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Monday, December 30, 2019

जरा मुसलमान भी सोचें !

आज पूरे देश में उथल पुथल मची है। इसके केंद्र में है मुसलमानो को लेकर भाजपा की सोच। जो हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं।

दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। 

चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभायात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। 

किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ  होती है। यातायात अवरुद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलैंस और फायर ब्रिगेड की गाडियां अटक जाती हैं, जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनीतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। 

जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबियों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक-आध बार किसी पर्व पर हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढना, दूसरे धर्मावलंबियों को स्वीकार नहीं है। बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुम्बई में शिवसेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुम्बई एक सीधी लाइन वाला शहर है, जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुम्बई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुम्बई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रुकावट न हो। 

लगभग दो दशक पहले की बात है, मुंबई के मुसलमान भाइयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरुद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहेब ठाकरे के पास गए। बाला साहेब ने हिन्दुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब यह आरती तो दिन में 2 बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुम्बई पुलिस के हाथ-पांव फूल गए। नतीजतन मुम्बई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ यह सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढ़ेंगे और न ही हिन्दू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं। 

अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकत्र्ताओं ने देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आस-पास के राज्यों में भी हुआ। पिछले साल 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली। एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिन्दू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी एजैंडा तय हो गया। 

मैंने पूछा, ‘‘कैसे’’? तो उनका उत्तर था-भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिन्दू और मुसलमानों का राजनीतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिन्दू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोकसभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमानों के मोहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिन्दू मत एकजुट होते जाएं। 

उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नए-नए मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है, इसमें कुछ गलत नहीं। अब यह तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनीतिक दल का आकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर। चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि धर्म का इस तरह राजनीतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वह कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनीतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। 

चाहे फिर वह समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनीतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिन्दूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक ही तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वह चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? 

अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, के इशारों पर नाचकर हम अविवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं., तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए सामाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है, जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जाएगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा तथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

अनुभव बताता है कि जो राजनीतिक दल धर्म की राजनीति करते हैं उनकी भी उस धर्म के मूल सिद्धांतों में कोई आस्था नहीं होती। वो भी धर्म के प्रतीकों का दुरुपयोग केवल अपने राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही करते हैं। अगर उनसे तर्क वितर्क किया जाय तो वो जल्दी ही मान लेते हैं कि उनकी निष्ठा कहीं और है । यही हाल अन्य राजनीतिक विचारधाराओं का ढिंढोरा पीटेने वालों का भी होता है। फिर वो चाहें गांधीवादी विचारधारा हो, साम्यवादी हो या समाजवादी हो। ये सब एक सब ढकोसला है और मतदाताओं को लुभाने की युक्ति मात्र है। 

समस्या तब उत्पन्न होती है जब विचारधारा का झंडा लेकर चलने वाले दल समाज के एक वर्ग को इतना सम्मोहित कर लेते हैं कि लोग अपना विवेक खोकर अंध भक्त बन जाते हैं । उन्हें होश तब आता है जब  वे लुटपिट चुके होते हैं । तब तक राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर चुके होते हैं। 

ये भारत की ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीति करने वालों की कहानी है। इसलिए आम जनता को अपने विवेक, समझ व अनुभव पर निर्भर रहकर निर्णयकरने  चाहिये। इसी में उसकी भलाई है।

Monday, January 22, 2018

फरिश्ते आसमान से नहीं उतरते


ये किस्सा सुनकर शायद आप यकीन न करें। पर है सच। मुंबई के एक मशहूर उद्योगपति अपने मित्रों के सहित स्वीट्जरलैंड के शहर जेनेवा के पांच सितारा होटल से चैक आउट कर चुके थे। सीधे एयरर्पोट जाने की तैयारी थी। तीन घंटे बाद मुंबई की फ्लाइट से लौटना था। तभी उनके निजी सचिव का मुंबई दफ्तर से फोन आया। जिसे सुनकर ये सज्जन अचानक अपनी पत्नी और मित्रों की ओर मुड़े और बोले, ‘आप सब लोग जाईए। मैं देर रात की फ्लाइट से आउंगा’। इस तरह अचानक उनका ये फैसला सुनकर सब चैंक गये। उनसे इसकी वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि, ‘अभी मेरे दफ्तर में कोई महिला आई है, जिसका पति कैंसर से पीड़ित है। उसे एक मंहगे इंजैक्शन की जरूरत है। जो यहीं जेनेवा में मिलता है। मैं वो इंजैक्शन लेकर कल सुबह तक मुबई आ जाउंगा। परिवार और साथी असमंजस्य में पड़ गये, बोले इंजेक्शन कोरियर से आ जायेगा, आप तो साथ चलिए। उनका जबाव था, ‘उस आदमी की जान बचाना मेरे वक्त से ज्यादा कीमती है’।



