Tuesday, July 2, 2024

धर्मगुरुओं के बीच यूट्यूब संग्राम


जब से सोशल मीडिया का प्रभाव तेज़ी से व्यापक हुआ है तब से समाज का हर वर्ग, यहाँ तक कि ग्रहणियाँ भी 24 घंटे सोशल मीडिया पर हर समय छाए रहते हैं। इसके दुष्परिणामों पर काफ़ी ज्ञान उपलब्ध है। सलाह दी जाती है कि यदि आपको अपने परिवार या मित्रों से संबंध बनाए रखना है, अपना बौद्धिक विकास करना है और स्वस्थ और शांत जीवन जीना है तो आप सोशल मीडिया से दूर रहें या इसका प्रयोग सीमित मात्रा में करें। पर विडंबना देखिए कि समाज को संयत और सुखी जीवन जीने का और माया मोह से दूर रहने का दिन रात उपदेश देने वाले संत और भागवताचार्य आजकल स्वयं ही सोशल मीडिया के जंजाल में कूद पड़े हैं। विशेषकर ब्रज में ये प्रवृत्ति तेज़ी से फैलती जा रही है। 


अभी पिछले ही दिनों वृंदावन के विरक्त संत प्रेमानंद महाराज और प्रदीप मिश्रा के बीच सोशल मीडिया पर श्री राधा तत्व को लेकर भयंकर विवाद चला। ऐसे ही पिछले दिनों वृंदावन में नये स्थापित हुए भगवताचार्य अनिरुद्धाचार्य के भी वक्तव्य विवादों में रहे। 



इसी बीच बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा द्वारा लीला के मंचन में राधा स्वरूप धारण कर बालाकृष्ण से पैर दबवाने पर विवाद हुआ। ये सब ब्रज की विभूतियाँ हैं। हर एक के चाहने वाले भक्त लाखों करोड़ों की संख्या में हैं। जैसे ही कोई विवाद पैदा होता है इनका चेला समुदाय भी सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय हो जाता है। ठीक वैसे ही राजनैतिक दलों की ट्रोल आर्मी, जो बात का बतंगड़ बनाने में मशहूर है, सक्रिय हो जाती है। ये सब सोशल मीडिया में अपनी पहचान बनाने का एक तरीक़ा बन गया है। अब प्रेमानंद जी वाले विवाद को ही लीजिए, कितने  ही कम मशहूर भागवताचार्य भी इस विवाद में कूद पड़े। जिनके फ़ॉलोवर्स चार-पाँच सौ ही थे पर जैसे ही वे इस विवाद में कूदे तो उनकी संख्या 20 हज़ार पार कर गई। यानी बयानबाज़ी भी फ़ायदे का सौदा है। 


परंपरा से शास्त्र ज्ञान का आदान-प्रदान गुरुओं द्वारा निर्जन स्थलों पर किया जाता था। जहां जिज्ञासु अपने प्रश्न लेकर जाता था और गुरु की सेवा कर ज्ञान प्राप्त करता था। यही पद्धति भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को बताई थी। भगवद् गीता के चौथे अध्याय का चौंतीसवाँ श्लोक इसी बात को स्पष्ट करता है। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।



परंतु सोशल मीडिया ने आकर ऐसी सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। अब धर्म गुरु चाहें न चाहें पर उनके शिष्य, उनके प्रवचनों का सोशल मीडिया पर प्रसारण करने को बेताब रहते हैं और फिर अलग-अलग गुरुओं के शिष्य समूहों में आपसी प्रतिद्वंदता चलती है कि किस गुरु के कितने चेले या श्रोता हैं। जिस संत के फ़ॉलोवर्स की संख्या लाखों में होती है उन पर टिप्पणी करना या उन्हें विवाद में घसीटना लाभ का सौदा माना जाता है। क्योंकि वैसे तो ऐसा विवाद खड़ा करने वालों की कोई फॉलोइंग होती नहीं है। पर इस तरह उन्हें बहुत बड़ी तादाद में फॉलोवर और लोक प्रियता मिल जाती है। मतलब ये कि आप में योग्यता है कि नहीं, पात्रता है कि नहीं, आपको उस विषय का ज्ञान है कि नहीं, इसका कोई संकोच नहीं किया जाता। केवल सस्ती लोकप्रियता पाने के लालच में बड़े बड़े संतों के साथ नाहक विवाद खड़ा किया जाता है। आजकल ऐसे विवादों की भरमार हो गई है। 


वैसे तो तकनीकी के हमले को कोई चाह कर भी नहीं रोक सकता। पर कभी-कभी इंसान को लगता है कि उसने भयंकर भूल कर दी। 2003 की बात है जब मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा के प्रवचन नियमित रूप से हर सप्ताह बरसाना जा कर सुनना शुरू किया, बाबा की भक्ति और सरलता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। और मुझे लगा कि बाबा के प्रवचन पूरी दुनिया के कृष्ण भक्तों तक पहुँचने चाहिए। तब ऐसा होना केवल टीवी चैनल के माध्यम से ही संभव था। क्योंकि तब तक सोशल मीडिया इतना लोकप्रिय नहीं हुआ था। मैंने इसके लिए प्रयास करके श्री मान मंदिर में टीवी रिकॉर्डिंग स्टूडियो की स्थापना कर दी। उस दौर में मान मंदिर के विरक्त साधुओं ने मेरा कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि बाबा की बात अगर इस तरह प्रसारित की जाएगी तो बरसाना में कलियुग का प्रवेश कोई रोक नहीं पाएगा। पर बाबा ने मुझे अनुमति दी तो काम शुरू हो गया। इसका लाभ मान मंदिर को यह हुआ कि उसके भक्तों की संख्या में देश विदेशों में तेज़ी से बढ़ौतरी हुई और वहाँ धन की वर्षा होने लगी। तब मुझे विरोध करने वाले अव्यवहारिक प्रतीत होते थे। पर आज जब मैं पलट कर देखता हूँ तो मुझे लगता है कि वाक़ई इस प्रयोग में मान मंदिर के पवित्र, शांत और निर्मल वातावरण को बहुत सारे झमेलों में फँसा दिया। अगर वहाँ टीवी का प्रवेश न हुआ होता तो वहाँ का अनुभव पारलौकिक होता था। जिसे अनुभव करने मेरे साथ नीतीश कुमार, अर्जुन सिंह, सुषमा स्वराज, लालू यादव, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक उस दौर में वहाँ गए और गदगद हो कर लौटे। 


