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Monday, December 16, 2019

बलात्कार पर राजनीति क्यों ?

 मोदी जी ने जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो यूपीए सरकार पर हमला करते हुए दिल्ली को ‘रेप राजधानी’ बताया था। अब जब वे प्रधानमंत्री हैं, तो राहुल गांधी भारत को ही ‘रेप देश’ बता रहे हैं। इस पर घमासान छिड़ा है, दोनों प्रमुख दल एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं। मीडिया में शोर मच रहा है। सड़कों पर नौटंकी हो रही है।रैलियाँ, झंडे और प्रदर्शन किये जा रहे हैं। इस सबसे क्या निकलेगा? क्या देश की बहु-बेटियों की इज्जत बच जायेगी? क्या उनके बलात्कार होने बंद हो जाऐंगे? क्या वे बेखौफ होकर अपने गाँव, शहर या सड़क पर निकल सकेंगी? क्या पुलिस बलात्कार के आरोपियों को फुरती से पकड़कर सजा दिलवायेगी? क्या रहीसजादे या नेताओं के अय्याश बेटे कानून और पुलिस के डर से सुधर जाऐंगे? ऐसा कुछ भी नहीं होगा। ये दोनों दल उछल-कूदकर चुप हो जाऐंगे। इससे कुछ नहीं बदलेगा। फिर ये नाटक क्यों? बलात्कार को रोकने में कोई सरकार  अकेली पुलिस सफल नहीं हो सकती। 
क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।

पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।

इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी.वी. चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है।

बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तभी हालात कुछ सुधरेंगे। राजनैतिक दलों की नौटंकी से नही।

Monday, June 24, 2019

मोदी इफैक्ट के फायदे?

जब से  नरेन्द्र मोदी ब्रांड को हर मतदाता के मन में बसाकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भाजपा को अप्रत्याशित विजय दिलाई है, तब से मोदी जी के आलोचकों और विपक्षी दलों को एक भय सता रहा है कि अब मोदी यथाशीघ्र भारत को राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ ले जाऐंगे। उन्हें दूसरा डर इस बात का है कि अब मोदी जी खुल्ल्मखुल्ला अधिनायकवाद की स्थापना करेंगे। उनका ये भी कहना है कि भाजपा के जीते हुए सांसद ये मानते है कि उनकी विजय उनके अपने कृतित्व के कारण नहीं बल्कि मोदी जी के नाम के कारण हुई है। इसलिए उनका तीसरा भय इस बात का है कि ये सभी सांसद संसद में केवल हाथ उठाऐंगे या नारे लगायेंगे। इनसे संसद की बहसों को कोई, गरिमा प्रदान नहीं होगी। इस तरह संसद का स्तर लगातार गिरता जायेगा। हम इन तीनों मुद्दों का विवेचन करेंगे।

जहाँ तक देश को राष्ट्रपति प्रणाली की ओर ले जाने की बात है, तो यह कोई गलत विचार नहीं है। दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों में राष्ट्रपति प्रणाली है और कुछ अपवादों को छोड़कर ठीक-ठाक काम कर रही है। आयाराम-गयाराम की संस्कृति में सांसदों की खरीद-फरोख्त से बनी सरकारें ब्लैकमेल का शिकार होती है। छोटे-छोटे दल अल्पमत की सरकार को समर्थन देने की एवज में कमाऊ मंत्री पद हड़पना चाहते हैं। कैबिनेट की  सामूहिक जिम्मेदारी की बजाय हर सहयोगी दल अपने क्षेत्रीय दल, नेता व क्षेत्र के लिए ही सक्रिय रहता है, बाकी देश के प्रति गंभीर नहीं रहता। ‘हवाला कांड’ के बाद राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को लेकर पूरी रात संसद का अधिवेशन चला, पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जिन दलों और लोगों को आज मोदी जी की मंशा पर संदेह है, उन्होंने पिछले 23 वर्षों में राजनीति की दशा सुधारने के लिए कितने गंभीर प्रयास किये? जब वो ढर्रा देश 72 साल तक ढोता रहा, तो अब एकबार अगर मोदी जी राष्ट्रपति प्रणाली लाकर नया प्रयोग करना चाहें, तो इससे इतनी घबराहट क्यों होनी चाहिए?

राष्ट्रपति प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि पूरे देश की जनता अपनी पंसद के नेता को 5 साल के लिए देश की बागडोर सौंप देती है। ऐसे चुना गया राष्ट्रपति, बिना किसी दबाव के, अपने मंत्रीमंडल का गठन कर सकता है। जाहिरन तब वह अपनी पसंद के और अनुभवी लोगों को किसी भी क्षेत्र से उठाकर मंत्री बना सकता है। जैसा- इस बार मोदी जी ने विदेश मंत्री के संदर्भ में प्रयोग किया। फिर वो व्यक्ति चाहे प्रोफेसर हो, वैज्ञानिक हो, उद्योगपति हो, पत्रकार हो, समाजसेवी हो या रणनीति विशेषज्ञ हो। अमरीका में आज ऐसा ही होता है। इससे कैबिनेट की योग्यता, कार्यक्षमता और निर्णंय लेने की स्वतंत्रता बढ़ जाती है। हां एक नुकसान हो सकता है, अगर राष्ट्रपति अहंकारी हो, अनैतिक आचरण वाला हो या लालची हो, तो वह देश को मटियामैट भी कर सकता है। पर जिसे पूरा देश अपने विवेक से चुनेगा, उससे ऐसे आचरण की उम्मीद कम ही की जा सकती है।

मोदी जी के आलोचकों को डर है कि वे हिटलर या मुसौलनी की तरह धीरे-धीरे अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहे हैं। चुनाव के दौरान व्हाट्सएप्प समूहों में हिटलर की आदतों को लेकर ऐसे कई संदेश प्रचारित किये गये, जिनमें मोदी जी की तुलना हिटलर से की गई। यहां एक बुनियादी फर्क है। हिटलर प्रजाति के अहंकार से ग्रस्त एक गैर आध्यात्मिक व्यक्ति था। जिसकी मंशा विश्व विजेता बनने की थी। जबकि मोदी जी ने योग को विश्वस्तर पर मान दिलाकर, राष्ट्राध्यक्षों को श्रीमद्भगवत्गीता भेंटकर और देश के सभी प्रमुख देवालयों में पूजा अर्चन कर अपने-अपने सनातनी होने का प्रमाण दिया है। निश्चित तौर पर उन्होंने श्रीमद्भागवत् के राजा रहुगण व जड़ भरत संवाद को पढ़ा होगा। जो कल राजा था, वो आज पालकी उठाने वाला बन गया और जो आज सड़क के पत्थर तोड़ता है, वो कल भारत का राष्ट्रपति बन सकता है। जिसने वैदिक दर्शन के इस मूल सिद्धांत को समझ लिया, वह राजा अधिनायकवादी नहीं, राजऋषि बनेगा। अब यह तो समय ही बतायेगा कि मोदी जी स्वान्तः सुखाय अधिनायकवादी बनेंगे या बहुजन हिताय?

