Monday, June 30, 2014

मोदी सरकार का मूल्यांकन करने में जल्दबाजी न करें

    महंगाई कुछ बढ़ी है और कुछ बढ़ने के आसार हैं। इसी से आम लोगों के बीच हलचल है। जाहिर है कि सीमित आय के बहुसंख्यक भारतीय समाज को देश की बड़ी-बड़ी योजनाओं से कोई सरोकार नहीं होता। उसे तो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में राहत चाहिए। थोड़ी-सी हलचल उसे विचलित कर देती है। फिर कई छुटभइये नेताओं को भड़काने का मौका मिल जाता है। यह सही है कि जब-जब महंगाई बढ़ती है, विपक्षी दल उसके खिलाफ शोर मचाते हैं। पर इस बार परिस्थितियां फर्क हैं। नरेंद्र मोदी को सत्ता संभाले अभी एक महीना भी नहीं हुआ। इतने दिन में तो देश की नब्ज पकड़ना तो दूर प्रधानमंत्री कार्यालय और अपने मंत्रीमंडल को काम पर लगाना ही बड़ी जिम्मेदारी है। फिर दूरगामी परिणाम वाले नीतिगत फैसले लेने का तो अभी वक्त ही कहां मिला है।
    वैसे भी अगर देखा जाए तो आजादी के बाद पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी है। अब तक जितनी भी सरकारें बनीं, वे या तो कांग्रेस की थीं या कांग्रेस से निकले हुए नेताओं की थी। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार भी उन बैसाखियों के सहारे टिकी थी, जिनके नेता कांग्रेस की संस्कृति में पले-बढ़े थे। इसलिए उसे भी गैर कांग्रेसी सरकार नहीं माना जा सकता। जबकि नरेंद्र मोदी की सरकार पूरी तरह गैर कांग्रेसी है और संघ और भाजपा की विचारधारा से निर्देशित है। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सरकार अपनी नीतियों और कार्यशैली में कुछ ऐसा जरूर करेगी, जो पिछली सरकारों से अलग होगा, मौलिक होगा और देशज होगा। जरूरी नहीं कि उससे देश को लाभ ही हो। कभी-कभी गलतियां करके भी आगे बढ़ा जाता है। पर महत्वपूर्ण बात यह होगी कि देश को एक नई सोच को समझने और परखने का मौका मिलेगा।
    नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर सबसे बड़ा आरोप यह लग रहा है कि इसके मंत्रिमंडल में नौसिखियों की भरमार है। इसलिए इस सरकार से कोई गंभीर फैसलों की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह सोच सरासर गलत है। आज दुनिया के औद्योगिक जगत में महत्वपूर्ण निर्णय लेने की भूमिका में नौजवानों की भरमार है। जाहिर है कि ये कंपनियां धर्मार्थ तो चलती नहीं, मुनाफा कमाने के लिए बाजार में आती हैं। ऐसे में अगर नौसिखियों के हाथ में बागडोर सौंप दी जाए, तो कंपनी को भारी घाटा हो सकता है। पर अक्सर ऐसा नहीं होता। जिन नौजवानों को इन औद्योगिक साम्राज्यों को चलाने का जिम्मा सौंपा जाता है। उनकी योग्यता और सूझबूझ पर भरोसा करके ही उन्हें छूट दी जाती है। परिणाम हमारे सामने है कि ऐसी कंपनियां दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रही हैं। मोदी मंत्रिमंडल में जिन्हें नौसिखिया समझा जा रहा है, हो सकता है वे अपने नए विचारों और छिपी योग्यताओं से कुछ ऐसे बुनियादी बदलाव करके दिखा दें, जिसका देश की जनता को एक लंबे अर्से से इंतजार है।
    रही बात महंगाई की तो विशेषज्ञों का मानना है कि सब्सिडी की अर्थव्यवस्था लंबे समय तक नहीं चल सकती। लोगों को परजीवी बनाने की बजाय आत्मनिर्भर बनाने की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके लिए कुछ कड़े निर्णय तो लेने पड़ेंगे। जो शुरू में कड़वी दवा की तरह लगंेगे। पर अंत में हो सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था को निरोग कर दें। हां, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण सवाल कालेधन को लेकर है। कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने के लिए भाजपा ने विदेशों में जमा कालाधन भारत लाने की मुहिम शुरू की थी। जिसे बड़े जोरशोर से बाबा रामदेव ने पकड़ लिया। बाबा ने सारे देश में हजारों जनसभाएं कर और अपने टी.वी. पर हजारों घंटे देशवासियों को भ्रष्टाचार खत्म करने और विदेशों में जमा कालाधन वापिस लाने के लिए कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था। बाबा मोदी सरकार से आश्वासन लेकर फिर से अपने योग और आयुर्वेद के काम में जुट गए हैं। अब यह जिम्मेदारी मोदी सरकार की है कि वह यथासंभव यथाशीघ्र कालाधन विदेशों से भारत लाएं। क्योंकि जैसा कहा जा रहा था कि ऐसा हो जाने पर हर भारतीय विदेशी कर्ज से मुक्त हो जाएगा और अर्थव्यवस्था में भारी मजबूती आएगी। इसके साथ ही देश में भी कालेधन की कोई कमी नहीं है। चाहे राजनैतिक गतिविधियां हों या आर्थिक या फिर आपराधिक, कालेधन का चलन बहुत बड़ी मात्रा में आज भी हो रहा है। इसे रोकने के लिए कर नीति को जनोन्मुख और सरल बनाना होगा। जिससे लोगों में कालाधन संचय के प्रति उत्साह ही न बचे। जिनके पास है, वे बेखौफ होकर कर देकर अपने कालेधन को सफेद कर लें।
    जैसा कि हमने मोदी की विजय के बाद लिखा था, राष्ट्र का निर्माण सही दिशा में तभी होगा, जब हर भारतीय अपने स्तर पर, अपने परिवेश को बदलने की पहल करे। नागरिक ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित हो, इसके लिए प्रधानमंत्री को जनता का विशेषकर युवाओं का राष्ट्रव्यापी आह्वान करना होगा। उन्हें आश्वस्त करना होगा कि अगर वे जनहित में सरकारी व्यवस्था से जवाबदेही या पारदर्शिता की अपेक्षा रखते हैं, तो उन्हें निराशा नहीं मिलेगी। इसकी शुरूआत नरेंद्र भाई ने कर दी है। दिल्ली की तपती गर्मी में ठंडे देशों में दौड़ जाने वाले बड़े अफसर और नेता आज सुबह से रात तक अपनी कुर्सियों से चिपके हैं और लगातार काम में जुटे हैं। क्योंकि प्रधानमंत्री हरेक पर निगाह रखे हुए हैं। उनका यह प्रयास अगर सफल रहा, तो राज्यों को भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। साथ ही नरेंद्र भाई को अब यह ध्यान देना होगा कि जनता की अपेक्षाओं को और ज्यादा न बढ़ाया जाए। जितनी अपेक्षा जनता ने उनसे कर ली हैं, उन्हें ही पूरा करना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए हम सबको थोड़ा सब्र रखना होगा और देखना होगा कि नई सरकार किस तरह बुनियादी बदलाव लाने की तरफ बढ़ रही है।

