Monday, June 12, 2023

कैसे हों पूरब - पश्चिम के रिश्ते?


2011 में देश भर के अख़बारों में छपी एक खबर ने सबका ध्यान आकर्षित किया। ये खबर थी ही ऐसी कि जो कोई पढ़ता अचंभित हो जाता। अब तक लोगों का अनुभव था कि एक माँ से उसके बच्चे तभी अलग होते हैं जब कोई उन्हें अगवा कर ले या माता-पिता का तलाक़ हो जाए और बच्चों का बंटवारा या फिर माँ मानसिक या शारीरिक रूप से अपने बच्चों की परवरिश करने की स्थिति में न हो। इसके अलावा अत्यंत ग़रीब परिवारों द्वारा भी कई बार आर्थिक मजबूरी के चलते अपने बच्चे या तो गोद दे दिये जाते हैं या बेच दिये जाते हैं। पर इस खबर के मुताबिक़ सागरिका भट्टाचार्य नाम की जिस महिला का चार साल का बेटा और छः महीने की बेटी पश्चिमी यूरोप के देश नॉर्वे में सरकारी एजेंसी द्वारा छीन लिये गये थे। वो महिला अपने बच्चों की परवरिश करने में पूरी तरह सक्षम थी और अपने इंजीनियर पति के साथ पूरी ज़िम्मेदारी से अपनी गृहस्थी चला रही थी। फिर उसके साथ ऐसा क्यों हुआ?
 



पिछले हफ़्ते नेटफ़्लिक्स पर सागरिका भट्टाचार्य के जीवन की इस घटना पर आधारित एक फ़िल्म रिलीज़ हुई है जिसका शीर्षक है ‘मिसेज़ चटर्जी बनाम नॉर्वे’। फ़िल्म को देखने के बाद हर दर्शक नॉर्वे के समाज और सरकार के रवैए पर सवाल उठा रहा है। नॉर्वे दुनिया का एक बेहद संपन्न देश है जिसकी आबादी मात्र पचपन लाख है। ये वही देश है जो पिछले सौ वर्षों से दुनिया के मेधावी लोगों को समाज सेवा, पत्रकारिता, विज्ञान, कला व राजनीति के क्षेत्र में विश्व स्तर के उल्लेखनीय योगदान के लिए प्रतिष्ठित ‘नोबल पुरस्कार’ प्रदान करता है। फिर ऐसे देश में ये कैसे हुआ कि सुखी-संपन्न युवा परिवार के बच्चे, सरकार द्वारा समर्थित संस्था द्वारा माँ की गोद से छीन लिये गये? अपने बच्चों को पाने के लिए सागरिका भट्टाचार्य को नॉर्वे से लेकर भारत तक की अदालतों में तमाम मुक़द्दमें लड़ने पड़े। आख़िरकार माँ के प्यार की ही जीत हुई और तीन वर्ष बाद वो अबोध बालक माँ को वापिस मिल गए। अलबत्ता सागरिका भट्टाचार्य के पति ने इस लड़ाई में उनके साथ धोखाधड़ी की क्योंकि वो नॉर्वे में रहने के लिए अपने वीज़ा को ज़्यादा प्राथमिकता देते थे और इसीलिए चाहे-अनचाहे उन्होंने नॉर्वे की सरकार और क़ानून का पक्ष लिया। ‘मिसेज़ चटर्जी बनाम नॉर्वे’ फ़िल्म में सागरिका भट्टाचार्य के किरदार को रानी मुखर्जी ने बखूबी निभाया है। 



हुआ यूँ कि जब सागरिका नॉर्वे में जा कर अपने पति के साथ रहने लगी तो नॉर्वे की सरकार की बाल कल्याण एजेंसी के अधिकारियों ने भट्टाचार्य दंपत्ति के निजी जीवन में ताक-झांक करनी शुरू कर दी। उनको घोषित उद्देश्य था बच्चों कि परवरिश में भट्टाचार्य दंपत्ति की मदद करना। क्योंकि नॉर्वे की सरकार बच्चों की परवरिश पर बहुत ज़ोर देती है और उस पर करोड़ों रुपया ख़र्च भी करती है। इस ताक-झांक की ये अधिकारी नियमित रिपोर्ट लिखते रहे और एक दिन अचानक भट्टाचार्य दंपत्ति के इन अबोध बच्चों को उनसे जबरन छीन कर बाल कल्याण गृह में ले गये। जहां सागरिका को अपने बच्चों से हफ़्ते में केवल एक बार मिलने दिया जाता था। इस बाल कल्याण एजेंसी का आरोप था कि सागरिका अपने बच्चों की परवरिश करने के लायक़ सही माँ नहीं है। क्योंकि वह अपने छ महीने की बेटी और चार साल के बेटे को छुरी-काँटे से नहीं बल्कि हाथों से ख़ाना खिलाती है। उनका आरोप था कि शरारत कर रहे अपने बच्चे को सागरिका डाँटती है और उसे थप्पड़ भी दिखाती है। बाल कल्याण एजेंसी के इन अधिकारियों का यह भी आरोप था कि सागरिका इन बच्चों के माथे पर काला टीका (नज़रबट्टू) लगाती है। इसके अलावा उनका आरोप यह भी था कि सागरिका के पति अपने बच्चों की परवरिश में हाथ नहीं बटाते। 


इन आरोपों को पढ़ कर इस लेख के पाठक हँसेंगे। क्योंकि जो आरोप सागरिका पर लगाए गए वो तो दक्षिण एशिया के किसी भी समाज के परिवारों पर लगाए जा सकते हैं। इससे पहले कि हम ये जानें कि नॉर्वे की सरकार ने ऐसा क्यों किया, पहले ये जान लें कि इन आरोपों से निपटने के लिए सागरिका को कई अदालतों में बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा। इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि बाल कल्याण के नाम पर ये पूरा तंत्र निहित स्वार्थों के लिए काम कर रहा है। जो किसी बड़े घोटाले से कम नहीं है। जिसमें बाल संरक्षण एजेंसी, सामाजिक कार्यकर्ता, मनोचिकित्सक, वकील, सरकारी अनुदान के बदले ऐसे छीने गये बच्चों को पालने वाले दत्तक परिवार या इन बच्चों को क़ानून गोद लेने वाले परिवार भी शामिल हैं। क्योंकि इसमें इन सबकी कमाई होती है। 