मोदी जी की एक शिकायत आम है, जो उनके आलोचक नहीं, बल्कि चाहने वालों के बीच है। उनका नौकरशाही पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होना। जबकि इस देश के तमाम ईमानदार और चरित्रवान व उच्च पदासीन रहे नौकरशाहों ने अपने स्मरणों में बार-बार इस बात पर दुखः प्रगट किया है कि नौकरशाही के तंत्र में उलझ कर वे कुछ भी ठोस और सार्थक नहीं कर पाये। एक घिसीपिटी मशीन का पुर्जा बनकर रह गऐ। यह पीड़ा मेरी भी है। गत 5 वर्षों से बार-बार स्मरण दिलाने के बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय में ब्रज को लेकर मेरी अनुभवजन्य व स्वयंसिद्ध उपलब्धियों पर आधारित चिंताओं पर ध्यान नहीं दिया और आज भी ब्रज का विकास नये पुराने नौकरशाहों पर छोड़ दिया है, जो 5 वर्ष में भी एक भी काम उल्लेखनीय या प्रशंसनीय नहीं कर पाये। अमरीका की प्रगति के पीछे सबसे बड़ा कारण वहां मिलने वाला वो सम्मान है, जो अमरीकी सरकार और समाज हर उस व्यक्ति को देता है, जो अपनी योग्यता सिद्ध कर देता है।

रही बात संसद की। यह सही है कि भाजपा के अधिकतर सांसद अपने काम और नाम की बजाय मोदी जी के नाम पर जीतकर आये हैं। पर इसका अर्थ ये नहीं कि वो किसी गड़रिये की भेडे़ हैं। लाखों लोगों ने उन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है। उनकी बहुत अपेक्षाऐं हैं। जनता से जुड़ाव के बिना कोई नेता बहुत लंबी दूरी तक नहीं चल सकता। न सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर पकड़ जरूरी है, बल्कि राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करने की अपेक्षा देशवासी हर सांसद से करते हैं। ‘निंदक नियरे राखिये’ वाले सिद्धांत में आस्था रखते हुए मोदी जी को चाहिए कि वे अपने सांसदों को यह निर्देश और शिक्षा दें कि वे संसद की बहसों में सक्रिय रहकर अपना योगदान करें और जहाँ आवश्यक हो, अपनी ही सरकार की कमियों की ओर इशारा करने से न चूकें। इससे सरकार की विश्वसनीयता व लोकप्रियता दोनों बढ़ती है। आशा की जानी चाहिए कि मोदी जी अपने आलोचकों की शंकाओं के विरूद्ध एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाऐंगे।

Monday, May 27, 2019

विपक्ष क्यों हारा? मोदी क्यों जीते?

विपक्ष के किसी नेता को इतनी बुरी हार का अंदाजा नहीं था। सभी को लगता था कि मोदी आर्थिक मोर्चे पर और रोजगार के मामले में जिस तरह जन आंकाक्षाओं पर खरे नहीं उतरे, तो आम जनता में अंदर ही अंदर एक आक्रोश पनप रहा है, जो विपक्ष के फायदे में जाऐगा। मोदी के आलोचक राजनैतिक विश्लेषक मानते थे कि मोदी की 170 से ज्यादा सीटें नहीं आऐंगी। हालांकि वे ये भी कहते थे कि मोदी लहर, जो ऊपर से दिखाई दे रही है, अगर वह वास्तविक है, तो मोदी 300 से ज्यादा सीटें ले जाऐंगे।
उनके मन में प्रश्न है कि मोदी क्यों जीते? कुछ नेताओं ने ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है। जबकि ज्यादातर लोग ऐसा मानते हैं कि इस आरोप में कोई दम नहीं है। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं। पर यह भी सही है कि दुनिया के ज्यादतर देश ईवीएम से चुनाव नहीं करवाते। इसलिए विपक्षी दलों की मांग है कि पुरानी व्यवस्था के अनुरूप मत पत्रों से ही मतदान होना चाहिए।
पर जो सबसे महत्वपूर्णं बात विपक्ष नहीं समझा, वो ये कि मोदी ने चुनाव को एक महाभारत की तरह लड़ा और हर वो हथियार प्रयोग किया, जिससे इतनी भारी विजय मिली। सबसे पहले तो इस बार का चुनाव सांसदों का चुनाव नहीं था। अमरीका की तरह राष्ट्रपति चुनने जैसा था। देशभर में लोगों ने अपने संसदीय प्रत्याशी को न देखकर मोदी को वोट दिया। ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ का नारा चरितार्थ हुआ। हर मतदाता के दिलोंदिमाग पर केवल मोदी का चेहरा था। यह अमित शाह और मोदी की रणनीति का सबसे अहम पक्ष था। दूसरी तरफ मोदी को टक्कर देने वाला एक भी नेता, उनके कद का नहीं था। जिससे पूरा देश नेतृत्व करने की अपेक्षा रखता।
यूं तो उ.प्र. में गठबंधन कोई विशेष सफलता हासिल नहीं कर पाया। पर सभी राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर सारे विपक्षी दल एक झंडे और एक नेता के पीछे लामबंद हो जाते, तो उन्हें आज इतनी अपमानजनक पराजय का मुंह न देखना पड़ता। पर ऐसा नहीं हुआ। इससे मतदाता में यह साफ संदेश गया कि जो विपक्ष अपना नेता तक नहीं चुन सकता, जो विपक्ष एक साथ एक मंच पर नहीं आ सकता, वो देश को क्या नेतृत्व देगा। इसलिए जो लोग मोदी की नीतियों से अप्रसन्न भी थे, उनका भी यह कहना था कि ‘विकल्प ही कहाँ है’। इसलिए उन्होंने भी मोदी को वोट दिया।
मोदी की सफलता का एक अन्य कारण यह भी था कि मोदी ने विकास के मुद्दों को छोड़कर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को चुनाव अभियान का मुख्य लक्ष्य बनाया। जब देश की सीमाओं की सुरक्षा की बात आती है, तब हर भारतीय भावुक हो जाता है। ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष हर घर में होने लगता है। इसलिए मतदाता मंहगाई, रोजगार, सामाजिक लाभ की न सोचकर, केवल देश की सुरक्षा पर सोचने लगा और उसे लगा कि इन हालातों में मोदी ही उनकी रक्षा कर सकते हैं।
हिंदू-मुस्लिम का कार्ड भी बेखटक खेला गया। जिससे हिंदूओं का मोदी के पक्ष में क्रमशः झुकाव बढ़ता चला गया और पाकिस्तान को अपनी दुश्मनी का लक्ष्य बनाकर, मतदाताओं के बीच देशभक्ति का जज्बा पैदा किया गया। ऐसा कोई ऐजेंडा विपक्ष नहीं दे पाया, जिस पर समाज का इतना बड़ा झुकाव उनकी तरफ हो पाता। विपक्ष ने भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उठाया, उस पर वह मतदाताओं को आंदोलित नहीं कर पाया। क्योंकि एक तो वे उनसे सीधे जुड़े नहीं थे, दूसरा मुद्दा उठाने वाला विपक्ष ही हमेशा से भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा रहा है।
जहां एक तरफ नीरव मोदी, विजय माल्या, अनिल व मुकेश अंबानी और अडानी जैसे उद्योगपतियों पर मोदी राज में देश लूटने का आरोप लगाया गया, वहीं विपक्ष यह भूल गया कि मोदी ने बड़ी होशियारी से गांवों में अपनी पैठ बनाकर, कुछ ऐसे सीधे लाभ ग्रामवासियों को दिलवा दिए, जिससे उनकी लोकप्रियता गरीबों के बीच बहुत तेजी से बढ़ गई। मसलन गांवों में बिजली और सड़क पहुंचाना, निर्धन लोगों के घर बनवाना और लगभग घर-घर में शौचालय बनवाना। जिन्हें ये मदद मिली, उनका मोदी से खुश होना लाजमी है। पर जिन्हें यह लाभ नहीं मिल पाए, वे इसलिए मोदी का गुणगान करने लगे जिससे कि जल्द ही उनकी बारी भी आ जाऐ। ऐसा एक भी आश्वासन विपक्ष इन गरीब मतदाताओं को नहीं दे पाया।
मोदी या भाजपा की जीत का एक सबसे बड़ा कारण इनकी संगठन क्षमता है। आज भाजपा जैसा संगठन, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसा समर्पित कार्यकर्ता किसी भी राजनैतिक दल के पास नहीं है, जो मतदाताओं को बूथ स्तर तक प्रभावित कर सके। जहां तक संसाधनों की बात है, आज भाजपा के पास अकूत दौलत है। जिससे उसने इन चुनावों को एक महाभारत की तरह लड़ा और जीता।
ये पहला मौका है, जहां संघ प्रेरित भाजपा, अपने आप पूर्णं बहुमत में है। निश्चय ही हर हिंदू को मोदी से अपेक्षा है कि वे अविलंब राम मंदिर का निर्माण करवाऐंगे, धारा 370 और 35 ए समाप्त करेंगे, कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में बसाऐंगे, बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर निकालेंगे और देश के करोड़ों नौजवानों को रोजगार देंगे, जिसका वे जोरदारी से दावा करते आऐ हैं। भारी बहुमत से मोदी को जिताने वाली जनता इनमें से कुछ लक्ष्यों की प्राप्ति अगले 6 महीनों में पूरी होती देखना चाहती है। अब यह बात निर्भर करेगी, परिस्थतियों पर और मोदी जी की इच्छा शक्ति पर, कि वे कितनी जल्दी इन लक्ष्यों की पूत्र्ति कर पाते हैं।

