रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने बालासोर के बेहद खौफ़नाक रेल हादसे के एक दिन पहले टीवी के जरिये जनता को बताया था कि मोदी सरकार ने भारतीय रेल का कायाकल्प कर दिया है। उन्होंने यह भी दावा किया कि ट्रेन दुर्घटनाओं को टालने के लिए मोदी सरकार ने विश्व की सबसे आधुनिक सुरक्षा प्रणाली ‘कवच’ को लागू कर दिया है। हकीकत यह है कि इस तकनीक को लागू करने का फ़ैसला मनमोहन सिंह की सरकार ने 2012 में ले लिया था। तब इसका नाम ‘ट्रेफिक कोलिजन अवोइडेंस सिस्टम’ था। पुरानी योजनाओं के नाम बदलकर उन्हें अपनी नई योजना बताकर लागू करने में माहिर भाजपा सरकार ने 2022 में उसी योजना को ‘कवच’ के नाम से लागू किया। प्रश्न है कि पिछले 9 वर्ष से केंद्र सरकार इस सुरक्षा प्रणाली पर कुंडली मारे क्यों बैठी थी ?
‘कवच’ वह तकनीक है जिसे लागू करने के बाद पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी किसी दुर्घटना के अंदेशे से 400 मीटर पहले ही अपने आप रुक जाती है। शुरू में इसे दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा के रूट पर लागू किया गया और दावा किया गया कि मोदी सरकार के ‘मिशन रफ़्तार’ के तहत 160 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से दौड़ने वाली रेलगाड़ी अपने आप रुक जाएगी। उल्लेखनीय है कि इस तकनीक का परिक्षण करने के लिए रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने अपनी जान को जोखिम में डाला और पिछले साल मार्च में सिकंदराबाद में इंजन ड्राईवर के साथ बैठे और इस तकनीक का सफल परीक्षण किया। जिसमें आमने-सामने से आती दो रेलगाड़ियों पर इसे परखा गया था। रेल मंत्री ने बालासोर के दुखद हादसे से कुछ घंटे पहले ही दिल्ली में रेल मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को संबोधित करते हुए ‘कवच’ के परीक्षण का विडियो भी दिखाया। उन्होंने रेल अधिकारियों से सभी प्रमुख रेल गाड़ियों की गति को 160 किलोमीटर तक बढ़ाने की अपील की। जिससे प्रधान मंत्री मोदी का ‘मिशन रफ़्तार’ गति पकड़ सके।
पर अनहोनी को कौन टाल सकता है? बालासोर में जो हादसा हुआ उसमें एक नही, तीन-तीन ट्रेनें आपस में भिड़ीं। ऐसा हादसा दुनिया की रेल दुर्घटनाओं में होने वाले हादसों में शायद पहले कभी नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि इस रूट पर ‘कवच’ को अभी लागू नही किया गया था। इस हादसे में सैकड़ों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए और हजार से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए। राहत और बचाव कार्य करने वाले लोग दुर्घटना स्थल को देखकर दहल गए। क्योंकि उनके सामने चारों तरफ लाशों का अम्बार लगा था। रेलगाड़ी की कई बोगियां तो पूरी तरह पलट गईं, जिनके पहिये ऊपर और छत जमीन पर आ गई थी।
काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। कहते हैं जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु की घड़ी भी पूर्व निर्धारित होती है। इसलिए जिन परिवारों ने अपनों को खो दिया है उनके प्रति पूरे देश की सहानुभूति है। सरकार से उम्मीद है कि वह जो भी कर सके वो सब इन परिवारों के लिए करे। मगर यहाँ एक गंभीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हम रेल यात्रा के मामले में अपनी क्षमता से अधिक हासिल करने का प्रयास तो नही कर रहे? 11 करोड़ लोग भारतीय रेल में सफ़र करते हैं। मालगाड़ी की जगह यात्री सेवाओं पर कहीं ज्यादा खर्च आता है। क्योंकि यात्रियों की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा होती हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि संपन्न वर्ग अब रेल यात्रा की जगह हवाई यात्रा को प्राथमिकता देता है। जबकि आम आदमी, विशेषकर मजदूर वर्ग के लिए रेल यात्रा ही एक मात्र विकल्प है। काम की तलाश में मजदूर देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में आते-जाते रहते हैं। इन्हें 5 सितारा चमक-धमक की बजाय पेय-जल, शौचालय और वेटिंग हाल जैसी बुनियादी सुविधाओं से ही संतोष हो जाता है। ऐसे में सरकार का रेलवे स्टेशनों और रेलगाड़ियों को 5 सितारा संस्कृति से सुसज्जित करना बड़ी प्राथमिकता नहीं होना चाहिए। अभी तो देश को अपने सीमित संसाधनों को आम जनता के स्वास्थ्य व शिक्षा पर खर्च करने की ज़रूरत है।
मोदी जी हमेशा बड़े सपने देखते हैं। वे ‘मिशन रफ़्तार’ को सभी प्रमुख रेल गाड़ियों पर लागू करना चाहते हैं। सत्ता में आते ही उन्होंने ‘बुलट ट्रेन’ का भी सपना दिखाया था। जो अभी धरातल पर नही उतर पाया है। हमारे देश की जमीनी हकीकत यह है कि हम जापान और चीन की तरह न तो अपने कार्य के प्रति ईमानदारी से समर्पित हैं और न ही अनुशासित हैं। परिणामत: सरकार की तमाम महत्वाकांक्षी योजनाएँ लागू होने से पहले ही विफल हो जाती हैं। यहाँ अगर उज्जैन के महाकाल का उदाहरण लें तो अनुचित न होगा। छ: महीने पहले 856 करोड़ रूपये से हुआ मंदिर का सौंदर्यीकरण एक ही आंधी में धराशायी हो गया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाओं को जल्दबाज़ी में, बिना गुणवत्ता का ध्यान रखे, लागू किया गया और वे जल्दी ही अपनी अकुशलता का सबूत देने लगीं। इसलिए रेल विभाग को नई तकनीकी और 5 सितारा संस्कृति अपनाने में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। ऐसा न हो ‘आधी छोड़ सारी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे।’
अंतिम प्रश्न है कि क्या रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव को 1956 में तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अनुसरण करते हुए, बालासोर की दुखद दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए व विपक्ष की मांग का सम्मान करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए? मैं इसका समर्थक नहीं हूँ। क्योंकि आज की राजनीति में न तो राजनीतिज्ञों के नैतिक मूल्यों का शास्त्री जी के समय जैसा उच्च नैतिक स्तर बचा है और न ही ऐसे इस्तीफों से किसी मंत्रालय की दशा सुधरती है। बजाय इस्तीफा मांगने के मैं रेल मंत्री को सुझाव देना चाहता हूँ कि वे अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं, उपलब्ध संसाधनों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के करोड़ों रेल यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखकर निर्णय लें। जो मौजूदा ढांचा रेल मंत्रालय का है उसमें यथा संभव सुधार की कोशिश करें और अपने विभाग से भ्रष्टाचार को ख़त्म करें और कार्य कुशलता को बढ़ाएं। वही बालासोर के इस हादसे में मारे गए रेल यात्रियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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