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Monday, June 23, 2025

हम इतने जंगली क्यों हैं ?

शेर बहुत हिंसक प्राणी है ये हम सब जानते हैं। पिछले हफ़्ते हम केन्या के विश्व प्रसिद्ध मसाई मारा वन्य अभ्यारण्य में खुली जीप में घूमते रहे। सबसे रोमांचक क्षण वो थे जब हमारी जीप के तीन तरफ़ चार पाँच बब्बर शेर व शेरनी बैठे थे। उनसे हमारी दूरी मात्र 10 फीट थी। वो हमें निहार रहे थे और हम उन्हें। वो तो बेफिक्र होकर अपने जिस्म चाट रहे थे और हमारी रूह काँप रही थी कि कहीं वो हम पर हमला न कर दें। हालाँकि फारेस्ट गार्ड ने आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ नहीं होगा। हम न सिर्फ़ उन्हें आधे घंटे तक एकटक निहारते रहे बल्कि जब वो उठ कर चल दिए तो हम भी धीमी गति से उनका पीछा करते हुए चलते रहे। उन्होंने फिर भी कोई उत्तेजना नहीं दिखाई। कमाल है कि जंगल का सबसे हिंसक पशु भी अपने अनुशासन की सीमा में रहना जानता है और अपने को सभ्य समाज मानने वाले हम कितने हिंसक हैं कि वाणी से, क्रिया से और विचारों से हमेशा अपने समाज व पर्यावरण के प्रति हिंसा करते रहते हैं। चाहे हमारे ये क्रियाएं आत्मघाती ही क्यों न हों। 



केन्या के उस सुनसान जंगल में बैठे बैठे सोशल मीडिया पर समाचार मिला कि डोनाल्ड ट्रम्प भी अब इसराइल व ईरान के युद्ध में कूदने का मन बना रहे हैं। उधर यूक्रेन व रूस का युद्ध बरसों से लगातार तबाही मचा ही रहा है और इधर अब ये नया मोर्चा तैयार हो रहा है। क्या ये विश्व युद्ध की ओर बढ़ते कदम नहीं हैं ? 


वैसे तो मानव समाज जब से संगठित हुआ होगा तब से युद्ध उसके जीवन का अंग बने होंगे। इतिहास आज तक हुए लाखों युद्धों की गाथाओं से भरा पड़ा है। फिर भी मेरे मन में ये दार्शनिक प्रश्न आ रहा है कि इन युद्धों की शुरुआत करने वाले इतने जंगली क्यों होते हैं? क्या उन्हें नहीं दिखता कि युद्ध की विभीषिका में कितने बच्चे अनाथ हो जाते हैं, महिलायें विधवा हो जाती हैं, बने बनाए घर-मकान, विशाल भवन आदि सब ध्वस्त हो जाते हैं, युद्ध के गोले बारूद से पर्यावरण जहरीला हो जाता है, अर्थव्यवस्थाएं लड़खड़ा जाती हैं, विकास अवरुद्ध हो जाता है और आम जनता तबाह हो जाती हैं। 



फिर हर युद्ध के बाद युद्ध विराम होता है और शांति वार्ताएं होती हैं। अगर हर युद्ध की परिणति शांति वार्ता ही होनी थी तो फिर ये सब विध्वंस क्यों किया गया? हुक्मरानों से ये सवाल पूछने वाला कोई नहीं होता। सवाल पूछना तो दूर प्रायः आम जनता तो अपनी तबाही के लिए ज़िम्मेदार नेता की ही मुरीद हो जाती है। युद्ध के उन्माद में उसे मसीहा मान लेती है। जैसा जर्मनी की जनता ने किया। जो हिटलर की आत्महत्या के आख़िर क्षण तक यही मानते रही कि वो उन्हें हर बला से बचा लेगा। एक अहमक के फ़ितूर ने जर्मनी को तबाह कर दिया। 


प्रायः हर देश में ऐसी मानसिकता वाले लोगों की कमीं नहीं है जो शस्त्र निर्माता लॉबी व भ्रष्ट, अहंकारी और आत्म मुग्ध, अति महत्वाकांक्षी अपने नेताओं के प्रोपोगैंडा के प्रभाव में आकर अपना अच्छा बुरा देखने की क्षमता ही खो बैठती है। ट्रम्प के समर्थक मतदाताओं का भी अमरीका के चुनाव से पहले यही हाल था।