नॉर्वे की सरकार, इस फ़िल्म के आने से, पूरी दुनिया में विवादों में घिरना शुरू हो गई है। फ़िल्म देखने के बाद मैंने भी नॉर्वे की सरकार व भारत में नॉर्वे के राजदूत को ट्विटर पर एक संदेश भेजा, जो इस प्रकार है। ‘आपका देश दुनिया का एक प्रतिष्ठित देश है। पर ‘मिसेज़ चटर्जी बनाम नॉर्वे’ फ़िल्म को देख कर आपके बाल कल्याण कार्यक्रम का एक दिल-दहलाने वाला पक्ष उजागर हुआ है। आशा है अब आप एशियाई मूल के परिवारों के प्रति अपना रवैया बदलेंगे और उन्हें अपने देश की संस्कृति और जीवन मूल्यों के चश्में से देखना बंद करेंगे। आपको याद दिला दूँ कि सुप्रसिद्ध अमरीकी समाज शास्त्री तालकॉट पार्संस ने अपनी पुस्तक में भारत के संयुक्त परिवारों को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ समाज व्यवस्था बताया है। क्योंकि इस व्यवस्था में परिवार के सदस्यों का तनाव प्रबंधन होता है, आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा रहती है और पारस्परिक संबंध प्रगाढ़ होते हैं, जो इन समाजों को लंबे समय तक स्थायित्व देते हैं। जबकि पश्चिमी समाजों में एक परिवार या व्यक्ति केंद्रित व्यवस्था के कारण समाज का विघटन हो रहा है।’ 


इसी ट्वीट में मैंने आगे लिखा, ‘1988 में अमरीका के शहर विस्कॉन्सिन में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए मैंने कहा था कि पूर्वी देशों की सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत समृद्ध है और सदियों पुरानी है। जबकि पश्चिमी देशों के समाज अपने कुशल प्रबंधन के कारण भौतिक रूप से तो आगे बढ़ रहे हैं लेकिन उनके पास जीवन जीने की दृष्टि नहीं है। अगर दोनों समाजों के बीच पारस्परिक सम्मान का ऐसा रिश्ता स्थापित हो जाए कि पूर्व की दृष्टि और पश्चिम का प्रबंधन संयुक्त रूप से काम करें तो ये पूरी मानव जाति के रहने के लिए यह दुनिया कल्याणकारी हो जाएगी।’

Monday, June 5, 2023

बालासोर हादसे से सबक


रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने बालासोर के बेहद खौफ़नाक रेल हादसे के एक दिन पहले टीवी के जरिये जनता को बताया था कि मोदी सरकार ने भारतीय रेल का कायाकल्प कर दिया है। उन्होंने यह भी दावा किया कि ट्रेन दुर्घटनाओं को टालने के लिए मोदी सरकार ने विश्व की सबसे आधुनिक सुरक्षा प्रणाली ‘कवच’ को लागू कर दिया है। हकीकत यह है कि इस तकनीक को लागू करने का फ़ैसला मनमोहन सिंह की सरकार ने 2012 में ले लिया था। तब इसका नाम ‘ट्रेफिक कोलिजन अवोइडेंस सिस्टम’ था। पुरानी योजनाओं के नाम बदलकर उन्हें अपनी नई योजना बताकर लागू करने में माहिर भाजपा सरकार ने 2022 में उसी योजना को ‘कवच’ के नाम से लागू किया। प्रश्न है कि पिछले 9 वर्ष से केंद्र सरकार इस सुरक्षा प्रणाली पर कुंडली मारे क्यों बैठी थी ?


‘कवच’ वह तकनीक है जिसे लागू करने के बाद पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी किसी दुर्घटना के अंदेशे से 400 मीटर पहले ही अपने आप रुक जाती है। शुरू में इसे दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा के रूट पर लागू किया गया और दावा किया गया कि मोदी सरकार के ‘मिशन रफ़्तार’ के तहत 160 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से दौड़ने वाली रेलगाड़ी अपने आप रुक जाएगी। उल्लेखनीय है कि इस तकनीक का परिक्षण करने के लिए रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने अपनी जान को जोखिम में डाला और पिछले साल मार्च में सिकंदराबाद में इंजन ड्राईवर के साथ बैठे और इस तकनीक का सफल परीक्षण किया। जिसमें आमने-सामने से आती दो रेलगाड़ियों पर इसे परखा गया था। रेल मंत्री ने बालासोर के दुखद हादसे से कुछ घंटे पहले ही दिल्ली में रेल मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों  को संबोधित करते हुए ‘कवच’ के परीक्षण का विडियो भी दिखाया। उन्होंने रेल अधिकारियों से सभी प्रमुख रेल गाड़ियों की गति को 160 किलोमीटर तक बढ़ाने की अपील की। जिससे प्रधान मंत्री मोदी का ‘मिशन रफ़्तार’ गति पकड़ सके।



पर अनहोनी को कौन टाल सकता है? बालासोर में जो हादसा हुआ उसमें एक नही, तीन-तीन ट्रेनें आपस में भिड़ीं। ऐसा हादसा दुनिया की रेल दुर्घटनाओं में होने वाले हादसों में शायद पहले कभी नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि इस रूट पर ‘कवच’ को अभी लागू नही किया गया था। इस हादसे में सैकड़ों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए और हजार से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए। राहत और बचाव कार्य करने वाले लोग दुर्घटना स्थल को देखकर दहल गए। क्योंकि उनके सामने चारों तरफ लाशों का अम्बार लगा था। रेलगाड़ी की कई बोगियां तो पूरी तरह पलट गईं, जिनके पहिये ऊपर और छत जमीन पर आ गई थी।



काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। कहते हैं जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु की घड़ी भी पूर्व निर्धारित होती है। इसलिए जिन परिवारों ने अपनों को खो दिया है उनके प्रति पूरे देश की सहानुभूति है। सरकार से उम्मीद है कि वह जो भी कर सके वो सब इन परिवारों के लिए करे। मगर यहाँ एक गंभीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हम रेल यात्रा के मामले में अपनी क्षमता से अधिक हासिल करने का प्रयास तो नही कर रहे? 11 करोड़ लोग भारतीय रेल में सफ़र करते हैं। मालगाड़ी की जगह यात्री सेवाओं पर कहीं ज्यादा खर्च आता है। क्योंकि यात्रियों की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा होती हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि संपन्न वर्ग अब रेल यात्रा की जगह हवाई यात्रा को प्राथमिकता देता है। जबकि आम आदमी, विशेषकर मजदूर वर्ग के लिए रेल यात्रा ही एक मात्र विकल्प है। काम की तलाश में मजदूर देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आते-जाते रहते हैं। इन्हें 5 सितारा चमक-धमक की बजाय पेय-जल, शौचालय और वेटिंग हाल जैसी बुनियादी सुविधाओं से ही संतोष हो जाता है। ऐसे में सरकार का रेलवे स्टेशनों और रेलगाड़ियों को 5 सितारा संस्कृति से सुसज्जित करना बड़ी प्राथमिकता नहीं होना चाहिए। अभी तो देश को अपने सीमित संसाधनों को आम जनता के स्वास्थ्य व शिक्षा पर खर्च करने की ज़रूरत है।



