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Monday, November 18, 2024

रोज़गारपरक शिक्षा कैसे हो?


आय दिन अख़बारों में पढ़ने में आता है जिसमें देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक व एमबीए जैसी डिग्री धारकों की दुर्दशा का वर्णन किया जाता है। ऐसी हृदय विदारक खबर पर बहुत विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं भी आती हैं। सवाल है कि जो डिग्री नौकरी न दिला सके, उस डिग्री को बांटकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के तमाम ऐसे मशहूर नाम हैं, जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं की। पर पूरी दुनिया में यश और धन कमाने में झंडे गाढ़ दिए। जैसे स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कालेज पढ़ने नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हिनेरी फोर्ड के पास मैनेजमेंट की कोई डिग्री नहीं थी। जॉन डी रॉकफेलर केवल स्कूल तक पढ़े थे और विश्व के तेल कारोबार के सबसे बड़े उद्यमी बन गए। मार्क टुइन और शेक्सपीयर जैसे लेखक बिना कालेज की शिक्षा के विश्वविख्यात लेखक बने।



पिछले 25 वर्षों में सरकार की उदार नीति के कारण देशभर में तकनीकि शिक्षा व उच्च शिक्षा देने के लाखों संस्थान छोटे-छोटे कस्बों तक में कुकरमुत्ते की तरह उग आए। जिनकी स्थापना करने वालों में या तो बिल्डर्स थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपने काले धन को इन संस्थानों की स्थापना में निवेश कर दिया। एक से एक भव्य भवन बन गए। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किए गए। पर न तो इन संस्थानों के पास योग्य शिक्षक उपलब्ध थे, न इनके पुस्तकालयों में ग्रंथ थे, न प्रयोगशालाएं साधन संपन्न थीं, मगर दावे ऐसे किए गए मानो गांवों में आईआईटी खुल गया हो। नतीजतन, भोले-भाले आम लोगों ने अपने बच्चों के दबाव में आकर उन्हें महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। लाखों रूपया इन पर खर्च किया। इनकी डिग्रियां हासिल करवाई। खुद बर्बाद हो गए, मगर संस्थानों के मालिकों ने ऐसी नाकारा डिग्रियां देकर करोड़ों रूपए के वारे न्यारे कर लिए।



दूसरी तरफ इस देश के नौजवान मैकेनिकों के यहां, बिना किसी सर्टिफिकेट की इच्छा के, केवल हाथ का काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि लकड़ी का अवैध खोखा सड़क के किनारे रखकर भी आराम से जिंदगी चला लेते हैं। हमारे युवाओं की इस मेधा शक्ति को पहचानकर आगे बढ़ाने की कोई नीति आजतक क्यों नहीं बनाई गई ? आईटीआई जैसी संस्थाएं बनाई भी गईं, तो उनमें से अपवादों को छोड़कर शेष बेरोजगारों के उत्पादन का कारखाना ही बनीं। क्योंकि वहां भी व्यवहारिक ज्ञान की बहुत कमी रही। इस व्यवहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए जो व्यवस्थाएं चाहिए, वे इतनी कम खर्चे की हैं कि सही नेतृत्व के प्रयास से कुछ ही समय में देश में शिक्षा की क्रांति कर सकती हैं। जबकि अरबों रूपए का आधारभूत ढांचा खड़ा करने के बाद जो शिक्षण संस्थान बनाए गए हैं, वे नौजवानों को न तो हुनर सिखा पाते हैं और न ज्ञान ही दे पाते हैं। बेचारा नौजवान न घर का रहता है, न घाट का।


कभी-कभी बहुत साधारण बातें बहुत काम की होती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। पर हमारे हुक्मरानों और नीति निर्धारकों को ऐसी छोटी बातें आसानी से पचती नहीं। एक किसान याद आता है, जो बांदा जिले से पिछले 20 वर्षों से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में सिर पटक रहा है। पर किसी ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया। जबकि उसने कुएं से पानी खींचने का एक ऐसा पंप विकसित किया है, जिसे बिना बिजली के चलाया जा सकता है और उसे कस्बे के लुहारों से बनवाया जा सकता है। ऐसे लाखों उदाहरण पूरे भारत में बिखरे पड़े हैं, जिनकी मेधा का अगर सही उपयोग हो, तो वे न सिर्फ अपने गांव का कल्याण कर सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान उपलब्ध करा सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं होगी। इसे तो गांव के नीम के पेड़ की छांव में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षा में सुधार के नाम पर आयोगों के सदस्य बनने वाले और आधुनिक शिक्षा को समझने के लिए बहाना बना-बनाकर विदेश यात्राएं करने वाले हमारे अधिकारी और नीति निर्धारक इस बात का महत्व कभी भी समझने को तैयार नहीं होंगे, यही इस देश का दुर्भाग्य है। 


प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं के दौरान इस बात को पकड़ा था। पर ‘मेक इन इंडिया’ की जगह अगर वे ‘मेड बाई इंडिया’ का नारा देते, तो इस विचार को बल मिलता। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से जो विदेशी विनियोग आने की हम आस लगा रहे हैं, वे अगर आ भी गया, तो चंद शहरों में केंद्रित होकर रख जाएगा। उससे खड़े होने वाले बड़े कारखाने भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करके मुट्ठीभर लोगों को रोजगार देंगे और कंटेनरों में भरकर मुनाफा अपने देश ले जाएंगे। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को भी सुख, सम्मान व अभावमुक्त जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब ये फैसला तो प्रधानमंत्री जी और देश के नीति निर्धारकों को करना है कि वे औद्योगिकरण के नाम पर प्रदूषणयुक्त, झुग्गी झोपड़ियों वाला भारत बनाना चाहते हैं या ‘मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला भारत। 

Monday, July 22, 2024

आम आदमी की बजट से उम्मीद !