Monday, June 23, 2014

उतावलेपन से नहीं शुद्ध होंगी गंगा-यमुना

    पर्यावरणप्रेमियों व धर्मावलम्बियों के लिए सुखद अनुभूति है कि 30 वर्ष बाद देश के प्रधानमंत्री ने मां गंगा की सेवा का संकल्प लिया है। 30 वर्ष पहले राजीव गांधी ने भी यही प्रयास किया था। अरबों रूपये खर्च होने के बाद भी गंगा में गिरने वाला प्रदूषण रोका नहीं जा सका। पर यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि नदियों को बचाने की मुहिम में अभी जो सारा ध्यान गंगा पर है, उससे समस्या का हल नहीं निकलेगा। क्योंकि गंगा अपनी सहायक नदियों से ही गंगा है। गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी है यमुना।
    यमुना का भी पौराणिक महात्म्य है। गंगा भगवान के श्रीचरणों से निकली है और भोले शंकर की जटाओं में समा गई। जबकि यमुना यमराज की बहिन है। इसलिए यम के फंदे से बचाती है। भगवान कृष्ण की पटरानी हैं, इसलिए भक्तों की भक्ति बढ़ाती है। ब्रज के देवालयों में अभिषेक के लिए और गुजरात के वल्लभ कुल भक्तों के लिए तो यमुना का महत्व गंगा से भी ज्यादा है। अगर उपयोगिता के लिहाज से देखें तो यमुना का आर्थिक महत्व भी उतना ही है, जितना गंगा का।
    पिछले दो दशकों में गंगा की देखरेख की बात तो हुई, लेकिन कर कोई कुछ खास नहीं पाया। यह बात अलग है कि इतना बड़ा अभियान शुरू करने से पहले जिस तरह के सोच-विचार और शोध की जरूरत पड़ती है, उसे तो कभी किया ही नहीं जा सका। विज्ञान और टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जितनी ज्यादा चर्चा होती रही, उसे ऐसे काम में बड़ी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता था। जबकि जो कुछ भी हुआ, वो ऊपरी तौर पर और फौरीतौर पर हुआ। नारेबाजी ज्यादा हुई और काम कम हुआ।
    इससे यह पता चलता है कि देश की धमनियां मानी जाने वाली गंगा-यमुना जैसे जीवनदायक संसाधनों की हम किस हद तक उपेक्षा कर रहे हैं। इससे हमारे नजरिये का भी पता चलता है। आज यह बात करना इसलिए जरूरी है कि गंगा शुद्धि अभियान की केंद्रीय मंत्री उमा भारती हों, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या गंगा-यमुना के तटों पर बसे भक्त, संत व आम लोग हों। सब इस परियोजना को लेकर न केवल उत्साहित हैं, बल्कि गंभीर भी हैं। इसलिए चेतावनी के बिंदु रेखांकित करना और भी जरूरी हो जाता है।
    यहां यह दर्ज कराना महत्वपूर्ण होगा कि यमुना का पुनरोद्धार करने का मतलब ही होगा लगभग गंगा का पुनरोद्धार करना। क्योंकि अंततोगत्वाः प्रयाग पहुंचकर यमुना का जल गंगा में ही तो गिरने वाला है। इसलिए अगर हम अपना लक्ष्य ऐसा बनाए, जो सुसाध्य हो, तो बड़ी आसनी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यमुना शुद्धीकरण को ही गंगा शुद्धि अभियान का प्रस्थान बिंदु माना जाए। यहां से होने वाली शुरूआत देश के जल संसाधनों के पुनर्नियोजन में बड़ी भूमिका निभा सकती है। अब देश के सामने समस्या यह है कि एक हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी यमुना के शुद्धीकरण के लिए कोई व्यवस्थित योजना हमारे सामने नहीं है। यह बात अलग है कि नई सरकार के ऊपर इस मामले में जल्दी से जल्दी सफलता हासिल करने का जो दवाब है, वो भी सरकारी अमले को उतावला करने को मजबूर कर देता है। जबकि ऐसा उतावलापन कभी भी लाभ नहीं देता। उल्टा संसाधनों की बर्बादी और हताशा को जन्म देता है। मतलब साफ है कि यमुना के लिए हमें गंभीरता से सोच विचार के बाद एक विश्वसनीय योजना चाहिए। ऐसी योजना बनाने के लिए मंत्रालयों के अधिकारियों को गंगा और यमुना को प्रदूषित करने वाले कारणों और उनके निदान के अनुभवजन्य समाधानों का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान की छोड़ो कम से कम तथ्यों की जानकारी तो होनी चाहिए। हैरत की बात है कि यमुना के जल अधिकरण क्षेत्र को ही हम विवाद में डाले हुए हैं। हरियाणा कुछ कह रहा है, उत्तर प्रदेश कुछ कह रहा है और अपनी जीवनरक्षक जरूरतों के दवाब में आकर दिल्ली कुछ और दावा करता है। उधर राजस्थान और हिमाचल भले ही आज इस लड़ाई में शामिल न हों, पर आने वाले वक्त में वे भी यमुना के जल को लेकर लड़ाई में कूदेंगे। तब उनका दवाब अलग से पड़ने वाला है। कुल मिलाकर यमुना के सवाल को लेकर विवादों का ढ़ेर खड़ा है। यह भारत सरकार के लिए आज तक बड़ी चुनौती है। समस्या जटिल तो है ही लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दे दें। अगर यह दावा किया जा रहा है कि आज हमारे पास संसाधनों का इतना टोटा नहीं है कि हम अपने न्यूनतम कार्यक्रम के लिए संसाधनों का प्रबंध न कर सकें, तो यमुना के पुनरोद्धार के लिए किसी भी अड़चन का बहाना नहीं बनाया जा सकता।
अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यमुना की एक विशेषता यह है कि उसे हम कई स्वतंत्र भागों में भी बांट सकते हैं। मसलन, अपने उद्गमस्थल से लेकर ताजेवाला, ताजेवाला से लेकर ओखला और ओखला से लेकर मथुरा। फिर मथुरा के बाद कुछ ही दूर चंबल के इसमें गिरने के बाद यमुना की समस्याएं उतनी नहीं दिखतीं, फिर भी मथुरा से लेकर इलाहबाद तक हम एक भाग और मान सकते हैं। यहां पर अगर हमें यमुना शुद्धीकरण के लिए चरणबद्ध तरीके से कुछ करना हो, तो असली समस्या ओखला से लेकर मथुरा तक की दिखती है। इसी भाग में मारामारी है, प्रदूषण है और यमुना के अस्तित्व का प्रश्न खड़ा है।
इसलिए 400 किलोमीटर के इस खंड में अगर पिछले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए कोई योजना बनायी जाए, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि यमुना के पुनरोद्धार का कार्य तो होगा ही हम गंगा की सहायक नदी के माध्यम से गंगा का भी पुनरोद्धार कर रहे होंगे। इससे भी बड़ी बात यह होगी कि यमुना के माध्यम से देश के जल संसाधनों के प्रबंध के लिए हम एक मॉडल भी तैयार कर रहे होंगे।

