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Monday, April 22, 2019

इस चुनाव से क्या बदलेगा?

यूं तो हर चुनाव नये अनुभव कराता है और सबक सिखाता है। पर इस बार का चुनाव कुछ अगल ढंग का है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हिंदू, मुलसमान व पकिस्तान के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है और दूसरी तरफ किसान, मजदूर, बेरोजगार और विकास के नाम पर। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचारमुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं इस बार क्यों वे इन किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं। इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी की इन सब कलाबाजियों से उनके भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि जो उनके पास था, वो भी छीन लिया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा।
पर दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। मोदी जी की इन सब नाकामियाबियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है कि जो वायदे मोदी जी ने 2014 में किये थे, उनमें से एक भी वायदा पूरा नहीं हुआ। बीच चुनाव में यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये, एक उद्दंड और अहंकारी तरीके से सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 5 वर्षों में थोपा गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को कोई लाभ नहीं मिला, बल्कि उसका पहले से ज्यादा नुकसान हो गया। इसके कई कारण हैं।
भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया, जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाईश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।
संघ और भाजपा के अहंकारी हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं।
जहां तक गठबंधन की बात है। देशभर में हुए चुनावों से ये तस्वीर साफ हुई है कि विपक्ष की सरकार भी बन सकती है। अगर ऐसा होता है, तो गठबंधन के साथी दलों को यह तय करना होगा कि उनकी एकजुटता अगले लोकसभा चुनाव तक कायम रहे और आम जनता की उम्मीद पूरी कर पाऐ। आम जनता की अपेक्षाऐं बहुत मामूली होती है, उसे तो केवल सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, फसल का वाजिफ दाम और मंहगाई पर नियंत्रण से मतलब है। अगर ये सब गठबंधन की सरकार आम जनता को दे पाती हैं, तभी उसका चुनाव जीतना सार्थक माना जाऐगा। पर इससे ज्यादा महत्वपूर्णं होगा, उन लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों का पुर्नस्थापन, जिन पर पिछले 5 वर्षों में कुठाराघात किया गया है।
लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाऐ, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग सरकार चलाऐ। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, May 26, 2014