जहां एक तरफ़ केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश की आर्थिक प्रगति को लेकर लगातार अपनी पीठ थपथापती रही हैं, वहीं देश के बड़े अर्थशास्त्री, उद्योगपति और मध्यम वर्गीय व्यापारी वित्त मंत्री के बनाए पिछले बजटों से संतुष्ट नहीं हैं। अब नया बजट आने को है। पर जिन हालातों में एनडीए की सरकार आज काम कर रही है उनमें उससे किसी क्रांतिकारी बजट की आशा नहीं की जा सकती। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की लंबी चौड़ी वित्तीय माँगे, सत्तारूढ़ दल द्वारा आम जनता को आर्थिक सौग़ातें देने के वायदे और देश के विकास की ज़रूरत के बीच तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब भारत सरकार ने विदेशों से ऋण लेने की सारी सीमाएँ लांघ दी हैं। आज भारत पर 205 लाख करोड़ रुपए का विदेशी क़र्ज़ हैं। ऐसे में और कितना क़र्ज़ लिया जा सकता है? क्योंकि क़र्ज़ को चुकाने के लिए जनता पर अतिरिक्त करों का भार डालना पड़ता है। जिससे महंगाई बढ़ती है। जिसकी मार आम जनता पहले ही झेल रही है। 


दक्षिण भारत के मशहूर उद्योगपति, प्रधान मंत्री श्री मोदी के प्रशंसक और आर्थिक मामलों के जानकार डॉ मोहनदास पाइ ने देश की मौजूदा आर्थिक हालत पर तीखी टिप्पणी की है। देश की मध्यम वर्गीय आबादी में बढ़ते हुए रोष का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि, पूरे देश में मध्यम वर्ग बहुत दुखी है क्योंकि वे अधिकांश करों का भुगतान कर रहे हैं। उन्हें कोई कर कटौती नहीं मिल रही है। मुद्रास्फीति अधिक है, लागत अधिक है, छात्रों की फीस बढ़ गई है व रहने की लागत बढ़ गई है। हालात में सुधार होने के बावजूद यातायात के कारण शहरों में जीवन की गुणवत्ता खराब बनी हुई है।वे करों की दर में कमी देखना चाहते हैं श्री पाइ उस टैक्स स्लैब नीति के पक्ष में नहीं हैं जो सरकार ने पिछले दो बजट में पेश की है। उनके अनुसार, आयकर संग्रह 20 से 22 प्रतिशत बढ़ रहा है, इसलिए देश के मध्यम वर्ग के लिए आयकर के कई नए स्लैब और केवल आवास निर्माण के लिए कारों में छूट देने की बजाय करों में कटौती करने की आवश्यकता है। 



मोहनदास पाइ का तर्क केवल देश के मध्यम वर्ग तक ही सीमित नहीं है, उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि हमारी आबादी के निचले 50 प्रतिशत हिस्से की क्रय शक्ति बढ़ाने की आवश्यकता के साथ-साथ बुनियादी ढांचे के विकास जैसी चुनौतियों पर प्राथमिक ध्यान दिया जाए। इतना ही नहीं, वे मानते हैं कि रोज़गार क्षेत्र की वृद्धि को सुनिश्चित किया जाय।इसके लिये वे वर्तमान चुनौतियों पर काबू पाने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते है। 80 प्रतिशत नौकरियों में 20,000 रुपये  से कम वेतन मिलता है, और यह एक समस्या है। वे आगे कहते हैं कि हमें कर आतंकवाद को रोकना होगा, पाइ ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) पर मामलों को पूरा करने और उन्हें निर्धारित समय सीमा में जवाबदेह ठहराने के लिए चार्ट शीट दाखिल करने पर ध्यान केंद्रित करने पर भी ज़ोर दिया। उनके अनुसार टैक्स आतंकवाद भारत के लिए बड़ा खतरा है।


आगामी बजट से देश को काफ़ी उम्मीदें हैं। हर कोई चाहता है कि बढ़ती हुई महंगाई के चलते उन पर अतिरिक्त  करों का भार न पड़े। 


उधर प्रसिद्ध अर्थसास्त्री प्रो अरुण कुमार ने सरकार के समानांतर किए गए देश के आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति को लेकर जो विश्लेषण किया है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वे कहते हैं कि, सरकार का राजनीतिक निर्णय लोगों की आर्थिक जरूरतों से भिन्न है। बजट दस्तावेजों का एक जटिल समूह है जिसे अधिकांश नागरिक समझने में असमर्थ हैं। बजट में ढेर सारे आंकड़ों और लोकलुभावन घोषणाओं के पीछे असली राजनीतिक मंशा छिपी हुई है। तमाम समस्याओं के बावजूद नागरिकों की समस्याएँ साल-दर-साल बनी रहती हैं।


सरकार बजट का उपयोग यह दिखाने के लिए करती है कि कठिनाइयों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है और नागरिकों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा। इसके लिए डेटा को चुनिंदा तौर पर पेश किया जाता है. चूंकि पूरी तस्वीर सामने नहीं आई है, इसलिए विश्लेषकों को अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति बताने के लिए पेश किए गए आंकड़ों के पीछे जाना होगा। इसलिए, जहां स्थापित अर्थशास्त्री बजट की प्रशंसा करते हैं, वहीं आलोचक यथार्थवादी स्थिति प्रस्तुत करते हैं और इसमें वैकल्पिक व्याख्या का महत्व निहित है। 