Monday, June 9, 2014

सांसद बने अपने क्षेत्र का सी.ई.ओ.


नए चुने गए सांसदों पर इस देश के लिए सही कानून बनाने और जो गलत हो चुका है, उसे ठीक करने की बड़ी जिम्मेदारी है। इसके साथ ही वे अपने संसदीय क्षेत्र के सीईओ भी हैं। यदि वे संसद में और संसद के बाहर समाज की छोटी-छोटी समस्याओं के प्रति सजग और सचेत रहेंगे, तो कोई वजह नहीं कि भारत के करोड़ों मतदाताओं ने जिस विश्वास के साथ उनको इतनी ताकत दी है, उसके बल पर उनकी आशाओं पर खरे न उतरें। वैसे देश में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जब बिना सांसद बने व्यक्तियों ने अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास कार्य किए हैं। फिर उनके पास तो शक्ति भी है, सत्ता भी है और संसाधनों तक उनकी पहुंच भी है। फिर क्यों उनका संसदीय क्षेत्र इतना पिछड़ा रहे?
यह सही है कि देश के 125 करोड़ लोगों की अपेक्षाएं बहुत हैं, जिन्हें बहुत जल्दी पूरा करना आसान नहीं। हर नेता और दल भ्रष्टाचार दूर करने, रोजगार दिलवाने, गरीबी हटाने और आम जनता को न्याय दिलवाने के नारे के साथ सत्ता में अता है। फिर भी इन मोर्चों पर कुछ खास नहीं कर पाता। जनता जल्दी निराश होकर उसके विरूद्ध हो जाती है। इसलिए विकास, जी.डी.पी., आधारभूत ढांचा, निर्माण के साथ आम आदमी के सवालों पर लगातार ध्यान देने की ज़रूरत होगी।
पिछले 3 वर्षों में हमने राजनीति में कुछ ऐसे लोगों का हंगामा झेला जिनका दावा था कि वे भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं। उनके आचरण में जो दोहरापन थी, जो नाटकीयता थी और जो गधेे का सींग पाने की जिद्द थी उसने उन्हें रातोरात सितारा बना दिया। पर जब जनता को असलियत समझ में आई तो सितारे जमीन पर उतर आए। इस प्रक्रिया में वे जबरदस्ती लोकपाल बिल पारित करवा कर देश की प्रशासनिक व्यवस्था पर नाहक बोझ डालकर चले गए। जबकि बिना लोकपाल बने, इसी व्यवस्था में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो लड़ाई 20 वर्ष पहले हमने लड़ी थी। उसके ठोस परिणाम तब भी आए थे और आज भी सर्वोच्च न्यायालय में उनका महत्व बरकरार है। इसलिए सासदों से गुजारिश है कि एक बार फिर चिन्तन करें और ब्लैकमेलिंग के दबाव में आकर पारित किए गए लोकपाल विधेयक की सार्थकता पर विचार करें। बिना इसके भी मौजूदा कानूनों में मामूली सुधार करके भ्रष्टाचार से निपटने का काम किया जा सकता है।
इसी तरह साम्प्रदायिकता और जातिवाद का खेल बहुत हो चुका। देश का नौजवान तरक्की चाहता है। इस चुनाव के परिणाम इसका प्रमाण हैं। 1994-96 में चुनाव सुधारों को लेकर तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन और मैंने साथ-साथ देश में सैकड़ों जन सभाओं को संबोधित किया था। उस समय मुरादाबाद की एक जन सभा में मैंने कहा था कि,‘आप जानते हैं कि मैं एक मुसलमान हूं। मुसलमान वो जिसने खुदा के आगे समर्पण कर दिया है। मैंने भी खुदा के आगे समर्पण किया है। फर्क इतना है कि मैं खुदा को श्रीकृष्ण कहता हूं। मैं एक सिक्ख भी हूं। सिक्ख वो जिसने सत्गुरू की शरण ली हो। चूंकि मैंने एक सतगुरू की शरण ली है इसलिए मैं सिक्ख