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Monday, October 25, 2021

कैसे सफल हो नई कश्मीर नीति ?


धारा 370 और 35 ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे। विकास की तमाम योजनाएँ चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम व एम्स जैसे नए नए संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुँच गए थे। प्रधान मंत्री मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएँ खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ़ और फ़ौज की सख़्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाज़ी की घटनाएँ और आए दिन होने वाले बंद नदारद हो गए थे। हुरियत जैसे संगठनों पर कसे गए शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गयी थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा यह हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेज़ी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप्प हो गया था। पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लख पर्यटक आया जो की एक रिकॉर्ड है। ज़ाहिर है इससे घाटीकी अर्थव्यवस्था को भी नई ऊर्जा प्राप्त हुई है। यह कहना है जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे डॉ शेष पाल वैद का। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है।


अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमरीका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं। उधर पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है। जग-ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारख़ाने चल रहे हैं और इसी के सहारे वहाँ की राजनीति चल रही है। ताज़ा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ़ को पाकिस्तान की फ़ौज ने प्रधान मंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातों-रात बदल दिया। आईएसआई के नए चीफ़ ने अपनी कश्मीर नीति में फ़ौरन बदलाव किया। क्योंकि पुरानी नीति आब कामयाब नहीं हो रही थी। पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों को और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में घुसा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने अपनी रणनीति बदल दी। 


नई रणनीति में खर्च भी कम है और जान गंवाने का ख़तरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है। जो फ़ौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ़्ट टार्गेटस’ जैसे मज़दूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं। पर इनका असर गहरा पड़ा है। इन हमलों से मजदूरों और साधारण लोगों में अचानक भय व्याप्त हो गया है और एक बार फ़िर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गयी है। इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा। क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कश्मीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मज़दूर मंगाते रहे हैं। 


विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोज़गार का सृजन करती। जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोज़गार की संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होगी। क्योंकि इन बेरोज़गार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। ये जग ज़ाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साज़िश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कई कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। जिसके कारण आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है। 


सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है। इन्हें कहाँ से और कैसा पैसा आता है इस पर कड़ी नज़र ज़रूरी है। इन मदरसों में क्या शिक्षा के नाम पर आतंकवाद का ज़हर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब  हो चाहिए। जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। 


दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फँसने से बचाना। जहां एक तरफ़ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस बात पर निगाह नहीं रखी गयी कि घाटी के बेरोज़गार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसको बहुत सख़्ती से रोकने की ज़रूरत है। जिससे इन नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गँवाएँ। 


तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेल्लीजेंस को करना चाहिए था, वो ये कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल ही में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे बिना लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के सीधी भर्ती करके अफ़सर बना दिया गया था। कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफ़ी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताक़तों को पालते पोसते हैं। इनकी छटनी किए बिना आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधान मंत्री को फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ कड़ी नीतियाँ अपनानी होंगी। 


ये दावा तो कोई भी नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह क़ाबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियाँ थोप रही है उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज़्यादा बढ़ गया है। यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्मांदता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं। 

Monday, September 6, 2021

मुसलमान क्यों रोकें गोवंश की हत्या ?


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले हफ़्ते गौ माता को राष्ट्रीय पशु घोषित कर उसके वध पर पूरे देश में प्रतिबंध लगाने को कहा। आम धारणा ऐसी बनाई गई है कि गौ हत्या के लिए सबसे ज़्यादा मुसलमान ज़िम्मेदार हैं। जबकि सच्चाई कुछ और है। गौ हत्या एक संवेदनशील मुद्दा है।महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि हम हिंदुओं के लिए गौ माँ के समान है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय नस्ल की देशी गाय कुदरत की एक ऐसी नियामत है जिसका दूध ही नहीं मूत्र और गोबर भी पूरी मानव जाति के
  लिए जीवन रक्षक है। यह बात वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध हो चुकी है। 


भारतीय परम्परा के सुविख्यात इतिहासकार धर्मपाल जी अपने शोध के आधार पर अपनी किताब ‘गौ वध और अंग्रेज’ में लिखते हैं कि महारानी विक्टोरिया ने तत्कालीन वायसराय लैंस डाऊन को लिखे एक पत्र में कहा था, हालांकि मुसलमानों द्वारा की जा रही गौ हत्या आंदोलन का कारण बनी है, लेकिन हकीकत में यह आंदोलन हमारे खिलाफ है, क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज्यादा हम गौ हत्या कराते हैं। इस पत्र से यह बात साफ़ है कि न केवल ज़्यादातर भारतीय हिन्दू, मुसलमान और ईसाई उस समय इसे साफ़ तौर पर देख रहे थे, बल्कि ब्रिटिश अफसरों का एक बड़ा वर्ग भी इस बात को जानता था कि पशु वध बंदी का यह आन्दोलन जिस गो-हत्या के विरोध में है वह वास्तव में भारत में एक लाख से भी अधिक अंग्रेज सैनिकों एवं अफसरों के भोजन के काम आता है। उस समय के दौरान ब्रिटिश खुफिया विभाग के दस्तावेजों का एकाग्र अध्ययन यह बताता है कि मुसलमान गो हत्या छोड़ने के पक्ष में थे, पर अंग्रेजों के इशारे पर ऐसा कर रहे थे। यह भी कहा जा सकता है कि गो-हत्या पर मुसलमानों का जोर 1880 से बढ़ा, जो कि ब्रिटिश उकसावे का ही परिणाम था। साथ ही अंग्रेजों का इस पर जोर भी रहा कि ‘मुसलमानों की गोवध प्रथा’ जारी रहनी चाहिए।



इस्लाम का जन्म पश्चिम एशिया में जहां हुआ वहाँ रेगिस्तानों में गाय की उपलब्धता लगभग न के बराबर थी। इसलिये मुस्लिम समाज में गौ मांस भक्षण की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है। कुरान शरीफ़ में सात आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाने की सलाह दी गई है। इतना ही नहीं गौवंश से मानव जाति को मिलने वाली सौगातों के लिए उनका आभार तक जताया गया है। इसलिये पश्चिम एशिया के इस्लामिक देशों में ऊँट की क़ुर्बानी देने की प्रथा है। पर आश्चर्य की बात है कि गोमांस का भारत आज भी दुनियाँ में सबसे बड़ा निर्यातक देश है। इस धंधे में हिंदुओं की भारी हिस्सेदारी है । इन कम्पनियों में हिस्सेदारी वाले हिंदुओं के नामों और हिस्सेदारी के प्रतिशत का खुलासा भारत सरकार को फ़ौरन करना चाहिये। 


दरअसल इतिहास के पन्नों में यह बात अंकित है कि अंग्रेजों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच फूट पड़वाने के लिए गाय और सूअर के माँस की कटाई को बढ़ावा दिया था। अंग्रेजों के पहले मुग़ल राज में भारत में गोकशी नहीं होती थी। मुगल बादशाह बाबर ने जहां गाय की कुर्बानी से परहेज करने का हुक्म दिया था, वहीं अकबर ने तो गोकशी करने वालों के लिये सजा-ए-मौत मुकर्रर कर रखी थी। 1921 में प्रकाशित ख्वाजा हसन निजामी देहलवी की किताब ‘तर्क-ए-कुरबानी-ए-गऊ’ के मुताबिक भोपाल रियासत के पुस्तकालय में मुगल शहंशाह बाबर का ऐसा ही एक फरमान मौजूद है जिसमें गाय की कुरबानी से परहेज करने को कहा गया था।


इतना ही नहीं गो हत्या के खिलाफ मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भी समय समय पर फतवे जारी किये हैं। इनमें फिरंगी महल के मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महली और मौलाना अब्दुल हई फिरंगी महली का फ़तवा प्रमुख हैं। मौलाना अब्दुल हई फिरंगी महली के एक फतवे में कहा गया था कि गाय के बजाय ऊंट की कुरबानी करना बेहतर है। मौलाना बारी ने महात्मा गांधी को 20 अप्रैल 1919 को एक तार भेज कहा था हिन्दू और मुसलमानों में एकता हो, इसलिये इस बकरीद में फिरंगी महल (लखनऊ) में गो-हत्या नहीं हुई। अगर खुदा चाहेगा, तो गाय आइंदा कुर्बान ना की जाएगी। 