इन्हीं सज्जन का गोवा में भी एक बड़ा बंगला है। जिसके सामने एक स्थानीय नौजवान चाय का ढाबा चलाता था। ये सज्जन हर क्रिसमस की छुट्ट्यिों में गोवा जाते हैं। जितनी बार ये कोठी में घुसते और निकलते, वो ढाबे वाला दूर से इन्हें हाथ हिलाकर अभिवादन करता। दोनों का बस इतना ही परिचय था। एक साल बाद जब ये छुट्ट्यिों में गोवा पहंचे तो दूर से देखा कि ढाबा बंद है। इनके बंगले के चैकीदार ने बताया कि ढाबे वाला कई महीनों से बीमार है और अस्पताल में पड़ा है। इन्होंने फौरन उसकी खैर-खबर ली और मुंबई में उसके पुख्ता और बढ़िया इलाज का इंतेजाम किया।



भगवान की इच्छा, पहले मामले में उस आदमी की जान बच गई। वो दोनों पति-पत्नी एक दिन इनका धन्यवाद करने इनके दफ्तर पहुंचे। स्वागत अधिकारी ने इन्हें फोन पर बताया कि ये दो पति-पत्नी आपको धन्यवाद करने आये हैं। इनका जबाव था कि, ‘उनसे कहो कि मेरा नहीं, ईश्वर का धन्यवाद करें‘ और ये उनसे नहीं मिले।



गोवा वाले मामले में, ढाबे वाला आदमी, बढ़िया इलाज के बावजूद मर गया। जब इन्हें पता चला, तो उसकी बेवा से पुछवाया कि हम तुम्हारी क्या मदद कर सकते हैं। उसने बताया कि मेरे पति दो लाख रूपये का कर्जा छोड़ गये हैं। अगर कर्जा पट जाये, तो मैं ढाबा चलाकर अपनी गुजर-बसर कर लूंगी। उसकी ये मुराद पूरी हुई। वो भी बंगले में आकर धन्यवाद करना चाहती थी। इन्होंने उसे भी वही जबाव भिजवा दिया।



इसे कहते हैं, ‘नेकी कर, दरिया में डाल’। उन सज्जन का नाम है, कमल मोरारका। जो एक जमाने में चंद्रशेखर सरकार के प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री भी रहे। उनकी जिंदगी से जुडे़ ऐसे सैकड़ों किस्से हैं, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं सुनाया, पर वो लोग सुनाते हैं, जिनकी इन्होंने मदद की। उनकी मदद लेने वालों में देश के तमाम साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी, पत्रकार, राजनेता व अन्य सैकड़ों लोग हैं, जो उन्हें इंसान नहीं फरिश्ता मानते हैं।



दरअसल भारत के पूंजीवाद और पश्चिम के पूंजीवाद में यही बुनियादी अंतर है। पश्चिमी सभ्यता में धन कमाया जाता है, मौज-मस्ती, सैर-सपाटे और ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए। जबकि भारत का पारंपरिक वैश्य समाज ‘सादा जीवन, उच्च विचार के सिद्धांत को मानता आया है। वो दिन-रात मेहनत करता रहा और धन जोड़ता रहा है। पर उसका रहन-सहन और खान-पान बिलकुल साधारण होता था। वो खर्च करता तो सम्पत्ति खरीदने में या सोने-चांदी में। इसीलिए भारत हमेशा से सोने की चिड़िया रहा है। दुनिया की आर्थिक मंदी के दौर भीवभारत की अर्थव्यवस्था को झकझोर नहीं पाये। जबकि उपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति में क्रेडिट कार्ड की डिजिटल इकॉनौमी ने कई बार अपने समाजों को भारी आर्थिक संकट में डाला है। अमरिका सहित ये तमाम देश आज खरबों रूपये के विदेशी कर्ज में डूबे हैं। वे सही मायने में चार्वाक के अनुयायी हैं, ‘जब तक जियो सुख से जियो, ऋण मांगकर भी पीना पड़े तो भी घी पियो‘। यही कारण है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था की नीतियों को भारत का पारंपरिक समाज स्वीकार करने में अभी  हिचक रहा है। उसे डर है कि अगर हमारी हजारों साल की परंपरा को तोड़कर हम इस नई व्यवस्था को अपना लेंगे, तो हम अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माफियाओं के जाल में फंस जायेंगे। अब ये तो वक्त ही बतायेगा कि लोग बदलते हैं, कि नीतियां।