मोदी जी हमेशा बड़े सपने देखते हैं। वे ‘मिशन रफ़्तार’ को सभी प्रमुख रेल गाड़ियों पर लागू करना चाहते हैं। सत्ता में आते ही उन्होंने ‘बुलट ट्रेन’ का भी सपना दिखाया था। जो अभी धरातल पर नही उतर पाया है। हमारे देश की जमीनी हकीकत यह है कि हम जापान और चीन की तरह न तो अपने कार्य के प्रति ईमानदारी से समर्पित हैं और न ही अनुशासित हैं। परिणामत: सरकार की तमाम महत्वाकांक्षी योजनाएँ लागू होने से पहले ही विफल हो जाती हैं। यहाँ अगर उज्जैन के महाकाल का उदाहरण लें तो अनुचित न होगा। छ: महीने पहले 856 करोड़ रूपये से हुआ मंदिर का सौंदर्यीकरण एक ही आंधी में धराशायी हो गया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाओं को जल्दबाज़ी में, बिना गुणवत्ता का ध्यान रखे, लागू किया गया और वे जल्दी ही अपनी अकुशलता का सबूत देने लगीं। इसलिए रेल विभाग को नई तकनीकी और 5 सितारा संस्कृति अपनाने में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। ऐसा न हो ‘आधी छोड़ सारी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे।’


अंतिम प्रश्न है कि क्या रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव को 1956 में तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अनुसरण करते हुए, बालासोर की दुखद दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए व विपक्ष की मांग का सम्मान करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए? मैं इसका समर्थक नहीं हूँ। क्योंकि आज की राजनीति में न तो राजनीतिज्ञों के नैतिक मूल्यों का शास्त्री जी के समय जैसा उच्च नैतिक स्तर बचा है और न ही ऐसे इस्तीफों से किसी मंत्रालय की दशा सुधरती है। बजाय इस्तीफा मांगने के मैं रेल मंत्री को सुझाव देना चाहता हूँ कि वे अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं, उपलब्ध संसाधनों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के करोड़ों रेल यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखकर निर्णय लें। जो मौजूदा ढांचा रेल मंत्रालय का है उसमें यथा संभव सुधार की कोशिश करें और अपने विभाग से भ्रष्टाचार को ख़त्म करें और कार्य कुशलता को बढ़ाएं। वही बालासोर के इस हादसे में मारे गए रेल यात्रियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Monday, May 29, 2023

तो मुझे क्या


एक मुल्ला जी मस्जिद के बाहर बैठे थे। उनसे एक शरारती लड़के ने पूछा,
मुल्ला जी आपके पड़ोस में शादी है और आप यहाँ बैठे हैं। मुल्ला जी ने जवाब दिया, तो मुझे क्या? लड़के ने फिर छेड़ा, सुना है वो आपके यहाँ मिठाई भेजने वाले हैं। मुल्ला जी पलट कर बोले, तो तुझे क्या? अब किसी देश का प्रधान मंत्री पैर छुए या बॉस कह कर संबोधित करे। स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए या गर्मजोशी से झप्पी डाले तो इस पर भारत के मतदाताओं का जवाब होगा, तो मुझे क्या? 



कर्नाटक चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा के ख़ेमे में बहुत घबराहट है। प्रधान मंत्री मोदी की अन्तराष्ट्रीय छवि को मार्केट करके इस घबराहट से ध्यान हटाने की कोशिश कि जा रही है। ऑस्ट्रेलिया में होने वाली क्वाड नेताओं की बैठक अमरीका के राष्ट्रपति जो बाईडेन के न आ पाने के कारण स्थगित कर दी गई थी। फिर भी मोदी जी ऑस्ट्रेलिया गये, जबकि उन्हें कोई सरकारी न्योता नहीं था। ये उनकी निजी यात्रा थी जिसके लिए अप्रवासी भारतीयों की एक रैली का आयोजन किया गया। जिसमें लगभग बीस हज़ार भारतीयों ने हिस्सा लिया। जबकि ऑस्ट्रेलिया में दस लाख भारतीय रहते हैं। जानकारों का कहना है कि इन बीस हज़ार श्रोताओं में पंद्रह हज़ार गुजराती थे। ये भी सुना है कि बारह चार्टर हवाई जहाज़ चीयरलीडर्स को ले कर गये थे। 



दरअसल भाजपा ने कई देशों में ‘फ़्रेंड्स ऑफ़ बीजेपी’ नाम के हज़ारों संगठन बना रखे हैं। पिछली बार जब मोदी जी ऑस्ट्रेलिया गये थे तो ऑस्ट्रेलिया में इस संगठन के अध्यक्ष बालेश धनखड़ ने ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित किए थे। ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि वही बालेश पाँच कोरियाई महिलाओं के साथ बलात्कार के आरोप में जेल में बंद है। उधर अमरीका में मोदी जी के स्वागत के लिए अब तक जो भव्य आयोजन किए गये हैं उनका प्रारूप भी राजनैतिक न हो कर कॉर्पोरेट इवेंट मैनेजमेंट जैसा रहा है। ज़ाहिर है कि ऐसे आयोजनों में लोगों को लाने, होटलों में ठहराने और खिलाने-पिलाने में अरबों रुपया खर्च होता है। ये पैसा कौन खर्च कर रहा है? ‘पीएम केयर्स’ में जमा और खर्च पैसे का हिसाब आजतक देश के मतदाताओं को नहीं दिया गया। जबकि इस निजी ट्रस्ट को सरकारी की तरह ही दिखा कर चंदे में भारी भरकम रक़म उघाई गई थी। विपक्ष को संदेह है कि कहीं यही पैसा तो मोदी जी की छवि बनाने पर खर्च नहीं किया जा रहा? वरना आज के दौर में किसे फ़ुरसत हैं कि वो तकलीफ़ उठा कर किसी रैली में जाए, जब सब कुछ टीवी या सोशल मीडिया पर उपलब्ध है। 