Monday, May 13, 2019

चुनाव का अंतिम दौर

अंतिम चरण का चुनाव बचा है। तस्वीर अभी भी साफ नहीं है। भक्तों को लगता है कि मोदी जी पूर्णं बहुमत लाकर फिर से प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। मगर जमीनी हकीकत कुछ और ही नजर आ रही है। ऐसा लगता है मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने अरबों रूपया खर्च करके और हर हथकंडा अपनाकर लोगों की ब्रेन वॉशिंगकी है, तभी हकीकत और तर्क से बचकर मोदी भक्त उनके नाम की माला जप रहे हैं। मगर कुछ संकेत ऐसे हैं, जो उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। मसलन जिस काशी में घर-घर मोदीऔर हर-हर मोदीका शोर था। जहां मोदी के नामांकनऔर रोड शोपर हवाई जहाज से गुलाब की पंखुड़ियाँ मंगवाकर काशी की सड़को को पाट दिया गया, वहां भी आम आदमी काफी मुखर होकर मोदी की कमियां और वादा खिलाफी बता रहा है। ये बात दूसरी है कि सशक्त उम्मीदवार विरोध में न होने के कारण मोदी की जीत काशी से सुनिश्चित है। पर जिस काशी पर मोदी ने पूरी भारत सरकार को जुटा दिया, उस काशी के समझदार लोगों का खुलकर मोदी विरोध उनके दिल के दर्द को बयान करता है। साफ जाहिर कि मोदी की शोमैनशिप ने लोगों को दिगभ्रमित जरूर किया है, पर उनके दिलों को नहीं छू पाए। इसलिए राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि मोदी की जो हवा समाचार मीडिया और सोशल मीडिया के सहारे बड़े-बड़े पंखे लगवाकर बहाई जा रही है, उसका असर मतदान में नहीं दिखाई देगा। क्योंकि मतदान करते समय मतदाता एक बार यह सोचेगा जरूर कि मोदी ने 5 बरस पहले कितने सपने दिखाए थे और उसमें से उसे क्या हासिल हुआ।
प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों का प्रधानमंत्री कार्यालय को छोड़कर जाना साधारण घटना नहीं है। उन्होंने भी समय रहते, अपने दूसरे विकल्प के लिए रास्ता बनाने का काम शुरू कर दिया है। भारत सरकार के एक मंत्रालय के सचिव ने अपने अधीन कार्य करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों से कहा कि वे कांगे्रस का घोषणा पत्र पढना शुरू कर दें, क्योंकि जल्द ही उस पर काम करना पड़ेगा। भारत के अर्टोनी जनरल के साथ मोदी सरकार का मतभेद भी खुलकर सामने आ गया है। जिस तरह भारत के मुख्य न्यायधीश श्री रंजन गोगोई को महिला उत्पीड़न के मामले में बिना निष्पक्ष जांच के क्लीन चिटदे दी गई। उससे श्री केके वेणु गोपाल नाखुश हैं। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों से लिखकर अनुरोध किया था कि इस जांच समिति में बाहर के सदस्य भी होने चाहिए। वरना निष्पक्ष जांच नहीं हो पाऐगी। उनकी सुनीं नहीं गई और इसलिए वे मोदी सरकार से पल्ला झाड़ने का संकेत दे चुके हैं।
2014 के चुनाव में अरूण शौरी, राजेश जैन जैसे अनेक दिग्गज मोदी के साथ हर मंच पर खड़े थे। पर इस बार ये सब मोदी के मंच से नदारद् हैं। या तो मोदी को अपने अलावा किसी और की जरूरत नहीं महसूस होती या वे अपने हर शुभ चिंतक को इस्तेमाल करके पटकने में कोई संकोच नहीं करते। इस मामले में मोदी और केजरीवाल दोनों एक जैसे हैं। जिनके कंधों पर पैर रखकर चढे, उनके कंधे ही तोड़ दो, तो फिर चुनौती कौन देगा?
सट्टा बाजार और शेयर मार्केट का रूख भी मोदी की हवा के विरूद्ध है। इतना ही नहीं मोदी द्वारा नियुक्त किये गए, तीनों चुनाव आयुक्तों में से एक ने मोदी के खिलाफ फैसला दिया है। इन चुनाव आयुक्त अशोक लवासा का कहना है कि अगर नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषणों में चुनावी आचार्य संहिता का उल्लंघ्न किया है, तो उन्हें भी सजा दी जानी चाहिए।
अगर विपक्षी दलों के स्थाई रूप से समर्थक एकजुट हैं, तो फिर भाजपा उन्हें कैसे हरा पाऐगी? जबकि महागठबंधन की खासियत ही यही है कि उनके समर्पित वोट टस से मस नहीं हुआ करते, जोकि 2014 में हिल गये थे।
एक और बात सुनने में आई है कि अमित शाह ने 80 सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दी है, जिनका न तो उस क्षेत्र में कोई योगदान है और न ही कोई पहचान। ये सब वे लोग बताए जाते है, जो अमित शाह की गणेश प्रदक्षिणा करते आऐ हैं। इसलिए राजनैतिक विश्लेषकों का अंदाजा है कि इनमें से 85 फीसदी उम्मीदवार चुनाव हार जाऐंगे।
दूसरी तरफ भाजपा और संघ के खेमे में भी सुगबुगाहट शुरू हो गई। भाजपा के महासचिव राम माधव का यह कहना कि भाजपा को सरकार बनाने के लिए अनेक सहयोगी दलों की जरूरत पड़ेगी, इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि खुद भाजपा का नेतृत्व अपनी जमीन हिलती हुई देख रहा है। अलबत्ता विपक्षी दलों को इस बात का अंदेशा जरूर है कि अगर ईवीएम की मशीनों में घपला किया गया, तो मोदी फिर से रिकॉर्ड जीत हासिल कर लेंगे। इसी शंका को दूर करने के लिए सभी विपक्षी दल गुहार लगाने सर्वोच्च न्यायालय गऐ थे और उससे मांग की थी कि आधी मशीनों का पर्चियों से मिलान किया जाऐ, जिससे घपले की गुंजाईश न रहे। पर सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी यह महत्वपूर्णं मांग ठुकरा दी। इसलिए विपक्षी खेमों में आशंका बनी हुई है कि कहीं ईवीएम की मशीनों से खिलवाड़ न हो जाऐ।
नाई नाई बाल कितने-जजमान अभी आगे आ जाऐंगे। अब अटकल लगाने का समय बीत गया। 23 मई पास ही है। जब इस चुनाव के नतीजे सामने आ जाऐेंगे। तब तक मतदाता और राजनेताओं के बीच इस तरह की चिंताऐं व्यक्त की जाती रहेंगी।

Monday, April 1, 2019

कैसे सुधरेगी राजनीति की दशा ?


