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Monday, February 17, 2020

बेरोजगारी की बढ़ती समस्या

अभी हाल ही में प्रधान मंत्री ने संसद में काफी गम्भीरता से राहुल गांधी के ‘डंडे मार कर भगाने’ वाले बयान का जवाब दिया। राहुल गांधी पिछले कुछ समय से लगातार इस सवाल को उठा रहे हैं। राहुल गांधी ने संसद में कहा कि हाल ही में पेश हुए आम बजट में भी सरकार ने बेरोजगारी पर कोई बात नहीं की। 

भारत सरकार के सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि भारत में पिछले पैतालीस वर्षों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी गत 4 वर्षों में हुई है। 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिंता वाली बात ये है कि देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वैसे अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई भी सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी ज्यादा भयावह है। इसके साथ ही यह समस्या भी गंभीर है कि इस बेरोजगारी ने करोड़ों परिवारों को आर्थिक संकट में डाल दिया है। जिन युवकों पर उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया था कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनकी हालत बहुत बुरी है। जिस पर गौर करना जरूरी है। 

अनुमान है कि देश के हर जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है?

काले धन पर लगाम लगाने के लिए मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे दो साहसिक फैसले लिए। जिसका लाभ क्रमशः सामने आऐगा। फिलहाल इससे अर्थव्यस्था को झटका लगा है, उससे शहर का मध्यम और निम्न वर्ग काफी प्रभावित हुआ है। देश के अलग-अलग हिस्सों में उन व्यापारियों का कारोबार ठप्प हो गया या दस फीसदी रह गया, जो सारा लेनदेन नगद में करते थे। इतनी बड़ी तादाद में इन व्यापारियों का कारोबार ठप्प होने का मतलब लाखों करोड़ों लोगों का रोजगार अचानक छिन जाना है। इसी तरह ‘रियल इस्टेट’ की कीमतों में कालेधन के कारण जो आग लगी हुई थी, वो ठंडी हुई। सम्पत्तियों के दाम गिरे। पर बाजार में खरीदार नदारद हैं। नतीजतन पूरे देश में भवन निर्माण उद्योग ठंडा पड़ गया। ये अकेला एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें मजदूर, राजमिस्त्री, कारीगर, सुपरवाईजर, इलैक्ट्रशियन, प्लम्बर, बढ़ई, आर्किटैक्ट, इंजीनियर, भवन सामग्री विक्रेता और उसका सेल्स स्टाफ समेत एक लंबी फौज हर शहर और कस्बे में जुटी थी। सम्पत्ति की मांग तेजी से गिर जाने के कारण शहर शहर में भवन निर्माण का काम लगभग ठप्प हो गया है। इससे भी बहुत बड़ी संख्या मंे बेरोजगारी बड़ी है। इतना ही नहीं इन सबके ऊपर आश्रित परिवार भी दयनीय हालत में फिसलते जा रहे हैं। आए दिन कर्जे में डूबे युवा उद्यमी सपरिवार आत्महत्या जैसे दुखद कदम उठा रहे हैं। 

उधर बैंकों से लाखों करोड़ लूटकर विदेश भाग गऐ बड़े आर्थिक अपराधियों के कारण बैंकों ने अपना लेनदेन काफी सीमित और नियंत्रित कर दिया है। जिसके कारण बाजार में वित्तिय संकट पैदा हो गया है। इस माहौल में भविष्य की अनिश्चितता और पारस्परिक विश्वास की कमी के कारण निजी स्तर पर भी पैसा जुटाना व्यापारियों और उद्यमियों के लिए नामुमकिन हो गया है। जिसका सीधा प्रभाव बेरोजगारी बढ़ाने में हो रहा है। इस माहौल में मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को ढर्रे पर लाने के लिए कई उपाय कर रही है। पर अभी तक उसके सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। जो चिंता की बात है। अगर इसी तरह बेरोजगारी बढ़ती गई तो समाज में अराजकता और हिंसा बढ़ने की सम्भावना और भी बढ़ जाऐगी। जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।

Monday, September 17, 2018

छात्रों की किसे चिन्ता है ?