मैं कभी सैन्य विज्ञान का विद्यार्थी नहीं रहा। इसलिए युद्धों के कारण की सैद्धांतिक व्याख्या करने का दुस्साहस नहीं करूँगा। पर एक संवेदनशील आम नागरिक होने के नाते ये सोचने और पूछने का हक़ तो रखता हूँ कि आख़िर ये युद्ध किसके हित में होते हैं? उस जनता के हित में तो बिल्कुल नहीं होते जिसके ख़ून पसीने की कमाई पर वसूले गए टैक्स के अरबों रुपये ऐसे युद्धों में फूंक दिए जाते हैं। सफेद हाथी की तरह बैठा सयुंक्त राष्ट्र (संघ) आज तक एक भी युद्ध नहीं रोक पाया। क्या कोई पुतिन, ट्रम्प या तालिबानी नेता उसकी सुनने को तैयार है? फिर भी सयुंक्त राष्ट्र के नाम पर दुनियाँ में दशकों से नौटंकी चल रही है।



आज इस लेख में समाधान प्रस्तुत करने वाला कोई विचार मेरे पास नहीं हैं। पर एक फ़िक्र ज़रूर खाये जा रही है कि आज दुनिया एक अजीब दौर से गुज़र रही है। जहाँ अशांति व असुरक्षा और पर्यावरण का विनाश तेज़ी से बढ़ रहा है व मानवीय संवेदनशीलता उतनी ही तेज़ी से घट रही है। डोनाल्ड ट्रम्प को ही लें। जिनके स्वागत में हमने पलक पाँवड़े बिछाये थे वो अपने देश में घुसे अवैध भारतीयों को हथकड़ी और बेड़ियों में बाँध कर वापिस भेज रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के ऐसे लोगों को ससम्मान भेज जा रहा है। ट्रम्प वहाँ रह रहे भारतीयों के वीजा ख़त्म करने के धमकी दे रहे हैं। इससे डर कर कितने सफल युवा अमरीका के अपने सपने को चूर-चूर होते देख घर लौट रहे हैं। 


दरअसल ये हुक्मरान आम जनता को चैन से जीने नहीं देना चाहते। उसे हमेशा डरा दबा कर रखना चाहते हैं। इन सबसे तो जंगल का राजा शेर कहीं ज्यादा अमन पसंद है जो अपना पेट भरने के बाद अकारण किसी पर हमला नहीं करता। हम तो उससे कहीं ज़्यादा हिंसक हो चुके हैं। फिर भी ठहर कर सही और ग़लत पर सोचने का समय नहीं है आज हमारे पास।आज जब सूचना क्रांति ने पूरी दुनियाँ के लोगों को इस तरह जोड़ दिया है कि सैकंडों में सूचनाएँ दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँच जाती हैं। तब क्या युद्ध और पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए हर देश की जागरूक जनता सोशल मीडिया पर संगठित होकर ऐसे हुक्मरानों पर दबाव नहीं बना सकती जो इस विनाश के कारण बन रहे हैं? 

दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में कई देशों में विरोध के स्वरों को दबाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। पहले ऐसा केवल तानाशाह या सैन्य सरकारों में होता था पर अब कुछ देशों की लोकतांत्रिक सरकारें भी विरोध के स्वरों को दबाने में हिचकती नहीं हैं। इसके दुष्परिणाम न केवल उस देश की जनता को भोगने पड़ते हैं बल्कि वो हुक्मरान भी ज़मीनी सच्चाई से कट जाते हैं और चाटुकारों से घिर कर आत्मघाती कदम उठा लेते हैं जैसा श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगाकर किया था। बाद में उन्हें चुनावों में जनता का कोप भाजन बनना पड़ा। इसलिए हर लोकतांत्रिक सरकार को विरोध के स्वरों को मुक्त रूप से सामने आने देना चाहिए। इससे उसे अपनी हकीकत जानने  का मौक़ा मिलता है। 

Monday, September 4, 2023

पहाड़ों पर भारी भूस्खलन: ठेकेदारों के शिकंजे में सत्ताधीश


हिमाचल प्रदेश में पाँच सौ से ज़्यादा सड़कें भूस्खलन के कारण नष्ट हो गई हैं। जो सरकार अपने कर्मचारियों को महंगाई भत्ता नहीं दे पा रही उस पर 5000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ गया है। अरबों रुपये की निजी संपत्ति बाढ़ में बह गई है। सैंकड़ों लोग काल के गाल में समा गये। ये सब हुआ हिमालय को बेदर्दी और बेअक्ली से काट-काट कर चार लेन के राजमार्ग बनाने के कारण। परवानु-सोलन राजमार्ग के धँसने की एवज़ में हिमाचल सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण पर उच्च न्यायालय में 650 करोड़ का हर्जाना माँगा है। प्राधिकरण के निदेशक ने इस मामले में अपनी गलती स्वीकारी है और ये माना है कि पहाड़ों में सड़क बनाने का पूर्व अनुभव न होने के कारण प्राधिकरण से ये गलती हुई है। 