भी हूं। ईसामसीह बाइबिल में कहते हैं, ‘लव दाई गाड बाई द डैप्थ ऑफ दाई हार्ट’ अपने प्रभु को हृदय की गहराईयों से प्यार करने की कोशिश करों। चूंकि मैं ऐसा करता हूं इसलिए मैं ईसाई भी हूं। जिस दिन मैं जान जाऊंगा कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं कहा जाना है, उस दिन मैं बौद्ध हो जाऊंगा और अगर मैं अपनी इंद्रियों को नियंत्रित कर सकूं तो मैं जिनेन्द्रिय यानी जैन हो जाऊंगा। चूंकि मैं सनातन धर्म के नियमों का पालन करता हूं इसलिए मैं सनातनधर्मी भी हूं। यह है मेरा धर्म।’
जातिवाद से लड़ने के लिए हमें भगवत् गीता की मदद लेनी चाहिए। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि चारों वर्णों की मैंने सृष्टि की है और उन्हें गुण और कर्म के अनुसार बांटा है। जन्म से न कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र है। हाल ही में बाबा रामदेव के संकल्प-पूर्ति महोत्सव में जब मैंने हजारों कार्यकर्ताओं और टीवी के करोड़ों दर्शकों के सम्मुख यही विचार रखे तो मुझे देशभर से बहुत सारे सहमति के सन्देश मिले। मेरा विश्वास है कि अगर हम इस भावना से अपने धर्म, अपनी आस्था और अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना शुरू कर दे ंतो हम साम्प्रदायिक या जातिवादी रह नहीं पाएंगे। श्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व में वह ऊर्जा है कि वे इस विनम्र विचार को देश की जनता के मन में बिठा सकते हैं और इस विष को समाप्त करने की एक पहल कर सकते हैं।
इसी तरह रोज़गार का सवाल है। अमरिका में मंदी के दौर में वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने देश के युवाओं से कहा था कि रोजगार के लिए किसी की तरफ मत ताकों। अपने घर के गैरेज में छोटा सा कारोबार शुरू कर लो। भारत के बेरोजगार नौजवानों के घरों में कार के गैराज नहीं होते। पर हर शहर और कस्बे में खोके लगा कर ये नौजवान साइकिल से मोटर मरम्मत तक के छोटे-छोटे कारोबार खड़े कर लेते हैं। किसी पाॅलिटेकनिक में शिक्षा लिए बिना काम सीख लेते हैं। इन्हें पुलिस और प्रशासन हमेंशा तंग करता है। इनसे पैसे वसूलता है। अगर इन नौजवानों की थोड़ी सी भी व्यवस्थित मदद सरकार कर सके तो देश में करोड़ों नौजवानों की बेरोजगारी खत्म हो सकती है। यह बात छोटी सी है पर इसका असर गहरा पड़ेगा। सरकार से नौकरी की उम्मीद में बैठने वाले नौजवानों की फौज को कोई सरकार संतुष्ट नहीं कर सकती।
देश की योजनाओं के निर्माण में ऐसे खोखले लोग अपने संपर्कों से घुसा दिए जाते हैं जो जमीनी हकीकत को समझे बिना खानापूर्ति की योजनाएं बनवा देते हैं। जिनसे न तो जनता को लाभ होता है और ना ही पैसे का सदुपयोग। जेएनयूआरएम की हजारों करोड की योजनाएं ऐसे ही मूर्खों न तैयार की हैं। इसलिए जमीनी हकीकत नहीं बदलती।
कमाल अतातुर्क जब तुर्की के राष्ट्रपति बने तो तुर्की एक मध्ययुगीन पिछड़ा मुसलमानी समाज था। पर उन्होंने अपने कड़े इरादे से कुछ ही वर्षों में उसे यूरोप के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया। फिर भारत में नरेंद्र मोदी ऐसा क्यों नहीं हो सकते ?

