Monday, August 30, 2021

नंद घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की


भादों के इस महीने में सारी दुनिया के हिंदुओं का मन मथुरा की ओर स्वतः ही आकर्षित हो जाता है। 5500 वर्ष पहले कंस के कारागार में जन्म लेने वाले ब्रह्मांड नायक का जन्मोत्सव हज़ारों वर्ष बाद भी उसी उत्साह से मनाया जाता है, मानो ये आज की ही घटना हो। हम ब्रजवासियों के लिए तो बालकृष्ण आज भी हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। वृंदावन में कोई अपनी कन्या का विवाह के लिए रिश्ता ले कर आएगा तो बेटे का पिता पहले बिहारी जी के मंदिर दौड़ेगा और ठाकुर जी के सामने खड़े हो कर कहेगा,
तुम कहो तौ हां कर दऊ और तुम कहो तो नाईं कर दऊ। तब आ कर कन्या के पिता से कहेगा कि, बिहारी जी ने हाँ कर दई है। 
ऐसी दिव्य है ब्रज की भूमि, जो बार -बार उजड़ी और कई बार सजी। जब भगवान धरा धाम को छोड़ कर अपने लोक चले गए तब उनके वियोग में उनके प्रपौत्र वज्रनाभ जी द्वारिका से मथुरा आए। यहाँ उन्हें उपदेश देते हुए शांडिल्य मुनि जी ने कहा, व्रज का अर्थ है व्यापक। सतो, रजो और तमो गुण से अतीत जो परब्रह्म है वही सर्वव्यापक है। कण-कण में व्याप्त है और उसी ब्रह्म का धाम है ये व्रज है जहां सगुण रूप में नंदनंदन भगवान श्री कृष्ण का नित्य वास है। यहाँ उनकी लीलाएँ हर क्षण होती रहती हैं। जो हमें इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं देती। केवल प्रेम रस में गहरे डूबे हुए रसिक संत जन ही उसका अनुभव करते हैं। तब शांडिल्य मुनि ने वज्रनाभ जी को भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थलियाँ  प्रकट करने और उनको सजाने संवारने का आदेश दिया। मुनिवर ने कहा भगवान की लीलाएँ ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना के तटों पर हुई थी। इन्हें तुम सजाओ। वज्रनाभ जी ने इन सबको पुनः प्रकट किया और इनका जीर्णोद्धार किया।

उनके बाद हज़ारों वर्षों तक ब्रज प्रदेश उजड़ा पड़ा रहा। जहां सघन वन थे जिनमें जंगली पशु विचरण करते थे। फिर व्यापक स्तर पर ब्रज का जीर्णोद्धार श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर 16वीं सदी में तब शुरू हुआ, जब उन्होंने बंगाल से अपने दो शिष्यों लोकनाथ गोस्वामी व भूगर्भ गोस्वामी को ब्रज भेजा। इसी दौर में मुग़ल बादशाह अकबर ने ब्रज में जज़िया समाप्त कर दिया और देश भर के हिंदू राजाओं को यहाँ आकर यमुना के घाट, कुंड, वन या मंदिर आदि निर्माण करने की छूट दे दी। इस परिवर्तन के कारण देश भर के रसिक संत भी ब्रज में आकर बसने लगे। किंतु उसके बाद औरंगज़ेब की नीतियों का यहाँ विपरीत प्रभाव पड़ा। तब बहुत से मंदिर तोड़े गए।
 
पूरे ब्रज के विकास की एक विहंगम दृष्टि बीस बरस पहले बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा ने दी। उन्होंने भी ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना घाटों को ही सजाने और संवारने का हम सबको आह्वान किया। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया। जिसका परिणाम ब्रजवासियों और दुनिया भर के कृष्ण भक्तों ने देखा और अनुभव किया। 
इसी दिशा में ब्रज की आध्यात्मिक चेतना और इसके माहात्म को केंद्र में रखते हुए हमने ब्रज के समेकित विकास के लिए एक संवैधानिक संस्था के गठन का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री अखिलेश यादव को दिया। जिन्होंने इस संस्था का संवैधानिक गठन किया। बाद में उसी संस्था का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ रख दिया और बड़ी उदारता से बहुत बड़ी रक़म इस परिषद को सौंपी। पर यहाँ वे दो भारी भूल कर गए। पहली इस परिषद के संचालन का ज़िम्मा उन्होंने ऐसे सेवा निवृत अधिकारी को सौंपा जिन्हें न तो ब्रज संस्कृति की कोई समझ है और न ऐसे ऐतिहासिक कार्य करने का कोई अनुभव। इतना ही नहीं इस परिषद के कुल दो अधिकारियों ने इस परिषद के संविधान को भी उठाकर ताक पर रख दिया। परिषद का वैधानिक रूप से वांछित नियमों के तहत गठन किए बिना ही बड़े-बड़े निर्णय स्वयं ही लेने शुरू कर दिए। जिनमें पानी की तरह जनता का पैसा बहाया गया। बावजूद इसके, ये सरकारी संस्था ब्रज की धरोहरों व संस्कृति के संरक्षण की दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं कर पाई। इसकी परियोजनाओं से ब्रज की संस्कृति का विनाश ही हुआ है, संरक्षण नहीं। इस परिषद के किए गए कामों और खर्च की गई रक़म की अगर निष्पक्ष खुली जाँच हो जाए तो सब घोटाला सामने आ जाएगा। 
आजकल चुनावी मूड में आ चुके उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जनसभाओं में ताल ठोक कर इस परिषद की उपलब्धियाँ गिना रहे हैं। जबकि ब्रज के अनेक साधु संत, सामाजिक संस्थाएँ और खुद भाजपा व संघ के कार्यकर्ता तक गत 4 वर्षों में योगी जी से बार-बार विकास और संरक्षण के नाम पर परिषद द्वारा मथुरा में किए जा रहे विनाश की शिकायतें कर चुके हैं। पर योगी ने आज तक ईमानदारी से जाँच किए जाने का कोई आदेश जारी नहीं किया। इससे ब्रज में रह रहे संत और ब्रजवासी ही नहीं बल्कि यहाँ आने वाले लाखों तीर्थ यात्री भी बहुत व्यथित हैं। इसी कॉलम में 6 नवंबर 2017 को मैंने लिखा था ‘ऐसे नहीं होगी ब्रज धाम की सेवा योगी जी’। पर उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की। होर्डिंग व विज्ञापनों के ज़ोर पर ही अगर विकास दिखाना है तो फिर कोई काम करने की ज़रूरत ही क्या है। दुःख और पीड़ा तो इस बात की है कि हिंदू धर्म के नाम पर बनीं योगी सरकार का सार ज़ोर विज्ञापनों पर है। न तो योजनाओं के निर्माण में पारदर्शिता और कल्पनाशीलता रही है और न ही उनके क्रियांवन में। इससे हल्ला चाहें कितना मचा लें, हिंदू धर्म का कोई हित नहीं हो रहा। पर किसे फ़ुरसत हैं सच को जानने और कुछ ठोस करने के लिए? जब बारहों महीने सबका लक्ष्य केवल चुनाव जीतना हो तो ऐसे में हम कब तक ब्रज के लिये आँसूँ बहाएँ? चलो आओ श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाएँ।