हमने बात शुरू की थी सोशल मीडिया पर बाबाओं के संग्राम से और बात पहुँच गई अध्यात्म की एकांतिक अनुभूति से शुरू होकर उसके व्यवसायी करण तक। इस आधुनिक तकनीकी ने जहां श्री राधा-कृष्ण की भक्ति का और ब्रज की संस्कृति का दुनिया के कोने कोने में प्रचार किया वहीं इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज वृंदावन, गोकुल, गोवर्धन, बरसाना व मथुरा आदि अपना सदियों से संचित आध्यात्मिक वैभव व नैसर्गिक सौंदर्य तेज़ी से समेटते जा रहे हैं। हर ओर बाज़ार की शक्तियों ने हमला बोल दिया है। कहते हैं कि विज्ञान अगर हमारा सेवक बना रहे तो उससे बहुत लाभ होता है। पर अगर वो हमारा स्वामी बन जाए तो उसके घातक परिणाम होते हैं। एक ब्रजवासी होने के नाते और संतों के प्रति श्रद्धा होने के नाते मेरा देश भर के संतों से विनम्र निवेदन है कि वे सोशल मीडिया के संग्राम से बचें और अपने अनुयायियों को होड़ में आगे आकर अपना बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने से रोकें। जिससे वे अपना ध्यान भजन साधन के अलावा तीर्थ स्थलों के सौंदर्यकरण और रख-रखाव में लगा सकें। ताकि तीर्थ यात्रियों को ब्रज जैसे तीर्थों में जाने पर सांस्कृतिक आघात न लगे।जो आज उन्हें लगने लगा है।        

Monday, June 24, 2024

33 हज़ार पेड़ न काटे ऊप्र सरकार


पूरी दुनिया भीषण गर्मी से झुलस रही है। हज़ारों लोग गर्मी की मार से बेहाल हो कर मर चुके हैं। दुनिया के हर कोने से एक ही आवाज़ उठ रही है, कि पेड़ बचाओ - पेड़ लगाओ। क्योंकि पेड़ ही गर्मी की मार से बचा सकते हैं। ये हवा में नमी को बढ़ाते हैं और मेघों को आकर्षित करते हैं, जिससे वर्षा होती है। आप दो करोड़ की कार को जब पार्किंग में खड़ा करते हैं तो किसी पेड़ की छाँव ढूँढते हैं। क्योंकि बिना छाँव के खड़ी आपकी कार दस मिनट में भट्टी की तरह तपने लगती है। इस बार हज में जो एक हज़ार से ज़्यादा लोग अब तक गर्मी से मरे हैं वे शायद न मरते अगर उन्हें पेड़ों की छाया नसीब हो जाती। चलो वहाँ तो रेगिस्तान है पर भारत तो सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम, शस्यश्यामलाम वाला देश है। जिसका वर्णन हमारे शास्त्रों, साहित्य और इतिहास में ही नहीं चित्रकारी और मूर्तिकला में भी परिलक्षित होता है। पर दुर्भाग्य देखिए कि आज भारत भूमि तेज़ी से वृक्षविहीन हो रही है। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि तमाम प्रयासों के बावजूद भारत का हरित आवरण भूभाग का कुल 24.56 प्रतिशत ही है। ये सरकारी आँकड़े हैं, ज़मीनी हक़ीक़त आप ख़ुद जानते हैं। अगर हवाई जहाज़ से आप भारत के ऊपर उड़ें तो आपको सैंकड़ों मीलों तक धूल भरी आंधियाँ और सूखी ज़मीन नज़र आती है। पर्यावरण की दृष्टि से कुल भूभाग का 34 फ़ीसदी अगर हरित आवरण हो तो हमारा जीवन सुरक्षित रह सकता है। 


भवन निर्माताओं की अंधी दौड़, बढ़ता शहरीकरण व औद्योगीकरण, आधारभूत ढाँचे को विकसित करने के लिए बड़ी-बड़ी परियोजनाएँ, जंगलों के कटान के लिए ज़िम्मेदार हैं। मानवशास्त्र विज्ञान ने ये सिद्ध किया है कि पर्यावरण की सुरक्षा का सबसे बड़ा काम जनजातीय लोग करते हैं। वे कभी गीले पेड़ नहीं काटते, हमेशा सूखी लकड़ियाँ ही चुनते हैं। वे वृक्षों की पूजा करते हैं। पर जब ख़ान माफिया या बड़ी परियोजना की गिद्ध दृष्टि वनों पर पड़ती है तो वन ही नहीं वन्य जीवन भी कुछ महीनों में नष्ट हो जाता है। पर्यावरण की रक्षा के लिए बने क़ानून और अदालतें केवल काग़ज़ों पर दिखाई देते हैं। भारत का सनातन धर्म सदा से प्रकृति की पूजा करता आया है। चिंता की बात यह है कि आज सनातन धर्म के नाम पर ही पर्यावरण का विनाश हो रहा है। समाचार पत्रों से सूचना मिली है कि कांवड़ियों के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक विशिष्ठ मार्ग का निर्माण किया जाना है, जिसके लिये 33 हज़ार वृक्षों को काटा जाएगा। इससे पर्यावरणवादियों को ही नहीं, आम जन को भी बहुत चिंता है। 



दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) को सूचित किया है कि गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर में फैली 111 किलोमीटर लंबी कांवड़ मार्ग परियोजना के लिए 33 हज़ार से अधिक पूर्ण विकसित पेड़ों और लगभग 80 हज़ार पौधों को काटा जाएगा। ग़ौरतलब है कि इस परियोजना में 10 बड़े पुल, 27 छोटे पुल और एक रेलवे ओवर ब्रिज का निर्माण शामिल है और इस परियोजना की लागत 658 करोड़ रुपये होगी। सोचने वाली बात है कि इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों को काटने की योजना ऐसे समय में आई है जब भारत के कई राज्य कई हफ्तों से भीषण गर्मी की चपेट में हैं। भीषण तापमान ने 200 से अधिक लोगों की जान ले ली है। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा पहले यूपी सरकार को तीन जिलों में परियोजना के लिए कुल 1,10,000 पेड़-पौधों को काटने की अनुमति देने के बाद नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने मामले का स्वत: संज्ञान लिया है। इस मामले की अगली सुनवाई जुलाई 2024 के लिए निर्धारित की गई है और एनजीटी ने यूपी सरकार से परियोजना का विस्तृत विवरण मांगा है, जिसमें काटे जाने वाले पेड़ों का विवरण भी शामिल है।



हजारों पेड़ों की इस कदर निर्मम कटाई से क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। तापमान में वृद्धि जारी रहेगी, बारिश का पैटर्न भी बाधित होगा और हवा और भी जहरीली हो जाएगी। हमें विकास और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच संतुलन बनाना होगा। परियोजना की पर्यावरणीय लागत की भरपाई के लिए, यूपी सरकार ने ललितपुर जिले में वनीकरण के लिए 222 हेक्टेयर भूमि की चिन्हित की है, जो कि इस क्षेत्र से, जहां से पेड़ काटे जाएंगे काफ़ी दूर है। क्या ये वनीकरण, कांवड़ यात्रा मार्ग पर शुरू होने जा रही परियोजना की लागत के अनुरूप मुआवजा होगा? 


कुछ वन्य प्रेमी संस्थाओं ने इसका विरोध करते हुए एक ऑनलाइन याचिका भी दायर की है, जिसे हज़ारों लोगों का समर्थन मिल रहा है। पुरानी कहावत है कि विज्ञान की हर प्रगति प्रकृति के सामने बौनी होती है। प्रकृति एक सीमा तक मानव के अत्याचारों को सहती है। पर जब उसकी सहनशीलता का अतिक्रमण हो जाता है तो वह अपना रौद्र रूप दिखा देती है। 2013 में केदारनाथ में बदल फटने के बाद उत्तराखण्ड में हुई भयावह तबाही और जान-माल की हानि से प्रदेश और देश की सरकार ने कुछ नहीं सीखा। आज भी वहाँ व अन्य प्रांतों के पहाड़ों पर तबाही का यह तांडव जारी है। केंद्र और राज्य में सरकारें चाहे किसी भी दल की रही हों चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं। वे आज भी समस्या के समाधान के लिए जाँच समितियाँ या अध्ययन दल गठन करने से ही अपने कर्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। परिणाम होता है ढाक के वही तीन पात। ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है देश की जनता और देश के पर्यावरण को। हाल के हफ़्तों में और उससे पहले उत्तराखण्ड की तबाही के दिल दहलाने वाले वीडियो टीवी समाचारों में देख कर आप और हम भले ही काँप उठे हों पर शायद सत्ताधीशों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर पड़ता है तो वे अपनी सोच और नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर भारत माता के मुकुट स्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला पर विकास के नाम पर चल रहे इस दानवीय विनाश को अविलंब रोकें। 
 

Monday, June 17, 2024

नीट परीक्षा: हंगामा क्यों है बरपा?



जब भी कभी हम किसी प्रतियोगी परीक्षा के पेपर लीक होने की खबर सुनते हैं तो सबके मन में व्यवस्था को लेकर काफ़ी सवाल उठते हैं। इससे  पूरी व्यवस्था में फैले हुए भारी भ्रष्टाचार का प्रमाण मिलता है।

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी खबरें कुछ ज़्यादा ही आने लगी हैं। सोचने वाली बात है कि इससे  देश के युवाओं पर क्या असर पड़ेगा? महीनों तक परीक्षा के लिए मेहनत करने वाले विद्यार्थियों के मन में इस बात का डर बना रहेगा कि रसूखदार परिवारों के बच्चे पैसे के बल पर उनकी मेहनत पर पानी फेर देंगे? मद्य प्रदेश में हुए व्यापम घोटाले के बाद अब एक बार फिर मेडिकल कॉलेजों में दाख़िले के लिए ‘नीट परीक्षा’ में हुए घोटाले पर जो बवाल मचा है उससे तो यही लगता है कि चंद भ्रष्ट लोगों ने लाखों विद्यार्थियों के भविष्य को अंधकार में धकेल दिया है। 



साल 2016 में पहली बार मेडिकल एंट्रेंस के लिए ‘नेशनल एंट्रेंस कम एलिजिबिलिटी टेस्ट’ यानी नीट की शुरुआत हुई।  पहले तीन सालों में इसे सीबीएसई द्वारा संचालित किया गया। परंतु वर्ष 2019 से इन इम्तहानों की ज़िम्मेदारी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) को दी गई। जब से नीट की परीक्षा लागू हुई है ऐसा पहली बार हुआ है कि इस परीक्षा की कटऑफ इतनी हाई गई है। यदि एनटीए की मानें तो नीट कट ऑफ कैंडिडेट्स की ओवरऑल परफॉर्मेंस पर निर्भर करती है। कटऑफ बढ़ने का मतलब है कि परीक्षा कंपटीटिव थी और बच्चों ने बेहतर परफॉर्म किया परंतु क्या ये बात सही है? 