हम बात कर रहे थे, इंसानी फरिश्तों की। आधुनिकता के दौर में मानवीय संवेदनशीलता भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। ऐसे में किसी साधन संपन्न व्यक्ति से मानवीय संवेदनाओं की अपेक्षा करना, काफी मुश्किल हो जाता है। जबकि नई व्यवस्था में सामाजिक सारोकार के हर मुद्दे पर बिना बड़ी कीमत के राहत मुहैया नहीं होती। इससे समाज में हताशा फैलती है। संरक्षण की पुरानी व्यवस्था रही नहीं और नई उनकी हैसियत के बाहर है। ऐसे में इंसानी फरिश्ते ही लोगों के काम आते हैं, पर उनकी तादात अब उंगलियों पर गिनी जा सकती है। कमल मोरारका एक ऐसी शख्सियत है, जिनकी जितनी तारीफ की जाये कम है।

Monday, October 12, 2015

अमृतानंदमयी मां हमारी समझ से परे हैं

केरल के कोल्लम गांव जाने से पहले मैंने दिल्ली के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से माता अमृतानंदमयी मां के विषय में राय पूछी। केरल के ही एक राजनैतिक व्यक्ति ने यह कहकर बात हल्की कर दी कि अम्मा के पास बहुत पैसा है और वो खूब धन लुटाती हैं। मीडिया से जुड़े एक व्यक्ति ने कहा कि जिस तरह वे लोगों का आलिंगन करती हैं, उसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक तीसरे व्यक्ति ने कहा कि अम्मा को अज्ञात स्रोतों से विदेशों से भारी मात्रा में पैसा आ रहा है और वे ऐश्वर्य का जीवन जीती हैं। दूसरी तरफ तमाम ऐसे प्रतिष्ठित लोग थे, जिन्होंने अम्मा के उच्च आध्यात्मिक स्तर का यशगान किया। पेरिस में रहने वाले श्रीविद्या, जो मूलतः तमिलनाडु से हैं, पर पेरिस में वैदिक विज्ञान पर शोध कर रहे हैं और हर महीने भारत आते-जाते रहते हैं। जब उनसे मैंने अम्मा के विषय में पूछा, तो वे कपकपा उठे और बोले अम्मा अन्य आत्मघोषित संतों की तरह नहीं है। उनका चेतना का स्तर मानवीय सीमा के बाहर है। उनमें इतनी आध्यात्मिक शक्ति है कि मैं आज तक उनके दर्शन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया हूं। इतना कहकर वे रोने लगे। अब ऐसे विरोधाभासी बयानों के बीच मैं कोचीन से कोल्लम के रास्ते के बीच यही सोचता गया कि मुझे कैसा अनुभव होगा ?
 
