Monday, March 25, 2024

आम आदमी की पहुंच हो न्यायपालिका तक: डीवाई चंद्रचूड़


हाल ही में देश की शीर्ष अदालत द्वारा दिये गये कई अहम फ़ैसलों से देश में न्यायिक सक्रियता अचानक बढ़ने लग गई है। इसके पीछे देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ डी वाई चंद्रचूड़ की अहम भूमिका को देखा जा रहा है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ का एक राष्ट्रीय टीवी चैनल को दिया गया इंटरव्यू चर्चा में आया है। जब से जस्टिस चंद्रचूड़ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सम्भाला है तभी से देश की शीर्ष अदालत में कई परिवर्तन देखने को मिले हैं। ऐसे कई क्रांतिकारी कदम उठाए गए हैं जो वकीलों, याचिकाकर्ताओं, पत्रकारों और आम जनता के लिए फ़ायदेमंद साबित हुए हैं।
 



देश भर के नागरिकों को संदेश देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, सुप्रीम कोर्ट हमेशा भारत के नागरिकों के लिए मौजूद है। चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी सामाजिक स्थिति के हों, किसी भी जाति अथवा लिंग के हों या फिर किसी भी सरकार के हों। देश की सर्वोच्च अदालत के लिए कोई भी मामला छोटा नहीं है। इस संदेश से उन्होंने देश भर के आम नागरिकों को यह विश्वास दिलाया है कि न्यायपालिका की दृष्टि में कोई भी मामला छोटा नहीं है। जस्टिस चंद्रचूड़ आगे कहते हैं कि, कभी-कभी मुझे आधी रात को ई-मेल मिलते हैं। एक बार एक महिला को मेडिकल अबॉर्शन की जरूरत थी। मेरे स्टाफ ने मुझसे देर रात संपर्क किया। हमने अगले दिन एक बेंच का गठन किया। किसी का घर गिराया जा रहा हो, किसी को उनके घर से बाहर किया जा रहा हो, हमने तुरंत मामले सुने। इससे यह बात साफ़ है कि देश की सर्वोच्च अदालत देश के हर नागरिक को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है।



सूचना और प्रौद्योगिकी का हवाला देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी संदेश दिया कि देश की सर्वोच्च अदालत अब केवल राजधानी दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट के ज़रिये अब देश के कोने-कोने में हर कोई अपने फ़ोन से ही सुप्रीम कोर्ट से जुड़ सकता है। आज हर वो नागरिक चाहे वो याचिकाकर्ता न भी हो देश की शीर्ष अदालत में हो रही कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख सकता है। इस कदम से पारदर्शिता बढ़ी है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, अदालतों पर जनता का पैसा खर्च होता है, इसलिए उसे जानने का हक है। पारदर्शिता से जनता का भरोसा हमारे काम पर और बढ़ेगा। 



टेक्नोलॉजी पर बात करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, टेक्नोलॉजी के जरिए आम लोगों तक इंसाफ पहुंचाना मेरा मिशन है। टेक्नोलॉजी के जमाने में हम सबको साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। हर किसी के पास महँगा स्मार्ट फ़ोन या लैपटॉप नहीं है। केवल इस कारण से कोई पीछे ना छूटे, इसके लिए हमने देश भर की अदालतों में ‘18000 ई-सेवा केंद्र’ बनाए हैं। इन सेवा केंद्रों का मकसद सारी ई-सुविधाएं एक जगह पर मुहैया कराना है। यह एक अच्छी पहल है जो स्वागत योग्य है। ज़रा सोचिए पहले के जमाने में जब किसी को किसी अहम केस की जानकारी या उससे संबंधित दस्तावेज चाहिए होते थे तो उसे दिल्ली के किसी वकील से संपर्क साध कर कोर्ट की रजिस्ट्री से उसे निकलवाना पड़ता था, जिसमें काफ़ी समय ख़राब होता था। परंतु आधुनिक टेक्नोलॉजी के ज़माने में अब यह काम मिनटों हो जाता है। 



टेक्नोलॉजी के अन्य फ़ायदे बताते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, 29 फ़रवरी 2024 तक वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिये देश भर की अदालतों में लगभग 3.09 करोड़ केस सुने जा चुके हैं। इतना ही नहीं देश भर के क़रीब 21.6 करोड़ केसों का सारा डेटा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसके साथ ही क़रीब 25 करोड़ फ़ैसले भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यह देश की न्यायपालिका के लिए उठाया गया एक सराहनीय कदम है।


महिला सशक्तिकरण को लेकर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, फ़रवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट में 12 महिला वकीलों को वरिष्ठ वकील की उपाधि दी गई। अगर आज़ादी के बाद से 2024 की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट में केवल 13 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता थीं। यह एक बड़ी उपलब्धि है। इतना ही नहीं आज सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही महिला रजिस्ट्रार देश के कोने-कोने से आई हुई हैं। ये वो न्यायिक अधिकारी हैं जो ज़िला अदालत की वरिष्ठ न्यायाधीश होती हैं। वे अपने अनुभव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के कई जजों की सहायता कर रहीं हैं। इनके अनुभव पर ही सुप्रीम कोर्ट को देश भर की अदालतों के लिए योजनाएँ बनाने में मदद मिलती है जो न्यायिक प्रक्रिया को जनता के लिए लाभकारी बनाती है। इसके साथ ही हम इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि महिलाओं को कोर्ट में काम करते समय एक सुरक्षित व सम्मानित वातावरण भी मिले।


