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Monday, July 5, 2021

न्यायपालिका को नियंत्रित नहीं किया जा सकता : सीजेआई


भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन वी रमना ने ज़ूम के माध्यम से सारे देश को संबोधित करते हुए अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही कि,
न्यायपालिका को पूर्णतः स्वतंत्र होना चाहिए। इसे विधायिका या कार्यपालिका के ज़रिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। ऐसा किया गया तो ‘क़ानून का शासन’ छलावा बन कर रह जाएगा। उनके ये विचार सूखी ज़मीन पर वर्षा की फुहार जैसे हैं।


न्यायमूर्ति रमना का ये प्रहार सीधे-सीधे देश की कार्यपालिका और विधायिका पर है, जिसके आचरण ने हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को जितना धूमिल किया है उतना पहले कभी नहीं हुआ था। सेवानिवृत हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री सथाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया जाना और इसी तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे श्री गोगोई को राज्य सभा का सदस्य बनाना सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में एक बदनुमा दाग की तरह याद किया जाएगा। 



पहले की सरकारों ने भी न्यायाधीशों को अपने पक्ष में करने के लिए परोक्ष रूप से और कभी-कभी प्रगट रूप से भी प्रलोभन दिए हैं। पर वे इतनी निर्लजता से नहीं दिए गए कि आम जनता के मन में देश के सबसे बड़े न्यायधीशों के आचरण के प्रति ही संदेह पैदा हो जाए। आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा एक अनैतिक कार्य और हुआ था जब कांग्रेस पार्टी ने भारत के मुख्य न्यायधीश रहे श्री रंगनाथ मिश्रा को अपनी पार्टी की टिकट पर चुन कर राज्य सभा का सदस्य बनाया था। हालाँकि तब कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं थी। इसलिए मिश्रा का चुनाव सथाशिवम और गोगोई की तरह सत्तारूढ़ दल की तरफ़ से उनकी ‘सरकार के प्रति सेवाओं का पुरस्कार’ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में जो कारण था जो वैसा ही था जिसके कारण अब प्रधान मंत्री मोदी ने इन दो पूर्व मुख्य न्यायधीशों को पुरस्कृत किया है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में दिल्ली में हुए दंगों की जाँच के लिए प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने एक सदस्यीय ‘रंगनाथ मिश्रा आयोग’ बनाया था। जिसने उन दंगों में सरकार की भूमिका को ‘क्लीन चिट’ दे दी थी। उसका ही पुरस्कार उन्हें 1998 में मिला। 


तो 75 साल के इतिहास में सर्वोच्च न्यायालय के 220 रहे न्यायधीशों में ये कुल तीन अपवाद हुए हैं। इससे संदेश क्या जाता है, कि इन तीन न्यायधीशों ने कुछ ऐसे निर्णय दिए होंगे जो न्याय की कसौटी पर खरे नहीं रहे होंगे। उन निर्णयों को देने का मात्र उद्देश्य उस समय के प्रधान मंत्री को खुश करना रहा होगा। इसीलिए इन्हें यह इनाम मिला। इससे इन तीनों पूर्व न्यायधीशों की व्यक्तिगत छवि भी धूमिल हुई और सर्वोच्च न्यायालय की निष्पक्षता पर भी संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। 


तो क्या यह माना जाए कि न्यायमूर्ति रमना का यह सम्बोधन देश की कार्यपालिका और विधायिका को एक चेतावनी है, जो क्रमशः न्यायपालिका पर भी अपना शिकंजा कसने की जुगत में रही है। लोकतंत्र की मज़बूती के लिए उसके चारों स्तम्भों का सशक्त होना, स्वतंत्र होना और बाक़ी तीन स्तम्भों के प्रति जवाबदेह होना आवश्यक होता है। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भरपूर वकालत तो करते हैं पर उनके कार्यकाल में इस स्वतंत्रता का जितना हनन हुआ है उतना मैंने गत 35 वर्षों के अपने पत्रकारिता जीवन में, 18 महीने के आपातकाल को छोड़ कर, कभी नहीं देखा। यह बहुत ख़तरनाक रवैया है, क्योंकि इससे लोकतंत्र लगातार कमजोर हो रहा है और राज्यों तक में अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं। सवाल आप पूछने नहीं देंगे, प्रेसवार्ता आप करेंगे नहीं, केवल बार-बार देश को इकतरफ़ा संबोधन करते जाएँगे, तो स्वाभाविक है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो लोकतंत्र और जनता के लिए बहुत घातक स्थिति होगी।  