ग़ौरतलब है कि इस बार की नीट परीक्षा में 67 ऐसे युवा हैं जिन्हें 720 अंकों में से 720 अंक मिलते हैं। इसके साथ ही ऐसे कई युवा भी हैं जिन्हें 718 व 719 अंक प्राप्त हुए हैं, जो कि परीक्षा पद्धति के मुताबिक़ असंभव है। 720 के टोटल मार्क्स वाली नीट परीक्षा में हर सवाल 4 अंक का होता है। गलत उत्तर के लिए 1 अंक कटता है। अगर किसी स्टूडेंट ने सभी सवाल सही किए तो उसे 720 में से 720 मिलेंगे। अगर एक सवाल का उत्तर नहीं दिया, तो 716 अंक मिलेंगे। अगर एक सवाल गलत हो गया, तो उसे 715 अंक मिलने चाहिए। लेकिन 718 या 719 किसी भी सूरत में नहीं मिल सकते। ज़ाहिर है तगड़ा घोटाला हुआ है। 



जिन विद्यार्थियों ने इस वर्ष नीट परीक्षा दी उनसे जब यह पूछा गया कि इस बार की परीक्षा कैसी थी? तो उनका जवाब था कि इस बार की परीक्षा काफ़ी कठिन थी, कटऑफ काफ़ी नीचे रहेगी। एनटीए द्वारा एक और स्पष्टीकरण भी दिया गया है जिसके मुताबिक़ इस बार टॉप करने वाले कई बच्चों को ग्रेस मार्क्स भी दिये गये हैं। इसका कारण है कि फिजिक्स के एक प्रश्न के दो सही उत्तर हैं। ऐसा इसलिए है कि फिजिक्स की एक पुरानी किताब जिसे 2018 में हटा दिया गया था, वह अभी भी पढ़ी जा रही थी। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि आजकल के युग में जहां सभी युवा एक दूसरे के साथ सोशल मीडिया के किसी न किसी माध्यम से जुड़े रहते हैं या फिर जहां कोचिंग लेते हैं वहाँ पर सबसे संपर्क में रहते हैं फिर ये कैसे संभव है कि छह साल पुरानी किताब  को सही नहीं कराया गया होगा? 


अगला सवाल यह भी उठता है कि एनटीए द्वारा किस आधार पर ग्रेस मार्क्स दिये गये? जबकि मेडिकल परीक्षाओं में ग्रेस मार्क्स देने का कोई प्रावधान नहीं है। एनटीए ने ग्रेस मार्क्स देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के एक आदेश का संज्ञान लिया है, जिसके अनुसार यदि प्रशासनिक लापरवाही के कारण परीक्षार्थी का समय ख़राब हो तो किन विद्यार्थियों को किन परिस्थितियों में कितने ग्रेस मार्क्स दिये जा सकते हैं। परंतु ग़ौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फ़ैसले का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है वह कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट (सीएलएटी) के लिए था, उसी आदेश में यह साफ़-साफ़ लिख है कि यह आदेश मेडिकल और इंजीनियरिंग की परीक्षाओं पर लागू नहीं होगा। परंतु एनटीए ने न जाने किस आधार पर इस आदेश को संज्ञान में लिया और ग्रेस मार्क्स दे दिये ?



नीट परीक्षा का ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और अदालत ने नीट परीक्षा करवाने वाली एजेंसी एनटीए को व केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब माँगा है। देखना होगा कि ये दोनों कोर्ट में क्या जवाब दाखिल करते हैं? परंतु जिस तरह इस मामले ने तूल पकड़ा है, इस पर राजनीति भी होने लग गई है। इतना ही नहीं जिस तरह एनटीए ने परीक्षा से पहले ही इसके पंजीकरण में ढील बरती है वह भी सवालों के घेरे में है। टॉपर्स की लिस्ट में कम से कम 6 विद्यार्थी ऐसे हैं जो एक ही सेंटर के हैं। इस सेंटर को इसलिए भी शक की नज़र से देखा जा रहा है, जहां विद्यार्थी देश के दूसरे कोने से परीक्षा देने आए। इसके साथ ही बिहार, गुजरात व अन्य राज्यों में नीट परीक्षा के पेपर लीक के मामले भी सामने आए हैं जिन पर जाँच चल रही है। 


सोचने वाली बात है कि देश का भविष्य माने जाने वाले विद्यार्थी, जो आगे चल कर डॉक्टर बनेंगे, यदि इस प्रकार भ्रष्ट तंत्र के चलते किसी मेडिकल कॉलेज में दाख़िला पा भी लेते हैं तो क्या भविष्य में अच्छे डॉक्टर बन पायेंगे या पैसे के बल पर वहाँ भी पेपर लीक करवा कर ‘मुन्ना भाई एम बी बी एस ’ की तरह सिर्फ़ डिग्री ही हासिल करना चाहेंगे चाहे उन्हें कोई ज्ञान हो या न हो? 


सवाल सिर्फ़ नीट की परीक्षा का ही नहीं है, पिछले कुछ वर्षों से अनेक प्रांतों में होने वाली सरकारी नौकरियों की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी लगातार घोटाले हो रहे हैं। जिनकी खबरें आए दिन मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं। इससे देश के युवाओं में भारी निराशा फैल रही है। नतीजा यह हुआ है कि पिछले 40 बरसों में आज भारत में बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक हो गई है। 


एक मध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय परिवार के पास अगर ख़ुद की ज़मीन-जायदाद, खेतीबाड़ी या कोई दुकान न हो तो नौकरी ही एकमात्र आय का सहारा होती है। घर के युवा को मिली नौकरी उसके माँ-बाप का बुढ़ापा, बहन-भाई की पढ़ाई और शादी, सबकी ज़िम्मेदारी सम्भाल लेती है। पर अगर बरसों की मेहनत के बाद घोटालों के कारण देश के करोड़ों युवा इस तरह बार-बार धोखा खाते रहेंगे तो सोचिए कितने परिवारों का जीवन बर्बाद हो जाएगा? ये बहुत गंभीर विषय है जिस पर केंद्र और राज्य सरकारों को फ़ौरन ध्यान देना चाहिए। 

Monday, June 10, 2024

अयोध्या में भाजपा क्यों हारी?