देश के जागरूक नागरिक इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि मोदी जी को अप्रवासी भारतीयों से ही अपने स्वागत के लिए इवेंट मैनेजमेंट करवाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? जबकि ये वो लोग हैं जो भारत के विकास की प्रक्रिया में हिस्सा न लेकर विदेश चले गये और वहाँ सफल होने के बाद अब भारतवासियों को ज्ञान देते हैं। ये वो अप्रवासी भारतीय नहीं हैं जो अपनी कमाई हुई विदेशी मुद्रा भारत भेजते हों। विदेशी मुद्रा भेजने वाली जमात तो उन ग़रीब अप्रवासी भारतीयों की है जो खाड़ी के देशों या अन्य देशों में मेहनत मज़दूरी करके अपनी कमाई भेजते हैं। अगर अप्रवासी भारतीय वास्तव में मोदी जी के प्रशंसक हैं और यह मानते हैं कि मोदी जी ने वाक़ई भारत की कायाकल्प कर दी है तो वे लौट कर भारत में बसने क्यों नहीं आते? सच्चाई तो यह है कि इन नौ सालों में हज़ारों अरबपतियों ने भारत की नागरिकता छोड़ कर विदेशों की नागरिकता ले ली है। अबसे पहले कभी किसी प्रधान मंत्री ने विदेशों में अपनी छवि बनाने के लिए ऐसे आयोजन नहीं करवाए। जब भी कोई प्रधान मंत्री विदेश जाते थे तो भारतीय दूतावास के अधिकारी कुछ चुनिंदा भारतीय परिवारों को दूतावास में चाय पर बुला कर प्रधान मंत्री का एक सामान्य स्वागत करवा दिया करते थे।  


मोदी जी की छवि बनाने में जनता के हज़ारों करोड़ रुपये विज्ञापनों में खर्च कर दिया गया है। ये विज्ञापन केंद्र सरकार, उसके मंत्रालय, सार्वजनिक उपक्रम, प्रांतीय सरकारें, सरकार से लाभान्वित बड़े उद्योगपति और भाजपा प्रकाशित करवाते हैं। इन विज्ञापनों से देश की जनता का क्या भला हो रहा है? क्या दो करोड़ रोज़गार हर वर्ष देने का वादा किए गये अठारह करोड़ लोगों को पिछले नौ वर्षों में रोज़गार मिल गया? अगर मिल गया होता तो मुफ़्त का राशन लेने वाले साठ करोड़ लोगों के घर में एक-एक सपूत तो कमाने वाला हो गया होता। क्योंकि ऐसा नहीं हुआ है इसलिए ये परिवार ग़रीबी की सीमा रेखा से नीचे आज भी जी रहे हैं। चीयर लीडर्स की रैलियाँ विदेशों में करवाने के बजाए अगर मोदी जी ने देश भर में ‘जनता दरबार’ लगाए होते और उनसे उनकी समस्याएँ सुनी होती तो वास्तव में मोदी जी की छवि कुछ और ही बनती। तब उन्हें विज्ञापनों और विदेशी यात्राओं की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। 


भारत में मोदी जी की हर यात्रा में वो चाहे धार्मिक हो या राजनैतिक करोड़ों रुपये के फूल सजाए जाते हैं और फूल पत्तियों से भारी थैलियाँ घर-घर बँटवा कर लोगों से मोदी जी पर फूल फेंकने को कहा जाता है। सड़कें फूलों से पट जाती हैं। जैसा हाल के चुनावों में कर्नाटक में बार-बार हुआ। बावजूद इसके भाजपा बुरी तरह हार गई। मतलब ये कि वो फूल लोगों ने अपने पैसे और भावना से नहीं फेंके। बल्कि उनसे फ़िकवाए गये थे। सवाल है कि क्या भाजपा के पास जनता को प्रभावित करने के लिए कोई और मुद्दे नहीं बचे, सिवाय मोदी जी की छवि भुनाने के? तो क्या 2024 की वयतरणी केवल मोदी जी की छवि के सहारे पार की जाएगी? जितना ज़्यादा बढ़-चढ़ कर उनका प्रचार किया जा रहा है उसका वांछित परिणाम तो आ नहीं रहा। दिल्ली, बंगाल, हिमाचल और कर्नाटक आदि कितने ही राज्यों में भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा है। ज़रूरत इस बात की है कि भाजपा और मोदी जी नक़ली छवि पर धन और ऊर्जा खर्च करने के बजाए अपनी ठोस उपलब्धियों को मतदाताओं के सामने रखें और उनके आधार पर वोट माँगे। 


Monday, May 22, 2023

प्रश्न सनातन धर्म का ?


2024 का चुनाव सामने है। आरएसएस व भाजपा हिंदुत्व के एजेंडा पर ज़ोर-शोर से काम कर रही है। पहले ‘तशकान्त फ़ाइल्स’ फिर ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ और अब ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फ़िल्में योजना बद्ध तरीक़े से जारी की जा रही हैं और प्रधान मंत्री से लेकर मुख्य मंत्रियों तक ने इन फ़िल्मों को प्रचारित करने का जिम्मा ले लिया है। इन फ़िल्मों पर मनोरंजन कर से मुक्ति व प्रायोजित शो करवाकर दर्शकों को ये फ़िल्में दिखलाई जा रही है। जिसका एकमात्र लक्ष्य वोटों का ध्रुवीकरण करना है। आम भावुक दर्शक इन फ़िल्मों की पटकथा से निश्चित रूप से प्रभावित हो रहे हैं। ऐसी अभी कई फ़िल्में 2024 तक और जारी होंगी। इसके साथ ही नया संसद भवन और अयोध्या में श्री राम मंदिर बन कर तैयार होगा, जिसे बहुत आक्रामक मार्केटिंग नीति के तहत पूरी तरह भुनाया जाएगा।
 


बहुत से लोग देश-विदेश से संदेश भेज कर मुझ से मेरी राय पूछ रहे हैं। मैंने सोशल मीडिया पर उत्तर दिया कि, इसमें जो दिखाया है वो सत्य है। पर 32,000 लड़कियाँ बता कर प्रचार खूब किया। जब प्रमाण माँगे गये तो केवल 3 केस सामने आए। उसमें भी हिंदू लड़की केवल एक ही निकली। 



महिलाओं के साथ ऐसे अत्याचार सदियों से हर देश में  हर धर्म के लोग करते आये हैं। बीजेपी के मंत्री या नेताओं के भी किए व्यभिचार, बलात्कार और हत्याओं के मामले प्रायः सामने आते रहते हैं। उन पर कोई द रेप स्टोरी  क्यों नहीं बनती? उन खबरों को क्यों दबवा दिया जाता है? इसी तरह हर राजनीतिक दल के आपराधिक छवि वाले नेता, इस तरह के अपराधों में लिप्त रहते हैं। 


पर जो फ़िल्में आजकल बनवाई जा रही हैं वे एकतरफ़ा हैं, भड़काऊ हैं और अपने वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिये राजनैतिक उद्देश्य से बनवायी गयी हैं। इनमें विषय संबंधी सभी तथ्यों को नहीं दिखाया जाता। जैसे कश्मीर फ़ाइल्स में ये नहीं दिखाया गया कि कश्मीर के आतंकवादियों ने आजतक कितने मुसलमानों की भी उसी तरह हत्याएँ कीं हैं और आज भी कर रहे हैं।


