यों को जमा करना पड़ेगा। यही बात एक अपै्रल को जंतर मतर पर आयोजित किसान पंचायत में हुई।
श्वेतपत्र की मांग के अलावा किसानों ने अपनी पंचायत में जल प्रबंधन पर भी सोच विचार किया। इस मुददे पर विचार-विमर्श के लिए किसान नेताओं ने बुंदेलखंड की जल समस्या पर शोधकार्य कर चुके कुछ अनुसंधानकर्ताओं को भी आमंत्रित कर रखा था। इन जल विशेषज्ञों को किसानों की तरफ सेे यह सुझाव सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि अब नई सिंचाई प्रणालियों पर निर्भर रहना ही अकेला विकल्प नहीं है। किसानों का सुझाव था कि पुरानी जल प्रणालियों और पुराने तालाबों और जलाशयों को भी पुनर्जीवित करना पड़ेगा। उनकी चिंता गांवों में पाट दिए गए पुराने तालाबों को फिर से जीवित करने की थी। बस वे नहीं सोच पाए तो यह नहीं सोच पाए कि यह काम किया कैसे जा सकता है। सभी ने माना कि यह अंदाजा नहीं पड़ पा रहा है कि समग्र रूप से ऐसा काम करने के लिए किस पैमाने पर मुहिम छेड़ना पडे़गी। तभी यह तय हुआ कि सबसे पहले सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग की जाए। वैसे यह बात भी एक तथ्य के रूप में है कि देश में साल दर साल बढ़ते जा रहे संकट को देखते हुए पिछलेे दो दशकों से कई स्वयंसेवी संस्थाएं जल प्रबंधन के क्षेत्र में विशेषज्ञता के साथ काम कर रही है। जाहिर है अब यह समय भी आ गया लगता है कि ऐसे कामों की संजीदगी से समीक्षा शुरू की जाए।
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि योजना या कार्यक्रम बनाने का काम सामाजिक स्तर पर उतना संभव नहीं है। जो स्वयंसेवी संस्थाएं अपने स्तर पर ऐसे कामों में लगी हैं, उनकी सीमाओं का अंदाजा भी हो चुका है। ये सस्थाएं अपनी सफलताओं से एक माॅडल बनाकर तो दे सकती हैं, लेकिन 130 करोड़ आबादी की इस विकट समस्या के समाधान के लिए कार्यक्रम बनाकर लागू नहीं कर सकती। यहीं यह बात उठती है कि सरकारें सामाजिक स्तर पर किए गए सफल कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए कम से कम उन्हें संसाधन मुहैया कराने की व्यवस्था तो बना सकती है। खासतौर पर देशभक्ति के प्रदर्शन के लिए आज अचानक बने माहौल में क्या जल प्रबंधन के सामाजिक कार्यों में लगीं स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करके देश के निर्माण की नई मुहिम नहीं छेड़ी जा सकती।
श्वेतपत्र जारी करने की मांग दसियों साल बाद सुनाई दी है। ऐसी मांग पहले राजनीतिक क्षे़त्र में विपक्षी दल किया करते थे। याद पड़ता है कि 27 साल पहले सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान जब सफेद हाथी साबित होते जा रहे थे, तब सार्वजनिक क्षेत्र की स्थिति पर श्वेतपत्र जारी करने की मांग उठी थी। कुछ ही साल बाद पूरी दुनिया में ही निजीकरण और वैश्वीकरण का ऐसा दौर चला कि सार्वजनिक क्षेत्र का वजन कम होता चला गया।
बहरहाल जंतर मंतर पर किसानों की तरफ से उठी इस मांग को अगर गौर से देखें तो वाकई यह बड़े काम की मांग साबित हो सकती है। क्योंकि इतने बड़े देश में और अलग अलग भौगोलिक मिजाज के इलाकों के होने के कारण वाकई कोई एक सामान्य राष्ट्रीय नीति या कार्यक्रम लागू करना मुश्किल होता है। इस लिहाज से किसानों की तरफ से यह मांग करना जायज तो है ही सरकार के लिए भी बहुत काम की है। अभी आठ साल पहले ही बुंदेलखंड में जब मुश्किल हालात पैदा हुए थे तब उस समय की केंद्र सरकार को अपने तमाम घोड़े बुंदेलखंड की तरफ दौड़ाने पड़े थे। और तब पता चला था कि वहां के गांवों और किसानों की समस्या इतनी जटिल है कि तुरत-फुरत कोई इंतजाम नहीं किया जा सकता। यह वही दौर है जब बुंदेलखंड के लिए सात हजार करोड़ रूपए के पैकेज का एलान किया गया था।