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रा संघ के चुनाव भारी विवादों के बीच संम्पन्न हुए है। छात्र समुदाय दो खेमों में बटा हुआ था। एक तरफ भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दूसरी तरफ वामपंथी, कांग्रेस और बाकी के दल थे। टक्कर कांटे की थी। वातावरण उत्तेजना से भरा हुआ था और मतगणना को लेकर दोनो जगह काफी विवाद हुआ। विश्वविद्यालय के चुनाव आयोग पर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चला।
छात्र राजनीति में उत्तेजना,हिंसा और हुडदंग कोई नई बात नहीं है। पर चिन्ता की बात यह है कि राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने जबसे विश्वविद्यालयों की राजनीति में खुलकर दखल देना शुरू किया है तब से धनबल और सत्ताबल का खुलकर प्रयोग छात्र संघ के चुनावों में होने लगा है, जिससे छात्रों के बीच अनावश्यक उत्तेजना और विद्वेष फैलता है।
अगर समर्थन देने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दल इन छात्रों के भविष्य और रोजगार के प्रति भी इतने भी गंभीर और तत्पर होते तो भी इन्हें माफ किया जा सकता था । पर ऐसा कुछ भी नहीं है। दल कोई भी हो छात्रों को केवल मोहरा बना कर अपना खेल खेला जाता है। जवानी की गर्मी और उत्साह में हमारे युवा भावना में बह जाते हैं और एक दिशाहीन राजनीति में फंसकर अपना काफी समय और ऊर्जा बर्बाद कर देते हैं, यह चिन्ता की बात है।
इसका मतलब यह नहीं कि विश्वविद्यालय के परिसरों में छात्र राजनीति को प्रतिबंधित कर दिया जाए। वह तो युवाओं के व्यक्तित्व के विकास में अवरोधक होगा । क्योंकि छात्र राजनीति से युवाओं में अपनी बात कहने, तर्क करने, संगठित होने और नेतृत्व देने की क्षमता विकसित होती है। जिस तरह शिक्षा के साथ खेलकूद जरूरी है, वैसे ही युवाओं के संगठनों का बनना और उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा होना स्वस्थ्य परंपरा है। मेरे पिता जो उत्तर प्रदेश के एक सम्मानीत शिक्षाविद् और कुलपति रहे, कहा करते थे, "छात्रों में बजरंगबली की सी ऊर्जा होती है, यह उनके शिक्षकों पर है कि वे उस ऊर्जा को किस दिशा में मोड़ते हैं।"
जरूरत इस बात की है कि भारत के चुनाव आयोग के अधीनस्थ हर राज्य में एक स्थायी चुनाव आयोगों का गठन किया जाए।  जिनका दायित्व ग्राम सभा के चुनाव से लेकर , नगर-निकायों के चुनाव और छात्रों और हो सके तो किसानों और मजदूर संगठनों के चुनाव यह आयोग करवाए। ये चुनाव आयोग ऐसी नियमावली बनाए कि इन चुनावों में धांधली और गुडागर्दी की संभावना ना रहे। प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार और मतदान तक का काम व्यवस्थित और पारदर्शित प्रक्रिया के तहत हो और उसका संचालन इन चुनाव आयोगों द्वारा किया जाए। लोकतंत्र के शुद्धिकरण के लिए यह एक ठोस और स्थायी कदम होगा। इस पर अच्छी तरह देशव्यापी बहस होनी चाहिए।
इस छात्र संघ के चुनावों में दिल्ली विश्वविद्यालय के ईवीएम मशीनों के संबंध में छात्रों द्वारा जो आरोप लगाए गए हैं, वह चिन्ता की बात है। प्रश्न यह उठ रहा है कि जब इतने छोटे चुनाव में ईवीएम मशीनें संतोषजनक परिणाम की बजाए शंकाएं उत्पन्न कर रही हैं, तो 2019 के आम चुनावों में ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर जिस प्रकार राजनैतिक पार्टियां अभी से आरोप-प्रत्यारोप लगा रही हैं, इससे क्या उनकी आशंकाओं को बल मिलता नहीं दिख रहा है? मजे कि बात यह है कि ईवीएम की बात आते ही चुनाव आयोग द्वारा मीडिया के सामने आकर सफाई दी गई कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव के लिए ईवीएम मशीनें मुहैया नहीं करवाई गईं  थी। छात्र संघ के चुनाव के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्वयं ईवीएम मशीनों का इत्जाम किया था।
बात यह नहीं है कि ईवीएम मशीनें कहां से आई, कौन लाया, पर आनन-फानन में जिस प्रकार जब चुनाव आयोग पर दिल्ली छात्र संघ के चुनावों में ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगने लगे तो उसे सामने आकर सफाई देनी पड़ी। यह कौनसी बात हुई, कोई चुनाव आयोग पर तो आरोप लगा नहीं रहा था पर चुनाव आयोग प्रकट होता है और दिल्ली चुनाव में ईवीएम पर सफाई दे देता है। यानी चुनावा आयोग अभी से बचाव की मुद्रा में दिखने लगा है।
चुनाव कोई हो पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती में पारदर्शिता प्रथम बिन्दु हैं और जब चुनावों में धांधली के आरोप जोर-शोर से लगने लगे तो यह लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। समय रहते छोटे चुनाव हों या बड़े स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव के लिए आशंकाओं का समाधान कर लेना सबसे विश्व के बड़े लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा। देश की राजधानी दिल्ली में हुए इन छात्र संघ के चुनावों के परिणाम देश की राजनीति में अभी से दूरगामी परिणाम परिलक्षित कर रहे हैं इसलिए हर किसी को अपनी जिम्मेदारियों को निष्पक्षता के साथ वहन कर इस महान् लोकतंक को और मजबूत बनाना चाहिए।

Monday, May 22, 2017

अब ग्रामोद्योग के जरिए पांच करोड़ रोजगार की बात

बेरोज़गारी भारत की सबसे बड़ी समस्या है। करोड़ों नौजवान रोज़गार की तलाश में भटक रहे हैं। हर सरकार इसका हल ढूंढने के दावा करती आई है पर कर नहीं पाई। कारण स्पष्ट है: जिस तरह सबका ज़ोर भारी उद्योगों पर रहा है और जिस तरह लगातार छोटे व्यापारियों और कारखानेदारों की उपेक्षा होती आई है| उससे बेरोज़गारी बढ़ी है। आज तक सब जमीनी सोच रखने वाले और अब  बाबा रामदेव भी ये सही कहते हैं कि अगर रोज़मर्रा के उपभोग के वस्तुओं को केवल कुटीर उद्योंगों के लिए ही सीमित कर दिया जाय तो बेरीज़गारी तेज़ी से हल हो सकती है। पर उस मॉडल से नहीं जिस पर आगे बढ़कर चीन भी पछता रहा है। अंधाधुंध शहरीकरण ने पर्यावरण का नाश कर दिया। जल संकट बढ़ गया और आर्थिक प्रगति ठहर गई।

इसलिए शायद अब  खादी उद्योग में पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार दिलाने की योजना बनी है। इस सूचना की विश्वसनीयता पर सोचने की ज्यादा जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि यह जानकारी खुद केंद्र सरकार के राज्यमंत्री गिरिराज सिंह ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान दी है।

पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार की बात सुनकर कोई भी हैरत जता सकता है। खासतौर पर तब जब मौजूदा सरकार से इसी मुददे पर जवाब मांगने की जोरदार तैयारी चल रही है। सरकार के आर्थिक विकास के दावे को झुठलाने के लिए भी रोजगार विहीन विकास का आरोप लगाया जा रहा है।

यह बात सही है कि मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के पहले अपने चुनाव प्रचार के दौरान हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करने का आश्वासन दिया था। सरकार के अब तक तीन साल गुजरने के बाद इस मोर्चे को और टाला भी नहीं जा सकता था। सो हो सकता है कि अब तक जो सोचविचार किया जा रहा हो उसे लागू करने की स्थिति वाकई बन गई हो। लेकिन सवाल यह है कि पांच साल में पांच करोड रोजगार की बात सुनकर ज्यादा हलचल क्यों नहीं हुई। इससे एक प्रकार की अविश्वसनीयता तो जाहिर नहीं हो रही है।