मेरी उपरोक्त टिप्पणी पर अधिकतर प्रतिक्रिया समर्थन में आईं। पर कुछ मशहूर लोगों ने, जो आजकल भाजपा के साथ खड़े हैं, ने मुझे याद दिलाया कि महिलाओं के प्रति अत्याचार के मामलों को कट्टरपंथी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों द्वारा किए जा रहे सुनियोजित अभियान से तुलना नहीं की जा सकती। उनका यह भी कहना है कि ग़ैर भाजपाई सरकारों में मुसलमानों की आक्रामकता बढ़ जाती है और हिन्दुओं पर अत्याचार भी बढ़ जाते हैं। भाजपा की आई टी सेल 13 तारीख़ से हिंदुओं को कांग्रेस सरकार से डराने में जुट गयी है। ऐसी पोस्ट आ रही हैं, कर्नाटक में कांग्रेस के जीतने पर हिंदुओं के उपर हमले भी शुरू हो गए। क्योंकि जिहादियों को पता है अब इनकी सरकार है इसलिए अब इन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी । 



फ्री के चक्कर में हिन्दुओं ने जिहादियों की सरकार को जिता दिया। अब आने वाले पूरे 5 वर्षों तक हिन्दूओं के साथ यही सब होने वाला है; पलायन, लव जिहाद, भू जिहाद, धर्मान्तरण, जैसी गंभीर समस्याओं से हिन्दुओं को सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस को जिता कर हिन्दुओं ने अपनी आज़ादी, शांति के अवसर खो दिया। अब भुगतो हिंदुओ। भाजपा की आईटी सेल का ये एजेंडा बहुत ज़्यादा बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है। पर ऐसा नहीं है कि इन आरोपों में तथ्य नहीं हैं। चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायिक या जातिगत तुष्टिकरण करने में कोई राजनैतिक दल पीछे नहीं रहता। भाजपा भी नहीं, और उसी का परिणाम है कि चुनाव जीतने के बाद सत्तारूढ़ दल को अनेक विवादास्पद मामलों में यात ओ अपने आँख और कान बंद करने पड़ते हैं या समझौते करने पड़ते हैं।  जिसका भरपूर प्रचार करके विरोधी दल फ़ायदा उठाते हैं। 



जो लोग अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक आतंकवाद से लड़ने और भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति को बचाने के लिए केवल भाजपा और आरएसएस को ही सक्षम विकल्प मानते हैं उनसे मेरा कोई बहुत मतभेद नहीं रहा है। पर विगत वर्षों के अनुभव ने, अनेक घटनाओं व कारणों से भाजपा व संघ की क्षमता के बारे में संदेह पैदा कर दिये हैं। ये दोनों संगठन आजतक इस बात को परिभाषित नहीं कर पाए कि हिंदू राष्ट्र से इनका आश्रय क्या है? ये कैसा हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं? जिस सनातन संस्कृति का हम सब हिंदू दंभ भरते हैं उसके किसी भी सिद्धांत, शास्त्र, परंपराओं व आस्थाओं से संघ और भाजपा का दूर-दूर तक नाता नहीं है। वैदिक शास्त्रों की उपेक्षा, प्राण प्रतिष्ठित  देव विग्रहों व देवालयों पर बुलडोज़र चलाना, गौ मांस के व्यापार को प्रोत्साहित करना, सनातन धर्म के मूलाधार - चारों शंक्राचार्यों की उपेक्षा करना, वेतन दे कर संन्यासी बनाना, करोड़ों रुपये के चढ़ावे वाले मंदिरों पर अपने ट्रस्ट बना कर क़ब्ज़े करना और पारंपरिक सेवायतों को बेदख़ल करना, सनातन धर्म और तीर्थों की निष्ठा से सेवा करने वालों को अपमानित और हतोत्साहित करना क्या उचित है? इन सब धर्म-विरोधी कृत्यों को करने वाले क्या तालिबानियों से भिन्न आचरण कर रहे हैं? फिर हम जैसे आम सनातन धर्मियों से ये अपेक्षा क्यों की जाती है कि हम किसी दल या संगठन की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपने आँख-कान बंद करके भेड़ों की तरह पीछे-पीछे चलें? 


चालीस बरस पहले जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी तब भाजपा के दो ही बड़े नेता होते थे; अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी। तब आरएसएस को एक त्यागी, समाजसेवी व तपस्वियों का संगठन माना जाता था। बाद में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से जब भाजपा कि पकड़ हिंदू मतदाताओं पर बढ़ी तो नारा दिया गया, ‘पार्टी विद् ए डिफरेंस’ यानी मेरी क़मीज़ बाक़ी दलों की क़मीज़ से ज़्यादा साफ़ है। पिछले दशक में हर वो राजनेता जिसके ख़िलाफ़ भाजपा ने भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगाए, वो सब आज उसके साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं या भाजपा में शामिल हो गये हैं। इसलिए महंगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी, शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण, अपनी कार्यप्रणालियों में पारदर्शिता का अभाव और जनता के प्रति जवाबदेही से बच कर शासन चलाने के कारण सत्तारूढ़ दल को विपक्ष की जो आलोचना झेलनी पड़ती है, उन विषयों को अगर हम न छुएँ तो भी सनातन धर्म को लेकर जो प्रश्न यहाँ उठाए हैं उनका तो उत्तर मिलना चाहिए।     

Monday, May 15, 2023

बचाओ - बचाओ भेड़िया आया !


भारत की सनातन वैदिक संस्कृति अनेक अर्थों में विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है। क्योंकि ये व्यक्ति, पर्यावरण व समाज के बीच संतुलन पर आधारित जीवन मूल्यों की स्थापना करती है। भारत विश्व गुरु था इसके तमाम ऐतिहासिक प्रमाण हैं जिन्हें हज़ारों वर्षों से भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों ने अपने लेखन में उल्लेख किया है। विसंगतियां भी हर समाज में होती हैं। भारत इसका अपवाद नहीं है। यह भी सही है कि अंग्रेज इतिहासकारों और आज़ादी के बाद वामपंथी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी विचारधारा के अनुरूप तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। इसलिए सनातनी मानसिकता के लोगों के मन में ये बात हमेशा से बैठी रही कि उनके इतिहास के साथ न्याय नहीं हुआ। अचानक 2014 से ये दबी भावनाएँ अब मुखर हो गईं हैं।