इस साक्षात्कार का सबसे रोचक पक्ष है जस्टिस चंद्रचूड़ की दिनचर्या का खुलासा। वे गत 25 वर्षों से रोज़ सुबह 3.30 बजे उठते हैं। फिर योग, ध्यान, अध्ययन और चिंतन करते हैं। वे दूध से बने पदार्थ नहीं खाते बल्कि फल सब्ज़ियों पर आधारित खुराक लेते हैं। हर सोमवार को व्रत रखते हैं। इस दिन साबूदाना की खिचड़ी या फिर अधिक मात्रा में रामदाना प्रयोग करते हैं। जोकी सबसे सस्ता, हल्का और सुपाच्य खाद्य है। रोचक बात ये है कि उनकी पत्नी, जिन्हें वे अपना सबसे अच्छा मित्र मानते हैं, इस दिनचर्या में उनका पूरा साथ निभाती हैं। आज के दौर में जब प्रदूषण व मिलावट के चलते हर आम आदमी ज़हर खाने को मजबूर है और तनाव व बीमारियों से ग्रस्त है, जस्टिस चंदचूड़ का जीवन प्रेरणास्पद है।


जस्टिस चंद्रचूड़ को शायद याद होगा कि 1997 से 2000 के बीच सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण पर मैंने कई बड़े खुलासे किए थे। जिनकी चर्चा दुनिया भर के मीडिया में हुई थी। जबकि भारत का मीडिया अदालत की अवमानना क़ानून के डर से ख़ामोश रहा। मुझे अकेले एक ख़तरनाक संघर्ष करना पड़ा। तब मेरी उम्र मात्र 42 वर्ष थी। इसलिए तब मेरा विरोध ‘अदालत की अवमानना क़ानून के दुरूपयोग’ को लेकर भी बहुत प्रखर था। इस पर मैंने एक पुस्तक भी लिखी थी जो अब मैं जस्टिस चंद्रचूड़ को इस आशा से भेजूँगा कि वो इस मामले पर भी सर्वोच्च अदालत की तरफ़ से निचली अदालतों को स्पष्ट निर्देश जारी करें। अदालतों की पारदर्शिता स्थापित करने में ये एक बड़ा कदम होगा। 

Monday, March 11, 2024

अखिलेश यादव क्यों हैं सबसे अलग ?


कुछ वर्ष पहले जब मैंने अपने इसी कॉलम में कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए ममता दीदी के सादगी भरे जीवन पर लेख लिखा था तो एक ख़ास क़िस्म की मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने मुझे ट्विटर (अब एक्स) पर गरियाने का प्रयास किया। पिछले हफ़्ते जब मैंने संदेशख़ाली की घटनाओं के संदर्भ में ममता बनर्जी की कड़ी आलोचना की तो उन लोगों में ये नैतिक साहस नहीं हुआ कि एक्स पर लिखें मान गये कि आप निष्पक्ष पत्रकार हैं। 


इसी तरह 2003 में जब मैंने सोनिया गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए एक लेख लिखा था जिसमें दोनों के गुण दोषों का ज़िक्र था तो कुछ मित्रों ने पूछा तुम किस तरफ़ हो ये समझ में नहीं आता। मैंने पलटकर पूछा कि क्या कोई पत्रकार बिना तरफ़दारी के अपनी समझ से सीधा खड़ा नहीं रह सकता? क्या उसका एक तरफ़ झुकना अनिवार्य है? 



आज के हालात ऐसे ही हो गए हैं जिनमें विरला ही होगा जो बिना झुके खड़ा रहे। प्रायः सब अपने-अपने आकाओं के आँचल की छाँव में फल-फूल रहे हैं। जनता का दुख-दर्द, लिखे जा रहे तर्कों की प्रामाणिकता, पत्रकारिता में निष्पक्षता, सब गयी भाड़ में। अब तो पत्रकारिता का धर्म है कि अपना मुनाफ़ा क्या लिखने या बोलने में है, उसे बिना झिझके एलानिया करो। 


दरअसल हर लेख की विषय वस्तु के अनुसार उसके समर्थन में संदर्भ खोजे जाते हैं। किसी एक लेख में हर व्यक्ति की हर बात का इतिहास लिखना मूर्खता है। ये सब भूमिका इसलिए कि आज मैं राजनैतिक लोगों के बिगड़ते बोलों पर चर्चा करूँगा। तो कुछ सिरफिरे कहेंगे कि मैं फ़लाँ के भ्रष्टाचार पर क्यों नहीं लिख रहा। तो क्या ऐसे लोग बता सकते हैं कि आज देश का कौनसा बड़ा नेता या राजनैतिक दल है जो आकंठ भ्रष्टाचार में नहीं डूबा? या देश में कौनसा नेता है जो अपने दल की आय-व्यय का ब्यौरा देश के सामने खुलकर रखने में हिचकिचाता नहीं है? 


आज का लेख इन नेताओं और इनके कार्यकर्ताओं की भाषा पर केंद्रित है जो दिनोंदिन रसातल में जा रही है। अब तो कुछ सांसद संसद के सत्र तक में हर मर्यादा का खुलकर उल्लंघन करने लगे हैं। उनकी भाषा गली मौहल्ले से भी गयी बीती हो गयी है। सोचिए देश के करोड़ों बच्चों, युवाओं और बाक़ी देशवासियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा होगा? 