बुंदेलखंड के तेरह जिलों के लिए सात हजार करोड़ रूपए से क्या-क्या हो सकता है, इसका हिसाब लगाए बगैर ही उस मदद का फौरी एलान हुआ था। उप्र और मप्र यानी दो प्रदेशों के भौगोलिक क्षेत्र में आने वाले बुंदेलखंड में यह रकम कोई भी असर नहीं डाल पाई। हां, इसमें कोई शक नहीं कि क्षेत्र में तरह-तरह के कामों से बुंदेलखंड के बदहाल लोगों के हाथों को कुछ काम मुहैया हो गया था और इससे उन्हें फौरी राहत मिल गई। लेकिन जल्द ही यह पता चल गया कि किसानों की समस्या का आकार प्रकार हम जान नहीं पाए है और तभी यह समझ में आया था कि खेती किसानी के बारे में पहले हमें तथ्यों को जमा करना पड़ेगा। यही बात एक अपै्रल को जंतर मतर पर आयोजित किसान पंचायत में हुई।
श्वेतपत्र की मांग के अलावा किसानों ने अपनी पंचायत में जल प्रबंधन पर भी सोच विचार किया। इस मुददे पर विचार-विमर्श के लिए किसान नेताओं ने बुंदेलखंड की जल समस्या पर शोधकार्य कर चुके कुछ अनुसंधानकर्ताओं को भी आमंत्रित कर रखा था। इन जल विशेषज्ञों को किसानों की तरफ सेे यह सुझाव सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि अब नई सिंचाई प्रणालियों पर निर्भर रहना ही अकेला विकल्प नहीं है। किसानों का सुझाव था कि पुरानी जल प्रणालियों और पुराने तालाबों और जलाशयों को भी पुनर्जीवित करना पड़ेगा। उनकी चिंता गांवों में पाट दिए गए पुराने तालाबों को फिर से जीवित करने की थी। बस वे नहीं सोच पाए तो यह नहीं सोच पाए कि यह काम किया कैसे जा सकता है। सभी ने माना कि यह अंदाजा नहीं पड़ पा रहा है कि समग्र रूप से ऐसा काम करने के लिए किस पैमाने पर मुहिम छेड़ना पडे़गी। तभी यह तय हुआ कि सबसे पहले सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग की जाए। वैसे यह बात भी एक तथ्य के रूप में है कि देश में साल दर साल बढ़ते जा रहे संकट को देखते हुए पिछलेे दो दशकों से कई स्वयंसेवी संस्थाएं जल प्रबंधन के क्षेत्र में विशेषज्ञता के साथ काम कर रही है। जाहिर है अब यह समय भी आ गया लगता है कि ऐसे कामों की संजीदगी से समीक्षा शुरू की जाए।
इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि योजना या कार्यक्रम बनाने का काम सामाजिक स्तर पर उतना संभव नहीं है। जो स्वयंसेवी संस्थाएं अपने स्तर पर ऐसे कामों में लगी हैं, उनकी सीमाओं का अंदाजा भी हो चुका है। ये सस्थाएं अपनी सफलताओं से एक माॅडल बनाकर तो दे सकती हैं, लेकिन 130 करोड़ आबादी की इस विकट समस्या के समाधान के लिए कार्यक्रम बनाकर लागू नहीं कर सकती। यहीं यह बात उठती है कि सरकारें सामाजिक स्तर पर किए गए सफल कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए कम से कम उन्हें संसाधन मुहैया कराने की व्यवस्था तो बना सकती है। खासतौर पर देशभक्ति के प्रदर्शन के लिए आज अचानक बने माहौल में क्या जल प्रबंधन के सामाजिक कार्यों में लगीं स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करके देश के निर्माण की नई मुहिम नहीं छेड़ी जा सकती।
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