Monday, August 23, 2021

जन सहयोग से ही रोक सकती है पुलिस अपराध


पुलिस-जनता के संबंधों में सुधार लाने में सामुदायिक पुलिसिंग एक अहम किरदार निभा सकती है। ऐसा माना जाता है कि जनता और पुलिस के बीच अगर अच्छे सम्बंध हों तो पूरे पुलिस फ़ोर्स को बिना वर्दी के ऐसे हज़ारों सिपाही मिल जाएँगे जो न सिर्फ़ अपराध को रोक पाएँगे बल्कि पुलिस की ख़राब छवि को भी सुधार सकेंगे। ऐसा नहीं है कि पुलिस अपनी छवि जान बूझ कर ख़राब करती है। असल में पुलिस की वर्दी के नीचे होता तो एक इंसान ही है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना होता है कि वो हर हाल में अपने देश और समाज की रक्षा करने के कटिबद्ध होता है। फिर वो चाहे कोई त्योहार हो या किसी भी तरह का मौसम हो, अगर ड्यूटी निभानी है तो निभानी है। 


हाल ही में नियुक्त हुए दिल्ली पुलिस के कमिश्नर राकेश अस्थाना ने दिल्ली के श्यामलाल कॉलेज में ‘उम्मीद’ कार्यक्रम में कहा कि जहां एक ओर पुलिस को हर तरह की क़ानून व्यवस्था और उनसे जुड़े मुद्दों से निपटने की ट्रेनिंग मिलती है वहीं बिना समाज के समर्थन के इसे प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि आज हम प्रौद्योगिकी के युग में रहते हैं और आर्थिक प्रगति केवल शांतिपूर्ण वातावरण में ही प्राप्त की जा सकती है। पुलिस और जनता को मिल जुलकर ही रहने का प्रयास करना चाहिए। 


आज के दौर में ज़्यादातर लोगों के हाथ में एक स्मार्टफ़ोन तो होता ही है, यदि इसका उपयोग सही तरह से किया जाए तो क़ानून व्यवस्था बनाने में नागरिक पुलिस की काफ़ी सहायता कर सकते हैं। देखा जाए तो हर जगह, हर समय पुलिस की तैनाती संभव तो नहीं हो सकती है, इसलिए बेहतर क़ानून व्यवस्था और सौहार्द की दृष्टि से यदि पुलिस को समाज का सहयोग मिल जाए तो फ़ायदा समाज का ही होगा।


उदाहरण के तौर पर जून 2010 में जब दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस ने जब फ़ेसबुक पर अपना पेज बनाया तो मात्र 2 महीनों में ही 17 हज़ार लोग इससे जुड़ गए और 5 हज़ार से ज़्यादा फ़ोटो और विडीओ इस पेज पर डाले गए। इन फ़ोटो और विडीओ में ट्रैफ़िक नियमों के उलंघन की तस्वीरें, उलंघन की तारीख़ व समय और जगह का विवरण होता था। नतीजतन जहां एक ओर नियम उलंघन करने वालों के घर चालान जाने लगे वहीं दूसरी ओर वहाँ चालक और ज़्यादा चौकन्ने होने लग गए। इस छोटी सी पहल से पुलिस को बिना वर्दी ऐसे लाखों सिपाही मिल गए। इस प्रयास से जहां एक ओर समाज का भला हुआ वहीं दिल्ली की सड़कें भी सुरक्षित होने लग गई। 


