Monday, September 22, 2025

स्वच्छ ऊर्जा की दौड़ में चीन का बढ़ता वर्चस्व !

आज की दुनिया में ऊर्जा नीतियां सिर्फ आर्थिक निर्णय नहीं हैं, बल्कि वैश्विक वर्चस्व की कुंजी हैं। जब अमेरिका तेल और गैस पर दांव लगाकर पुरानी राह पर लौट रहा है, वहीं चीन स्वच्छ ऊर्जा क्रांति को गति दे रहा है। यह विरोधाभास न केवल आर्थिक असंतुलन पैदा कर रहा है, बल्कि भविष्य की तकनीकी दिग्गजों—जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई)—के लिए बुनियादी ढांचे को भी प्रभावित कर रहा है। साइरस जेन्सेन की हालिया वीडियो ‘अमेरिका जस्ट मेड द ग्रेटेस्ट मिस्टेक ऑफ द 21वीं सेंचुरी’ इस मुद्दे को बेबाकी से उजागर करती है। 



अमेरिका, जो कभी नवाचार का प्रतीक था, अब अपनी ऊर्जा नीतियों में उल्टा चढ़ाव दिखा रहा है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में, अमेरिका ने अलास्का में 44 अरब डॉलर का प्राकृतिक गैस प्रोजेक्ट शुरू किया था। जनरल मोटर्स जैसी कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की योजनाओं को रद्द कर रही हैं और वी8 गैस इंजनों पर लौट रही हैं। यहां तक कि ईवी खरीद पर टैक्स क्रेडिट भी समाप्त कर दिए गए हैं। यह सब तब हो रहा है जब दुनिया जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है और नवीकरणीय ऊर्जा ही भविष्य का रास्ता दिख रही है।


जेन्सेन की वीडियो में साफ कहा गया है कि अमेरिका की यह रणनीति अल्पकालिक लाभ के लिए है। तेल और गैस निर्यात बढ़ाने से तत्काल आर्थिक फायदा तो मिलेगा, लेकिन लंबे समय में यह वैश्विक बाजारों में पीछे धकेल देगा। अमेरिका ने 1950 के दशक में सोलर पैनल विकसित किए थे, 1970 के दशक में लिथियम-आयन बैटरी का आविष्कार किया, लेकिन रोनाल्ड रीगन जैसे नेताओं ने जिमी कार्टर के व्हाइट हाउस सोलर पैनल हटाकर इसकी उपेक्षा की। आज भी वही पुरानी सोच हावी है। परिणामस्वरूप, अमेरिका ईवी निर्यात में मात्र 12 अरब डॉलर और बैटरी निर्यात में 3 अरब डॉलर पर सिमट गया है, जबकि सोलर पैनल निर्यात तो महज 69 मिलियन डॉलर का है।



यह भूल सिर्फ आर्थिक नहीं, भू-राजनीतिक भी है। वैश्विक दक्षिण—जो सौर और पवन ऊर्जा के 70 प्रतिशत स्रोतों और महत्वपूर्ण खनिजों के 50 प्रतिशत का नियंत्रण रखता है—अब नवीकरणीय ऊर्जा की ओर मुड़ रहा है। अमेरिका का जीवाश्म ईंधन पर फोकस इन देशों को अलग-थलग कर देगा, जबकि चीन इनके साथ साझेदारी कर रहा है। वहीं, चीन ने स्वच्छ ऊर्जा को राष्ट्रीय प्राथमिकता बना लिया है। 2024 में चीन ने दुनिया के बाकी देशों से ज्यादा विंड टर्बाइन और सोलर पैनल लगाए। ईवी और बैटरी स्टोरेज में निवेश ने इसे वैश्विक नेता बना दिया है। पिछले साल चीन ने 38 अरब डॉलर के ईवी निर्यात किए, 65 अरब डॉलर की बैटरी बेचीं, और सोलर पैनल के 40 अरब डॉलर के निर्यात किए। स्वच्छ ऊर्जा पेटेंट में चीन के पास 7 लाख से ज्यादा हैं, जो दुनिया के आधे से अधिक हैं।



जेन्सेन उद्धृत करते हुए बताते हैं कि चीन की सफलता का राज समन्वित प्रयास है। सीएल के सह-अध्यक्ष शिएन पैन कहते हैं, चीन को लंबे लक्ष्य पर प्रतिबद्ध करना मुश्किल है, लेकिन जब हम प्रतिबद्ध होते हैं, तो समाज के हर पहलू—सरकार, नीति, निजी क्षेत्र, इंजीनियरिंग—सभी एक ही लक्ष्य की ओर कड़ी मेहनत करते हैं। यह दृष्टिकोण अमेरिका की छिटपुट नीतियों से बिल्कुल अलग है।


चीन अब वैश्विक बाजारों में फैल रहा है। ब्राजील, थाईलैंड, मोरक्को और हंगरी में ईवी और बैटरी फैक्टरियां बना रहा है। हंगरी में 8 अरब डॉलर का कारखाना, इंडोनेशिया में 11 अरब डॉलर का सोलर प्लांट—ये निवेश न केवल आर्थिक, बल्कि भू-राजनीतिक लाभ भी दे रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के हवाले से जेन्सेन कहते हैं, ईवी बैटरी बनाने वाले देश दशकों तक आर्थिक और भू-राजनीतिक फायदे काटेंगे। अभी तक का एकमात्र विजेता चीन है।



पिछले 15 वर्षों में चीन ने बिजली उत्पादन में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। यह आंकड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि एआई जैसी उभरती तकनीकें बिजली पर निर्भर हैं। चीन का स्वच्छ ऊर्जा निवेश न केवल पर्यावरण बचाएगा, बल्कि एआई क्रांति में भी नेतृत्व देगा। आरएमआई की ‘पावरिंग अप द ग्लोबल साउथ’ रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक दक्षिण के 70 प्रतिशत सौर-पवन संसाधन चीन की रणनीति से जुड़ रहे हैं।


यह संघर्ष सिर्फ दो महाशक्तियों का नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का है। वैश्विक दक्षिण—अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया—अब सस्ती और सतत ऊर्जा की तलाश में है। चीन ने इन देशों में सस्ते सोलर पैनल और ईवी तकनीक पहुंचाई है, जबकि अमेरिका के महंगे गैस प्रोजेक्ट इनके लिए बोझ साबित हो रहे हैं। परिणाम? ये देश चीन की ओर झुक रहे हैं।