यह समस्या, महत्वपूर्ण डेटा की अनुपलब्धता और इसके हेरफेर से और बढ़ गई है। उदाहरण के लिए, जनगणना 2021 का इंतजार है। 2022 की शुरुआत के बाद महामारी समाप्त हो गई और अधिकांश देशों ने अपनी जनगणना कर ली है, लेकिन भारत में यह प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। जनगणना डेटा का उपयोग डेटा संग्रह के लिए उपयोग किए जाने वाले अधिकांश अन्य सर्वेक्षणों के लिए नमूना तैयार करने के लिए किया जाता है। फ़िलहाल, 2011 की जनगणना का उपयोग किया जाता है, लेकिन उसके बाद से हुए बड़े बदलावों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है। इसीलिए, परिणाम 2024 की स्थिति का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।


प्रो कुमार के अनुसार, सरकार द्वारा प्रतिकूल समाचारों का खंडन भी एक अहम कारण है। क्योंकि यह आलोचना के उस बिंदु को भूल जाता है जो परिभाषा के अनुसार बड़ी तस्वीर और उसकी कमियों पर केंद्रित है। यह सच है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ती है, बहुत सी चीजें घटित होती हैं या बदलती हैं। वहाँ अधिक सड़कें, उच्च साक्षरता, अधिक अस्पताल, अधिक ऑटोमोबाइल आदि हैं। लेकिन, इनके साथ गरीबी, खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य आदि भी हो सकते हैं। ये कमियाँ समाज के लिए चिंता का कारण हैं और आलोचक इसे उजागर करते हैं। महामारी ने उन्हें तीव्र फोकस में ला दिया। महामारी से उबरने के बाद स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है क्योंकि यह असमान है। संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ रहा है जिससे गिरावट आ रही है और विशाल बहुमत की समस्याएं बढ़ रही हैं। कई अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग सापेक्ष हैं और पूर्ण नहीं हैं लेकिन भारत की रैंकिंग में कम रैंक या गिरावट यह दर्शाती है कि या तो स्थिति अन्य देशों की तुलना में खराब हो रही है या वास्तव में समय के साथ गिरावट आ रही है।


प्रो कुमार के अनुसार, आधिकारिक डेटा आंशिक है और प्रतिकूल परिस्थितियों को छुपाने के लिए इसमें हेरफेर किया गया है। इसीलिए एक वैकल्पिक तस्वीर तैयार करने की ज़रूरत है जो देश में बढ़ती आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता और बढ़ते संघर्ष की वास्तविकता को दर्शाती हो। यह हाशिए पर मौजूद वर्गों की समस्याओं के समाधान के लिए नीतियों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता को उजागर करता है। यह शून्य-राशि वाला खेल नहीं होगा बल्कि देश के लिए एक सकारात्मक-राशि वाला खेल होगा।


इन हालातों में आगामी आम बजट में देशवासियों को क्या राहत मिलती है ये तो बजट प्रकाशित होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञों के इस विश्लेषण को मोदी सरकार को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। 

Monday, May 27, 2024

आईआईटी की डिग्री भी नाकाम रही


इस हफ़्ते अखबारों में जिस खबर ने सबको चौंकाया वह थी कि इस साल आईआईटी से पास हुए 38 फ़ीसदी युवाओं को रोज़गार नहीं मिला। ये अनहोनी घटना है। वरना होता ये था कि आईआईटी में प्रवेश मिला तो बढ़िया रोज़गार की गारंटी होती थी। फ़र्क़ इतना ही होता था कि किसी को 60 लाख रुपए साल का पैकेज मिलता था तो किसी को 3 करोड़ रुपये साल का भी। पर इस साल तो आईआईटी की प्रतिष्ठित डिग्री के बावजूद 50 हज़ार महीने की भी नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा फैली है। आगे स्थिति सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते। क्योंकि पूरी दुनिया में मंदी का असर फैलता जा रहा है। अब पता नहीं इन युवाओं को कितने बरस घर बैठना पड़ेगा या मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ेगा।
 

सोचने वाली बात यह है कि आईआईटी में दाख़िला और उसकी पढ़ाई कोई आसान काम नहीं होता। माँ बाप और उनके होनहार बच्चे लाखों रुपया और बरसों की तपस्या झोंक कर आईआईटी में दाख़िले की तैयारी करते हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी के अभ्यर्थियों को यहाँ लाखों की तादाद में संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। जिसके बाद दाख़िला मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं होती। सोचिए कि एक मध्यम वर्गीय परिवार पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें अपने बेरोज़गार बच्चों के लटकते चेहरे रोज़ देखने पड़ रहे हैं। जबकि इसमें न तो युवाओं का दोष है और न ही उनके परिवार का। ये संकट आर्थिक नीतियों की कमियों के कारण उत्पन्न हुआ है।    

  


कुछ वर्ष पहले मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया था। उनका कहना है कि 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। 



उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए नई सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ होंगी। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 10 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। आज भारत में 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।



4 जून को लोकसभा के चुनाव परिणाम आ जाएँगे। सरकार जिस दल की भी बने उसे तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगा। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। इनके लिए फ़ौरन कुछ करना होगा वरना देश के युवाओं में बढ़ते आक्रोश को सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