पांच करोड लोगों को रोजगार दिलाने की सूचना देने का काम जिस कार्यक्रम में हुआ वह रेमंड की खादी के नाम से आयोजित था। यानी इस कार्यक्रम में निजी और सरकारी भागीदारी के माडल की बात दिमाग में आना स्वाभाविक ही था। सो राज्यमंत्री ने यह बात भी बताई कि खादी ग्रामोद्योग ने रेमंड और अरविंद जैसी कपड़ा बनाने वाली कंपनियों से भागीदारी की है। जाहिर है कि निजीक्षेत्र के संसाधनों से खादी उद्योग को बढ़ावा देने की योजना सोची गई होगी। लेकिन यहां फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या निजी क्षेत्र किसी सामाजिक स्वभाव वाले लक्ष्य में इतना बढ़चढ़ कर भागीदारी कर सकता है। वाकई पांच करोड़ लोगों के लिए रोजगार पैदा करने की भारी भरकम योजना के लिए उतने ही भारी भरकम संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। फिर भी अगर बात हुई है तो इसका कोई व्यावहारिक या संभावना का पहलू देखा जरूर गया होगा।

राज्यमंत्री ने इसी कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बातचीत में इसका भी जिक्र किया कि देश में खादी उत्पादों की बिक्री के सात हजार से ज्यादा शोरूम हैं। इन शो रूम में बिक्री बढ़ाई जा सकती है। इसी सिलसिले में उन्होंने यह भी बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खादी कपड़ों की गुणवत्ता बढाने के लिए जीरो डिफैक्ट जीरो अफैक्ट योजना शुरू की है। इसके पीछे खादी को विश्व स्तरीय गुणवत्ता का बनाने का इरादा है। जाहिर है कि विश्वस्तरीय बनाने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी की इस्तेमाल की बातें भी शुरू हो जाएंगी। और फिर हाथ से और देसी तकनीक के उपकरणों से बने उत्पादों को मंहगा होने से कौन रोक पाएगा। हां फैशन की बात अलग है। जिस तरह से खादी कपड़ों और दूसरे उत्पादों को बनाने में फैशन डिजायनरों को शामिल कराने की योजना है उससे खादी उत्पादों को आकर्षक बनाकर बेचना जरूर आसान बनाया जा सकता है। लेकिन पता नहीं डिजायनर खादी के दाम के बारे में सोचा गया है या नहीं।

खैर अभी पांच करोड़ रोजगार की बात कहते हुए खादी उत्पादों को विश्वस्तरीय बनाने की बात हुई। यानी उत्पाद की मात्रा की बजाए गुणवत्ता का तर्क दिया गया है। लेकिन आगे हमें बेरोजगारी मिटाने की मुहिम में बने खादी उत्पादों को खपाने यानी उसके लिए बाजार विकसित करने पर लगना पड़ेगा। यहां गौर करने की बात यह है कि इस समय भारतीय बाजार में सबसे ज्यादा जो माल अटा पड़ा है वह कपड़े ही हैं। उधर विश्व में आर्थिक मंदी के इस दौर में विदेशी कपड़ों और दूसरे माल ने देशी उद्योग और व्यापार को पहले से बेचैन कर रखा है। यानी आज के करोड़ों बेरोजगार अगर कल कोई माल बनाएंगे भी तो उसे निर्यात करने के अलावा हमारे पास कोई चारा होगा नहीं। लेकिन रोना यह है कि इस समय सबसे बड़ी समस्या यही है कि दुनिया में अपने सामान को दूसरे देशों में बेचने के लिए हद दर्जे की होड़ मची है। क्या सबसे पहले इस मोर्चे पर निश्चिंत होने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।

Monday, January 30, 2017

प्रधान मंत्री जी कुछ सोचिए

आपकी दबंगाई और भारत को सशक्त राष्ट्र बनाने का जुनून ही था जिसने सारे हिंदुस्तान को 2014 में आपके पीछे खड़ा कर दिया। इन तीन वर्षों में अपने कामों और विचारों से आपने यह संदेश दिया है कि आप लीक से हटकर सोचते हैं और इतिहास रचना चाहते हैं। आशा है कि आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे। पर कुछ बुनियादी बात है जिन पर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। जब तक योजना बनाने और उसे लागू करने के तरीके में बदलाव नहीं आयेगा, आपके सपने जमीन पर नहीं उतर पाऐंगे। आज भी केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक कन्सल्टेंसी के नाम पर तमाम नामी कंपनियां देश को चूना लगा रही है। इन्हें इनका नाम देखकर मोटी फीस दी जाती है। जबकि ये बुनियादी सर्वेक्षण भी नहीं करती, फर्जी आकड़ों से डीपीआर बनाकर उसे पारित करवा लेती हैं। जिससे धन और संसाधन दोनों की बर्बादी होती है। वांछित लाभ भी नहीं मिल पाता। हमारे जैसे बहुत से लोग जो धरोहरों के संरक्षण का वर्षों से ठोस और बुनियादी काम कर रहे हैं, उन्हें उनकी बैलेंसशीट भारी भरकम न होने के कारण मौका नहीं दिया जाता। इस दुष्चक्र को तोड़े बिना सार्थक, बुनियादी, किफायती और जनउपयोगी प्रोजेक्ट नहीं बन पाते। जो विकास के नाम पर खड़ा किया जाता है वो लिफाफों से ज्यादा कुछ नहीं होता। आप चाहें तो आपको इसके प्रमाण भेजे जा सकते हैं।

    दूसरी समस्या इस बात की है कि इन योजनाओं के क्रियान्वयन में उन ठेकेदारों को पुरातात्विक संरक्षण के ठेके दिये जाते हैं जिन्हें केवल नाली, खड़जे बनाने का ही अनुभव होता है। भला उनका कलात्मक धरोहरों से क्या नाता? इसमें एक बुनियादी परिवर्तन तब आया जब आपकी प्रेरणा से शहरी विकास मंत्रालय ने, आपकी प्रिय ‘हृदय योजना’ के लिए मुझे राष्ट्रीय सलाहाकार चुना और मैंने वेंकैया नायडू जी से कहकर एक नीतिगत सुधार करवाया कि ‘हृदय योजना’ के तहत ठेके देने और बिल पास करने का काम जिला प्रशासन बिना ‘सिटी एंकर’ की लिखित अनुमति के नहीं करेगा। ‘सिटी एंकर’ का चुनाव मंत्रालय ने योग्यता और अनुभव के आधार पर राष्ट्रव्यापी, पारदर्शी प्रक्रिया से किया था। इस एक सुधार के अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं।