असल में करोड़ों की आबादी वाले इस देश में यदि पुलिस और जनता के बीच कुछ प्रतिशत के सम्बंध किसी कारण से बिगाड़ जाते हैं तो उसका असर पूरे देश पर पड़ता है। पुलिसकर्मी किस तरह की तनावपूर्ण माहौल में काम करते हैं उसका अंदाज़ा केवल पुलिसकर्मी ही लगा सकते हैं, आम जनता नहीं। स्वार्थी तत्व इस सब का नाजायज़ उठा कर पुलिस को बदनाम करने का काम करते आए हैं। 


आमतौर पर यह देखा जाता है कि यदि कोई अपराधी पुलिस द्वारा पकड़ा जाए और फिर बाद में अदालत द्वारा छोड़ दिया जाए तो दोषी पुलिस ही ठहराई जाती है। जबकि असल में भारत की दंड संहिता और न्यायिक प्रणाली में ऐसे कई रास्ते होते हैं जिसका सहारा लेकर अपराधी का वकील उसे छुड़ा लेता है। यदि असल में अपराधी दोषी है और पुलिस ने सही कार्यवाही कर उसे हवालात में डाला है तो समाज का भी यह दायित्व होता है की यदि किसी नागरिक ने अपराध होते हुए देखा है तो उसे अदालत में जा कर साक्ष्य देना चाहिए। ऐसा करने से पुलिस और समाज का एक दूसरे पर विश्वास बढ़ेगा ही। 


जहां राजनीतिज्ञ लोग पुलिस प्रशासन को अपना हथियार समझ कर उन पर दबाव डालते हैं वहीं पुलिसकर्मी अपने तनाव और दबाव के बारे में किसी से भी नहीं कहते हैं और आम जनता के सामने बुरे बनते हैं। पुलिस कर्मियों पे अगर कुछ नाजायज़ करने का दबाव आता है तो पुलिस अफ़सर को मीडिया या आजकल के दौर में सोशल मीडिया की मदद से अपने पर पड़ने वाले दबाव का खुलासा कर देना चाहिए। इससे जनता के बीच एक सही संदेश जाएगा और पुलिस को अपना हथियार बनाकर राजनैतिक रोटियाँ सेकने वाले नेताओं का भांडाफोड़ भी होगा। 


ग़ौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1861 के एक्ट के अधीन कार्य करने वाली भारतीय पुलिस में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं भी वर्णन नहीं था। यह तो सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का असर है कि हर राज्य के पास एक राज्य पुलिस एक्ट है। हर राज्य पुलिस एक्ट में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं न कहीं ज़िक्र ज़रूर है परंतु इसे कोई विशेष तवज्जो नहीं दिया जाता। यदि सामुदायिक पुलिसिंग का सही ढंग से उपयोग हो तो पुलिस अपना कार्य तनाव मुक्त हो कर काफ़ी कुशलता से करेगी। 20वीं शताब्दी में भारत के उत्तरी राज्यों में ‘ठीकरी पहरा’ नामक योजना प्रचलन में थी जिसके अंतर्गत गांव के सभी युवा रात्रि के समय पहरा देते थे तथा डाकू व लुटेरों को पकड़ने में पुलिस की मदद करते थे। पंजाब ने ‘सांझ’, चंडीगढ़ में ‘युवाशक्ति प्रयास’ तथा तमिलनाडु में ‘मोहल्ला कमेटी आंदोलन’ के नाम से ऐसी योजनाएं चलाई जा रही हैं तथा हर राज्य में अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे हैं।

  

शुरू में इन योजनाओं के माध्यम से राज्यों की पुलिस ने जहां बड़े-बड़े अपराधी गिरोहों को पकड़ा था वहीं ऐसे पुलिस वालों की भी पहचान हुई थी जो अपराध में खुद संलिप्त थे। लेकिन समय गुज़ारते इन योजनाओं की तरफ अब शायद कोई ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा। आज के दौर में जहां देश के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरों की नज़र है वहीं अगर सामुदायिक पुलिसिंग पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाए तो अपराध घटेंगे और जनता और पुलिस के बीच सम्बन्धों में भी सुधार होगा। नागरिक पुलिस को अपने परिवार का ही एक हिस्सा मानेंगे।   

Monday, August 16, 2021

बढ़ता जल संकट: एक ओर बाढ़ तो दूसरी ओर सूखा


आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ा हुआ है तो दूसरी ओर कई शहर बाढ़ की चपेट में हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकता है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है।
 


एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसके अलावा प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। 


दरअसल, चेन्नई हो या उस जैसा देश का कोई और नगर, असली समस्या वहाँ की वाटर बॉडीज पर अनाधिकृत क़ब्जे की है। जिस पर भवन आदि बनाकर जल को भूमि के अंदर जाने से रोक दिया जाता है। चूँकि चेन्नई समंदर के किनारे है इसलिए थोड़ी सी बारिश से भी पानी नालों व पक्की सड़को से बहकर समंदर में चला जाता है। भूमि के नीचे अगर पानी किसी भी रास्ते नहीं जाएगा तो जल स्रोत समाप्त हो ही जाएँगे। जल आपदा नियंत्रण सरकार की एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन जिस तरह अवैध भवन बन जाते हैं और हादसे होने के बाद ही सरकार जागती है। उसी तरह जल आपदा के संकट को भी यदि समय रहते नियंत्रित न किया जाए तो यह समस्या काफ़ी गम्भीर हो सकती है। 