सन 1700 में जब अंग्रेज़ भारत में व्यापारी बनकर आए थे, उस समय भारत में गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था। हिन्दू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते थे। परंतु अंग्रेज़ इन दोनों ही पशुओं के मांस के शौकीन थे। लिहाज़ा भारत पर कब्जा करने हेतु अंग्रेजों ने ऐसी विघटनकारी नीतियों का बीज बोना शुरू किया। अंग्रेजों ने मुसलमानों को भड़काया कि कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि गौवध नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं उन्होंने मुसलमानों को गौ मांस का व्यापार करने का लालच भी दिया। ठीक इसी तरह दलित हिन्दुओं को सुअर के मांस की बिक्री करने का लालच देकर अपने मक़सद को पूरा किया।  


यूरोप दो हज़ार सालों से गाय के मांस का प्रमुख उपभोक्ता रहा है। अंग्रेजों ने भारत में अपने आगमन के साथ ही यहां गौ हत्या शुरू करा दी। 18वीं सदी के आखिर तक अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई की  प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों में बड़े पैमाने पर कसाईखाने बने जहां बड़ी तादाद में गौ हत्या होने लगी। समय के चलते जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजी सेना और अफ़सरों की तादाद बढ़ने लगी वैसे-वैसे ही गोकशी में भी बढ़ोतरी हुई। इसी दौरान हिन्दू संगठनों ने पशु वध के ख़िलाफ़ एक आंदोलन शुरू किया।


धर्म के नाम पर सियासत की रोटियाँ सेकने वाले नेता चाहे हिंदू हों या मुसलमान या और किसी धर्म के हों, उनका एक ही लक्ष्य होता है, समाज को बाँटना और अपना उल्लू सीधा करना। ये बात हम दशकों से देखते और अनुभव करते आ रहे हैं। आज जब देश को आर्थिक प्रगति और युवाओं को रोज़गार की ज़रूरत है, ऐसे में साम्प्रदायिकता का ज़हर हमारे अस्तित्व के लिए ख़तरा बन चुका है। इसलिए यह ज़रूरी है कि हर धर्म के समझदार लोग इस ज़हर से अपने समाज को बचाने का काम करें। अगर मुसलमान तय कर लेते हैं कि गौ हत्या नहीं करेंगे और गौ मांस का व्यापार भी नहीं  करेंगे तो पूरे देश में एक ऐसा भाईचारा क़ायम होगा, जिसमें हम सब अपना ध्यान और ऊर्जा अपनी आर्थिक प्रगति के लिए लगा सकेंगे। 1980 में मुरादाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद महीनों कर्फ़्यू रहा जिससे बर्तन के कारीगर और निर्यातक दोनों तबाह हो गए। तबसे वहाँ के लोगों ने दंगों से तौबा कर ली। माना कि सनातन धर्म और इस्लाम में कोई समानता नहीं है। फिर भी हम 1000 सालों से साथ रहते आए हैं और आगे भी शांति से रह सकें इसलिए मुसलमानों को ही गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने की माँग करनी चाहिए।  

Monday, July 12, 2021

चित्रकूट में संघ का चिंतन


उत्तर प्रदेश के चुनाव कैसे जीते जाएं इस पर गहन चिंतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी अधिकारियों और प्रचारकों का एक सम्मेलन चित्रकूट में हुआ। ऐसे शिविर में हुई कोई भी वार्ता या लिए गए निर्णय इतने गोपनीय रखे जाते हैं कि वे कभी बाहर नहीं आते। मीडिया में जो खबरें छपती हैं वो केवल अनुमान पर आधारित होती हैं, क्योंकि संघ के प्रचारक कभी असली बात बाहर किसी से साझा नहीं करते। इसलिए अटकलें लगाने के बजाए हम अपनी सामान्य बुद्धि से इस महत्वपूर्ण शिविर के उद्देश्य, वार्ता के विषय और रणनीति पर अपने विचार तो समाज के सामने रख ही सकते है।



जहां तक उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा के चुनाव की बात है तो जिस तरह की अफ़रा-तफ़री संघ और भाजपा में मची है उससे यह तो स्पष्ट है कि योगी सरकार की फिर से जीत को लेकर गहरी आशंका व्यक्त की जा रही है, जो निर्मूल नहीं है। संघ और भाजपा के गोपनीय सर्वेक्षणों में योगी सरकार की लोकप्रियता वैसी नहीं सामने आई जैसी सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिखा कर छवि बनाने की कोशिश की गई है। ये ठीक वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी जी के चुनाव प्रचार को तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर खूब ढिंढोरा पीटा था। विपक्ष तब भी बिखरा हुआ था। वाजपेयी जी की लोकप्रियता के सामने सोनिया गांधी को बहुत हल्के में लिया जा रहा था। सुषमा स्वराज और प्रमोद महाजन ने तो उन्हें विदेशी बता कर काफ़ी पीछे धकेलने का प्रयास किया। पर परिणाम भाजपा और संघ की आशा के प्रतिकूल आए। ऐसा ही दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी हुआ। जहां संघ और भाजपा ने हर हथकंडे अपनाए, हज़ारों करोड़ रुपया खर्च किया, पर मतदाताओं ने उसे नकार दिया। 


अगर योगी जी के शासन की बात करें तो याद करना होगा कि मुख्य मंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले कदम क्या उठाए, रोमियो स्क्वॉड, क़त्लखाने और मांस की दुकानों पर छापे, लव जिहाद का नारा और दंगों में मुसलमानों को आरोपित करके उन पर पुलिस का सख़्त डंडा या उनकी सम्पत्ति कुर्क़ करना जैसे कुछ चर्चित कदम उठा कर योगी जी ने उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदुओं का दिल जीत लिया। दशकों बाद उन्हें लगा कि कोई ऐसा मुख्य मंत्री आया है जो हिंदुत्व के मुद्दे को पूरे दम-ख़म से लागू करेगा। पर यह मोह जल्दी ही भंग हो गया। योगी की इस कार्यशैली के प्रशंसक अब पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गए हैं।


इसका मुख्य कारण है कि योगी राज में बेरोज़गारी चरम सीमा पर पहुँच गई है। महंगाई तो सारे देश में ही आसमान छू रही है तो उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी के कारण तमाम उद्योग धंधे और व्यवसाय ठप्प हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश की बहुसंख्यक जनता आर्थिक रूप से बदहाल हुई है। रही-सही मार कोविड काल में, विशेषकर दूसरे दौर में, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता ने पूरी कर डाली। कोई घर ऐसा न होगा जिसका परिचित या रिश्तेदार इस अव्यवस्था के कारण मौत की भेंट न चढ़ा हो। बड़ी तादाद में लाशों को गंगा में बहाया जाना  या दफ़नाया जाना एक ऐसा हृदयविदारक अनुभव था जो, हिंदू शासन काल में हिंदुओं की आत्मा तक में सिहरन पैदा कर गया। क्योंकि 1000 साल के मुसलमानों के शासन काल में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब आर्थिक तंगी या लकड़ी की अनुपलब्धता के कारण हिंदुओं को अपने प्रियजनों के शवों को दफ़नाना पड़ा हो। इस भयानक त्रासदी से हिंदू मन पर जो चोट लगी है उसे भूलने में सदियाँ बीत जाएँगीं।

 

योगी सरकार के कुछ अधिकारी उन्हें गुमराह कर हज़ारों करोड़ रुपया हिंदुत्व के नाम पर नाटक-नौटंकियों पर खर्च करवाते रहे। जिससे योगी सरकार को क्षणिक वाह-वाही तो मिल गई, लेकिन इसका आम मतदाता को कोई भी लाभ नहीं मिला। बहुत बड़ी रक़म इन नाच-गानों और आडम्बर में बर्बाद हो गई। प्रयागराज के अर्ध-कुम्भ को पूर्ण-कुम्भ बता कर हज़ारों करोड़ रुपया बर्बाद करना या वृंदावन की ‘कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक’ को भी कोविड काल में पूर्ण-कुम्भ की तरह महिमा मंडित करना शेख़चिल्ली वाले काम थे। मथुरा ज़िले में तो कोरोना की दूसरी लहर वृंदावन के इसी अनियंत्रित आयोजन के बाद ही बुरी तरह आई। जिसके कारण हर गाँव ने मौत का मंजर देखा। कोविड काल में संघ की कोई भूमिका नज़र नहीं आई। न तो दवा और इंजेक्शनों की काला बाज़ारी रोकने में, न अस्पतालों में बेड के लिए बदहवास दौड़ते परिवारों की मदद करने में और न ही गरीब परिवारों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए।   

 

मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के नाम पर दिल खोल कर धन लुटाया गया। पर दृष्टि, अनुभव, ज्ञान व धर्म के प्रति संवेदनशीलता के अभाव में हवाई विशेषज्ञों की सलाह पर ये धन भ्रष्टाचार और बर्बादी का कारण बना। जिसका कोई प्रशंसनीय बदलाव इन धर्म नगरियों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। आधुनिकरण के नाम पर प्राचीन धरोहरों को जिस बेदर्दी से नष्ट किया गया उससे काशीवासियों और दुनिया भर में काशी की अनूठी गलियों के प्रशंसकों को ऐसा हृदयघात लगा है क्योंकि वे इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। सदियों की सांस्कृतिक विरासत को बुलडोजरों ने निर्ममता से धूलधूसरित कर दिया।

 

योगी सरकार ने गौ सेवा और गौ रक्षा के अभियान को भी खुले हाथ से सैंकड़ों करोड़ रुपया दिया। जो एक सराहनीय कदम था। पर दुर्भाग्य से यहाँ भी संघ और भाजपा के बड़े लोगों ने मिलकर गौशालाओं पर क़ब्ज़े करने का और गौ सेवा के धन को उर्र-फुर्र करने का ऐसा निंदनीय कृत्य किया है जिससे गौ माता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी । इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तमाम प्रमाण भी उपलब्ध हैं।


इन सब कमियों को समय-समय पर जब भी पत्रकारों या जागरूक नागरिकों ने उजागर किया या प्रश्न पूछे तो उन पर दर्जनों एफ़आईआर दर्ज करवा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का जैसा निंदनीय कार्य हुआ वैसा उत्तर प्रदेश की जनता ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए केवल यह मान कर कि विपक्ष बिखरा है, वैतरणी पार नहीं होगी। क्या विकल्प बनेगा या नहीं बनेगा ये तो समय बताएगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस घबराहट में संघ आज सक्रिय हुआ है अगर समय रहते उसने चारों तरफ़ से उठ रही आवाज़ों को सुना होता तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। पर ये भी हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि जब-जब संघ वालों को सत्ता मिलती है, उनका अहंकार आसमान को छूने लगता है। देश और धर्म की सेवा के नाम फिर जो नौटंकी चलती है उसका पटाक्षेप प्रभु करते हैं और हर मतदाता उसमें अपनी भूमिका निभाता है। 

Monday, June 14, 2021

योगी ही क्यों रहेंगे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री ?


पिछले दिनों भाजपा के अंदर और लखनऊ में जो ड्रामा चला उससे लगा कि मोदी और योगी में तलवारें खिंच गईं हैं। मीडिया में अटकलों का बाज़ार गर्म था। पर जो अपेक्षित था वही हुआ। ये सारी नूरा कुश्ती थी, जिसमें न तो कोई जीता, न ही कोई हारा। योगी और मोदी एक थे और एक ही रहेंगे। इस बात का
  मुझे पहले से ही आभास था। 


इस आभास की ऐतिहासिक वजह है। 1990 के दशक में जब आडवाणी जी की राम रथ यात्रा के बाद भाजपा ऊपर उठना शुरू हुई तो भी ऐसी रणनीति बनाई गई थी। जनता की निगाह में आडवाणी जी और वाजपई जी के बीच टकराहट के खूब समाचार प्रकाशित हुए। हद्द तो तब हो गई जब भाजपा के महासचिव रहे गोविंदाचार्य ने सार्वजनिक बयान में अटल बिहारी वाजपई को भाजपा का ‘मुखौटा’ कह डाला। चूँकि गोविंदाचार्य को आडवाणी जी का ख़ास आदमी माना जाता था इसलिए ये मान लिया गया कि ये सब आडवाणी की शह पर हो रहा है। इस विवाद ने काफ़ी तूल पकड़ा। लेकिन योगी मोदी विवाद की तरह ये विवाद भी तब ठंडा पड़ गया और रहे वही ढाक के तीन पात। 



दरअसल उस माहौल में भाजपा का अपने बूते पर केंद्र में सरकार बनाना सम्भव न था। क्योंकि उसके सांसदों की संख्या 115 के नीचे थी। इसलिए इस लड़ाई का नाटक किया गया। जिससे आडवाणी जी तो हिंदू वोटों का ध्रुविकरण करें और अटल जी धर्मनिरपेक्ष वोटरों और राजनैतिक दलों को साधे रखें। जिससे मौक़े पर सरकार बनाने में कोई रुकावट न आए। यही हुआ भी। जैन हवाला कांड के विस्फोट के कारण राजनीति में आए तूफ़ान के बाद जब 1996 में केंद्र में भाजपा की पहली सरकार बनी तो उसे दो दर्जन दूसरे दलों का समर्थन हासिल था। ये तभी सम्भव हो सका जब संघ ने वाजपई की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत की। 


अब उत्तर प्रदेश पर आ जाइए। पिछले चार साल में संघ और भाजपा ने लगातार योगी को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्य मंत्री और प्रशासक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश के कई राज्यों के मुख्य मंत्रियों का शासन उत्तर प्रदेश से कहीं बेहतर रहा है। ये सही है कि योगी महाराज पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे किंतु उनके राज में पिछली सरकारों से ज़्यादा भ्रष्टाचार हुआ है। कितने ही बड़े घोटाले तो सप्रमाण हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही उजागर किए। पर उन पर आज तक कोई जाँच या कार्यवाही नहीं हुई। 


गोरखपुर में आक्सीजन की कमीं से सैंकड़ों बच्चों की मौत योगी शासन के प्रथम वर्ष में ही हो गई थी। कोविड काल में उत्तर प्रदेश शासन की नाकामी को हर ज़िले, हर गाँव और लगभग हर परिवार ने झेला और सरकार की उदासीनता और लापरवाही को जम कर कोसा। अपनी पीड़ा प्रकट करने वालों में आम आदमी से लेकर भाजपा के विधायक, सांसद, मंत्री और राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी व न्यायाधीश भी शामिल हैं। जिन्होंने कोविड की दूसरी लहर में आक्सीजन, इंजेक्शन और अस्पताल के अभाव में बड़ी संख्या में अपने परिजनों को खोया है।

 

उत्तर प्रदेश में विकास के नाम पर जो लूट और पैसे की बर्बादी हो रही है, उसकी ओर तो कोई देखने वाला ही नहीं है। हम तो लिख लिख कर थक गये। मथुरा, काशी अयोध्या जैसी धर्म नगरियों तक को भी बख्शा नहीं गया है। यहाँ भी धाम सेवा के नाम पर निरर्थक परियोजनाओं पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। प्रदेश में ना तो नए उद्योग लगे और न ही युवाओं को रोज़गार मिला। जिनके रोज़गार 2014 से पहले सलामत थे वे नोटबंदी और कोविड के चलते रातों रात बर्बाद हो गए।  


बावजूद इस सबके, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए अरविंद केजरीवाल की तरह ही, आम जनता से वसूला कर का पैसा, सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापनों पर खर्च कर दिया। इतना ही नहीं सरकार की कमियाँ उजागर करने वाले उच्च अधिकारियों और पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया। उन्हें बात बात पर शासन की ओर से धमकी दी गई या मुक़द्दमें दायर किए गए। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने हाल ही में ये आदेश दिया कि सरकार की कमियाँ उजागर करना कोई अपराध नहीं है। हमारे संविधान और लोकतंत्र में पत्रकारों और समाजिक कार्यकर्ताओं को इसका अधिकार मिला हुआ है और यह लोकतंत्र कि सफलता के लिए आवश्यक भी है। बावजूद इसके जिस तरह मोदी जी का एक समर्पित भक्त समुदाय है, वैसे ही योगी जी का भी एक छोटा वर्ग समर्थक है। ये वो वर्ग है जो योगी जी की मुसलमान विरोधी नीतियों और कुछ कड़े कदमों का मुरीद है। इस वर्ग को विकास, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते जितना की मुसलमानों को सबक सिखाना। मुख्य मंत्री योगी जी इस वर्ग के लोगों के हीरो हैं। संघ को उनकी यह छवि बहुत भाती है। क्योंकि इसमें चुनाव जीतने के बाद भी जनता को कुछ भी देने की ज़िम्मेदारी नहीं है। केवल एक माहौल बना कर रखने का काम है जिसे चुनाव के समय वोटों के रूप में भुनाया जा सके। 


यह सही है कि पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में मुसलमानों ने अपने व्यवहार से ग़ैर मुसलमानों को आशंकित और उद्वेलित किया। चाहे ऐसा करके उन्हें कुछ ठोस न मिला हो, पर भाजपा को अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए एक मुद्दा ज़रूर ऐसा मिल गया जिसमें ‘हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखे का चोखा’। इसलिए उत्तर प्रदेश में 2022 का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी आएँ। 