Tuesday, November 14, 2023

‘ट्वेल्थ फेल’ से युवाओं को सबक़


बात 1984 की है, मैं इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दे कर यूरोप में घूम रहा था। तब मेरी उम्र 28 बरस थी। बर्लिन यूनिवर्सिटी के परिसर में कुछ युवा छात्र छात्राओं से बातचीत के दौरान मैंने उनके भविष्य की योजनाओं के विषय में पूछा। सबने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी रुचि बताई। एक जर्मन लड़की कुछ नहीं बोली। तो मैंने उससे भी वही प्रश्न किया। इससे पहले कि वो कुछ कह पाती उसके बाक़ी साथियों ने उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा, शी इज़ फिट टू बी ए सिविल सर्वेंट। अर्थात् ये सरकारी अफ़सर बनने के लायक़ है। तब भारतीय युवाओं और पश्चिमी युवाओं की सोच में कितना भारी अंतर था। जहां एक तरफ़ भारत के, विशेषकर आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि के युवा सरकारी नौकरी के लिए बेताब रहते थे और आज भी रहते हैं। वहीं पश्चिमी समाज में सरकारी नौकरी में वही जाते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता कम होती है। 



भारत के जिन राज्यों में रोज़गार के वैकल्पिक अवसर उपलब्ध थे, वहाँ के युवाओं की सोच भी कुछ-कुछ पश्चिमी युवाओं जैसी थी। मसलन गुजरात के युवा व्यापार में, महाराष्ट्र के युवा वित्तीय संस्थाओं में, दक्षिण भारत के युवा प्रोफेशनल कोर्स में, हरियाणा और पंजाब के युवा कृषि आदि में आगे बढ़ते थे। पिछले कुछ वर्षों से भारत में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है। जबकि दूसरी तरफ़ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की भरमार हो गई है। नतीजतन तमाम डिग्रियाँ बटोरे करोड़ों नौजवान नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। सरकारी संस्थाएँ नौकरी के लुभावने विज्ञापन देकर इन करोड़ों नौजवानों से मोटी रक़म परीक्षा शुल्क के नाम पर वसूल लेती हैं। फिर परीक्षाओं में घोटाले और पेपर लीक होने जैसे कांड बार-बार होते रहते हैं। जिससे इन युवाओं की ज़िंदगी के स्वर्णिम वर्ष और इनके निर्धन माता-पिता की गाढ़ी कमाई भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। कोई बिरले होते हैं जो इस अंतहीन अंधेरी गुफा में अपने लिए प्रकाश की किरण खोज लेते हैं। उनका संघर्ष प्रेरणास्पद तो होता है पर वह एक औसत युवा के लिए दूर की कौड़ी होती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी ज़माने में लाखों युवा देश भर से भाग कर हीरो बनने मुंबई जाते थे पर दो-चार की ही क़िस्मत चमकती थी। मनोरंजन के साथ गहरा संदेश देने में माहिर विधु विनोद चोपड़ा की नई फ़िल्म ‘ट्वेल्थ फेल’ एक ऐसे ही नौजवान की ज़िंदगी पर आधारित है जिसने चंबल के बीहड़ में निर्धन परिवार में जन्म लेकर, तमाम बाधाओं को झेलते हुए, केवल अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से आईपीएस बन कर दिखाया। इस फ़िल्म का ये मुख्य पात्र मनोज कुमार शर्मा आजकल मुंबई बड़ा पुलिस अधिकारी है। 



इस फ़िल्म में ऐसे संघर्षशील लाखों नौजवानों की ज़िंदगी का सजीव प्रदर्शन किया गया है। जिसे देख कर हम जैसे मध्यम वर्गीय लोग अंदर तक हिल जाते हैं। मध्यम वर्ग के बच्चे तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद चाह कर भी जो हासिल नहीं कर पाते उसे कुछ मज़दूरों के बच्चे अपनी कड़ी मेहनत और लगन से हासिल करके पूरे समाज को आश्चर्यचकित कर देते हैं। पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय आईएएस या आईपीएस की नौकरी में जाने का प्रवेश द्वार हुआ करता था। पिछले चार दशकों से दिल्ली विश्वविद्यालय व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इसके प्रवेश द्वार बन गये हैं। उत्तरी दिल्ली का मुखर्जी नगर इसका बड़ा केंद्र है। पिछले साढ़े चार दशकों से मैं दिल्ली में रहते हुए कभी मुखर्जी नगर नहीं गया था। केवल सुना था कि वो कोचिंग संस्थानों का मछली बाज़ार है। विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी पैनी नज़र से मुखर्जी नगर की जो हक़ीक़त पेश की है वह न सिर्फ़ युवाओं के लिए बल्कि उनके माता पिता के लिए भी आँखें खोल देने वाली है। हो सकता है कि चोपड़ा का उद्देश्य फ़िल्म की कैच लाइन री-स्टार्ट से युवाओं को प्रेरित करना हो। पर मेरी नज़र में उन्होंने इससे भी बड़ा काम किया है। देश के दूर-दराज इलाक़ों में रहने वाले मेहनतकश परिवारों को प्रतियोगी परीक्षाओं की नंगी हक़ीक़त दिखा दी है। वे सचेत हो जाएँ और अपने नौ-निहालों के कोरे आश्वासनों से प्रभावित हो कर अपना घर लुटा न बैठें। 