लोकसभा के चुनावों का माहौल है। हर दल अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहा है। जो बड़े और धनी दल है, वे प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए धन भी देते हैं। कुछ ऐसे भी दल हैं, जो उम्मीदवारी की टिकट देने के बदले में करोड़ों रूपये लेकर टिकट बेचते हैं। पता चला है कि एक उम्मीदवार का लोकसभा चुनाव में 5 करोड़ से लेकर 25 करोड़ रूपया या फिर इससे भी ज्यादा खर्च हो जाता है। जबकि भारत के चुनाव आयोग द्वारा एक प्रत्याशी द्वारा खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रूपये निर्धारित की गई है। प्रत्याशी इसी सीमा के भीतर रहकर चुनाव लड़े, इसे सुनिश्चित करने के लिए भारत का चुनाव आयोग हर संसदीय क्षेत्र में तीन पर्यवेक्षक भी तैनात करता है। जो मूलतः भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के वे अधिकारी होते हैं, जो दूसरे प्रांतों से भेजे जाते हैं। चुनाव के दौरान जिला प्रशासन और इन पर्यवेक्षकों की जवाबदेही किसी राज्य या केंद्र सरकार के प्रति न होकर केवल चुनाव आयोग के प्रति होती है। बावजूद इसके नियमों की धज्जियाँ धड़ल्ले से उड़ाई जाती हैं।

इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई ईमानदार व्यक्ति कभी चुनाव लड़ने का सपना भी नहीं देख सकता। क्योंकि चुनाव में खर्च करने को 10-15 करोड़ रूपये उसके पास कभी होंगे ही नहीं। अगर वह व्र्यिक्त यह रूपया शुभचिंतकों से मांगता है, तो वे शुभचिंतक कोई आम आदमी तो होंगे नहीं। वे या तो बड़े उद्योगपति होंगे या बड़े भवन निर्माता या बड़े माफिया। क्योंकि इतनी बड़ी रकम जुऐ में लगाने की हिम्मत किसी मध्यम वर्गीय व्यापारी या कारोबारी की तो हो नहीं सकती। ये बड़े पैसे वाले लोग कोई धार्मिक भावना से चुनाव के प्रत्याशी को दान तो देते नहीं हैं। किसी राजनैतिक विचारधारा के प्रति भी इनका कोई समर्पण नहीं होता। जो सत्ता में होता है, उसकी विचारधारा को ये रातों-रात ओढ़ लेते हैं, जिससे इनके कारोबार में कोई रूकावट न आए। जाहिर है कि इन बड़े पैसे वालों को किसी उम्मीदवार की सेवा भावना के प्रति भी कोई लगाव या श्रद्धा नहीं होती है। तो फिर क्यों ये इतना बड़ा जोखिम उठाते हैं? साफ जाहिर है कि इस तरह का पैसा दान में नहीं बल्कि विनियोग (इनवेस्ट) किया जाता है। पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि चुनाव कोई व्यापार तो नहीं है कि जिसमें लाभ कमाया जाए। तो फिर ये रकम इनवेस्ट हुई है, ऐसा कैसे माना जाए?

उत्तर सरल है। जिस उम्मीदवार पर इतनी बड़ी रकम का दाव लगाया जाता है, उससे निश्चित ही यह अपेक्षा रहती है, कि वह पैसा लगाने वालों की लागत से 10 गुना कमाई करवा दे। इसके लिए उस जीते हुए व्यक्ति को अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके इन धनाढ्यों के जा-बेजा सभी काम करवाने पड़ते हैं। जिनमें से अधिकतर काम नाजायज होते हैं और दूसरों का हक मारकर करवाए जाते हैं। इस तरह चुनाव जीतने के बाद एक व्यक्ति पैसे वालों के जाल में इतना उलझ जाता है कि उसे आम जनता के दुख-दर्द दूर करने का समय ही नहीं मिलता। चुनावों के दौरान यह आमतौर पर सुनने को मिलता है कि वोट मांगने वाले पांच साल में एक बार मुंह दिखाते हैं। इतना ही नहीं जब जीता हुआ प्रत्याशी पैसे वालों के इस मकड़जाल में फंस जाता है, तो स्वाभाविक है कि उसकी भी फितरत इसी तरह पैसा बनाने की हो जाती है। जिससे वह अपने भविष्य को सुरक्षित कर सके। इस तरह अवैध धन लगाने और कमाने का धंधा अनवरत् चलता रहता है। इस चक्की में पिसता है बेचारा आम मतदाता। जिसे आश्वासनों के अलावा शायद ही कभी कुछ मिलता हो। इसीलिए जहां दुनिया के तमाम देश पिछले दशकों में विकास की ऊचाईयों पर पहुंच गऐ, वहीं हमारा आम मतदाता आज आजादी के 72 साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए बेज़ार है।

1994-96 के बीच भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन ने तमाम क्रांतिकारी परिवर्तनों से देश के नेताओं को चुनाव आयोग की हैसियत और ताकत का अंदाजा लगवा दिया था। चूंकि इस पूरी चिंतन प्रक्रिया में मैं भी उनका हर दिन साथी रहा, इसलिए एक-एक कदम जो उन्होंने उठाया, उसमें मेरी भी भूमिका रही। उन्होंने चुनाव सुधारों के लिए एक समानान्तर संस्था देशभक्त ट्रस्टभी पंजीकृत करवाया था, जिसके ट्रस्टी वे स्वयं, उनकी पत्नी श्रीमती जया शेषन, मैं व रोज़ा फिल्म की निर्माता वांसती जी थीं। इस ट्रस्ट का संचालन मेरे दिल्ली कार्यालय से ही होता था। उस दौरान श्री शेषन व मैं साथ-साथ चुनाव सुधारों पर विशाल जनसभाए संबोधित करने देश के हर कोने में हफ्ते में कई बार जाते थे और लोगों को राजनैतिक व्यवस्था सुधारने के इस महायज्ञ में सहयोग करने की अपील करते थे।
दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन सुधारों को उस समय चुनाव आयोग ने भारत की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद को भेजा था उनको संसद की बहसों में उनको काफी कमजोर कर दिया। फिर भी इतना जरूर हुआ कि चुनाव करवाने में जो हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और गुंडागर्दी होती थी, वो लगभग समाप्त हो गई। इसलिए देश आज भी श्री शेषन के योगदान को याद रखता है। पर चुनावों में कालेधन के व्यापक प्रयोग पर रोक नहीं लग पाई। शायद हमारे माननीय सांसद इस रोक के पक्ष में नहीं हैं। यही कारण है कि हर चुनाव पहले से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है। मतदाता बेचारा निरीह होकर खुद को लुटता देखता है और थाने, कचहरी के विवादों में अपने नेता की मदद से ही संतुष्ट हो जाता है, विकास की बात तो शायद ही कहीं होती हो।