    तीसरी समस्या सांसद निधि को लेकर है। विभिन्न राजनैतिक दलों के हमारे कितने ही साथी और मित्र सांसद हैं और हमारे अनुरोध पर विभिन्न विकास योजनाओं के लिए अपनी सांसद निधि से, बिना कोई कमीशन लिए, सहर्ष आवंटन कर देते हैं। पर जिलों के स्तर पर इस पैसे में से मोटा कमीशन वसूल लिया जाता है। न सांसद कमीशन खा रहे हैं और न प्रेरणा देने वाली संस्था ही भ्रष्ट है, फिर क्यों राज्य सरकारों केे वेतनभोगी अधिकारी सांसद निधि में से मोटा कमीशन वसूलने को तैयार बैठे रहते हैं? जिस तरह आप  निर्धनों के बैंक खातों में सब्सिडी की रकम सीधे डलवाने की जोरदार योजना लाने की तैयारी में हैं, उसी तरह आपके सांख्यिकी मंत्रालय को चाहिए कि वो शहरी विकास मंत्रालय की तरह ही राष्ट्रव्यापी व पारदर्शी व्यवस्था के तहत कार्यदायी संस्थाओं का चयन उनकी योग्यता और अनुभव के आधार पर कर लें। फिर वे चाहें धमार्थ संस्थाऐं ही क्यों न हों। इस चयन के बाद सांसद निधि से धन सीधा इनके खातों में डलवा दिया जायें जिससे प्रशासन का बिचैलियापन समाप्त हो जायेगा।

    चैथी समस्या है कि कला, संस्कृति, पर्यावरण जैसे अनेक मंत्रालयों से जुड़ी अनेक संस्थाऐं और समीतियों में सदस्यों के नामित किये जाने की है। जिनमें समाज के अनुभवी और योग्य लोगों को नामित किया जाना चाहिए। आपके आलोचक काफी हल्ला मचा रहे हैं कि आपने अनेक राष्ट्रीय स्तर की अनेक संस्थाओं में अपने दल से जुड़े अयोग्य लोगों को महत्वपूर्णं पदों पर बैठा दिया है। मैं इन लोगों की आलोचना से सहमत नहीं हूँ। क्योंकि मैंने गत 35 वर्ष के पत्रकारिता जीवन में यही देखा कि जिसकी सरकार होती है, उसके ही लोग ऐसी जगहों में बिठा दिये जाते हैं। चाहें वे कितने ही अयोग्य क्यों न हों। पर आपसे शिकायत यह है कि जो लोग सिद्धातः किसी राजनैतिक दल से नही जुड़े हैं लेकिन पूरी निष्ठा, ईमानदारी और कुशलता के साथ अपने-अपने क्षेत्रों में योगदान दे रहें हैं। लेकिन उन्हें किसी भी महत्वपूर्णं जिम्मेदारी से केवल इसलिए वंचित किया जा रहा है क्योंकि वे आपके दल से जुड़े हुए नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ऐसे योग्य, निष्ठावन और अनुभवी लोगों को तो कभी ऐसा मौका मिलेगा ही नहीं? क्योंकि जो भी दल सत्ता में आयेगा वो यही कहेगा कि आप हमारे दल के नहीं हो। कम से कम गुणों के पारखी नरेन्द्र मोदी की सरकार में तो ये बदलना चाहिए। हमने तो सुना था कि आप योग्य व्यक्तियों को बुलाकर काम सौंपते हो चाहे उसके लिए आपको नियमों और नौकरशाही के विरोध को भी दरकिनार करना पड़े। बिना ऐसा किये इन संस्थाओं की गुणवत्ता नहीं बदलेगी। आजादी के बाद कांग्रेस का दामन पकड़कर साम्यवादी इन संस्थाओं पर हावी रहे और इनका मूल भारतीय स्वरूप ही नष्ट कर दिया। अब मौका आया है तो आप दल के मोह से आगे बढ़कर राष्ट्रहित में काम हो, ऐसी नीति बनाओ।

    पांचवी समस्या है कि एक ही क्षेत्र के विकास के लिए केंद्र सरकार की अनेक योजनाऐं अलग-अलग मंत्रालयों से जारी होते हैं। समन्वय के अभाव में नाहक पैसा बर्बाद होता है। वांछित परिणाम नहीं मिलता। होना यह चाहिए कि केंद्र सरकार की ऐसी सभी योजनाऐं समेकित नीति के तहत जारी हों और उनकी गुणवत्ता और क्रियान्वयन पर जागरूक नागरिकों की निगरानी की व्यवस्था हो। ऐसे अनेक छोटे लेकिन दूरगामी परिणाम वाले कदम उठाकर आप अपनी सरकार से वो हासिल कर सकते हो, जिसका सपना लेकर आप प्रधानमंत्री बने हो। जाहिर है आप अपनी कुर्सी अपने किसी पप्पू को सौंपने तो आये नहीं हो, कुछ कर दिखाना चाहते हो, तो कुछ अनूठा करना पड़़ेगा।

Monday, August 1, 2016

वेतन आयोग या विनाश आयोग

    मोदी सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर सरकारी कर्मचारियों को बड़ी सौगात सौंप दी। ये बात दूसरी है कि सरकारी कर्मचारियों का एक ना एक वर्ग हमेशा ऐसा होता है, जिसे कितना भी मिल जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता। पर असलियत यह है कि वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करके जहां एक तरफ सरकार अपने कर्मचारियों को खुश करती है, वहीं इसके कारण समाज में भारी हताशा और निराशा फैलती है। जिसका सीधा असर लोगों की कार्यक्षमता पर पड़ता है। 

    यह सर्वविदित है कि सरकारी कर्मचारियों में कुछ अपवादों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। चाहें भारत का कोई भी हिस्सा क्यों न हो, इनके भ्रष्टाचार से आपको पूरा समाज त्रस्त मिलेगा। इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों की कार्यकुशलता, निर्णय लेने की क्षमता, जोखिम उठाने की क्षमता, कार्य के प्रति समर्पण, आचरण में ईमानदारी को लेकर तमाम सवाल खड़े हैं। यह स्थापित सत्य है कि निजी क्षेत्र के कर्मचारी, चाहे वे चपरासी हों या कंपनी के प्रबंध निदेशक, सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं, लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा की भावना से जूझते हैं। उन्हें अवकाश भी सीमित मिलता है और वे सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों से ज्यादा घंटे कार्य करते हैं। सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले बहुत कम छुट्टी लेते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव तनाव में रहते हैं। उन्हें प्रायः मेडीकल, हाउसिंग, एलटीसी, यातायात और पेंशन जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती। 

