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Monday, July 11, 2022

अवसादों भरा हफ़्ता



पिछला हफ़्ता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवसादों से भरा रहा। जो घटनाएँ घटीं उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष असर भारत पर भी पड़ेगा। इस क्रम में सबसे ज़्यादा दुखद घटना जापान के पूर्व प्रधान मंत्री शिंजो आबे की नृशंस हत्या है। वे न केवल जापान के सशक्त और लोकप्रिय नेता थे बल्कि विश्व राजनीति में भी उनका सर्वमान्य प्रभावशाली व्यक्तित्व था। इस तरह की हिंसा जापान की संस्कृति में अनहोनी घटना है। कुछ लोगों को अंदेशा है कि इसके पीछे चीन का हाथ हो सकता है। जिसने हत्यारे को मनोवैज्ञानिक रूप से इस हाराकिरी के लिए उकसाया होगा। ऐसे षड्यंत्रों का प्रमाण आसानी से जग-ज़ाहिर नहीं होता, इसलिए दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा अंदेशा लगाने वालों का तार्किक आधार यह है कि ‘साउथ एशिया सी’ में चीन की बढ़ती दादागिरी को रोकने की जो पहल शिंजो आबे ने की उससे चीन जाहिरन बहुत विचलित था। 



दुनिया के राजनैतिक पटल पर चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाएं और परोक्ष दादागिरी पर लगाम कसने का साहस अगर किसी में था तो वह शिंजो आबे थे। आबे की आकस्मिक मृत्यु भारत के लिए भी चिंता का विषय है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि शिंजो आबे की मृत्यु ने भारत का एक सशक्त शुभचिंतक खो दिया। चीन को घेरने की शिंजो आबे की नीति में सक्रिय रह कर श्री मोदी ने भी सहयोग किया था। क्योंकि यह भारत के भी हित में है, वरना चीन का आर्थिक नव-साम्राज्यवाद दक्षिण एशिया को निगलने को तैयार बैठा है। 


उधर श्रीलंका में पिछले कुछ महीनों से जो चल रहा है और विशेषकर पिछले हफ़्ते जो हुआ, वो भी काफ़ी चिंताजनक है। समाज के एक बड़े हिस्से की ओर हिक़ारत से देखना और उसके प्रति घृणा, द्वेष व हिंसा को प्रोत्साहित करके चुनाव जीतने की जो रणनीति श्रीलंका की श्रीलंका पीपुल्स पार्टी और इसके नेताओं महिंदा राजपक्षे और गोटबाया राजपक्षे ने अपनाई थी, उससे वे सत्ता पर तो क़ाबिज़ हो गए, पर विकास के किए वायदे पूरे न कर पाने के कारण  जल्दी ही जनता की नज़र में गिर गए। उस पर भी राजपक्षे परिवार के भारी भ्रष्टाचार ने आग में घी का काम किया। लाखों की तादाद में श्रीलंका की जनता का, फ़ौज की मौजूदगी में, राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास पर हमला करना और राष्ट्रपति का छिप कर भाग निकलना, किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए बड़ी चेतावनी है। बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और दैनिक वस्तुओं की भारी कमी जैसी समस्याओं से जूझती श्रीलंका की आम जनता ने अबसे कुछ हफ़्तों पहले इसी तरह प्रधान मंत्री के आवास पर हमला करके उसे जला दिया था। ये वही जनता है जो कल तक इन्हीं नेताओं की दीवानी थी और इनके एक इशारे पर समाज के एक ख़ास हिस्से को समुद्र तक में फेंकने को तैयार थी। 


दुनिया भर के राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि भावनात्मक मुद्दों का जीवनकाल बहुत लम्बा नहीं होता। ये तभी तक सफल होते हैं जब तक आम लोगों को बुनियादी सुविधाएँ, संसाधन और रोज़मर्रा की वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध होती रहें। पुरानी कहावत है, ‘भूखे भजन न होय गोपाला। ले लो अपनी कंठी माला।।’, यानी भजन भी भरे पेट के बाद ही हो पाता है। 



भारत के लिए यह एक अच्छी बात है कि हमारा देश कृषि प्रधान है। इसलिए श्रीलंका की तरह भारतवासियों को भूखे सड़कों पर उतरने की नौबत नहीं आएगी। 1994 की बात है मेरे सहपाठी और केंद्र में मंत्री रहे दिवंगत दिग्विजय सिंह से मैंने कहा कि ‘राजनेता इतना भ्रष्टाचार क्यों करते हैं? क्या उन्हें जनक्रांति की संभावना के बारे में सोच कर डर नहीं लगता?’ इस पर दिग्विजय सिंह का उत्तर था, तुम किस दुनिया में रहते हो? भारत के आम लोगों को दो वक्त भरपेट अनाज मिलने में कमी नहीं रहेगी और वे भाग्यवादी हैं, इसलिए अपनी हालत के लिए हमें नहीं, अपने भाग्य को दोष देते हैं। इसलिए यहाँ कभी क्रांति नहीं होगी। उस समय दिग्विजय की ये बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया था। पर सब समय एक सा नहीं रहता। हालात बदलने से सोच बदल जाती है। पहले देश के नौजवान भारी मात्रा में अशिक्षित थे। इसलिए परिवार के पास खेती योग्य भूमि सीमित मात्रा में होने पर भी सारा परिवार उसी में जुटा रहता था। जिसे अर्थशास्त्रियों ने ‘प्रच्छन्न बेरोज़गारी’ कहा था। यानी वो बेरोज़गार जो सरकार के रोज़गार कार्यालय में पंजीकरण नहीं कराते। जबकि सही मायने में उनके पास उनकी क्षमता के अनुरूप रोज़गार नहीं होता। 


लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। भारत की 40 फ़ीसद आबादी युवाओं की है। उनमें शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। सूचना क्रांति के चलते गाँव-गाँव तक जागृति फैली है। अब भारत का युवा कुएँ का मेंढक नहीं है। उसकी महत्वाकांक्षाओं को पर लग गए हैं। वो भी आर्थिक प्रगति के आसमान में उड़ना चाहता है। पिछले दिनों ‘अग्निवीर’ योजना को लेकर बरसों से सैन्य और अर्धसैन्य बलों में नौकरी के लिए तैयारी कर रहे करोड़ों युवाओं ने जिस तरह का आक्रोश व्यक्त किया उससे यही संकेत मिलता है कि अब भारत का युवा सपनों की दुनिया में जीना नहीं चाहता। वह अपने सपनों को धरातल पर उतरते देखना चाहता है। 


राष्ट्र का जो नेता युवाओं के और आम लोगों के सपनों को साकार करने की क्षमता का ठोस प्रदर्शन करेगा, वही उनके दिल पर राज करेगा। कोरे आश्वासनों की घुट्टी पिलाने वाला नहीं। भारत के हर राजनैतिक दल के नेताओं को श्रीलंका के घटनाक्रम से सबक़ लेना चाहिए। उन्हें भारी भ्रष्टाचार के मोह जाल से निकल कर, कोरे वायदे और सपने दिखाना बंद करना चाहिए। दुर्भाग्य से आज हम सबके दिमाग़ और मीडिया का सारा समय उन मुद्दों पर बहस में नाहक बर्बाद हो रहा है, जिनसे इन समस्याओं का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। जबकि हमारा क़ीमती समय यह सोचने में लगना चाहिए कि भारत कैसे स्विट्ज़रलैंड जैसा सुंदर बने। कैसे हम तकनीकी शोध में पिद्दी से देश इज़राइल से आगे बढ़ें। कैसे हमारी अर्थव्यवस्था जापान जैसी मज़बूत बने और कैसे हमारे युवा ओलम्पिक खेलों में अमरीका से ज़्यादा मेडल लेकर आएँ। अगर हमने नकारात्मक और विघटनकारी मुद्दों से ध्यान हटा कर विकास के मुद्दों पर केंद्रित नहीं किया तो ‘सोने की चिड़िया’ रहा भारत ‘विश्वगुरु’ नहीं बन पाएगा।      

Monday, June 27, 2022

तेलंगाना ने बनाया तिरुपति जैसा भव्य मंदिर



क्या आपको पता है कि हैदराबाद से 60 किलोमीटर दूर यदाद्रीगिरीगुट्टा क्षेत्र में भगवान लक्ष्मी-नृसिंह देव का एक अत्यंत भव्य मंदिर पिछले वर्षों में बना है। पिछले हफ़्ते जब मैं इसके दर्शन करने गया तो इसकी भव्यता और पवित्रता देख कर दंग रह गया। दरअसल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद तेलंगाना में ये एक कमी थी। प्रसिद्ध तिरुमाला तिरुपति मंदिर आंध्र प्रदेश के हिस्से में चला गया था। तेलंगाना सरकार ने इस कमी को पूरा करने के लिए पौराणिक महत्व के यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह मंदिर का 1800 करोड़ रुपए की लागत से तिरुपति की तर्ज पर भव्य निर्माण करवाया है। आज यहाँ लाखों दर्शनार्थियों का मेला लगा रहता है। 


यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह गुफा का उल्लेख 18 पुराणों में से एक स्कंद पुराण में मिलता है। शास्त्रों के अनुसार त्रेता युग में महर्षि ऋष्यश्रृंग के पुत्र यद ऋषि ने यहां भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। उनके तप से प्रसन्न विष्णु ने उन्हें नृसिंह रूप में दर्शन दिए थे। महर्षि यद की प्रार्थना पर भगवान नृसिंह तीन रूपों ज्वाला नृसिंह, गंधभिरंदा नृसिंह और योगानंदा नृसिंह में यहीं विराजित हो गए। दुनिया में एकमात्र ध्यानस्थ पौराणिक नृंसिंह प्रतिमा इसी मंदिर में है। भगवान नृसिंह की ये तीन और माता लक्ष्मी की एक प्रतिमाएं, करीब 12 फीट ऊंची और 30 फीट लंबी एक गुफा में आज भी मौजूद हैं। इस गुफा में एक साथ 500 लोग दर्शन कर सकते हैं। इसके साथ ही आसपास हनुमान जी और अन्य देवताओं के भी स्थान हैं। इसी गुफा के ऊपर व चारों ओर ये विशाल मंदिर परिसर बनाया गया है। 



मंदिर के निर्माण में कहीं भी ईंट, सीमेंट या कंक्रीट का प्रयोग नहीं हुआ है। सारा मंदिर ग्रेनाइट की भारी-भारी श्री कृष्ण शिलाओंसे बना है जिन्हें पुराने  तरीक़े के चूने के मसाले से जोड़ा गया है। मंदिर के निर्माण में 80 हज़ार टन पत्थर लगा है। जो ये सुनिश्चित करेगा कि ये मंदिर सदियों तक रहेगा। नवनिर्मित मंदिर का सारा निर्माण कार्य आगम, वास्तु और पंचरथ शास्त्रों के सिद्धांतों पर किया गया है। जिनकी दक्षिण भारत के खासी मान्यता है। पारम्परिक नक्काशी से सुसज्जित यह मंदिर कुल साढ़े चार साल में बन कर तैयार हुआ है जो अपने आप में एक आश्चर्य है। इसके लिए इंजीनियरों और आर्किटेक्ट्स ने करीब 1500 नक्शों और योजनाओं पर काम किया। मंदिर का सात मंज़िला ग्रेनाइट का बना मुख्य द्वार, जिसे राजगोपुरम कहा जाता है, करीब 84 फीट ऊंचा है। इसके अलावा मंदिर के 6 और गोपुरम हैं। राजगोपुरम के आर्किटेक्चर में 5 सभ्यताओं द्रविड़, पल्लव, चौल, चालुक्य और काकातिय की झलक मिलती है।    


हजारों साल पुराने इस तीर्थ का क्षेत्रफल करीब 9 एकड़ था। मंदिर के विस्तार के लिए 1900 एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई। इसकी भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर में 39 किलो सोने और करीब 1753 टन चांदी से सारे गोपुरम (द्वार) और दीवारों को मढ़ा गया है। नवस्थापित भगवान के विशाल विग्रह व गरुड़स्तंभ भी सोने के बने हैं। मंदिर की पूरी परिकल्पना हैदराबाद के प्रसिद्ध आर्किटेक्ट आनंद साईं की है। यदाद्री मंदिर ऊँचे पहाड़ पर मौजूद है। मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की सनातन धर्म में गहरी आस्था है, ये इस बात से सिद्ध होता है कि उन्होंने मंदिर परिसर के आस-पास कोई भी दुकान या खान-पान की व्यवस्था नहीं होने दी। क्योंकि उससे मंदिर की पवित्रता भंग होती। इन सब गतिविधियों के लिए उन्होंने पहाड़ के नीचे तलहटी में पूरा व्यावसायिक परिसर बनाया है। जबकि उत्तर भारत में हो रहे धार्मिक नव निर्माणों में मंदिर परिसर या उसके आस-पास भोजनालय, दुकानें और अतिथि निवास बना कर अफ़सरों और इंजिनीयरों ने अनेकों सुप्रसिद्ध मंदिरों की पवित्रता और शांति को भंग कर दिया है।   


मंदिर तक पहुंचने के लिए हैदराबाद सहित सभी बड़े शहरों से जोड़ने के लिए फोरलेन सड़कें तैयार की गई हैं। मंदिर के लिए अलग से बस-डिपो भी बनाए गए हैं। इस इलाक़े में यात्रियों से लेकर वीआईपी तक सारे लोगों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए कई तरह की व्यवस्थाएं की गई हैं। यात्रियों के लिए मंदिर की पहाड़ से दूर अन्य पहाड़ों पर अलग-अलग तरह के गेस्ट हाउस और टेम्पल सिटी का निर्माण भी किया गया है। पूरे परिक्षेत्र में जो हरियाली और फुलवारी लगाई गई है वो अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। जैसी आपको सिंगापुर, शंघाई, वीयना जैसे शहरों में देखने को मिलती है। सफ़ाई और रख-रखाव भी पाँच सितारा स्तर का है। जिससे उत्तर भारत के मंदिरों के प्रशासकों व तीर्थ विकास में लगे अफ़सरों को प्रेरणा लेनी चाहिए। अच्छा होगा कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जी इस भव्य मंदिर और इसके परिसर का दर्शन व भ्रमण करके आएँ। तब वे तुलना कर सकेंगे कि पिछले सात सालों में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने तेलंगाना के अधिकारियों की तुलना में गुणवत्ता व कलात्मकता की दृष्टि से कैसा काम किया है। ज्ञान जहां से भी मिले बटोरना चाहिए, ये हमारा वेद-वाक्य है।   


आश्चर्य की बात यह है कि यदाद्रीगिरीगुट्टा के इस इलाक़े में जहां दूर-दूर तक एक बूंद पानी नहीं था। भूमि सूखी और पथरीली थी। जल का कोई स्रोत न था। वहाँ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की विश्व भर में चर्चित ‘मिशन भागीरथ’ योजना से दस लाख लीटर शुद्ध जल प्रतिदिन पहुँचाया जा रहा है। यहाँ बने कल्याणकट्टा मंडप में प्रतिदिन 15 हज़ार भक्त मुंडन करवाने के बाद सामने लक्ष्मी सरोवर में दर्शनार्थी स्नान करते हैं। प्रसाद हॉल में एक बार में 750 और दिन भर में 15 हज़ार लोग प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं। इसके अलावा तिरुपति की तरह ही यदाद्री मंदिर में भी लड्डू प्रसादम् मिलता है। इसके लिए अलग से एक कॉम्प्लेक्स तैयार किया गया है, जहां लड्डू प्रसादम् के निर्माण से लेकर पैकिंग की व्यवस्था है। मंदिर में दर्शन के लिए क्यू कॉम्पलेक्स बनाया गया है। इसकी ऊंचाई करीब 12 मीटर है। इसमें रेस्टरूम सहित कैफेटेरिया की सुविधाएं भी हैं। अब आप जब चाहें तिरुपति के साथ ही स्कंद पुराण में वर्णित इस दिव्य तीर्थ स्थल का भी दर्शन करने हैदराबाद से यदाद्रीगिरीगुट्टा मंदिर जा सकते हैं। आपको दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी।

Monday, June 20, 2022

बुलडोज़र बनाम क़ानून

प्रयागराज में मोहम्मद जावेद की पत्नी की मिल्कियत वाला मकान प्रशासन ने बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया। जावेद पर प्रयागराज में पत्थरबाज़ी करवाने व दंगे भड़काने का आरोप है। आरोप सिद्ध होने तक वो फ़िलहाल हिरासत में है। प्रशासन की इस कार्यवाही से कई क़ानूनी सवाल पैदा हो गए हैं। इस विषय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोविंद माथुर ने एक अख़बार से हुई बातचीत में बताया कि, 'ये पूरी तरह से गैरकानूनी है। भले ही आप एक पल के लिए भी मान लें कि निर्माण अवैध था, लेकिन करोड़ों भारतीय भी ऐसे ही रहते हैं, यह अनुमति नहीं है कि आप रविवार को एक घर को ध्वस्त कर दें जब उस घर का निवासी हिरासत में हों। यह कोई तकनीकी मुद्दा नहीं है बल्कि कानून के शासन का सवाल है।' 