न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अक्षुण रखने से सरकार देश की करोड़ों जनता का विश्वास अर्जित करती हैं। इससे आम आदमी को न्याय मिलने की आशा बनी रहती है। इससे सरकार में भी न्यायपालिका का परोक्ष डर बना रहता है। यही स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है। जब सरकार ऐसे काम करती है जिसमें देश के संसाधनों का या राष्ट्रहित का स्वार्थवश या अन्य अनैतिक कारणों से बलिदान होता है, तभी सरकारें अपनी कमजोरी या भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए न्यायपालिका का सहारा लेती है। 


दूसरी तरफ़ यह भी महत्वपूर्ण है कि न्यायधीशों को अपनी गरिमा की खुद चिंता करनी चाहिए। जिस तरह समाज के अन्य क्षेत्रों में नैतिक पतन हुआ है उससे न्यायपालिका भी अछूती नहीं रही है। यह बात अनेक उदाहरणों से सिद्ध की जा सकती है। आम भारतीय जिसका न्याय व्यवस्था से कभी भी पाला पड़ा है उसने इस पीड़ा को अनुभव किया होगा। हाँ अपवाद हर जगह होते हैं। 1997 और 2000 में मैंने भारत के दो पदासीन मुख्य न्यायधीशों व अन्य के अनैतिक और भ्रष्ट आचरण को सप्रमाण उजागर किया था तो हफ़्तों देश की संसद, मीडिया और अधिवक्ताओं के बीच एक तूफ़ान खड़ा हो गया था। सबको हैरानी हुई कि अगर इतने ऊँचे संवैधानिक पद पर बैठ कर भी अगर कोई ऐसा आचरण करता है तो उससे न्याय मिलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? 


इस दिशा में भी न्यायपालिका में गम्भीर चिंतन और ठोस प्रयास होने चाहिए। सन 2000 में भारत के मुख्य न्यायधीश एस पी भारूचा ने केरल के एक सेमिनार में बोलते हुए कहा था कि ‘सर्वोच्च न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार है, लेकिन मौजूदा क़ानून उससे निपटने के लिए नाकाफ़ी हैं। भ्रष्ट न्यायधीशों को सेवा में रहने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।’ उनकी इस बात को आज 21 साल हो गए, लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया। क्या उम्मीद की जाए, कि न्यायमूर्ति रमना व उनके सहयोगी जज इस विषय में भी ठोस कदम उठाएँगे? 


भारत की बहुसंख्यक जनता आज भारी कष्ट और अभावों में जी रही है। उसका आर्थिक स्तर तेज़ी से गिर रहा है। जबकि मुट्ठी भर औद्योगिक घरानों की सम्पत्ति दिन दूनी और रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रही है। इससे समाज में बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है जिसका परिणाम भयावह हो सकता है। इन हालातों में अगर गरीब को न्याय भी न मिले और वो हताशा में क़ानून अपने हाथ में ले, तो दोष किसका होगा? न्यायपालिका में सुधार के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग, बड़े-बड़े न्यायविद और क़ानून पढ़ाने वाले समय-समय पर अपने सुझाव देते रहे हैं, पर उनका क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। सरकारें न्यायपालिका को मज़बूत नहीं होने देना चाहती और दुर्भाग्य से न्यायपालिका भी अपने आचरण में बुनियादी बदलाव लाने को इच्छुक नहीं रही है। क्या माना जाए कि आज़ादी के 75वे साल में न्यायमूर्ति रमना इस दिशा में कुछ पहल करेंगे?  