भारत के संदर्भ में देखें तो यह चेतावनी स्पष्ट है। हमारी ‘मेक इन इंडिया’ और ‘प्लेड्ज फॉर क्लाइमेट’ पहलें स्वच्छ ऊर्जा पर केंद्रित हैं, लेकिन चीन का वर्चस्व चुनौती है। भारत सोलर और विंड में प्रगति कर रहा है, लेकिन बैटरी और ईवी चिप्स में आयात पर निर्भरता बनी हुई है। यदि हम चीन की तरह समन्वित नीति नहीं अपनाते, तो वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में पीछे रह जाएंगे। अमेरिका की गलती से सबक लेते हुए, भारत को स्वदेशी नवाचार पर जोर देना चाहिए—जैसे लिथियम खनन और बैटरी रिसाइक्लिंग में निवेश।


अमेरिका की यह भूल नई नहीं है। 20वीं सदी में जापान ने इलेक्ट्रॉनिक्स में अमेरिका को पीछे छोड़ा था, क्योंकि अमेरिका ने अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता दी। आज चीन स्वच्छ ऊर्जा में वही कर रहा है। जेन्सेन की वीडियो एक चेतावनी है: जो देश बिजली उत्पादन में आगे होगा, वही एआई और अगली औद्योगिक क्रांति जीतेगा।

अमेरिका को अपनी नीतियां पलटनी होंगी—ईवी सब्सिडी बहाल करनी होंगी, नवीकरणीय अनुसंधान में निवेश बढ़ाना होगा। लेकिन समय कम है। चीन का बढ़त 10 वर्षों का नहीं, बल्कि दशकों का हो सकता है। अमेरिका ने 21वीं सदी की सबसे बड़ी गलती कर दी है—जीवाश्म ईंधन पर दांव लगाकर स्वच्छ ऊर्जा के भविष्य को गंवा दिया। चीन का उदय एक सबक है: समन्वित, दूरदर्शी नीतियां ही विजेता बनाती हैं। भारत जैसे देशों को इस दौड़ में शामिल होना चाहिए, ताकि हम न केवल पर्यावरण बचाएं, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता भी हासिल करें। समय आ गया है कि दुनिया एकजुट होकर स्वच्छ ऊर्जा को अपनाए। अन्यथा, इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। 

Monday, September 15, 2025

टीवी बहसों का गिरता स्तर चिंतनीय

भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां संवाद और विमर्श लोकतंत्र की रीढ़ माने जाते हैं । वहां आज टीवी बहसें एक ऐसा मंच बन चुकी हैं जहां तर्क की जगह एक दूसरे का अपमान, चीख-पुकार और राजनीतिक दुष्प्रचार हावी हो गया है। प्राइम टाइम के इन शो में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ता एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले करते नजर आते हैं, जिससे बहसें निष्कर्षहीन हो जाती हैं। यह न केवल दर्शकों के समय की बर्बादी है, बल्कि समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाला एक खतरनाक माध्यम भी बन गया है। प्रवक्ताओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अपमानजनक भाषा ने टीवी डिबेट्स को एक सर्कस का रूप दे दिया है। चैनल और एंकर ऐसे निरर्थक बहसों को क्यों बढ़ावा देते हैं? क्या यह टीआरपी की होड़ है या राजनीतिक दबाव?



टीवी बहसों का इतिहास भारत में 1990 के दशक से जुड़ा है , जब निजी चैनलों का आगमन हुआ। शुरू में ये बहसें मुद्दों पर तथ्यपरक चर्चा का माध्यम थीं, लेकिन आज वे एक शोरगुल भरी जंग बन चुकी हैं। विभिन्न अध्ययनों और रिपोर्टों से स्पष्ट है कि भारतीय टीवी डिबेट्स में आक्रामकता और विषाक्त भाषा का स्तर चिंताजनक रूप से बढ़ा है। एक शोध के अनुसार, बहसों में एंकरों द्वारा आक्रामक लहजे का इस्तेमाल 80 प्रतिशत से अधिक होता है, जो दर्शकों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। ये आंकड़े बताते हैं कि बहसें अब सूचना का स्रोत नहीं, बल्कि प्रचार का हथियार बन चुकी हैं। 


राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं द्वारा अपमानजनक भाषा का उपयोग इस समस्या का केंद्रीय बिंदु है। एक बहस के दौरान एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रवक्ता को दूसरी पार्टी के प्रवक्ता द्वारा ‘जयचंद’ और ‘गद्दार’ कहा गया, जिसे सुनकर  उस प्रवक्ता को हार्ट अटैक हुआ और उनकी मृत्यु हो गई। यह घटना टीवी डिबेट्स की विषाक्तता का जीता-जागता उदाहरण है। इसी तरह अन्य प्रवक्ता ने एक दूसरे प्रवक्ता को ‘नाली का कीड़ा’, ‘दादी मां’, ‘वैंप’ कहा या ‘उल्टा टाँग दूंगा’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते पाए गए हैं। एक प्रवक्ता ने तो बहस के दौरान दूसरे प्रवक्ता पर हाथ भी उठा दिया।



यह समस्या बढ़ रही है कम नहीं हुई। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में एक टीवी बहस के दौरान एक नेता पर कुर्सी फेंकी गई, जिसके बाद एफआईआर भी दर्ज हुई। नवंबर 2024 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक टीवी चैनल को एक प्रवक्ता के खिलाफ अपमानजनक क्लिप हटाने का आदेश दिया। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि अपमान अब शारीरिक हिंसा तक पहुंच गया है। राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे प्रवक्ताओं को चुना जाना भी एक चिंताजनक बात है। अधिकांश प्रवक्ता राजनीतिक अनुभव की कमी रखते हैं और केवल टीवी पर चिल्लाने के लिए नियुक्त होते हैं। यदि राजनैतिक दल  द्वारा योग्य प्रवक्ताओं को चुना गया होता, तो बहसें अधिक सभ्य और उत्पादक होतीं। लेकिन वर्तमान में, ये प्रवक्ता दलों के चेहरे बन चुके हैं, जो विचारधारा के बजाय व्यक्तिगत हमलों पर निर्भर हैं।



ऐसे स्तरहीन प्रवक्ताओं को चैनल क्यों आमंत्रित करते हैं? इसका मुख्य कारण टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) है। शोरगुल भरी बहसें दर्शकों को आकर्षित करती रही हैं, क्योंकि वे मनोरंजन का रूप ले लेती हैं। रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि आर्थिक दबावों के कारण ग्राउंड रिपोर्टिंग कम हो गई है और स्टूडियो डिबेट्स ही मुख्य सामग्री बन गई हैं। चैनल जानते हैं कि तर्कपूर्ण चर्चा से दर्शक भागते हैं, लेकिन चीख-पुकार उन्हें बांधे रखती है।


