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Monday, June 3, 2024

पाकिस्तान में हिंदू विरासत कैसे बचे?


यूँ तो पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी आज बढ़ कर 2.1 प्रतिशत हो गई है, जो आज़ादी के समय पाकिस्तान में 1.6 प्रतिशत थी। इसमें भी ज़्यादातर हिंदू कराची, सियालकोट और लाहौर में रहते हैं। इनमें भी ज़्यादा प्रतिशत दलित और पिछड़ी जातियों के हिंदू हैं, जो गाँव में रहते हैं और उनकी आर्थिक हालत काफ़ी कमज़ोर है। हालाँकि भारत सरकार ने बँटवारे के समय पाकिस्तान में रह गये हिंदुओं को भारत आ कर बसने और यहाँ की नागरिकता लेने की प्रक्रिया आसान कर दी है फिर भी अपेक्षा के विपरीत पाकिस्तान में बसे हिंदू भारत आ कर बसने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि वे सदियों से वहीं रहते आए हैं और वही उनकी मातृभूमि है। 



बँटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू हर शहर में बसे थे और वे बड़े ज़मींदार व संपन्न व्यापारी थे। जिन्हें रातों रात सब कुछ छोड़ कर भारत में शरणार्थी बन कर आना पड़ा। इन हिंदुओं व जैनियों ने पाकिस्तान में अपने आराध्य के एक से एक बढ़ कर मंदिर बनवाये थे। जिनकी संख्या 1947 में 428 थी। जो आज घट कर मात्र 20 मंदिर रह गये हैं। इसी तरह पाकिस्तान के पंजाब सूबे में सैंकड़ों गुरुद्वारे थे जो बाद में भारत से गए मुसलमान शरणार्थियों के आशियाने बन गये। वैसे बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी का मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। क्योंकि ये 64 शक्तिपीठों में से एक है और यहाँ सारे वर्ष तीर्थ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा कराची की हिंदू आबादी के बीच जो मंदिर हैं वे भी सुरक्षित हैं और उनमें भगवान की नियमित सेवा पूजा और उत्सवों का आयोजन होता रहता है। पर इतनी बड़ी संख्या में मंदिरों और गुरुद्वारों का नष्ट हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। क्योंकि जब उनमें आस्था रखने वाले लोग ही नहीं रहे तो ये मंदिर और गुरुद्वारे कैसे आबाद रहते? 



इस स्थिति में बड़ा बदलाव तब आया जब 2011 में पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद पेशावर के ऐतिहासिक गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार पाकिस्तान सरकार द्वारा करवाया गया। इसी तरह कराची में दरियालाल मंदिर का भी जीर्णोद्धार सरकार और भक्तों ने मिलकर किया। 2019 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री इमरान खाँ ने घोषणा की थी कि बँटवारे के समय जो 400 मंदिर पाकिस्तान में थे उन सभी का आधिग्रहण करके सरकार उनका जीर्णोद्धार करवायेगी। इसी क्रम में सियालकोट में 1947 से बंद पड़े शिवाला तेजसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार भी वहाँ की सरकार ने करवाया। पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ की फ़ौज लोकतंत्र को सफल नहीं होने देतीं। इमरान खाँ अपदस्त कर दिये गये और उसके साथ ही उनकी यह योजना भी खटाई पड़ गई। पर पाकिस्तान के पढ़े लिखे मध्यम वर्गीय मुस्लिम समाज में अपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों को लेकर नव-जागृति आई है। आप यूट्यूब पर अनेक टीवी रिपोर्ट्स देख सकते हैं जिनमें इन स्थलों को खोजने और दिखाने में पाकिस्तान के युवा यूट्यूबर उत्साह से जुटे हैं। चूँकि भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं, इसलिए दुनिया के अन्य देशों विशेषकर यूरोप व अमरीका में रहने वाले संपन्न हिंदुओं को पाकिस्तान में स्थित ऐतिहासिक हिंदू तीर्थ स्थलों का उदारता से जीर्णोद्धार करवाना चाहिए। बशर्ते कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार और स्थानीय लोग इस बात के लिए तैयार हों और इन स्थलों की रक्षा और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी भी लें। 