ऐसे में यह स्वाभाविक है कि वे अपने जीवन की तुलना सरकारी कर्मचारियों से करते हैं। उन्हें इस बात पर भारी नाराजगी होती है कि निठ्ल्ले और भ्रष्ट लोग तो बिना कुछ किए सभी ऐशो-आराम और नौकरी में तरक्कियां लेने का मजा लूटते हैं। जबकि इतना काम करके भी इन्हें कभी भी नौकरी से निकाले जाने का डर बना रहता है। 

    इसलिए जब वेतन आयोग के कहने पर सरकार अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें एवं भत्ते बढ़ाती है, तो उससे समाज में भारी असंतुलन पैदा हो जाता है। जब अच्छे काम करने वाले को कोई तरक्की न मिले और निकम्मे व भ्रष्ट अधिकारियों को तरक्की और छुट्टी दोनों मिले, तो स्वाभाविक है कि सामान्य जन के मन में क्षोभ उत्पन्न होगा। इससे उनकी कार्यक्षमता घटेगी। उदाहरण के तौर पर दिल्ली जैसे शहर में एक सरकारी कार ड्राइवर को आराम से 30-35 हजार रूपए महीने तनख्वाह मिलती है। जबकि निजी क्षेत्र के ड्राइवरों को मात्र 10-15 हजार रूपए महीने। जबकि उन्हें 24 घंटे ड्यूटी पर रहता होता है। ऐसे माहौल में यह स्वाभाविक है कि देशभर के नौजवानों की रूचि सरकारी नौकरी पाने की तरफ ज्यादा होती है व मुकाबले निजी क्षेत्र में जाने की। नतीजतन सरकारी नौकरी का बाजार महंगा होता जाता है। एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति में भी 10-10 लाख रूपए तक की रिश्वत चलती है। गरीब कहां से लाए इतना पैसा ? 

    मोदीजी से हमेशा क्रांतिवारी और ठोस निर्णय लेने की अपेक्षा की जाती रही है। ये जो सवाल हमने यहां उठाया है, उसे हम मोदीजी से पूछना चाहते हैं कि एक-सा काम करने वालों की आमदनी में इतना भारी अंतर क्यों रखा जाए ? या तो वेतन आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में फेंका जाए, ताकि कुछ क्रांतिवारी नीतियां लागू की जा सकें। जिससे निजी क्षेत्र के कर्मठ हिंदुस्तानियों को उत्साह मिले और दोनों वर्गों के बीच आय का अंतर इतना ज्यादा न हो। ये कठिन निर्णय होंगे। पर आज नही ंतो कल मोदीजी को ऐसे कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। 

    समय आ गया है कि मोदीजी निजी क्षेत्र के योगदान को देखें, परखें और ऐसी नीतियां बनाएं, जिससे उद्यमियों को प्रोत्साहन मिले। सरकारी वजीफों या अनुदान जैसी सहायता के लिए वे सरकार का मुंह न देखें। अपने संसाधन, योग्यता और अनुभव के आधार पर तेजी से आगे बढ़ें और देश को बढ़ाएं। 

    आज से 15 वर्ष पहले जब अमेरिका में मंदी छायी हुई थी, तो वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने देश के युवाओं से एक जोरदार अपील की थी। उसका मूल मंत्र ये था कि कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी के भरोसे न बैठा रहे और अपने-अपने उद्यम खड़े कर आत्मनिर्भर बने। क्लिंटन ने अपने युवाओं का आह्वान किया था कि आप छोटा सा भी काम अपने घर से शुरू करें, तो आपको सफलता मिलेगी और आपकी आर्थिक जरूरतें पूरी होंगी। क्योंकि सरकार सबको नौकरी नहीं दे सकती। इस अपील का असर हुआ और अमेरिका में आर्थिकवृद्धि की लहर फिर से शुरू हो गई। ऐसा ही कुछ भारत के विकास का भी माॅडल होना चाहिए। जिससे योग्य और क्षमतावान लोग अपनी ऊर्जा का पूरा सदुपयोग कर सकें, तभी देश महान बनेगा।

Monday, February 29, 2016

पूरी शिक्षा पद्धति बदलनी चाहिए

एक तरफ जेएनयू के वामपंथी छात्र वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर मां दुर्गा पर अश्लील टिप्पणियांे वाले पर्चे बांटकर भारत की पारंपरिक आस्थाओं पर आघात करना अपना धर्म समझते हैं। दूसरी तरफ देश की शिक्षा व्यवस्था में निरंतर आ रहे ऐसे पतन से चिंतित मौलिक विचारक और चिंतक इस पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही भारत के लिए अभिशाप मानते हैं। क्योंकि पिछले साठ वर्षों में जो शिक्षा इस देश में दी जा रही है, वो अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गई है। आजादी के बाद पिछले 70 वर्षों में किसी राजनैतिक दल ये नहीं कहा कि वे चरित्रवान, मूल्यवान, नैतिक युवाओं का निर्माण करेंगे। वे कहते रहे कि विकास करेंगे और नौकरी देंगे। नौकरी दे नहीं पाते और विकास का मतलब क्या है? कैसा विकास, जिसमे चरित्र का विकास ही न हो ऐसी शिक्षा किस काम की? पर इसकी कोई बात कभी नहीं करता। आज देश में ज्यादातर विश्वविद्यालयों में नकल करके या रट्टा लगाकर केवल डिग्रियां बटोरी जा रही है। नाकारा युवाओं की फौज तैयार की जा रही है। जो न खेत के मतलब के हैं और न शहर के मतलब के हैं।