जस्टिस माथुर ने समझाया कि प्रशासन द्वारा बुलडोज़र से केवल किसी संपत्ति का अवैध रूप से निर्मित हिस्सा या तो गिराया जा सकता है या उस पर जुर्माना लगा कर उसे कंपाउंड कर दिया जाता है। अगर मकान का कोई हिस्सा या अधिकतर भाग वैध रूप से निर्मित है तो उसे कभी भी ध्वस्त नहीं किया जा सकता। दंगे भड़काने के आरोपी को सज़ा देने के कई प्रावधान भारतीय दंड संहिता में हैं। लेकिन उसकी निज संपत्ति गिराने का कोई प्रावधान क़ानून में नहीं है। किसी भी आरोपी के मकान या संपत्ति को केवल कुर्क किया जा सकता है, वो भी तब जब वो फ़रार हो और भगोड़ा घोषित हो। जो आरोपी हिरासत में है उसकी संपत्ति इस तरह नहीं गिराई जा सकती। इसलिए इस विषय पर देश के न्यायविदों में बहस छिड़ गई है। सरकार के विरोधी उस पर प्रशासन, पुलिस व न्यायपालिका तीनों की भूमिका एक साथ निभाने का आरोप लगा रहे हैं। उनका आरोप है कि इस तरह हमारे लोकतंत्र में स्थापित चारों खंबों का संतुलन बिगड़ जाएगा जिससे फिर क़ानून का नहीं केवल डंडे का शासन चलेगा। जिससे लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा। 


दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ के चाहने वाले उनके इस अवतार से बेहद खुश और प्रभावित हैं। पिछले कुछ महीनों से योगी जी एक नया नाम ‘बुलडोज़र बाबा’ भी दे दिया गया है। जो शायद उन्हें भी सुहाता है तभी पिछले चुनावों में इस नाम का भरपूर प्रचार किया गया। दरअसल पुलिस और क़ानून की जटिल व बेहद लम्बी प्रक्रिया से आम आदमी त्रस्त है। इसलिए वो तुरंत समाधान को क़ानून की प्रक्रिया से बेहतर मानने को विवश है। भारत जैसे सामंतवादी देश में राजा का कड़ा या अधिनायकवादी होना उसके प्रशंसकों को अच्छा लगता है। पर इसके बहुत सारे ख़तरे भी हैं। 



जिस तरह तेलंगाना में पुलिस ने चार बलात्कारियों को अपनी हिरासत में फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मार गिराया और आम जनता की वाह-वाही लूटी थी, उससे भी यह संदेश गया कि इस तरह सीधी सज़ा देना जनता को ज़्यादा पसंद है। पर बाद में जब यह सिद्ध हो गया कि इन आरोपियों को पुलिसवालों ने अवैध तरीक़े से मारा तो अब वे पुलिस वाले ही हत्या के आरोप का मुक़दमा झेल रहे हैं। क़ानून की प्रक्रिया लम्बी व जटिल ज़रूर है पर इसके पीछे एक पवित्र लक्ष्य है कि भले ही सौ अपराधी क्यों न छूट जाएं पर किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। दूसरी तरफ़ पंजाब के आतंकवाद का उदाहरण है जो किसी भी तरह क़ाबू में नहीं आ रहा था तो वहाँ के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल ने भी यही रास्ता अपनाया। आरोप है कि उन्होंने कुछ ही हफ़्तों में सैंकड़ों आतंकवादियों फ़र्ज़ी एनकाउंटर में मार गिराया। जिसका प्रभाव यह हुआ कि आतंकवाद क़ाबू में आ गया। अब यह दुधारी तलवार है। मनवाधिकारों का संज्ञान लेकर अगर क़ानूनी प्रक्रिया से चला जाए तो दुर्दांत अपराधी को भी दशकों तक सज़ा नहीं होती। अगर फ़र्ज़ी एनकाउंटर वाला रास्ता अपनाया जाता है तो समस्या का तात्कालिक समाधान मिल जाता है, भले ही वो समस्या फिर से सिर उठा ले। 


अवैध निर्माण गिराने के मामले में तो एक और पेच है, वो ये कि अवैध निर्माण इकतरफ़ा नहीं होते। उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में जिस व्यापक स्तर पर अवैध निर्माण हो चुके हैं वो विकास प्राधिकरणों, पुलिस व प्रशासन की मिलीभगत से ही हुए हैं। जिसके लिए बहुत मोटा पैसा रिश्वत में अफ़सरों को मिलता है। वरना अवैध निर्माण कोई चींटी का घर तो नहीं जो रातों रात हो जाए। महीनों लगते हैं। तब ये अफ़सर क्या भांग पीकर सोए रहते हैं? पर संपत्ति ध्वस्त होती है केवल बनाने वाले की। तो इन अफ़सरों को क्या सज़ा मिलती है? कुछ नहीं। इसलिए अवैध निर्माण बेरोकटोक सालों साल चलते रहते हैं। सरकार चाहे किसी की भी हो। क्योंकि ऐसे अफ़सरों को अपने राजनैतिक आकाओं का संरक्षण प्राप्त होता है। जिनकी इस लूट में हिस्सेदारी होती है। इसलिए अवैध निर्माण की समस्या घटने के बजाए बढ़ती जा रही है। बुलडोज़र बाबा को चाहिए कि एक सार्वजनिक अपील जारी करें जिसमें अवैध भवनों  के निर्माताओं को प्रोत्साहित किया जाए ये बताने के लिए की उन्होंने ये अवैध निर्माण किन-किन अफ़सरों के कार्यकाल में, किस को कितना रुपया देकर किए थे। ऐसे नामों के सामने आने पर उनकी संपत्ति आदि की जाँच की जाए और उन्हें कठोरतम सज़ा दी जाए। वरना मतदाता तो हर हाल में बर्बाद होगा ही पर भ्रष्टाचारी अफ़सरों और नेताओं को कोई सबक नहीं मिलेगा। 


अगर जनता ये बताने में डरती है या संकोच करती है तो भी इन अफ़सरों को कड़ी सजा सिर्फ़ इस आधार पर भी दी जा सकती है कि इस अवैध निर्माण के दौरान वे उस शहर में संबंधित पदों पर तैनात थे और इन्होंने जानबूझ कर ऐसे अवैध निर्माणों के होते हुए उन पर से आँखें फेर ली। अगर बुलडोज़र बाबा पूरे प्रदेश में से 100-200 भ्रष्ट अफ़सरों को ऐसी सज़ा दे पाते हैं तो उनका डंका बजेगा। अगर नहीं कर पाते तो उनके बुलडोज़र बाबा होने पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। आशा की जानी चाहिए कि अपनी दबंग छवि के अनुरूप योगी जी का बुलडोज़र उन सैंकड़ों भ्रष्ट अधिकारियों की संपत्ति पर भी उसी तीव्रता से चलेगा जिस तीव्रता से वे अपराधियों की संपत्ति को ध्वस्त करते आए हैं।

Monday, May 2, 2022

मुख्य मंत्री योगी जी की भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रांतिकारी पहल


उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी जी ने एक क्रांतिकारी घोषणा की है कि सभी अफ़सर, मंत्री व विधायक तीन महीने के अंदर अपनी चल-अचल सभी सम्पत्तियों की घोषणा सार्वजनिक करें। ज़ाहिर है कि इस घोषणा से अफ़सरशाही और मंत्रियों में हड़कम्प मचेगा। भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। योगी जी को भी इस घोषणा से ये लाभ मिल सकता है। बशर्ते वे इसे अपने बुलडोज़र वाले तेवर से लागू करें।
 


बोफ़ोर्स का मुद्दा उठाकर ही विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे। इसी मुद्दे को उठाकर अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए। ये बात दूसरी है कि दोनों के मुद्दे फुस्स रहे और जिनके ख़िलाफ़ इन्होंने अपना अभियान चलाया था और ढेरों सबूत सामने लाने का जन सभाओं में बार-बार आश्वासन दिया था, वो कभी सामने ही नहीं आए। 


दरअसल कोई भी नेता भ्रष्टाचार से ईमानदारी से लड़ना नहीं चाहता। सब इस पर शोर मचा कर कुर्सी हथियाते हैं और फ़िर मौन हो जाते हैं। पर योगी जी कुर्सी पाने के बाद भी अगर इस अभियान को शुरू कर रहे हैं तो उन्हें हल्के में नहीं लेना चाहिए। बाबा इरादे के पक्के हैं और जानते हैं कि प्रदेश के विकास का धन हुक्मरानों की तिजोरियों में चला जा रहा है। इसलिए वे इस मुहीम को कैसे आगे बढ़ाते हैं ये बात प्रदेश की ही नहीं देश भर की जनता देखेगी।


पर योगी जी को ये ध्यान रखना होगा कि उनके इर्द गिर्द के अफ़सरान ही उनके इस महत्वपूर्ण अभियान को पलीता न लगा दें। जैसा वे अभी तक लगाते आए हैं। इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को हमने योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि दो साल में भी इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? 


रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की महामहिम राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 


इस बीच यूपी के कई बड़े अफ़सरों व नेताओं ने रजनीश कपूर पर दबाव डालने की नाकाम कोशिश की जिससे वे इस जाँच को करवाने की अपनी ज़िद छोड़ दें। जाहिरन उन सबके सैकड़ों करोड़ रुपए कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की कम्पनियों में लगे होंगे, तभी उन सब में आज तक इस मामले को लेकर इतनी बेचैनी है। 


रजनीश कपूर ने कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की इन ‘शैल कम्पनियों’ की कई सूचियाँ भी योगी जी के कार्यालय को भेजी हैं। मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया और योगी जी को लगातार धोखे में रखा। अब योगी जी को इस जाँच का बुलडोज़र तेज़ी से चलाना चाहिए। इस से उनकी छवि तो बनेगी ही, भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके इस अभियान की ईमानदारी भी सिद्ध होगी। क्योंकि किसी मुख्यमंत्री के एक साधारण से पाइलट को कुछ लाख रुपए का ही वेतन मिलता है। उस पर इतनी अकूत दौलत कहाँ से आ गयी, ये योगी जी के लिए गहरी चिंता का कारण होना चाहिए। 


इस पाइलट पर यह भी आरोप था कि इसने अपने आपराधिक इतिहास की जानकारी छुपा कर अपने लिए ‘एयरपोर्ट एंट्री पास’ हासिल किया था। इसकी शिकायत भी रजनीश ने नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस) के महानिदेशक  राकेश अस्थाना से की और जाँच के बाद सभी आरोपों को सही पाए जाने पर इसका ‘एयरपोर्ट एंट्री पास’ भी रद्द किया गया। 


उत्तर प्रदेश सरकार में सूत्रों की मानें तो जब योगी जी को इस पाइलट की असलियत का पता चला तो कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा, जो कि उस समय उत्तर प्रदेश नागरिक उड्डयन विभाग का ऑपरेशन मैनेजर था, उसका प्रदेश के किसी भी हवाई अड्डे पर प्रवेश वर्जित कर दिया गया। रजनीश कपूर की शिकायत पर ही कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा का हवाई जहाज उड़ाने का लाईसेंस भी डीजीसीए से सस्पेंड कर दिया गया था। योगी जी के निर्देश पर मुख्यमंत्री कार्यालय और आवास पर भी उसका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया था। पर उसके महाघोटालों को देखते हुए ये सब बहुत सतही कार्यवाही है। उत्तर प्रदेश शासन के जो ताक़तवर मंत्री और अफ़सर उसके साथ अपनी अवैध कमाई को ठिकाने लगाने में आज तक जुटे रहे हैं, वो ही उसे आज भी बचाने में लगे हैं। क्योंकि कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के विरुद्ध ईमानदारी से जाँच का मतलब उत्तर प्रदेश शासन में बीस वर्षों से व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के क़िले का ढहना होगा। तो ये लोग क्यों कोई जाँच होने देंगे? 


इसी के साथ एक काम करना और ज़रूरी है जो योगी जी के इस अभियान को सफल बनाएगा। आज प्रदेश में विकास का काम करने के लिए सैंकड़ों करोड़ रुपए के बजट से खेलने वाले कुछ ऐसे अफ़सर हैं जो एक ही शहर में बीस बीस बरस से कुंडली मारे बैठे हैं। कोई भी सरकार आ जाए ये विभाग बदल बदल कर वहीं तैनात रहते हैं। इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण तो मथुरा के ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ में ही देखा जा सकता है। किसी अफ़सर का एक शहर में तीन बरस से ज़्यादा रहना उसकी ईमानदारी पर सवाल खड़े करता है। इसलिए शुरू से ये प्रथा रही है कि अफ़सरों के तबादले हर तीन साल में कर दिए जाते हैं। योगी जी को पूरे प्रदेश में ये फेरबदल भी तुरंत करनी होगी वरना वे भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं कस पाएँगे। अब देखना यह है कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हिम्मत से छेड़ी इस मुहीम को योगी जी कितनी तेज़ी से आगे बढ़ाते हैं ?

Monday, April 25, 2022

पर्यटक सूचना केंद्रों की निरर्थकता


कोविड के समय को छोड़ दे तो पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में पर्यटन उद्योग में काफ़ी उछाल आया है। पहले केवल उच्च वर्ग अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करता था। मध्य वर्ग अपने ही देश में पर्यटन या तीर्थाटन करता था। निम्न आय वर्ग कभी-कभी तीर्थ यात्रा करता था। लेकिन अब मध्य वर्ग के लोग भी भारी संख्या में अंतरराष्ट्रीय पर्यटन करने लगे हैं। जिसके पास भी चार पहिए का वाहन है वो साल में कई बार अपने परिवार के साथ दूर या पास का पर्यटन करता है।
 


सूचना क्रांति के बाद से पर्यटन के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। पहले पर्यटन स्थल या तीर्थ स्थल पर पहुँच कर ये पता लगाना पड़ता था कि ठहरने की व्यवस्था कहाँ-कहाँ और कितने पैसे में उपलब्ध है। फिर यह पता लगाना पड़ता था कि दर्शनीय स्थल कौनसे हैं। उनकी दूरी बेस कैम्प से कितनी है और वहाँ तक जाने के क्या-क्या साधन हैं? ऐसी तमाम जानकारियाँ लेने के लिए अनेक देशों में पर्यटन सूचना केंद्र बनाए जाते थे। भारत में भी बनाये गये। 


1984 की बात है मैं अपनी पत्नी की बहन और उनके पति , जो दोनों ही भारतीय विदेश सेवा में बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में तैनात थे, उनके साथ कार में यूरोप की यात्रा के लिए निकला। चूँकि वे भारतीय दूतावास के अधिकारी थे इसलिए स्विट्ज़रलैंड, फ़्रान्स, जर्मनी और इटली आदि में हम भारत के राजदूतों या दूतावास के अधिकारियों के घर पर भी ठहरे। पर एक दिन अपने गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते रात के एक बज गए। शहर में पूरा सन्नाटा था, कहीं कोई व्यक्ति नज़र नहीं आया, जिसकी मदद ली जा सके। किसी तरह पर्यटन सूचना केंद्र पहुँचे और तब जा कर आगे की व्यवस्था हुई।

 

लेकिन आज सूचना क्रांति ने सब कुछ घर बैठे ही सुलभ कर दिया है। आज आप दुनिया ही नहीं बल्कि भारत के भी किसी भी शहर या छोटे से छोटे पर्यटन स्थल पर जाना चाहें तो आपको सारी सूचनाएँ घर बैठे उपलब्ध हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर वहाँ कौन-कौन से दर्शनीय स्थल हैं? उनका ‘वरचुअल टूर’ सोशल मीडिया पर किया जा सकता है। कहाँ ठहरना है, इसके सैंकड़ों विकल्प, कमरे की दर के अनुसार आप गूगल पर देख सकते हैं। देख ही नहीं सकते बल्कि कन्फ़र्म बुकिंग भी कर सकते हैं। इसके साथ ही आप घर बैठे उस शहर में अपने लिए लोकल टैक्सी और टूरिस्ट गाइड भी बुक कर सकते हैं। ज़ूम कॉल पर उस गाइड से वार्ता करके उसका चेहरा भी देख सकते हैं। 


1984 के बाद 2010 में जब हमारा पूरा परिवार यूरोप यात्रा पर गया तो मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि हम जिस शहर में भी पहुँचते थे वहाँ हमारे लिए वाहन और गाइड पहले से ही तैयार खड़े मिलते थे। होटल भी बुक होता था। तकनीकी में कम रुचि होने के कारण तब मुझे इस सब की इतनी जानकारी नहीं थी। पर यह अनुभव बहुत अच्छा हुआ कि बच्चों ने हर शहर में सारी व्यवस्थाएँ पहले से ही ऑनलाइन बुक कर रखी थीं। यहाँ तक की किस शहर में शाम को कितने बजे कौन सा नाटक या बैले देखना है, उसकी भी टिकट एडवांस में आ चुकी थी। कुल मिला कर बात यह हुई कि किसी भी शहर में हमें यूरोप के पर्यटन सूचना केंद्र नहीं जाना पड़ा। 