Monday, June 2, 2014

समय बताएगा स्मृति ईरानी की योग्यता

जिस देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था चली आ रही हो कि एम.ए.-पी.एच.डी. की डिग्रियां दस बीस हजार रूपए में बिक रही हों । जिस देश के डिग्री कालेजों में हजारों छात्र भरती हों पर कभी क्लास में ना आते हों क्यूंकि उनके प्रवक्तागण मोटा वेतन ले कर भी पढ़ा न रहे हों । उस देश में स्मृति ईरानी के नाम के पहले अगर डा. लगा होता तो क्या उनकी योग्यता बढ़ जाति ? 
कांग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने भाजपा नेता स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय दिए जाने पर आपत्ति जताई और उनकी शिक्षा पर सवाल खड़े कर नए विवाद को जन्म दे दिया। इस पर भाजपा ने प्रधानमंत्री तक को संचालित करने वाली यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अध्यादेश को बकवास करार देने वाले राहुल गांधी की योग्यता और शिक्षा पूछी। इस पर कांग्रेस को बैकफुट पर जाना पड़ा और मामले को वही दबा दिया गया।
एक कलाकार में जो समाज के प्रति सम्वेंदनशीलता होती है वह आम जन से ज्यादा होती है। इसी कारण कलाकार बड़ी सहजता से अलग अलग तरह के किरदार निभा लेता है। जन आकर्षण का प्रतिनिधित्व कर रहे टीवी धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थीं में तुलसी का किरदार निभाने वाली स्मृति ईरानी ने जनमानस के दिल में एक अच्छी बहू और सास की छवि बनाई। इसके बाद वह भाजपा में पिछले कई वर्षों से सक्रिय होकर संगठन के लिए कार्य रहीं हैं और भाजपा का एक सशक्त चेहरा बनकर उभरी हैं। नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में उन्होंने ‘नमो टी‘ का सुझाव दिया, जो काफी सफल रहा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है, वह संवदेनशील व सतर्क नेता हैं, जो समाज की नब्ज पकड़ने की कुव्वत रखती हैं।
सब जानते हैं कि राजनीति में संवाद का बहुत महत्व होता है। बड़े-बड़े नेता तक अपनी बात आम जनता को समझा नहीं पाते। जबकि स्मृति धाराप्रवाह हिंदी-अंग्रेजी बोलने में पारंगत हैं। जब-जब भाजपा को विषम दौर से गुजरना पड़ा, तब-तब उन्होंने भाजपा का पक्ष मजबूती के साथ रखा। दरअसल उनमें भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता बनने की योग्यता है।
क्या स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय इसलिए नहीं मिलना चाहिए कि वह कम पढ़ी-लिखी हैं। कोई और मंत्रालय दिया होता तो क्या यह सवाल उठता ? क्या उड्ययन मंत्री बनने के लिए पाइलट होना जरूरी है। क्या रक्षा मंत्री बनने के लिए तोप चलानी आनी चाहिए ? और क्या एक डाॅक्टर ही स्वास्थ्य मंत्री बन सकता है ? अगर कोई परिवहन या रेल मंत्री बनाया गया है, तो क्या उसे बस और रेल चलाने की जानकारी होना जरूरी है। मानव संसाधन विकास मंत्री का काम शोध कराना या क्लास में पढ़ाना नहीं होता और न ही उनका स्कॉलर होना जरूरी है। ऐसे हर मामले को जांचने परखने वाले विशेषज्ञों और नौकरशाहों की लंबी फौज स्मृति ईरानी के अधीन मौजूद है। जिनकी सलाह पर वह अपने निर्णय ले सकती हैं। जरूरी यह होगा कि वे देश के शिक्षा संसाधनों में सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों को बैठाएं। आप उन मानव संसाधन विकास मंत्रियों के विषय में क्या कहेंगे, जो अंगूठा छाप लोगों को कुलपति नियुक्त करते आए हैं ? देश में आज उच्च शिक्षा के संसाधनों में सुधार की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी कि प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर ध्यान देने की है। जिसके लिए स्मृति ईरानी के पास पर्याप्त जमीनी अनुभव है।
एक बात और महत्वपूर्ण है कि हजारों वर्ष पूर्व चीन में पहले प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति उनकी शैक्षिक योग्यता या डिग्री के आधार पर नहीं होती थी। प्रत्याशी को अपने जीवन के अनुभव को एक कविता के माध्यम से लिखने को कहा जाता था और उसी काव्य के आधार पर उसकी नियुक्त होती थी। मतलब कि कलात्मक अभिव्यक्ति का धनी व्यक्ति समाज को समझने में देर नहीं लगाता, क्योंकि उसकी संवेदनशीलता बहुत गहरी होती है। इसलिए समाज के पिछड़े वर्गों की शिक्षा के सुधार के लिए स्मृति बहुत कुछ नया कर सकती हैं।
वहीं दूसरी ओर व्यक्तिगत जीवन पर निगाह डालें, तो उनके द्वारा किए गए संघर्ष का पता चलेगा कि शुरूआती दिनों में पांेछा-झाडू लगाकर व छोटे-छोटे काम करके एवं कष्टप्रद जीवन व्यतीत करके वे आज यहां तक पहुंची हैं। उन्होंने गरीबी को काफी करीब से देखा और भोगा है। इसलिए वे गरीबों का दर्द बखूबी समझ सकती हैं। कांग्रेस की परंपरागत सीट रही अमेठी से जब राहुल गांधी के खिलाफ स्मृति ईरानी को लड़ाया गया, तब भी वह पीछे नहीं हटीं और उन्होंने मात्र 25 दिन के अपने चुनाव प्रचार में राहुल गांधी के माथे पर बल डाल दिए। आलम यह हो गया कि पिछले 10 वर्षों से इकतरफा जीत दर्ज करने वाले राहुल गांधी को बूथ-दर-बूथ जाकर एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। जाहिर है स्मृति में राजनैतिक नेतृत्व की क्षमता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर आते ही नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया में अपनी धाक पैदा कर दी है। चुनाव के दौरान भी उनकी यही सूझबूझ काम आयी और एक इतिहास रच गया। नरेंद्र मोदी देश के अब तक सबसे सफल मुख्यमंत्री रहे हैं। कोई भी फैसला वह लेते हैं, उसमें कहीं न कहीं की सोच छिपी रहती है। उनके निर्णय पर इतनी जल्दी सवाल उठाना अब बेमानी होगी। उन्होंने अभी तक जो भी किया है, वह एक अनूठा प्रयोग रहा और सफल भी रहा। अपने शपथ समारोह तक को सार्क सम्मेलन में बदलकर मोदी ने यह बता दिया कि उनका हर कदम दूरदर्शी होता है। ऐसे में मोदी द्वारा स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सौंपना हो सकता है, उनकी कोई दूर की सोच रही हो, बाकी समय बताएगा।