दूसरा कारण राजनीतिक दबाव का उदय है। टाइम मैगजीन के अनुसार, राज्य और पार्टी के विज्ञापन बजट चैनलों को नियंत्रित करते हैं। परिणामस्वरूप, बहसें सत्ता पक्ष को लाभ पहुंचाने वाली बन जाती हैं। विपक्षी प्रवक्ताओं को अपमानित किया जाता है, जबकि सत्ताधारी प्रवक्ताओं को खुली छूट मिलती है। 2022 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनलों को सलाह दी कि वे उत्तेजक भाषा वाली बहसें न दिखाएं। लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। चैनल जानबूझकर ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते हैं जो विवाद पैदा करें, क्योंकि यह सोशल मीडिया पर वायरल होता है और चैनल की पहुंच बढ़ाता है।


ऐसी बहसों के सामाजिक प्रभाव गंभीर हैं। वे समाज को ध्रुवीकृत करती हैं, विशेषकर हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर। एक शोध के अनुसार, बहसें 'फिक्स्ड मैच' की तरह होती हैं, जहां अपमान और झगड़े पूर्वनियोजित होते हैं। मुस्लिम पैनलिस्टों को 'एंटी-नेशनल' कहा जाता है, जो सांप्रदायिक हिंसा को भड़काता है। ‘गल्फ न्यूज’ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के चैनल मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैला रहे हैं। युवाओं का एक वर्ग, जो रोजगार और शिक्षा चाहता है, इन बहसों से प्रभावित होकर हिंसक हो रहा है। लोकतंत्र में संवाद आवश्यक है, लेकिन यह विषाक्त संवाद समाज को कमजोर कर रहा है।


चैनल और एंकरों की जिम्मेदारी यहां महत्वपूर्ण है। वे मॉडरेटर हैं, न कि भागीदार। लेकिन अधिकांश एंकर, खुद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं। रेडिफ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि बहसें 'विषैली' हो चुकी हैं। एंकर विपक्ष को बोलने न देकर, मात्र समय काटते हैं। यदि चैनल सख्त कोड ऑफ कंडक्ट लागू करें, तो स्थिति सुधर सकती है। लेकिन टीआरपी और राजनीतिक लाभ के लालच में वे अनदेखी करते हैं।


समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास जरूरी हैं। सबसे पहले, राजनैतिक दलों को प्रवक्ताओं के चयन में सुधार करना चाहिए। केवल अनुभवी और सभ्य व्यक्तियों को ही टीवी पर भेजा जाए। दूसरा, ‘ट्राई’ और सूचना मंत्रालय को सख्त नियम लागू करने चाहिए, जैसे अपमानजनक भाषा पर तत्काल जुर्माना लगे। तीसरा, दर्शकों को जागरूक होना चाहिए; वे ऐसे चैनलों का बहिष्कार करें जो सनसनी फैलाते हैं। चौथा, स्वतंत्र मीडिया वॉचडॉग को मजबूत बनाना चाहिए। अंत में, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे यूट्यूब पर तथ्यपरक बहसें बढ़ावा दें, जहां सोशल मीडिया इंगेजमेंट सकारात्मक हो।


भारत की टीवी बहसें लोकतंत्र का मजाक बन चुकी हैं। अपमानजनक प्रवक्ताओं का बोलबाला न केवल बहसों को निरर्थक बनाता है, बल्कि समाज को विभाजित करता है। चैनल और एंकरों को यदि वास्तव में पत्रकारिता का सम्मान करना है, तो उन्हें टीआरपी के पीछे भागना छोड़कर जिम्मेदार संवाद को प्राथमिकता देनी चाहिए। अन्यथा, ये बहसें लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करती रहेंगी। समय आ गया है कि हम एक ऐसे मीडिया की मांग करें जहां तर्क जीते, न कि अपमान। केवल तभी भारत का लोकतंत्र मजबूत होगा। 

Monday, September 8, 2025

प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता कहर

भारत, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और विविध भौगोलिक संरचना के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। लेकिन हर साल मानसून के आगमन के साथ यह देश प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में आ जाता है। हाल के वर्षों में, विशेष रूप से हिमालयी राज्यों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में बादल फटने, भूस्खलन और भारी बारिश के कारण होने वाली तबाही ने न केवल जन-धन की हानि की है, बल्कि सरकारी तंत्र की नाकामी और भ्रष्टाचार को भी उजागर किया है।



भारत में मानसून का मौसम जून से सितंबर तक रहता है और इस दौरान देश के कई हिस्सों में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं अब आम हैं। हाल के महीनों में, उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में बादल फटने से भारी तबाही मची, जिसमें कम से कम पांच लोगों की मौत हुई और 50 से अधिक लोग लापता हो गए। हिमाचल प्रदेश में भी अगस्त 2025 में भारी बारिश के कारण दर्जनों सड़कें बंद हो गईं और कई लोगों की जान चली गई। इन घटनाओं ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि सरकारी तंत्र इन आपदाओं को रोकने और उनके प्रभाव को कम करने में क्यों असफल हो रहा है?



बादल फटने की घटनाएं, जिन्हें भारत मौसम विज्ञान विभाग 100 मिमी प्रति घंटे से अधिक बारिश के रूप में परिभाषित करता है, विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों में आम हैं। ये घटनाएं न केवल प्राकृतिक हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों जैसे अनियोजित निर्माण, जंगलों की कटाई और नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप के कारण और भी घातक हो गई हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश की तीव्रता बढ़ रही है, जिससे बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं अधिक बार और अधिक विनाशकारी हो रही हैं।


केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में अपने बयान में कहा कि पहाड़ी राज्यों में होने वाले निर्माण और नुक़सान के लिए घर में बैठकर तैयार की गई फर्जी डीपीआर बनाने वाले दोषी (कल्प्रिट) हैं। ये लोग बिना ज़मीनी हकीकत जाने हुए डीपीआर बना देते हैं जिससे ऐसे हादसे होते हैं। यह बयान न केवल सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि विकास परियोजनाओं में पारदर्शिता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी कितनी घातक हो सकती है। 



डीपीआर, जो किसी भी योजना का बुनियादी ढांचा व आधार होती है, में अगर भ्रष्टाचार और लापरवाही बरती जाती है, तो इसका परिणाम ऐसी हादसों व त्रासदियों के रूप में सामने आता है। इसे ‘करप्शन ऑफ़ डिज़ाइन’ कहा जाता है। 


पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी ढांचे का निर्माण करते समय भूगर्भीय और पर्यावरणीय कारकों को नजरअंदाज करना आम बात हो गई है। गडकरी का यह बयान इस ओर इशारा करता है कि कई परियोजनाओं के लिए डीपीआर बिना स्थानीय भूगोल और जलवायु की गहन जांच के तैयार की जाती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में, जहां भूस्खलन और बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहता है, सड़क निर्माण के लिए अक्सर पहाड़ों को अंधाधुंध काटा जाता है, जिससे ढलान अस्थिर हो जाते हैं। यह न केवल भूस्खलन को बढ़ावा देता है, बल्कि नदियों में मलबे का प्रवाह भी बढ़ाता है, जिससे बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो जाती है।


भारत में बाढ़ और जलभराव की स्थिति को नियंत्रित करने में सरकारी तंत्र की विफलता कई स्तरों पर दिखाई देती है। सबसे पहले तो हमारी आपदा प्रबंधन की तैयारी ही अपर्याप्त है। उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ त्रासदी, जिसमें 6,000 से अधिक लोग मारे गए थे। 2021 की चमोली आपदा, जिसमें 200 से अधिक लोग हिमस्खलन और बाढ़ की चपेट में आए। इन हादसों ने यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार को पहले से चेतावनी और तैयारी की जरूरत है। फिर भी, हर साल न सिर्फ़ एक जैसी आपदाएं दोहराई जाती हैं बल्कि राहत और बचाव कार्यों में देरी और अव्यवस्था भी दिखाई देती है।


दूसरा, जल निकासी प्रणालियों की कमी और रखरखाव की अनदेखी भी एक बड़ा मुद्दा है। दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरी क्षेत्रों में, जहां 2024 में 108 मिमी बारिश ने भारी जलभराव पैदा किया, नालों की सफाई और उचित जल निकासी की कमी साफ दिखाई दी। पहाड़ी क्षेत्रों में नदियों के किनारे अनियोजित निर्माण और अतिक्रमण ने प्राकृतिक जल प्रवाह को बाधित किया है, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।


तीसरा, स्थानीय समुदायों की भागीदारी और जागरूकता की कमी भी एक बड़ी समस्या है। ऐसे में स्थानीय ज्ञान का उपयोग करके सड़क निर्माण हो तो शायद भूस्खलन में रोकथाम हो सके। लेकिन वास्तव में, स्थानीय लोगों की सलाह को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है और परियोजनाएं केवल ठेकेदारों और अधिकारियों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं।


इन समस्याओं का समाधान तभी संभव है जब सरकार और समाज मिलकर एक समग्र और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं। सबसे पहले, डीपीआर तैयार करने की प्रक्रिया को पारदर्शी और वैज्ञानिक बनाना होगा। भूगर्भीय सर्वेक्षण, पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन, और स्थानीय विशेषज्ञों की राय को शामिल करना अनिवार्य होना चाहिए। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए स्वतंत्र ऑडिट और निगरानी तंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।


दूसरा, आपदा प्रबंधन के लिए एक मजबूत ढांचा तैयार करना होगा। इसमें न केवल राहत और बचाव की तैयारी शामिल होनी चाहिए, बल्कि प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, जैसे कि बादल फटने की निगरानी, को भी मजबूत करना होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग भूस्खलन और जलभराव की संभावना वाले स्थानों की पहचान के लिए किया जाना चाहिए।


इसके अलावा पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ विकास को प्राथमिकता देनी होगी। जंगलों की कटाई को रोकना, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बहाल करना और अंधाधुंध निर्माण पर रोक लगाना जरूरी है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में इको-सेंसिटिव जोन में निर्माण को सख्ती से विनियमित करना होगा।


भारत में बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की त्रासदियां केवल प्राकृतिक नहीं हैं, बल्कि मानवीय लापरवाही और भ्रष्टाचार का भी परिणाम हैं। नितिन गडकरी का बयान इस दिशा में एक कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। सरकारी तंत्र की नाकामी, चाहे वह जलभराव को नियंत्रित करने में हो या आपदा प्रबंधन में, ने आम लोगों का जीवन खतरे में डाल दिया है। अब समय है कि सरकार, समाज और विशेषज्ञ मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनाएं जो न केवल आपदाओं को रोके, बल्कि उनके प्रभाव को कम करने में भी सक्षम हो। टिकाऊ विकास, पारदर्शी प्रशासन, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही इस दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता है। 

Monday, September 1, 2025

‘गुमनामी बाबा’ के कमरे से निकले सामान ख़ास क्यों हैं?

पिछले हफ़्ते नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विषय में इस कॉलम में जो मैंने लिखा था उस पर बहुत प्रतिक्रियाएँ आई हैं। पाठकों को और जानने की उत्सुकता है। इस विषय में यूट्यूब पर तमाम इंटरव्यू व रिपोर्ट्स हैं। वहाँ आप ‘गुमनामी बाबा’ या सुभाष चंद्र बोस’ टाइप करके उन्हें देख सकते हैं। विशेषकर अनुज धर, चंद्रचूड़ घोष, शक्ति सिंह, डॉ दिनेश सिंह तोमर, आदि के इंटरव्यू व ज़ी टीवी पर एक ‘गुमनामी बाबा का बॉक्स नंबर 26’ जैसी रिपोर्ट्स देख, सुनकर आप दंग रह जाएँगे। 


पिछले लेख में मैंने उनके कमरे से मिली 2760 वस्तुओं में से कुछ का ज़िक्र किया था। यहाँ उन सामानों में से कुछ और का विस्तार से वर्णन कर रहा हूँ। ये सूची इतनी प्रभावशाली है कि केवल साधना करने वाले संत का सामान नहीं हो सकता। आप सोचने पर मजबूर हो जाएँगे कि ‘गुमनामी बाबा’ अगर नेताजी सुभाष चंद्र बोस नहीं थे तो और कौन थे? ये सूची जब मैंने देश के एक सबसे बड़े पुलिस अधिकारी रहे सज्जन को पढ़वाई तो वे भी दंग रह गए। 