500 वर्ष बाद प्रभु श्री राम की जन्मस्थली अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हुआ। यह हम सभी सनातनियों के लिये गर्व की बात है। अयोध्या में हुए विकास के लिए भाजपा सरकार को जितना भी श्रेय दिया जाए वह कम है। अयोध्या में हुए इस जीर्णोद्धार के चलते आज विश्व भर के हिंदुओं का सर गर्व से ऊँचा उठा है। प्रधान मंत्री मोदी ने बीते दस वर्षों के अपने कार्यकाल में हिंदू संस्कृति के संरक्षण के लिए अनेक ठोस कदम उठाए हैं। अयोध्या का विकास भी उसी श्रृंखला का हिस्सा है। आज जो भी अयोध्या में दर्शन करके आता है वह श्री राम के भव्य मंदिर व उसके आसपास हुए विकास को देख गर्व करता है। इतना सब होने के बावजूद 2024 के चुनावों में अयोध्या में भाजपा को मिली हार से पूरा दुनिया के हिंदू अचंभे में है। 



यूँ तो अयोध्या में हुए विकास को लेकर हर किसी के पास सिवाय प्रशंसा के कुछ नहीं है। परंतु चुनाव परिणामों के बाद से सोशल मीडिया में भाजपा को मिली हार के कई कारण सामने आए हैं। इन्हीं में से एक अयोध्या निवासी संत सियाप्यारेशरण दास का एक संदेश काफ़ी चर्चा में है। इन्होंने अयोध्या में भाजपा की हार के असली कारण बताए। वे लिखते हैं,
भक्त और भगवान का युगों युगों से अनन्य भावपूर्ण प्रेम, स्नेह, वात्सल्य भाव रस से भीगा नाता रहा है। भगवान अपने ऊपर सब आरोप, लांछन तो क्या लात तक सह लेते हैं। लेकिन वो अपने भक्त की परेशानी, दुख तकलीफ नहीं सहन करते। उदाहरण स्वरूप जब रावण ने युद्ध में विभीषण को देखा तो उस पर बाण चलाया। जिसे भगवान श्री राम ने अपनी छाती पर सह कर अपने भक्त विभीषण की रक्षा की। इसी प्रकार ध्यानस्थ भगवान श्री विष्णुजी से किसी बात पर क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने उनके सीने पर लात मारी। तो उन्होंने स्वयं इसके लिए क्षमा माँगी। इस प्रसंग पर प्रसिद्ध चोपाई है; क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात। विष्णु का क्या घट गया जब भृगु ने मारी लात।। भक्त और भगवान के अनन्य नाते से संबंधित अनेकों उदाहरण है। हम केवल उपरोक्त दो उदाहरणों के परिपेक्ष में ही बीजेपी की अयोध्या में हुई करारी हार का विश्लेषण करते हैं। मैं अयोध्या जी में पिछले लगभग 10 वर्षों से वहां की कुछ सेवाओं में लगा हूं। इस कारण अयोध्याजी में घटित होने वाले अधिकांश अच्छे बुरे अनुभवों से भली भांति परिचित होने के नाते कुछ लिख रहा हूं। 



प्रथम कारण: प्रभु श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के द्वारा मंदिर बनने के प्रारंभ में कहा गया की मंदिर लगभग 1000 करोड़ रुपयों में बनेगा, फिर एक वर्ष बाद कहा कि मंदिर 1400 करोड़ में बनेगा, फिर एक वर्ष बाद तीसरी बार कहा कि मंदिर 1800 करोड़ में पूर्ण होगा, जनता ने मान भी लिया। सोचिए श्रीराम जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के सदस्य इतने हिसाब के कच्चे हैं की तीन-तीन बार मंदिर की कुल लागत बढ़ा-बढ़ा कर बताएंगे, जबकि इस प्रकार के सभी आकलन प्रथम बार में ही सही होने चाहिए थे। ज़मीन ख़रीदने से लेकर मंदिर निर्माण तक में पैसे का कोई पारदर्शी हिसाब नहीं है। 


दूसरा कारण: भगवान के प्रति अनन्य भक्ति भावना से ओत प्रोत हजारों भक्त कितने किलोमीटर चलकर आते हैं लेकिन मंदिर ट्रस्ट या अयोध्या प्रशासन के द्वारा सुविधाओं के अभाव में वो इधर-उधर भटकते हैं। स्वच्छ पेयजल के कुछ फ्रिज अभी गर्मी बढ़ने पर लगाए है। लेकिन चंदे के 10,000 करोड़ के ब्याज रूपी 1800 करोड़ रुपए में बन रहे मंदिर के बाकी पैसे की एफडी कराई जा रही है। परंतु राम का पैसा राम के भक्तों पर खर्च नहीं हो रहा। जबकि अयोध्याजी में लोक मान्यता है कि अयोध्याजी में कोई भूखा नहीं सोता। उसे अन्नपूर्णा रूपा माता "श्रीसीताजी" भोजन कराती हैं। क्या माता श्रीसीताजी के नाम से ट्रस्ट 20-30 जगह भंडारे नहीं चला सकता? 



तीसरा कारण: माननीय योगी जी के मुख्यमंत्री काल के पिछले 7 सालों से अयोध्याजी की गली-गली कई बार तोडी-फोड़ी गई हैं। जिस कारण गलियों में जाम और लाल बत्ती लगी सायरन बजाती वीआईपी गाड़ियों के कारण मुख्य मार्ग का रूट परिवर्तन होता रहता है। इसी कारण चहुं ओर अफरा तफरी के माहौल ने अयोध्या की शांति भंग कर दी है। जिधर देखो बड़े-बूढ़े, बीमार-लाचार भटकते भक्ति में सराबोर भक्त धक्के खाते हैं। लेकिन उनकी पीड़ा कौन सुने? सरकार और उसके यहां के ये सरदार सब सत्ता के मद में फूले रहे। 