Monday, June 7, 2021

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सोचना चाहिए

भगवान बुद्ध ने एक चेतावनी दी थी की जब बौध संघों में भ्रष्टाचार आ जाएगा तो बुद्ध धर्म का पतन हो जाएगा और यही हुआ। कहावत है ‘संघे शक्ति कलियुगे’। कलयुग में संगठन में ही बल होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी इसी सिद्धांत को लेकर चला है। इसकी आईटी टीम लगातार यह याद दिलाती है कि यह संगठन कितना विशाल है। कितने करोड़ स्वयंसेवक हैं। कितने सर्वोच्च पदों पर संघ के स्वयंसेवक पदासीन हैं, आदि। संघ हिंदू धर्म की रक्षा करने की भी बात करता है। एक बार वृंदावन के एक प्रतिष्ठित  संत, जिन्होंने 106 वर्ष की आयु में समाधि ली, उनसे मैंने पूछा कि संघ और भाजपा के इस दावे के विषय में उनका क्या मत है? स्वामी जी बोले, कोई संगठन या व्यक्ति धर्म की क्या रक्षा करेगा? धर्म ही हमारी रक्षा करता है। 

प्रश्न उठता है कि क्या सनातन धर्म पर, जिसे संघ हिंदू धर्म कहता है संघ या भाजपा का एकाधिकार है? यह असम्भव है। क्योंकि वैदिक काल से आज तक भारत में सभी दार्शनिक मतभेदों को सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता रहा है। इसलिए चार्वाक से गौतम बुद्ध तक को इस परम्परा में समायोजित किया गया है। एक किताब, एक भगवान और एक नियम, ये मान्यता तो ईसाईयत या इस्लाम की है। जो भारतीय दार्शनिक परम्परा के बिलकुल विपरीत है। यहाँ तो तैंतीस करोड़ देवी देवता और दर्जनों सम्प्रदायों में बँटा हो कर भी सनातन धर्म की मूल धारा एक ही है। 



पर जिस तरह संघ की सोच और व्यवहार सामने आता है उसे देख कर यह चिंता होती है कि संघ भी इस्लाम या ईसाईयत से प्रतिस्पर्धा में उन्हीं के ढर्रे पर चल रहा है। वैसे तो संघ इन आयातित धर्मों के विरुद्ध कट्टरता सिखाता है और देशज धर्म को ही भारत का धर्म मानता है। पर व्यवहार में वो स्वयं भारत के सनातन हिंदू धर्म के विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। सनातन का अर्थ ही है जो कभी न बदला जाए।यही कारण है कि सदियों से सैंकड़ों हमले सह कर भी सनातन धर्म ज्यों का त्यों खड़ा रहा है। पर संघ के विचारक गुरु गोलवलकर जी ने अपनी पुस्तक में सनातन परम्पराओं और शास्त्रों को देश, काल और आवश्यकता के अनुरूप व्याख्या करने की वकालत की थी। जिसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए भारत के सर्वाधिक सम्मानित रहे धर्म सम्राट स्वामी करपात्रि जी महाराज अपने ग्रंथ ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिंदू धर्म’ में लिखते हैं कि अगर इस तरह शास्त्रों की मनमाने ढंग से व्याख्या करने की छूट दी जाएगी तो फिर वो सनातन धर्म कहाँ रहा? फिर तो संघ के हर सरसंघचालक अपनी मान्यताओं को सनातन धर्म पर आरोपित कर उसे चूँ-चूँ का मुरब्बा बना देंगे। करपात्रि जी महाराज ने तो साफ़ लिखा है कि, ‘जिस हिंदुत्व को संघ स्थापित करना चाहता है उसका भारत के सनातन वैदिक धर्म से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।’ अर्थात् संघ का हिंदुत्व भारत का दार्शनिक पक्ष न होकर केवल संघ की राजनैतिक महत्वाकांक्षा का वैचारिक प्रारूप है।


संघ के बड़े-बड़े अधिकारियों से भी वार्ता में यही पक्ष उजागर होता है। 2019 में सहकार्यवाह डा॰ कृष्ण गोपाल जी से मथुरा में मेरी लम्बी वार्ता हुई। जिसके बीच उन्होंने कहा कि राधा कोई नहीं थीं। ये तो ब्रजवासियों की कोरी कल्पना है। जिसका बाहर मज़ाक़ उड़ता है। प्रत्युत्तर में यह पूछने पर, ‘तो फिर आप राम मंदिर क्यों बनवा रहे हैं?’ वे बोले, उसे छोड़िए, वो दूसरा विषय है। 


पिछले कुछ वर्षों से हर चुनाव के पहले संघ का प्रचार तंत्र ऐसे निर्देश जारी करता है जिससे लगे कि वे लोग धर्म के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। कभी निर्देश आता है कि आज राम नाम की माला जपो, कभी निर्देश आता है कि पीपल को जल चढ़ाओ, कभी आता है कि फ़लाँ त्योहार पर घर के बाहर इतने दीपक जलाओ। और तो और सदियों से प्रचलित सम्बोधन ‘राम-राम’ या ‘जय सिया राम’ की जगह ‘जय श्री राम’ कहने पर ज़ोर देते हैं। 


जबकि कोई भी आस्थावान धार्मिक परिवार अपने त्योहार कैसे मनाए इसका निर्णय उस परिवार की पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं के या उनके सम्प्रदाय के आचार्यों के या शास्त्रों में वर्णित निर्देशों के अनुसार होता है। संघ के कार्यकर्ता कब से धर्माचार्यों की श्रेणी में आ गए, जो एक तरफ़ तो राधा जी को कोरी कल्पना बताते हैं और दूसरी तरफ़ हमें इस तरह निर्देश देकर पूजा करने की विधि सिखाते हैं? साफ़ है कि संघ के नेतृत्व को सत्ता पाने में ही रुचि है और यह सारा प्रपंच सत्ता पाने तक ही सीमित रहता है। उसके बाद न तो धार्मिकता, न नैतिकता, न सिद्धांतों की कोई बात की जाती है। बात करना तो दूर उनको नकारने या उपेक्षा करने में भी संकोच नहीं होता। तो फिर ये लोग धर्म की बात ही क्यों करते हैं? खुलकर राजनैतिक दल के रूप में सामने क्यों नहीं आते? धर्म में राजनीति का और राजनीति में धर्म का यह घालमेल राष्ट्र और धर्म दोनों के लिए घातक है। इस पर हिंदुओं को भी गम्भीरता और विवेक से विचार करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’। 


गत 35 वर्षों से टीवी और प्रिंट पत्रकारिता के माध्यम से हिंदू धर्म से जुड़े हर सवाल पर मैं दृढ़ता से समर्थन में खड़ा रहा हूँ। बिना ये सोचे कि उस समय की सरकार इससे नाखुश होगी या इसके कारण मुझे क्या व्यावसायिक हानि होगी। पर दुःख होता है कि जब संघ का शीर्ष नेतृत्व धर्म और संस्कृति को लेकर पिछले चार वर्षों में मेरे द्वारा लगातार उठाए गए गम्भीर प्रश्नों पर रहस्यमयी चुप्पी सधे बैठा है। जिसके परिणाम स्वरूप धर्म के कार्यों में भी अनैतिकता और भ्रष्टाचार को खुला संरक्षण मिल रहा है। तो फिर मुसलमानों का डर दिखा कर हिंदुओं को वोटों के लिए एकजुट करने का उद्देश्य क्या केवल सत्ता पाकर अनैतिकता और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना ही हिंदू राष्ट्र माना जाएगा? ज़रा सोचें !   

Monday, May 24, 2021

जहाँ मुसलमान वहाँ हिंसा क्यों?