अपने धर्म, संस्कृति और इतिहास की श्रेष्ठता को बताना और स्थापित करने में कोई बुराई नहीं है। ये किया ही जाना चाहिए। पर ऐसा करते समय उत्साह के अतिरेक में अगर हम तथ्यों से छेड़छाड़ करेंगे, अपने विपक्षियों के ऊपर हमला करते समय उनकी उपलब्धियों को वैसे ही छिपाएँगे जैसे वे करते आए हैं और उन पर झूठे आरोप मढ़ कर या उन्हें बदनाम करने की दृष्टि से उन पर हमला करेंगे, तो हमारी ये क़वायद सफल नहीं होगी। हम उपहास के पात्र बनेंगे। हमारे दावों की पुष्टि न हो पाने पर हम झूठे सिद्ध हो जाएँगे और फिर हमारी सही बात भी ग़लत कही जाएगी। आज के दौर में सूचना तकनीकी का इतना विस्तार हो गया है कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति किसी भी दावे की वैधता को क्षणों में चुनौती दे सकता है, अगर वो दावा सत्य नहीं है। 


ट्विटर पर पोस्टों को खंगालते समय मेरी निगाह ‘सनातनी पूर्णिमा’ की इस पोस्ट पर अटक गई, जिसमें लिखा था, वियतनाम विश्व का एक छोटा सा देश है जिसने अमेरिका जैसे बड़े बलशाली देश को झुका दिया। लगभग बीस वर्षों तक चले युद्ध में अमेरिका पराजित हुआ। अमेरिका पर विजय के बाद वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष से एक पत्रकार ने एक सवाल पूछा... आप युद्ध कैसे जीते या अमेरिका को कैसे झुका दिया? उत्तर सुनकर आप हैरान रह जायेंगे और आपका सीना भी गर्व से भर जायेगा। उत्तर था, सभी देशों में सबसे शक्ति शाली देश अमेरिका को हराने के लिए मैंने एक महान व श्रेष्ठ भारतीय राजा का चरित्र पढ़ा और उस जीवनी से मिली प्रेरणा व युद्धनीति का प्रयोग कर हमने सरलता से विजय प्राप्त की। आगे पत्रकार ने पूछा, कौन थे वो महान राजा? वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष ने खड़े होकर जवाब दिया, वो थे भारत के राजस्थान में मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप सिंह (ये सिंह कबसे जुड़ गया?)। महाराणा प्रताप का नाम लेते समय उनकी आँखों में एक वीरता भरी चमक थी, आगे उन्होंने कहा, अगर ऐसे राजा ने हमारे देश में जन्म लिया होता तो हमने सारे विश्व पर राज किया होता। कुछ वर्षों के बाद उस राष्ट्राध्यक्ष की मृत्यु हुई तो जानिए उसने अपनी समाधि पर क्या लिखवाया, यह महाराणा प्रताप के एक शिष्य की समाधि है। कालांतर में वियतनाम के विदेशमंत्री भारत के दौरे पर आए थे। पूर्व नियोजित कार्य क्रमानुसार उन्हें पहले लाल किला व बाद में गांधीजी की समाधि दिखलाई गई। ये सब दिखलाते हुए उन्होंने पूछा मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप की समाधि कहाँ है? तब भारत सरकार के अधिकारी चकित रह गए, और उन्होंने वहाँ उदयपुर का उल्लेख किया। वियतनाम के विदेशमंत्री उदयपुर गये, वहाँ उन्होंने महाराणा प्रताप की समाधि के दर्शन किये। समाधि के दर्शन करने के बाद उन्होंने समाधि के पास की मिट्टी उठाई और उसे अपने बैग में भर लिया। इस पर पत्रकार ने मिट्टी रखने का कारण पूछा। उन विदेशमंत्री महोदय ने कहा ये मिट्टी शूरवीरों की है इस मिट्टी में एक महान् राजा ने जन्म लिया ये मिट्टी मैं अपने देश की मिट्टी में मिला दूंगा ताकि मेरे देश में भी ऐसे ही वीर पैदा हों। मेरा यह राजा केवल भारत का गर्व न होकर सम्पूर्ण विश्व का गर्व होना चाहिए। 



इस पोस्ट को पढ़ कर उत्साही लोगों ने बढ़-चढ़ कर हर्ष और गर्व अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया। उत्सुकतावश मैंने भी गूगल पर जा कर जब खोज की तो पता चला कि जो सूचना दी गयी है उसमें वियतनाम के ऐसे किसी राष्ट्रपति का ज़िक्र नहीं है जो महाराणा प्रताप से प्रेरित रहा हो या उनका विदेश मंत्री उदयपुर गया हो। तब मैंने इस दावे के प्रमाण की माँग करते हुए अपनी प्रतिक्रिया लिखी। कुछ और खोज करने पर पता चला कि पिछले वर्ष ऐसा ही दावा छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में भी किया गया था। उसमें भी प्रमाण माँगने पर दावा करने वाला प्रमाण नहीं दे पाया। वियतनाम घूम कर आए एक व्यक्ति ने तो साफ़ लिखा कि वियतनाम में ऐसी किसी घटना की कोई जानकारी नहीं है। एक और व्यक्ति ने लिखा की वियतनाम के संघर्ष के नेता और लंबे समय तक वहाँ के प्रधान मंत्री रहे हो चि मिन्ह धुर वामपंथी थे और उनके किसी लेख या भाषण में महाराणा प्रताप या शिवाजी का कोई उल्लेख नहीं है। इससे तो यही सिद्ध होता है कि ये ‘ह्वाट्सऐप विश्वविद्यालय’ की ही खोज है जिसका तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है।



वियतनाम का तो ये एक उदाहरण है। अपने राजनैतिक विरोधियों की छवि नष्ट करने के लिए और उनकी उपलब्धियों को नकारने के लिए ऐसी पोस्ट सारा दिन दर्जनों की तादाद में आती रहती हैं। बिना उनकी सत्यता परखे समाज का एक हिस्सा उन्हें फॉरवर्ड करने में जुट जाता है। जिससे कुछ समय बाद झूठ सच लगने लगता है। पर जब कोई ऐसे मूर्खतापूर्ण व द्वेषपूर्ण दावों की पड़ताल करता है और उन्हें झूठा सिद्ध कर देता है तो सामने की तरफ़ सन्नाटा छ जाता है। न उत्तर दिया जाता है और न ही अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी जाती है। ये सिलसिला यूँ ही चलता जा रहा है। समझ में नहीं आता कि सैंकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके आईटी सेल चलाने वाले राजनैतिक संगठन या दल ऐसा झूठ फैला कर क्या हासिल करना चाहते हैं? इससे उनकी विश्वसनीयता तेज़ी से घटती जा रही है। वो दिन दूर नहीं जब ऐसा भ्रम फैलाने वालों की भी वही गति होगी जो उस भेड़ चराने वाले लड़के की हुई थी जो बार-बार झूठा शोर मचाता था, बचाओ-बचाओ भेड़िया आया

Monday, May 8, 2023

विवादों में न घिरें सरकारी जाँच एजेंसियाँ !