Monday, June 2, 2014

समय बताएगा स्मृति ईरानी की योग्यता

जिस देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था चली आ रही हो कि एम.ए.-पी.एच.डी. की डिग्रियां दस बीस हजार रूपए में बिक रही हों । जिस देश के डिग्री कालेजों में हजारों छात्र भरती हों पर कभी क्लास में ना आते हों क्यूंकि उनके प्रवक्तागण मोटा वेतन ले कर भी पढ़ा न रहे हों । उस देश में स्मृति ईरानी के नाम के पहले अगर डा. लगा होता तो क्या उनकी योग्यता बढ़ जाति ? 
कांग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने भाजपा नेता स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय दिए जाने पर आपत्ति जताई और उनकी शिक्षा पर सवाल खड़े कर नए विवाद को जन्म दे दिया। इस पर भाजपा ने प्रधानमंत्री तक को संचालित करने वाली यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अध्यादेश को बकवास करार देने वाले राहुल गांधी की योग्यता और शिक्षा पूछी। इस पर कांग्रेस को बैकफुट पर जाना पड़ा और मामले को वही दबा दिया गया।
एक कलाकार में जो समाज के प्रति सम्वेंदनशीलता होती है वह आम जन से ज्यादा होती है। इसी कारण कलाकार बड़ी सहजता से अलग अलग तरह के किरदार निभा लेता है। जन आकर्षण का प्रतिनिधित्व कर रहे टीवी धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थीं में तुलसी का किरदार निभाने वाली स्मृति ईरानी ने जनमानस के दिल में एक अच्छी बहू और सास की छवि बनाई। इसके बाद वह भाजपा में पिछले कई वर्षों से सक्रिय होकर संगठन के लिए कार्य रहीं हैं और भाजपा का एक सशक्त चेहरा बनकर उभरी हैं। नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में उन्होंने ‘नमो टी‘ का सुझाव दिया, जो काफी सफल रहा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है, वह संवदेनशील व सतर्क नेता हैं, जो समाज की नब्ज पकड़ने की कुव्वत रखती हैं।
सब जानते हैं कि राजनीति में संवाद का बहुत महत्व होता है। बड़े-बड़े नेता तक अपनी बात आम जनता को समझा नहीं पाते। जबकि स्मृति धाराप्रवाह हिंदी-अंग्रेजी बोलने में पारंगत हैं। जब-जब भाजपा को विषम दौर से गुजरना पड़ा, तब-तब उन्होंने भाजपा का पक्ष मजबूती के साथ रखा। दरअसल उनमें भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता बनने की योग्यता है।
क्या स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय इसलिए नहीं मिलना चाहिए कि वह कम पढ़ी-लिखी हैं। कोई और मंत्रालय दिया होता तो क्या यह सवाल उठता ? क्या उड्ययन मंत्री बनने के लिए पाइलट होना जरूरी है। क्या रक्षा मंत्री बनने के लिए तोप चलानी आनी चाहिए ? और क्या एक डाॅक्टर ही स्वास्थ्य मंत्री बन सकता है ? अगर कोई परिवहन या रेल मंत्री बनाया गया है, तो क्या उसे बस और रेल चलाने की जानकारी होना जरूरी है। मानव संसाधन विकास मंत्री का काम शोध कराना या क्लास में पढ़ाना नहीं होता और न ही उनका स्कॉलर होना जरूरी है। ऐसे हर मामले को जांचने परखने वाले विशेषज्ञों और नौकरशाहों की लंबी फौज स्मृति ईरानी के अधीन मौजूद है। जिनकी सलाह पर वह अपने निर्णय ले सकती हैं। जरूरी यह होगा कि वे देश के शिक्षा संसाधनों में सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों को बैठाएं। आप उन मानव संसाधन विकास मंत्रियों के विषय में क्या कहेंगे, जो अंगूठा छाप लोगों को कुलपति नियुक्त करते आए हैं ? देश में आज उच्च शिक्षा के संसाधनों में सुधार की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी कि प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर ध्यान देने की है। जिसके लिए स्मृति ईरानी के पास पर्याप्त जमीनी अनुभव है।
एक बात और महत्वपूर्ण है कि हजारों वर्ष पूर्व चीन में पहले प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति उनकी शैक्षिक योग्यता या डिग्री के आधार पर नहीं होती थी। प्रत्याशी को अपने जीवन के अनुभव को एक कविता के माध्यम से लिखने को कहा जाता था और उसी काव्य के आधार पर उसकी नियुक्त होती थी। मतलब कि कलात्मक अभिव्यक्ति का धनी व्यक्ति समाज को समझने में देर नहीं लगाता, क्योंकि उसकी संवेदनशीलता बहुत गहरी होती है। इसलिए समाज के पिछड़े वर्गों की शिक्षा के सुधार के लिए स्मृति बहुत कुछ नया कर सकती हैं।
वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत जीवन पर निगाह डालें, तो उनके द्वारा किए गए संघर्ष का पता चलेगा कि शुरूआती दिनों में पांेछा-झाडू लगाकर व छोटे-छोटे काम करके एवं कष्टप्रद जीवन व्यतीत करके वे आज यहां तक पहुंची हैं। उन्होंने गरीबी को काफी करीब से देखा और भोगा है। इसलिए वे गरीबों का दर्द बखूबी समझ सकती हैं। कांग्रेस की परंपरागत सीट रही अमेठी से जब राहुल गांधी के खिलाफ स्मृति ईरानी को लड़ाया गया, तब भी वह पीछे नहीं हटीं और उन्होंने मात्र 25 दिन के अपने चुनाव प्रचार में राहुल गांधी के माथे पर बल डाल दिए। आलम यह हो गया कि पिछले 10 वर्षों से इकतरफा जीत दर्ज करने वाले राहुल गांधी को बूथ-दर-बूथ जाकर एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। जाहिर है स्मृति में राजनैतिक नेतृत्व की क्षमता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर आते ही नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया में अपनी धाक पैदा कर दी है। चुनाव के दौरान भी उनकी यही सूझबूझ काम आयी और एक इतिहास रच गया। नरेंद्र मोदी देश के अब तक सबसे सफल मुख्यमंत्री रहे हैं। कोई भी फैसला वह लेते हैं, उसमें कहीं न कहीं की सोच छिपी रहती है। उनके निर्णय पर इतनी जल्दी सवाल उठाना अब बेमानी होगी। उन्होंने अभी तक जो भी किया है, वह एक अनूठा प्रयोग रहा और सफल भी रहा। अपने शपथ समारोह तक को सार्क सम्मेलन में बदलकर मोदी ने यह बता दिया कि उनका हर कदम दूरदर्शी होता है। ऐसे में मोदी द्वारा स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सौंपना हो सकता है, उनकी कोई दूर की सोच रही हो, बाकी समय बताएगा।