भारी दावों के विपरीत पश्चिम बंगाल का चुनाव बुरी तरह हारने के बाद बौखलाई भाजपा और उसकी ट्रोल आर्मी हाथ धो कर ममता सरकार के पीछे पड़े हैं। किसी तरह वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हो जाए तो फिर विधायकों को तोड़ने का काम आसानी से हो पाएगा। सारा बवाल बंगाल के मुसलमानों को लेकर है। आरोप है कि ममता बनर्जी की सरकार में
  मुसलमान हिंदुओं के साथ मार-काट कर रहे हैं। भाजपा का प्रचार तंत्र देश-विदेश में रात दिन अपने समर्थन में विडीओ  क्लिप सोशल मीडिया पर डाल रहा है। ये बता कर कि ये आज के हालत हैं। कल एक ऐसी ही विडीओ क्लिप मेरे पास आई जिसमें दिखाया था कि घायल सैनिक को उपचार के लिए ले जाती हुई फ़ौज की गाड़ियों तक को ये लोग अपने इलाक़े से नहीं गुजरने दे रहे। जीप पर नम्बर प्लेट बंगला भाषा में थी तो मैंने वो क्लिप कलकत्ता में अपने कुछ मित्रों को भेज कर उसकी हक़ीक़त जाननी चाही।जवाब आया कि न तो ये आज की क्लिप है और न ही पश्चिम बंगाल की। बल्कि यह क्लिप बांग्लादेश की है और बहुत पुरानी है। जिस ‘भक्त’ ने यह क्लिप मुझे भेजी थी जब उसे मैंने यह बताया तो उसका जवाब था कि मुसलमान तो हर जगह हिंसा ही करते हैं। इस बात का वो कोई जवाब नहीं दे सका कि बंगलादेश की क्लिप को पश्चिम बंगाल की बता कर यह ज़हर क्यों फैलाया जा रहा है? ऐसा नहीं है कि वहाँ हिंसा की वारदातें नहीं हुई हों। पर जितनी हाइप बनाई जा रही है, वैसा नहीं है।  


कुछ अप्रवासी भारतीय भी इस मुद्दे को लेकर उतने ही उत्तेजित हैं जितने महीनों तक सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ को लेकर थे। सब एक ही रट लगा रहे हैं कि बंगाल के हिंदुओं का जीना मुहाल है। जबकि वहाँ के शहरों में अगर अपने सम्पर्कों से आप बात करें तो ऐसा कुछ भी समाचार नहीं मिलता। 



उधर दशकों से राज्यपाल केंद्र सरकार की कठपुतली की तरह काम करते आएँ हैं। राज्यपाल बनाया ही उन्हें जाता है जो अपनी संविधान प्रदत्त स्वायत्तता को दर किनार कर केंद्रीय सरकार के इशारे पर अनैतिकता और झूठ की हदें पार करने में संकोच न करे। इसमें कोई अपवाद नहीं है। कांग्रेस के राज में भी यही होता था और भाजपा के राज में भी यही हो रहा है। 


शपथग्रहण समारोह से शुरू करके आज तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल महामहिम जगदीप धनकड़ ममता सरकार पर सीधा हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे। कई बार तो उनकी भाव भंगिमा बहुत नाटकीय नज़र आती है। धनकड जी मेरे पुराने स्नेही हैं और सर्वोच्च न्यायालय के वकील रहे हैं। ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1993 में जिस ‘जैन हवाला कांड’ को मैंने उजागर किया था, उसमें दुबई और लंदन से कश्मीर के आतंकवादियों को हवाला से आ रही आर्थिक मदद का एक अंश जगदीप धनकड जी को भी मिलने का आरोप था और वे हवाला कांड में चार्जशीट भी हुए थे। भाजपा और संघ के जो लोग मुसलमानों की हिंसक वृत्ति और भारत को इस्लामी देश बनाने का ख़तरा बता-बता कर हिंदू वोट बैंक को संगठित कर रहे हैं उनसे मेरा लगातार एक ही सवाल रहता है। कि जब इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ 1993 से लड़ाई लड़ी जा रही थी तो ये लोग एक ख़तरनाक खामोशी क्यों साधे बैठे थे ? 


संघ के संस्थापक डाक्टर केशव हेडगेवार जी कहा था कि परिवार के हित के लिए व्यक्ति का हित। समाज के हित के लिए संगठन का हित और राष्ट्र के हित के लिए अपने दल के हित को त्याग देना चाहिए। पर संघ और भाजपा ने तो तब उल्टा ही काम किया। अपने चंद नेताओं को बचाने में उन्होंने राष्ट्र के हित को बलिदान कर दिया। वरना ये  इस्लामिक आतंकवाद 27 बरस पहले ही नियंत्रित हो जाता। मेरे इन प्रश्नों का जवाब संघ और भाजपा के बड़े से बड़े नेता आजतक देने का नैतिक साहस नहीं दिखा पाए। पर आज वे इतिहास  से अनभिज्ञ और विवेकहीन अपने युवा समर्थकों से हर उस व्यक्ति को देशद्रोही कहलवाते हैं जो उनके ग़लत कामों पर ऊँगली उठाता है। तो बहुत दया आती है कि युवा कैसे मानसिक ग़ुलाम बन रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि हर नागरिक मीडिया के झूठ  से बच कर हर परिस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करे।


यहाँ मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान समय में जहां-जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहाँ वहाँ अशांति है, हिंसा है, अल्पसंख्यकों की उपेक्षा या दमन है। जिस तरह कश्मीर, असम, प.बंगाल के अलावा अन्य प्रांतों में भी अपनी बढ़ती जनसंख्या के बल पर मुसलमानों ने राजनीति में अपना दबदबा बढ़ाया है वहाँ-वहाँ हिंदू उनके आक्रामक व्यवहार से उत्तेजित हुआ है। जब सेकूलर मीडिया कश्मीर के हिंदुओं पर हुए अत्याचार को नहीं दिखाता और  उनके समर्थन में उतने ही ज़ोर शोर से आवाज़ नहीं उठाता जैसी मुसलमानों के लिए उठाता रहा है, तब मजबूरन  हिंदुओं को भाजपा की छत्र-छाया में जाना पड़ता है। फिर भी बंगाल की आधी हिंदू आबादी ने भाजपा को वोट नहीं दिया। 


मुसलमानों की शिकायत है कि उनके प्रति पक्षपात का आरोप ग़लत है। जिसके प्रमाण में वे अपने समाज के पिछड़ेपन और सेना या प्रशासन में अपनी नगण्य उपस्थिति का हवाला देते हैं। इसके कई सामाजिक कारण भी हैं जिन पर अलग से चर्चा की जा सकती है। पर यह तो स्पष्ट है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर, यहाँ तक कि भारी ट्राफ़िक वाली सड़कों पर भी मुसलमान अपना मुसल्ला बिछा कर नमाज़ पढ़ने लग जाते हैं। जिससे आम जन जीवन में व्यवधान पैदा होता है और अन्य धर्मावलम्बियों में आक्रोश। सरकार के मंत्रियों और राज्यपालों द्वारा इफ़्तार की दावतें देना, जबकि दिवाली, वैसाखि, गुरूपूरब, पोंगल आदि जैसे अन्य धर्मों के त्योहारों पर ऐसा कोई आयोजन नहीं करना या हज यात्रा पर जाने वालों को सब्सिडी देना, कुछ ऐसे काम होते रहे हैं जिनसे हर हिंदू उत्तेजित हुआ है। 


इसलिये समझदार और पढ़े लिखे मुसलमानों को समाज में पारस्परिक सौहार्द का वातावरण तैयार करने की सक्रिय पहल करनी चाहिए। अन्यथा दोनों पक्षों की साम्प्रदायिक ताक़तें राष्ट्र को तबाह कर देगी। 


यही बात मैं संघ और भाजपा के नेतृत्व से भी कहना चाहता हूँ। आप किस हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं? हज़ारों साल से हिंदू धर्म की ध्वजा को चारों पीठों के शंकराचार्यों ने वहन कर समाज को दिशा दी है। सनातन धर्म के स्थापित सम्प्रदायों जैसे श्री, रुद्र, ब्रह्म और कुमार सम्प्रदाय और इनकी शाखाओं में एक से बढ़ कर एक ज्ञानी, प्रतिष्ठित और सिद्ध संत हुए हैं और आज भी हैं। इनके अलावा मध्य-युग के भक्ति क़ालीन संत जैसे गुरु नानक देव, मीराबाई, तुलसीदास, सूरदास, रसखान, रहीम, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम और अलवर जैसे महान संतों को छोड़ कर आप लोग पैसे, प्रचार और सत्ता के पीछे भागने वाले आत्मघोषित सदगुरुओं को, जो यशोदा मईया को भगवान कृष्ण की प्रेयसी बताने की धृष्टता करते हैं, क्यों हिंदू समाज पर थोपने पर तुले हैं ? इनसे हिंदुत्व का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी जड़ों में छाछ डालने का काम हो रहा है। आप लोगों को भी अपना मूल्यांकन करना चाहिए। क्योंकि ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सत्ता के लालच में आप सनातन धर्म के स्थापित सिद्धांतों और मान्यताओं की बार-बार उपेक्षा कर रहे हैं और एक ‘सिन्थेटिक हिंदुत्व’ हम हिंदुओं पर थोपने की दुर्भाग्यपूर्ण कोशिश कर रहे हैं। इससे किसी का भला नहीं होगा न हिंदू समाज का  न राष्ट्र का।

Monday, December 30, 2019

जरा मुसलमान भी सोचें !