Friday, August 21, 2020

प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का मामला, मेरी नज़र में : विनीत नारायण

सर्वोच्च अदालत में पिछले हफ़्ते जो कुछ हुआ उस पर मीडिया ने मेरी प्रतिक्रिया चाही है। मीडिया और राजनीतिक क्षेत्रों में यह जानी हुई बात है कि 1997 से 2000 तक मैंने उस समय के कुछ मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई थी। अवमानना के मामले में मुझे भी लपेटा गया था पर फिर छोड़ दिया गया। बाद में मैंने हिन्दी में एक किताब लिखी थी, ‘
अदालत की अवमानना कानून का दुरुयपोग’ (पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)। इस मामले में मेरी राय यें है; 

1. न्यायपालिका अगर अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर नाचने लगे तो देश का बुरा हाल हो जाएगा। 135 करोड़ लोग बर्बाद हो जाएंगे। लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ ढह जाएगा। बड़े पैमाने पर अन्याय होगा, कमजोरों का शोषण किया जाएगा और देश को लूटा जाएगा। हम तानाशाही और फिर उसके बाद की अराजकता, हिंसा तथा देश बड़े पैमाने पर बर्बादी की ओर बढ़ेंगे। जैसा दुनिया भर के इतिहास में हुआ है। किसी भी तानाशाह ने कभी आसानी से सत्ता नहीं छोड़ी बल्कि सबका हिंसक अंत हुआ है। दुर्भाग्य से हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका के कुछ सदस्य भी गलत कारणों से खबरों में रहे हैं।    


2. सवाल है कि न्यायपालिका के सदस्यों को गलत काम या भ्रष्टाचार क्यों करना चाहिए अथवा सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक इच्छा के आगे समर्पण क्यों करना चाहिए? खासकर तब जब इस देश के लोगों ने उन्हें एक सम्मानित जीवन जीने के लिए आवश्यक सब कुछ दिया है। क्या वे यह भूल गए हैं कि बहुत सारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों  के हाथों कितनी यातना झेली है और अपना जीवन बलिदान किया है। क्या वे अपने परिवारों के लिए अच्छा जीवन सुनिश्चित नहीं कर सकते थे  ? पर इस गरीब देश के लाखों सामान्य लोगों का  अच्छा जीवन सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने सब कुछ त्याग दिया ।


3. इसके बावजूद अगर न्यायपालिका के कुछ सदस्य अनैतिक कार्रवाई के दोषी पाए जाते हैं तो ‘उन्हें नौकरी से निकाल देना चाहिए’। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसपी भरुचा ने कोवलम में सन 2002 में एक सेमिनार को संबोधित करते हुए ये कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मौजूदा कानून नाकाफ़ी हैं’।


4. दुर्भाग्य से हमारे सांसद इस कानून को बदलने के इच्छुक नहीं है और भ्रष्ट जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने का नैतिक साहस भी नहीं दिखाते हैं। क्योंकि उनमें से अनेकों का अपना चाल चलन भी दागदार है। इसलिए देश एक मुश्किल स्थिति में फंसा हुआ है।


5. इस विषम स्थिति को मैंने भी झेला था। 1997 में जब मैंने यह खुलासा किया कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा ‘जैन हवाला कांड’ के आरोपी जैन बंधुओं से मिले थे, तो देश में हंगामा मच गया था। भारत के किसी भी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इससे पहले किसी ने ऐसा खुलासा कभी नहीं किया था। इस खुलासे से घबराए न्यायमूर्ति वर्मा ने खुली अदालत में वो सब स्वीकार कर लिया जो आरोप मैंने उन्हें संबोधित अपने खुले पत्र में (12 जुलाई 1997) लगाए थे। उन्होंने माना कि एक जेंटलमैन लगातार उनपर और उनके साथी न्यायमूर्ति एस.सी. सेन पर हवाला केस को रफ़ा दफ़ा करने के लिए लगातार दबाव डाल रहा है।  उनकी इस स्वीकारोक्ति पर अदालतों, संसद व मीडिया में हंगामा मच गया। तथाकथित जेंटलमैन का नाम बताने की देशव्यापी मांग के बावजूद न्यायमूर्ति वर्मा ने ना तो उसकी पहचान बताई ,ना ही उसे अदालत की अवमानना की सजा दी। जबकि इस व्यक्ति ने सर्वोच्च अदालत की अब तक की सबसे बड़ी अवमानना की थी। उन्होंने क्यों ऐसा किया, क्या कोई जवाब दे सकता है ?