अब बात करें सूखे और अकाल का पर्याय बन चुके बुंदेलखंड की जहां इस वर्ष भारी बारिश हुई है। आँकड़ों के अनुसार पिछले साल हुई 372 मिलीमीटर बारिश के मुक़ाबले इस साल अगस्त के दूसरे सप्ताह तक औसत 1,072 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी है। जो कि पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड है। ग़ौरतलब है कि बुंदेलखंड का यह संकट नया नहीं है। सूखे के बाद बाढ़ के संकट के पीछे बिगड़ते हुए पर्यावरण, खासकर अनियंत्रित खनन, नदियां से रेत का खनन, वनों के विनाश तथा परंपरागत जलस्रोतों के नाश जैसे कारणों को माना जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह पिछले कुछ सालों से प्राकृतिक पर्यावरण की उपेक्षा करके अपनाए गए विकास मॉडल की वजह से पैदा होने वाले दीर्घकालीन जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। सरकार द्वारा इसके लिए किए जाने वाले तात्कालिक उपाय नाकाफी हैं। 


सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दाबा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई।  


बुंदेलखंड का पंजाब कहा जाने वाला जालौन जिला, खेती की दृष्टि से सबसे उपयुक्त है। पंजाब की तरह यहां भी पांच नदियां-यमुना, चंबल, सिंध, कुमारी और पहुज आकर मिलती हैं। आज यह पूरा इलाका बाढ़ से जूझ रहा है। बेमौसम की बारिश ऐसी तबाही मचा रही है कि यहाँ के किसान बर्बादी की कगार पर पहुंच गए हैं। कर्ज लेकर तिल, मूंगफली, उड़द, मूंग की बुआई करने वाले किसानों का मूलधन भी डूब रहा है। 


इसी अगस्त माह की शुरुआत के दिनों में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण भारी संकट पैदा हो गया। इन क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने और बढ़ते जल स्तर को नियंत्रित करने के लिए राजस्थान के कोटा स्थित बैराज के 10 गेट खोलकर 80 हजार क्यूसेक पानी की निकासी की गई। जिसके कारण चंबल नदी के जल स्तर में अचानक वृद्धि हो गई। परिणामतः चंबल तथा इसकी सहायक नदियों-सिंध, काली सिंध एवं कूनो के निचले इलाकों में बाढ़ के हालात उत्पन्न हो गए। चंबल में आई बाढ़ ने राजस्थान के कोटा, धौलपुर तथा मध्य प्रदेश के मुरैना व भिंड आदि जिलों से होते हुए उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन को भी अपनी चपेट में ले लिया।


बुंदेलखंड में लगातार पड़ने वाले सूखे से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकार हजारों करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है यह बात दूसरी है कि इस सबके बावजूद जल प्रबंधन की कोई भी योजना अभी तक सफल नहीं हुई है। बाढ़ के इस प्रकोप के बाद भी अगर जल संचय की उचित और प्रभावी योजना नहीं बनाई गई तो हालात कभी नहीं सुधरेंगे। इतनी वर्षा के बाद बुंदेलखंड में, अनेक वर्षों से किसानों के लिए प्रतिकूल होते हुए मौसम का कुछ भी फ़ायदा किसानों को नहीं मिल पाएगा। इसलिए समय की माँग है कि बुंदेलखंड व ऐसे अन्य इलाकों में स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल जल संरक्षण और संचयन की दीर्घकालीन योजना बनाई जाए। एक समस्या और है और वो शाश्वत है। योजना कितनी भी अच्छी हो अगर उसके क्रियान्वयन में भारी भ्रष्टाचार होगा, जैसा कि आज तक होता आ रहा है तो फिर रहेंगे वही ढाक के तीन पात।  

Monday, August 2, 2021

बरसो राम धड़ाके से


हिमाचल की सांगला वैली में बिटसेरी इलाक़े में, बिना बारिश, के अचानक, पर्वतों के टूटने से जो भूस्खलन हुआ उसने एक बार फिर हमारी विनाश लीला को रेखांकित किया। इस हादसे में 8 निर्दोष पर्यटक मारे गए और नदी के आर-पार जाने वाला पुल भी टूट कर बह गया। सोशल मीडिया पर इस भयावह हादसे का विडीओ देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। क्योंकि जून 2018 में ठीक उसी जगह हम भी सपरिवार थे। शिमला से बिटसेरी के 8 घंटे के ड्राइव में सारे रास्ते विकास के नाम पर विनाश का जो तांडव देखा उससे मन बहुत विचलित हुआ। हर ओर सड़क और विद्युत परियोजनाओं के लिए डाइनामाईट लगा कर जिस बेदर्दी से पहाड़ों को काटा जा रहा था उससे हरे-भरे हिमालय का ये क्षेत्र किसी परमाणु हमले के शिकार से कम नज़र नहीं आ रहा था।


आज भारत का हर पहाड़ी पर्यटन केंद्र बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहा है। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया है। कल-कल करती पहाड़ी नदियां और झरने जिनके किनारे, जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित हुआ करते थे, आज होटलों और इमारतों से भरे पड़े हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी नदियों के निर्मल जल में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई देता। जगह-जगह कूड़े के ढेर, पहाड़ों के ढलानों पर झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। 


ये सही है कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। 


नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। पहाड़ों के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल होती है कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना न करना पड़े। पहाड़ों पर घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा पहाड़ों के लोग प्रायः मकानों को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं। सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। 


ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से पहाड़ी लोगों की आमदनी बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। इन पहाड़ों को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। 


ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 37 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 37 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?