इस संदर्भ में मैं अपने दो व्यक्तिगत अनुभव पाठकों के हित में साझा करना चाहूँगा। मेरे वृंदावन आवास पर चित्रकूट के जनजातीय इलाक़े का एक कर्मचारी मेरी माँ से एक लाख रुपया क़र्ज़ माँग रहा था। उद्देश्य था अपने भतीजे को आईआईटी की कोचिंग के लिए कोटा (राजस्थान) भेजना। सामाजिक सेवा में  सदा से रुचि रखने वाली मेरी माँ उसे ये रक़म देने को तैयार थीं। पर इससे पहले उन्होंने उस लड़के का इंटरव्यू लेना चाहा। जिससे यह पता चला कि उसका मानसिक स्तर साधारण पढ़ाई के योग्य भी नहीं था। माँ ने समझाया कि इसे कोटा भेज कर पैसा बरबाद मत करो। इसे कोई हुनर सिखवा दो। इस पर वो कर्मचारी बहुत नाराज़ हो गया और बोला, आप बड़े लोग नहीं चाहते कि हमारे बच्चे आईआईटी में पढ़ें। इसके बाद उसने कहीं और से क़र्ज़ लेकर उस लड़के को कोटा भेज दिया। दो साल बाद दो लाख रुपये बर्बाद करके वो लड़का बैरंग लौट आया। आजकल वो वृंदावन में बिजली मरम्मत का काम करता है। 


दूसरा अनुभव बिहार के चार लड़कों के साथ हुआ। इनमें से तीन हमारे संस्थान में दो दशकों से कर्मचारी  हैं। तीनों बड़े मेहनती हैं। चौथा भाई आईपीएस बनने बिहार से रायपुर (छत्तीसगढ़) चला गया। चार बरस तक तीनों भाई दिन-रात मेहनत करके उसकी हर माँग पूरी करते रहे। अपने बच्चों का पेट काट कर उस पर लाखों रुपया खर्च किया। वो लगातार इन्हें झूठे आश्वासन देता रहा। एक बार इन भाइयों ने मुझ से पैसा माँगा। ये कह कर कि हमारा भाई आईपीएस में चुन लिया गया है और अब ट्रेनिंग के लिए लंदन जायेगा। मैंने सुनकर माथा पीट लिया। उनसे उस भाई का फ़ोन नंबर माँगा और उससे तीखे सवाल पूछे तो वो घबरा गया और उसने स्वीकारा कि पिछले चार बरसों से वो अपने तीनों भाइयों को मूर्ख बना रहा था। 


मैं विधु विनोद चोपड़ा की इस फ़िल्म को इसीलिए ज़्यादा उपयोगी मानता हूँ कि जहां एक तरफ़ ये मनोज शर्मा की ज़िंदगी से प्रेरणा लेने का संदेश देती है, वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं की इस भयावयता को बिना लाग-लपेट के ज्यों-का-त्यों सामने रख देती है। जिससे युवा और उनके माता-पिता दोनों सचेत हो जाएँ। इसलिए इस फ़िल्म को हर शहर और गाँव के हर स्कूल में दिखाया जाना चाहिए। चाहे ये काम सरकार करे या स्वयंसेवी संस्थाएँ। ‘ट्वेल्थ फेल’ फ़िल्म की पूरी टीम को इस उपलब्धि के लिए बधाई।    

Monday, January 31, 2022

बेरोज़गार युवा और सरकारी तंत्र


पिछले दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश में युवकों द्वारा रेलवे भर्ती बोर्ड की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (आरआरबी-एनटीपीसी) परीक्षा प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं को लेकर उग्र प्रदर्शन हुए। सरकार ने छात्रों द्वारा रेल रोकने से लेकर रेल में आग लगाने जैसे प्रदर्शन की न सिर्फ़ निंदा की है बल्कि छात्रों पर बर्बरता से लाठियाँ भी चलाई। सोशल मीडिया पर इस लाठी चार्ज के विडीयो भी खूब वाइरल हुए। इस बवाल के बाद से विपक्ष इस मामले को लेकर एकजुट होता दिखाई दिया और न सिर्फ़ छात्रों के समर्थन में उतरा बल्कि केंद्र पर जमकर हमला भी बोला।
 


इसी दौरान बिहार के एक छात्र ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं। चुनावों के मौसम में इन सवालों से केंद्र सरकार को काफ़ी दिक्कत आ सकती है। आज के दौर में अगर ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ किन्ही कारणों से ऐसे सवालों को जनता तक नहीं पहुँचती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि जनता तक वह सवाल पहुँच नहीं पाएँगे। सोशल मीडिया पर यह इंटरव्यू काफ़ी देखा जा रहा है।       



इस विडियो में छात्र द्वारा रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के एक बयान का ज़िक्र है जहां वो कहते हैं कि 1.27 करोड़ छात्रों ने भर्ती के लिए आवेदन दिए हैं तो परीक्षा कैसे हो सकती है? इस बयान पर सवाल उठाते हुए छात्रों ने पूछा कि, आप ने कहा है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले आपके शासन काल में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गये यानी कि आपकी नीतियों के चलते बेरोज़गारी बढ़ी है। इंटरव्यू के दौरान छात्र ने एक ऐसी बात कह दी जो सभी युवकों को छू गई। उस छात्र ने कहा कि, परीक्षा की तैयारी के दिनों में कभी-कभी ऐस भी हुआ जब घर से पैसा समय पे नहीं आता था तो हम लोग गर्म पानी पी कर सो जाते थे। अगर छात्र इतनी कठिन परिस्थितियों में रह कर नौकरी पाने की उम्मीद में परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, और जब परीक्षा में धांधली की खबर मिलती है तो छात्र क्या करें? कैसे अपने ग़ुस्से को रोकें? सरकार को क्यों न कोसें? 