ग़नीमत है ऐसे कुछ सांसदों के टिकट इस बार कट रहे हैं। पर इतना काफ़ी नहीं है। हर दल के नेताओं को इस गिरते स्तर को उठाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। अपने कार्यकर्ताओं और ‘ट्रोल आर्मीज़’ को राजनैतिक विमर्श में संयत भाषा का प्रयोग करने के कड़े आदेश देने होंगे। ऐसा नैतिक साहस वही नेता दिखा सकता है जिसकी  ख़ुद की भाषा में संयम हो।  


इस संदर्भ में मैं अखिलेश यादव के आचरण का उल्लेख करना चाहूँगा। मेरी नज़र में अपनी कम आयु के बावजूद जिस तरह का परिपक्व आचरण व विरोधियों के प्रति भी संयत और सम्माजनक भाषा का प्रयोग अखिलेश यादव करते हैं ऐसे उदाहरण देश की राजनीति में कम ही मिलेंगे। 



मेरा अखिलेश यादव से परिचय 2012 में हुआ था जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने। मैं मथुरा के विकास के संदर्भ में उनसे मिलने गया था। ब्रज सजाने के लिए उनका उत्साह और तुरंत सक्रियता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मथुरा की हमारी सांसद हेमा मालिनी तक अखिलेश के इस व्यवहार की मुरीद हैं। 2012 से आज तक मैंने अखिलेश यादव के मुँह से कभी भी किसी के भी प्रति न तो अपमानजनक भाषा सुनीं न उन्हें किसी की निंदा करते हुए सुना। विरोधियों को भी सम्मान देना और उनके सही कामों को तत्परता से करना अखिलेश यादव की एक ऐसी विशेषता है जो उनके क़द को बहुत बड़ा बना देती है। 


कई बार कुंठित या चारण क़िस्म की पत्रकारिता करने वाले टीवी एंकर अखिलेश यादव को उकसाने की बहुत कोशिश करते हैं। पर वो बड़ी शालीनता से उस स्थिति को सम्भाल लेते हैं। क्या आज हर दल और नेता को इससे कुछ सीखना नहीं चाहिए? सोचिए अगर ऐसा हो तो उससे देश का राजनैतिक माहौल कितना ख़ुशगवार बन जाएगा। टीवी शो हों या सोशल मीडिया आज हर जगह गाली-गलौज की भाषा सुन-सुनकर देशवासी पक गये हैं।


अखिलेश यादव जैसे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति को जो लोग बात-बात पर टोंटी चोर कहकर अपमानित करते हैं उन्हें अपने दल के नेताओं के भी आचरण और कारनामों को भूलना नहीं चाहिए। कोई दूध का धुला नहीं है। टोंटी चोर, फेंकू, जुमलेबाज़, चारा चोर, पप्पू - ऐसी सब भाषा अब इस चुनाव की राजनीति में बंद होनी चाहिए। इस भाषा से ऐसा बोलनेवालों का केवल छिछोरापन दिखाए देता है और देश के सामने मौजूद गंभीर विषयों से ध्यान हट जाता है। कौन सा नेता या दल कितने पानी में ये जनता सब जानती है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें वो वोट देती हैं उन्हें वो पाक साफ़ मानती है। उन्हें वोट देने के उसके कई दूसरे कारण भी होते हैं। इसलिए ज़्यादा वोट पाकर चुनाव जीतने वाले को अपने महान होने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। क्योंकि किसी और को पता हो न हो अपनी असलियत उससे तो कभी छिपी नहीं होती। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि सारी सृष्टि प्रकृति के तीन गुणों: सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण से नियंत्रित है। जिसका कोई भी अपवाद नहीं। हाँ कौन सा गुण किसमें अधिक या क़िसमें कम है, ये अंतर ज़रूर रहता है। पर तमोगुण से रहित तो केवल विरक्त संत या भगवान ही हो सकते हैं, हम और आप नहीं। राजनेता तो कभी हो ही नहीं सकते। क्योंकि राजनीति तो है ही काजल की कोठरी उसमें से उजला कौन निकल पाया है?इसलिए कहता हूँ भाषा सुधारो-देश सुधरेगा। क्यों ठीक है न? 

Monday, March 4, 2024

संदेशखाली : नया नहीं है अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण


पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं से यौन उत्पीड़न और जमीन हड़पने के आरोपी तृणमूल कांग्रेस के नेता शेख शाहजहां जिस तरह कोर्ट में पेश होता हुआ दिखाई दिया उससे उसको मिल रहे राजनैतिक संरक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता। इस कारण टीएमसी नेता और पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आरोपों के घेरे में हैं। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ऐसी क्या मजबूरी होती है कि बिना अपवाद की सभी राजनैतिक पार्टियों को कुख्यात अपराधियों को संरक्षण देना पड़ता है? यह बात नई नहीं है कि भोले-भले वोटरों के बीच भय पैदा करने के उद्देश्य से सभी राजनैतिक दल स्थानीय अपराधियों और माफ़ियाओं को संरक्षण देते हैं। लोकतंत्र की दृष्टि से क्या यह सही है?
 