ये सब उल्लेख करने का उद्देश्य यह है कि भ्रष्टाचार से ग्रस्त और आधुनिक व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ नौकरशाही आज भी भारत में सैंकड़ों करोड़ के पर्यटन सूचना केंद्रों के निर्माण में जुटी है। जिनका रख रखाव कैसा होता है इसका आपने भी खूब अनुभव किया होगा। इनके स्वागत कक्ष में या तो कोई होता ही नहीं। और यदि होता है तो वो बेरुख़ी से बात करता है। सूचना केंद्र के शौचालय प्रायः दुर्गंधयुक्त और गंदे रहते हैं। पर्यटन क्षेत्र के बारे में सूचना प्रपत्र (ब्रोशर) नदारद रहते हैं। सब जगह ऐसा नहीं होता। जहां अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आते हैं, जैसे आगरा, गोवा, महाबलीपुरम, त्रिवेंद्रम या देश की राजधानी दिल्ली में आपको ये सब देखने को शायद नहीं मिलता। पर उत्तर प्रदेश में आमतौर पर यही स्थित पाई जाती है। आज जब हर गाँव और क़स्बे में स्मार्ट फ़ोन पहुँच चुका है। स्कूली बच्चों की पढ़ाई तक ऑनलाइन चल रही है, तब पर्यटन सूचना के लिए सैंकड़ों करोड़ रुपय के भवन बनवाने व जन धन बर्बाद करने का क्या लाभ? क्योंकि अब हर परिवार पर्यटन या तीर्थाटन पर जाने से पहले ही सारी सूचनाएँ गूगल या यूट्यूब से प्राप्त कर लेता है। मथुरा में ही जो पर्यटन सूचना केंद्र हाल में बने हैं उनका हाल देख लीजिए। 


उत्तर प्रदेश पर्यटन का एक उदाहरण काफ़ी होगा। 80 के दशक में पूरे प्रदेश में जगह-जगह पर्यटकों के ठहरने के लिए ‘राही होटल’ बनाए गए जो कभी भी कारगर नहीं रहे। आज सभी ख़स्ता हाल में हैं। कोई व्यवसाई उन्हें किराए पर लेकर भी चलाने को तैयार नहीं। दरअसल सरकार की पर्यटन योजनाओं में सबसे बड़ी कमी रख-रखाव की होती है। बड़ी-बड़ी घोषणाओं और विज्ञापनों के सहारे पर्यटन की जिन महत्वाकांक्षी योजनाओं को चालू किया जाता है, वो योजनाएँ सैंकड़ों रुपया खपा कर भी चंद महीनों में ख़स्ता हाल हो जाती हैं।


तीर्थाटन के विकास में भगवान श्री राधा कृष्ण की लीला भूमि में पिछले 20 वर्षों में मैंने पूरे तन, मन, धन और मनोयोग से कृष्णक़ालीन धरोहरों के संरक्षण का बड़े स्तर पर कार्य किया है। इसलिए हमारा अनुभव ज़मीनी हक़ीक़त को देख कर विकसित हुआ है। बड़ी निराशा की बात यह है कि कोई भी सरकार क्यों न आ जाए वो हमारी बात सुन तो लेती है, लेकिन हमारे सुझावों पर अमल नहीं करती। यह अनुभव डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। यही अनुभव मोदी जी की सरकार में, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद भी हुआ। इतना ही नहीं प्रदेश स्तर पर भी अखिलेश यादव जी की और योगी जी की सरकार में भी, उनसे सीधा संवाद होने के बावजूद हुआ। क्योंकि अधिकतर नौकरशाही की सार्थक बदलाव में कोई रुचि नहीं होती। इसलिए हम सबके बुरे बन जाते हैं। क्योंकि हम सच बताते हैं और ग़लत को सह नहीं पाते। 


बहुत आशा थी कि हिंदुवादी सरकारों में हमारे धर्मक्षेत्रों का विकास संवेदनशीलता, पारदर्शिता और कलात्मक अभिरुचि से होगा। पर जो हो रहा है वो इसके बिलकुल विपरीत है। जब हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली सरकार में अनुभव सिद्ध सनातन धर्मियों की बात नहीं सुनी जा रही तो धर्म निरपेक्ष सरकार में कौन सुनेगा? यही देश के हर जागरूक हिंदू की पीड़ा है। 

Monday, April 4, 2022

डॉ अर्चना शर्मा की शहादत से सबक


दौसा (राजस्थान) की युवा डाक्टर अर्चना शर्मा की ख़ुदकुशी के लिए कौन ज़िम्मेदार है? महिला रोग विशेषज्ञ, स्वर्ण पदक विजेता, मेधावी और अपने कार्य में कुशल डॉ अर्चना शर्मा इतना क्यों डर गई कि उन्होंने मासूम बच्चों और डाक्टर पति के भविष्य का भी विचार नहीं किया और एक अख़बार की खबर पढ़ कर आत्महत्या कर ली। पत्रकार होने के नाते डॉ शर्मा की इस दुखद मृत्यु के लिए मैं उस संवाददाता को सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूँ जिसने पुलिस की एफ़आईआर को ही आधार बनाकर अपनी खबर इस तरह छापी कि उसके कुछ घण्टों के भीतर ही डॉ अर्चना शर्मा फाँसी के फंदे पर लटक गई। लगता है कि इस संवाददाता ने खबर लिखने से पहले डॉ अर्चना से उनका पक्ष जानने की कोई कोशिश नहीं की। आज मीडिया में ये प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है जब संवाददाता एकतरफ़ा खबर छाप कर सनसनी पैदा करते हैं, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की छवि धूमिल करते हैं। प्रायः ऐसा ब्लैकमेलिंग के इरादे से करते हैं जिससे सामने वाले को डराकर मोटी रक़म वसूली जा सके। ये बात दूसरी है कि ऐसी ज़्यादातर खबरें जाँच पढ़ताल के बाद निराधार पाई जाती हैं। पर तब तक उस व्यक्ति की तो ज़िंदगी बर्बाद हो ही
  जाती है। ये बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। 



प्रेस काउन्सिल औफ़ इंडिया, सर्वोच्च न्यायालय व पत्रकारों के संगठनों को इस विषय में गम्भीरता से विचार करके कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। पिछले चार दशक की खोजी पत्रकारिता में मैंने देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरण का निडरता से खुलासा किया, जिससे उनकी नौकरियाँ भी गई। पर ऐसी कोई भी खबर लिखने या दिखने से पहले ये भरसक कोशिश रही कि उस व्यक्ति का स्पष्टीकरण ज़रूर लिया जाए और उसे अपनी खबर में समुचित स्थान दिया जाए। इस एक सावधानी का फ़ायदा यह भी होता है कि आपको कभी मानहानि का मुक़द्दमा नहीं झेलना पड़ता। 


डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए वो पुलिस अधिकारी पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने एफ़आईआर में बिना किसी पड़ताल के डॉ शर्मा पर धारा 302 लगा दी। यानी उन्हें साज़िशन हत्या करने का दोषी करार कर दिया। पूरे देश की पुलिस में यह दुषप्रवृत्ति फैलती जा रही है। जब पुलिस बिना किसी तहक़ीक़ात के केवल शिकायतकर्ता के बयान पर एफ़आईआर में तमाम बेसर-पैर की धाराएँ लगा देती है। जिन्हें बाद में अदालत में सिद्ध नहीं कर पाती और उसके लिए न्यायाधीशों द्वारा फटकारी जाती है। पुलिस ऐसा तीन परिस्थितियों में करती है। पहला, जब उसे आरोपी को आतंकित करके मोटी रक़म वसूलनी होती है। दूसरा, जब उसे राजनैतिक आकाओं के इशारे पर सत्ताधीशों के विरोधियों, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं का मुह बंद करने के लिए इन बेगुनाह लोगों को प्रताड़ित करने को कहा जाता है। तीसरा कारण होता है जब बड़े और शातिर अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस ग़रीबों, दलितों और आदिवासियों को झूठे मुक़द्दमें में फँसा कर गुनाहगार सिद्ध कर देती है। जैसा हाल ही में आई एक फ़िल्म ‘जय भीम’ में दिखाया गया है। 


ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1977 में जब जनता सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया तो उसके अध्यक्ष और कई सदस्य मेरे परिचित थे। इसलिए दिल्ली के लोकनायक भवन में इस आयोग के साथ अपने अनुभव साझा करने का मुझे खूब अवसर मिला। तब से आजतक भारत की मौजूदा पुलिस व्यवस्था में सुधार की तमाम सिफ़ारिशें सरकार को दी जा चुकी हैं। पर केंद्र और राज्य की कोई भी सरकार इन सुधारों को लागू नहीं करना चाहती। चाहे वो किसी भी दल की क्यों न हो। 1860 में अंग्रेजों की हुकूमत के बनाए क़ानूनों के तहत हमारी पुलिस आजतक काम कर रही है। जिसका ख़ामियाज़ा भारत का आम आदमी हर रोज़ भुगत रहा है। देशभर के जागरूक नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों व वकीलों आदि को पुलिस व्यवस्था में सुधारों के लिए एक देश व्यापी अभियान लगातार चलाना चाहिए। जिससे सभी राजनैतिक दल मजबूर होकर पुलिस सुधारों को लागू करवाएँ। 


दरअसल आज़ादी के बाद राजनेताओं ने भी पुलिस को अंग्रेजों की ही तरह आम जनता को डराकर व धमकाकर नियंत्रित करने का शस्त्र बना रखा है। इसलिए वे अपनी इस नकारात्मक सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं होते। जिन दिनों मुझे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से प्रदत्त ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई थी उन दिनों मेरा अपने अंगरक्षकों से अक्सर पुलिस व्यवस्था को लेकर मुक्त संवाद होता था। चूँकि मेरी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस के अलावा अर्धसैनिक बल के जवान भी तैनात रहते थे और देश में भ्रमण के दौरान उन प्रांतों की पुलिस फ़ोर्स भी मेरी सुरक्षा में तैनात होती थी, इसलिए सारे देश की पुलिस व्यवस्था की असलियत को बहुत निकटता से जानने का उन वर्षों में मौक़ा मिला। तब यह विश्वास दृढ़ हो गया कि पुलिस के हालात, बिना किसी अपवाद के सब जगह एक जैसी है और उसमें सुधार के बिना आम जनता को न्याय नहीं मिल सकता। 


इस मामले में डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए जिन राजनेताओं का नाम सामने आया है उन्होंने जान बूझ कर इस मामले अकारण तूल दिया। जिसका उद्देश केवल डॉ अर्चना शर्मा को ब्लैकमेल करना था। स्वयं को जनसेवक बताने वाले राजनेताओं और उनके कार्यकर्ताओं में इस तरह विवादों को अनावश्यक तूल देकर स्थित को बिगाड़ना और उससे मोटी उगाही करना आम बात हो गयी है। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है। मैं यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि डॉ अर्चना शर्मा के मामले प्रथमदृष्टया कोई कोताही या अनैतिक आचरण का प्रमाण सामने नहीं आया है। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि मानव सेवा के लिए बना यह सम्मानित व्यवसाय भी आज लालची अस्पताल मालिकों और लालची डाक्टरों की लूट और अनैतिक आचरण के कारण क्रमशः अपनी आदर्श स्थित से नीचे गिरता जा रहा है। जहां कुछ मामलों में तो इनका व्यवहार बूचड़खाने के कसाइयों से भी निकृष्ट होता है, जिसमें भी सुधार की बहुत ज़रूरत है। हालाँकि डॉ अर्चना शर्मा का मामला बिल्कुल अलग है और इसलिए राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत को स्वयं रुचि लेकर उस पत्रकार, पुलिस अधिकारी और उन नेताओं के ख़िलाफ़ क़ानून के अंतर्गत कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।    

Monday, January 3, 2022

कानपुर छापा : काला धन या टर्नओवर?


पिछले दिनों कानपुर के इत्र व्यापारी पीयूष जैन के यहाँ जीएसटी का छापा बहुत चर्चा में रहा। इस छापे में क़रीब 300 करोड़ का ‘काला धन’, सोना, चाँदी, चंदन व अन्य सामान पकड़ा गया था। क्योंकि ये चुनाव का माहौल है और समाजवादी पार्टी का एक विधान परिषद सदस्य भी जैन है और इत्र का व्यापारी है इसलिए बिना तथ्यों को जाँचे सत्ता पक्ष के नेताओं, मीडिया व भाजपा की आईटी सेल ने सोशल मीडिया इस मामले को समाजवादी पार्टी का भ्रष्टाचार कहकर उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं देश के प्रधान मंत्री तक ने कानपुर की जनसभा में इसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कह कर तालियाँ पिटवायीं ।



पीयूष जैन का मामला शायद सामने नहीं आता अगर गुजरात में कुछ दिनों पहले जीएसटी ने ‘शिखर पान मसाला’ ले जा रहे ट्रकों को न पकड़ा होता। इस ट्रक में पान मसाले के साथ करीब 200 फर्जी ई-वे बिल भी पकड़े गए। इसके बाद डायरेक्ट्रेट जनरल ऑफ जीएसटी इंटेलीजेंस (डीजीजीआई) के अधिकारियों ने कानपुर का रुख़ किया और वहाँ डेरा डाल दिया। जो ट्रक पकड़ा गया था वह प्रवीण जैन का था। जो की इत्र कारोबारी पीयूष जैन के भाई अंबरीष जैन का बहनोई है। प्रवीण जैन के नाम पर करीब 40 से ज्यादा फर्में हैं। 


ग़ौरतलब है कि प्रवीण जैन के यहां छापेमारी में ही पीयूष जैन का सुराग मिला। पीयूष जैन को जैसे ही छापे की खबर मिली तो वो भाग गया। परिजनों के दबाव के बाद ही वह वापस लौट कर आया। पीयूष जैन के घर में छिपे हुए नोटों के बंडलों को देखकर जीएसटी की छापामार टीम की आंखें फटी की फटी रह गई। शायद इन अधिकारियों ने इससे पहले ऐसी अकूत दौलत देखी नहीं थी। इस छापे के  ट्रेल को देखें तो यह एक सामान्य सा छापा ही प्रतीत होता है। शुरुआती दौर में इस छापे में कोई भी राजनैतिक नज़रिया नज़र नहीं आता। लेकिन जैसे ही ‘जैन’ और ‘इत्र कारोबारी’ को जोड़ा गया वैसे ही अतिउत्साह में इसे समाजवादी पार्टी से भी जोड़ दिया गया और खूब शोर मचाया गया। भाजपा के सरकार में केंद्रीय  मंत्रियों ने भी इस पर ट्वीट की झड़ी लगा दी। 


यहाँ बताना ज़रूरी है कि 1991 में जब दिल्ली में हिज़बुल मुजाहिद्दीन के आतंकी पकड़े गए थे, तो उनकी जाँच कर रही दिल्ली पुलिस व बाद में सीबीआई कई जगह छापे मारने के बाद ‘जैन बंधुओं’ के घर और फार्म हाउस पहुँची। वहाँ पर पड़े छापे से एक डायरी (नम्बर दो के खाते) भी मिली जिसमें आतंकवादियों के साथ-साथ हर बड़े दल के तमाम बड़े नेताओं और देश के कई नौकरशाहों के भी नाम के साथ भुगतान की तारीख़ और रक़म लिखा था। छापे में बरामद इतने बड़े मामले की भनक जब तत्कालीन सरकार को लगी तो उस मामले को वही दबा दिया गया। 1993 में जब यह मामला मेरे हाथ लगा तब मैंने इसे उजागर ही नहीं किया बल्कि इसे सर्वोच्च न्यायालय तक ले गया। जो आगे चल कर ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से चर्चित हुआ। इस कांड ने भारत की राजनीति में इतिहास भी रचा और कई प्रभावशाली नेताओं और अफ़सरों को सीबीआई द्वारा चार्जशीट किया गया। 


चूँकि इस घोटाले में कई बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता और अफ़सर आदि शामिल थे इसलिए सीबीआई ने चार्जशीट में इनके बच निकलने का रास्ता भी छोड़ दिया। अब कानपुर के कांड में भी ऐसा ही होता दिखाई दे रहा है। 


