नए चुने गए सांसदों पर इस देश के लिए सही कानून बनाने और जो गलत हो चुका है, उसे ठीक करने की बड़ी जिम्मेदारी है। इसके साथ ही वे अपने संसदीय क्षेत्र के सीईओ भी हैं। यदि वे संसद में और संसद के बाहर समाज की छोटी-छोटी समस्याओं के प्रति सजग और सचेत रहेंगे, तो कोई वजह नहीं कि भारत के करोड़ों मतदाताओं ने जिस विश्वास के साथ उनको इतनी ताकत दी है, उसके बल पर उनकी आशाओं पर खरे न उतरें। वैसे देश में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जब बिना सांसद बने व्यक्तियों ने अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास कार्य किए हैं। फिर उनके पास तो शक्ति भी है, सत्ता भी है और संसाधनों तक उनकी पहुंच भी है। फिर क्यों उनका संसदीय क्षेत्र इतना पिछड़ा रहे?
यह सही है कि देश के 125 करोड़ लोगों की अपेक्षाएं बहुत हैं, जिन्हें बहुत जल्दी पूरा करना आसान नहीं। हर नेता और दल भ्रष्टाचार दूर करने, रोजगार दिलवाने, गरीबी हटाने और आम जनता को न्याय दिलवाने के नारे के साथ सत्ता में अता है। फिर भी इन मोर्चों पर कुछ खास नहीं कर पाता। जनता जल्दी निराश होकर उसके विरूद्ध हो जाती है। इसलिए विकास, जी.डी.पी., आधारभूत ढांचा, निर्माण के साथ आम आदमी के सवालों पर लगातार ध्यान देने की ज़रूरत होगी।
पिछले 3 वर्षों में हमने राजनीति में कुछ ऐसे लोगों का हंगामा झेला जिनका दावा था कि वे भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं। उनके आचरण में जो दोहरापन थी, जो नाटकीयता थी और जो गधेे का सींग पाने की जिद्द थी उसने उन्हें रातोरात सितारा बना दिया। पर जब जनता को असलियत समझ में आई तो सितारे जमीन पर उतर आए। इस प्रक्रिया में वे जबरदस्ती लोकपाल बिल पारित करवा कर देश की प्रशासनिक व्यवस्था पर नाहक बोझ डालकर चले गए। जबकि बिना लोकपाल बने, इसी व्यवस्था में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो लड़ाई 20 वर्ष पहले हमने लड़ी थी। उसके ठोस परिणाम तब भी आए थे और आज भी सर्वोच्च न्यायालय में उनका महत्व बरकरार है। इसलिए सासदों से गुजारिश है कि एक बार फिर चिन्तन करें और ब्लैकमेलिंग के दबाव में आकर पारित किए गए लोकपाल विधेयक की सार्थकता पर विचार करें। बिना इसके भी मौजूदा कानूनों में मामूली सुधार करके भ्रष्टाचार से निपटने का काम किया जा सकता है।
इसी तरह साम्प्रदायिकता और जातिवाद का खेल बहुत हो चुका। देश का नौजवान तरक्की चाहता है। इस चुनाव के परिणाम इसका प्रमाण हैं। 1994-96 में चुनाव सुधारों को लेकर तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन और मैंने साथ-साथ देश में सैकड़ों जन सभाओं को संबोधित किया था। उस समय मुरादाबाद की एक जन सभा में मैंने कहा था कि,‘आप जानते हैं कि मैं एक मुसलमान हूं। मुसलमान वो जिसने खुदा के आगे समर्पण कर दिया है। मैंने भी खुदा के आगे समर्पण किया है। फर्क इतना है कि मैं खुदा को श्रीकृष्ण कहता हूं। मैं एक सिक्ख भी हूं। सिक्ख वो जिसने सत्गुरू की शरण ली हो। चूंकि मैंने एक सतगुरू की शरण ली है इसलिए मैं सिक्ख भी हूं। ईसामसीह बाइबिल में कहते हैं, ‘लव दाई गाड बाई