अदालत में गलती मान लेने से इस भयावह त्रासदी का समाधान नहीं निकलेगा। क्योंकि इसी तरह का दानवीय निर्माण उत्तराखण्ड में चार धाम यात्रा के मार्ग को ‘फोर लेन’ बनाने के लिए बदस्तूर जारी है। पर्यावरणविदों की चेतावनियों की उपेक्षा करके या उनका मज़ाक़ उड़ा कर या उन्हें विकास विरोधी बता कर सत्ताधीश, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, अपने खेल जारी रखते हैं। हिमाचल केडर के सेवानिवृत आईएएस व पर्यावरणविद अवय शुक्ला अपने अंग्रेज़ी लेख, ‘हिमाचल - प्लानिंग फॉर मोर डिजास्टर्स’ में लिखते हैं कि इस पूरे खेल में राजनेता, अफ़सर व ठेकेदारों की मिलीभगत है। वे लिखते हैं कि ऐसी त्रासदी से, इस गठजोड़ को दोहरा लाभ मिलता है। पहले इन सब निर्माण कार्यों में जम कर घोटाले होते हैं और फिर विनाश के बाद पुनर्निर्माण में। ख़ामियाजा तो भुगतना पड़ता है देश की आम जनता को जिसके खून पसीने की कमाई टैक्स के रूप में वसूल कर उसी के विनाश की नीतियाँ बनाई जाती हैं। वैसे वो लोग भी कम दोषी नहीं जो पर्यटन व्यवसाय या अपने लाभ के लिए पहाड़ों पर बड़े-बड़े भवन बनाते आ रहे हैं। जिसमें न तो पहाड़ की परिस्थितिकी का ध्यान रखा जाता है और न पहाड़ों पर परम्परा से चली आ रही भवन निर्माण पद्दति का। पहाड़ों में कभी दुमंज़िले से ज़्यादा घर नहीं बनते थे। ये घर भी स्थानीय पत्थर से उन पहाड़ों पर बनाए जाते थे जिन्हें स्थानीय लोग पक्का पहाड़ कहते हैं। मतलब इन पहाड़ों पर कभी भूस्खलन नहीं होता। 



अब तो आप भारत के किसी भी पहाड़ी पर्यटन स्थल पर हज़ारों बहूमज़िली इमारतें, होटल व अपार्टमेंट देखते हैं जिनमें लिफ्ट लगी होती हैं। इनका निर्माण पहाड़ के सुरम्म्य वातावरण में एक बदनुमा दाग की तरह होता है। इनके निर्माण में लगने वाली सामग्री ट्रकों में भर कर मैदानों से पहाड़ों पर ले जाई जाती है। जिससे और भी प्रदूषण बढ़ता है। पुरानी कहावत है कि विज्ञान की हर प्रगति प्रकृति के सामने बौनी होती है। प्रकृति एक सीमा तक मानव के अत्याचारों को सहती है। पर जब उसकी सहनशीलता का अतिक्रमण हो जाता है तो वह अपना रौद्र रूप दिखा देती है। 2013 में केदारनाथ में बदल फटने के बाद उत्तराखण्ड में हुई भयावह तबाही और जान-माल की हानि से प्रदेश और देश की सरकार ने कुछ नहीं सीखा। आज भी वहाँ व अन्य प्रांतों के पहाड़ों पर तबाही का यह तांडव जारी है। 



आज पूरे देश में अनावश्यक रूप से, बहुत तेज़ी से, बिजली की खपत दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़  रही है। इसलिए उसके उत्पादन को और बढ़ाने का काम जारी है। पर इंजीनियरों का विज्ञान यहाँ भी प्रकृति से मार खा जाता है। हिमाचल की ‘हरजी जल विद्युत योजना’ को जिस गोविंद सागर से जल की आपूर्ति मिलती है उसमें इन सड़कों के निर्माण में पैदा हुए मलबों से इतनी गाद जमा हो गई है कि अब हरजी प्लांट में कई महीनों के लिए बिजली का उत्पादन बंद कर दिया गया है। 