जनता ने छुट्टी पर क्यों भेजा कांग्रेस को

कांग्रेस की हैरतअंगेज हार से उसके दुश्मन ही हैरान है। चुनाव के नतीजों के बाद पता लगा कि कांग्रेस की कमजोरी का अंदाजा लगाने तक में विश्लेषक बुरी तरह से नाकाम रहे।
    इतने आश्चर्यजनक नतीजों के बाद यह विश्लेषण करना समय संगत होगा कि कांग्रेस के साथ ऐसा क्यों हुआ। सबसे पहले कांग्रेस के नेताओं के विश्लेषण पर नजर डाल लें। मसलन मिलिंद देवड़ा का ख्याल है कि राहुल गांधी की चुनावी टीम चुनाव के मामले में अनुभवशून्य थी और उसमें चुनावी राजनीति की समझ ही नहीं थी। देवड़ा के इस बयान से खास हलचल मची है। उनके स्वर में कुछ और स्वर भी मिल रहे हैं। लेकिन यहां पर यह बात भी उतनी महत्वपूर्ण है कि देवड़ा खुद राहुल गांधी के नजदीकी माने जाते थे। क्या यह संभव है कि देवड़ा की बात पर राहुल गांधी गौर न करते रहे हों। बहरहाल, कांग्रेस की अपनी प्रकृति और इतिहास के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि टीम जो भी रही हो और जो भी कोई और टीम बनती, उसके सामने यही चुनौती रहती कि पिछले दो साल से कांग्रेस की छवि जिस तरह से लहूलुहान होती जा रही थी, उसकी मरहम पट्टी कैसे की जाए ?
    छवि प्रबंधन के विशेषज्ञ मानते हैं कि छवि नाश और छवि निर्माण का काम ही ऐसा है कि उसे पल प्रतिपल के आधार पर किया जाता है। पाॅलिसी पैरालिसिस हो या घोटालों के आरोप हों - किसी भी आरोप के प्रतिकार के लिए कांग्रेस कभी भी तत्पर नहीं दिखी। प्रशासनिक स्तर पर भी कोई तत्परता नहीं दिखाई गई। हर दिन एक के बाद एक आरोपों के बाद हुआ यह कि यूपीए सरकार के सामने आरोपों का पहाड़ सा ढे़र खड़ा हो गया ? टीम कैसी भी होती- चाहे विशेषज्ञ होते या राजनीतिक कौशलपटु नेता होते, वे विपक्ष और मीडिया के सामने आरोपों की ढ़ेर सारी फाइलें निपटा ही नहीं सकते थे ? यानी चुनाव के एलान होने के समय स्थिति ऐसी थी कि छवि सुधार का कोई भी उपाय नहीं ढूढ़ा जा सकता था। यानी तब तक चिड़ियां खेत चुग गई थीं।
    अब खुद राहुल गांधी और उनकी टीम के रवैए की पड़ताल भी कर लें। वैसे राहुल गांधी को चुनाव प्रचार की कमान सौंपने में ही इतनी दुविधा दिखाई दी कि विपक्ष खासतौर पर भाजपा ने अपनी प्रचार सामग्री में कांग्रेस को बिना कैप्टन की टीम साबित कर दिया। यानी राहुल गांधी को कमान सौंपे जाने के बावजूद यह संदेश नहीं जा पाया कि कांग्रेस बिना कैप्टन की टीम नहीं है।
    और फिर कांग्रेस का चुनाव प्रचार बचाव की मुद्रा में चला। उसे सत्तारूढ़ दल के रूप में अपनी उपलब्धियां गिनाने के काम में आक्रामक तरीके से लगना था, लेकिन वह पारंपरिक तरीकों से बातें करती रही। जबकि देश का माहौल इतनी तेज तर्रारी का था कि पारंपरिक तरीके उदासी को बढ़ाते रहे।
    होने को तो हो यह भी सकता है कि कांग्रेस ने मान लिया हो कि हालात ऐसे है कि कुछ भी करना बेकार है। इस परिकल्पना के हिसाब से सोचें तो हमें याद रखना चाहिए कि पिछले दो चुनावों में भी ऊपरी तौर पर कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत मजबूत नहीं दिखी थी। लेकिन दोनों बार जनता से उसे साकार बनाने का जनादेश मिला था। कांग्रेस के लिए पिछले दस साल बोनस के तौर पर थे। इधर बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों को बारी-बारी से मौके देने का चलन बढ़ता जा रहा है। इस लिहाज से भी हो सकता है कि कांग्रेस ने इस बार पूर्वानुमान किया हो और तय किया हो कि फिजूल में ज्यादा तत्परता दिखाने से क्या फायदा। इस थ्योरी को मानकर चलें तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने चुनाव लड़ा ही क्यों ? और लड़ा भी तो दूसरे दलों के साथ बड़े पैमाने पर गठबंधन का खेल क्यों नहीं खेला ? इन सवालों के जवाब इस तरह से सोचा जा सकता है कि कांग्रेस ने एक चुनाव से अवकाश की बात सोची होगी। क्योंकि सवा सौ साल के इतिहास वाली पार्टी उस तरह से फैसला नहीं कर सकती। रही गठबंधनों की बात तो कांग्रेस की परेशानी ही उसके सहयोगी दल रहे हैं। इस तरह हम निष्कर्ष निराल सकते हैं कि कांग्रेस ने अपनी घोर से गठबंधन वाली मजबूरियों से भी काफी कुछ निजात पा ली है। यह भी देख लेना चािहए कि इस चुनाव में कांग्रेस को हासिल क्या हुआ? अपनी क्षत-विक्षत छवि को लिए जी रही कांग्रेस को छवि लाभ के लिए विश्राम का मौका मिल गया ? अपनी उपलब्धियों को गिनाने में नाकाम रही कांग्रेस को यह समझाने का मौका मिलेगा क जनता की जो आकांक्षा होती है या उसकी अपेक्षाएं होती हैं, उन्हें पूरा करना कितना मुश्किल होता है। सबसे ज्यादा मजा कांग्रेस को तब आएगा जब वह नई सरकार के कामकाज पर यह टिप्पणी कर रही होगी कि यही तो हम कर रहे थे।

Monday, May 5, 2014

क्या होंगी नई सरकार की चुनौतियां

 क्या राजनीतिक दल इतने चतुर हो गए हैं कि वे अब साफ-साफ वायदा भी नहीं करते ? इस बार के चुनाव का काम कुछ इस किस्म से हुआ है कि यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि नई सरकार के सामने चुनौतियां क्या होगी ?
 