छात्रों के उग्र होने के सवाल पर छात्रों ने यह बताया कि 14 जनवरी को आए नतीजों का 10 दिनों तक विभिन्न डिजिटल माध्यमों से लगभग एक करोड़ बार विरोध किया गया। जब सरकार के पास कोई जवाब नहीं बचा तो डिजिटल विरोध के ‘हैश-टैग’ को बैन कर दिया गया। इसके बाद छात्र सड़कों पर उतरे और निहत्थे छात्रों पर सरकारी तंत्र ने लाठियाँ भांजी। किसान आंदोलन के बाद सरकार को सोचना चाहिए कि छात्रों की माँग को देखते हुए उनके प्रतिनिधि से बात कर कोई हाल ज़रूर निकाल सकता था। अगर युवाओं को सरकारी नौकरी मिलने की भी उम्मीद नहीं होगी तो हार कर उन्हें निजी क्षेत्र में जाना पड़ेगा और निजी क्षेत्र की मनमानी का सामना करना पड़ेगा। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 7 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि पढ़े-लिखे युवाओं के लिए एक ऐसी योजना लानी पड़ेगी जिससे इनको भी रोज़गार मिल जाए। पर ऐसा करने से करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उन नौजवानों की है जो आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है और सरकारी तंत्र द्वारा नौकरी के बजाए लाठियों ने आग में घी का काम किया है। कुछ वर्ष पहले सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर देश के बेरोज़गार नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया था। उस समय इसी कॉलम में मैंने कहा था कि ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते जिसमें देश के रेल मंत्री को ही यह मानना पड़ा की पिछली सरकार के मुक़ाबले इस सरकार में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गए। इसका सीधा सा मतलब यह है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले बेरोज़गारी काफ़ी बढ़ी है। 

Monday, November 2, 2020

प्रधान मंत्री का पुतला जलाना ठीक नहीं


इस दशहरे पर देश के कई हिस्सों में आक्रोशित किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और उत्तेजित भीड़ ने रावण दहन के लिए बने पुतले पर प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का चेहरा लगा कर रावण दहन किया और उत्तेजक नारे लगाए। किसी भी प्रधान मंत्री के साथ ऐसा दुर्व्यवहार आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ। इसका जितनी निंदा की जाए कम है। प्रधान मंत्री भारत सरकार का सर्वोच्च मुखिया होता है। उसका अपमान देश का अपमान है। इसलिए आजतक कभी आंदोलनकारियों ने या विपक्षी दलों ने ऐसा काम नहीं किया था। यह बड़ी चिंता की बात है और यह देश के लोकतंत्र के तेज़ी से पतनशील होने का बड़ा प्रमाण है। प्रधान मंत्री का पुतला जलाने वाले वास्तव में उनकी नीतियों से आहत थे या उन्हें किसी ने राजनैतिक मक़सद से उकसाया? जो भी हो इससे एक ग़लत परम्परा की शुरुआत हो गई जो और भी ज़्यादा चिंता की बात है।
 

दरअसल पिछले कुछ वर्षों में राजनीति का जो विमर्श बना है और जिस तरह की भाषा राजनैतिक कार्यकर्ता और उनके सहयोगी मीडिया कर्मी अपने विरोधियों के प्रति प्रयोग कर रहे हैं, उससे वो दिन दूर नहीं जब राजनीति में बातचीत से नहीं लाठी, गोली और डंडों से ही बात हुआ करेगी। फिर तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। फिर न तो कोई विचारधारा बचेगी और न कोई सामाजिक सरोकार का मुद्दा। घोर अराजकता की स्थिति होगी। इस पतन की शुरुआत बहुत सीमित मात्रा में तीन दशक पहले हुई थी, जब राजनैतिक दलों ने अपराधियों को चुनावों में उम्मीदवार बनाना शुरू किया था। तब मैंने अपनी कालचक्र विडीओ मैगज़ीन में एक रिपोर्ट तैयार की थी ‘क्या भारत पर माफिया राज करेगा?’ पर तब हालत इतने बुरे नहीं थे जितने आज हो गए हैं। 



पिछले कुछ वर्षों से देश के स्तर से लेकर गाँव और क़स्बे तक राजनैतिक आक्रामकता बढ़ती जा रही है। कोई अपने विरोधी की बात न तो शांति से सुनने को तैयार है और न उस पर तर्क करने को। ज़रा सा विरोध भी किसी को बर्दाश्त नहीं है। बात बात पर अपने विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करना, उन्हें धमकी देना या उन्हें देशद्रोही बताना आम बात हो गई है। इससे समाज में तनाव और असुरक्षा बढ़ रही है। यह भारत की सनातन संस्कृति नहीं हैं। ऐसा आचरण तो पश्चिम एशियाई देशों में देखने में आता है, जहां छोटी छोटी बातों पर मारकाट, गोली-बारी और सर कलम करने जैसे हादसे रोज़ होते रहते हैं। 