दरअसल, जब जीएसटी के अधिकारियों को पीयूष जैन के यहाँ इतनी बड़ी मात्रा में नगदी और सोना-चाँदी मिला तो ज़ाहिर सी बात है की आयकर विभाग को भी सूचित करना पड़ा। जब और जाँच हुई और पीयूष जैन से पूछ-ताछ हुई तो कई और राज खुले। यहाँ एक बात का ज़िक्र करना रोचक है कि हमारे वृन्दावन को उत्तर भारत के व्यापारियों की सूचना का केंद्र माना जाता है। उत्तर भारत के अधिकतर व्यापारी श्री बाँके बिहारी जी के मंदिर लगातार आते हैं और व्यापार में तरक़्क़ी की भिक्षा माँगते हैं। इन सभी व्यापारियों के वृन्दावन में तीर्थ पुरोहित या पंडे होते हैं। जिस दिन से कानपुर में यह छापा पड़ा है उस दिन से बिहारीजी के पंडों से में लगातार ये बात-चीत हो रही है कि पीयूष जैन के बारे में कानपुर के अन्य व्यापारियों ने बताया कि पीयूष जैन तो एक लम्बे अरसे से भाजपा और संघ को बड़ी मात्रा में धन और साधन प्रदान करता आया है। इसके यहाँ तो छापा गलती से पड़ गया। 


यहाँ पर वो कहावत - ‘जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है वो खुद खाई में गिरता है’ सही साबित होती है। यदि अधिकारियों को समय रहते उसके भाजपाई होने का पता चल जाता तो शायद यह इतना ये  छापा ही न पड़ता।


जानकारों की मानें तो इस मामले को भी जल्दी दबाया जाएगा। अख़बारों से ऐसा पता चला है कि अब इस छापे में बरामद हुई भारी नकदी को अहमदाबाद के जीएसटी विभाग ने ‘टर्नओवर’ की रकम माना लिया है। हालाँकि इस बात की कोई औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है लेकिन अगर ऐसा है तो टैक्स के जानकारों के मुताबिक यह भ्रष्टाचार के प्रति अधिकारियों की रहमदिली की पहली सीढ़ी है। 


इस ‘टर्नओवर’ में 31.50 करोड़ की टैक्स चोरी की बात कही जा रही है। टैक्स चोरी की पेनल्टी और उस पर ब्याज मिलाकर यह रकम क़रीब 52 करोड़ रुपये हो जाती है। ऐसे में पीयूष जैन केवल टैक्स व पेनल्टी की रकम अदा कर जमानत पर रिहा हो सकता है। पेनल्टी की रक़म जमा होने पर आयकर विभाग भी इस ‘काले धन’ के मामले में कार्रवाई नहीं कर पाएगा। पीयूष जैन का फिर सारा तथाकथित ‘काला धन’ पेनल्टी की गंगा नहा कर एक सफ़ेद हो जाएगा। जैसी चर्चा हो रही है कि यह सारा ‘काला धन’ जिन लोगों का है उनकी भी चाँदी हो जाएगी। मगर सोचने वाली बात यह है कि जब नोट बंदी से काले धन की समाप्ति का दावा किया गया था तो ये काला कहाँ से आ गया। भाजपा जिसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कहने लगी थी वह रातों-रात ‘टर्नओवर’ में कैसे बदल गया?

Monday, November 15, 2021

हिमालय पर ये आत्मघाती हमला बंद हो !


हाल के वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में पर्वतों का स्खलन एक भयावह स्तर तक पहुँच चुका है। पहले ऐसी दुर्घटनाएँ केवल भारी वर्षा के बाद ही होती थीं। पर आश्चर्यजनक रूप से अब वे गर्मी में भी होने लग गई हैं। अभी पिछले हफ़्ते ही दक्षिण की ओर जा रही एक रेल गाड़ी के पाँच डिब्बे भूस्खलन के कारण पटरी से उतर गए। प्रभु कृपा से इस अप्रत्याशित दुर्घटना में कोई हताहत नहीं हुआ। पर हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में तो भूस्खलन से भीषण तबाही लगातार होती आ रही है। जून 2013 की केदारनाथ की महाप्रलय कोई आज तक भूला नहीं है। पर्वतों पर हुए भारी मात्रा में पेड़ों के कटान और बारूद लगाकर लगातार पहाड़ तोड़ने के कारण ये सब हो रहा है। फिर भी न तो हम जाग रहे हैं न हमारी सरकारें। महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व की सभी पर्वत शृंखलाओं में हिमालय सबसे युवा पर्वत माला है। इसलिए सके प्रति और भी संवेदनशील रहने की ज़रूरत है।
    

बावजूद इन सब अनुभवों के उत्तराखंड में 899 किलोमीटर का प्रस्तावित चारधाम सड़क परियोजना का काम सरकार आगे बढ़ाना चाहती है। जबकि यह परियोजना काफ़ी समय से विवादों में है। पर्यावरण और विकास के बीच टकराव नया नहीं है। आज़ादी के बाद से सभी सरकारें हमेशा ‘विकास’ का हवाला देकर पर्यावरण के नुक़सान को अनदेखा करती आई है। इस परियोजना को लेकर देश की रक्षा ज़रूरतों और पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बीच एक गम्भीर बहस पैदा हो गई है। सरकार का कहना है कि देश की सेना हर वक्त बॉर्डर पर तैनात रहती है। कठिन परिस्थितियों के चलते सेना द्वारा सीमाओं की सुरक्षा करना काफ़ी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसी के चलते उत्तराखंड में केंद्र सरकार द्वारा ‘ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट’ को 2016 में शुरू किया गया। बाद में इसका नाम बदल कर ‘चारधाम परियोजना’ किया गया। इस प्रोजेक्ट में सड़कें चौड़ी करने के लिए अनेक पहाड़ों और हज़ारों पेड़ों को काटना पड़ेगा। इसीलिए देश के पर्यावरणविद् इस प्रोजेक्ट का कड़ा विरोध कर रहे हैं। फिलहाल ये मामला 2018 से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। इस फैसले से यह साफ हो जाएगा कि सीमा सुरक्षा के लिए उत्तराखंड में सड़कों को चौड़ा करने की इजाज़त मिलेगी या नहीं। 


कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार की तरफ़ से अटॉर्नी जनरल ने यह भी बताया कि इस प्रोजेक्ट से युद्ध की स्थिति में, जरूरत पड़ने पर 42 फ़ीट लंबी ब्रह्मोस जैसी मिसाइल को भी सीमा तक ले जाया जा सकता है। सरकार की मानें तो चीन के साथ बढ़ते तनाव के बीच यह सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण परियोजना है। ऐसे में इस सड़क का 5 मीटर से 10 मीटर चौड़ा होना अनिवार्य है और यदि भूस्खलन होता भी है तो सेना उससे निपट सकती है। वहीं पर्यावरण के लिए काम करने वाले एक एनजीओ ‘सिटिजंस ऑफ़ ग्रीन दून’ ने कहा है कि इस प्रोजेक्ट की वजह से उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थियों को जबरदस्त नुकसान पहुंचेगा। जिससे भूस्खलन व बाढ़ का ख़तरा बढ़ जाएगा और वन्य व जलीय जीवों को भी नुक़सान पहुंचेगा।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2018 में पर्यावरणविद रवि चोपड़ा के नेतृत्व में एक हाई पॉवर कमेटी बनाई थी। समिति के कुछ सदस्यों के बीच इस बात को लेकर मतभेद थे कि सड़कों को कितना मीटर चौड़ा किया जाए। जाँच के बाद जुलाई 2020 में इस कमेटी ने दो रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी थी। एक में कहा गया कि सड़कों को 5.5 मीटर तक चौड़ा किया जा सकता है। जबकि दूसरी रिपोर्ट में 7 मीटर तक सड़कें चौड़ी करने की सलाह दी गई। पर्यावरणविदों की मानें तो सड़क जितनी भी चौड़ी होगी उसके लिए उतने ही पेड़ काटने, रास्ते खोदने, पहाड़ों में ब्लास्ट करने और मलबा फेंकने की ज़रूरत पड़ेगी। अब सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता से इस विषय में और सुझाव माँगे हैं जिसके बाद कोर्ट को ये तय करना है कि इस प्रोजेक्ट में सड़क की चौड़ाई बढ़ाई जा सकती है या नहीं। यदि बढ़ाई जा सकती है तो कितनी। दरअसल इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं जिनमें राजनेता, अफ़सर और निर्माण कम्पनियाँ प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफ़ा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, उतना ही ज़्यादा कमीशन। यह कोई नयी बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोग़ा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं।