बीते शुक्रवार को किसी समय देश की सबसे बड़ी रही निजी एयरलाइन के यहाँ सीबीआई के छापे पड़े। जेट एयरवेज़ पर 538 करोड़ रुपये के बैंक घोटाले के आरोप के चलते ये छापे पड़े। पिछले कई महीनों से जेट एयरवेज़ के नए स्वामी जालान कार्लॉक समूह को लेकर काफ़ी विवाद भी चल रहा है। अब इन छापों से जेट एयरवेज़ के गड़े मुर्दे फिर से बाहर आने लग गए हैं। इसके साथ ही लंबित पड़ी शिकायतों पर बहुत देरी से कार्यवाही करने वाली जाँच करने वाली एजेंसियाँ भी सवालों के घेरे में आएँगी।


ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी एयरलाइन जेट एयरवेज़ ने केवल बैंक घोटाला ही किया है। इस समूह ने देश के नागर विमानन क्षेत्र में अपनी दबंगई के चलते कई नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई और नागर विमानन मंत्रालय व अन्य मंत्रालयों ने आँखें बंद रखीं। 2014 से हमने जेट एयरवेज़ की तमाम गड़बड़ियों की सप्रमाण लिखित शिकायतें नागर विमानन मंत्रालय, डीजीसीए, गृह मंत्रालय, प्रधान मंत्री कार्यालय, सीवीसी और सीबीआई को दी। परंतु जेट एयरवेज़ के मालिक नरेश गोयल की ताक़त के चलते इन शिकायतों पर कछुए की चाल पर ही कार्यवाही हुई। आख़िरकार जब ये कंपनी दिवालिया हुई तो सभी शिकायतें भी ठंडे बस्ते में चली गयीं। परंतु आज जब सीबीआई ने बैंक घोटाले की शिकायत पर कार्यवाही शुरू की तो सवाल उठा कि केवल बैंक घोटाले पर ही जाँच क्यों? जेट एयरवेज़ पर नागर विमानन क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना। सोने व विदेशी मुद्रा की तस्करी करना। अपनी कंपनी के खातों में गड़बड़ी करना। कंपनी की सुरक्षा जाँच को लेकर गड़बड़ी करना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशी नागरिक को अपनी कंपनी में उच्च पद पर रखना। बिना ज़रूरी इजाज़त के ग़ैर क़ानूनी ढंग से विमान को विदेश में उतारना। ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से विदेशों में बेनामी सम्पत्ति अर्जित करना। अप्रवासन क़ानून तोड़ कर ‘कबूतर बाज़ी’ करना। पायलटों को तय समय सीमा से अधिक उड़ान भरवा कर यात्रियों की जान से खेलना। इन मामलों पर जाँच कब होगी?          



प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री श्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 9 वर्षों से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकारों को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी जी दमख़म के साथ कहते हैं न खाऊँगा न खाने दूँगा। उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच करने वाली ये एजेंसियाँ सरकार के दख़ल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो विपक्ष द्वारा मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा।       


जहां तक जाँच एजेंसियों की बात है दिसम्बर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फ़ैसले के तहत सरकार की श्रेष्ठ जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष व स्वायत्त बनाने की मंशा से काफ़ी बदलाव लाने वाले निर्देश दिये गये थे। इसी फ़ैसले की तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जाँच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्ता को सुनिश्चित करना। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिज़बुल मुजाहिद्दीन की हवाला के ज़रिए हो रही दुबई और लंदन से फ़ंडिंग की जाँच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उसपर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में क़ानून बने।


परंतु पिछले कुछ समय से ऐसा देखा गया है कि ये जाँच एजेंसियाँ सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले की भावना की उपेक्षा कर कुछ चुनिंदा लोगों के ख़िलाफ़ ही कार्यवाही कर रही है। इतना ही नहीं इन एजेंसियों के निदेशकों की सेवा विस्तार देने के ताज़ा क़ानून ने तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अनदेखी कर डाली। इस नए क़ानून से यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। क्या शायद इसीलिए यह महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन रही हैं? 



केंद्र में जो भी सरकार रही हो उस पर इन जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतीद्वंदियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रथिष्ठानों के ख़िलाफ़ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। 


पर यहाँ सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फ़ैसला इन जाँच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था। जिससे वे बिना किसी दबाव या दख़ल के अपना काम कर सके। क्योंकि सीबीआई को सर्वोच्च अदालत ने भी ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था। इसी फ़ैसले के तहत इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया था। यदि ये एजेंसियाँ अपना काम सही से नहीं कर रहीं तो सीवीसी के पास ऐसा अधिकार है कि वो अपनी मासिक रिपोर्ट में जाँच एजेंसियों की ख़ामियों का उल्लेख करे। 


हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 9 वर्षों में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्ता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। ये बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लम्बी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उसकी निष्पक्ष जाँच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं बल्कि शुभचिंतक माना जाए। क्योंकि संत कह गए हैं कि, ‘निंदक नियरे  राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’  

 

मामला कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर लगे आरोपों का हो, केजरीवाल सरकार के शराब घोटाले का हो, नीरव मोदी विजय माल्या जैसे भगोड़ों का हो या किसी भी अन्य घोटाले का हो, जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत महत्वपूर्ण है। जानता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्त और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा।

Monday, May 1, 2023

खिलाड़ी ही हों खेल महासंघों के अध्यक्ष

 


जब भी कभी किसी खेल महासंघ में कोई विवाद उठता है तो उसके पीछे ज़्यादातर मामलों में दोषी ग़ैर खिलाड़ी वर्ग से आए हुए व्यक्ति ही होते हैं। खेल और खिलाड़ियों के प्रति असंवेदनशील व्यक्ति अक्सर ऐसी गलती कर बैठते हैं जिसका ख़ामियाज़ा उस खेल और उस खेल से जुड़े खिलाड़ियों को उठाना पड़ता है। यदि ऐसे खेल महासंघों के महत्वपूर्ण पदों पर राजनेताओं या ग़ैर खिलाड़ी वर्ग के व्यक्तियों को बिठाया जाएगा तो उनकी संवेदनाएँ खेल और खिलाड़ियों के प्रति नहीं बल्कि उस पद से होने वाली कमाई व शोहरत के प्रति ही होगी। ऐसा दोहरा चरित्र निभाने वाले व्यक्ति जब बेनक़ाब होते हैं तो न सिर्फ़ खेल की बदनामी होती है बल्कि देश का नाम भी ख़राब होता है।