Monday, May 26, 2014

जनता ने छुट्टी पर क्यों भेजा कांग्रेस को

कांग्रेस की हैरतअंगेज हार से उसके दुश्मन ही हैरान है। चुनाव के नतीजों के बाद पता लगा कि कांग्रेस की कमजोरी का अंदाजा लगाने तक में विश्लेषक बुरी तरह से नाकाम रहे।
    इतने आश्चर्यजनक नतीजों के बाद यह विश्लेषण करना समय संगत होगा कि कांग्रेस के साथ ऐसा क्यों हुआ। सबसे पहले कांग्रेस के नेताओं के विश्लेषण पर नजर डाल लें। मसलन मिलिंद देवड़ा का ख्याल है कि राहुल गांधी की चुनावी टीम चुनाव के मामले में अनुभवशून्य थी और उसमें चुनावी राजनीति की समझ ही नहीं थी। देवड़ा के इस बयान से खास हलचल मची है। उनके स्वर में कुछ और स्वर भी मिल रहे हैं। लेकिन यहां पर यह बात भी उतनी महत्वपूर्ण है कि देवड़ा खुद राहुल गांधी के नजदीकी माने जाते थे। क्या यह संभव है कि देवड़ा की बात पर राहुल गांधी गौर न करते रहे हों। बहरहाल, कांग्रेस की अपनी प्रकृति और इतिहास के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि टीम जो भी रही हो और जो भी कोई और टीम बनती, उसके सामने यही चुनौती रहती कि पिछले दो साल से कांग्रेस की छवि जिस तरह से लहूलुहान होती जा रही थी, उसकी मरहम पट्टी कैसे की जाए ?
    छवि प्रबंधन के विशेषज्ञ मानते हैं कि छवि नाश और छवि निर्माण का काम ही ऐसा है कि उसे पल प्रतिपल के आधार पर किया जाता है। पाॅलिसी पैरालिसिस हो या घोटालों के आरोप हों - किसी भी आरोप के प्रतिकार के लिए कांग्रेस कभी भी तत्पर नहीं दिखी। प्रशासनिक स्तर पर भी कोई तत्परता नहीं दिखाई गई। हर दिन एक के बाद एक आरोपों के बाद हुआ यह कि यूपीए सरकार के सामने आरोपों का पहाड़ सा ढे़र खड़ा हो गया ? टीम कैसी भी होती- चाहे विशेषज्ञ होते या राजनीतिक कौशलपटु नेता होते, वे विपक्ष और मीडिया के सामने आरोपों की ढ़ेर सारी फाइलें निपटा ही नहीं सकते थे ? यानी चुनाव के एलान होने के समय स्थिति ऐसी थी कि छवि सुधार का कोई भी उपाय नहीं ढूढ़ा जा सकता था। यानी तब तक चिड़ियां खेत चुग गई थीं।
    अब खुद राहुल गांधी और उनकी टीम के रवैए की पड़ताल भी कर लें। वैसे राहुल गांधी को चुनाव प्रचार की कमान सौंपने में ही इतनी दुविधा दिखाई दी कि विपक्ष खासतौर पर भाजपा ने अपनी प्रचार सामग्री में कांग्रेस को बिना कैप्टन की टीम साबित कर दिया। यानी राहुल गांधी को कमान सौंपे जाने के बावजूद यह संदेश नहीं जा पाया कि कांग्रेस बिना कैप्टन की टीम नहीं है।
    और फिर कांग्रेस का चुनाव प्रचार बचाव की मुद्रा में चला। उसे सत्तारूढ़ दल के रूप में अपनी उपलब्धियां गिनाने के काम में आक्रामक तरीके से लगना था, लेकिन वह पारंपरिक तरीकों से बातें करती रही। जबकि देश का माहौल इतनी तेज तर्रारी का था कि पारंपरिक तरीके उदासी को बढ़ाते रहे।
    होने को तो हो यह भी सकता है कि कांग्रेस ने मान लिया हो कि हालात ऐसे है कि कुछ भी करना बेकार है। इस परिकल्पना के हिसाब से सोचें तो हमें याद रखना चाहिए कि पिछले दो चुनावों में भी ऊपरी तौर पर कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत मजबूत नहीं दिखी थी। लेकिन दोनों बार जनता से उसे साकार बनाने का जनादेश मिला था। कांग्रेस के लिए पिछले दस साल बोनस के तौर पर थे। इधर बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों को बारी-बारी से मौके देने का चलन बढ़ता जा रहा है। इस लिहाज से भी हो सकता है कि कांग्रेस ने इस बार पूर्वानुमान किया हो और तय किया हो कि फिजूल में ज्यादा तत्परता दिखाने से क्या फायदा। इस थ्योरी को मानकर चलें तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने चुनाव लड़ा ही क्यों ? और लड़ा भी तो दूसरे दलों के साथ बड़े पैमाने पर गठबंधन का खेल क्यों नहीं खेला ? इन सवालों के जवाब इस तरह से सोचा जा सकता है कि कांग्रेस ने एक चुनाव से अवकाश की बात सोची होगी। क्योंकि सवा सौ साल के इतिहास वाली पार्टी उस तरह से फैसला नहीं कर सकती। रही गठबंधनों की बात तो कांग्रेस की परेशानी ही उसके सहयोगी दल रहे हैं। इस तरह हम निष्कर्ष निराल सकते हैं कि कांग्रेस ने अपनी घोर से गठबंधन वाली मजबूरियों से भी काफी कुछ निजात पा ली है। यह भी देख लेना चािहए कि इस चुनाव में कांग्रेस को हासिल क्या हुआ? अपनी क्षत-विक्षत छवि को लिए जी रही कांग्रेस को छवि लाभ के लिए विश्राम का मौका मिल गया ? अपनी उपलब्धियों को गिनाने में नाकाम रही कांग्रेस को यह समझाने का मौका मिलेगा क जनता की जो आकांक्षा होती है या उसकी अपेक्षाएं होती हैं, उन्हें पूरा करना कितना मुश्किल होता है। सबसे ज्यादा मजा कांग्रेस को तब आएगा जब वह नई सरकार के कामकाज पर यह टिप्पणी कर रही होगी कि यही तो हम कर रहे थे।

