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Monday, August 30, 2021

नंद घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की


भादों के इस महीने में सारी दुनिया के हिंदुओं का मन मथुरा की ओर स्वतः ही आकर्षित हो जाता है। 5500 वर्ष पहले कंस के कारागार में जन्म लेने वाले ब्रह्मांड नायक का जन्मोत्सव हज़ारों वर्ष बाद भी उसी उत्साह से मनाया जाता है, मानो ये आज की ही घटना हो। हम ब्रजवासियों के लिए तो बालकृष्ण आज भी हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। वृंदावन में कोई अपनी कन्या का विवाह के लिए रिश्ता ले कर आएगा तो बेटे का पिता पहले बिहारी जी के मंदिर दौड़ेगा और ठाकुर जी के सामने खड़े हो कर कहेगा,
तुम कहो तौ हां कर दऊ और तुम कहो तो नाईं कर दऊ। तब आ कर कन्या के पिता से कहेगा कि, बिहारी जी ने हाँ कर दई है। 
ऐसी दिव्य है ब्रज की भूमि, जो बार -बार उजड़ी और कई बार सजी। जब भगवान धरा धाम को छोड़ कर अपने लोक चले गए तब उनके वियोग में उनके प्रपौत्र वज्रनाभ जी द्वारिका से मथुरा आए। यहाँ उन्हें उपदेश देते हुए शांडिल्य मुनि जी ने कहा, व्रज का अर्थ है व्यापक। सतो, रजो और तमो गुण से अतीत जो परब्रह्म है वही सर्वव्यापक है। कण-कण में व्याप्त है और उसी ब्रह्म का धाम है ये व्रज है जहां सगुण रूप में नंदनंदन भगवान श्री कृष्ण का नित्य वास है। यहाँ उनकी लीलाएँ हर क्षण होती रहती हैं। जो हमें इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं देती। केवल प्रेम रस में गहरे डूबे हुए रसिक संत जन ही उसका अनुभव करते हैं। तब शांडिल्य मुनि ने वज्रनाभ जी को भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थलियाँ  प्रकट करने और उनको सजाने संवारने का आदेश दिया। मुनिवर ने कहा भगवान की लीलाएँ ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना के तटों पर हुई थी। इन्हें तुम सजाओ। वज्रनाभ जी ने इन सबको पुनः प्रकट किया और इनका जीर्णोद्धार किया।

उनके बाद हज़ारों वर्षों तक ब्रज प्रदेश उजड़ा पड़ा रहा। जहां सघन वन थे जिनमें जंगली पशु विचरण करते थे। फिर व्यापक स्तर पर ब्रज का जीर्णोद्धार श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर 16वीं सदी में तब शुरू हुआ, जब उन्होंने बंगाल से अपने दो शिष्यों लोकनाथ गोस्वामी व भूगर्भ गोस्वामी को ब्रज भेजा। इसी दौर में मुग़ल बादशाह अकबर ने ब्रज में जज़िया समाप्त कर दिया और देश भर के हिंदू राजाओं को यहाँ आकर यमुना के घाट, कुंड, वन या मंदिर आदि निर्माण करने की छूट दे दी। इस परिवर्तन के कारण देश भर के रसिक संत भी ब्रज में आकर बसने लगे। किंतु उसके बाद औरंगज़ेब की नीतियों का यहाँ विपरीत प्रभाव पड़ा। तब बहुत से मंदिर तोड़े गए।
 