आज पूरे देश में उथल पुथल मची है। इसके केंद्र में है मुसलमानो को लेकर भाजपा की सोच। जो हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं।

दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। 

चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभायात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। 

किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ  होती है। यातायात अवरुद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलैंस और फायर ब्रिगेड की गाडियां अटक जाती हैं, जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनीतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। 

जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबियों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक-आध बार किसी पर्व पर हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढना, दूसरे धर्मावलंबियों को स्वीकार नहीं है। बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुम्बई में शिवसेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुम्बई एक सीधी लाइन वाला शहर है, जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुम्बई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुम्बई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रुकावट न हो। 

लगभग दो दशक पहले की बात है, मुंबई के मुसलमान भाइयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरुद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहेब ठाकरे के पास गए। बाला साहेब ने हिन्दुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब यह आरती तो दिन में 2 बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुम्बई पुलिस के हाथ-पांव फूल गए। नतीजतन मुम्बई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ यह सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढ़ेंगे और न ही हिन्दू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं। 

अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकत्र्ताओं ने देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आस-पास के राज्यों में भी हुआ। पिछले साल 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली। एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिन्दू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी एजैंडा तय हो गया। 

मैंने पूछा, ‘‘कैसे’’? तो उनका उत्तर था-भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिन्दू और मुसलमानों का राजनीतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिन्दू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोकसभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमानों के मोहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिन्दू मत एकजुट होते जाएं। 

उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नए-नए मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है, इसमें कुछ गलत नहीं। अब यह तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनीतिक दल का आकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर। चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि धर्म का इस तरह राजनीतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वह कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनीतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। 

चाहे फिर वह समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनीतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिन्दूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक ही तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वह चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? 

अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, के इशारों पर नाचकर हम अविवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं., तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए सामाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है, जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जाएगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा तथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

अनुभव बताता है कि जो राजनीतिक दल धर्म की राजनीति करते हैं उनकी भी उस धर्म के मूल सिद्धांतों में कोई आस्था नहीं होती। वो भी धर्म के प्रतीकों का दुरुपयोग केवल अपने राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही करते हैं। अगर उनसे तर्क वितर्क किया जाय तो वो जल्दी ही मान लेते हैं कि उनकी निष्ठा कहीं और है । यही हाल अन्य राजनीतिक विचारधाराओं का ढिंढोरा पीटेने वालों का भी होता है। फिर वो चाहें गांधीवादी विचारधारा हो, साम्यवादी हो या समाजवादी हो। ये सब एक सब ढकोसला है और मतदाताओं को लुभाने की युक्ति मात्र है। 

समस्या तब उत्पन्न होती है जब विचारधारा का झंडा लेकर चलने वाले दल समाज के एक वर्ग को इतना सम्मोहित कर लेते हैं कि लोग अपना विवेक खोकर अंध भक्त बन जाते हैं । उन्हें होश तब आता है जब  वे लुटपिट चुके होते हैं । तब तक राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर चुके होते हैं। 

ये भारत की ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीति करने वालों की कहानी है। इसलिए आम जनता को अपने विवेक, समझ व अनुभव पर निर्भर रहकर निर्णयकरने  चाहिये। इसी में उसकी भलाई है।

Monday, December 2, 2019

क्या हिंदू और मुसलमान मिलकर नहीं रह सकते ?

हाल ही में रामजन्मभूमि पर आए निर्णंय के बाद देश के बहुसंख्यक मुसलमानों ने जिस शांति और सदभाव का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। सारी आकांक्षाओं को निर्मूल करते हुए, अल्पसंख्यक समुदाय ने इस फैसले के विरूद्ध कोई भी उग्र प्रदर्शन या हिंसक वारदात न करके, ये बता दिया है कि साम्प्रदायिक वैमनस्य समाज में नहीं होता बल्कि राजनैतिक दलों के दिमाग की साजिश होती है। कोई भी दल इसका अपवाद नहीं है। इतिहास में इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि अगर ‘रामजन्भूमि मुक्ति आन्दोलन’ को राजनैतिक रंग न दिया जाता, तो ये मामला तीन दशक पहले सुलझने की कगार पर था। 
दरअसलआम आदमी को अपनी रोजी, रोटी और रोजगार की चिंता होती है। ये चिंता भारत के बहुसंख्यक लोगों को आजादी के 72 वर्ष बाद भी सता रही है। जब पेट भरे होते हैं, तब धर्म और राजनीति सूझती है। जो राजसत्ताऐं अपनी प्रजा की इन बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पातीं, वही धार्मिक उन्माद का सहारा लेती हैं। जिससे जनता असली मुद्दों से ध्यान हटाकर इन सवालों में उलझ जाऐ।

हिंदुस्तान की संस्कृति में, जब से मुसलमान यहां आऐ, तब से दो धाराऐं साथ साथ चली हैं। एक तो वो जिसमें दो विपरीत विचारधाराओं के धर्मावलंबियों ने एक-दूसरे को आत्मसात कर लिया और एक-दूसरे की जीवनशैली, आचार-विचार और रीति-रिवाजों को प्रभावित किया। भारत की बहुसंख्यक जनता इसी मानसिकता की है। ये आजादी के बाद योजनाबद्ध तरीके से पनपाई गई प्रवृत्ति नहीं है। इसकी जड़े सदियों पुरानी है।

मुगलकाल में ही ऐसे सैंकड़ों मुसलमान हुए, जिन्होंने हिंदू संस्कृति को न केवल सराहा, बल्कि अपने को इसमें आध्यात्मिक रूप से ढाल लिया। एक उदाहरण नजीर अकबरावादी का है। जो कहते हैं, ‘‘क्या-क्या कहूँ मैं तुमसे कन्हैया का बालपन, ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन’’। एक दूसरी रचना जिसका शीर्षक है ‘हरि जी सुमिरन’। इसमें वे लिखते हैं ‘‘श्रीकृष्ण जी की याद दिलों जां से कीजिए, ले नाम वासुदेव का अब ध्यान कीजिए, क्या वादा बेखुमार दिलों जां से पीजिए, सब काम छोड़ नाम चतुर्भुज का लीजिए’‘। आम मुसलमान ही नहीं, खुद मुगलिया खानदान की ताज बेगम जो आगरा के महल छोड़कर मथुरा के गोकुल गाॅव में आ बसीं थीं, वो लिखती हैं, ‘‘ नंद के दुलाल कुर्बान तेरी सूरत पे, हूँ तो मुगलानी, हिंदुआनी ह्वै रहुँगी मैं’’। रसखान को किसने नहीं पढ़ा ? ये ब्रजवासी मुसलमान संत लिखते हैं, ‘‘ रसखान कबौं इन नैंनन सौं, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारूँ।...जो पसु हौं तौ कहा बस मेरौ, बसुँ नित्य नन्द के धेनु मझारन’’। ये धारा आज भी अविचल है।

हमारे ब्रज में भगवान की पोशाक बननी हो या बिहारीजी का फूल बंगला या ठाकुरजी की शोभायात्रा में शहनाई वादन-सब काम मुसलमान बड़ी श्रद्धा और भाव से करते हैं। यहां तक कि यहाँ मुसलमान फलवाला आपका अभिवादन भी, ‘‘राधे-राधे’’ कहकर करता है। भारत रत्न बिसमिल्लाह खाँ नमाजी मुसलमान होते हुए भी मैहर की देवी के उपासक थे और उनके मंदिर में बैठकर साधना किया करते थे। दूर क्यों जाऐं, भारत के राष्ट्रपति रहे डाॅ. ऐपीजे कलाम भगवतगीता का नियमित पाठ करते थे रामेश्वरम् में उनके परिवार को आज भी मंदिर से महाप्रसाद का पत्तल रोज मिलता है, क्योंकि उनके पूर्वजों ने जान जोखिम में डालकर एक गहरे सरोवर में से अभिषेक के समय फिसलकर डूब गई, भारी देवप्रतिमा को निकाला था। ये थी उनकी श्रद्धा। मुझे लगता है कि ऐसी भावना वाले मुसलमानों से अगर उदारमना हिंदू प्रेममयी भाषा में निवेदन करें कि वे काशी और मथुरा से भी मस्जिदों को बिना संघर्ष के हटाने को राजी हो जाऐं, तो इसके सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं।