गत दिनों हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला में पुनरुत्थान विद्यापीठ के साझे प्रयास से देशभर के 500 से अधिक विद्वान अहमदाबाद में इकट्ठा हुए और शिक्षा व शोध की दिशा व दशा पर गहन चिंतन किया। इस सम्मेलन में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि शिक्षा में ऐसा बदलाव हो कि शिक्षा न सिर्फ लोगों को ज्ञानवान बनाये बल्कि चरित्रवान बनाये। उनकी कला उनके व्यक्तिव का विकास हो। उन्हें समाज के प्रति सम्वेदनशील बनाये और वे बिना किसी नौकरी की अपेक्षा के स्वावलम्भी हो कर भी जीवन जी सकें। समाज को दिशा दे सकें। समाज को सही रास्ते पर ले जा सकें। ऐसी शिक्षा का स्वरूप कैसा हो, इस बात पर गहन चिंतन हुआ। भारत में शिक्षा, राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता व धर्म कोई अलग-अलग विषय नहीं रहा। शिक्षा का मूल उद्देश्य आत्मबोध के लिए सुपात्र बनाना था। जो ब्रह्म विद्या का ही अंश था। जिसके लिए ऋषियों ने तप किया। ऐसे ज्ञान से मिली शिक्षा तप, आत्मबोध व राष्ट्र कल्याण की भावना से ओतप्रोत होती थी। आज की तरह केवल व्यवसाय पाने का और भौतिक सुख प्राप्त करने का कोई लक्ष्य ही नहीं था। पर आज शिक्षा को व्यवसाय बनाकर और रोजगार के लिए परिचय पत्र बनाकर हमने देश की कई पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया।

उधर हर वर्ग को समान शिक्षा की बात कर हमने भारत की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। एकलव्य का उदाहरण देकर भारत के इतिहास का मजाक उड़ाने वाले ये भूल जाते हैं कि जहां योग्य छात्रों को ऋषि परंपरा से शिक्षा मिलती थी, वहीं लोक जीवन में भी शिक्षा की समानांतर प्रक्रिया चलती रहती थी। रैदास, कबीर और नानक इस दूसरी परंपरा के शिक्षक थे, जो जूता गांठने, कपड़ा बुनने व खेती करने के साथ जीवन मूल्य की शिक्षा देते थे। आज दोनों ही परंपरा लुप्त हो गई।

जब तक राज्य, समाज और शिक्षा तीनों की तासीर एक जैसी नहीं होगी देश का उत्थान नहीं हो सकता। हम पूर्व और पश्चिम का समन्वय करके भारत के लिए उपयोगी शिक्षा पद्धति नहीं बना सकते। ये तो ऐसा होगा कि मानो बेर और केले के पेड़ को साथ-साथ लगाकर उनसे कहें कि आप दोनों आपसी प्रेम से रहो। ये कैसे संभव है ? बेर का पेड़ जब झूमेगा तो केले के पत्ते फाड़ेगा ही। कहां भोगवादी पश्चिमी शिक्षा और कहां आत्मबोध वाली तपनिष्ठ भारतीय शिक्षा।

वैसे भी शिक्षा के स्वरूप को लेकर भारत से ज्यादा संकट आज पश्चिम में है। पश्चिम भौतिकता की दौड़ में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचकर दिशाहीन हो गया है। इसलिए पश्चिम के विद्वान विज्ञान से ज्ञान की ओर व भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर रूख कर रहे हैं। जबकि हम अपनी ज्ञान की परंपरा छोड़कर विज्ञान के मोह में दौड़ रहे हैं। इस दौड़ में अब तक तो हम विफल रहे हैं। न तो हमने पश्चिम जैसी भौतिक उन्नति प्राप्त की, न प्राप्त करने की संभावना हैं और न उस्से समाज से सुखी होने वाला है। इस शिक्षा से हम सामथ्र्यवान पीढ़ी का निर्माण भी नहीं कर पाए। पूरी शिक्षा हमारे समाज पर अभिशाप बनकर रह गई है। एक ही उदाहरण काफी होगा। आजतक देश में कितने अरब रूपये पीएचडी के नाम खर्च किए गए ? पर इस तथाकथित शोध से देश की कितनी समस्याओं का हल हुआ ? उत्तर होगा नगण्य। यानि शोध के नाम पर ढकोसला हो रहा है या पश्चिम के शोध को नाम बदलकर पेश किया जा रहा है।

आजकल अखबार इन खबरों से भरे पड़े हैं कि हर परीक्षा केंद्र में ठेके पर नकल कराई जा रही है। प्रांतों की छोड़ो राजधानी दिल्ली के कालेजों तक में कक्षा में पढ़ाई नहीं होती। छात्र दाखिला लेने और फिर परीक्षा देने आते हैं। ऐसी शिक्षा को देश का करदाता कब तक और क्यों ढ़ोए ? इसलिए इस पूरी शिक्षा व्यवस्था के अमूल-चूल परिवर्तन का समय आ गया है। शिक्षा के उद्देश्य, उसकी सार्थकता, उसकी समाज के प्रति उपयोगिता व उसमें वर्तमान समस्याओं के समाधान की क्षमता पर स्पष्ट दृष्टि की जरूरत है। जिसके लिए देश में आज पर्याप्त योग्य चिंतक और अनुभवी शिक्षा शास्त्री मौजूद हैं। जिन्होंने अपने स्तर पर देशभर में गत दशकों में नूतन प्रयोग करके सार्थक समाधान खोजे हैं। आवश्यकता है राजनैतिक इच्छाशक्ति की और क्रांतिकारी सोच के लिए हिम्मत की। एक तरफ तो यह कार्य मानव संसाधन मंत्रालय को करना है। बिना इस बात की परवाह किए उस पर भगवाकरण का आरोप लगेगा। दूसरी तरफ यह कार्य उन लोगों को करना है, जो शिक्षा में बदलाव की बात करते हैं, पर औपनिवेशिक्षक सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल पाते।

उधर आजकल बाबा रामदेव पूरे देश में एक हजार स्कूल आचार्य कुल के नाम से स्थापित करने की तैयारी में है। उनमें जैसी ऊर्जा व जीवटता है, वे ये करके भी दिखा देंगे। पर क्या उस शिक्षा से भारत का आध्यात्मिक और नैतिक उत्थान हो पाएगा ? कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसे गोरे साहब की जगह काले साहब आ गये, वैसे ही अंग्रेजी शिक्षा की जगह गुरूकुल शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति होकर रह जाए। क्योंकि भारत की शिक्षा पद्धति में मुनाफे का कोई खाना हो ही नहीं सकता। यह सोचना गलत है कि बिना मुनाफे की शिक्षा का माॅडल संभव नहीं है। संभव है अगर शिक्षा में गुणवत्ता है। केवल जोखिम उठाने के लिए आत्मविश्वास की जरूरत है।

Monday, November 24, 2014

ज़रूरत नई रोजगार नीति की


बेरोजगारों की भीड़ बढ़ती दिख रही है। अपने देश के लिए वैसे तो यह समस्या शाश्वत प्रकार की है, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनसनीखेज तथ्य यह है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की समस्या ज्यादा गंभीर है। अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

    जैसा पहले कहा गया है कि बेरोजगारी का नया रूप पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी का है और ज्यादा भयावह है। इसके साथ यह बात बड़ी तीव्रता से जुड़ी है कि जिन युवकों या उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनके निवेश की बात पर गौर जरूरी है। 

    देश के औसत जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में अनुमानित हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

    पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

    यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है? 