पूरे ब्रज के विकास की एक विहंगम दृष्टि बीस बरस पहले बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा ने दी। उन्होंने भी ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना घाटों को ही सजाने और संवारने का हम सबको आह्वान किया। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया। जिसका परिणाम ब्रजवासियों और दुनिया भर के कृष्ण भक्तों ने देखा और अनुभव किया। 
इसी दिशा में ब्रज की आध्यात्मिक चेतना और इसके माहात्म को केंद्र में रखते हुए हमने ब्रज के समेकित विकास के लिए एक संवैधानिक संस्था के गठन का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री अखिलेश यादव को दिया। जिन्होंने इस संस्था का संवैधानिक गठन किया। बाद में उसी संस्था का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ रख दिया और बड़ी उदारता से बहुत बड़ी रक़म इस परिषद को सौंपी। पर यहाँ वे दो भारी भूल कर गए। पहली इस परिषद के संचालन का ज़िम्मा उन्होंने ऐसे सेवा निवृत अधिकारी को सौंपा जिन्हें न तो ब्रज संस्कृति की कोई समझ है और न ऐसे ऐतिहासिक कार्य करने का कोई अनुभव। इतना ही नहीं इस परिषद के कुल दो अधिकारियों ने इस परिषद के संविधान को भी उठाकर ताक पर रख दिया। परिषद का वैधानिक रूप से वांछित नियमों के तहत गठन किए बिना ही बड़े-बड़े निर्णय स्वयं ही लेने शुरू कर दिए। जिनमें पानी की तरह जनता का पैसा बहाया गया। बावजूद इसके, ये सरकारी संस्था ब्रज की धरोहरों व संस्कृति के संरक्षण की दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं कर पाई। इसकी परियोजनाओं से ब्रज की संस्कृति का विनाश ही हुआ है, संरक्षण नहीं। इस परिषद के किए गए कामों और खर्च की गई रक़म की अगर निष्पक्ष खुली जाँच हो जाए तो सब घोटाला सामने आ जाएगा। 
आजकल चुनावी मूड में आ चुके उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जनसभाओं में ताल ठोक कर इस परिषद की उपलब्धियाँ गिना रहे हैं। जबकि ब्रज के अनेक साधु संत, सामाजिक संस्थाएँ और खुद भाजपा व संघ के कार्यकर्ता तक गत 4 वर्षों में योगी जी से बार-बार विकास और संरक्षण के नाम पर परिषद द्वारा मथुरा में किए जा रहे विनाश की शिकायतें कर चुके हैं। पर योगी ने आज तक ईमानदारी से जाँच किए जाने का कोई आदेश जारी नहीं किया। इससे ब्रज में रह रहे संत और ब्रजवासी ही नहीं बल्कि यहाँ आने वाले लाखों तीर्थ यात्री भी बहुत व्यथित हैं। इसी कॉलम में 6 नवंबर 2017 को मैंने लिखा था ‘ऐसे नहीं होगी ब्रज धाम की सेवा योगी जी’। पर उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की। होर्डिंग व विज्ञापनों के ज़ोर पर ही अगर विकास दिखाना है तो फिर कोई काम करने की ज़रूरत ही क्या है। दुःख और पीड़ा तो इस बात की है कि हिंदू धर्म के नाम पर बनीं योगी सरकार का सार ज़ोर विज्ञापनों पर है। न तो योजनाओं के निर्माण में पारदर्शिता और कल्पनाशीलता रही है और न ही उनके क्रियांवन में। इससे हल्ला चाहें कितना मचा लें, हिंदू धर्म का कोई हित नहीं हो रहा। पर किसे फ़ुरसत हैं सच को जानने और कुछ ठोस करने के लिए? जब बारहों महीने सबका लक्ष्य केवल चुनाव जीतना हो तो ऐसे में हम कब तक ब्रज के लिये आँसूँ बहाएँ? चलो आओ श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाएँ।