‘गुमनामी बाबा’ के कमरे में अंग्रेज़ी, बंगला व संस्कृत साहित्य की 304 पुस्तकें मिली हैं। वहीं 260 आध्यात्मिक पुस्तकें भी मिली हैं। मेडिकल साइंस पर 118, राजनीति व इतिहास पर 57, रहस्य और तंत्रशास्त्र पर 46, रामायण व महाभारत पर 36, सुभाष चन्द्र बोस पर 34, यात्रा वृतांत ग्रन्थ 33 व ज्योतिष और हस्तरेखा विज्ञान पर 12 पुस्तकें मिली हैं। अब ज़रा अंग्रेज़ी की पुस्तकों के लेखकों नाम और उनके लिखे ग्रंथों की संख्या देखिए, चार्ल्स डिकेंस (51), अलेक्सांद्र सोल्जेनित्सिन (11), विल ड्यूरांट (11), शेक्सपियर का लिखा सम्पूर्ण साहित्य व 9 नाटक, टी. लोबसांग रम्पा (10), वाल्टर स्कॉट (8), अलेक्जेंडर डुमास (8), एरिक वॉन डेनिकेन (4), पीजी वोडहाउस (3), कुलदीप नैयर (3) आदि पुस्तकें उनके बक्सों और अलमारी से निकली हैं। ऐसे उच्च कोटि के विश्वविख्यात साहित्य को पढ़ने वाला कोई भजनानंदी साधु नहीं हो सकता। सभी जानते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक संपन्न व कुलीन परिवार से थे। आईसीएस (वर्तमान में आईएएस) की परीक्षा में, 1920 में उनकी चौथी रैंक आई थी। आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए 1921 में उन्होंने इतनी बड़ी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था।



उपरोक्त साहित्य के अलावा, उनके कमरे से रीडर्स डाइजेस्ट, अमरीकी पत्रिका टाइम, इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया, ब्लिट्ज, ऑर्गेनाइजर, जुगवाणी, द पायनियर, आज, अमृत प्रभात, अमृत बाज़ार पत्रिका, आनंद बाज़ार पत्रिका, दैनिक जागरण, द स्टेट्समैन, टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ़ इंडिया व अमर उजाला जैसी तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ और अख़बार भी मिले हैं। 



उनके बक्से में से उनके परिवार व निकट के लोगों के 110 चित्र मिले हैं। जिनमें नेताजी के माता-पिता का फ्रेम करा हुआ चित्र, मखमली कपड़े में लिपटा हुआ उनके बक्से में रखा था। श्री शक्ति सिंह के अयोध्या स्थित घर, ‘राम भवन’ के जिस कमरे में गुमनामी बाबा रहते थे, उसमें दीवार पर माँ काली का चित्र टंगा था। जिनकी वे रोज़ धूप-बत्ती जला कर पूजा करते थे। रोचक बात यह है कि 23 जनवरी को देश भर में जहां भी उनका जन्मदिन मनाया जाता था उसकी ख़बरों में से सुभाष चंद्र बोस की फोटो निकाल कर संग्रह की गई हैं। इसी बक्से से नेताजी की बचपन से मित्र रहीं और क्रांतिकारी संगठन की नेत्री सुश्री लीला रॉय, पंडित नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद और महात्मा गांधी के चित्र भी मिले हैं।  



उनके संगीत संग्रह में महिषासुरमर्दनी स्रोत की रिकॉर्डिंग, रवींद्र संगीत, नज़रुल इस्लाम, श्यामा संगीत, केएल सहगल, ज्योतिका रॉय, उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ान, पं रवि शंकर का सितार वादन, बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई, नेताजी के बचपन से मित्र और मशहूर गायक दिलीप कुमार रॉय के गाए गीत, हेमंत कुमार के गीत, पन्नालाल घोष, लालन फ़क़ीर आदि की गायकी के रिकॉर्ड भी मिले हैं। इसके अलावा बॉलीवुड की फ़िल्म ‘सुभाष चंद्र बोस’ का पूरा साउंडट्रैक भी मिला है। 



इंग्लैंड के टाइपराइटर और जर्मनी की बनी दूरबीन, जापानी क्रॉकरी, दो महंगी घड़ियाँ जिनमें से एक सोने की बनी ओमेगा घड़ी बिल्कुल वैसी है जैसी नेताजी की माँ ने उन्हें जन्मदिन पर भेंट की थी, जिसे वो अक्सर पहना करते थे। दूसरी महंगी घड़ी रोलेक्स की है। गोल फ्रेम के 8 चश्में जिसमें से एक का फ्रेम शायद सफेद सोने का है। इन सब सामानों में सबसे भावुक वस्तु है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पिता श्री जानकी नाथ बोस की एक पुरानी छतरी जो, उनकी यादगार के प्रतीक रूप में गुमनामी बाबा ने सहेज कर रख रखी थी। इस छतरी को नेता जी के भतीजी ललिता बोस ने पहचाना। 


उनके काग़ज़ों में अयोध्या व काशी के विस्तृत नक्शे, भारत के सड़क मार्गों व फौजी ठिकानों के नक्शे, मध्य एशिया, मध्य पूर्व एशिया व दक्षिण पूर्व एशिया के नक्शे, जिन्हें हाथ से बनाया गया था, भी वहाँ बरामद हुए हैं। उनके सबसे प्रिय साथी पवित्र मोहन रॉय की संपत्तियों के नक्शे व एक अन्य साथी अतुल कृष्ण गुप्तो की ढाका में छूट गई संपत्ति के नक्शे आदि भी मिले हैं। 


उनके रहन-सहन के स्तर दर्शाते हुए उनके कमरे से नहाने के 75 साबुन मिले हैं, जो महंगे ब्रांड के हैं, जैसे यार्डले, क्यूटीक्यूरा, पियर्स, पोंड्स, लेवेंडर व ड्यू आदि। सबको मालूम है कि सुभाष चंद्र बोस ‘चेन स्मोकर’ थे। वे लगातार सिगरेट पीते थे। उनके सामानों में ‘गोल्ड फ्लैक’ व ‘इंडिया किंग्स’, सिगरेट के कई पैकेट, रोल बनाकर सिगरेट बनाने वाले काग़ज़ के 15 पैकेट व इन काग़ज़ों में भरने वाले तंबाकू के पैकेट और इनको लपेट कर सिगरेट बनाने वाली छोटी सी मशीन, जो इंग्लैंड की बनी हुई है। 3 विदेशी पाइप व तम्बाकू के पैकेट, सिगरेट जलाने वाले लाइटर भी मिले हैं। उनके कमरे में अंग्रेज़ी व बंगला में हस्त लिखित 1683 पत्र भी मिले हैं। दो भारतीय और एक अमरीकी हस्तलेखन विशेषज्ञों ने यह प्रमाणित किया है कि इन पत्रों पर पाई जाने वाली लिखाई 1935-36 की नेताजी सुभाष चंद्र बोस की लिखाई से पूरी तरह मेल खाती है।   