यही बात प्रधान मंत्री जी द्वारा घोषित सौ ‘स्मार्ट सिटीज़’ के संदर्भ में भी लागू होती है। ऊपरी टीम-टाम के चक्कर में बुनियादी ढाँचे को सुधारने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वाराणसी का उदाहरण सामने है। जिसे जापान के प्राचीन शहर क्योटो जैसा बनाने के लिए भारत सरकार ने पिछले सात सालों में दिल खोल कर रुपया भेजा। पर काशीवासियों से पूछिए कि क्या सैंकड़ों करोड़ रुपया खर्च होने के बाद भी उनके शहर की बुनियादी समस्याएँ हल हुई? यही प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधान मंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद्' भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। पर किसी ने नहीं सुना और परिणाम सामने है।  


जरूरत इस बात की थी कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नगरों के विकास की अवधारणा को अनुभवी लोगों की एक राष्टव्यापी समझ के अनुसार मूर्त रूप दिया जाता। फिर उससे हटने की आजादी किसी को न होती। पर सत्ता में बैठा क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों और ताश के महलों में परिवर्तित करता रहेगा ?

Monday, July 26, 2021

पंजाब : बँटवारे के ज़ख़्म आज भी हरे हैं


हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे को 74 वर्ष हो गए। पर इसके ज़ख़्म आज भी हरे हैं। इस बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार सीमा के दोनो तरफ़ रहने वालों ने झेली। दोनो तरफ़ के सिख, हिंदू व मुसलमान बँटवारे की आग में झुलसे। उनके परिजनों की नृशंस हत्याएँ हुई। उनकी बहू-बेटियों की इज़्ज़त लुटी या उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन करा कर अनचाहे विवाह के बंधन में बंधना पड़ा। भई-बहन, माँ-बाप, बेटे-बेटी भगदड़ में बिछुड़ गए। उनके घर-बार, खेत-खलियान व दुकान-कारोबार पीछे छूट गए। उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।
 


दोनों देशों की सरकारें और सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग भी इनका दुःख दूर नहीं कर पाए हैं। यह काम किया है दोनो देशों के टीवी मीडिया में काम करने वाले कुछ उत्साही नौजवानों ने। इनमें ख़ासतौर पर हिंदुस्तान से 47नामा, केशु मुलतानी की केशु फ़िल्मस, धरती देश पंजाब दियाँ और पाकिस्तान से संताली दी लहर, पंजाबी लहर, एक पिंड पंजाब दा, मौहम्मद सरफ़राज़ व मौहम्मद आलमगीर के नाम उल्लेखनीय है। इसके लिए उन्हें किसी टीवी चैनल या सरकार से कोई मदद नहीं मिली। ये प्रयास उन्होंने अपनी पहल, पर थोड़े बहुत साधन जुटा कर किया और इतनी सफलता पाई कि आज हमारे दो देशों के बीच ही नहीं बल्कि कनाडा, इंगलेंड, जर्मनी, औस्ट्रेलिया या अमरीका तक में इनके काम की भरपूर प्रशंसा हो रही है। यूट्यूब पर इनकी रिपोर्टस के लाखों दर्शक हैं। जबकि ये रिपोर्ट ऊँची लागत, तकनीकी कारीगरी और महंगे उपकरणों के बिना, प्रायः साधाहरण कैमरों या स्मार्टफ़ोन की मदद से बनाई गई हैं। बावजूद इसके इनकी विषय वस्तु इतनी गहरी है कि देखने वाला देखता ही रह जाता है। 20-25 मिनट की ये रिपोर्ट जब अपने क्लाइमैक्स तक पहुँचती हैं, देखने वाला बरबस आंसू बहाने लगता है। इनकी भाषा पंजाबी, हिंदी, झाँगी, हरियाणवी व मुलतानी है। 


इन नौजवानों ने पिछले कुछ सालों में भारत, पाकिस्तान सहित उन सभी देशों में अनौपचारिक रूप से अपना जाल बिछा लिया है, जिन देशों में बँटवारे के विस्थापित रहते हैं। ये लड़के सिख, हिंदू या मुसलमान हैं पर इनके दिल में इंसान बसता है। साम्प्रदायिकता या फ़िरक़ापरस्ती की घिनौनी दीवारों की लांघ कर ये नौजवान उन लोगों तक पहुँचे हैं, जिन्होंने बँटवारे का दंश झेला था और वो आज भी ज़िंदा हैं। ज़ाहिर है 74 साल पहले की उस त्रासदी के चश्मदीदों में वही अपनी यादें साझा कर सकते हैं, जिनकी उम्र 1947 में कम से कम दस वर्ष की रही होगी। यानी आज उनकी उम्र 84 के पार है। ऐसे लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं पर फिर भी इनकी संख्या बहुत है। अकेले केशु ने 600 ऐसे लोगों के साक्षात्कार रिकॉर्ड किए हैं जो आज अपने नाती पोतों के साथ सुख से रह रहे हैं। 