विस्तार में न जाकर अगर निचोड़ प्रस्तुत करूं तो कहना अतिशोक्ति न होगी कि अम्मा का दिल एक विशाल सागर की तरह है। जिसमें छोटी मछली से लेकर व्हेल मछली तक सबको उन्होंने समा रखा है। उनके आलिंगन का लाभ धनिकों और सत्ता के निकट रहने वालों तक सीमित नहीं है। उनका दरबार तो खुला है। पहले आओ पहले पाओ। उनके दर्शनार्थ आने वालों में बहुसंख्यक लोग दरिद्र हैं, जो अपनी बेबसी का, लाइलाजी का या पारिवारिक कलह का रोना लेकर आते हैं। मां सबको गले लगाती है, उनके आंसू पोंछती है और अपने स्वयंसेवकों से ऐसे लोगों की हर तरह से मदद करने का निर्देश देती हैं। गरीबों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के क्षेत्र में अम्मा ने अभूतपूर्व कार्य किया है और आज भी कर रही हैं। यह सुनकर बहुत रोमांच हुआ कि कोल्लम के आश्रम के शौचालय से जुड़े ‘सोकपिट’ जब साफ करने होते हैं, तो उसमें भरे मल और मूत्र को बाल्टी से बाहर निकालने के काम में अम्मा सबसे आगे खड़ी होती हैं। सबरीमलई एक ऐसा तीर्थ है केरल में, जहां सालाना करोड़ों लोग आते हैं और स्थानीय मान्यता के अनुरूप अपने वस्त्र वहीं उतार देते हैं। नतीजतन, वहां की नदी, बगीचे और खुली जगह कूड़े-करकट और उतारे हुए कपड़ों के पहाड़ से ढक जाती है। यह है हमारी धार्मिक आस्था का प्रमाण। हम जिस भी तीर्थ स्थल पर जाते हैं, वहां ढे़रों कूड़ा छोड़कर आते हैं। पर अम्मा, जिनके शिष्यों की संख्या पूरे विश्व में करोड़ों में है, वो हर साल डेढ़ हजार स्वयंसेवकों को लेकर सबरीमलई जाते हैं और उत्सव के बाद जमा हुआ सारा कूड़ा भारी मशीनों की मदद से तीन दिन में साफ कर देते हैं। आप बताइये कि आपकी दृष्टि में भारत में ऐसा कौन-सा संत है, जो भगवान कृष्ण के उस उदाहरण का अनुकरण करता हो, जब उन्होंने महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में झूठे पत्तल उठाने की सेवा ली थी। ऐसा कोई संत या भागवताचार्य दिखाई नहीं देता।
 
चैथी कक्षा पढ़ी अम्मा सिर्फ मलयालम बोलती हैं। पर, कोल्लम के समुद्रतट पर, नारियल के पेड़ों की छांव में एक तख्त पर बैठकर हजारों देशी-विदेशी शिष्यों के आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर वे इतने विस्तार से देती हैं कि बड़े-बड़े शास्त्र पारंगत नतमस्तक हो जाएं। इसमें अचम्भा भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सूर, कबीर व तुलसी जैसे संत ने बिना पढ़े-लिखे होकर भी ऐसा साहित्य रच गए, जिस पर आज पीएचडी के लिए शोध किया जाता है। अम्मा का आध्यात्मिक ज्ञान किताबों से पढ़ा हुआ नहीं लगता। ये तो उनकी चेतना है, जो ब्रह्मांड की शक्तियों से संपर्क साधकर अपने चैत्य गुरू के निर्देश पर सारे दर्शन का निचोड़ जान चुकी हैं। मैं तीन बार अम्मा से मिला और तीनों बार उन्होंने आलिंगन कर मेरे सिर पर हाथ फेरे और मुझे लगा कि मैं साक्षात् यशोदा मैया की गोद में आ गया हूं। आंखों से बरबस आंसू झलक आए। वह माहौल ही कुछ ऐसा था, जहां एक मां की हजारों संतानें सामने बैठकर भजन सुन रही थीं। अम्मा का गायन और भजन में तल्लीनता इहलौकिक नहीं है। अम्मा के आश्रम में हर व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा या व्यवसाय की सर्वश्रेष्ठ स्थिति से निकलकर अम्मा के पास आकर बस गए हैं और निष्काम भावना से शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन जैसे कार्यों में रात-दिन दरिद्र नारायण की सेवा कर रहे हैं। सबके चेहरे पर एक पारलौकिक मुस्कान हमेशा दिखाई देती है।
 
मैं तो यही कहूंगा कि अम्मा का व्यक्तित्व देखकर यह लगता है कि वे वास्तव में जगतजननी हैं। ग्रामीण विकास के और ग्रामीण स्वास्थ्य के जितने बड़े अभियान देश में दिख रहे हैं, उन सबसे कहीं आगे है अम्मा का ग्राम विकास का सार्थक प्रारूप। ऐसी भगवती स्वरूपा को हम अम्मा न कहें तो और क्या कहें। जैसा सोचा था उससे कहीं ज्यादा मिलीं अम्मा, जो भी उनके पास जाएगा, उनका कृपा प्रसाद अवश्य पाएगा।