Monday, May 26, 2014

जनता ने छुट्टी पर क्यों भेजा कांग्रेस को

कांग्रेस की हैरतअंगेज हार से उसके दुश्मन ही हैरान है। चुनाव के नतीजों के बाद पता लगा कि कांग्रेस की कमजोरी का अंदाजा लगाने तक में विश्लेषक बुरी तरह से नाकाम रहे।
    इतने आश्चर्यजनक नतीजों के बाद यह विश्लेषण करना समय संगत होगा कि कांग्रेस के साथ ऐसा क्यों हुआ। सबसे पहले कांग्रेस के नेताओं के विश्लेषण पर नजर डाल लें। मसलन मिलिंद देवड़ा का ख्याल है कि राहुल गांधी की चुनावी टीम चुनाव के मामले में अनुभवशून्य थी और उसमें चुनावी राजनीति की समझ ही नहीं थी। देवड़ा के इस बयान से खास हलचल मची है। उनके स्वर में कुछ और स्वर भी मिल रहे हैं। लेकिन यहां पर यह बात भी उतनी महत्वपूर्ण है कि देवड़ा खुद राहुल गांधी के नजदीकी माने जाते थे। क्या यह संभव है कि देवड़ा की बात पर राहुल गांधी गौर न करते रहे हों। बहरहाल, कांग्रेस की अपनी प्रकृति और इतिहास के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि टीम जो भी रही हो और जो भी कोई और टीम बनती, उसके सामने यही चुनौती रहती कि पिछले दो साल से कांग्रेस की छवि जिस तरह से लहूलुहान होती जा रही थी, उसकी मरहम पट्टी कैसे की जाए ?
    छवि प्रबंधन के विशेषज्ञ मानते हैं कि छवि नाश और छवि निर्माण का काम ही ऐसा है कि उसे पल प्रतिपल के आधार पर किया जाता है। पाॅलिसी पैरालिसिस हो या घोटालों के आरोप हों - किसी भी आरोप के प्रतिकार के लिए कांग्रेस कभी भी तत्पर नहीं दिखी। प्रशासनिक स्तर पर भी कोई तत्परता नहीं दिखाई गई। हर दिन एक के बाद एक आरोपों के बाद हुआ यह कि यूपीए सरकार के सामने आरोपों का पहाड़ सा ढे़र खड़ा हो गया ? टीम कैसी भी होती- चाहे विशेषज्ञ होते या राजनीतिक कौशलपटु नेता होते, वे विपक्ष और मीडिया के सामने आरोपों की ढ़ेर सारी फाइलें निपटा ही नहीं सकते थे ? यानी चुनाव के एलान होने के समय स्थिति ऐसी थी कि छवि सुधार का कोई भी उपाय नहीं ढूढ़ा जा सकता था। यानी तब तक चिड़ियां खेत चुग गई थीं।
    अब खुद राहुल गांधी और उनकी टीम के रवैए की पड़ताल भी कर लें। वैसे राहुल गांधी को चुनाव प्रचार की कमान सौंपने में ही इतनी दुविधा दिखाई दी कि विपक्ष खासतौर पर भाजपा ने अपनी प्रचार सामग्री में कांग्रेस को बिना कैप्टन की टीम साबित कर दिया। यानी राहुल गांधी को कमान सौंपे जाने के बावजूद यह संदेश नहीं जा पाया कि कांग्रेस बिना कैप्टन की टीम नहीं है।
    और फिर कांग्रेस का चुनाव प्रचार बचाव की मुद्रा में चला। उसे सत्तारूढ़ दल के रूप में अपनी उपलब्धियां गिनाने के काम में आक्रामक तरीके से लगना था, लेकिन वह पारंपरिक तरीकों से बातें करती रही। जबकि देश का माहौल इतनी तेज तर्रारी का था कि पारंपरिक तरीके उदासी को बढ़ाते रहे।
    होने को तो हो यह भी सकता है कि कांग्रेस ने मान लिया हो कि हालात ऐसे है कि कुछ भी करना बेकार है। इस परिकल्पना के हिसाब से सोचें तो हमें याद रखना चाहिए कि पिछले दो चुनावों में भी ऊपरी तौर पर कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत मजबूत नहीं दिखी थी। लेकिन दोनों बार जनता से उसे साकार बनाने का जनादेश मिला था। कांग्रेस के लिए पिछले दस साल बोनस के तौर पर थे। इधर बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों को बारी-बारी से मौके देने का चलन बढ़ता जा रहा है। इस लिहाज से भी हो सकता है कि कांग्रेस ने इस बार पूर्वानुमान किया हो और तय किया हो कि फिजूल में ज्यादा तत्परता दिखाने से क्या फायदा। इस थ्योरी को मानकर चलें तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने चुनाव लड़ा ही क्यों ? और लड़ा भी तो दूसरे दलों के साथ बड़े पैमाने पर गठबंधन का खेल क्यों नहीं खेला ? इन सवालों के जवाब इस तरह से सोचा जा सकता है कि कांग्रेस ने एक चुनाव से अवकाश की बात सोची होगी। क्योंकि सवा सौ साल के इतिहास वाली पार्टी उस तरह से फैसला नहीं कर सकती। रही गठबंधनों की बात तो कांग्रेस की परेशानी ही उसके सहयोगी दल रहे हैं। इस तरह हम निष्कर्ष निराल सकते हैं कि कांग्रेस ने अपनी घोर से गठबंधन वाली मजबूरियों से भी काफी कुछ निजात पा ली है। यह भी देख लेना चािहए कि इस चुनाव में कांग्रेस को हासिल क्या हुआ? अपनी क्षत-विक्षत छवि को लिए जी रही कांग्रेस को छवि लाभ के लिए विश्राम का मौका मिल गया ? अपनी उपलब्धियों को गिनाने में नाकाम रही कांग्रेस को यह समझाने का मौका मिलेगा क जनता की जो आकांक्षा होती है या उसकी अपेक्षाएं होती हैं, उन्हें पूरा करना कितना मुश्किल होता है। सबसे ज्यादा मजा कांग्रेस को तब आएगा जब वह नई सरकार के कामकाज पर यह टिप्पणी कर रही होगी कि यही तो हम कर रहे थे।

Monday, April 7, 2014

तुम कौन होते हो नसीहत देने वाले

अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित पत्रिका इकॉनोमिस्ट ने अपने ताजा अंक में भारत के मतदाताओं को आगाह किया है कि वे राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच राहुल गांधी का चुनाव करें। क्योंकि पत्रिका के लेख के अनुसार मोदी हिन्दू मानसिकता के हैं और 2002 के सांप्रदायिक दंगों के जिम्मेदार हैं। पिछले दिनों मैं अमेरिका के सुप्रसिद्ध हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने गया था, वहां भी कुछ गोरे लोगों ने नरेंद्र मोदी के नाम पर काफी नाक-भौ सिकोड़ी।
सब जानते हैं कि पिछले 10 वर्षों से अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को वीज़ा नहीं दिया है। जबकि अमेरिका में ही मोदी को चाहने वालों की, अप्रवासी भारतीयों की और गोरे नेताओं व लोगों की एक बड़ी भारी जमात है, जो मोदी को एक सशक्त नेता के रूप में देखती है। ऐसी टिप्पणियां पढ़ सुनकर हमारे मन में यह सवाल उठना चाहिए कि हम एक संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और अपने नेता का चयन करने के लिए स्वतंत्र हैं, तो यह मुट्ठीभर नस्लवादी लोग हमारे देश के प्रधानमंत्री पद के एक सशक्त दावेदार के विरूद्ध ऐसी नकारात्मक टिप्पणियां करके और सीधे-सीधे हमें उसके खिलाफ भड़काकर क्या हासिल करना चाहते हैं ?
    हमारा उद्देश्य यहां नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी की दावेदारी की तुलना करना नहीं है। हम तो केवल कुछ सवाल खड़े करना चाहते हैं, हम मोदी को चुनें या गांधी को, तुम बताने वाले कौन हो ? अगर तुम मोदी पर हिंसा के आरोप लगाते हों, तो 84 के सिख दंगों की बात क्यों भूल जाते हो, हमारे देश की बात छोड़ो, तुमने वियतनाम, ईराक और अफगानिस्तान में जो नाहक तबाही मचाई है, उसके लिए तुम्हारे कान कौन ख्ींाचेगा ? तुम्हें कौन बताएगा कि जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंकते। हम मां के स्तन का दुग्धपान करें, तो तुम्हारे उदर में पीड़ा होती है और तुम हमें मजबूरन डिब्बे का दूध पिलाकर नाकारा बना देते हो और छह दशक बाद नींद से जागते हो ये बताने के लिए की मां का दूध डिब्बे से बेहतर होता है। हम गोबर की खाद से खेती करें, तो तुम हमें गंवार बताकर कीटनाशक और रसायनिक उर्वरकों का गुलाम बना देते हों और जब इनसे दुनियाभर में कैंसर जैसी बीमारी फैलती हैं, तो तुम जैविक खेती का नारा देकर फिर अपना उल्लू सीधा करने चले आते हो। हम नीबू का शर्बत पिएं, छाछ या लस्सी पिएं, बेल का रस पिएं, तो तुम्हें पचता नहीं, तुम जहरघुला कोलाकोला व पेप्सी पिलाओ, तो हम वाह वाह करें।
    तुम मोदी को हिंदू मानसिकता का बताकर नाकारा सिद्ध करना चाहते हो, पर भूल जाते हो कि यह उसी हिंदू मानसिकता का परिणाम है कि आज पूरी दुनिया योग और ध्यान से अपने जीवन को तबाही से बचा रही है। उसी आयुर्वेद के ज्ञान से मेडिकल साइंस आगे बढ़ रही है। उसी गणित और नक्षत्रों के ज्ञान से तुम्हारा विज्ञान सपनों के जाल बुन रहा है। तुम मानवीय स्वतंत्रता के नाम पर जो उन्मुक्त समाज बना रहे हों, उसमें हताशा, अवसाद, परिवारों की टूटन और आत्महत्या जैसी सामाजिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं, जबकि हिंदूवादी पारंपरिक परिवार व्यवस्था हजारों वर्षों से फल-फूल रही है। इसलिए कोई हिंदूवादी होने से अयोग्य कैसे हो सकता है, यह समझ से परे की बात है। क्या तुमने अपने उन बहुसंख्यक युवाओं से पूछने की कोशिश की है कि दुनिया के तमाम देशों को छोड़कर वो भारत में शांति की खोज में क्यों दौड़े चले आते हैं ?
ऐसा नहीं है कि हिंदू मानसिकता में या नरेंद्र मोदी में कोई कमी न हो और ऐसा भी नहीं है कि पश्चिमी समाज में कोई अच्छाई ही न हो। पर तकलीफ इस बात को देखकर होती है कि तुम गड्ढे में जा रहे हो, तुम्हारा समाज टूट रहा है, नाहक कर्जे में डूब रहा है, पर्यावरण का पाश्विक दोहन कर रहे हो और फिर भी तुम्हारा गुरूर कम नहीं होता। तुम क्यों चैधरी बनते हो ? क्या तुमने नहीं सुना कि अंधे और लंगड़े मित्र ने मिलकर कैसे यात्रा पूरी की। अगर कहा जाए कि हमारी संस्कृति लंगड़ी हो गई है, तो हमें शर्म नहीं आएगी, पर ये कहा जाए कि तुम अंधे होकर दौड़ रहे हो, तो तुम्हें भी बुरा नहीं लगना चाहिए। तुम्हारी प्रबंधकीय क्षमता और हमारी दृष्टि और सोच का अगर मधुर मिलन हो, तो विश्व का कल्याण हो सकता है।
चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या राहुल गांधी या कोई और, यह फैसला तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मतदाता करेगा। पर तुम्हें अपना रवैया बदलना चाहिए। नरेंद्र मोदी परंपरा और आधुनिकता का समन्वय लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। अपने तरीके से राहुल गांधी भी इसी रास्ते पर हैं। हां, दोनों के अनुभव और उपलब्धियों में भारी अंतर है। अगर इस वक्त देश के युवाओं को मोदी से उम्मीद नजर आती है, तो वे मोदी को मौका देंगे। अगर मोदी उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे, तो ली क्वान या कमाल अतातुर्क की तरह हिन्दुस्तान की तस्वीर बदलेंगे और अगर उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, समय को नहीं पहचाना, योग्य-अयोग्य लोगों के चयन में भूल कर गए, तो सत्ता से बाहर भी कर दिए जाएंगे। पर यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की खूबी है कि हम बिना खूनी क्रांति के सत्ता पलट देते हैं। पर तुम जिन देशों की मदद के लिए अपने खजाने लुटा देते हो, वे आज तक लोकतंत्र की देहरी भी पार नहीं कर पाए हैं। पहले उनकी हालत सुधारों, हमें शिक्षा मत दो। हम अपना अच्छा बुरा सोचने में सक्षम हैं और हमने बार-बार यह सिद्ध किया है। आज से 40 वर्ष पहले जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने लौह महिला बनकर पश्चिम को चुनौती दी थी, तब भी तुम इतना ही घबराए थे। आज नरेंद्र मोदी के प्रति तुम्हारा एक तरफा रवैया देखकर उसी घबराहट के लक्षण नजर आते हैं। डरो मत, पूरी दुनिया की मानवजाति की तरक्की की सोचो। उसे बांटने और लूटने की नहीं, तो तुम्हें घबराहट नहीं, बल्कि रूहानी सुकून मिलेगा। ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दें।