6.  दुर्भाग्य से मेरे सह-याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण और उनके पिता श्री शांति भूषण ने रहस्यमयी कारणों से न्यायमूर्ति वर्मा का बचाव किया और ये शोर मचाने के लिए उल्टे मुझ पर हमला किया। तब मैं बहुत आहत हुआ था और ठगा हुआ महसूस किया। पर मैंने और शोर मचाया तब एस.सी.बी.ए. (सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) ने मुझे अवमानना के लिए सुप्रीम कोर्ट में घसीट लिया। आश्चर्यजनक रूप से तीन जजों की पीठ ने मेरे खिलाफ मामला स्वीकार करने से मना कर दिया और कहा कि, हम सूर्य की तरह है, अगर कोई सूर्य पर मिट्टी फेंके तो वह गंदा नहीं होता है। अगर हम विनीत नारायण को नोटिस जारी करते हैं तो वे अपनी पूरी ताकत से यहाँ अदालत में चिल्लाएंगे। हम उन्हें यहाँ मंच देना नहीं चाहते हैं।  


7. अपनी इस बात को साबित करने के लिए कि ‘जैन हवाला मामले’ में आरोपी राजनेताओं को इसलिए नहीं छोड़ा गया कि सीबीआई के पास उनके खिलाफ सबूत नहीं थे। बल्कि इसलिए छोड़ा गया कि ये राजनेता न्यायपालिका को नियंत्रित करने में कामयाब रहे थे। मैंने भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश डॉ. ए. एस. आनंद के छह भूमि घोटालों का अपने अख़बार ‘कालचक्र’ में (1999-2000) पर्दाफाश किया। 


8. इस बार तो देश में और ज्यादा बड़ा हंगामा खड़ा हुआ। जिससे तत्कालीन कानून मंत्री श्री राम जेठमलानी की नौकरी चली गई। श्री अरुण जेटली नए कानून मंत्री बने जो डॉ. आनंद के करीबी थे। इसलिए उन्होंने डॉ. आनंद को एक सुरक्षा कवच मुहैया कराया और मेरे खिलाफ अवमानना का मामला दायर हुआ। आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च अदालत में नहीं, बल्कि जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट में।


9. इस लंबे अकेले अभियान में फिर प्रशांत भूषण ने डॉ. आनंद का पक्ष लिया और इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में यह कह कर मुझ पर हमला किया कि मैं डॉ. आनंद के खिलाफ झूठे आरोप लगा रहा हूँ, बगैर किसी सबूत के। यह पूरी तरह चौंकाने वाला बयान था। क्योंकि मैं अपने अखबार, ‘कालचक्र’ में सारे दस्तावेज प्रकाशित कर चुका था। अंग्रेजी की पाक्षिक पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि मेरे पास सारे सबूत थे। हालांकि, जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट ने मुझे दोषी माना, पर सजा नहीं दी। मैंने इस फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी।


10. अब जाने कि प्रशांत भूषण के खिलाफ मौजूदा मामले पर मेरी प्रतिक्रिया क्या है? पिछले इन अप्रिय अनुभवों के बावजूद आज मैं प्रशांत भूषण के साथ खड़ा हूं। क्योंकि मेरी राय में उनकी टिप्पणियां अदालत की अवमानना नहीं हैं। जैसा ऊपर कहा गया है कि अदालत की अवमानना का मामला सही अर्थों में मौजूदा कानून के तहत होना चाहिए। यानी केवल वही व्यक्ति इस क़ानून के तहत अपराधी माना जाए जो न्यायिक प्रक्रिया में व्यवधान डाले या उसे अवैध रूप से प्रभावित करने की कोशिश करे (जैसा जैन हवाला कांड में हुआ)।  