 वैसे तो सभी दलों के लिए बड़ी आसान स्थिति है, क्योंकि किसी ने भी कोई साफ वायदा किया ही नहीं। हद यह हो गई है कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र सिर्फ एक नेग बनकर रह गए। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने चुनाव शुरू होने के बाद ही घोषणा पत्र की औपचारिकता निभाई। बहरहाल यहां घोषणा पत्र या वायदों की बात करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हम भावी सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों का पूर्वानुमान कर रहे हैं।
 
 कांग्रेस क्योंकि सत्ता में है और पिछले 10 साल से है। लिहाजा उसके पास अपनी उपलब्धियां गिनाने का मौका था और यह बताने का मौका था कि अगर वह फिर सत्ता में आयी, तो क्या और करेगी ? मगर वह यह काम ढंग से कर नहीं पायी। उसके चुनाव प्रचार अभियान का तो मतदाताओं को ज्यादा पता तक नहीं चल पाया। वैसे हो यह भी सकता है कि उसने यह तय किया हो कि लोग हमारे पिछले 10 साल के काम देखेंगे और वोट डालते समय उसके मुताबिक फैसला लेंगे, लेकिन उसका ऐसा सोचना प्रयासविहीनता की श्रेणी में ही रखा जाएगा।
 
 उधर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा चाहती तो यूपीए सरकार के कामकाज की समीक्षा करते हुए अपना प्रचार अभियान चला सकती थी। लेकिन पिछले दो साल से यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जिस तरह के आंदोलन और अभियान चलाए गए, उसके बाद उसे लगा कि इसी को इस चुनाव के मुद्दे बनाए जाएं और उसने ऐसा ही किया। इसलिए गुजरात मॉडल का ही प्रचार किया।
 
 चुनाव से पहले देश सुधारने के दावे तो सभी दल करते हैं। पर इस बार नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में घूम-घूमकर जिस तरह की अपेक्षाएं बढ़ाई हैं, उनसे उनके आलोचकों को यह कहने का मौका मिल गया है कि ये सब कोरे सपने हैं। सत्ता हाथ में आई, तो असलियत पता चलेगी। भारत को चलाना और विकास के रास्ते पर ले जाना कोई फूलों की शैय्या नहीं, कांटों भरी राह है। ये लोग गुजरात माॅडल को लेकर भी तमाम तरह की टीका-टिप्पणियां करते आए हैं। खासकर यह कि गुजरात के लोग परंपरा से ही उद्यमी रहे हैं। वहां हजारों साल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता आया है। इसलिए गुजरात की तरक्की में नरेंद्र मोदी को कोई पहाड़ नहीं तोड़ने पडे़। पर भारत के हर राज्य की आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियां भिन्न है।
 