पूजा के सामानों में तीन मुखी व छह मुखी रुद्राक्ष की, स्फटिक व तुलसी की 28 मालाएँ मिली हैं। गौमुखी कमण्डल, आचमनी, शिवलिंग, शिवजी व माँ काली के चित्र, मैहर की देवी का चित्र, चंदन की लकड़ियाँ, सिंदूर, आलता, शंख (जिसे कान के पास लाने पर वह गूँजता है) मिला है। गुमनामी बाबा के कमरे से 13 क़मीज़ें, 4 पैंट, 31 बनियान, 31 चड्डी, 58 धोतियाँ, 3 वार्मर, 2 दस्ताने, 2 बरसाती कोट, 30 तौलिये, 1 जैकेट, 2 जोड़ी काले जूते, 1 जोड़ी लाल जूते, चेरी ब्लॉसम की पॉलिश के डिब्बे, जूता चमकाने की क्रीम, खड़ाऊँ, बंदर टोपी, 7 गद्दे, राजस्थानी रज़ाई जिस पर रेशम की कढ़ाई है, चादर व तकिये आदि भी मिले हैं। उनके कमरे से जो तमाम बर्तन व रसोई का सामान मिला है उनमें से कुछ विदेशों में निर्मित हैं जो उनके लाइफस्टाइल को दर्शाता है। चूँकि वे होम्योपैथी के अच्छे जानकर थे इसलिए इसकी व दूसरी तमाम दवाइयां भी मिली हैं। अब आप ख़ुद ही सोच लीजिए कि गुमनामी बाबा अगर नेताजी सुभाष चंद्र बोस नहीं थे तो और कौन थे? 

Monday, August 25, 2025

निसंदेह गुमनामी बाबा ही थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस

बचपन से हमें पढ़ाया गया की हवाई दुर्घटना में 18 अगस्त 1945 को ताइपे (ताइवान) में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। पर उनकी मौत के विवाद को सुलझाने के लिए बने ‘मुखर्जी आयोग’ ने ताइपे (ताइवान) जाकर उनकी सरकार से संपर्क किया तो पता चला कि उस तारीख को ही नहीं बल्कि उस पूरे महीने ही वहाँ कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ था। यानी नेताजी की विमान दुर्घटना में मौत नहीं हुई थी। ये झूठी कहानी गढ़ी गई। तो प्रश्न उठता है कि फिर नेताजी गए कहाँ? इस पर बाद में चर्चा करेंगे।


बाद के कई दशकों तक देश में चर्चा चलती रही कि नेताजी अचानक प्रगट होंगे। बाबा जयगुरुदेव ने देश भर की दीवारों पर बड़ा-बड़ा लिखवाया कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस जल्दी ही देश के सामने प्रगट होंगे। पर वे नहीं हुए। मेरी माँ बहुत राष्ट्रभक्त थीं और बड़े राजनैतिक परिवारों के बच्चे उनके साथ पढ़ते थे, सो उनकी शुरू से राजनीति में रुचि थी। उन्होंने मुझे 1967 में कहा था कि ‘नेता जी अभी ज़िंदा हैं और गुमनाम रूप से कहीं संत भेष में पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहते है।’



पर्दे वाले बाबा नाम से एक संत पचास के दशक में नेपाल के रास्ते भारत आए और गोपनीय रूप से बस्ती, लखनऊ, नैमिषारण्य, फैजाबाद व अयोध्या के मंदिरों या घरों में रहे। इस दौरान उनसे मिलने बहुत से लोग आते थे। पर सबको हिदायत थी कि उनके सामने कोई सुभाष नाम नहीं लेगा। इनमें 13 लोग जो वहीं के थे, जो उनके अंतरंग थे। उनमें से दो परिवारों ने तो उन्हें परदे के पीछे जाकर भी देखा था। बाक़ी अनेक लोग बंगाल से लगातार उनसे मिलने आते थे। उनमें दो लोग नेता जी की ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ की ‘इंटेलिजेंस विंग’ के सदस्य थे। ये लोग हर 23 जनवरी को आते थे और बड़े हर्षोल्लास से पर्दे वाले बाबा का जन्मदिन मना कर लौट जाते थे। गौरतलब है कि 23 जनवरी ही नेताजी का जन्मदिन होता है।जिसे मोदी जी ने ‘शौर्य दिवस’ घोषित किया है। यही लोग हर वर्ष दोबारा दुर्गा पूजा के समय उनके पास आते थे। इसके अलावा बाबा की जरूरत के हिसाब से बीच-बीच में भी लोग आते जाते रहते थे। देश के कई बड़े नामी राजनेता व बड़े सैन्य अधिकारी भी लगातार उनसे मिलने आते थे। पर सब उनसे पर्दे के सामने से ही बात करते और सलाह लेते थे। 


पत्रकार अनुज धर और पर्यावरणवादी चंद्रचूड़ घोष, इन दो लोगों ने अपनी जवानी के बीस वर्ष इसे सिद्ध करने में लगा दिए कि ‘पर्दे वाले बाबा’ जिन्हें बाद में लोग ‘गुमनामी बाबा’कहने लगे, जिन्हें उनके निकट के लोग ‘भगवन जी’ कहते थे, वही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। पिछले हफ़्ते ये दोनों मेरे दिल्ली कार्यालय आए और विस्तार से मुझे इस विषय में जानकारी दी। उन्होंने अपनी लिखी हिंदी व अंग्रेज़ी की कई पुस्तकें भी दीं। जिनमे वो सारे तथ्य, दस्तावेज़ और उन सामानों के चित्र थे जो ‘गुमनामी बाबा’ के कमरे से 16 सितंबर 1985 को उनकी मृत्यु के बाद, उनके दो दर्जन से ज़्यादा बक्सों में से निकले थे । ये सब सामान देखकर कोलकाता से बुलाई गयीं नेताजी की भतीजी ललिता बोस रोने लगी और बेहोश हो गई। क्योंकि उसमें नेता जी और ललिता जी के माता-पिता के बीच हुए पत्राचार के हस्त लिखित प्रमाण भी थे। उनके परिवार के तमाम फोटो थे। जिनमें नेताजी के माता पिता का फ्रेम किया फोटो भी है। तब ललिता बोस ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर के इन सामानों को सरकार की ट्रेज़री में जमा करवाने की माँग की। अदालत ने भी ये माना कि ‘गुमनामी बाबा’ के ये सब सामान राष्ट्रीय महत्व के है। तब फैजाबाद के जिलाधिकारी ने उन 2760 सामानों की सूची बनवाकर ट्रेज़री में जमा करवा दिया। बरसों बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने इन सामानों को ‘राम कथा संग्रहालय’ अयोध्या में जन प्रदर्शन के लिए रखवा दिया। पता नहीं क्यों अब ‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’ उन्हें वहाँ से हटाने की प्रक्रिया चला रहा है?