Monday, May 19, 2014

मोदी को न समझने की भूल महेंगी पड़ी

    पिछले 10 वर्षों में पद्मश्री, राज्य सभा की सदस्यता या अपने अखबार या चैनल के लिए आर्थिक मदद की एवज में मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग नरेन्द्र मोदी के ऊपर लगातार हमले करता रहा। 2007 में एक स्टिंग ऑपरेशन भी किया गया। पर यह सब वार खाली गए क्योंकि इस तरह की पत्रकारिता करने वाले इस गलतफहमी में रहे कि जनता मूर्ख है और उनका खेल नहीं समझेगी। पर जनता ने बता दिया कि वह अपनी राय मीडिया से प्रभावित होकर नहीं बल्कि खुद की समझ से बनाती है। पिछले 10 वर्षों में जब-जब किसी मुद्दे पर मीडिया का एक बड़े वर्ग ने मोदी पर हमला बोला तो मैने 22 राज्यों में छपने वाले अपने साप्ताहिक लेखों में इन हमलावरों के खिलाफ कुछ प्रश्न खड़े किए। जिनका मकसद बार-बार यह बताना था कि उनके हर हमले से जनता के बीच मोदी की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। क्योंकि मोदी वो काम कर रहे थे जिनकी जनता को नेता से अपेक्षा होती है। नतीजा सबके सामने हैं। यह बात दूसरी है कि गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले अब मोदी का गुणगान करने में नहीं हिचकेंगे। पर मोदी ने भी ऐसे लोगों की लगातार उपेक्षा कर यह बता दिया कि उन्हें अपने लक्ष्य हासिल करने का जुनून है और वो उसे पा कर ही रहेंगे।
    मोदी को लेकर साम्प्रदायिकता का जो आरोप लगाया गया उसे मुसलमानों की युवा पीढ़ी तक ने नकार दिया। 2010 में गुजरात के दौरे पर जब हर जगह मुसलमानों ने मोदी के काम के तरीके की तारीफ की तो मैंने लेख लिखा, ‘मुसलमानों ने मोदी को वोट क्यों दिया?’ हाल ही में वाराणसी की यात्रा में जब मैंने मुसलमानों से बात की तो पता चला कि पुराने विचारों के मुसलमान मोदी के खिलाफ थे वहीं युवा पीढ़ी ने मोदी के विकास के वायदों पर भरोसा जताया और उसका परिणाम सामने है। मोदी को कट्टर हिन्दूवादी बताने का अभियान चला रहे उन सभी लोगों को मैं यह बताना चाहता हूं कि उन्होंने आज तक हिन्दू धर्म की उदारता को समझने का प्रयास ही नहीं किया है। विविधता में एकता और हर जल को गंगा में मिलाकर गंगाजल बनाने वाली भारतीय संस्कृति न सिर्फ देश के लिए आवश्यक है बल्कि पूरी मानव जाती के लिए सार्थक है। जिसमें धर्माधता की मोई जगह नहीं। मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र मोदी अपने कड़े इरादे और कार्यशैली से भारत के मुसलमानों को भी तरक्की की राह पर ले जाएंगे। तब इन लोगों को पता चलेगा कि बिना मुस्लिम तुष्टिकरण के भी सबका भला किया जा सकता है।
    जब चुनाव परिणाम आ रहे थे तो मैं एक टीवी चैनल पर टिप्पणियां देने के लिए बुलाया गया था। उस वक्त कई साथी विशेषज्ञों ने प्रश्न किए कि मोदी ने जो बड़े-बड़े वायदे किए हैं, उन्हें कैसे पूरा करेंगे? मेरा जवाब था कि जिस तरह उन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद चुनाव में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है वह एक सोची-समझी लंबी रणनीति के कारण हो सका है। ठीक इसी तरह देश की हर बड़ी समस्या के समाधान के लिए मोदी ने चुनाव लड़ने से भी बहुत पहले से अपनी नीतियों के ब्लूप्रिंट तैयार कर रखे हैं। वे हर उस व्यक्ति पर निगाह रखे हुए है जो इन नीतियों के क्रियान्वयन में अच्छे परिणाम ला सकता है। मोदी किसी आईएएस या दल के नेताओं को भी अनावश्यक तरजीह नहीं देते। जिस कार्य के लिए जो व्यक्ति उन्हें योग्य लगता है उसे बुला कर काम और साधन सौप देते हैं। हाल ही में एक टीवी साक्षात्कार में मोदी ने कहा भी कि मैं कुछ नहीं करता केवल अनुभवी और योग्य लोगों को काम सौप देता हूं और वे ही सब काम कर देते हैं।
    अपनी सरकार के मंत्रिमण्डल और प्रमुख सचिवों की सूची वे पहले ही तैयार करे बैठे हैं। मंत्रिमण्डल का गठन होते ही उनकी रफ्तार दिखाई देने लगेगी। पर यहां एक प्रश्न हमें खुद से भी करना चाहिए। एक अकेला मोदी क्या कश्मीर से क्न्या कुमारी और कच्छ से आसाम तक की हर समस्या का हल फौरन दे सकते हैं। शायद देवता भी यह नहीं कर सकते। इसी लिए गंगा मैया की आरती करने के बाद मोदी ने पूरे देश के हर नागरिक का आह्वान किया कि वे अगर एक कदम आगे बढ़ाएंगे तो देश सवा सौ करोड़ कदम आगे बढ़ेगा। पिछले कुछ वर्षों में कुछ निहित स्वार्थों ने, जीवन में दोहरे मापदण्ड अपनाते हुए देश के लोकतंत्र को पटरी से उतारने की भरपूर कोशिश की। उन्हें देश विदेश से भारी आर्थिक सहायता मिली और उन्हें गलतफहमी हो गई कि मोदी के रथ को रोक देंगे। पर खुद उनका ही पत्ता साफ हो गया। उनका ही नहीं 10 साल से सत्ता में रही कांग्रेस का पत्ता साफ हो गया। दरअसल इस देश की जनता को एक मजबूत इरादे वाले नेतृत्व का इंतजार था। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद आज तक देश को ऐसा नेतृत्व नहीं मिला। इसलिए देश मोदी के पीछे खड़ा हो गया। सांसद तो राजीव गांधी के मोदी से ज्यादा जीत कर आए थे। पर एक भले इन्सान होने के बावजूद राजीव गांधी राजनैतिक नासमझी, अनुभवहीनता, कोई राजनैतिक लक्ष्य का न होने के कारण अधूरे मन से राजनीति में आए थे। उन्हें स्वार्थी मित्र मण्डली ने घेर लिया था। इसलिए जल्दी विफल हो गए। जबकि नरेन्द्र मोदी के पास अनुभव, समझ, विश्वसनीयता, कार्यक्षमता और पूर्व निधारित स्पष्ट लक्ष्य है। इसलिए उनकी सफलता को लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। हां यह तभी होगा जब हर नागरिक राष्ट्रनिर्माण के काम में, बिना किसी पारितोषिक की अपेक्षा के, उत्साह से जुट़ेगा। ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना।’ वन्दे मातरम्।

Monday, May 5, 2014

क्या होंगी नई सरकार की चुनौतियां

 क्या राजनीतिक दल इतने चतुर हो गए हैं कि वे अब साफ-साफ वायदा भी नहीं करते ? इस बार के चुनाव का काम कुछ इस किस्म से हुआ है कि यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि नई सरकार के सामने चुनौतियां क्या होगी ?
 