इसी क्रम में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की नील घाटी में पौराणिक शारदापीठ एक ऐसा तीर्थस्थल है जिसका विकास कश्मीरी पंडित व अन्य हिंदू ही नहीं, नील घाटी में रहने वाले मुसलमान भी करवाना चाहते हैं। क्योंकि श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह विकसित हो जाने पर उन्हें यहाँ अपनी आर्थिक समृद्धि की असीम संभावनाएँ दिखाई देती हैं। भौगौलिक रूप से भी यह तीर्थ भारत की मौजूदा सीमा के परलीपार स्थित है। पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।


जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 


चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।


माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे। 


इस तीर्थ के जीर्णोद्धार और इस संपूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ कई वर्षों से सक्रिय हैं। उनके प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर अच्छे संबंध हैं और उन्हें सनातन धर्मियों का उदार समर्थन प्राप्त है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में भक्तों की ये भावना पूरी होगी ही और श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह ‘शारदा देवी कॉरिडोर’ का निर्माण हो सकेगा।  

Monday, October 9, 2023

भारत पाकिस्तान बटवारे के बुजुर्गों को वीज़ा दें


आज़ादी मिले 75 साल हो गये। उस वक्त के चश्मदीद गवाह बच्चे या जवान आज 80 साल से लेकर  100 की उम्र के होंगे, जो इधर भी हैं और उधर भी। बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार पंजाब ने सही। ये बुजुर्ग आज तक उस खूनी दौर को याद करके सिहर जाते हैं। भारत के हिस्से में आए पंजाब से मुसलमानों का पलायन पाकिस्तान की तरफ़ हुआ और पाकिस्तान में रह रहे सिक्खों और हिंदुओं का पलायन भारत की तरफ़ हुआ। ऐसा कोई परिवार नहीं है जिसने अपने घर के दर्जनों बच्चे, बूढ़े और औरतों को अपनी आँखों के सामने क़त्ल होते न देखा हो। इस क़त्लेआम में जो बच गए, वो आज तक अपने सगे-संबंधियों को याद करके फूट-फूट कर रोते हैं। दोनों मुल्कों में मिला कर ऐसे लोगों की संख्या कुछ हज़ारों में है। 


जबसे करतारपुर साहिब कॉरिडोर खुला है तबसे अब तक सैंकड़ों ऐसे परिवार हैं जो 70 साल बाद अपने बिछड़े परिवार जनों से मिल पाये हैं। पर ये मुलाक़ात कुछ घंटों की ही होती है और इसके पीछे उन नौजवानों की मशक़्क़त है जो दोनों ओर के पंजाब में ऐसे बुजुर्गों के इंटरव्यू यूट्यूब पर डाल कर उन्हें मिलाने का काम कर रहे हैं। प्रायः ऐसे सारे इंटरव्यू ठेठ पंजाबी में होते हैं। फिर भी अगर आप ध्यान से सुने तो उनकी भाषा में ही नहीं उनकी आँखों और चेहरे का दर्द देख कर आपके आंसू थमेंगे नहीं। करतारपुर साहिब में जब इन परिवारों की 3-4 पीढ़ियाँ मिलती हैं तो उनका मिलन इतना हृदयविदारक होता है कि आसमान भी रो दे। एक ही परिवार के आधे सदस्य इधर के सिक्ख बने और उधर के मुसलमान बने।   