भारत की संस्कृति में तो राजा से भी एक आम नागरिक उसके दरबार में अपना विरोध प्रकट कर सकता था। पौराणिक गोवर्धन पर्वत की तलहटी में 500 वर्ष पहले एक प्रसिद्ध भजन गायक संत कुंभन दास जी रहते थे। बादशाह अकबर ने उनकी तारीफ़ सुनी तो उनका गायन सुनने के लिए सिपाही भेज कर उन्हें अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरि बुलवा लिया। इससे कुंभन दास जी बहुत दुखी हुए। बादशाह के हुक्म पर उन्होंने दरबार में अपना प्रसिद्ध पद गाया, संत कू कहा सीकरी सों काम। आवत जात पनहैया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। बादशाह अकबर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो कुंभन दास जी बोले, आज के बाद अपना मनहूस चेहरा मुझे मत दिखाना, क्योंकि इसके चक्कर में आज मेरा भजन भंग हो गया। इस पर दरबारियों ने तलवारें खींच लीं, तो अकबर ने उन्हें रोका और कहा, ये सच्चे फ़क़ीर हैं, ये शहनशाहों के शहनशाह (भगवान श्री कृष्ण) के लिए गाते हैं, हमारे लिए नहीं। मतलब ये कि अगर शासक में अपनी आलोचना सुनने की उदारता होगी, तो जनता का आक्रोश इतना नहीं भड़केगा कि वो मर्यादा की सीमा लांघ जाए। 


आजकल थाईलैंड के राजतंत्र के ख़िलाफ़ भारी जन आक्रोश ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया है। जबकि थाईलैंड के क़ानून के अनुसार राजा की निंदा करना भी ग़ैर क़ानूनी है। ऐसा इसलिए हुआ कि पिछले राजा उदार थे और लोकप्रिय भी। जबकि वर्तमान राजा के आचरण और नीतियों से जनता त्रस्त है। वैसे सारी जनता को हर समय कोई भी शासक पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता। कुछ न कुछ लोग तो हमेशा असंतुष्ट होंगे ही। पर अगर शासक वर्ग आम जनता के प्रति सम्वेदनशील है और जनता को भी लगता है कि उसकी नीतियों से जनता को लाभ मिल रहा है, तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। किंतु अगर जनता को लगे कि शासक वर्ग की नीतियाँ और आचरण आम जनता के हितों के विरोध में हैं और केवल कुलीन या सम्पन्न लोगों के हित में हैं तो उसका आक्रोश बढ़ जाता है। जिसकी परिणिति हिंसक आंदोलन का रूप भी ले सकती है। 


मध्य युग की छोड़ दें तो भी आधुनिक युग में और इसी सदी में दुनिया के जिन-जिन देशों में शासकों ने तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाया, विरोध के स्वरों को दबाया और जनसंचार के माध्यमों से अपना झूठा प्रचार करवाया उन-उन तानाशाहों को खूनी क्रांति का सामना करना पड़ा। इसलिए लोकतंत्र में जो चार स्तंभ बनाए गए हैं - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया, चारों की स्वायत्तता समविधान में सुरक्षित की गई है। इन चारों स्तंभों को एक दूसरे के ऊपर निगरानी रखने का दायित्व भी लोकतांत्रिक परम्पराओं ने प्रदान किया है। जिससे समाज में संतुलन बना रहे। 


इसलिए यह हम सब का दायित्व है कि हम देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं में तजी से आई इस गिरावट को रोकने का काम तुरंत करें। इसमें ज़्यादा ज़िम्मेदारी स्वयं प्रधान मंत्री श्री मोदी जी की है। वे सत्ता के सिरमौर हैं और एक नए भारत का सपना देख रहे हैं। उन्हें इस परीस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन कर इस गिरावट को रोकने के लिए ठोस और प्रभावी कदम उठाने चाहिएँ। जिससे हमारा समाज भयमुक्त हो, अनुशासित हो और ज़िम्मेदारी से व्यवहार करे, ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत न करे।

Monday, September 28, 2020

व्यापार और उद्योग जगत में भारी हताशा क्यों है?

कोविड में चीन की संदिग्ध भूमिका के बाद उम्मीद जताई जा रही थी विदेशी निवेशक चीन से अपना कारोबार समेट कर भारत में भारी मात्रा में विनियोग करेंगे। क्योंकि यहाँ श्रम सस्ता है और एक सशक्त प्रधान मंत्री देश चला रहे हैं। पर अभी तक इसके कोई संकेत नहीं हैं। दुनिया की मशहूर अमरीकी मोटरसाइकिल निर्माता कम्पनी ‘हार्ले-डेविडसन’ जो 10-15 लाख क़ीमत की मोटरसाइकिलें बनाती है भारत से अपना कारोबार समेट कर जाने की तैयारी में हैं। पिछले दशक में भारत में तेज़ी से हुई आर्थिक प्रगति ने दुनिया के तमाम ऐसे निर्माताओं को भारत की ओर आकर्षित किया था। जिन्हें उम्मीद थी कि उनके महँगे उत्पादनों का भारत में एक बड़ा बाज़ार तैयार हो गया है। पर आज ऐसा नहीं है। व्यापार और उद्योग जगत के लोगों का कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी व लॉकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी है। 


लॉकडाउन हटने के बाद से देश के छोटे बड़े हर नगर में बाज़ारों को पूरी तरह खुले दो महीने हो चुके हैं फिर भी बाज़ार से ग्राहक नदारद है। रोज़मर्रा की घरेलू ज़रूरतों जैसे राशन और दवा आदि को छोड़ कर दूसरी सब दुकानों में सन्नाटा पसरा है। सुबह से शाम तक दुकानदार ग्राहक का इंतेज़ार करते हैं पर उन्हें निराशा हाथ लगती है। जबकि बिजली बिल, दुकान का किराया, व कर्मचारियों का वेतन पहले की तरह ही है। यानी खर्चे पहले जैसे और आमदनी ग़ायब। इससे व्यापारियों और छोटे कारख़ानेदारों में भारी निराशा व्याप्त है। एक सूचना के अनुसार अकेले बेंगलुरु शहर में हज़ारों छोटे दुकानदार दुकानों पर ताला डाल कर भाग गए हैं क्योंकि उनके पास किराया और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। होटल, पर्यटन, वायुसेवा, परिवहन आदि क्षेत्रों में तो भारी मंदी व्याप्त है ही। हर वर्ष पितृपक्ष के बाद शदियों और त्योहारों का भारी सीज़न शुरू हो जाता था, माँग में तेज़ी से उछाल आता था, जहां आज पूरी तरह अनिश्चिता छाई है। 