11. किसी भी जज के भ्रष्ट आचरण से संबंधित किसी भी खुलासे को, अगर वह सबूत के साथ हो, या अदालत का फ़ैसला जिस पर विश्लेषणात्मक टिप्पणियां की जाएं उसे ‘अदालत की अवमानना’ नहीं मानना चाहिए। मेरा मानना है कि लोकतंत्र में हरेक स्तंभ बाकी के तीन के प्रति उत्तरदायी है। जज कोई स्वर्ग से उतरे तमाम दैविक विशेषताओं वाले देवदूत नहीं हैं। उनमें भी दूसरों की तरह कमजोरियां हो सकती हैं। इसलिए वे इतना संवेदनशील क्यों होते हैं? वह भी तब जब उनमें से कुछ रिटायरमेंट के बाद शासकों से उपकृत होना स्वीकार करते हैं। ऐसा करने वाले निश्चित रूप से अपनी स्वतंत्रता और साख खोएंगे और देश इसकी भारी कीमत चुकाएगा। इसलिए, वर्तमान मामले में मेरा दृढ़ मत है कि प्रशांत दोषी नहीं हैं। 


12. अंत में मैं कानून के क्षेत्र से जुड़े लोगों का ध्यान एक अप्रिय स्थिति की ओर खींचना चाहता हूं जिससे मैं चुपचाप पिछले तीन वर्षों से जूझ रहा हूं। हवाला कांड व दो मुख्य न्यायाधीशों के घोटालों का खुलासा करने के बाद, हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार से निराश होकर, सन 2002 में मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा जी की शरण ली।  


13. उनके निर्देश पर मैंने खोजी पत्रकारिता का अपना पेशा छोड़ दिया, जो उस समय शीर्ष पर था। 46 साल की उम्र से मैंने पिछले 18 साल ब्रज क्षेत्र की सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विरासत को बचाने और सजाने में लगाए हैं। यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में आता है। मैं ये काम ‘द ब्रज फाउंडेशन’ के जरिए करता हूं।


14. मैं पूरी विनम्रता से मैं कहना चाहता हूं कि गत दो दशकों में, मथुरा में (ब्रज) हम लोगों ने जो जीर्णोद्धार किए हैं उन्हें  हर क्षेत्र के लोगों से प्रशंसा मिली है। इनमें संत, ब्रजवासी, तीर्थयात्री, मीडिया, दानदाता उद्योगपति, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, भारत सरकार के सचिव, नीति आयोग के सीईओ, प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश, आदि सब शामिल हैं और सबने कहा है कि भारत में किसी एनजीओ ने आजतक ऐतिहासिक धरोहरों के जीर्णोद्धार व संरक्षण का ऐसा काम देश में कहीं नहीं किया। हमने यह सब बिना सरकारी अनुदान के किया है। 


15.  2017 में योगी सरकार के आते ही पवित्र गोवर्धन पर्वत को बर्बाद करने की एक साजिशाना ‘मेगा योजना’ के खिलाफ हमने जिन आपराधिक लोगों का खुलासा किया था, उनके निहित स्वार्थों के कारण ही आज हमें एनजीटी द्वारा परेशान किया जा रहा है। इसके सदस्य न्यायमूर्ति रघुवेन्द्र राठौड़ (अब रिटायर) ने हम पर कई फर्जी और अपुष्ट आरोप लगाए हैं। खुली अदालत में उन्होंने हमें अपमानित किया। श्री अजय पिरामल तथा श्री राहुल बजाज जैसे उद्यमियों द्वारा दिए गए सी.एस.आर. के पैसों से किए गए करोड़ों रुपय के सौंदरीयकरण के काम को नष्ट करने का मौखिक आदेश दिया। श्री राठौड़ ने इन दानदाताओं के योगदान बताने वाले शिलापट्टों को भी पोत देने का आदेश दिया। यह सब कुछ ठीक ऐसा ही है, जो मंदिरों को नष्ट करने वाला औरंजेब जैसा कोई शासक ही कर सकता है।


16. इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट की बार के सदस्यों और माननीय जजों को इस साल के शुरू में बांटे गए टैबलॉयड जैसे एक सूचना संकलन प्रपत्र की याद होगी। गोवर्धन के पर्यावरण कार्यकर्ता मुकेश शर्मा ने इसे बांटा था। इस पर्चे में लिखा हरेक शब्द सबूतों से समर्थित है। इसमें यह भी बताया गया है कि कैसे न्यायमूर्ति राठौड़ ने अपने कुछ लोगों का पक्ष लेने और दूसरों को बर्बाद करने के लिए राजस्व रिकार्ड में हेराफेरी की थी। वे अब रिटायर हो चुके हैं। पर हमें अपनी विरासत की रक्षा करने से रोक दिया गया है। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने हमें 1 जून 2018 को स्टे दे दिया। इस तरह न्यायमूर्ति राठौड़ के आदेश से सिर्फ दो साइटें (श्री कृष्ण लीलास्थलियाँ) ही नष्ट हुईं (जिन्हें हमने गोवर्धन की परिक्रमा पर करोड़ों रुपए खर्च करके बहुत सुंदर बनाया था। इनके नाम हैं संकर्षण कुंड और रुद्र कुंड)। सुप्रीम कोर्ट के स्टे के कारण जीर्णोद्धार की गयीं बाकी लीलास्थलीयों को फ़िलहाल बचाया जा सका।


17. पर अभी भी हमारे ऊपर तलवार टंगी है और हम नहीं जानते कि इस असामान्य स्थिति से कैसे निपटा जाए ? जब हमारे मामले की सुनवाई करने वाले एन.जी.टी. के सदस्य हमारी केस फ़ाइल में मौजूद सभी तथ्यों को नजरअंदाज कर सिर्फ याचिकाकर्ता से निर्देशित होते हैं, जो स्वयं उसी घोटाले में शामिल थे जिनके ख़िलाफ़ हमने 2017 में शोर मचाया था, ताकि ब्रज की विरासत और पर्यावरण की रक्षा की जा सके।


इन परिस्थितियों में एक जागरूक नागरिक, भ्रष्टाचार से हमेशा जूझने वाले खोजी पत्रकार और हिन्दू विरासत के संरक्षक के रूप में मेरे पास क्या विकल्प हो सकता है, क्या आप कुछ बताएँगे ?