इन सामानों में गुमनामी बाबा (नेताजी) के तीन चश्मे, जापानी क्रॉकरी, बहुत मंहगी जर्मन दूरबीन, ब्रिटिश टाइपराइटर, आईएनए की वर्दी जो नेता जी के साइज़ की हैं। लगभग एक हज़ार पुस्तकें जो राजनीति, साहित्य, इतिहास, युद्ध नीति, होम्योपैथी, धार्मिक विषयों आदि पर हैं व मुख्यतः अंग्रेज़ी में हैं। तीन विदेशी सिगार पाइप, पाँच बोरों में देश विदेश के अख़बारों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में छपी ख़बरों की कतरने, आईएनए के वरिष्ठ अधिकारियों से उनका नियमित पत्राचार व आरएसएस प्रमुख श्री गुरु गोलवलकर का गुमनामी बाबा के नाम लिखा एक पत्र भी मिला है। इसके अलावा एक बड़े गत्ते पर गुमनामी बाबा के रूस से चीन, तिब्बत और नेपाल के रास्ते बस्ती (ऊ प्र) आने के मार्ग का हाथ से बना विस्तृत नक़्शा भी है।



अनुज धर और चंद्रचूड़ घोष के शोध से पता चलता है कि नेता जी विमान दुर्घटना की झूठी कहानी के आवरण में रूस पहुँच गए। जहाँ रूस की सरकार ने उन्हें गुलाग में एक बंगला, दो अंगरक्षक, एक कार और ड्राइवर की सुविधा के साथ महफ़ूज़ रखा। तीन साल गुमनाम रूप से रूस में रहने के बाद वे चीन, तिब्बत और नेपाल के रास्ते एक संत के वेश में भारत आए और 16 सितंबर 1985 को अपनी मृत्यु तक पर्दे के पीछे ही छिप कर रहे। पर्दे के भीतर जा कर उन्हें केवल फैजाबाद का डॉ बनर्जी व मिश्रा जी का परिवार ही देख सकता था। उनकी दबंग आवाज़, बंगाली उच्चारण में हिंदी और फर्राटेदार अंग्रेजी सुन कर पर्दे के सामने बैठा हर व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। फिर भी सबको यह हिदायत थी कि उनके सामने ‘सुभाष’ नाम नहीं लिया जाएगा। सब उन्हें ‘भगवन जी’ कह कर ही बुलाते थे। जिस व्यक्ति की मृत्यु पर 13 लाख लोग जमा होने चाहिए थे, उनके अंतिम संस्कार में मात्र यही 13 लोग थे। उनका अंतिम संस्कार सरयू नदी के किनारे अयोध्या के ‘गुप्तार घाट’ पर किया गया, जहाँ उनकी समाधि है। गुप्तार घाट वही स्थल है, जहाँ भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने जल समाधि ली थी। हज़ारों साल में उस पवित्र स्थल पर आजतक केवल गुमनामी बाबा का ही अंतिम संस्कार हुआ है। सारा ज़िला प्रशासन और पुलिस दूर खड़े उनका अंतिम संस्कार देखते रहे।



इतना कुछ प्रमाण उपलब्ध है फिर भी आज तक केंद्र की कोई सरकार गुमनामी बाबा की सही पहचान को सार्वजनिक रूप से स्वीकारने को तैयार नहीं है। मोदी सरकार तक भी नहीं। जबकि मोदी जी ने इंडिया गेट के सामने की छतरी में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की खड़ी प्रतिमा स्थापित करने का पुण्य कार्य किया है। आरएसएस के दिवंगत सर संघ चालक के एस सुदर्शन जी का एक सार्वजनिक वीडियो वक्तव्य है, जो यूट्यूब पर भी उपलब्ध है, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा है कि गुमनामी बाबा ही नेता जी सुभाष चंद्र बोस थे। अनुज धर और चंद्रचूड़ घोष बताते हैं कि पंडित नेहरू से लेकर मोदी जी तक हर प्रधान मंत्री को इसकी जानकारी है और नेताजी से 1945 तक जुड़े रहे उनके सहयोगी नेता उनसे मिलने जाते रहे। पर साधना में लीन गुमनामी बाबा ये नहीं चाहते थे कि कोई उनकी असलियत जाने।  

Monday, August 18, 2025

बिहारीजी कॉरिडोर का विवाद

काफ़ी रस्साकशी के बाद वृंदावन के श्री बांके बिहारी मंदिर का कॉरिडोर बनने का रास्ता साफ़ हो गया। योगी सरकार ने इस मंदिर के प्रबंधन के लिए न्यास भी गठित कर दिया। जिसमें मंदिर की बागडोर अब पूरी तरह सरकार के हाथ में है। मंदिर के सेवायत गोस्वामियों के परंपरा से चले आ रहे दो समूहों: राजभोग सेवा अधिकारी और शयन भोग सेवा अधिकारी में से मात्र एक-एक प्रतिनिधि इस न्यास का सदस्य रहेगा। इस पूरे विवाद में वृंदावन का समाज दो भागो में बटा हुआ था। एक तरफ़ थे सेवायत गोस्वामी व उनके परिवार, बिहारीपुरा के बाशिंदे और आसपास के दुकानदार, जिनकी संपत्तियां प्रस्तावित कॉरिडोर के दायरे में आ रही हैं। दूसरी तरफ़ वृन्दावन के आम नागरिक और बाहर से आने वाले दर्शनार्थी। जहाँ पहला पक्ष कॉरिडोर के विरुद्ध आंदोलन करता आया है। वहीं दूसरा पक्ष कॉरिडोर का स्वागत कर रहा है। 



इस विषय में बहुत से गोस्वामीगणों ने मुझसे भी संपर्क किया और इस विवाद में मेरा समर्थन मांगा। कई कारणों से मैं इस मामले में उदासीन रहा। इसकी वजह यह थी कि 2003 - 2005 के बीच जब मैं इस मंदिर का अदालत द्वारा नियुक्त रिसीवर यानी, प्रशासक था तो मैंने मंदिर की अव्यवस्थाओं को सुधारने का सफल प्रयास किया था। पर गोस्वामियों का सहयोग नहीं मिला।