इन सब बुजुर्गों और इनके परिवारों की एक ही तमन्ना होती है कि दोनों देशों की सरकारें, कम से कम इन बुजुर्गों को लंबी अवधि के वीज़ा दे दें, जिससे ये एक दूसरे के मुल्क में जा कर अपने बिछड़े परिवारों के साथ ज़िंदगी के आख़िरी दौर में कुछ लम्हे बिता सकें। जिसकी तड़प ये सात दशकों से अपने सीने में दबाए बैठे हैं। हम सब जानते हैं कि नौकरशाही और राजनेता इतनी आसानी से पिघलने वाले नहीं। पर सोचने वाली बात यह है कि 80 वर्ष से ऊपर की उम्र वाला कोई बूढ़ा पुरुष या महिला, क्या किसी भी देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है? जिसने ज़िंदगी भर बटवारे का दर्द सहा हो और हज़ारों, लाखों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतरते देखा हो, वो उम्र के इस पड़ाव पर आतंकवादी क़तई नहीं हो सकता। इसलिए दोनों देशों की सरकारों को अपने-अपने देश के अख़बारों में विज्ञापन निकाल कर ऐसे सब बुजुर्गों से आवेदन माँगने चाहिए और उन्हें अविलंब प्रोसेस करके एक-दूसरे के मुल्क में जाने का कम से कम एक महीने का वीज़ा मुहैया करवाना चाहिए। 


आज के माहौल में जब सांप्रदायिकता की आग में दुनिया के कई देश झुलस रहे हैं, तब भारत और पाकिस्तान सरकार का ये मानवीय कदम एक अंतर्राष्ट्रीय मिसाल बन सकता है। इससे समाज में एक नयी चेतना का विस्तार हो सकता है। क्योंकि आज का मीडिया और राजनेता चाहें सरहद के इस पार हों या उस पार सांप्रदायिक आग को भड़काने का काम कर रहे हैं। ऐसे में जब दोनों मुल्कों की नई पीढ़ी जब इन बुजुर्गों से विभाजन के पूर्व के माहौल की कहानियाँ सुनेगी तो उसकी आँखें खुलेंगी। क्योंकि उस दौर में हिंदू, सिक्ख और मुसलमानों के बीच कोई भी वैमनस्य नहीं था। सब एक दूसरे के ग़म और ख़ुशी में दिल से शामिल होते थे और एक दूसरे की मदद करने को हर वक्त तैयार रहते थे। विभाजन की कहानियाँ दिखाने वाले दोनों मुल्कों के इन यूट्यूब चैनलों पर जब आप इन बुजुर्गों की कहानियाँ सुनेंगे तो आपको आश्चर्य होगा कि इतनी प्यार मौहब्बत से रहने वाले इन लोगों के बीच ऐसी हैवानियत अचानक कैसे पैदा हो गई कि वो एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये? ये बुजुर्ग बताते हैं कि इस माहौल को ख़राब करने का काम उस वक्त के फ़िरक़ापरस्त राजनैतिक संगठनों और उनके नेताओं ने किया। जबकि आख़िरी वक्त तक दोनों ओर के हिंदू, मुसलमान और सिक्ख, इस तसल्ली से बैठे थे कि हुकूमत बदल जाएगी पर उनका वतन उनसे नहीं छिनेगा। जो अपने घर, दुकान और खेत खलिहान छोड़ कर भागे भी तो इस विश्वास के साथ कि अफ़रा-तफ़री का ये दौर कुछ हफ़्तों में शांत हो जाएगा और वे अपने घर लौट आएँगे। पर ये हो न सका। 



उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।



कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है। 

Monday, July 26, 2021

पंजाब : बँटवारे के ज़ख़्म आज भी हरे हैं


हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे को 74 वर्ष हो गए। पर इसके ज़ख़्म आज भी हरे हैं। इस बँटवारे की सबसे ज़्यादा मार सीमा के दोनो तरफ़ रहने वालों ने झेली। दोनो तरफ़ के सिख, हिंदू व मुसलमान बँटवारे की आग में झुलसे। उनके परिजनों की नृशंस हत्याएँ हुई। उनकी बहू-बेटियों की इज़्ज़त लुटी या उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन करा कर अनचाहे विवाह के बंधन में बंधना पड़ा। भई-बहन, माँ-बाप, बेटे-बेटी भगदड़ में बिछुड़ गए। उनके घर-बार, खेत-खलियान व दुकान-कारोबार पीछे छूट गए। उन्हें एक नए देश में, नए परिवेश में, नए पड़ोसियों के बीच शरणार्थी बनकर रहना पड़ा। जिनके घर दूध दही की नदियाँ बहती थी, उन्हें मेहनत करके, रेहड़ी लगा कर या ज़मीदारों के खेतों में मज़दूरी करके पेट पालना पड़ा। इन लोगों के ख़ौफ़नाक अनुभव पर दोनों मुल्कों में बहुत फ़िल्में बन चुकी हैं। लेख और उपन्यास लिखे जा चुके हैं और सद्भावना प्रतिनिधि मंडल भी एक दूसरे के देशों में आते-जाते रहे। पर उन्होंने जो झेला वो इतना भयावह था कि उस पीढ़ी के जो लोग अभी भी ज़िंदा बचे हैं वो आज तक उस मंजर को याद कर नींद में घबरा कर जाग जाते हैं और फूट-फूट कर रोने लगते हैं।
 


दोनों देशों की सरकारें और सामाजिक सरोकार रखने वाले लोग भी इनका दुःख दूर नहीं कर पाए हैं। यह काम किया है दोनो देशों के टीवी मीडिया में काम करने वाले कुछ उत्साही नौजवानों ने। इनमें ख़ासतौर पर हिंदुस्तान से 47नामा, केशु मुलतानी की केशु फ़िल्मस, धरती देश पंजाब दियाँ और पाकिस्तान से संताली दी लहर, पंजाबी लहर, एक पिंड पंजाब दा, मौहम्मद सरफ़राज़ व मौहम्मद आलमगीर के नाम उल्लेखनीय है। इसके लिए उन्हें किसी टीवी चैनल या सरकार से कोई मदद नहीं मिली। ये प्रयास उन्होंने अपनी पहल, पर थोड़े बहुत साधन जुटा कर किया और इतनी सफलता पाई कि आज हमारे दो देशों के बीच ही नहीं बल्कि कनाडा, इंगलेंड, जर्मनी, औस्ट्रेलिया या अमरीका तक में इनके काम की भरपूर प्रशंसा हो रही है। यूट्यूब पर इनकी रिपोर्टस के लाखों दर्शक हैं। जबकि ये रिपोर्ट ऊँची लागत, तकनीकी कारीगरी और महंगे उपकरणों के बिना, प्रायः साधाहरण कैमरों या स्मार्टफ़ोन की मदद से बनाई गई हैं। बावजूद इसके इनकी विषय वस्तु इतनी गहरी है कि देखने वाला देखता ही रह जाता है। 20-25 मिनट की ये रिपोर्ट जब अपने क्लाइमैक्स तक पहुँचती हैं, देखने वाला बरबस आंसू बहाने लगता है। इनकी भाषा पंजाबी, हिंदी, झाँगी, हरियाणवी व मुलतानी है। 


इन नौजवानों ने पिछले कुछ सालों में भारत, पाकिस्तान सहित उन सभी देशों में अनौपचारिक रूप से अपना जाल बिछा लिया है, जिन देशों में बँटवारे के विस्थापित रहते हैं। ये लड़के सिख, हिंदू या मुसलमान हैं पर इनके दिल में इंसान बसता है। साम्प्रदायिकता या फ़िरक़ापरस्ती की घिनौनी दीवारों की लांघ कर ये नौजवान उन लोगों तक पहुँचे हैं, जिन्होंने बँटवारे का दंश झेला था और वो आज भी ज़िंदा हैं। ज़ाहिर है 74 साल पहले की उस त्रासदी के चश्मदीदों में वही अपनी यादें साझा कर सकते हैं, जिनकी उम्र 1947 में कम से कम दस वर्ष की रही होगी। यानी आज उनकी उम्र 84 के पार है। ऐसे लोग उँगलियों पर गिने जा सकते हैं पर फिर भी इनकी संख्या बहुत है। अकेले केशु ने 600 ऐसे लोगों के साक्षात्कार रिकॉर्ड किए हैं जो आज अपने नाती पोतों के साथ सुख से रह रहे हैं। 