जैसे ही संदेशखाली के आरोपी शेख शाहजहां के मामले ने तूल पकड़ा उसे टीएमसी ने 6 साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया है। पार्टी के इस फैसले का ऐलान करते हुए टीएमसी नेता डेरेक ओ' ब्रायन ने अन्य राजनैतिक दलों पर तंज कसते हुए कहा कि एक पार्टी है, जो सिर्फ बोलती रहती है। तृणमूल जो कहती है, वो करती है। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ये काम पहले क्यों नहीं किया? क्या कोर्ट में पेश होते समय शेख शाहजहां की जो चाल-ढाल थी उससे इस निष्कासन का कोई मतलब रह गया है? पश्चिम बंगाल की पुलिस शेख शाहजहां के साथ अन्य अपराधियों की तरह बरताव क्यों नहीं कर रही थी? क्या शेख शाहजहां का निलंबन केवल एक औपचारिकता है और असल में उसे भी अन्य राजनैतिक अपराधियों की तरह जेल में वो पूरी ‘सेवाएँ’ दी जाएँगी जो हर रसूखदार क़ैदी को मिलती है? 



जहां तक पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी का सवाल है उन पर यह आरोप अक्सर लगते आए हैं कि वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक वर्ग के अपराधियों को संरक्षण देती आई हैं। इतना ही नहीं कई बार तो वे ऐसे अपराधियों को अपनी पार्टी का कार्यकर्ता बताते हुए उसे पुलिस थाने से छुड़ाने भी गईं हैं। यहाँ सवाल उठता है कि जब भी कभी आप अपने घर या कार्यालय में किसी को काम करने के लिए रखने की सोचते हैं तो उसके बारे में पूरी छान-बीन अवश्य करते हैं। ठीक उसी तरह जब कोई राजनैतिक दल अपने वरिष्ठ कार्यकर्ता या नेता को कोई ज़िम्मेदारी देता है तो भी वे इसकी जाँच अवश्य करते होंगे कि वो व्यक्ति पार्टी और पार्टी के नेताओं के लिए कितना कामगार सिद्ध होगा। यदि ममता बनर्जी जैसी अनुभवी नेता से ऐसी भूल लगातार होती आई है तो इसे भूल नहीं कहा जाएगा। 



वहीं अगर दूसरी ओर देखा जाए तो विपक्षी दलों का आरोप है कि भाजपा भी अपराधियों को संरक्षण देने में किसी से पीछे नहीं है। मामला चाहे महिला पहलवानों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले नेता ब्रज भूषण शरण सिंह का हो या किसानों पर गाड़ी चढ़ाने वाले गृह राज्यमंत्री के बेटे का हो या बलात्कार करने वाले कुलदीप सिंह सेंगर का हो। मणिपुर में हुई हिंसा और बलात्कार के दर्जनों घटनाएँ हों। बीजेपी शासित राज्यों में हिंसा, बलात्कार और अन्य अपराधों में लिप्त भाजपा के नेताओं की लिस्ट भी काफ़ी लंबी है। 



चुनाव सुधार पर काम करने वाले संगठन 'एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स' (एडीआर) की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 40% मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 25% हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त हैं। बावजूद इसके उन्हें सांसद या विधायक बनाकर सदन में बिठा दिया जाता है। इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 763 मौजूदा सांसदों में से 306 सांसदों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें से ही 194 सांसदों ने ख़ुद पर गंभीर आपराधिक मामले होने की घोषणा अपने नामांकन प्रपत्र में घोषित की है। 


देश में अपराधियों को मिल रहे राजनैतिक संरक्षण पर आज तक अनेकों रिपोर्टें बनीं और उनमें इस समस्या से निपटने के लिए कई सुझाव भी दिये गये। परंतु अपराधियों, नेताओं और नौकरशाही के इस गठजोड़ के चक्रव्यूह को अभी तक भेदा नहीं जा सका। यदि कोई भी राजनैतिक दल ठान ले कि वो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को अपने दलों में संरक्षण नहीं देगा तो इस समस्या का समाधान अवश्य निकल सकता है। 


जो भी राजनैतिक दल यदि केंद्र या राज्य में सत्ता में हों और यदि उसके समक्ष उसी के दल के किसी सदस्य या नेता के ख़िलाफ़ संगीन आरोप लगते हैं तो उन्हें इस पर उस दल के बड़े नेताओं को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए। देश की अदालतों के हस्तक्षेप का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यदि कोई भी ऐसा दल अपने किसी कार्यकर्ता या नेता के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाएगा तो मतदाताओं की नज़र में उस दल का क़द काफ़ी ऊँचा उठेगा। इसके साथ ही वो दल दूसरे दलों पर अपराधियों को संरक्षण देने के मामले में बढ़-चढ़ कर शोर भी मचा सकेगा। 


इसके साथ ही भारतीय पुलिस तंत्र में भी ठोस सुधार किये जाने चाहिए। राष्ट्रीय पुलिस आयोग व वोरा समिति द्वारा दिये गये सुझावों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। ऐसे सुधारों के प्रति हर सरकार का ढुल-मुल रवैया रहा है जो ठीक नहीं है। पुलिस तंत्र को प्रभावी बनाना, उसे हर तरह के राजनीतिक दबाव से मुक्त रखना, नेताओं, अफसरों व पुलिस के गठजोड़ को खत्म करना सरकार की मुख्य प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। हालिया मसले में देखें, तो जहां तक अदालत में पेश करने का मामला है, वह तो समझ में आता है, पर कोई व्यक्ति अगर किसी राजनैतिक दल संरक्षण में है, तो उसके साथ पुलिस का व्यवहार एक मामूली अपराधी की तरह होगा यह कहना मुश्किल है। यदि पुलिस राजनैतिक दबाव से बाहर रहे तो वो बिना किसी डर के राजनैतिक अपराधियों के साथ क़ानून के दायरे में रहकर अपना कर्तव्य निभाएगी।  