भवन निर्माण क्षेत्र का तो और भी बुरा हाल है। पहले जब भवन निर्माताओं ने लूट मचा रखी थी तब भी ग्राहक लाईन लगा कर खड़े रहते थे। वहीं आज ग्राहक मिलना तो दूर भवन निर्माताओं को अपनी डूबती कम्पनीयां बचाना भारी पड़ रहा है। सरकार का यह दावा सही है कि भवन निर्माण के क्षेत्र में काला धन और रिश्वत के पैसे का बोल बाला था। जो मौजूदा सरकार की कड़ी नीतियों के कारण ख़त्म हो गया है। मगर चिंता की बात यह है कि सरकार की योजनाओं के क्रियाँवन में कमीशन और रिश्वत कई गुना बढ़ गई है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के आँकलन के अनुसार भी भारत में भ्रष्टाचार घटा नहीं, बढ़ा है। जिस पर मोदी जी को ध्यान देना चाहिए। 


सरकार के आर्थिक पैकेज का देश की अर्थव्यवस्था पर उत्तप्रेरक जैसा असर दिखाई नहीं दिया। कारोबारियों का कहना है कि सरकार बैंकों से क़र्ज़ लेने की बात करती है पर क़र्ज़ लेकर हम क्या करेंगे जब बाज़ार में ग्राहक ही नहीं है। लॉकडाउन के बाद करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई है। उनको आज परिवार पालना भारी पड़ रहा है। ऐसे में बाज़ार में माँग कैसे बढ़ेगी? माँग ही नहीं होगी तो क़र्ज़ लेकर व्यापारी या कारख़ानेदार और भी गड्ढे में गिर जाएँगे। क्योंकि आमदनी होगी नहीं और ब्याज सिर पर चढ़ने लगेगा। 


व्यापारी और उद्योगपति वर्ग कहना ये है कि वे न केवल उत्पादन करते हैं, बल्कि सैकड़ों परिवारों का भी भरण-पोषण भी करते हैं, उन्हें रोजगार देते हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियों और कोविड ने उनकी हालत इतनी पतली कर दी है कि वे अब अपने कर्मचरियों की छटनी कर रहे हैं। इससे गांवों में बेरोजगारी और पढ़े लिखे युवाओं में हताशा फैल रही है। लोग नहीं सोच पा रहे हैं कि ये दुर्दिन कब तक चलेंगे और उनका भविष्य कैसा होगा?


मीडिया के दायरों में अक्सर ये बात चल रही है कि मोदी सरकार के खिलाफ लिखने या बोलने से देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। हमने इस कॉलम में पहले भी संकेत किया था कि आज से 2500 वर्ष पहले मगध सम्राट अशोक और उसके जासूस भेष बदल-बदलकर जनता से अपने बारे में राय जानने का प्रयास करते थे। जिस इलाके में विरोध के स्वर प्रबल होते थे, वहीं राहत पहुंचाने की कोशिश करते थे। मैं समझता हूं कि मोदी जी को मीडिया को यह साफ संदेश देना चाहिए कि अगर वे निष्पक्ष और संतुलित होकर ज़मीनी हक़ीक़त बताते हैं, तो मोदी सरकार अपने खिलाफ टिप्पणियों का भी स्वागत करेगी। इससे लोगों का गुबार बाहर निकलेगा और समाधान की तरफ़ सामूहिक प्रयास से कोई रास्ता निकलेगा। एक बात और महत्वपूर्ण है, इस सारे माहौल में नौकरशाही को छोड़ कर शेष सभी वर्ग ख़ामोश बैठा लिए गए हैं। जिससे नौकरशाही का अहंकार, निरंकुशता और भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। ये ख़तरनाक स्थिति है, जिसे नियंत्रित करना चाहिए। हर क्षेत्र में बहुत सारे योग्य व्यक्ति हैं जो चुपचाप अपने काम में जुटे रहे हैं, उन्हें ढूँढकर बाहर निकालने की जरूरत है और उन्हें विकास के कार्यों की प्रक्रिया से जोड़ने की जरूरत है। तब कुछ रास्ता निकलेगा। केवल नौकरशाही पर निर्भर रहने से नहीं।

Monday, September 21, 2020

पहले चौकीदार और अब बेरोज़गार

मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया है जिसे आम पाठकों के लाभ के लिए सरल भाषा में यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। उनका कहना है 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। वे कब वापस शहर लौटेंगे या नहीं लौटेंगे, अभी कहा नहीं जा सकता। जिस तरह पूर्व चेतावनी के बिना लॉकडाउन की घोषणा की गई उससे निचले स्तर के अनौपचारिक रोज़गार क्षेत्र में करोड़ों मज़दूरों पर गाज गिर गई। उनके मालिकों ने उन्हें बेदर्दी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बेचारे अपने परिवारों को लेकर सड़क पर आ गए। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 6 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है कि उन्होंने अब अपने नाम के पहले ‘चौकीदार’ की जगह ‘बेरोज़गार’ जोड़ लिया है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर इन नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते। कोरोना लॉकडाउन तो मार्च 2020 से हुआ है, जिसने स्थित और बिगाड़ दी।