पिछले कई दिनों से देश का नाम रोशन करने वाली देश कि बेटियाँ दिल्ली के जंतर-मन्तर पर धरना दे रही हैं। इन्हें आंशिक सफलता तब मिली जब देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली पुलिस को आड़े हाथों लेते हुए एफ़आइआर दर्ज करने के निर्देश दिए। देश के लिए मेडल जीतने वाली इन महिला पहलवानों को हर किसी का समर्थन मिल रहा है सिवाय देश के सत्तारूढ़ दल के। कारण साफ़ है, इन महिला पहलवानों ने जिसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है वो भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश से भाजपा के बाहुबली नेता ब्रजभूषण शरण सिंह हैं। इन पर कुछ महिला पहलवानों के साथ यौन शोषण का आरोप है। महिला पहलवानों की माँग है कि केवल एफ़आइआर ही नहीं ब्रजभूषण शरण सिंह की गिरफ़्तारी भी हो। इसके साथ ही यह भी कहा है कि जब तक इस मामले की जाँच पूरी नहीं हो जाती तब तक उनको कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद से हटा दिया जाए और नैतिकता के आधार पर वे संसद से भी इस्तीफ़ा दें। 


कैसी विडंबना है, जब भी देश का नाम रोशन करने वाले ये खिलाड़ी कोई पदक जीत कर देश लौटते हैं तो देश का शीर्ष नेतृत्व इन्हें पलकों पर बिठा कर इनका ज़ोरदार स्वागत करता है। इन्हें सरकारी पदों पर नौकरी भी दी जाती है। इनके सम्मान में होने वाले स्वागत समारोह की तस्वीरों को मीडिया में खूब फैलाया जाता है। परंतु जैसे ही इनके आत्मसम्मान की बात उठती है तो सरकार, चाहे किसी भी दल की क्यों न हो, इनसे मुँह फेर लेती है और इन्हें अपनी लड़ाई लड़ने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। ऐसा ही कुछ देश की इन बहादुर बेटियों के साथ भी हो रहा है। 

जब जनवरी में इन महिला पहलवानों ने ब्रजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था तो सरकार ने इन्हें आश्वासन दिया था कि मामले की जाँच होगी और दोषी को उचित सज़ा दी जाएगी। परंतु जब कई महीनों बाद भी कुछ नहीं हुआ तब इन पहलवानों ने दोबारा मोर्चा खोला। इस बार देश के किसान और अन्य सामाजिक व राजनैतिक दल भी इनके समर्थन में उतर आए। मामले में नया मोड़ तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए दिल्ली पुलिस को लताड़ा और एफ़आइआर न लिखने का कारण पूछा। सुप्रीम कोर्ट के दबाव में आकर दिल्ली पुलिस ने एफ़आइआर लिखने का आश्वासन तो दिया पर धरना देने वाले पहलवानों ने आशंका जताई कि पुलिस हल्की धाराओं में एफ़आइआर दर्ज करेगी और सारी कोशिश मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की होगी। 

बात-बात में हम अपनी तुलना चीन से करते हैं। जबकि अंतर्राष्ट्रीय खेलों में मेडल जीतने के मामले में चीन हमसे कहीं आगे है। उधर अमरीका जिसकी आबादी भारत के मुक़ाबले पाँचवाँ हिस्सा है, मेडल जीतने में भारत से बहुत ज़्यादा आगे है। कारण स्पष्ट है कि जहां दूसरे देशों में खिलाड़ियों के ख़ान-पान और प्रशिक्षण पर दिल खोल कर खर्च किया जाता है वहीं भारत में इसका उल्टा होता है। अरबों रुपया जो खेलों के नाम पर आवंटित होता है उसका बहुत थोड़ा हिस्सा ही खिलाड़ियों के हिस्से आता है। ये पैसा या तो भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है और या खेल संघों के नियंत्रक बने हुए राजनेताओं और दूसरे सदस्यों के पाँच सितारा ऐशो-आराम पर उड़ाया जाता है। पाठकों को याद होगा कि कुछ दिनों पहले समाचार आया था कि राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को दिल्ली नगर निगम के शौचालय में खाना परोसा जा रहा था। 


अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने वाले खिलाड़ी बहुत छोटी उम्र से ही अपनी तैयारी शुरू कर देते हैं। इनमें से ज़्यादातर देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसे परिवारों से आते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत नहीं होती। फिर भी वे परिवार अपना पेट काट कर इन बच्चों को अच्छी खुराक, जैसे घी, दूध, बादाम आदि खिलाकर और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध प्रशिक्षण दिलवाकर प्रोत्साहित करते हैं। फिर भी इन खिलाड़ियों को अक्सर चयनकर्ताओं के पक्षपातपूर्ण रवैये और अनैतिक आचरण का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो इनसे रिश्वत भी माँगी जाती है। ऐसी तमाम बाधाओं को झेलते हुए भी भारत के ये बेटे-बेटी हिम्मत नहीं हारते। पूरी लगन से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। इनकी परेशानियों का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने के बाद भी इन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए सड़कों पर संघर्ष करना पड़ रहा है। जब अंतरराष्ट्रीय पदक विजेताओं के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हो रहा है तो बाक़ी के हज़ारों खिलाड़ियों के साथ क्या होता होगा ये सोच कर भी रूह काँप जाती है। 

जब कभी ऐसे विवाद सामने आते हैं तो सारे देश की सहानुभूति खिलाड़ियों के साथ होती है। हो भी क्यों न ये खिलाड़ी ही तो अंतर्राष्ट्रीय खेलों में भारत का परचम लहराते हैं और हर भारतीय का मस्तक ऊँचा करते हैं। भारत जैसे आर्थिक रूप से प्रगतिशील देश ही नहीं, पश्चिम के विकसित देशों में भी, उनके खेल प्रेमी नागरिकों की संख्या लाखों करोड़ों में होती है। स्पेन में फुटबॉल हो, इंग्लैंड में क्रिकेट हो या अमरीका में बेसबॉल हो या अन्य खेल हों, स्टेडियम दर्शकों से खचाखच भरे होते हैं और वहाँ का माहौल लगातार उत्तेजक बना रहता है। खेल में हार-जीत के बाद प्रशंसकों के बीच प्रायः हिंसा भी भड़क उठती है। कभी-कभी तो ये हिंसा बेक़ाबू भी हो जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि हर खिलाड़ी के पीछे उसके लाखों करोड़ों चाहने वाले होते हैं। आम मान्यता है कि लोकतंत्र में राजनेता हर उस मौक़े का फ़ायदा उठाते हैं जहां भीड़ जमा होती हो। खिलाड़ियों की जीत पर तो फ़ोटो खिंचवाने और स्वागत समारोह करवाने में हर स्तर के राजनेता बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं फिर ये कैसी विडंबना है कि उन्हीं खिलाड़ियों को आज अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए धरने प्रदर्शन करने पड़ रहे हैं।