देश के तमाम राजनैतिक दल भारत को अपराध मुक्त करने का दावा तो अवश्य करते हैं पर क्या इसे आचरण में लाते हैं? क्या अपने-अपने दलों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना और जनता के सामने अपराध मुक्ति के बड़े-बड़े दावे करना विरोधाभास नहीं हैं? यदि चुनाव आयोग या देश की सर्वोच्च अदालत कुछ कड़े कदम उठाए और राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों पर पूरी तरह रोक लग जाए तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। परंतु ऐसा कब होगा देश के मतदाताओं को इसका इंतज़ार रहेगा। 

Monday, February 26, 2024

स्पेन की बहुमंज़िला इमारत की आग से सबक़

बीते सप्ताह स्पेन के शहर वैलेंसिया से एक आगजनी की खबर सामने आई जिसने दुनिया भर के बहुमंज़िला इमारतों में रहने वालों के बीच सवाल खड़े कर दिये हैं। वहाँ एक 14 मंजिला इमारत में आग लग गई। आग इतनी भयानक थी कि जान बचाने के लिए लोगों ने बिल्डिंग से छलांग तक लगा दी। परंतु जिस तरह इस रिहायशी कॉम्प्लेक्स के 140 मकान कुछ ही मिनटों में धू-धू कर राख हुए उससे इन मकानों में लगे पॉलीयुरेथेन क्लैडिंग को आग की भयावहता में योगदान देने का दोषी पाया जा रहा है। आज आधुनिकता के नाम पर ऐसे कई उत्पाद देखने को मिलते हैं जो देखने में सुंदर ज़रूर होते हैं परंतु क्या वे ऐसी आपदाओं से लड़ने के लिए सक्षम होते हैं?



2009 में स्पेन के शहर वैलेंसिया में बने इस रिहायशी कॉम्प्लेक्स को बनाने वाली कंपनी ने दावा किया था कि इस बिल्डिंग के निर्माण में एक अत्याधुनिक अल्युमीनियम उत्पाद का इस्तेमाल किया गया है जो न सिर्फ़ देखने में अच्छा लगेगा बल्कि मज़बूत भी होगा। वेलेंसिया कॉलेज ऑफ इंडस्ट्रियल एंड टेक्निकल इंजीनियर्स के उपाध्यक्ष, एस्तेर पुचाडेस, जिन्होंने एक बार इमारत का निरीक्षण भी किया था, मीडिया को बताया कि जब पॉलीयुरेथेन क्लैडिंग को गर्म किया जाता है तो यह प्लास्टिक की तरह हो जाती है और इसमें आग लग जाती है। इसके साथ ही बहुमंज़िला इमारत होने के चलते तेज़ हवाओं ने भी आग को भड़काने का काम किया। 


उल्लेखनीय है कि जून 2017 में लंदन के ग्रेनफेल टॉवर में लगी भीषण आग में भी पॉलीयुरेथेन क्लैडिंग लगी थी, जो 70 से अधिक लोगों की मौत का कारण बनी। उसके बाद से दुनिया भर में इसकी ज्वलनशीलता को कम करने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा उपायों के बिना इमारतों में पॉलीयुरेथेन का अब व्यापक रूप से उपयोग नहीं किया जाता। परंतु स्पेन के शहर वैलेंसिया में बने इस रिहायशी कॉम्प्लेक्स में पॉलीयुरेथेन क्लैडिंग का इस्तेमाल इस हिदायत को दिमाग़ में रख कर हुआ था या नहीं यह तो जाँच का विषय है। 



लेकिन इस दर्दनाक हादसे ने दुनिया भर में बहुमंज़िला इमारतों में रहने या काम करने वालों के मन में यह सवाल ज़रूर उठा दिया है कि क्या बहुमंज़िला इमारतों में आगज़नी जैसी आपदाओं से लड़ने के लिए उनकी इमारतें सक्षम हैं? क्या विभिन्न एजेंसियों द्वारा आगज़नी जैसी आपदाओं की नियमित जाँच होती है? क्या इन ऊँची इमारतों में लगे अग्नि शमन यंत्र जैसे कि फायर एक्सटिंगशर और आग बुझाने वाले पानी के पाइप जैसे उपकरणों आदि की गुणवत्ता और कार्य पद्धति की भी नियमित जाँच होती है? क्या समय-समय पर विभिन्न आपदा प्रबंधन एजेंसियाँ आपदा संबंधित ‘मॉक ड्रिल’ करवाती हैं? क्या स्कूलों में बच्चों को आपदा प्रबंधन एजेंसियों द्वारा आपात स्तिथि में संयम बरतने और उस स्थिति से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाता है? यदि इन सवालों को विदेशों की तुलना में भारत पर सवाल उठाएँ तो इनमें से अधिकतर सवालों का उत्तर ‘नहीं’ में ही मिलेगा।



स्पेन के शहर वैलेंसिया में हुए इस भयावह हादसे ने एक बार यह फिर से सिद्ध कर दिया है कि सावधानी हटी - दुर्घटना घटी। वैलेंसिया की इस इमारत को बनाते समय इसके बिल्डर ने ऐसी क्या लापरवाही की जिससे इतना बड़ा हादसा हुआ? इसके साथ ही जिस तरह वहाँ के अग्निशमन दल और अन्य आपदा प्रबंधन एजेंसियों ने बचाव कार्य किए उसके बावजूद कई जानें गयीं। इससे वहाँ की आपदा प्रबंधन पर भी सवाल उठते हैं। वहीं यदि देखा जाए तो यदि ऐसा हादसा भारत में हुआ होता तो मंज़र कुछ और ही होता। 