 वैसे तो सभी दलों के लिए बड़ी आसान स्थिति है, क्योंकि किसी ने भी कोई साफ वायदा किया ही नहीं। हद यह हो गई है कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र सिर्फ एक नेग बनकर रह गए। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने चुनाव शुरू होने के बाद ही घोषणा पत्र की औपचारिकता निभाई। बहरहाल यहां घोषणा पत्र या वायदों की बात करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हम भावी सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों का पूर्वानुमान कर रहे हैं।
 
 कांग्रेस क्योंकि सत्ता में है और पिछले 10 साल से है। लिहाजा उसके पास अपनी उपलब्धियां गिनाने का मौका था और यह बताने का मौका था कि अगर वह फिर सत्ता में आयी, तो क्या और करेगी ? मगर वह यह काम ढंग से कर नहीं पायी। उसके चुनाव प्रचार अभियान का तो मतदाताओं को ज्यादा पता तक नहीं चल पाया। वैसे हो यह भी सकता है कि उसने यह तय किया हो कि लोग हमारे पिछले 10 साल के काम देखेंगे और वोट डालते समय उसके मुताबिक फैसला लेंगे, लेकिन उसका ऐसा सोचना प्रयासविहीनता की श्रेणी में ही रखा जाएगा।
 
 उधर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा चाहती तो यूपीए सरकार के कामकाज की समीक्षा करते हुए अपना प्रचार अभियान चला सकती थी। लेकिन पिछले दो साल से यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जिस तरह के आंदोलन और अभियान चलाए गए, उसके बाद उसे लगा कि इसी को इस चुनाव के मुद्दे बनाए जाएं और उसने ऐसा ही किया। इसलिए गुजरात मॉडल का ही प्रचार किया।
 
 चुनाव से पहले देश सुधारने के दावे तो सभी दल करते हैं। पर इस बार नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में घूम-घूमकर जिस तरह की अपेक्षाएं बढ़ाई हैं, उनसे उनके आलोचकों को यह कहने का मौका मिल गया है कि ये सब कोरे सपने हैं। सत्ता हाथ में आई, तो असलियत पता चलेगी। भारत को चलाना और विकास के रास्ते पर ले जाना कोई फूलों की शैय्या नहीं, कांटों भरी राह है। ये लोग गुजरात माॅडल को लेकर भी तमाम तरह की टीका-टिप्पणियां करते आए हैं। खासकर यह कि गुजरात के लोग परंपरा से ही उद्यमी रहे हैं। वहां हजारों साल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता आया है। इसलिए गुजरात की तरक्की में नरेंद्र मोदी को कोई पहाड़ नहीं तोड़ने पडे़। पर भारत के हर राज्य की आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियां भिन्न है।
 
 अब बात आती है कि नई सरकार आते ही कर क्या पायेगी ? यहां पर तीन स्थितियां बनती हैं। पहली-मोदी की सरकार बन ही जाएं, दूसरी-कांग्रेस दूसरे दलों के समर्थन से सरकार बना ले, तीसरी-क्षेत्रीय दल 30-40 प्रतिशत सीटें पाकर कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बना लें। इन तीनों स्थतियों में सबसे ज्यादा दिलचस्प और बहुत ही कौतुहल पैदा करने वाली स्थिति मोदी के प्रधानमंत्री बनने की होगी। मोदी को आते ही देश को गुजरात बनाने का काम शुरू करना होगा, जो इस लिहाज से बड़ा मुश्किल है कि गुजरात जैसा आज है, वैसा गुजरात सदियों से था। पर देश को गुजरात बनाने में सदियां गुजर सकती हैं और फिर सवाल यह भी है कि देश को गुजरात बनाने की ही जरूरत क्यों है ? क्यों नहीं हर राज्य अपने-अपने क्षेत्र की चुनौतियों के लिहाज से व अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के लिहाज से विकास क्यों न करें ? खैर, ये तो सिर्फ एक बात है और ऐसी बात है, जो कि चुनाव प्रचार अभियान के दौरान सपने बेचते समय कही गई थीं। लेकिन उससे ज्यादा बड़ी चुनौती मोदी के सामने यह खड़ी होगी कि वह भ्रष्टाचार और कालेधन के मोर्चे पर क्या करते हैं ? इसके लिए बड़ी सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है, ये दोनों काम विकट और जटिल हैं। जिनके बारे में दुनिया के एक से बढ़कर एक वीर कुछ नहीं कर पाए। रही महंगाई की बात तो कहते हैं कि महंगाई को काबू करें, तो उद्योग व्यापार मुश्किल में आ जाते हैं और बिना उद्योग, व्यापार के विकास की कल्पना फिलहाल तो कोई सोच नहीं पाता। यही कारण है कि मोदी के आलोचकों को उनकी सफलता को लेकर संदेह है। पर इन लोगों को मोदी के प्रधानमंत्री के दावे को लेकर भी संदेह था। अब जब इस दावे को हकीकत में बदलने या ना बदलने में मात्र दो हफ्ते शेष हैं, तो ऐसा लगता है कि इन आलोचकों ने मन ही मन मोदी की विजय स्वीकार कर ली है। इसलिए अब वे उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद विफल होने के कयास लगा रहे हैं। यही मोदी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती है। आलोचकों की उन्हें परवाह नहीं होगी। पर मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चिंता उन्हें जरूर बैचेन करेगी। वही उनके जीवट की सही परीक्षा होगी।
 
 अलबत्ता, अगर सारे आंकलनों को धता बताते हुए भारत का मतदाता कांग्रेस के पक्ष में मतदान करता है, तो अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। अगर कांग्रेस की सरकार बनीं तो उसके सामने अपनी पुरानी योजना, परियोजनाओं को ही आगे बढ़ाने की चुनौती होगी। उसके लिए मनरेगा जैसी योजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का काम होगा। और इस बार भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जो मुश्किलें उसके सामने आईं हैं, उन्हें ठीक-ठाक करने का बड़ा भारी काम चुनौती के रूप में सामने होगा। इंतजार की घड़ियां अब जल्द ही खत्म होने वाली हैं।