किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में मतदाता और नेता के बीच यदि विश्वास ही न हो तो वो रिश्ता ज़्यादा लम्बा नहीं चलता। लोकतंत्र में हर एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने मतदाता के प्रति जवाबदेही के लिए बाध्य होता है। यदि मतदाता को लगे कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है तो वो ठगा सा महसूस करता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का सीधा मतलब ही यह होता है कि जनता की मर्ज़ी से चुने गये सांसद या विधायक उनकी आवाज़ उठाएँगे और उनके ही हक़ में सरकार चलाएँगे। यदि मतदाताओं को ही अंधेरे में रखा जाएगा तो दल चाहे कोई भी हो दोबारा सत्ता में नहीं आ सकता। परंतु पिछले सप्ताह देश की शीर्ष अदालत ने एक ऐसा फ़ैसला सुनाया जिसने देश के करोड़ों मतदाताओं के बीच उम्मीद की किरण जगा दी।
‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये राजनैतिक दलों को दिये जाने वाले चुनावी चंदे को लेकर देश भर में एक भ्रम सा फैला हुआ था। जिस तरह इन बाँड्स के ज़रिये दिये जाने वाले चुनावी चंदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा रही थी उसे लेकर भी जनता के मन में काफ़ी संदेह था। जिस तरह से विपक्षी नेता सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे थे कि कुछ औद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल को भारी मात्रा में ‘चुनावी चंदा’ दे रहे थे वो असल में चुनावी चंदा नहीं बल्कि सरकार द्वारा अपने हक़ में नीतियाँ बनवाने की रिश्वत है। विपक्ष का ऐसा कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो बड़े औद्योगिक घराने हमेशा से यही करते आए हैं कि वे सरकार से अच्छे संबंध बना कर रखते हैं। वो अलग बात है कि इन बड़े घरानों द्वारा दिये गये राजनैतिक चंदे की पोल कभी न कभी खुल ही जाती थी। परंतु देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ की जानकारी को साझा न करने के निर्णय को ग़लत ठहराया और ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को रद्द कर दिया। इतना ही नहीं आनेवाले तीन हफ़्तों में चुनाव आयोग को यह निर्देश भी दे डाले कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दिये गये चंदे की पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए।
विपक्षी दलों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों द्वारा इस फ़ैसले का भरपूर स्वागत किया जा रहा है। यहाँ हम किसी भी एक विशेष राजनैतिक दल की बात नहीं करेंगे। बड़े औद्योगिक घराने हर उस दल को वित्तीय सहयोग देते आए हैं जो कि सरकार बनाने के काबिल होता है। परंतु सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार यदि यह चुनावी चंदा था तो क्या सभी पार्टियों ने इसे चुनाव के लिए ही इस्तेमाल किया? क्या चुनाव आयोग के तय नियमों के अनुसार बड़े राजनैतिक दलों के प्रत्याशी लोक सभा चुनाव में 95 लाख से अधिक राशि खर्च नहीं करते? क्या ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को जारी करते समय काले धन की रोकथाम के किए गए दावे के अनुसार चुनावों में नक़द राशि खर्च नहीं हुई? अब जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुआ है तो वो सभी राजनैतिक दल जिन्हें ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये सहयोग राशि मिली थी, उन्हें इसकी आमदनी और खर्च का हिसाब भी सार्वजनिक करना पड़ेगा।
वहीं दूसरी ओर जिन-जिन औद्योगिक घरानों ने सत्तापक्ष के अलावा विपक्षी दलों को भी चुनावी चंदा दिया है, उन्होंने यही उम्मीद की थी कि उनका नाम गुप्त रखा जाएगा। परंतु शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले के बाद अब यह भी सार्वजनिक हो जाएगा। इसलिए अब इन घरानों को इस बात का डर है कि कहीं उन पर विभिन्न जाँच एजेंसियों द्वारा कोई करवाई तो नहीं की जाएगी। परंतु यहाँ एक तर्क यह भी है कि जिन-जिन औद्योगिक घरानों को किसी भी राजनैतिक दल को सहयोग करना है तो उन्हें डरना नहीं चाहिए। यदि वो किसी भी दल की विचारधारा के समर्थक हैं तो उन्हें उस दल को खुल कर सहयोग देना चाहिए। परंतु जो बड़े औद्योगिक समूह हैं वे यदि विपक्षी पार्टियों को कुछ वित्तीय सहयोग देते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में यह सहयोग राशि सत्तारूढ़ दल को भी देते हैं। इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दी गई सहयोग राशि इन घरानों और राजनैतिक दलों के बीच एक संबंध बनाना है।
जो भी हो शीर्ष अदालत ने यह बात तो स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है। इस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के अनुसार, “अब चूँकि चुनाव आयोग को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का सारा विवरण सार्वजनिक करना है, तो इससे यह बात भी सार्वजनिक हो जाएगी कि किस राजनैतिक दल को किस बड़े औद्योगिक घराने से भारी रक़म मिली है। इसके साथ ही यह बात पता लगाने में देर नहीं लगेगी कि इस बड़ी सहयोग राशि के बदले उस औद्योगिक समूह को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा क्या लाभ पहुँचाया गया है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बड़ा उद्योगपति किसी दल को बड़ी मात्रा में दान दे और फिर केंद्र या राज्य सरकार का मंत्री उसका फ़ोन न उठाए। दान के बदले काम को सरल भाषा में भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है।” चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ओर से ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का समर्थन करते हुए सिब्बल का एक सुझाव है कि, “क्यों न औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई सहयोग राशि को चुनाव आयोग में जमा कराया जाए और आयोग उस राशि को हर दल की संसद या विधान सभा में भागीदारी के अनुपात में बाँट दे। ऐसा करने से किसी एक दल को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का बड़ा हिस्सा नहीं मिल पाएगा।”
कुल मिलाकर ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक अच्छी पहल माना जा रहा है। इस आदेश से चुनावों में मिलने वाली सहयोग राशि पर पारदर्शिता दिखाई देगी। नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार के तहत चुनावी दान से संबंधित सभी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा। 2024 के चुनावों से ठीक पहले ऐसे फ़ैसले से उम्मीद की जा सकती है कि इन जानकारियों सार्वजनिक होने पर मतदाता को सही दल के प्रत्याशी को चुनने में मदद मिलेगी। यह फ़ैसला देर से ही आया परंतु दुरुस्त आया और लोकतंत्र को जीवंत रखने में काफ़ी मददगार साबित होगा।
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