ऐसे लोगों को ये लड़के पहले सोशल मीडिया की मदद से ढूँढते थे। पर आज इनके पास अलग अलग देशों से फ़ोन या ईमेल आते हैं कि हमारे बुजुर्ग का इंटरव्यू भी कर लें। फिर अपने खर्चे पर, तकलीफ़ उठा कर उन तक पहुँचते हैं और उनके इंटरव्यू रिकॉर्ड करते हैं। इस कवायद का सबसे सुखद क्षण वो होता है जब यूट्यूब पर इन साक्षात्कारों को देख कर और उनसे उनके मूल परिवारों का विवरण सुनकर उनके बिछड़े परिवारजन, किसी दूसरे देश में बैठे, इन्हें पहचान लेते हैं। फिर ‘यादों की बारात’ आगे बढ़ती है और दोनों ओर के परिवार एक दूसरे से मिलने को बेचैन हो जाते हैं। फिर उनकी रोज़ाना घंटों चलने वाली विडीओ कॉल्ज़ का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस कहानी का क्लाइमैक्स तो तब होता है जब ये दो परिवार आपस में मिलते हैं। उस क्षण की कल्पना कीजिए जब दो बहनें 1947 में अलग हुईं और 72 साल बाद मिलीं। उनमें से कनाडा वाली बहन सिख है और पाकिस्तान वाली बहन मुसलमान। अब दोनों के बच्चे अपने मौसेरे भाई-बहनों से मिलने को बेताब हैं। 


कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, July 19, 2021

कांग्रेस मुक्त भारत क्यों?

2014 के बाद से भाजपा के नेतृत्व ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा दिया था। कांग्रेस मुक्त यानी विपक्ष मुक्त। पर ऐसा हो क्यों नहीं पाया? भाजपा ने इस लक्ष्य को पाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सबका खूब सहारा लिया। हर चुनाव पूरी ताक़त और आक्रामक मुद्रा में लड़े। प्रचार तंत्र बनाम मीडिया उसके पक्ष में ही रहा है। हर चुनाव में पैसा भी पानी की तरह बहाया गया है। जिसका एक लाभ तो हुआ कि ‘मोदी ब्रांड’ स्थापित हो गया। पर भारत कांग्रेस या फिर विपक्ष मुक्त नहीं हुआ। दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाड, तेलंगना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल जैसे ज़्यादातर राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। गोवा, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा ने तोड़-फोड़ कर कैसे सरकार बनाई, वो भी सबके सामने है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों में से जब नेतृत्व नहीं मिल पाया तो विपक्षी दलों के स्थापित नेताओं को धन और पद के लालच देकर भाजपा में लिया गया। तो उसकी ये नीति भी कांग्रेस या विपक्ष मुक्त भारत के दावे को कमजोर करती है। क्योंकि इस तरह जो लोग भाजपा में आकर विधायक, सांसद या मंत्री बने, वे संघी मानसिकता के तो न थे, न बन पाएँगे। इस बात का गहरा अफ़सोस संघ परिवार को भी है।


यहाँ हमारा उद्देश्य इस बात को रेखांकित करना है कि लोकतंत्र में ऐसी अधिनायकवादी मानसिकता कितनी आत्मघाती हो सकती है। लोकतंत्र का उद्देश्य ही है, वैचारिक विविधताओं का पारस्परिक सामंजस्य के साथ शासन चलाना। जब एक परिवार में दो सदस्य ही एक मत नहीं हो सकते, तो पूरे राष्ट्र को एक मत, एक रंग, एक धर्म में कैसे रंगा जा सकता है? जिन देशों ने ऐसा करने का प्रयास किया, उन देशों में तानाशाही की स्थापना हुई और आम जनता का जम कर शोषण हुआ और विरोध करने वालों पर निर्लज्जता से अत्याचार किए गए। जबकि भारत तो भौगोलिक, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक दृष्टि से विभिन्नताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से नागालैंड तक, अपनी इस विविधता के कारण भारत की दुनिया में अनूठी पहचान है। 



समाज के विभिन्न आर्थिक व सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व कोई एक विचारधारा नहीं कर सकती। क्योंकि हर वर्ग की समस्याएँ, परिस्थितियाँ और अपेक्षाएँ भिन्न होती हैं। जिनका प्रतिनिधित्व उनका स्थानीय नेतृत्व करता है। भारत की संसद ऐसे विभिन्न क्षेत्रों के चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से समाज के हर वर्ग के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है। इसलिए कांग्रेस या विपक्ष मुक्त नारा अपरिपक्व मानसिकता का परिचय दे रहा था। जिसे भारत की आम जनता ने बार-बार नकार कर ये सिद्ध कर दिया है कि उसे अनपढ़ या गंवार समझ कर हल्के में नहीं लिया जा सकता। सत्तारूढ़ दल पर मज़बूत विपक्ष का दबाव ही यह सुनिश्चित करता है कि आम जनता के प्रति सरकार अपने कर्तव्य के निर्वाह करे। लोकतंत्र में जब भी विपक्ष कमजोर होगा सरकार निरंकुश हो जाएगी। 


लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए न्यायपालिका और मीडिया की भी स्वतंत्रता होना अतिआवश्यक होता है। इनके कमजोर पड़ते ही आम आदमी की प्रताड़ना बढ़ जाती है। उसका शोषण बढ़ जाता है। उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। जिसका पूरे देश की मानसिकता पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ सालों से भारत की न्यायपालिका का आचरण चिंताजनक रहा है। राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों को भी न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ न्यायधीशों ने स्वार्थवश जिस तरह दबा दिया, उससे जनता का विश्वास न्यायपालिका पर  घटने लगा था। ग़नीमत है कि इस प्रवृत्ति में पिछले कुछ दिनों से सकारात्मक बदलाव देखा जा रहा है। आशा की जानी चाहिए कि इस प्रवृत्ति का विस्तार सर्वोच्च न्यायालयों से लेकर उच्च न्यायालयों तक होगा, जिससे लोकतंत्र का ये एक पाया टूटने से बच जाए। 


इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले कुछ हफ़्तों में मीडिया की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिस तरह के आदेश पारित किए हैं या निर्देश दिए हैं उनका देश में अच्छा संदेश गया है। राष्ट्रद्रोह के औपनिवेशिक क़ानून का जितना दुरुपयोग गत सात वर्षों में, विशेषकर भाजपा शासित राज्यों में हुआ है, वैसा पहले नहीं हुआ। इससे देश में भय और आतंक का वातावरण बनाया गया और विरोध या आलोचना के हर स्वर को पुलिस के डंडे से दबाने का बहुत ही घृणित कार्य किया गया। ऐसा नहीं है की पूर्ववर्ती सरकारों ने ऐसा नहीं किया, पर उसका प्रतिशत बहुत काम था। सोचने वाली बात यह है कि जब योगी आदित्यनाथ बहैसियत लोकसभा सांसद अपने ऊपर लगाए गए आपराधिक मामलों से इतने विचलित हो गए थे कि सबके सामने फूट-फूट कर रोए थे। तब लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने योगी जी को ढाढ़स बँधाया था। यह दृश्य टीवी के पर्दे पर पूरी दुनिया ने देखा था। प्रश्न है कि जब ठाकुर कुल में जन्म लेकर, कम उम्र में सन्यास लेकर, एक बड़े मठ के मठाधीश हो कर और एक चुने हुए सांसद हो कर योगी जी इतने भावुक हो सकते हैं, तो क्या उन्हें इसका अनुमान है कि जिन लोगों पर वे रोज़ ऐसे फ़र्ज़ी मुक़दमे थोप रहे हैं, उनकी या उनके परिवार की क्या मनोदशा होती होगी? क्योंकि उनकी आर्थिक व राजनैतिक पृष्ठभूमि तो योगी जी की तुलना में नगण्य भी नहीं होती। 


कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि लोकतंत्र में बोलने की और अपना प्रतिनिधि चुनने की आज़ादी सबको होती है। ऐसे में विपक्ष को पूरी तरह समाप्त करने या विरोध के हर स्वर को दबाने से लोकतंत्र जीवित नहीं रह सकता। जबकि इक्कीसवीं सदी में शासन चलाने की यही व्यवस्था सर्वमान्य है। इस में अनेक कमियाँ हो सकती हैं, पर इससे हट कर जो भी व्यवस्था बनेगी वो तानाशाही के समकक्ष होगी या उसकी ओर ले जाने वाली होगी। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को यह समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों से खिलवाड़ करना, हमेशा ही राष्ट्र और समाज के हित के विपरीत होता है। वैसे इतिहास गवाह है कि कोई भी अधिनायक कितना ही ताकतवर क्यों न रहा हो, जब उसके अर्जित पुण्यों की समाप्ति होती है, तो उसका अंत बहुत हिंसक और वीभत्स होता है। इसलिए हर नेता, दल व नागरिक को पूरी ईमानदारी से भारत के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने का प्रयास करना चाहिए, कमजोर करने का नहीं। 

Monday, July 12, 2021

चित्रकूट में संघ का चिंतन


उत्तर प्रदेश के चुनाव कैसे जीते जाएं इस पर गहन चिंतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी अधिकारियों और प्रचारकों का एक सम्मेलन चित्रकूट में हुआ। ऐसे शिविर में हुई कोई भी वार्ता या लिए गए निर्णय इतने गोपनीय रखे जाते हैं कि वे कभी बाहर नहीं आते। मीडिया में जो खबरें छपती हैं वो केवल अनुमान पर आधारित होती हैं, क्योंकि संघ के प्रचारक कभी असली बात बाहर किसी से साझा नहीं करते। इसलिए अटकलें लगाने के बजाए हम अपनी सामान्य बुद्धि से इस महत्वपूर्ण शिविर के उद्देश्य, वार्ता के विषय और रणनीति पर अपने विचार तो समाज के सामने रख ही सकते है।



जहां तक उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा के चुनाव की बात है तो जिस तरह की अफ़रा-तफ़री संघ और भाजपा में मची है उससे यह तो स्पष्ट है कि योगी सरकार की फिर से जीत को लेकर गहरी आशंका व्यक्त की जा रही है, जो निर्मूल नहीं है। संघ और भाजपा के गोपनीय सर्वेक्षणों में योगी सरकार की लोकप्रियता वैसी नहीं सामने आई जैसी सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिखा कर छवि बनाने की कोशिश की गई है। ये ठीक वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी जी के चुनाव प्रचार को तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर खूब ढिंढोरा पीटा था। विपक्ष तब भी बिखरा हुआ था। वाजपेयी जी की लोकप्रियता के सामने सोनिया गांधी को बहुत हल्के में लिया जा रहा था। सुषमा स्वराज और प्रमोद महाजन ने तो उन्हें विदेशी बता कर काफ़ी पीछे धकेलने का प्रयास किया। पर परिणाम भाजपा और संघ की आशा के प्रतिकूल आए। ऐसा ही दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी हुआ। जहां संघ और भाजपा ने हर हथकंडे अपनाए, हज़ारों करोड़ रुपया खर्च किया, पर मतदाताओं ने उसे नकार दिया। 


