टीवी बहसों का इतिहास भारत में 1990 के दशक से जुड़ा है , जब निजी चैनलों का आगमन हुआ। शुरू में ये बहसें मुद्दों पर तथ्यपरक चर्चा का माध्यम थीं, लेकिन आज वे एक शोरगुल भरी जंग बन चुकी हैं। विभिन्न अध्ययनों और रिपोर्टों से स्पष्ट है कि भारतीय टीवी डिबेट्स में आक्रामकता और विषाक्त भाषा का स्तर चिंताजनक रूप से बढ़ा है। एक शोध के अनुसार, बहसों में एंकरों द्वारा आक्रामक लहजे का इस्तेमाल 80 प्रतिशत से अधिक होता है, जो दर्शकों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। ये आंकड़े बताते हैं कि बहसें अब सूचना का स्रोत नहीं, बल्कि प्रचार का हथियार बन चुकी हैं।
राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं द्वारा अपमानजनक भाषा का उपयोग इस समस्या का केंद्रीय बिंदु है। एक बहस के दौरान एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रवक्ता को दूसरी पार्टी के प्रवक्ता द्वारा ‘जयचंद’ और ‘गद्दार’ कहा गया, जिसे सुनकर उस प्रवक्ता को हार्ट अटैक हुआ और उनकी मृत्यु हो गई। यह घटना टीवी डिबेट्स की विषाक्तता का जीता-जागता उदाहरण है। इसी तरह अन्य प्रवक्ता ने एक दूसरे प्रवक्ता को ‘नाली का कीड़ा’, ‘दादी मां’, ‘वैंप’ कहा या ‘उल्टा टाँग दूंगा’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते पाए गए हैं। एक प्रवक्ता ने तो बहस के दौरान दूसरे प्रवक्ता पर हाथ भी उठा दिया।
यह समस्या बढ़ रही है कम नहीं हुई। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में एक टीवी बहस के दौरान एक नेता पर कुर्सी फेंकी गई, जिसके बाद एफआईआर भी दर्ज हुई। नवंबर 2024 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक टीवी चैनल को एक प्रवक्ता के खिलाफ अपमानजनक क्लिप हटाने का आदेश दिया। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि अपमान अब शारीरिक हिंसा तक पहुंच गया है। राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे प्रवक्ताओं को चुना जाना भी एक चिंताजनक बात है। अधिकांश प्रवक्ता राजनीतिक अनुभव की कमी रखते हैं और केवल टीवी पर चिल्लाने के लिए नियुक्त होते हैं। यदि राजनैतिक दल द्वारा योग्य प्रवक्ताओं को चुना गया होता, तो बहसें अधिक सभ्य और उत्पादक होतीं। लेकिन वर्तमान में, ये प्रवक्ता दलों के चेहरे बन चुके हैं, जो विचारधारा के बजाय व्यक्तिगत हमलों पर निर्भर हैं।
ऐसे स्तरहीन प्रवक्ताओं को चैनल क्यों आमंत्रित करते हैं? इसका मुख्य कारण टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) है। शोरगुल भरी बहसें दर्शकों को आकर्षित करती रही हैं, क्योंकि वे मनोरंजन का रूप ले लेती हैं। रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि आर्थिक दबावों के कारण ग्राउंड रिपोर्टिंग कम हो गई है और स्टूडियो डिबेट्स ही मुख्य सामग्री बन गई हैं। चैनल जानते हैं कि तर्कपूर्ण चर्चा से दर्शक भागते हैं, लेकिन चीख-पुकार उन्हें बांधे रखती है।
दूसरा कारण राजनीतिक दबाव का उदय है। टाइम मैगजीन के अनुसार, राज्य और पार्टी के विज्ञापन बजट चैनलों को नियंत्रित करते हैं। परिणामस्वरूप, बहसें सत्ता पक्ष को लाभ पहुंचाने वाली बन जाती हैं। विपक्षी प्रवक्ताओं को अपमानित किया जाता है, जबकि सत्ताधारी प्रवक्ताओं को खुली छूट मिलती है। 2022 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनलों को सलाह दी कि वे उत्तेजक भाषा वाली बहसें न दिखाएं। लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। चैनल जानबूझकर ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते हैं जो विवाद पैदा करें, क्योंकि यह सोशल मीडिया पर वायरल होता है और चैनल की पहुंच बढ़ाता है।
ऐसी बहसों के सामाजिक प्रभाव गंभीर हैं। वे समाज को ध्रुवीकृत करती हैं, विशेषकर हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर। एक शोध के अनुसार, बहसें 'फिक्स्ड मैच' की तरह होती हैं, जहां अपमान और झगड़े पूर्वनियोजित होते हैं। मुस्लिम पैनलिस्टों को 'एंटी-नेशनल' कहा जाता है, जो सांप्रदायिक हिंसा को भड़काता है। ‘गल्फ न्यूज’ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के चैनल मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैला रहे हैं। युवाओं का एक वर्ग, जो रोजगार और शिक्षा चाहता है, इन बहसों से प्रभावित होकर हिंसक हो रहा है। लोकतंत्र में संवाद आवश्यक है, लेकिन यह विषाक्त संवाद समाज को कमजोर कर रहा है।
चैनल और एंकरों की जिम्मेदारी यहां महत्वपूर्ण है। वे मॉडरेटर हैं, न कि भागीदार। लेकिन अधिकांश एंकर, खुद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं। रेडिफ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि बहसें 'विषैली' हो चुकी हैं। एंकर विपक्ष को बोलने न देकर, मात्र समय काटते हैं। यदि चैनल सख्त कोड ऑफ कंडक्ट लागू करें, तो स्थिति सुधर सकती है। लेकिन टीआरपी और राजनीतिक लाभ के लालच में वे अनदेखी करते हैं।
समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास जरूरी हैं। सबसे पहले, राजनैतिक दलों को प्रवक्ताओं के चयन में सुधार करना चाहिए। केवल अनुभवी और सभ्य व्यक्तियों को ही टीवी पर भेजा जाए। दूसरा, ‘ट्राई’ और सूचना मंत्रालय को सख्त नियम लागू करने चाहिए, जैसे अपमानजनक भाषा पर तत्काल जुर्माना लगे। तीसरा, दर्शकों को जागरूक होना चाहिए; वे ऐसे चैनलों का बहिष्कार करें जो सनसनी फैलाते हैं। चौथा, स्वतंत्र मीडिया वॉचडॉग को मजबूत बनाना चाहिए। अंत में, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे यूट्यूब पर तथ्यपरक बहसें बढ़ावा दें, जहां सोशल मीडिया इंगेजमेंट सकारात्मक हो।
भारत की टीवी बहसें लोकतंत्र का मजाक बन चुकी हैं। अपमानजनक प्रवक्ताओं का बोलबाला न केवल बहसों को निरर्थक बनाता है, बल्कि समाज को विभाजित करता है। चैनल और एंकरों को यदि वास्तव में पत्रकारिता का सम्मान करना है, तो उन्हें टीआरपी के पीछे भागना छोड़कर जिम्मेदार संवाद को प्राथमिकता देनी चाहिए। अन्यथा, ये बहसें लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करती रहेंगी। समय आ गया है कि हम एक ऐसे मीडिया की मांग करें जहां तर्क जीते, न कि अपमान। केवल तभी भारत का लोकतंत्र मजबूत होगा।