निवेदक

विनीत नारायण

Monday, September 23, 2019

अभिव्यक्ति की आज़ादि

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने हाल ही में कहा है कि भारत के नागरिकों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। उनकी कही यह बात एक महत्वपूर्ण मुददे पर सोच विचार के लिए प्रेरित कर रही है। 
सरकार की आलोचना नई बात नहीं है। राजनीतिक व्यवस्थाओं का इतिहास जितना पुराना है उतना ही पुराना यह विषय भी है। तरह तरह की राजव्यवस्थाओं की आलोचना और समीक्षा करते करते ही आज दुनिया में लोकतंत्र जैसी नायाब राजव्यवस्था का जन्म हो पाया है। जाहिर है कि न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता के कथन ने लोकतंत्र के गुणों पर नज़र डालने का मौका दिया है।
सरकार की आलोचना को अगर नैतिकता अनैतिकता की कसौटी पर कसा जाएगा तो लोकतंत्र के मूल गुण की बात सबसे पहले करनी पड़ेगी। विद्वानों ने माना है कि राजव्यवस्था का वर्गीकरण ही इस बात से होता है कि उस व्यवस्था में संप्रभु कौन है। लोकतंत्र के विचार में संप्रभुता नागरिक की मानी जाती है। लोकतंत्र का निर्माता ही नागरिक है। इस लिहाज़ से वही संप्रभु साबित होता है। अब ये अलग बात है कि नागरिकों की संप्रभुता की सीमा का ही मुददा उठने लगे। इस मामले में भारतीय लोकतंत्र के एक और गुण को देख लिया जाना चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र को वैधानिक लोकतंत्र भी समझा जाता है। इस व्यवस्था में नागरिक एक संविधान बनाते हैं और नागरिकों के बनाए इस संविधान को ही संप्रभु माना जाता है। इसीलिए आमतौर पर कहते हैं कि संविधान के उपर कोई नहीं। यानी जस्टिस दीपक गुप्ता के वक्तव्य को इस नुक्ते के आधार पर भी परखा जाना चाहिए।
खुद जस्टिस गुप्ता ने ही संविधान का हवाला दिया है। उन्होंने संविधान केप्रिएंबलके उस तथ्य को याद दिलाया है जिसमें कहा गया है कि हर व्यक्ति के विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, पूजा अर्चना की आजादी की रक्षा की जाए। यानी यह भी कहा जा सकता है कि नागरिकों द्वारा सरकार की आलोचना करना उसका संविधान प्रदत्त अधिकार है। जस्टिस गुप्ता ने इसे मानवाधिकार की श्रेणी में रखने का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा है कि ऐसी कोई भी लोकतांत्रिक राजव्यवस्था नहीं हो सकती जिसमें नागरिकों को वैसा सोचने का अधिकार हो जैसा वे चाहें।
एक सवाल जरूर बन सकता है कि नागरिक के इस अधिकार की सीमा क्या है? सो इस बारे में भरा पूरा संविधान और कानून हमारे पास है। जब कभी इस सीमा के उल्लंघन का मामला बनता है तो उसके निराकरण की प्रक्रिया भी तय है। बाकायदा यह देखा जाता है कि किसी के किस काम से दूसरे के अधिकार का उल्लंघन हुआ। यानी अगर सरकार की आलोचना का मुददा आगे बढ़ा तो सरकार को यह दलील देनी पड़ेगी कि उसकी आलोचना करने से उसके कौन से अधिकार का उल्लंघन होता है। यह दलील देने के लिए भी किसी सरकार को बाकायदा न्याय प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा। वह यह मानकर नहीं चल सकती कि उसके पास परमाधिकार है। वह यह तर्क तो बिल्कुल भी नहीं दे सकती है कि नागरिकों ने ही उसे परमाधिकार दे रखा है। नागरिकों ने अगर कोई अधिकार दे रखा है तो वह इतना ही है कि नागरिकों के हित में जो संविधान सम्मत हो वह ही सरकार करे।
बहरहाल, लोकतंत्र में खासतौर पर संसदीय लोकतंत्र में कोई सरकार स्थायी निकाय नहीं होती। हर सरकार को अपना नवीनीकरण कराना पड़ता है। यानी नागरिकों के बीच अपनी छवि को लेकर लोकतांत्रिक सरकारें हमेशा सतर्क या चिंतित रहती ही हैं। इसी चिंता में अपनी आलोचना का वे ज्यादा प्रचार या प्रसार नहीं होने देना चाहतीं। इस मकसद से ऐसी सरकारें अपनी उपलब्धियों के प्रचार और अपनी अच्छी छवि निर्माण के काम पर लगती हैं। अपने लोकतंत्र में हर सरकार के पास अपनी प्रशंसा करवाने की भरीपूरी व्यवस्था भी होती है। इसके लिए बाकायदा सरकारी विभाग और सरकारी प्रचार माध्यम भी होते हैं। नीति की बात यही है कि लोकतांत्रिक सरकारें अपनी आलोचना का असर खत्म करने के लिए अपने प्रचार तंत्र का इस्तेमाल कर लें। लेकिन आलोचना को बंद करवाना जायज़ नहीं ठहरता।
गौरतलब है कि हमारा लोकतंत्र अब अनुभवी भी हो चुका है। दुनिया का भी अनुभव बताता है कि किसी भी सरकार ने कितना भी जोर लगा लिया हो लेकिन नागरिकों के इस विलक्षण अधिकार को वे हमेशा हमेशा के लिए खत्म कभी नहीं करवा पाईं। एक सुखद अनुभव यह भी रहा है कि लोकतांत्रिक देशों में अधिसंख्य नागरिकों ने उसी बात का पक्ष लिया है जो सही हो यानी नैतिक हो। अपने व्यवहार से अधिसंख्यों ने कभी भूल चूक कर भी दी तो उसे वे जल्द ही सुधार भी लेते हैं। यानी लोकव्यवहार को लेकर ज्यादा चिंता होनी नहीं चाहिए।
हां, प्रायोजित आलोचना एक स्थिति हो सकती है। बल्कि आमतौर पर यह स्थिति हमेशा रहती ही है। लोकतांत्रिक विपक्ष को सत्ता पक्ष की आलोचना करते हुए ही अपनी बात कहने का मौका मिलता है। ये नई बात नहीं है। भारतीय लोकतंत्र का सात दशकों का अनुभव बताता है कि विपक्ष ने सरकारों की आलोचना का कभी भी कोई मौका नहीं छोड़ा। इस तरह से तो भारतीय लोकतंत्र में सरकार की आलोचना विपक्ष का जन्म अधिकार भी समझा जा सकता है।