आज भारत के कई महानगरों और उसके आसपास वाले छोटे शहरों में बहुमंज़िला इमारतों का चलन बढ़ने लगा है। परंतु जिस तरह देश की जनसंख्या बढ़ती जा रही है उसके साथ-साथ आपात स्थितियों से निपटने की समस्या भी बढ़ती जा रही है। मिसाल के तौर पर इन महानगरों और उनसे सटे उपनगरों में बढ़ती ट्रैफ़िक की समस्या। ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से लगने वाले रेढ़ी और फेरी वालों की दुकानें। सड़कों पर ग़लत ढंग से की जाने वाली पार्किंग आदि। यह कुछ ऐसे प्राथमिक किंतु महत्वपूर्ण कारण हैं जो आपात स्थिति में आपदा प्रबंधन में रोढ़ा बनने का काम करते हैं। इन कारणों से जान-माल का नुक़सान बढ़ भी सकता है। एक ओर जब हम विश्वगुरु बनने का ख़्वाब देख रहे हैं वहीं इन बुनियादी समस्याओं पर हम शायद ध्यान नहीं दे रहे। 


एक कहावत है कि ‘जब जागो-तभी सवेरा’, इसलिए हमें ऐसी दुर्घटनाओं के बाद सचेत होने की ज़रूरत है। देश में आपदा प्रबंधन की विभिन्न एजेंसियों को नागरिकों के बीच नियमित रूप से जा कर जागरूकता फैलानी चाहिए। इसके साथ ही सभी नागरिकों को आपात स्थिति में संयम बरतते हुए उससे लड़ने का प्रशिक्षण भी देना चाहिए। इतना ही नहीं देश भर में मीडिया के विभिन्न माध्यमों से सभी को इस बात से अवगत भी कराना चाहिए कि विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर या बहुमंज़िला इमारतों में लगे आपात नियंत्रण यंत्रों का निरीक्षण कैसे किया जाए। यदि किसी भी यंत्र में कोई कमी पाई जाए तो उसकी शिकायत संबंधित एजेंसी या व्यक्ति से तुरंत की जाए। 

कुल मिलाकर देखा जाए तो वैलेंसिया में हुआ हादसा एक दुखद हादसा है। इस हादसे में न सिर्फ़ करोड़ों का माली नुक़सान हुआ बल्कि अमूल्य जानें भी गईं। परंतु क्या हम ऐसे दर्दनाक हादसों से सबक़ लेंगे? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। ऊँची इमारतों या आलीशान शॉपिंग मॉल में जा कर हम काफ़ी प्रसन्न तो होते हैं। परंतु क्या हमने कभी ऐसा सोचा है कि यदि इन स्थानों पर कोई आपात स्थिति पैदा हो जाए तो हम क्या करेंगे? क्या हम उस समय अपने स्मार्ट फ़ोन पर गूगल करेंगे कि आपात स्थिति से कैसे निपटा जाए? या हमें पहले से ही दिये गये प्रशिक्षण (यदि मिला हो तो) को याद कर उस स्थिति से निपटना चाहिए? जवाब आपको ख़ुद ही मिल जाएगा। इसलिए सरकार को आपदा प्रबंधन जागरूकता पर विशेष ध्यान देते हुए एक अभियान चलाने की ज़रूरत है। जिससे न सिर्फ़ जागरूकता फैलेगी बल्कि आपदा प्रबंधन विभागों में रोज़गार भी बढ़ेगा और जान-माल का नुक़सान भी बचेगा। 

Monday, February 19, 2024

लोकतंत्र में जानने का अधिकार

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में मतदाता और नेता के बीच यदि विश्वास ही न हो तो वो रिश्ता ज़्यादा लम्बा नहीं चलता। लोकतंत्र में हर एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने मतदाता के प्रति जवाबदेही के लिए बाध्य होता है। यदि मतदाता को लगे कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है तो वो ठगा सा महसूस करता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का सीधा मतलब ही यह होता है कि जनता की मर्ज़ी से चुने गये सांसद या विधायक उनकी आवाज़ उठाएँगे और उनके ही हक़ में सरकार चलाएँगे। यदि मतदाताओं को ही अंधेरे में रखा जाएगा तो दल चाहे कोई भी हो दोबारा सत्ता में नहीं आ सकता। परंतु पिछले सप्ताह देश की शीर्ष अदालत ने एक ऐसा फ़ैसला सुनाया जिसने देश के करोड़ों मतदाताओं के बीच उम्मीद की किरण जगा दी। 

‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये राजनैतिक दलों को दिये जाने वाले चुनावी चंदे को लेकर देश भर में एक भ्रम सा फैला हुआ था। जिस तरह इन बाँड्स के ज़रिये दिये जाने वाले चुनावी चंदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा रही थी उसे लेकर भी जनता के मन में काफ़ी संदेह था। जिस तरह से विपक्षी नेता सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे थे कि कुछ औद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल को भारी मात्रा में ‘चुनावी चंदा’ दे रहे थे वो असल में चुनावी चंदा नहीं बल्कि सरकार द्वारा अपने हक़ में नीतियाँ बनवाने की रिश्वत है। विपक्ष का ऐसा कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो बड़े औद्योगिक घराने हमेशा से यही करते आए हैं कि वे सरकार से अच्छे संबंध बना कर रखते हैं। वो अलग बात है कि इन बड़े घरानों द्वारा दिये गये राजनैतिक चंदे की पोल कभी न कभी खुल ही जाती थी।  परंतु देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ की जानकारी को साझा न करने के निर्णय को ग़लत ठहराया और ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को रद्द कर दिया। इतना ही नहीं आनेवाले तीन हफ़्तों में चुनाव आयोग को यह निर्देश भी दे डाले कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दिये गये चंदे की पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए। 