अगर योगी जी के शासन की बात करें तो याद करना होगा कि मुख्य मंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले कदम क्या उठाए, रोमियो स्क्वॉड, क़त्लखाने और मांस की दुकानों पर छापे, लव जिहाद का नारा और दंगों में मुसलमानों को आरोपित करके उन पर पुलिस का सख़्त डंडा या उनकी सम्पत्ति कुर्क़ करना जैसे कुछ चर्चित कदम उठा कर योगी जी ने उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदुओं का दिल जीत लिया। दशकों बाद उन्हें लगा कि कोई ऐसा मुख्य मंत्री आया है जो हिंदुत्व के मुद्दे को पूरे दम-ख़म से लागू करेगा। पर यह मोह जल्दी ही भंग हो गया। योगी की इस कार्यशैली के प्रशंसक अब पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गए हैं।


इसका मुख्य कारण है कि योगी राज में बेरोज़गारी चरम सीमा पर पहुँच गई है। महंगाई तो सारे देश में ही आसमान छू रही है तो उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी के कारण तमाम उद्योग धंधे और व्यवसाय ठप्प हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश की बहुसंख्यक जनता आर्थिक रूप से बदहाल हुई है। रही-सही मार कोविड काल में, विशेषकर दूसरे दौर में, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता ने पूरी कर डाली। कोई घर ऐसा न होगा जिसका परिचित या रिश्तेदार इस अव्यवस्था के कारण मौत की भेंट न चढ़ा हो। बड़ी तादाद में लाशों को गंगा में बहाया जाना  या दफ़नाया जाना एक ऐसा हृदयविदारक अनुभव था जो, हिंदू शासन काल में हिंदुओं की आत्मा तक में सिहरन पैदा कर गया। क्योंकि 1000 साल के मुसलमानों के शासन काल में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब आर्थिक तंगी या लकड़ी की अनुपलब्धता के कारण हिंदुओं को अपने प्रियजनों के शवों को दफ़नाना पड़ा हो। इस भयानक त्रासदी से हिंदू मन पर जो चोट लगी है उसे भूलने में सदियाँ बीत जाएँगीं।

 

योगी सरकार के कुछ अधिकारी उन्हें गुमराह कर हज़ारों करोड़ रुपया हिंदुत्व के नाम पर नाटक-नौटंकियों पर खर्च करवाते रहे। जिससे योगी सरकार को क्षणिक वाह-वाही तो मिल गई, लेकिन इसका आम मतदाता को कोई भी लाभ नहीं मिला। बहुत बड़ी रक़म इन नाच-गानों और आडम्बर में बर्बाद हो गई। प्रयागराज के अर्ध-कुम्भ को पूर्ण-कुम्भ बता कर हज़ारों करोड़ रुपया बर्बाद करना या वृंदावन की ‘कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक’ को भी कोविड काल में पूर्ण-कुम्भ की तरह महिमा मंडित करना शेख़चिल्ली वाले काम थे। मथुरा ज़िले में तो कोरोना की दूसरी लहर वृंदावन के इसी अनियंत्रित आयोजन के बाद ही बुरी तरह आई। जिसके कारण हर गाँव ने मौत का मंजर देखा। कोविड काल में संघ की कोई भूमिका नज़र नहीं आई। न तो दवा और इंजेक्शनों की काला बाज़ारी रोकने में, न अस्पतालों में बेड के लिए बदहवास दौड़ते परिवारों की मदद करने में और न ही गरीब परिवारों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए।   

 

मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के नाम पर दिल खोल कर धन लुटाया गया। पर दृष्टि, अनुभव, ज्ञान व धर्म के प्रति संवेदनशीलता के अभाव में हवाई विशेषज्ञों की सलाह पर ये धन भ्रष्टाचार और बर्बादी का कारण बना। जिसका कोई प्रशंसनीय बदलाव इन धर्म नगरियों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। आधुनिकरण के नाम पर प्राचीन धरोहरों को जिस बेदर्दी से नष्ट किया गया उससे काशीवासियों और दुनिया भर में काशी की अनूठी गलियों के प्रशंसकों को ऐसा हृदयघात लगा है क्योंकि वे इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। सदियों की सांस्कृतिक विरासत को बुलडोजरों ने निर्ममता से धूलधूसरित कर दिया।

 

योगी सरकार ने गौ सेवा और गौ रक्षा के अभियान को भी खुले हाथ से सैंकड़ों करोड़ रुपया दिया। जो एक सराहनीय कदम था। पर दुर्भाग्य से यहाँ भी संघ और भाजपा के बड़े लोगों ने मिलकर गौशालाओं पर क़ब्ज़े करने का और गौ सेवा के धन को उर्र-फुर्र करने का ऐसा निंदनीय कृत्य किया है जिससे गौ माता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी । इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तमाम प्रमाण भी उपलब्ध हैं।


इन सब कमियों को समय-समय पर जब भी पत्रकारों या जागरूक नागरिकों ने उजागर किया या प्रश्न पूछे तो उन पर दर्जनों एफ़आईआर दर्ज करवा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का जैसा निंदनीय कार्य हुआ वैसा उत्तर प्रदेश की जनता ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए केवल यह मान कर कि विपक्ष बिखरा है, वैतरणी पार नहीं होगी। क्या विकल्प बनेगा या नहीं बनेगा ये तो समय बताएगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस घबराहट में संघ आज सक्रिय हुआ है अगर समय रहते उसने चारों तरफ़ से उठ रही आवाज़ों को सुना होता तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। पर ये भी हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि जब-जब संघ वालों को सत्ता मिलती है, उनका अहंकार आसमान को छूने लगता है। देश और धर्म की सेवा के नाम फिर जो नौटंकी चलती है उसका पटाक्षेप प्रभु करते हैं और हर मतदाता उसमें अपनी भूमिका निभाता है।