 अब बात आती है कि नई सरकार आते ही कर क्या पायेगी ? यहां पर तीन स्थितियां बनती हैं। पहली-मोदी की सरकार बन ही जाएं, दूसरी-कांग्रेस दूसरे दलों के समर्थन से सरकार बना ले, तीसरी-क्षेत्रीय दल 30-40 प्रतिशत सीटें पाकर कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बना लें। इन तीनों स्थतियों में सबसे ज्यादा दिलचस्प और बहुत ही कौतुहल पैदा करने वाली स्थिति मोदी के प्रधानमंत्री बनने की होगी। मोदी को आते ही देश को गुजरात बनाने का काम शुरू करना होगा, जो इस लिहाज से बड़ा मुश्किल है कि गुजरात जैसा आज है, वैसा गुजरात सदियों से था। पर देश को गुजरात बनाने में सदियां गुजर सकती हैं और फिर सवाल यह भी है कि देश को गुजरात बनाने की ही जरूरत क्यों है ? क्यों नहीं हर राज्य अपने-अपने क्षेत्र की चुनौतियों के लिहाज से व अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के लिहाज से विकास क्यों न करें ? खैर, ये तो सिर्फ एक बात है और ऐसी बात है, जो कि चुनाव प्रचार अभियान के दौरान सपने बेचते समय कही गई थीं। लेकिन उससे ज्यादा बड़ी चुनौती मोदी के सामने यह खड़ी होगी कि वह भ्रष्टाचार और कालेधन के मोर्चे पर क्या करते हैं ? इसके लिए बड़ी सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है, ये दोनों काम विकट और जटिल हैं। जिनके बारे में दुनिया के एक से बढ़कर एक वीर कुछ नहीं कर पाए। रही महंगाई की बात तो कहते हैं कि महंगाई को काबू करें, तो उद्योग व्यापार मुश्किल में आ जाते हैं और बिना उद्योग, व्यापार के विकास की कल्पना फिलहाल तो कोई सोच नहीं पाता। यही कारण है कि मोदी के आलोचकों को उनकी सफलता को लेकर संदेह है। पर इन लोगों को मोदी के प्रधानमंत्री के दावे को लेकर भी संदेह था। अब जब इस दावे को हकीकत में बदलने या ना बदलने में मात्र दो हफ्ते शेष हैं, तो ऐसा लगता है कि इन आलोचकों ने मन ही मन मोदी की विजय स्वीकार कर ली है। इसलिए अब वे उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद विफल होने के कयास लगा रहे हैं। यही मोदी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती है। आलोचकों की उन्हें परवाह नहीं होगी। पर मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चिंता उन्हें जरूर बैचेन करेगी। वही उनके जीवट की सही परीक्षा होगी।
 
 अलबत्ता, अगर सारे आंकलनों को धता बताते हुए भारत का मतदाता कांग्रेस के पक्ष में मतदान करता है, तो अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। अगर कांग्रेस की सरकार बनीं तो उसके सामने अपनी पुरानी योजना, परियोजनाओं को ही आगे बढ़ाने की चुनौती होगी। उसके लिए मनरेगा जैसी योजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का काम होगा। और इस बार भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जो मुश्किलें उसके सामने आईं हैं, उन्हें ठीक-ठाक करने का बड़ा भारी काम चुनौती के रूप में सामने होगा। इंतजार की घड़ियां अब जल्द ही खत्म होने वाली हैं।

Monday, April 28, 2014

जनता शायद मोदी को एक मौका देना चाहती है



दो-तिहाई चुनाव पूरे हुए | एक तिहाई बचे हैं | संकेत ऐसे ही मिल रहे हैं कि मोदी की सरकार केन्द्र में बन जायेगी | हालांकि अंतिम दौर का चुनाव जिन इलाकों में है वहां भाजपा को बड़ी चुनौती है | अगर यह दौर भी मोदी के पक्ष में गया तो उनके प्रधान मंत्री बनने की संभावना प्रबल हो जायेगी | बस इसी बात का खौफ कांग्रेस या तीसरे मोर्चे को सता रहा है | मोदी के गुजरात मॉडल, तानाशाही, एकला चलो रे की नीति और अहंकार जैसे विशेषणों से मोदी पर हमले तेज कर दीये गए हैं | आखिर मोदी का इतना डर क्यों है? पिछले दस वर्षों में जब जब मोदी पर इन मुद्दों को लेकर हमले हुए, हमने हमलावरों को, चाहे वो राजनेता हों या हमारे सहयोगी मीडिया कर्मीं, ये याद दिलाने की कोशिश की, कि मोदी में कोई ऐसा अवगुण नहीं है जिसका प्रदर्शन कांग्रेस समेत अन्य क्षेत्रीय दलों के राजनेताओं या राजवंशों ने पिछले 60 बरस में देश के सामने किया न हो | फिर मोदी पर ही इतने सारे तीर क्यों छोड़े जाते हैं ? इसका जवाब यह है कि मोदी में कुछ ऐसे गुण हैं जिन्हें देश का आम आदमी, नौजवान व सामन्य मुसलमान तक भारत के नेतृत्व में देखना चाहते हैं | मसलन एक मज़बूत व्यक्तित्व, तुरन्त निर्णय लेने कि क्षमता, लक्ष्य निर्धारित करके हासिल करने का जूनून, अपनी आलोचनाओं से बेपरवाह हो कर अपने तय किये मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढते जाना और अपने विरोध में षड्यंत्र करने वालों को उनकी औकात बता देना |