Monday, January 20, 2014

कब तक चलेगी राहुल गांधी की दुविधा

17 जनवरी को एक बार फिर कांग्रेस की आलाकमान ने अपने कार्यकर्ताओं को निराश किया। कुछ दिन पहले बंगाल के एक अंग्रेजी दैनिक में प्रमुखता से खबर छपी थी कि राहुल गांधी को जल्दी ही प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है। उसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने 10 साल के कार्यकाल में तीसरे संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए इस खबर को और पक्का कर दिया जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले चुनाव के बाद अगर यूपीए की सरकार आती है, तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे। राहुल गांधी पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि हमारे पास बहुत काबिल युवा नेतृत्व है, जो देश की बागडोर संभाल सकता है। इस के बाद सत्ता के गलियारों में चर्चा जोरों पर थी कि 17 जनवरी के कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित करके राहुल गांधी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाएगा और मनमोहन सिंह अपना इस्तीफा सौंप देंगे। इस खबर के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा था कि प्रधानमंत्री बनकर राहुल गांधी अच्छा चुनाव प्रचार कर पाएंगे। पर 17 जनवरी के अधिवेशन में श्रीमती सोनिया गांधी ने ऐसी सब अटकलों पर विराम लगा दिया।
 
भाजपा को इससे एक बड़ा हथियार मिल गया यह कहने के लिए कि नरेंद्र मोदी के कद के सामने राहुल गांधी का कद खड़ा नहीं हो पा रहा था, इसलिए वे मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। पर कांग्रेस के प्रवक्ता का कहना था कि उनके दल में  चुनाव परिणामों से पहले प्रधानमंत्री पद का कोई नया दावेदार का नाम तय करने की परंपरा नहीं रही है, इसलिए राहुल गांधी के नाम की घोषणा नहीं की गई। कारण जो भी हो राहुल गांधी की छवि आज तक एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन पायी है। फिर वो चाहे उनकी संकोचपूर्ण निर्णय प्रक्रिया हो, या ढीला ढाला परिधान। कभी लंबी दाढ़ी बढ़ी हुई, कभी क्लीन शेव। जो आज तक यह भी तय नहीं कर पाये कि उन्हें देश के सामने कैसा व्यक्तित्व पेश करना है। उनके नाना गुलाब का फूल, जवाहर कट जैकेट, शेरवानी और गांधी टोपी से जाने जाते थे। सुभाषचंद्र बोस फौजी वर्दी से, सरदार पटेल अपनी चादर से, मौलाना आजाद अपनी दाढ़ी व तुर्की टोपी से, इंदिरा गांधी अपने बालों की सफेद पट्टी व रूद्राक्ष की माला से पहचानी जाती थीं। पर राहुल गांधी ने अपनी ऐसी कोई पहचान नहीं बनाई। उनके भाषणों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कोई हड़बड़ाहट में बोल रहा हो। इससे न तो वे वरिष्ठ नागरिकों को प्रभावित कर पाते हैं और न ही युवाओं को।
 
कायदे से तो राहुल गांधी को यूपीए-2 में शुरू से ही उपप्रधानमंत्री का पद ले लेना चाहिए था। जिससे उन्हें अनुभव भी मिलता, गंभीरता भी आती और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी अपने आप बन जाती। लगता है कि राहुल गांधी इस भ्रम में रहे कि अपने पिता की तरह 1984 के चुनाव परिणामों की तर्ज पर वे भी पूर्ण बहुमत पाने के बाद ही प्रधानमंत्री बनेंगे। राजीव गांधी का यह सपना पूरा नहीं हो पाया। अब तो इसकी संभावना और भी कम हो गई है। ऐसे में राहुल गांधी लगता है कि अब तक बहुत घाटे में रहे। अगर ऐसा ही होना था तो शुरू से ही सोनिया गांधी को प्रियंका गांधी को आगे कर देना चाहिए था। प्रियंका गांधी काफी हद तक इस कमी को पूरा कर लेती। क्योंकि लोग उनके व्यक्तित्व में इंदिरा गांधी कि झलक देखते हैं। पर राबट वडेरा के विवाद उठाये जाने के बाद अब वह सम्भावना भी कम हो गयी। वैसे तो यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है। हां यह जरूर है कि राहुल गांधी की दुविधा से नरेंद्र मोदी के लिए राह आसान बनी रही। अब उनके विरोध में कोई सशक्त उम्मीदवार नहीं खड़ा है। आज तो हालत यह है कि देश में काफी तादाद में लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। इनमें वे लोग भी हैं, जो आम आदमी पार्टी जैसे दलों की तरफ टिकट की आस में भाग रह हैं।
 

कांग्रेस की नैय्या डांवाडोल दिखती रही है। और अब तक की स्तिथि की समीक्षा करें तो उसके पार लगने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। वैसे एक अनुभव सिद्ध तथ्य यह भी है कि आज की तेज़ रफतार राजनीति में कब क्या स्तिथियां बनती हैं इसका पूर्वानुमान लगाना भी जोखिम भरा होता है। लोकसभा चुनावों में अभी 4-5 महीने बाकी हैं इस बीच कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष अपनी ऊर्जा कैसे बनाये रखेगा सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है।

Monday, September 30, 2013

राहुल गांधी के बयान से उठे बुनियादी सवाल ?