चौथा कारण: अयोध्याजी के नया घाट से फैजाबाद के सहादत गंज तक 14 किलोमीटर लंबे बाजार के छोटे-छोटे दुकानदार अयोध्याजी के क्षेत्रीय निवासी इसी लोकसभा क्षेत्र के हैं। ईनकी अधिकांश दुकाने 70-80 साल से पगड़ी (धरोहर राशि) के कारण कम किराए पर हैं। इस मार्ग के चौड़ीकरण में उनके हितों के बजाए मकान मालिकों के हितों का खयाल रखा गया। दुकानदारों के पुनर्वास में बहुत अनियमितता बरती गई। जिस कारण उनके आंदोलन व प्रदर्शन बार-बार दबा दिए गए। इससे अयोध्याजी के देहात में गलत संदेश गया। 


छटा कारण: अनेक वीआईपी की तरह मुंबई तक से सिनेमा तारिकाओं को भी जन्मभूमि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का न्योता भेजा गया, लेकिन अयोध्याजी के चारों ओर के जिलों में मौजूद अनेकों ऐसे कारसेवकों को न्योता तक नहीं भेजा जिन्होंने जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में लाठी और गोली खाई थी। संत सियाप्यारेशरण दास जी कहते हैं कि, अयोध्याजी में बीजेपी की हार के वैसे तो अनेकों अनेक कारण हैं। कितने गिनाऊ, यहां के ठाकुर सांसद लल्लू सिंह अपनी ठकुराई की ठसक में काम के नाम पर जनता को पिछले दस साल से झूठे आश्वासन देते रहे। उन्होंने जनता की नब्ज उनके बीच जाकर कभी नहीं जानी। संविधान बदलने के बयान ने यहां के 35 प्रतिशत के बराबर दलित वोटों का सपा की ओर धुर्वीकरण किया।असली समस्या तो अयोध्याजी की गलियों के जाम रूपी झाम ने यहां के मूल निवासियों को बेहाल किया। केवल प्रचार से कभी किसी की सरकार नहीं बनी। अयोध्या में बेतरतीब काम से अफसर, नेता, मंत्रियों ने चांदी नहीं सोना और हीरे लूटे हैं। अयोध्या एयरपोर्ट के वास्ते किसानों से पहले सस्ती जमीने अफसर व नेताओं ने खरीदकर फिर उसका सर्किल रेट बढ़ाकर खूब चांदी काटी। लेकिन जब पत्ता-पत्ता भगवान श्री राम हिलाते हैं तब इनकी हार भी मेरे खयाल से स्वयं भगवान श्रीराम ने देकर इनको चेतावनी दी है।बीजेपी को सत्ता मद ले बैठा। इस बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥


अब ये चुनौती तो बीजेपी के सामने है कि वो हिंदू धर्म क्षेत्रों में इस चुनाव में मिली अपनी विफलता के कारण खोजे। 

Monday, June 3, 2024

पाकिस्तान में हिंदू विरासत कैसे बचे?


यूँ तो पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी आज बढ़ कर 2.1 प्रतिशत हो गई है, जो आज़ादी के समय पाकिस्तान में 1.6 प्रतिशत थी। इसमें भी ज़्यादातर हिंदू कराची, सियालकोट और लाहौर में रहते हैं। इनमें भी ज़्यादा प्रतिशत दलित और पिछड़ी जातियों के हिंदू हैं, जो गाँव में रहते हैं और उनकी आर्थिक हालत काफ़ी कमज़ोर है। हालाँकि भारत सरकार ने बँटवारे के समय पाकिस्तान में रह गये हिंदुओं को भारत आ कर बसने और यहाँ की नागरिकता लेने की प्रक्रिया आसान कर दी है फिर भी अपेक्षा के विपरीत पाकिस्तान में बसे हिंदू भारत आ कर बसने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि वे सदियों से वहीं रहते आए हैं और वही उनकी मातृभूमि है। 



बँटवारे से पहले पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू हर शहर में बसे थे और वे बड़े ज़मींदार व संपन्न व्यापारी थे। जिन्हें रातों रात सब कुछ छोड़ कर भारत में शरणार्थी बन कर आना पड़ा। इन हिंदुओं व जैनियों ने पाकिस्तान में अपने आराध्य के एक से एक बढ़ कर मंदिर बनवाये थे। जिनकी संख्या 1947 में 428 थी। जो आज घट कर मात्र 20 मंदिर रह गये हैं। इसी तरह पाकिस्तान के पंजाब सूबे में सैंकड़ों गुरुद्वारे थे जो बाद में भारत से गए मुसलमान शरणार्थियों के आशियाने बन गये। वैसे बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी का मंदिर विश्व प्रसिद्ध है। क्योंकि ये 64 शक्तिपीठों में से एक है और यहाँ सारे वर्ष तीर्थ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा कराची की हिंदू आबादी के बीच जो मंदिर हैं वे भी सुरक्षित हैं और उनमें भगवान की नियमित सेवा पूजा और उत्सवों का आयोजन होता रहता है। पर इतनी बड़ी संख्या में मंदिरों और गुरुद्वारों का नष्ट हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। क्योंकि जब उनमें आस्था रखने वाले लोग ही नहीं रहे तो ये मंदिर और गुरुद्वारे कैसे आबाद रहते? 



इस स्थिति में बड़ा बदलाव तब आया जब 2011 में पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद पेशावर के ऐतिहासिक गोरखनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार पाकिस्तान सरकार द्वारा करवाया गया। इसी तरह कराची में दरियालाल मंदिर का भी जीर्णोद्धार सरकार और भक्तों ने मिलकर किया। 2019 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री इमरान खाँ ने घोषणा की थी कि बँटवारे के समय जो 400 मंदिर पाकिस्तान में थे उन सभी का आधिग्रहण करके सरकार उनका जीर्णोद्धार करवायेगी। इसी क्रम में सियालकोट में 1947 से बंद पड़े शिवाला तेजसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार भी वहाँ की सरकार ने करवाया। पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहाँ की फ़ौज लोकतंत्र को सफल नहीं होने देतीं। इमरान खाँ अपदस्त कर दिये गये और उसके साथ ही उनकी यह योजना भी खटाई पड़ गई। पर पाकिस्तान के पढ़े लिखे मध्यम वर्गीय मुस्लिम समाज में अपनी इन ऐतिहासिक धरोहरों को लेकर नव-जागृति आई है। आप यूट्यूब पर अनेक टीवी रिपोर्ट्स देख सकते हैं जिनमें इन स्थलों को खोजने और दिखाने में पाकिस्तान के युवा यूट्यूबर उत्साह से जुटे हैं। चूँकि भारत और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं, इसलिए दुनिया के अन्य देशों विशेषकर यूरोप व अमरीका में रहने वाले संपन्न हिंदुओं को पाकिस्तान में स्थित ऐतिहासिक हिंदू तीर्थ स्थलों का उदारता से जीर्णोद्धार करवाना चाहिए। बशर्ते कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार और स्थानीय लोग इस बात के लिए तैयार हों और इन स्थलों की रक्षा और व्यवस्था की ज़िम्मेदारी भी लें। 