अब इन्हें आप गुण मान लीजिए तो नरेन्द्र मोदी एक सशक्त राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरते हैं और अगर इन्हें अवगुण मने तो एक तानाशाह के रूप में | इस चुनावी माहौल में जनता और खासकर युवाओं ने मोदी के इन्हीं गुणों के कारण भारत का नेतृत्व सौपने का शायद मन बना लिया है | क्योंकि दलों के अंदरूनी लोकतंत्र, सर्वजन हिताय, धर्म निरपेक्षता व गरीबों का विकास आम जनता को थोथे नारे लगते हैं जिन्हें हर दल दोहराता है पर सत्ता आने पर भूल जाता है | मोदी में उन्हें एक ऐसा नेता दिख रहा है जो पिटे हुए नारों से आगे सपने दिखा रहा है और उन सपनों को पूरा करने की अपनी क्षमता का भी किसी न किसी रूप में लगातार प्रदर्शन कर रहा है | इसलिए शायद जनता उन्हें एक मौका देना चाहती है |

मोदी को लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाएं उनके लिए निर्मूल हैं जिन्हें अपनी और भारत की तरक्की देखने कि हसरत है | पर उनके लिए आशंकाएं निर्मूल नहीं है जो ये समझते हैं कि अगर मोदी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं और अपेक्षाओं के मुकाबले थोड़ी बहुत उपलब्धी भी जनता को करा पाते हैं तो उन्हें भविष्य में सत्ता के केन्द्र से जल्दी हिला पाना आसान न होगा | येही उनकी डर का कारण है |

दरअसल देश की जनता जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद के शिकंजे से मुक्त हो कर आर्थिक प्रगति देखना चाहती है जो मौजूदा राजनीतक संस्कृति में उसे नज़र नहीं आता | दल कोई भी क्यों न हो उसका आचरण, कार्यशैली और नीतियां एकसी ही चली आ रही हैं | इसलिए जनता को कोई बड़ा बदलाव दिखाई नहीं देता | ऐसा नहीं है कि मुल्क ने तरक्की नहीं की | हम बहुत आगे आ गए हैं और उसके लिए पिछले 60 वर्ष के नेतृत्व को नकारा नहीं जा सकता | पर हमारी क्षमता और साधनों के मुकाबले यह तरक्की नगण्य है क्योंकि हमने यह तरक्की नाकारा और भ्रष्ट नौकरशाही और आत्मकेंद्रित परिवारवादी राजनीति के बावजूद व्यक्तिगत उद्यम से प्राप्त की है | अगर कहीं देश की प्रशासनिक व्यवस्था जनोन्मुख हो जाति तो हम कबके सुखी और संपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में खड़े हो जाते | यह नहीं हुआ इसीलिए जनता के मन में आक्रोश है और वो इन हालातों को बदलना चाहती है | वह चाहती है एक ऐसा निजाम हो जिसमे उसके हुनर, उसकी काबलियत को आगे बढ़ने का मौका मिले | वो जलालत सहना नहीं चाहती | अगर मोदी उसकी उम्मीदों पर खरे उतरे तो वो उन्हें देश को उठाने का खूब मौका देगी | और नहीं उतरे तो साथ छोड़ने में हिचकेगी नहीं | इसलिए फिलहाल वो फैसला कर चुकी है कि उसे बदलाव चाहिए | अब जो लोग इस रास्ते में रोड़ा अटकाएंगे वो जनता के कोपभाजन बनेंगे | बाकी समय बलवान है | वही बताएगा कि हिन्दुस्तान कि राजनीति का ऊंठ किस करवट बैठेगा |