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Monday, March 14, 2016

अदालतें निर्णय लटकाती क्यों हैं ?

श्री श्री रविशंकर का विश्व सांस्कृतिक महोत्सव होना था, हो गया। प्रधानमंत्री ने भी आकर आयोजकों की पीठ थपथपाई। सुना है कि दुनियाभर के कलाकारों ने सामूहिक प्रस्तुति देकर इंद्रधनुषीय छटा बिखेरी। पर, इसको लेकर जो विवाद हुआ, उसे टाला जा सकता था। अगर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को आपत्ति थी, तो जब इस कार्यक्रम के विरोध में जनहित याचिका दायर हुई थी, तभी निर्णय दे देना था। इतने महीने तक इसे लटकाया क्यों गया ? जब आयोजकों का करोड़ों रूपया इसके आयोजन में लग चुका, तब उनकी गर्दन पर तलवार लटकाकर, जो तनाव पैदा किया गया, उससे किसका लाभ हुआ? क्या पर्यावरण संबंधी चिंता का निराकरण हो गया ? क्या श्री श्री रविशंकर को आगे से ऐसा प्रयास न करने का सबक मिल गया ? क्या इससे यह तय हो गया कि भविष्य में अब कभी इस तरह के आयोजन पर्यावरण की उपेक्षा करके कहीं नहीं होंगे ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
दुर्भाग्य की बात है कि इस देश में न्यायपालिका का रवैया अनेक मुद्दों पर विवाद से परे नहीं रहता। जिसका बहुत गलत संदेश लोगों के बीच जाता है। दोनों पक्षों की सुनवाई हो जाने के बाद भी विभिन्न अदालतों में अक्सर सुना जाता है कि माननीय न्यायाधीश ने फैसला सुरक्षित कर दिया। सांप्रदायिक विवाद या ऐसे किसी मुद्दे को लेकर, जहां समाज में दंगा, उपद्रव या हिंसा होने की संभावना हो, फैसले को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है, जब तक कि स्थिति सामान्य न हो जाए। पर ज्यादातर मामले जिनमें फैसले लटकाए जाते हैं, उनमें ऐसी कोई स्थिति नहीं होती। मसलन, बड़े औद्योगिक घरानों के विरूद्ध कर वसूली के मामले में सुनवाई होने के बाद फैसला तुरंत क्यों नहीं दिया जाता ?
भारत के मुख्य न्यायाधीश तक सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत की अदालतों में नीचे से ऊपर तक कुछ न कुछ भ्रष्टाचार व्याप्त है और मौजूदा कानून भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में कुछ भी कर पाने में अक्षम है। केवल एक रास्ता है कि संसद में महाभियोग चलाकर ही ऐसे न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। अक्सर सुनने में आता है कि विभिन्न अदालतों में भ्रष्ट न्यायाधीशों के दलाल काफी खुलेआम सौदे करते पाए जाते हैं। यहां तक कि अदालत के पुस्तकालयों के चपरासी तक ये बता देते हैं कि किस न्यायाधीश से फैसला लेने के लिए कौन-सा वकील करना फायदे में रहेगा। ऐसा सब न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता। पर जिन पर यह आरोप लागू होता है, उनका आजतक क्या बिगड़ा है ? आजादी के बाद भ्रष्टाचार के आरोप में कितने न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाया गया है ? उत्तर होगा नगण्य। ऐसे में फैसले लटकाने की प्रवृत्ति के पीछे अगर कोई निहित स्वार्थ हो, तो क्या इस संभावना को नकारा जा सकता है ? इस तरह के न्यायाधीश अक्सर ऐसे फैसले जिनमें एक पक्ष को भारी आर्थिक लाभ होने वाला हो, अपने सेवाकाल की समाप्ति के अंतिम दो-तीन सप्ताहों में ही करते हैं। यह प्रवृत्ति अपने आपमें संशय पैदा करने वाली होती है।
श्री श्री रविशंकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। विभिन्न देशों व धर्मों की सरकारें उनका स्वागत अभिनंदन करती रही हैं। उनके शिष्यों का भी विस्तार पूरी दुनिया में है। जब ऐसे व्यक्ति को भी अदालत के कारण आखिरी समय तक सांसत में जान डालकर रहना पड़ा हो, तो इस देश के आमआदमी की क्या हालत होती होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। विपक्ष का आरोप है कि श्री श्री रविशंकर के इस आयोजन के लिए सरकार ने अपनी ताकत का दुरूपयोग किया। फौज, का इस्तेमाल कार्यक्रम की तैयारी के लिए करवाया। जनता के दुख-दर्दों पर ध्यान न देकर सरकार फिजूल खर्ची करवा रही है।
तो विपक्ष से भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि कांग्रेस के शासनकाल में जम्मू कश्मीर के ऊधमपुर जिले में पटनीटाॅप के पहाड़ी क्षेत्र पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने योग के नाम पर कैसे विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था ? जबकि इन सारे भवनों का निर्माण फौज राज्य और वन विभाग के सभी कानूनों का उल्लंघन करके किया गया था। भारी सैन्यबल से सज्जित इस क्षेत्र में धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने हवाई अड्डे से लेकर पांच सितारा होटल और प्रतिबंधित वन क्षेत्र में लंबी-लंबी सड़कें तक कैसे बनवाईं, किसी ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ? प्रधानमंत्री राजीव गांधी व सोनिया गांधी ने इस अवैध निर्माण का आतिथ्य लेने में क्यों संकोच नहीं किया ? इसी तरह राजीव गांधी के समय में उत्सवों की एक बड़ी श्रृंखला देश-विदेशों में चली, जिसमें उनके मित्र राजीव सेठी जैसे लोगों ने खूब चांदी काटी। तब किसी ने यह प्रश्न नहीं किया कि इन उत्सवों से आमआदमी को क्या लाभ मिल रहा है ? दरअसल हर दौर में ऐसा होता आया है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसमें नया क्या है ?
इसलिए किसी ऐसे विवाद को लेकर चाहे अदालत की भूमिका हो या विपक्ष की, विरोध अगर सैद्धांतिक होगा और व्यापक जनहित में होगा, तो उसका हर कोई सम्मान करेगा। पर अगर विरोध के पीछे राजनैतिक या कोई अन्य स्वार्थ छिपे हों, तो वह केवल अखबार की सुर्खियों तक सीमित रहेगा, उससे कोई स्थाई परिवर्तन या सुधार कभी नहीं होगा।