ऐसे लोगों को ये लड़के पहले सोशल मीडिया की मदद से ढूँढते थे। पर आज इनके पास अलग अलग देशों से फ़ोन या ईमेल आते हैं कि हमारे बुजुर्ग का इंटरव्यू भी कर लें। फिर अपने खर्चे पर, तकलीफ़ उठा कर उन तक पहुँचते हैं और उनके इंटरव्यू रिकॉर्ड करते हैं। इस कवायद का सबसे सुखद क्षण वो होता है जब यूट्यूब पर इन साक्षात्कारों को देख कर और उनसे उनके मूल परिवारों का विवरण सुनकर उनके बिछड़े परिवारजन, किसी दूसरे देश में बैठे, इन्हें पहचान लेते हैं। फिर ‘यादों की बारात’ आगे बढ़ती है और दोनों ओर के परिवार एक दूसरे से मिलने को बेचैन हो जाते हैं। फिर उनकी रोज़ाना घंटों चलने वाली विडीओ कॉल्ज़ का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस कहानी का क्लाइमैक्स तो तब होता है जब ये दो परिवार आपस में मिलते हैं। उस क्षण की कल्पना कीजिए जब दो बहनें 1947 में अलग हुईं और 72 साल बाद मिलीं। उनमें से कनाडा वाली बहन सिख है और पाकिस्तान वाली बहन मुसलमान। अब दोनों के बच्चे अपने मौसेरे भाई-बहनों से मिलने को बेताब हैं। 


कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें 85 या 90 साल के बुजुर्ग अपने परिवारजनों के साथ अपने पैतृक गाँव, शहर या घर देखने पाकिस्तान या भारत आते हैं। वहाँ पहुँचते ही इनका फूलों, मालाओं और नगाड़ों से स्वागत होता है। वहाँ कभी-कभी उन्हें हमउम्र साथी मिल जाते हैं। तब बचपन के बिछड़े ये दो यार एक दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रोते हैं। फिर इन्हें इनके बचपन का स्कूल, पड़ौस व इनका घर दिखाया जाता है। जहां पहुँच कर ये अतीत की यादों में खो जाते हैं। वहाँ रहने वाले परिवार से पूछते हैं कि क्या उनके माता-पिता की कोई निशानी आज भी उनके पास है? इनकी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है जब इन्हें वो चक्की दिखाई जाती है, जिस पर इनकी माँ गेहूं पीसती थीं या इनके पिता के कक्ष में रखी लोहे की वो भारी तिजोरी दिखाई जाती है, जो आज भी काम आ रही है। ये उस घर की ऐसी निशानी और आँगन की मिट्टी उनसे माँग लेते हैं, ताकि अपने देश लौट कर अपने परिवार को दिखा सकें। मौक़ा मिले तो आप भी इन कहानियों को देखिएगा और सोचिएगा कि साम्प्रदायिकता या मज़हबी उन्माद में मारे तो आम लोग जाते हैं पर सत्ता का मज़ा वो उड़ाते हैं जो इस आग को भड़काते ही इसलिए हैं कि उन्हें सत्ता पानी है। धर्म और मज़हब तो उनके इस लक्ष्य तक पहुँचने की सीढ़ी मात्र होती है। हम किसी भी धर्म या मज़हब के मानने वाले क्यों न हों, इन फ़िरक़ापरस्ती ताक़तों से सावधान रहना चाहिए, इसी में हमारी भलाई है। 1947 का बँटवारा यही बताता है।