फिर भी हिमाचल की सरकार ने कोई सबक़ नहीं सीखा। वहाँ के उप-मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि पलचन (मनाली) से कुल्लू तक 30 किलोमीटर की नदी को बांधा जाएगा। जिसके लिये उन्होंने 1650 करोड़ की डीपीआर तैयार करवा ली है और केंद्र से इसके लिये आर्थिक सहायता माँगी है। अप-मुख्यमंत्री को इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि ब्यास नदी, लखनऊ की गोमती व अहमदाबाद की साबरमती की  तरह हल्के जल प्रवाह वाली शांत नदी नहीं है, जिसे तटबंधों से बांधा जा सके। ये तो पहाड़ों से निकलती हुई, चट्टानों से टकराती हुई, जल के रौद्र प्रवाह को सहती हुई बहती है। जिसमें पहाड़ों पर होने वाली अचानक तेज़ वर्षा के कारण भारी मात्र में जल आ जाता है। ऐसी नदी को तटबंधों से कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? ये तटबंध तो ब्यास नदी के एक दिन के आक्रोश में बह कर कहाँ-के-कहाँ जाएँगे कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता। ये ठीक वैसी ही मूर्खता है जैसी हाल ही के वर्षों में उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा की रेत में करोड़ों रुपया खर्च करके एक नहर खोदी जो पहली ही वर्षा में बह गई। या काशी की गंगा में रेत के टापू पर करोड़ों रुपये खर्च करके पर्यटकों के लिए ‘टेंट सिटी’ बनाई। जिसके एक ही अंधड़ में परखच्चे उड़ गये।   


चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं। वे आज भी समस्या के समाधान के लिए जाँच समितियाँ या अध्ययन दल गठन करने से ही अपने कर्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। परिणाम होता है ढाक के वही तीन पात। ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है देश की जनता और देश के पर्यावरण को। हाल के हफ़्तों में और उससे पहले उत्तराखण्ड की तबाही के दिल दहलाने वाले वीडियो टीवी समाचारों में देख कर आप और हम भले ही काँप उठे हों पर शायद सत्ताधीशों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर पड़ता है तो वे अपनी सोच और नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर भारत माता के मुकुट स्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला पर विकास के नाम पर चल रहे इस दानवीय विनाश को अविलंब रोकें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो माना जायेगा कि उनका हर दावा और हर वक्तव्य जनता को केवल मूर्ख बनाने के लिए है।  

Monday, August 2, 2021

बरसो राम धड़ाके से


हिमाचल की सांगला वैली में बिटसेरी इलाक़े में, बिना बारिश, के अचानक, पर्वतों के टूटने से जो भूस्खलन हुआ उसने एक बार फिर हमारी विनाश लीला को रेखांकित किया। इस हादसे में 8 निर्दोष पर्यटक मारे गए और नदी के आर-पार जाने वाला पुल भी टूट कर बह गया। सोशल मीडिया पर इस भयावह हादसे का विडीओ देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। क्योंकि जून 2018 में ठीक उसी जगह हम भी सपरिवार थे। शिमला से बिटसेरी के 8 घंटे के ड्राइव में सारे रास्ते विकास के नाम पर विनाश का जो तांडव देखा उससे मन बहुत विचलित हुआ। हर ओर सड़क और विद्युत परियोजनाओं के लिए डाइनामाईट लगा कर जिस बेदर्दी से पहाड़ों को काटा जा रहा था उससे हरे-भरे हिमालय का ये क्षेत्र किसी परमाणु हमले के शिकार से कम नज़र नहीं आ रहा था।


आज भारत का हर पहाड़ी पर्यटन केंद्र बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहा है। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया है। कल-कल करती पहाड़ी नदियां और झरने जिनके किनारे, जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित हुआ करते थे, आज होटलों और इमारतों से भरे पड़े हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी नदियों के निर्मल जल में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई देता। जगह-जगह कूड़े के ढेर, पहाड़ों के ढलानों पर झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। 


ये सही है कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। 


नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। पहाड़ों के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल होती है कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना न करना पड़े। पहाड़ों पर घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा पहाड़ों के लोग प्रायः मकानों को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं। सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। 


ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से पहाड़ी लोगों की आमदनी बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। इन पहाड़ों को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। 


ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 37 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 37 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?


यही बात प्रधान मंत्री जी द्वारा घोषित सौ ‘स्मार्ट सिटीज़’ के संदर्भ में भी लागू होती है। ऊपरी टीम-टाम के चक्कर में बुनियादी ढाँचे को सुधारने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वाराणसी का उदाहरण सामने है। जिसे जापान के प्राचीन शहर क्योटो जैसा बनाने के लिए भारत सरकार ने पिछले सात सालों में दिल खोल कर रुपया भेजा। पर काशीवासियों से पूछिए कि क्या सैंकड़ों करोड़ रुपया खर्च होने के बाद भी उनके शहर की बुनियादी समस्याएँ हल हुई? यही प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधान मंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद्' भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। पर किसी ने नहीं सुना और परिणाम सामने है।  


जरूरत इस बात की थी कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नगरों के विकास की अवधारणा को अनुभवी लोगों की एक राष्टव्यापी समझ के अनुसार मूर्त रूप दिया जाता। फिर उससे हटने की आजादी किसी को न होती। पर सत्ता में बैठा क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों और ताश के महलों में परिवर्तित करता रहेगा ?