इसी क्रम में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की नील घाटी में पौराणिक शारदापीठ एक ऐसा तीर्थस्थल है जिसका विकास कश्मीरी पंडित व अन्य हिंदू ही नहीं, नील घाटी में रहने वाले मुसलमान भी करवाना चाहते हैं। क्योंकि श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह विकसित हो जाने पर उन्हें यहाँ अपनी आर्थिक समृद्धि की असीम संभावनाएँ दिखाई देती हैं। भौगौलिक रूप से भी यह तीर्थ भारत की मौजूदा सीमा के परलीपार स्थित है। पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।


जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 


चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।


माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे। 


इस तीर्थ के जीर्णोद्धार और इस संपूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ कई वर्षों से सक्रिय हैं। उनके प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर अच्छे संबंध हैं और उन्हें सनातन धर्मियों का उदार समर्थन प्राप्त है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में भक्तों की ये भावना पूरी होगी ही और श्री करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तरह ‘शारदा देवी कॉरिडोर’ का निर्माण हो सकेगा।  

Monday, May 27, 2024

आईआईटी की डिग्री भी नाकाम रही


इस हफ़्ते अखबारों में जिस खबर ने सबको चौंकाया वह थी कि इस साल आईआईटी से पास हुए 38 फ़ीसदी युवाओं को रोज़गार नहीं मिला। ये अनहोनी घटना है। वरना होता ये था कि आईआईटी में प्रवेश मिला तो बढ़िया रोज़गार की गारंटी होती थी। फ़र्क़ इतना ही होता था कि किसी को 60 लाख रुपए साल का पैकेज मिलता था तो किसी को 3 करोड़ रुपये साल का भी। पर इस साल तो आईआईटी की प्रतिष्ठित डिग्री के बावजूद 50 हज़ार महीने की भी नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा फैली है। आगे स्थिति सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते। क्योंकि पूरी दुनिया में मंदी का असर फैलता जा रहा है। अब पता नहीं इन युवाओं को कितने बरस घर बैठना पड़ेगा या मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ेगा।
 

सोचने वाली बात यह है कि आईआईटी में दाख़िला और उसकी पढ़ाई कोई आसान काम नहीं होता। माँ बाप और उनके होनहार बच्चे लाखों रुपया और बरसों की तपस्या झोंक कर आईआईटी में दाख़िले की तैयारी करते हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी के अभ्यर्थियों को यहाँ लाखों की तादाद में संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। जिसके बाद दाख़िला मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं होती। सोचिए कि एक मध्यम वर्गीय परिवार पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें अपने बेरोज़गार बच्चों के लटकते चेहरे रोज़ देखने पड़ रहे हैं। जबकि इसमें न तो युवाओं का दोष है और न ही उनके परिवार का। ये संकट आर्थिक नीतियों की कमियों के कारण उत्पन्न हुआ है।    

  


कुछ वर्ष पहले मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया था। उनका कहना है कि 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। 



उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए नई सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ होंगी। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 10 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। आज भारत में 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।



4 जून को लोकसभा के चुनाव परिणाम आ जाएँगे। सरकार जिस दल की भी बने उसे तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगा। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। इनके लिए फ़ौरन कुछ करना होगा वरना देश के युवाओं में बढ़ते आक्रोश को सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

Monday, May 20, 2024

‘लापता लेडीज़’ से महिलाओं को सबक़


बचपन से पढ़ते आए हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। पिछले सौ वर्षों से फ़िल्मों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ख़ासकर उन फ़िल्मों को जिनके कथानक में सामाजिक सरोकार के मुद्दे उठाए जाते हैं। इसी क्रम में एक नई फ़िल्म आई है ‘लापता लेडीज़’ जो काफ़ी चर्चा में है। मध्य प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि में बनाई गई ये फ़िल्म महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी है। विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के लिए।


फ़िल्म की शुरुआत एक रोचक परिदृश्य से होती है जिसमें दो नवविवाहित दुल्हनें लंबे घूँघट के कारण रेल गाड़ी के डिब्बे में एक दूसरे के पति के साथ चली जाती हैं। उसके बाद की कहानी इन दो महिलाओं के संघर्ष की कहानी है जो अंत में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेती हैं। इस कहानी का सबसे बड़ा सबक़ तो यह है कि नवविवाहिताओं को इतना लंबा घूँघट निकालने के लिए मजबूर न किया जाए। उनका सिर ज़रूर ढका हो पर चेहरा खुला हो। दूसरा सबक़ यह है कि ग्रामीण परिवेश में पाली-बढ़ी, अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी लड़कियों को विदा करते समय उनके घर वालों को उस लड़की के ससुराल और मायके का पूरा नाम पता और फोन नंबर लिख कर देना चाहिए। जैसा प्रायः मेलों और पर्यटन स्थलों में जाते समय शहरी माता-पिता अपने बच्चों की जेब में नाम पता लिख कर पर्ची रख देते हैं। अगर भीड़ में बच्चा खो भी जाए तो यह पर्ची उसकी मददगार होती है। 