विपक्षी दलों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों द्वारा इस फ़ैसले का भरपूर स्वागत किया जा रहा है। यहाँ हम किसी भी एक विशेष राजनैतिक दल की बात नहीं करेंगे। बड़े औद्योगिक घराने हर उस दल को वित्तीय सहयोग देते आए हैं जो कि सरकार बनाने के काबिल होता है। परंतु सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार यदि यह चुनावी चंदा था तो क्या सभी पार्टियों ने इसे चुनाव के लिए ही इस्तेमाल किया? क्या चुनाव आयोग के तय नियमों के अनुसार बड़े राजनैतिक दलों के प्रत्याशी लोक सभा चुनाव में 95 लाख से अधिक राशि खर्च नहीं करते? क्या ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को जारी करते समय काले धन की रोकथाम के किए गए दावे के अनुसार चुनावों में नक़द राशि खर्च नहीं हुई? अब जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुआ है तो वो सभी राजनैतिक दल जिन्हें ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये सहयोग राशि मिली थी, उन्हें इसकी आमदनी और खर्च का हिसाब भी सार्वजनिक करना पड़ेगा।



वहीं दूसरी ओर जिन-जिन औद्योगिक घरानों ने सत्तापक्ष के अलावा विपक्षी दलों को भी चुनावी चंदा दिया है, उन्होंने यही उम्मीद की थी कि उनका नाम गुप्त रखा जाएगा। परंतु शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले के बाद अब यह भी सार्वजनिक हो जाएगा। इसलिए अब इन घरानों को इस बात का डर है कि कहीं उन पर विभिन्न जाँच एजेंसियों द्वारा कोई करवाई तो नहीं की जाएगी। परंतु यहाँ एक तर्क यह भी है कि जिन-जिन औद्योगिक घरानों को किसी भी राजनैतिक दल को सहयोग करना है तो उन्हें डरना नहीं चाहिए। यदि वो किसी भी दल की विचारधारा के समर्थक हैं तो उन्हें उस दल को खुल कर सहयोग देना चाहिए। परंतु जो बड़े औद्योगिक समूह हैं वे यदि विपक्षी पार्टियों को कुछ वित्तीय सहयोग देते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में यह सहयोग राशि सत्तारूढ़ दल को भी देते हैं। इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दी गई सहयोग राशि इन घरानों और राजनैतिक दलों के बीच एक संबंध बनाना है। 



जो भी हो शीर्ष अदालत ने यह बात तो स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है। इस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के अनुसार, अब चूँकि चुनाव आयोग को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का सारा विवरण सार्वजनिक करना है, तो इससे यह बात भी सार्वजनिक हो जाएगी कि किस राजनैतिक दल को किस बड़े औद्योगिक घराने से भारी रक़म मिली है। इसके साथ ही यह बात पता लगाने में देर नहीं लगेगी कि इस बड़ी सहयोग राशि के बदले उस औद्योगिक समूह को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा क्या लाभ पहुँचाया गया है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बड़ा उद्योगपति किसी दल को बड़ी मात्रा में दान दे और फिर केंद्र या राज्य सरकार का मंत्री उसका फ़ोन न उठाए। दान के बदले काम को सरल भाषा में भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है। चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ओर से ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का समर्थन करते हुए सिब्बल का एक सुझाव है कि, क्यों न औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई सहयोग राशि को चुनाव आयोग में जमा कराया जाए और आयोग उस राशि को हर दल की संसद या विधान सभा में भागीदारी के अनुपात में बाँट दे। ऐसा करने से किसी एक दल को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का बड़ा हिस्सा नहीं मिल पाएगा। 

कुल मिलाकर ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक अच्छी पहल माना जा रहा है। इस आदेश से चुनावों में मिलने वाली सहयोग राशि पर पारदर्शिता दिखाई देगी। नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार के तहत चुनावी दान से संबंधित सभी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा। 2024 के चुनावों से ठीक पहले ऐसे फ़ैसले से उम्मीद की जा सकती है कि इन जानकारियों सार्वजनिक होने पर मतदाता को सही दल के प्रत्याशी को चुनने में मदद मिलेगी। यह फ़ैसला देर से ही आया परंतु दुरुस्त आया और लोकतंत्र को जीवंत रखने में काफ़ी मददगार साबित होगा।         

Monday, February 12, 2024

मंदिर-मस्जिद का झगड़ा कब तक चलेगा?