द डैप्थ ऑफ दाई हार्ट’ अपने प्रभु को हृदय की गहराईयों से प्यार करने की कोशिश करों। चूंकि मैं ऐसा करता हूं इसलिए मैं ईसाई भी हूं। जिस दिन मैं जान जाऊंगा कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं कहा जाना है, उस दिन मैं बौद्ध हो जाऊंगा और अगर मैं अपनी इंद्रियों को नियंत्रित कर सकूं तो मैं जिनेन्द्रिय यानी जैन हो जाऊंगा। चूंकि मैं सनातन धर्म के नियमों का पालन करता हूं इसलिए मैं सनातनधर्मी भी हूं। यह है मेरा धर्म।’
जातिवाद से लड़ने के लिए हमें भगवत् गीता की मदद लेनी चाहिए। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि चारों वर्णों की मैंने सृष्टि की है और उन्हें गुण और कर्म के अनुसार बांटा है। जन्म से न कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र है। हाल ही में बाबा रामदेव के संकल्प-पूर्ति महोत्सव में जब मैंने हजारों कार्यकर्ताओं और टीवी के करोड़ों दर्शकों के सम्मुख यही विचार रखे तो मुझे देशभर से बहुत सारे सहमति के सन्देश मिले। मेरा विश्वास है कि अगर हम इस भावना से अपने धर्म, अपनी आस्था और अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना शुरू कर दे ंतो हम साम्प्रदायिक या जातिवादी रह नहीं पाएंगे। श्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व में वह ऊर्जा है कि वे इस विनम्र विचार को देश की जनता के मन में बिठा सकते हैं और इस विष को समाप्त करने की एक पहल कर सकते हैं।
इसी तरह रोज़गार का सवाल है। अमरिका में मंदी के दौर में वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने देश के युवाओं से कहा था कि रोजगार के लिए किसी की तरफ मत ताकों। अपने घर के गैरेज में छोटा सा कारोबार शुरू कर लो। भारत के बेरोजगार नौजवानों के घरों में कार के गैराज नहीं होते। पर हर शहर और कस्बे में खोके लगा कर ये नौजवान साइकिल से मोटर मरम्मत तक के छोटे-छोटे कारोबार खड़े कर लेते हैं। किसी पाॅलिटेकनिक में शिक्षा लिए बिना काम सीख लेते हैं। इन्हें पुलिस और प्रशासन हमेंशा तंग करता है। इनसे पैसे वसूलता है। अगर इन नौजवानों की थोड़ी सी भी व्यवस्थित मदद सरकार कर सके तो देश में करोड़ों नौजवानों की बेरोजगारी खत्म हो सकती है। यह बात छोटी सी है पर इसका असर गहरा पड़ेगा। सरकार से नौकरी की उम्मीद में बैठने वाले नौजवानों की फौज को कोई सरकार संतुष्ट नहीं कर सकती।
देश की योजनाओं के निर्माण में ऐसे खोखले लोग अपने संपर्कों से घुसा दिए जाते हैं जो जमीनी हकीकत को समझे बिना खानापूर्ति की योजनाएं बनवा देते हैं। जिनसे न तो जनता को लाभ होता है और ना ही पैसे का सदुपयोग। जेएनयूआरएम की हजारों करोड की योजनाएं ऐसे ही मूर्खों न तैयार की हैं। इसलिए जमीनी हकीकत नहीं बदलती।
कमाल अतातुर्क जब तुर्की के राष्ट्रपति बने तो तुर्की एक मध्ययुगीन पिछड़ा मुसलमानी समाज था। पर उन्होंने अपने कड़े इरादे से कुछ ही वर्षों में उसे यूरोप के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया। फिर भारत में नरेंद्र मोदी ऐसा क्यों नहीं हो सकते ?
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