 
अपराधी प्रवृति के लोगों को नेता बनने से रोकने के मामले में जोर पकड़ लिया है। सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था और उसके बाद अध्यादेश और फिर उसके बाद राहुल गांधी ने जिस तरह से जनाकांक्षाओं के अनुकूल बयान दिया उससे पूरे देश में हलचल है। पिछले दो दिन से मीडिया तो इस बयान को लेकर इतना उत्साहित है कि उसने एक ही सवाल को बार-बार दोहराने की झड़ी लगा दी है। मीडिया और विपक्ष के नेताओं का एक ही यह सवाल है कि राहुल गांधी तीन दिन से कहां थे और इसी से जुड़ा यह सवाल भी है कि जब केबिनेट से इस अध्यादेश का मसौदा पास हो रहा था, तब क्या राहुल गांधी को खबर नहीं मिली ?
 
यानि राहुल गांधी पर आरोप है कि उन्होने 72 घंटे की देर क्यों लगाई ? फिलहाल हम राहुल गांधी को छोड़ कर पहले सुप्रीम कोर्ट बनाम अध्यादेश की बात करेंगे। क्योंकि इससे कई सवालों के जवाब ढूंढने में मदद मिलेगी। संक्षेप में कहे तो सुप्रीम कोर्ट ने दागी नेताओं और भविष्य में दागी लोगों के राजनीति में आने पर पाबंदी के लिए बहुत ज्यादा आगे बढ़कर व्यवस्था कर दी थी। जब यह फैसला सुनाया गया तो इस पर देशभर में सामाजिक स्तर पर गंभीर सोच विचार नहीं किया गया। फैसला तो दिखने में बहुत दमदार था पर इसके राजनैतिक दुरूपयोग की संभावनाओं को तलाशने और दूर करने का काम किया जाना चाहिए था। जो नहीं किया गया। दरअसल हमारे यहां सर्वोच्च अदालत का आज भी इतना सम्मान है कि जनता उसके फैसलों को श्रद्धाभाव से ही स्वीकार करती है। लेकिन यह एक ऐसा मामला था जिसका आगा-पीछा सोचने की बहुत ही ज्यादा जरुरत थी। लेकिन इधर साल भर से नेताओं या पूरी राजनैतिक प्रणाली के इस तरह से धुर्रे उड़ाये जा रहे है कि जनता का नजरिया भी वैसा बनता जा रहा है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को भी खूब वाह-वाही मिली। ऐसा लगा की अपराधियों को राजनीति में घुसने के सभी दरवाजे अब बंद हो जायेंगे। टीवी चैनलों पर विशेषज्ञों ने बढ़-चढ़कर  इस फैसले का स्वागत किया। पूरे देश में फैसले के पक्ष में माहौल बन गया।
 
इस माहौल में इस मुद्दे पर फिर संसद में चर्चा हुई। लेकिन लोकसभा मे जो चर्चा हुई वह इतनी जल्दबाजी में हो गई कि जनमत बनाने का काम ही नहीं हो पाया। जबकि अगर इस मुद्दे पर लंबी और खुली बहस होती और उसे दूरदर्शन पर देश देखता तो गंभीर राजनीतिज्ञों को अपने अंदेशे देशवासियों तक पहुंचाने में मदद मिलती। पर जल्दी में निपटी बहस से यह संदेश यह चला गया कि सारे नेता व प्रमुख विपक्षी दलों के नेता भी अपराधियों को राजनीति में आने से रोकना नहीं चाहते। उसके बाद तो ऐसा माहौल बन गया कि देश के बहुसंख्यक जनप्रतिनिधि सुप्रीम कोर्ट के आदेश या  व्यवस्था से सहमत नहीं हैं। इस तरह यह मामला केबिनेट से एक अध्यादेश के मसौदे के रुप में मंजूर होकर राष्ट्रपति के पास पहुंच गया। राष्ट्रपति भवन को यह अध्यादेश फौरन ही मंजूरी लायक नहीं लगा। तो उन्होंने प्रमुख दलों के नेताओं को बुलवाना शुरु कर दिया। यही से हलचल शुरु हो गई और इसी बीच राहुल गांधी का बयान आ गया।

अब हमारे सामने यह सवाल है कि इस मामले में इतनी जल्दबाजी क्यों हो रही है ? यह अलग बात है कि राहुल गांधी पर यह आरोप लग रहा है कि उन्होंने 72 घंटे की देर क्यों की ? दरअसल इतने गंभीर मामले पर जिसे इस देश की राजनीति का पुश्तैनी रोग कहा जा सकता है। अगर केवल एक कानून बना देने से राजनीति के अपराधीकरण का कोई समाधान निकलना होता तो कब का निकल जाता। अपराधियों से निपटने के लिए तो देश में आज भी तमाम कानून हैं, पर उनसे कोई हल नहीं निकल पाया। इस मामले की जटिलता और बारीकी पर अगर गौर किया जाए तो हमें यह याद करना होगा कि हमारी न्याय प्रणाली की एक प्रतिस्थापना है कि ‘चाहे सौ अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक बेगुनाह को सजा न हो‘। यह उदारवादी प्रतिस्थापना ही दागी नेताओं पर रोक लगाने के मामले को जटिल बनाती है। हालांकि इस मुद्दे पर अकादमिक चर्चा नहीं हुई है। इसीलिए जनता के दिमाग में यह मामला स्पष्ट नहीं हो पाया है। जब सब कुछ तथाकथित ‘जनाकांक्षाओं‘ पर चलकर ही किया जाना है, चाहे वे कितनी भी अव्यवाहरिक क्यों न हों तो फिर देश में विद्वानों और विशेषज्ञों की बात को सुनने को राजी ही कौन है ?
 
अब अगर इस नई व्यवस्था के भविष्य पर पूरी गंभीरता और अपने समाज की सच्चाई के आधार पर नजर डालें तो पूरा अंदेशा है कि भविष्य की राजनीति सिर्फ इस बात पर होगी कि अपने विरोधी दल के नेताओं पर आपराधिक मामले कैसे बनाए जाएं। हमारा अब तक का अनुभव बता रहा है कि आखिर में सत्य की जीत भले ही होती हो लेकिन सच को परेशान कर ड़ालने के सारे मौंके हमारी न्यायिक व्यवस्था में मौजूद हैं। जिनका साधन सम्पन्न लोग आसानी से दुरुपयोग कर सकते हैं। राजनैतिक अपराधियों से निपटना भी तो अपराध शास्त्र का ही विषय है। पर विडम्बना देखिए कि कानून बनाने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी लगभग शून्य है। जनप्रतिनिधिओं और वकीलों के जरिये न्याय का सारा काम निपटाने से जो उथल-पुथल हो सकती हैं, वह हमारे सामने है। यानि अभी भी हम तय नहीं कर पा रहे हैं कि प्रजातंत्र में ‘कथित जनाकांक्षाओं‘ पर ही सब कुछ छोड दिया जाये या जन को निर्णय  लेने में सक्षम बनाने के लिए कुछ विशेषज्ञों की भी मदद ली जाए।