अयोध्या में भगवान श्री राम की भव्य प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब हिदुत्व की शक्तियों का ध्यान काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि मस्जिद पर केंद्रित हो गया है। विपक्षी दल इस बात से चिंतित हैं कि धर्म के नाम पर भाजपा हिंदू मतदाताओं के ऊपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है। इन दो धर्मस्थलों पर से मस्जिद हटाने की ज़िद्द का भाजपा को पहले की तरह चुनावों में लाभ मिलता रहेगा। दूसरी तरफ़ धर्म निरपेक्षता को आदर्श मानने वाले विपक्षी दल चाह कर भी भावनाशील हिंदुओं को आकर्षित नहीं कर पाएँगे। इन धर्म निरपेक्ष राजनेताओं का सनातन धर्म में आस्था का प्रदर्शन इन्हें वांछित परिणाम नहीं दे पा रहा। क्योंकि भावनाशील हिंदुओं को लगता है कि ऐसा करना अब इन दलों की मजबूरी हो गया है। इसलिए वो इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे। दूसरी तरफ़ जो आम जनता की ज़िंदगी से जुड़े ज़रूरी मुद्दे हैं जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, सस्ती स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएँ, इन पर ज़ोर देकर विपक्ष मतदाताओं को धर्म के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। कितना सफल होगा, यह तो 2024 के चुनावी परिणाम बताएँगे। 



जहां तक बात काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान मस्जिद की है तो यह कोई नया पैदा हुआ विवाद नहीं है। सैंकड़ों बरस पहले जब ये दोनों मस्जिदें बनीं तो हिंदुओं के मदिर तोड़ कर बनीं थीं, इसमें कोई संदेह नहीं है। तब से आजतक सनातन धर्मी अपने इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर से मुस्लिम आक्रांताओं के इन अवशेषों को हटा देने के लिए  संघर्षशील रहे हैं। नरेंद्र मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से वृहद् हिंदू समाज में एक नया उत्साह पैदा हुआ है। उसे विश्वास है कि इन दोनों तीर्थस्थलों पर से भी ये मस्जिदें आज या कल हटा दी जाएँगी। उधर मुस्लिम पक्ष पहले की तरह उत्तेजना दिखा रहा है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है। जो दोनों ही पक्षों के लिये घातक साबित होगा। भलाई इसी में है कि दोनों पक्ष बैठ कर शांतिपूर्ण तरीक़े से इसका हल निकाल लें। हालाँकि दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेता आसानी से ऐसा होने नहीं देंगे। इसलिए यह ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों के समझदार लोगों की ही है कि वे इन दोनों मस्जिदों के विवाद को बाबरी मस्जिद विवाद की तरह लंबा न खिंचने दें। 



मुसलमानों के प्रति बिना किसी दुराग्रह के मेरा यह शुरू से मानना रहा है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में जब तक मस्जिदें हमारे इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर बनी रहेंगी तब तक सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान कृष्ण, भगवान राम और भोलेनाथ सनातन धर्मियों के मुख्य आराध्य हैं। दुनिया भर के करोड़ों हिंदू पूरे वर्ष इन तीर्थों के दर्शन करने जाते रहे हैं। जहां खड़ी ये मस्जिदें उन्हें उस दुर्भाग्यशाली क्षण की याद दिलाती हैं, जब आतताइयों ने यहाँ खड़े भव्य मंदिरों को बेरहमी से नेस्तनाबूत कर दिया था। इन्हें वहाँ देख कर हर बार हमारे ज़ख़्म हरे हो जाते हैं। ये बात मैं अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में पिछले 35 वर्षों से इसी भावना के साथ लगातार कहता रहा हूँ। जो धर्म निरपेक्ष दल ये तर्क देते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए क्योंकि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा? आज हिंदू पक्ष तीन स्थलों से मस्जिदें हटाने की माँग कर रहा है, कल को तीस या तीन सौ स्थलों से ऐसे माँगें उठेंगी तो देश के हालात क्या बनेंगे, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। एक तरफ़ तो मक्का मदीना है जहां ग़ैर मुसलमान जा भी नहीं सकते और दूसरी तरफ़ तपोभूमि भारत है जहां सब को अपने-अपने धर्मों का पालन करने की पूरी छूट है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को नीचा दिखाएं या उस ख़ौफ़नाक मंजर की याद दिलाएँ जब उन्होंने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत किया था। 



दशकों से चले अयोध्या प्रकरण और उसे लेकर 1984 से विश्व हिन्दू परिषद के आक्रामक अभियान से निश्चित रूप से भाजपा को बहुत लाभ हुआ है। आज भाजपा विकास या रोज़गार की बात नहीं करती। 2024 का चुनाव केवल अयोध्या में राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। हिंदुओं में आए इस उफान की जड़ में है मुसलमानों की असंवेदनशीलता। जब 1947 में धर्म के आधार पर भारत का बँटवारा हुआ तो भी भारत ने हर मुसलमान को पाकिस्तान जाने के लिए बाध्य नहीं किया। ये बहुसंख्यक हिंदू समाज की उदारता का प्रमाण था। जबकि कश्मीर घाटी, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हुए और जिस तरह उन्हें वहाँ से निकाला गया, उसके बाद भी ये आरोप लगाना कि विहिप, संघ और भाजपा मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में उत्तेजना को बढ़ा रहे हैं, सही नहीं है।


भाजपा हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं। दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति रही है, उससे हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ा है। ठीक वैसे ही जैसा आक्रोश आज यूरोप के देशों में मुसलमानों के इसी रवैये के प्रति पनप रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बिना हील-हुज्जत के मथुरा और काशी के धर्मस्थलों से मस्जिदों को ख़ुद ही हटा कर स:सम्मान दूसरी जगह स्थापित कर दें, जैसा अनेक इस्लामिक देशों में किया भी जा चुका है। इससे दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बढ़ेगा और किसी को भी सांप्रदायिकता भड़काने का मौक़ा नहीं मिलेगा।