इस फ़िल्म का तीसरा संदेश यह है कि शहरी लड़कियों की तरह अब ग्रामीण लड़कियाँ भी पढ़ना और आगे बढ़ना चाहती हैं। जबकि उनके माँ-बाप इस मामले में उनको प्रोत्साहित नहीं करते और कम उम्र में ही अपनी लड़कियों का ब्याह कर देना चाहते हैं। ऐसा करने से उस लड़की की आकांक्षाओं पर कुठाराघात हो जाता है और उसका शेष जीवन हताशा में गुज़रता है। आज के इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में शायद ही कोई गाँव होगा जो इनके प्रभाव से अछूता हो। हर क़िस्म की जानकारी, युवक-युवतियों को स्मार्ट फ़ोन पर घर बैठे ही मिल रही है। ज़रूरी नहीं कि सारी जानकारी सही ही हो, इसलिए उसकी विश्वसनीयता जाँचना, परखना ज़रूरी होता है। अगर जानकारी सही है और ग्रामीण परिवेश में पाल रही कोई युवती उसके आधार पर आगे पढ़ना और अपना करियर बनाना चाहती है तो उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस फ़िल्म में दिखाया है कि कैसे एक युवती को उसके घरवालों ने उसकी मर्ज़ी के विरुद्ध उसकी शादी एक बिगड़ैल आदमी से कर दी और जैविक खेती को पढ़ने, सीखने की उसकी अभिलाषा कुचल दी गई। पर परिस्थितियों ने ऐसा पलटा खाया कि ये जुझारू युवती विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए अपने गंतव्य तक पहुँच गई। पर ऐसा जीवट और क़िस्मत हर किसी की नहीं होती। 



बचपन में सरकार प्रचार करवाती थी कि ‘लड़कियाँ हो या लड़के, बच्चे दो ही अच्छे’ पिछले 75 सालों में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा तमाम योजनाएँ चलाई गईं, जिनमें लड़कियों को पढ़ाने, आगे बढ़ाने और आत्मनिर्भर बनाने के अनेकों कार्यक्रम चलाए गए और इसका असर भी हुआ। आज कोई भी कार्य क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां महिलाएँ सक्रिय नहीं हैं। पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग के परिणामों में ऐसे कई सुखद समाचार मिले जब निर्धन, अशिक्षित और मज़दूरी पेशा परिवारों की लड़कियाँ प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो कर पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी बन गईं। बावजूद इसके देश में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। हाल ही में कर्नाटक की हसन लोकसभा से उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना के तथाकथित लगभग 3000 वीडियो सोशल मीडिया पर जारी हुए जिसमें आरोपी पर हर उम्र की सैकड़ों महिलाओं के साथ जबरन यौनाचार करने के दिल दहलाने वाले दृश्य हैं। आरोपी अब देश छोड़ कर भाग चुका है। कर्नाटक सरकार की ‘एस आई टी’ जाँच में जुटी है। पर क्या ऐसे प्रभावशाली लोगों का क़ानून कुछ बिगाड़ पाता है? 



पिछले वर्ष मणिपुर में युवतियों को निर्वस्त्र करके जिस तरह भीड़ ने उन्हें अपमानित किया उसने दुनिया भर के लोगों की आत्मा को झकझोर दिया। पश्चिमी एशिया में तालिबानियों और आतंकवादियों के हाथों प्रताड़ित की जा रही नाबालिग बच्चियों और महिलाओं के रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में छाए रहते हैं। भारत में दलित महिलाओं को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करने, प्रताड़ित करने, उनसे बलात्कार करने और उनकी हत्या कर देने के मामले आय दिन हर राज्य से सामने आते रहते हैं। पुलिस और क़ानून बहुत कम मामलों में प्रभावी हो पाता है और वो काफ़ी देर से। 


महिलाओं पर पुरुषों के अत्याचार का इतिहास सदियों पुराना है। क़बीलाई समाज से लेकर सामंती समाज और सामंती समाज से लेकर के आधुनिक समाज तक के सैंकड़ों वर्षों के सफ़र में हमेशा महिलाएँ ही पुरुषों की हैवानियत का शिकार हुई हैं। कैसी विडंबना है कि माँ दुर्गा, माँ सरस्वती और माँ लक्ष्मी की उपासना करने वाले भारतीय समाज में भी महिलाओं को वो सम्मान और सुरक्षा नहीं मिल पाई है जिसकी वो हक़दार हैं। ऐसे में ‘लापता लेडीज़’ जैसी दर्जनों फ़िल्मों की ज़रूरत है जो पूरे समाज को जागरूक कर सके। महिलाओं के प्रति संवेदनशील बना सकें और उनके लिए आगे बढ़ने के लिए अवसर भी प्रदान कर सकें। 


एक महिला जब सक्षम हो जाती है तो वो तीन पीढ़ियों को सम्भालती है। अपने सास-ससुर की पीढ़ी, अपनी पीढ़ी और अपने बच्चों की पीढ़ी। पर यह बात बार-बार सुनकर भी पुरुष प्रधान समाज अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं है। इस दिशा में समाज सुधारकों, धर्म गुरुओं और सरकार को और भी ज़्यादा गंभीर प्रयास करने चाहिए। बेटियों को मिलने वाली चुनौतियों से घबराकर कुछ विकृत मानसिकता के परिवार कन्या भ्रूण हत्या जैसे अमानवीय कृत्य करने लग जाते हैं। इस दिशा में कुछ वर्ष पहले एक विज्ञापन जारी हुआ था जिसमें हरियाणा के गाँव में एक नौजवान अपने घर की छत पर थाली पीट रहा था। प्रायः पुत्र जन्म की ख़ुशी में वहाँ ऐसा करने का रिवाज है। पर इस नौजवान की थाली की आवाज़ सुन कर वहाँ जमा हुए पचासों ग्रामवासियों को जब यह पता चला कि ये नौजवान अपने घर जन्मीं बेटी की ख़ुशी में इतना उत्साहित है तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। काश हम ऐसा समाज बना सकें।