Monday, November 3, 2014

विकास का निरापद मॉडल

मथुरा में किसानों के हिंसक आंदोलन की तीव्रता पर सोच विचार करना ही पड़ेगा, वैसे जल प्रबंधन की परियोजनाओं के साथ जुड़ी विस्थापन की समस्या कोई नई बात नहीं है। इस लिहाज से यह घटना या कांड भी कोई बड़ी हैरत की बात नहीं है। चाहे बड़े बांध या बैराज से होने वाले विस्थापन हो या औद्योगिक विकास से होने वाले विस्थापन हों, देश ने पिछले 30 साल से इस समस्या के कई रूप देखें हैं।
आजादी के बाद से अब तक हम विकास के निरापद  माॅडल की तलाश में ही लगे हैं। मथुरा के गोकुल बैराज का मामला भी कोई ऐसा अनोखा मामला नहीं है, जिसकी तीव्रता या उसके साथ जुड़ी समस्याओं के बारे में पहले से पता न हो यानी इस मामले में समस्या के रूप या उसके समाधान के लिए बहुत ज्यादा सोच विचार की जरूरत नहीं दिखती। क्या हुआ ? क्यों हुआ ? कौन जिम्मेदार है ? इसकी जांच पड़ताल के मलए सरकारी, गैर सरकारी, मीडिया और विशेषज्ञों के स्तर पर कवायद होती रहेगी। और हर समस्या के समाधान की तरह इसका भी समाधान निकलेगा ही। लेकिन इस कांड के बहाने हम जल प्रबंधन से संबंधित परियोजनाओं की निरापद व्यवहार्यता की बात कर सकते हैं। कुछ तथ्य हैं। खासतौर पर मथुरा-वृंदावन से जुड़ी समस्या से जुड़े वे तथ्य जो हमें अपनी जल नीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करते हैं।
अगर हम गोकुल बैराज से जुड़ी समस्या के इस पहल को देखें कि ऐसे बैराज हमारे लिए कितने अपरिहार्य हैं, तो लगे हाथ हमें हथिनीकुंड बैराज की याद आती है। इस बैराज से यमुना को मुक्त कराने का आंदोलन भी पनप रहा है। समाज के एक तबके की नदी के निरंतरता की मांग है। जब इस मांग का आगा पीछा सोचा जाएगा, तो बड़े हैरतअंगेज तथ्य सामने आएंगे।
दूसरा ऐतिहासिक तथ्य तुगलक सल्तनत में बने दिल्ली के सतपुला बैराज का है। कोई छह सौ साल पहले मुहम्मद तुगलक का बनाया यह बैराज आज भी भव्य दर्शनीय स्थल है, लेकिन उसकी उस समय की उपयोगिता और आज उसके पूरे जलग्रहण क्षेत्र में बनी कालोनियां बनने के बाद की स्थिति चैकाने वाले तथ्य मुहैया करवा रही है। पिछले दिनों पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणाली के अध्ययन में लगी संस्थाओं और उनके विशेषज्ञों ने शुरुआती तौर पर यह समझा है कि मुहम्मद तुगलक की दूरदर्शिता के इस नमूने ने कम से कम पांच सौ साल तक अपनी उपयोगिता को बनाए रखा होगा। लेकिन यहां इसका जिक्र इसलिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि राजधानी के बीच में एक बड़े नाले पर इतना विशाल निर्माण करवाने में उसके सामने कितनी चुनौतियां आई होंगी। हालांकि वह सल्तनत का समय था। शासक या प्रशासक की इच्छा या आदेश का कोई विकल्प नहीं हो सकता था। लेकिन कई इतिहासकार बता रहे हैं कि अपने समय में प्रजा का असंतोष झेलते रहे शासक के प्रति धारणाएं बदलनी पड़ रही है।
चैथा तथ्य यह है कि विज्ञान के पथ पर तेजी से जा रहे देश में बारिश के पानी को रोककर रखने की जगह नहीं बची। चालीस करोड़ हैक्टेयर मीटर बारिश के पानी में से सिर्फ दस फीसद पानी को रोकने की क्षमता ही हम हासिल कर पाए हैं और तमाम जल संचयन संरचनाएं मिट्टी/गाद से पटती जा रही हैं और उनको पुनर्जीवित करने के लिए भारी भरकम खर्च का इंतजाम हम नहीं कर पा रहे हैं। विकल्प सिर्फ यही सुझाया जाता है कि हमें नए बांध या बैराज या तालाब या झीलें चाहिए। इसके लिए जगह यानी जमीन मुहैया नहीं है। अब तक का और बिल्कुल आज तक का अनुभव यह है कि नदियों के चैडे़-चैड़े पाट दिखते हैं। जिन्हें जगह-जगह दीवार खड़ी करते हुए पानी रोक लें, इन्हें वियर कहते हैं और जब इस दीवार में खुलने बंद होने वाले दरवाजे लगा लेते हैं, उसे बैराज कहते हैं।
जल विज्ञान के विशेषज्ञ इसी उधेड़बुन में लगे हैं कि नदियों में ही जगह-जगह बैराज बनाकर हम बारिश का कितना पानी रोक सकते हैं ? लेकिन मथुरा में गोकुल बैराज और उसके कारण विस्थापन या प्रभावित जमीन की समस्या विशेषज्ञों और जल प्रबंधकों को डरा रही है। यानी जलनीति के निर्धारकों को अब नए सिरे से नवोन्वेषी विचार विमर्श में लगना पड़ेगा कि पानी की अपनी जरूरत पूरी करने के लिए कौन-सा उपाय निरापद हो सकता है।