जो दूसरी धारा बही, वह थी कट्टरपंथी इस्लाम की थी। जिसके प्रभाव में मुसलमान आक्रंाताओं ने हजारों मंदिर तोड़े और हिंदूओं को जबरन मुसलमान बनाया। इसके पीछे धार्मिक उन्माद कम, राजनैतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा थी। शासक अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए या प्रजा में भय उत्पन्न करने के लिए इस तरह के अत्याचार किया करते थे। पर ऐसा केवल मुसलमान शासकों ने किया हो यह सच नहीं है। दक्षिण भारत में शैव राजाओं ने वैष्णवों के और वैष्णव राजाओं ने शैवों के मंदिरों को हमलों के दौरान नष्ट किया। इसी तरह हिंदू राजाओं ने बौद्ध मंदिर और विहार भी तोड़े। रोचक तथ्य ये है कि जिन मराठा शासक शिवाजी महाराज ने मुगलों को चने चबवाये, उनके वफादारों में कई योद्धा मुसलमान थे। ठीक वैसे ही जैसे झांसी की रानी का सेनापति एक मुसलमान था। टीपू सुल्तान के वफादार सेना नायकों में कई  हिंदू थे। 

इसलिए एक हजार वर्ष के मुसलमान शासनकाल में भी भारत की बहुसंख्यक आबादी हिंदू ही बनी रही। पर पिछले कुछ दशकों से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कट्टरपंथी इस्लाम को थोपने की एक गहरी साजिश पश्चिमी ऐशिया के कुछ देशों से की जा रही है। जिसका बुरा असर मलेशिया, इंडोनेशिया और टर्की जैसे सैक्युलर मुलसमान देशों की जनता पर भी पड़ने लगा है। इस मानसिकता को हम तालिबानी मानसिकता कह सकते हैं।

चिंता की बात ये है कि हिंदू समाज में भी कुछ तालिबानी प्रवृत्तियां उदय हो रही हैं। जिससे इस्लाम को खतरा हो न हो, हिंदूओं को बहुत  खतरा है। हिंदू परंपरा से उदारमना होते हैं। सम्प्रदायों को लेकर भिड़ते नहीं, बल्कि एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। हमारे दर्शन में निरीश्वरवाद, निर्गुण से सगुण उपासना तक का विकल्प मौजूद है। आपको एक ही परिवार में कोई सगुण उपासक मिलेगा, कोई ध्यानी-ग्यानी और कोई हठयोगी। इन सबका एक छत के नीचे प्रेम से रहना, बताता है कि हम कितने सहजरूप में विविधता को स्वीकार लेते हैं। क्योंकि हम ईसाईयों और मुसलमानों की तरह एक ही ग्रंथ और एक ही पैगम्बर को मानकर उसे दूसरों पर थोंपते नहीं है। यही कारण है कि इकबाल ने लिखा है, ‘‘यूनान रोम मिस्र सब मिट गऐ जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा, सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’’। हमें ऐसा ही हिंदुस्तान बनाना है, जहाँ हम सब मिलकर प्रेम से रहें और आगे बढें।

Monday, August 12, 2019

अब कश्मीर में क्या होगा?


जहाँ सारा देश मोदी सरकार के कश्मीर कदम से बमबम है वहीं अलगाववादी तत्वों के समर्थक अभी भी मानते हैं कि घाटी के आतंकवादी फिलिस्तानियों की तरह लंबे समय तक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहेंगे। जिसके कारण अमरीका जैसे-शस्त्र निर्माता देश भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को बढ़ाकर हथियारों बिक्री करेंगे। उनका ये भी मानना है कि केंद्र के निर्देश पर जो पूंजी निवेश कश्मीर में करवाया जाएगा, उसका सीधा लाभ आम आदमी को नहीं मिलेगा और इसलिए कश्मीर के हालात सामान्य नहीं होंगे। पर ये नकारात्मक सोच है।

इतिहास गवाह है कि मजबूत इरादों से किसी शासक ने जब कभी इस तरह के चुनौतीपूर्णं कदम उठाये हैं, तो उन्हें अंजाम तक ले जाने की नीति भी पहले से ही बना ली होती है।

कश्मीर में जो कुछ मोदी और शाह जोड़ी ने किया, वो अप्रत्याशित और ऐतिहासिक तो है ही, चिरप्रतिक्षित कदम भी है। हम इसी कॉलम में कई बार लिखते आए हैं, कि जब कश्मीरी सारे देश में सम्पत्ति खरीद सकते हैं, व्यापार और नौकरी भी कर सकते हैं, तो शेष भारतवासियों को कश्मीर में ये हक क्यों नहीं मिले?

मोदी है, तो मुमकिन है। आज ये हो गया। जिस तरह का प्रशासनिक, फौजी और पुलिस बंदोबस्त करके गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी नीति को अंजाम दिया है, उसमें अलगावादी नेताओं और आतंकवादियों के समर्थकों के लिए बच निकलने का अब कोई रास्ता नहीं बचा। अब अगर उन्होंने कुछ भी हरकत की, तो उन्हें बुरे अंजाम भोगने होंगे। जहां तक  कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी का प्रश्न है, वो तो हमेशा ही आर्थिक प्रगति चाहती है। जो बिना अमन-चैन कायम हुए संभव नहीं है। इसलिए भी अब कश्मीर में अराजकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची।

कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर, गृहमंत्री ने वहंा की कानून व्यवस्था पर अपना सीधा नियंत्रण स्थापित कर लिया है। अब जम्मू-कश्मीर पुलिस की जबावदेही वहां के मुख्यमंत्रियों के प्रति नहीं, बल्कि केंद्रीय गृहमंत्री के प्रति होगी। ऐसे में अलगाववादी शक्तियों से निपटना और भी सरल होगा।

जहां तक स्थानीय नेतृत्व का सवाल है। कश्मीर की राजनीति में मुफ्ती मोहम्मद सईद और मेहबूबा मुफ्ती ने सबसे ज्यादा नकारात्मक भूमिका निभाई है। अब ऐसे नेताओं को कश्मीर में अपनी जमीन तलाशना मुश्किल होगा। इससे घाटी में से नये नेतृत्व के उभरने की संभावनाऐं बढ़ गई हैं। जो नेतृत्व पाकिस्तान के इशारे पर चलने के बजाय अपने आवाम के फायदे को सामने रखकर आगे बढ़ेगा, तभी कामयाब हो पाऐगा।

जहां तक कश्मीर की तरक्की की बात है। आजादी के बाद से आज तक कश्मीर के साथ केंद्र की सरकार ने दामाद जैसा व्यवहार किया है। उन्हें सस्ता राशन, सस्ती बिजली, आयकर में छूट जैसी तमाम सुविधाऐं दी गई और विकास के लिए अरबों रूपया झोंका गया। इसलिए ये कहना कि अब कश्मीर का विकास तेजी से करने की जरूरत है, सही नहीं होगा। भारत के अनेक राज्यों की तुलना में कश्मीरीयों का जीवन स्तर आज भी बहुत बेहतर है।

जरूरत इस बात है कि कश्मीर के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना वहाँ पर्यटन, फल-फूल और सब्जी से जुड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए और देशभर के लोगों को वहां ऐसे उद्योग व्यापार स्थापित करने में मदद दी जाऐ। ताकि कश्मीर की जनता शेष भारत की जनता के प्रति द्वेष की भावना से निकलकर सहयोग की भावना की तरफ आगे बढ़े।
आज तक सबसे ज्यादा प्रहार तो कश्मीर में हिंदू संस्कृति पर किया गया। जब से वहां मुसलमानों का शासन आया, तब से हजारों साल की हिंदू संस्कृति को नृशंस तरीके से नष्ट किया गया। आज उस सबके पुनरोद्धार की जरूरत है। जिससे दुनिया को एक बार फिर पता चल सके कि भारत सरकार कश्मीर में ज्यात्ती नहीं कर रही थी, जैसा कि आज तक दुष्प्रचार किया गया, बल्कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिंदूओं पर अत्याचार किये, उनके शास्त्र और धम्रस्थल नष्ट किये और उन्हें खदेड़कर कश्मीर से बाहर कर दिया। जिसे देखकर सारी दुनिया मौन रही। श्रीनगर के सरकारी संग्रहालय में वहाँ की हिंदू संस्कृति और इतिहास के अनेक प्रमाण मौजूद हैं पर वहाँ की सरकारों ने उनको उपेक्षित तरीकों से पटका हुआ है। जब हमने संग्रहालय के धूप सेंकते कर्मचारियों से संग्रहालय की इन धरोहरों के बारे में बताने को कहा तो उन्होंने हमारी ओर उपेक्षा से देखकर कहा कि वहाँ पड़ी हैं, जाकर देख लो। वो तो गनीमत है कि प्रभु कृपा से ये प्रमाण बचे रह गए, वरना आतंकवादी तो इस संग्रहालय को ध्वस्त करना चाहते थे। जिससे कश्मीर के हिंदू इतिहास के सबूत ही नष्ट हो जाएँ। अब इस सबको बदलने का समय आ गया है। देशभर के लोगों को उम्मीद है कि मोदी और शाह की जोड़ी के द्वारा लिए गए इस ऐतहासिक फैसले से ऐसा मुमकिन हो पायेगा।