Monday, May 8, 2017

नया भारत कर रहा अपनी धार्मिक अस्मिता को पुर्नस्थापित

नया भारत अपनी धार्मिक अस्मिता और मानकों को पुर्नस्थापित करने की चेष्टा में पुरजोर लगा हुआ है। ऐसी ही एक चेष्टा पिछले 15 सालों से योगेश्वर श्रीकृष्ण की क्रीड़ा स्थली ब्रज में मूर्त रूप ले रही है। जिसका एक मनमोहने वाला दृश्य गिरि गोवर्धन की तलहटी में 24 फुट ऊँचे भगवान संकर्षण की स्थापना के दौरान सामने आया। बृजवासियों का उत्साह देखने लायक था। इन्द्र के मान मर्दन के समय जिस आत्मविश्वास का स्थापन हुआ था वही जनभावना दाऊ दादा की इस स्थापना के समय स्फूर्त हुई। जिन कतिपय ताकतों द्वारा ब्रज के सॉंस्कृतिक सोपानों को हड़पने का दुष्चक्र चलाया जा रहा है वो दाऊ दादा की जय के निनाद से भयभीत हो उठे से दिखे।
5000 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को भगवान संकर्षण (दाऊजी) का जो विग्रह प्राप्त हुआ था, उसी का एक विशालकाय व भव्य प्रतिरूप गोवर्धन की तलहटी में स्थित संकर्षण कुंड, आन्यौर में स्थापित किया गया। इस विग्रह को तिरूपति बालाजी में स्थित कार्यशाला में 22 अनुभवी शिल्पकारों के एक वर्ष की सघन परिश्रम के पश्चात निर्मित किया गया।
आध्यात्मिक भारत अनादि काल से एकीकृत रहा है। हमारी आस्थाएँ, हमारी परम्पराएँ और हमारे संस्कृतिक मानक भाषा व भूगोल से परे एक से ही रहे हैं। वैविध्यपूर्ण इकाइयाँ एक दूसरे से अंतरंगता बनाए रखती हैं। तभी तो दक्षिण के सर्वमान्य चिन्ना जीवर स्वामी तिरूपति स्थित अपनी शिल्पशाला में उत्तर के बलराम को संकर्षण स्वरूप देने को सहज तैयार हो जाते हैं। तो वेंकटेश्वर बालाजी के भक्त डॉ रामेश्वर राव उतर भारत की इस महाकृति को वित्तीय अनुदान सहज भाव से स्वीकृत कर देते हैं। भारत की यही आध्यात्मिक एकता ही तो नए भारत का निर्माण कर पाएगी।
सांस्कृतिक मानबिंदुओ की पुनः प्रतिष्ठा का एक गहरा प्रभाव सामाजिक अंतर्मन पर होता है जोकि समसामयिक अर्थ व राज व्यवस्था का निर्माण करता है। नए भारत के निर्माण हेतु यह एक प्रमुख अवयव होगा जिसके लिए किसी भी विदेशी धन और ज्ञान की जरूरत नहीं होगी। कम से कम 5000 वर्ष की सुसमृद्ध सभ्यता का धनी भारत अपने व्यक्तिक चिन्तन व कौशल से अपना पुनर्निर्माण करने में सक्षम है। श्रीकृष्ण सरीखे राजनयिक ने विकास का जो मोडेल ब्रज प्रांत में स्थापित किया उससे प्रेरणा लेने की जरूरत है।
इंद्र की अमरावती के ऐश्वर्य का मोह तज उन्होंने ब्रज की समृद्धि के मूल कारक गिरि गोवर्धन की प्रतिष्ठा की। ब्रज के वन और शैल को ही ब्रजवासियोंके मूल निवास स्थान के रूप में स्थापित किया। ऐसा नहीं की वो नगरीय संस्कृति से अनभिज्ञ थे। द्वारिका का प्रणयन तो उन्हीं के कर कमलों से ही हुआ था। सन्दर्भ की सारगर्भित व्याख्या और प्रतिष्ठा ने ही तो कृष्ण को जगतगुरु की पदवी प्रदान की। उन्होंने कंस जैसी विजातीय संस्कृति के अनुयायी के प्रभाव को ब्रज में प्रवेश ही नहीं होने दिया।
ब्रज की सम्पदा को संरक्षित करने के उनके अभिनव प्रयास ने उन्हें ब्रजराज की ख्याति भी दिला दी। ब्रज के वन्य-ग्राम्य जीवन को ना केवल उन्होंने प्रचारित किया बल्कि स्वयं अपनाया भी। नए भारत के निर्माताओं को श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित मूल्यों और मानकों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करना चाहिए। एक भव्य और दिव्य भारत का निर्माण भारतीय अधिष्ठान पर ही हो पाएगा ऐसा विश्वास भारतीय जनमानस में सृष्टिकाल से रहा है।
1893 के शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन से लेकर संयुक्त राष्ट्र की महासभा के 2015 के अभिभाषण तक में भारत के इस चिर परिचित स्वरूप का निरूपण हुआ है। दोनों ही नरेंद्र नामराशियों ने भारत के आध्यात्मिक जन मानस की विशद व्याख्या की है। भगवान संकर्षण के इस विशालकाय स्वरूप की स्थापना भी इसी ओर इंगित करती है।नई संज्ञाएँ, नए समीकरण और नए सोपान भारत की धर्मभीः जनता को भ्रमित नहीं कर पाएँगे। इसका जीता जागता उद्घोष गिरि गोवर्धन की तलहटी में स्थापित भगवान संकर्षण का गगनचुंबी श्रीविग्रह कर रहा है। नया भारत, चिर पुरातन भारत की नित प्रवाहमान और सारगर्भित जीवन शैली के अनुक्रम में ही अँगड़ाई ले पाएगा। एक विजातीय परम्परा के अनुगमन के रूप में शायद कभी नहीं।
ब्रज भूमि में ही जन्मे और पले बढ़े एकात्म मानवतावाद के प्रवर्तक दीन दयाल जी ने भी कृष्ण के ही इस जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर के दर्शन को ही अपने राजनैतिक जीवन का आधार बनाया। उनका विशद वॉंग्मय इस दिशा में स्पष्ट व सारगर्भित है। पश्चिम का अलक्षेन्द्र विविध मुखौटे लगा भारत का अतिक्रमण ही करेगा। भारत के फटे वसन को सीने की उसकी लालसा न होगी।