Monday, June 2, 2014

समय बताएगा स्मृति ईरानी की योग्यता

जिस देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था चली आ रही हो कि एम.ए.-पी.एच.डी. की डिग्रियां दस बीस हजार रूपए में बिक रही हों । जिस देश के डिग्री कालेजों में हजारों छात्र भरती हों पर कभी क्लास में ना आते हों क्यूंकि उनके प्रवक्तागण मोटा वेतन ले कर भी पढ़ा न रहे हों । उस देश में स्मृति ईरानी के नाम के पहले अगर डा. लगा होता तो क्या उनकी योग्यता बढ़ जाति ? 
कांग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने भाजपा नेता स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय दिए जाने पर आपत्ति जताई और उनकी शिक्षा पर सवाल खड़े कर नए विवाद को जन्म दे दिया। इस पर भाजपा ने प्रधानमंत्री तक को संचालित करने वाली यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अध्यादेश को बकवास करार देने वाले राहुल गांधी की योग्यता और शिक्षा पूछी। इस पर कांग्रेस को बैकफुट पर जाना पड़ा और मामले को वही दबा दिया गया।
एक कलाकार में जो समाज के प्रति सम्वेंदनशीलता होती है वह आम जन से ज्यादा होती है। इसी कारण कलाकार बड़ी सहजता से अलग अलग तरह के किरदार निभा लेता है। जन आकर्षण का प्रतिनिधित्व कर रहे टीवी धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थीं में तुलसी का किरदार निभाने वाली स्मृति ईरानी ने जनमानस के दिल में एक अच्छी बहू और सास की छवि बनाई। इसके बाद वह भाजपा में पिछले कई वर्षों से सक्रिय होकर संगठन के लिए कार्य रहीं हैं और भाजपा का एक सशक्त चेहरा बनकर उभरी हैं। नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में उन्होंने ‘नमो टी‘ का सुझाव दिया, जो काफी सफल रहा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है, वह संवदेनशील व सतर्क नेता हैं, जो समाज की नब्ज पकड़ने की कुव्वत रखती हैं।
सब जानते हैं कि राजनीति में संवाद का बहुत महत्व होता है। बड़े-बड़े नेता तक अपनी बात आम जनता को समझा नहीं पाते। जबकि स्मृति धाराप्रवाह हिंदी-अंग्रेजी बोलने में पारंगत हैं। जब-जब भाजपा को विषम दौर से गुजरना पड़ा, तब-तब उन्होंने भाजपा का पक्ष मजबूती के साथ रखा। दरअसल उनमें भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता बनने की योग्यता है।
क्या स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय इसलिए नहीं मिलना चाहिए कि वह कम पढ़ी-लिखी हैं। कोई और मंत्रालय दिया होता तो क्या यह सवाल उठता ? क्या उड्ययन मंत्री बनने के लिए पाइलट होना जरूरी है। क्या रक्षा मंत्री बनने के लिए तोप चलानी आनी चाहिए ? और क्या एक डाॅक्टर ही स्वास्थ्य मंत्री बन सकता है ? अगर कोई परिवहन या रेल मंत्री बनाया गया है, तो क्या उसे बस और रेल चलाने की जानकारी होना जरूरी है। मानव संसाधन विकास मंत्री का काम शोध कराना या क्लास में पढ़ाना नहीं होता और न ही उनका स्कॉलर होना जरूरी है। ऐसे हर मामले को जांचने परखने वाले विशेषज्ञों और नौकरशाहों की लंबी फौज स्मृति ईरानी के अधीन मौजूद है। जिनकी सलाह पर वह अपने निर्णय ले सकती हैं। जरूरी यह होगा कि वे देश के शिक्षा संसाधनों में सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों को बैठाएं। आप उन मानव संसाधन विकास मंत्रियों के विषय में क्या कहेंगे, जो अंगूठा छाप लोगों को कुलपति नियुक्त करते आए हैं ? देश में आज उच्च शिक्षा के संसाधनों में सुधार की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी कि प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर ध्यान देने की है। जिसके लिए स्मृति ईरानी के पास पर्याप्त जमीनी अनुभव है।
एक बात और महत्वपूर्ण है कि हजारों वर्ष पूर्व चीन में पहले प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति उनकी शैक्षिक योग्यता या डिग्री के आधार पर नहीं होती थी। प्रत्याशी को अपने जीवन के अनुभव को एक कविता के माध्यम से लिखने को कहा जाता था और उसी काव्य के आधार पर उसकी नियुक्त होती थी। मतलब कि कलात्मक अभिव्यक्ति का धनी व्यक्ति समाज को समझने में देर नहीं लगाता, क्योंकि उसकी संवेदनशीलता बहुत गहरी होती है। इसलिए समाज के पिछड़े वर्गों की शिक्षा के सुधार के लिए स्मृति बहुत कुछ नया कर सकती हैं।
वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत जीवन पर निगाह डालें, तो उनके द्वारा किए गए संघर्ष का पता चलेगा कि शुरूआती दिनों में पांेछा-झाडू लगाकर व छोटे-छोटे काम करके एवं कष्टप्रद जीवन व्यतीत करके वे आज यहां तक पहुंची हैं। उन्होंने गरीबी को काफी करीब से देखा और भोगा है। इसलिए वे गरीबों का दर्द बखूबी समझ सकती हैं। कांग्रेस की परंपरागत सीट रही अमेठी से जब राहुल गांधी के खिलाफ स्मृति ईरानी को लड़ाया गया, तब भी वह पीछे नहीं हटीं और उन्होंने मात्र 25 दिन के अपने चुनाव प्रचार में राहुल गांधी के माथे पर बल डाल दिए। आलम यह हो गया कि पिछले 10 वर्षों से इकतरफा जीत दर्ज करने वाले राहुल गांधी को बूथ-दर-बूथ जाकर एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। जाहिर है स्मृति में राजनैतिक नेतृत्व की क्षमता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर आते ही नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया में अपनी धाक पैदा कर दी है। चुनाव के दौरान भी उनकी यही सूझबूझ काम आयी और एक इतिहास रच गया। नरेंद्र मोदी देश के अब तक सबसे सफल मुख्यमंत्री रहे हैं। कोई भी फैसला वह लेते हैं, उसमें कहीं न कहीं की सोच छिपी रहती है। उनके निर्णय पर इतनी जल्दी सवाल उठाना अब बेमानी होगी। उन्होंने अभी तक जो भी किया है, वह एक अनूठा प्रयोग रहा और सफल भी रहा। अपने शपथ समारोह तक को सार्क सम्मेलन में बदलकर मोदी ने यह बता दिया कि उनका हर कदम दूरदर्शी होता है। ऐसे में मोदी द्वारा स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सौंपना हो सकता है, उनकी कोई दूर की सोच रही हो, बाकी समय बताएगा।