30 जून 2003 को मैंने बिहारी जी के मंदिर का कार्यभार संभाला और 1 अगस्त को हरियाली तीज थी। इस दिन उत्तर भारत से लाखों भक्त स्वर्ण हिंडोले में बैठे श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन करने आने वाले थे। मंदिर के कुछ पुराने गोस्वामियों ने मुझे चुनौती दी कि मैं ये व्यवस्था नहीं संभाल पाऊँगा। ठाकुर जी पर निर्भर होकर चुनौती स्वीकार की और ये पता लगाया कि क्या- क्या समस्याएं आती हैं। सबसे बड़ी समस्या थी, बिहारी जी तक जाने वाले पाँचों मार्गों से आने वाली अपार भीड़। दूसरी समस्या थी, मंदिर के प्रवेश द्वार पर जूते चप्पलों का पहाड़ बन जाना। तीसरी समस्या थी, लोगों की जेब कटना और सोने की चेन खींचना। चौथी समस्या थी, महिलाओं के साथ भीड़ का दुर्व्यवहार। मैं फौरन दिल्ली गया और छतरपुर स्थित कात्यानी देवी के मंदिर के प्रबंधक तिवारी जी से मिला। जो हर नवरात्रि पर लाखों दर्श्नार्थियों की भीड़ सँभालते थे। उन्होंने बताया कि एसपीजी के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारी भीड़ प्रबंधन की एजेंसी चलाते हैं। उनसे संपर्क किया और उन्हें वृन्दावन बुलाया। मथुरा के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री सुधीर श्रीवास्तव और एसएसपी श्री सतेन्द्र वीर सिंह से लगभग दो सौ सिपाही मांगे और इतने ही स्वयंसेवक अपने संगठन ‘ब्रज रक्षक दल’ के बुलाये। इन चार सौ लोगों को मोदी भवन में भीड़ नियंत्रण के लिए प्रशिक्षित किया। इस कार्य में मान मंदिर के युवा साधुओं का विशेष सहयोग मिला। बिपिन व्यास ने सुझाव दिया कि मंदिर आने और जाने का एक-एक ही मार्ग रखा जाये और बाकी मार्ग बंद कर दिए जाएँ। इसके अलावा विद्यापीठ के चौराहे पर दस हजार टोकन के साथ जूता घर बनाया गया। जिसमें सेवा करने चांदनी चौक दिल्ली के युवा व्यापारी आये। एसपीजी के इन अधिकारियों ने मंदिर के प्रांगण से विद्यापीठ चौराहे तक पूरे मार्ग को दस सेक्टरों में बाँट दिया और वॉकी-टॉकी से हर सेक्टर के दर्शनार्थीयों को क्रमानुसार आगे बढ़ाया। महिलाओं और बुजुर्गों की सहायता के लिये हमने हर सेक्टर में ’ब्रज रक्षक दल’ के स्वयं सेवक तैनात किये गए।



इन सब व्यवस्थाओं का परिणाम यह हुआ कि न तो किसी की जेब कटी, न धक्का-मुक्की हुई, न चप्पल-जूते खोये, बल्कि बूढ़े और जवान सबको बड़े आराम से दर्शन हुए। इस हरियाली तीज के कई दिन बाद तक मुझे मुंबई, कलकत्ता और अन्य शहरों से परिचित भक्त परिवारों के फोन आते रहे कि जैसी व्यवस्था बिहारी जी में इस बार हुई ऐसी पहले कभी नही हुई। कहने का तात्पर्य यह है कि भीड़ कितनी भी हो दर्शन की व्यवस्था सुधारी जा सकती थी। 


मंदिर प्रबंधन की दूसरी चुनौती थी चढ़ावे की राशि का ईमानदारी से आंकलन और उसे बैंक में जमा कराना। इसमें काफी गड़बड़ी की शिकायत आती थी। मंदिर की आमदनी भी बहुत कम थी। एक वरिष्ठ गोस्वामी का मुझे फोन आये की मैं हर महीने दो दान-पात्र अपने लिए अलग करवा लूँ। सुनकर धक्का लगा। लेकिन इसे एक चेतावनी मानकर मैंने एक नई व्यवस्था बनाई। मंदिर के प्रांगण में जहाँ गुल्लकें (दानपत्र) खोली जाती थीं वहाँ विडियो कैमरे लगवा दिए और प्रशासनिक अधिकारियों को सतर्कता बरतने के लिए वहाँ बिठा दिया। परिणाम यह हुआ कि पहले की तुलना में कई गुना ज्यादा दानराशि गुल्लकों से निकली जिसे बैंक में जमा करा दिया गया। 


बिहारी जी के मंदिर की व्यवस्था सुधारने के उद्देश्य से मैंने वाजपेई सरकार में केन्द्रीय संस्कृति व पर्यटन मंत्री जगमोहन जी को वृन्दावन बुलाया। उन्होंने मेरे साथ बिहारी जी के मंदिर का विस्तृत दौरा किया और अगले ही दिन दिल्ली से एएसआई व सीपीडब्ल्यूडी के वरिष्ठ अधिकारियों के मुझे फ़ोन आने लगे कि, ‘मंत्री जी ने हमें आदेश दिया है कि आपके जो निर्देश हों, उनके अनुसार मंदिर की व्यवस्था को सुधारने में सहयोग करें।’ इससे मंदिर में
  हलचल मच गई। मुझे कुछ गोस्वामियों के गुमनाम फोन आये, जिन्होंने धमकी दी कि मैं मंदिर की व्यवस्था में कोई बदलाव न करूँ। मैंने श्री रमेश बाबा से पूछा कि क्या करूँ? वे बोले, ब्राह्मणों के पेट पर लात मारने वाला दीर्घ काल तक ‘रौरव नर्क’ में फेंक दिया जाता है। तुम ये मत करो। उनका यह रुख देखकर तब मैंने इस दिशा में प्रयास करना बंद कर दिया। किन्तु मंदिर की दैनिक व्यवस्था में जितना सुधार कर सकता था किया। फिर यह सोचकर कि मुझे अपनी ऊर्जा सम्पूर्ण ब्रज के विकास पर लगानी चाहिए, एक मंदिर में उलझकर नहीं रहना चाहिए। इसलिए 22 महीने बाद 2005 में मैंने स्वतः ही बिहारी जी के मंदिर के रिसीवर पद से त्यागपत्र दे दिया। मैं ऋणी हूँ बिहारी जी का, संतों का, अपने ब्रजवासी बंधुओं का व बाहर से आने वाले दर्शनार्थियों का, जिन्होंने इस कार्यकाल में मेरी विनम्र सेवा को स्वीकार किया और सराहा। अगर मंदिर के सभी आदरणीय गोस्वामीगण 2003-05 में मंदिर की व्यवस्थाओं को स्थाई रूप से सुधारने के लिए निष्काम भावना से किए जा रहे मेरे ठोस प्रयासों में सहयोग करते तो कदाचित ये स्थिति न आती।