Monday, December 17, 2018

फिरकापरस्तों से बचें हिंदुस्तानी

तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद सोशल मीडिया पर दो बड़े खतरनाक संदेश आये। एक में हरा झंडा लेकर कुछ नौजवान जुलूस निकाल रहे थे कि ‘बाबरी मस्ज़िद’ वहीं बनाऐंगे। दूसरे संदेश में केसरिया झंडा लेकर एक जुलूस निकल रहा था, जिसमें नारे लग रहे थे, ‘एक धक्का और दो, ज़ामा मस्ज़िद तोड़ दो’’। ये बहुत खतरनाक बात है। इससे हिंदू और मुसलमान दोनों बर्बाद हो जाऐंगे और मौज मारेंगे वो सियासतदान जो इस तरह का माहौल बना रहे हैं।
1980 के पहले मुरादाबाद का पीतल उद्योग निर्यात के मामले में आसमान छू रहा था। यूरोप और अमरीका से खूब विदेशी मुद्रा आ रही थी।लोगों की तेजी से आर्थिक उन्नति हो रही थी। तभी किसी सियासतदान ने ईदगाह में सूअर छुड़वाकर ईद की नमाज में विघ्न डाल दिया। उसके बाद जो हिंदू-मुसलमानों के दंगे हुए, तो उसमें सैंकड़ों जाने गईं। महीनों तक कर्फ्यू लगा और पीतल उद्योग से जुड़े हजारों परिवार तबाह हो गऐ। कितने ही लोगों ने तो आत्महत्या तक कर ली। पर इस त्रासदी का ऐसा बढ़िया असर पड़ा कि मुरादाबाद के हिंदू-मुसलमानों ने गांठ बांध ली कि अब चाहे कुछ हो जाऐं, अपने शहर में कौंमी फसाद नहीं होने देंगे। 1990 के दौर में जब अयोध्या विवाद चरम पर था और जगह-जगह साम्प्रदायिकता भड़क रही थी तब भी मुरादाबाद में कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ।
जो राजनेता ये कहते हैं कि मुसलमान पाकिस्तान चले जाऐं, वो मूर्ख हैं। इतनी बड़ी आबादी को धक्के मारकर पाकिस्तान में घुसाया नहीं जा सकता और न ही उनका कत्लेआम किया जा सकता। ठीक इसी तरह मुसलमानों के मजहबी नेता, जो ख्वाब दिखाते हैं कि वे हिंदूओं को बदलकर, भारत में इस्लाम की हुकूमत कायम करेंगे, वो उनसे भी बड़े मूर्ख हैं। ये जानते हुए कि 1000 साल तक भारत पर यवनों की हुकूमत रही  और फिर भी भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं। तो अब ये कैसे संभव है ?
ये तय बात है कि नेता चाहे हिंदू धर्म के हों, चाहे मुसलमान, ईसाई या सिक्ख धर्म के, उनके भड़काऊ भाषण आवाम के हक के लिए नहीं होते, बल्कि आवाम को लड़वाकर अपने राजनैतिक आंकाओं के हित साधने के लिए होते हैं। इन धार्मिक नेताओं के प्रवचनों में अगर आध्यात्म और रूहानियत नहीं है और राजनीति हावी है, तो स्पष्ट है कि वे सत्ता का खेल रहे हैं। उनका मजहब से कोई लेना-देना नहीं है।
कुछ महीनों में लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं। हर राजनैतिक दल की ये पुरजोर कोशिश होगी कि वे हिंदू और मुसलमान के बीच खाई पैदा कर दे। जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो जाऐ और ऐसे ध्रुवीकरण के बाद, जिनके हाथों में सत्ता जाऐगी, वे फिर जनता की कोई परवाह नहीं करेंगे। धर्म और संस्कृति के नाम पर छलावे, दिखावे और आडंबर किये जाऐंगे जिनमें हजारों करोड़ रूपया खर्च करके भी आम जनता को कोई लाभ नहीं होगा। न तो उससे गांवों के सरोवरों में जल आएगा, न उजड़े बागों में फल लगेंगे, न उनकी कृषि सुधरेगी, न उसके बच्चों को रोजगार मिलेगा। तब आप किसके आगे रोयेंगे क्योंकि जो भी सत्ता के सिंहासन पर बैठ जाऐंगे, वो केवल अपना और दल का खजाना बढ़ायेंगे और जनता त्राही-त्राही करेगी।
अगर हम ऐसी घुटन भरी जिंदगी से निजात पाना चाहते हैं, तो हमें अपने इर्द-गिर्द के माहौल को देखकर समझना चाहिए कि आजतक इतने वायदे सुने पर क्या हमारी जिंदगी में कोई बदलाव आया या नहीं? ये बदलाव किसी सरकार के कारण आया या आपके अपने कठिन परिश्रम का परिणाम हैं ? आप निराश ही होंगे। अखबारों के विज्ञापनों में सरकारें सैकड़ों करोड़ों रूपया खर्च करके अपनी कामियाबी के जो दावें करती हैं, वो सच्चाई से कितने दूर होते हैं आप जानते हैं। हुक्मरान या जानना नहीं चाहते या उन्हें जमीनी हकीकत बताने वाला कोई नहीं। क्योंकि बीच के लोग सही बात ऊपर जाने नहीं देते। राजा को लगता है कि मेरे राज्य में सब खुशहाल हैं और अमन चैन है।
दुनिया का इतिहास गवाह है कि जहां-जहां साम्प्रदायिक दंगे हुए, वहां संस्कृतियां नष्ट हो गई। कौमें तबाह हो गईं। ये सही है कि मध्य युग के यवन आक्रांताओं ने हिंदूओं के धर्मस्थलों को तोड़ा-फोड़ा। पर ये भी सही है कि यवनों से पहले जो हिंदू राजा देश में थे, वे भी आक्रमण के बाद अपने शत्रु के साम्राज्य में ऐसी ही तबाही मचाते थे। शिव भक्त राजा द्वारा भगवान विष्णु के मंदिर तोड़े जाने के और विष्णु भक्त राजा द्वारा शिवजी के मंदिर तोड़े जाने के अनेक प्रमाण हैं। इतना ही नहीं बाद की सदियों में बौद्धों ने हिंदू मंदिर तोड़े और हिदूंओं ने बौद्ध  विहार। आज भी सत्ता के अहंकार में हिंदूवादी सत्ताएं हिंदुधर्म क्षेत्रो का कैसा वीभत्स औऱ  कितना विनाश करती है इस पर फिर कभी लिखूंगा।
भड़काऊ नारों और भाषणों से   साम्प्रदायिकता फैलती है और  दोनों पक्षों की हानि होती है। इसलिए जो वास्तव में मजहबी लोग हैं, जिनकी अपने धर्म में आस्था है, उन्हें धार्मिक उन्माद फैलाने वाले वक्ताओं से ऐसे परहेज करना चाहिए, जैसे विष मिले दूध से। जिसे कोई पीएगा नहीं।
आज भी देश के करोड़ों लोग  बुनियादी सुविधाओं के लिए तड़़प रहे हैं और बडे़-बड़े उद्योगपति बैंकों का लाखों-करोड़ रूपया कर्ज लेकर फरार हो गऐ हैं। जबकि 5000 रूपये कर्ज लेने वाला किसान आत्महत्या कर रहा है। खेती अब फायदे का सौदा नहीं रही। हवा, पानी, दूध, फल और अनाज सबमें जहर घोला जा रहा है। पर कोई सरकार आज दिन तक इसे रोक नहीं पाई। अगर हम विकास चाहते हैं तो हमारी धार्मिक आस्था हमारे स्वयं के नैतिक उत्थान के लिए हो, दूसरे का विनाश करने के लिए नहीं। यह बात सबको सोचनी है, चाहे वे किसी धर्म के क्यों न हो।