क्या राजनीतिक दल इतने चतुर हो गए हैं कि वे अब साफ-साफ वायदा भी नहीं करते ? इस बार के चुनाव का काम कुछ इस किस्म से हुआ है कि यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि नई सरकार के सामने चुनौतियां क्या होगी ?
वैसे तो सभी दलों के लिए बड़ी आसान स्थिति है, क्योंकि किसी ने भी कोई साफ वायदा किया ही नहीं। हद यह हो गई है कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र सिर्फ एक नेग बनकर रह गए। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने चुनाव शुरू होने के बाद ही घोषणा पत्र की औपचारिकता निभाई। बहरहाल यहां घोषणा पत्र या वायदों की बात करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हम भावी सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों का पूर्वानुमान कर रहे हैं।
कांग्रेस क्योंकि सत्ता में है और पिछले 10 साल से है। लिहाजा उसके पास अपनी उपलब्धियां गिनाने का मौका था और यह बताने का मौका था कि अगर वह फिर सत्ता में आयी, तो क्या और करेगी ? मगर वह यह काम ढंग से कर नहीं पायी। उसके चुनाव प्रचार अभियान का तो मतदाताओं को ज्यादा पता तक नहीं चल पाया। वैसे हो यह भी सकता है कि उसने यह तय किया हो कि लोग हमारे पिछले 10 साल के काम देखेंगे और वोट डालते समय उसके मुताबिक फैसला लेंगे, लेकिन उसका ऐसा सोचना प्रयासविहीनता की श्रेणी में ही रखा जाएगा।
उधर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा चाहती तो यूपीए सरकार के कामकाज की समीक्षा करते हुए अपना प्रचार अभियान चला सकती थी। लेकिन पिछले दो साल से यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जिस तरह के आंदोलन और अभियान चलाए गए, उसके बाद उसे लगा कि इसी को इस चुनाव के मुद्दे बनाए जाएं और उसने ऐसा ही किया। इसलिए गुजरात मॉडल का ही प्रचार किया।
चुनाव से पहले देश सुधारने के दावे तो सभी दल करते हैं। पर इस बार नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में घूम-घूमकर जिस तरह की अपेक्षाएं बढ़ाई हैं, उनसे उनके आलोचकों को यह कहने का मौका मिल गया है कि ये सब कोरे सपने हैं। सत्ता हाथ में आई, तो असलियत पता चलेगी। भारत को चलाना और विकास के रास्ते पर ले जाना कोई फूलों की शैय्या नहीं, कांटों भरी राह है। ये लोग गुजरात माॅडल को लेकर भी तमाम तरह की टीका-टिप्पणियां करते आए हैं। खासकर यह कि गुजरात के लोग परंपरा से ही उद्यमी रहे हैं। वहां हजारों साल से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता आया है। इसलिए गुजरात की तरक्की में नरेंद्र मोदी को कोई पहाड़ नहीं तोड़ने पडे़। पर भारत के हर राज्य की आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियां भिन्न है।
अब बात आती है कि नई सरकार आते ही कर क्या पायेगी ? यहां पर तीन स्थितियां बनती हैं। पहली-मोदी की सरकार बन ही जाएं, दूसरी-कांग्रेस दूसरे दलों के समर्थन से सरकार बना ले, तीसरी-क्षेत्रीय दल 30-40 प्रतिशत सीटें पाकर कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बना लें। इन तीनों स्थतियों में सबसे ज्यादा दिलचस्प और बहुत ही कौतुहल पैदा करने वाली स्थिति मोदी के प्रधानमंत्री बनने की होगी। मोदी को आते ही देश को गुजरात बनाने का काम शुरू करना होगा, जो इस लिहाज से बड़ा मुश्किल है कि गुजरात जैसा आज है, वैसा गुजरात सदियों से था। पर देश को गुजरात बनाने में सदियां गुजर सकती हैं और फिर सवाल यह भी है कि देश को गुजरात बनाने की ही जरूरत क्यों है ? क्यों नहीं हर राज्य अपने-अपने क्षेत्र की चुनौतियों के लिहाज से व अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के लिहाज से विकास क्यों न करें ? खैर, ये तो सिर्फ एक बात है और ऐसी बात है, जो कि चुनाव प्रचार अभियान के दौरान सपने बेचते समय कही गई थीं। लेकिन उससे ज्यादा बड़ी चुनौती मोदी के सामने यह खड़ी होगी कि वह भ्रष्टाचार और कालेधन के मोर्चे पर क्या करते हैं ? इसके लिए बड़ी सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है, ये दोनों काम विकट और जटिल हैं। जिनके बारे में दुनिया के एक से बढ़कर एक वीर कुछ नहीं कर पाए। रही महंगाई की बात तो कहते हैं कि महंगाई को काबू करें, तो उद्योग व्यापार मुश्किल में आ जाते हैं और बिना उद्योग, व्यापार के विकास की कल्पना फिलहाल तो कोई सोच नहीं पाता। यही कारण है कि मोदी के आलोचकों को उनकी सफलता को लेकर संदेह है। पर इन लोगों को मोदी के प्रधानमंत्री के दावे को लेकर भी संदेह था। अब जब इस दावे को हकीकत में बदलने या ना बदलने में मात्र दो हफ्ते शेष हैं, तो ऐसा लगता है कि इन आलोचकों ने मन ही मन मोदी की विजय स्वीकार कर ली है। इसलिए अब वे उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद विफल होने के कयास लगा रहे हैं। यही मोदी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती है। आलोचकों की उन्हें परवाह नहीं होगी। पर मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चिंता उन्हें जरूर बैचेन करेगी। वही उनके जीवट की सही परीक्षा होगी।
अलबत्ता, अगर सारे आंकलनों को धता बताते हुए भारत का मतदाता कांग्रेस के पक्ष में मतदान करता है, तो अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। अगर कांग्रेस की सरकार बनीं तो उसके सामने अपनी पुरानी योजना, परियोजनाओं को ही आगे बढ़ाने की चुनौती होगी। उसके लिए मनरेगा जैसी योजनाओं के सहारे आगे बढ़ने का काम होगा। और इस बार भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर जो मुश्किलें उसके सामने आईं हैं, उन्हें ठीक-ठाक करने का बड़ा भारी काम चुनौती के रूप में सामने होगा। इंतजार की घड़ियां अब जल्द ही खत्म होने वाली हैं।
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