अब देश की राजधानी को ही लें। पिछले हफ़्ते दिल्ली में प्रदूषण ख़तरनाक सीमा तक बढ़ गया। आपात काल जैसी स्थित हो गई। दूसरे देशों में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 100 पहुँचते ही आपात काल की घोषणा कर दी जाती है। जबकि दिल्ली में पिछले शुक्रवार को ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 471 पहुँच गया। अस्पतालों में साँस के मरीज़ों की संख्या अचानक बढ़ने लगी। बच्चों और बुजुर्गों के लिए ख़तरा ज़्यादा हो गया। पिछले साल लॉकडाउन के 15 दिन बाद ही पूरी दुनिया में इस बात पर हर्ष, उत्सुकता और आश्चर्य व्यक्त किया गया था कि, अचानक महानगरों के आसमान साफ़ नीले दिखने लगे। दशकों बाद रात को तारे टिमटिमाते हुए दिखाई दिए। यमुना निर्मल जल से कल-कल बहने लगी। जालंधर से ही हिमालय की पर्वत शृंखला दिखने लगी। वायुमंडल इतना साफ़ हो गया कि साँस लेने में भी मज़ा आने लगा। अचानक शहरों में सैंकड़ों तरह के परिंदे मंडराने लगे। तब लगा कि हम पर्यावरण की तरफ़ से कितने लापरवाह हो गए थे जो कोविड ने हमें बताया। उम्मीद जगी थी कि अब भविष्य में दुनिया संभल कर चलेगी। पर जिस तरह चार धाम को जोड़ने वाली सड़क को लेकर सरकार का दुराग्रह है और जिस तरह हम सब अपने परिवेश के प्रति फिर से लापरवाह हो गए हैं, उससे तो नहीं लगता कि हमने कोविड के अनुभव से कोई सबक़ सीखा। 

  


Monday, September 27, 2021

संतों को क्या सम्पत्ति से काम?


अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष व प्रयागराज के बाग़म्बरी पीठ के महंत नरेंद्र गिरी की रहस्यमयी मृत्यु को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। उन्होंने आत्महत्या की या उनकी हत्या हुई, इसको लेकर दो अलग ख़ेमे आमने-सामने हैं। इस हादसे में हज़ारों करोड़ की सम्पत्ति भी इस दुर्घटना का कारण बताई जा रही है। गद्दी के उत्तराधिकार को लेकर दो गुटों में संघर्ष शुरू हो गया है। मामले की जाँच अब सीबीआई को सौंप दी गई है। अगर बिना किसी दबाव के सीबीआई ईमानदारी से जाँच करेगी तो सच्चाई सामने आ जाएगी। पर बड़ा प्रश्न  यह है कि आध्यात्मिक गुरु या स्वयं को संत बताने वाले इतनी विशाल सम्पत्ति के मोह जाल में कैसे फँस जाते हैं। आठ बरस पहले जब आसाराम बापू की गिरफ़्तारी हुई तो उसके बाद से हर टीवी चैनल पर धर्म के धंधे को लेकर गर्मागरम बहसें चलती रहीं। क्योंकि तब इन बहसों में बुनियादी बात नहीं उठायी जा रही थी इसलिए मैंने इसी स्तंभ में कुछ प्रश्न उठाए थे। जो आज फिर खड़े हो गए हैं। 


धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी, सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर अपने लिए विशाल आर्थिक साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई भी धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।


संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ, विषयी व भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत’ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008, सदगुरु जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन की साधना में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई। अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत या गुरू कहलवाते हैं, उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।

 

जैसे-जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता। इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।

 

दरअसल पाँचसितारा संस्कृति में जीने वाले ये सभी लोग संत हैं ही नहीं। ये उसी भौतिक चमक-दमक के पीछे भागने वाले शब्दों के जादूगर हैं जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगे हैं। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग-मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के’। संत कबीर दास कह गए हैं ‘साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं। धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं॥’ 

Monday, September 13, 2021

जब चिड़िया चुग गई खेत


आजकल एक प्रदेश के ताकतवर बताए जा रहे मुख्य मंत्री के मुख्य सलाहकार और वरिष्ठतम अधिकारियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन की भारी चर्चा है। मीडिया ही नहीं, प्रदेश के नौकरशाह और राजनेता चटखारे लेकर इन क़िस्सों को एक दूसरों को सुना रहे हैं। यूँ तो स्टिंग ऑपरेशन देश में लगातार होते रहते हैं। पहले ये काम मीडिया अपने जुनून में करता था। बाद में ये ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया। पिछले दो दशकों से राजनैतिक दल एक दूसरे के विरुद्ध और एक ही दल के बड़ी राजनेता, एक दूसरे के विरुद्ध करवाने लगे। जिसका मक़सद अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी की छवि ख़राब करके उसे रास्ते से हटाना होता है। जिसके ख़िलाफ़ सफल स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है वो किसी भी क़ीमत पर उसे दबाने की जीतोड़ कोशिश करता है।
 



सुना है कि जिस स्टिंग ऑपरेशन की आजकल चर्चा है उसमें फँसा प्रदेश का वरिष्ठ अधिकारी, उसे दबाने के लिए, 20 करोड़ रुपए देने को राज़ी हो गया है। अब अगर ये डील हो जाती है तो ज़ाहिर है कि स्टिंग ऑपरेशन की खबर आम जनता तक नहीं पहुँच पाएगी। ये बात दूसरी है कि डील करने वाला पहले ही अपने हाथ काट चुका हो और सबूतों को अपनी टीम के किसी साथी के साथ साझा कर चुका हो। ऐसे में डील होने के बाद भी मामला प्रकाशित होने से नहीं रुकेगा। खबर यह भी है कि उक्त स्टिंग ऑपरेशन में कई आला अफ़सर बेनक़ाब हुए हैं। जिनमें चरित्र से लेकर भारी भ्रष्टाचार के प्रमाण जुटाए जा चुके हैं। जिसका जाहिरन उनके आका मुख्य मंत्री की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर उन राज्यों में जहां आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं। 

ऐसी स्थित ही क्यों आती है जब पानी सिर से गुजर जाता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’। ऐसा तो नहीं है कि प्रदेश का शासन चलाने वाला कोई मुख्य मंत्री इतना अयोग्य हो कि उसे पता ही न चले कि उसकी इर्दगिर्द साये की तरह मंडराने वाले उसके खासमख़ास वरिष्ठतम अधिकारी दुकान खोल कर बैठे हैं और हर वर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपया कमा रहे हैं। जब ये घोटाले सामने आएँगे तो ऐसे मुख्य मंत्री का दामन कैसे साफ़ रहेगा? हर तरफ़ यही शोर होगा की ये सब उस मुख्य मंत्री की मिलीभगत से हो रहा था। फिर अपनी क़मीज़ दूसरों की क़मीज़ से साफ़ बताने वाला दावा भी तो फुर्र से उड़ जाएगा।  


प्रश्न है कि उस मुख्य मंत्री ने समय रहते सही कड़े कदम क्यों नहीं उठाए? हम सभी पत्रकारों का चार दशकों से ये अनुभव रहा है कि, चुनाव जीतते ही, मुख्य मंत्री हो या प्रधान मंत्री, अपने चाटुकारों व चहेते अफ़सरों से ऐसे घिर जाते हैं, कि उन्हें सब ओर हरा ही हरा दिखाई देता है। क्योंकि वही उन्हें दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि समय समय पर जागरूक नागरिक या पत्रकार उनको सचेत न करते हों। पर सत्ता का अहंकार उनके सिर चढ़ कर बोलता है। वे सही सलाह भी सुनना नहीं चाहते। इस तरह वे ज़मीन से भी कट जाते हैं और अपने मतदाताओं से भी। पर जो मुख्य मंत्री वास्तव में ईमानदार होते हैं और प्रदेश की जनता का भला करना चाहते हैं, वे सुरक्षा के घेरे तोड़ कर और अपने पुराने विश्वासपात्र मित्रों की मदद से अपनी छवि का जनता में मूल्यांकन करवाते रहते हैं। जिस इलाक़े में उनकी या उनकी सरकार की छवि गिरने का संकेत मिलता है, वहाँ जाहिरन लोगों की बहुत सारी शिकायतें होती हैं। जिन्हें दूर करना एक अनुभवी मुख्य मंत्री की प्राथमिकता होती है। पर जहां सार्थक व उचित प्रश्न करने वालों का मुँह बंद कर दिया जाए, उन पर झूठे आरोप लगा कर अवैध तरीक़ों से पुलिस कार्यवाही की जाए या उनके प्रतिष्ठानों पर आयकर के छापे डलवाए जाएं, वहाँ भीतर ही भीतर हालात इतने बगड़ जाते हैं कि बहुमत का दावा करने वाले नेता अपनी सत्ता छोड़, इज़्ज़त तक नहीं बचा पाते। 


पिछले तीस वर्षों में सत्ताधीशों को एक उदाहरण मैं अपने इसी कॉलम में कई बार पहले दे चुका हूँ। एक बार फिर दोहरा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद किसी को तो बुद्धि शुद्ध हो और वो अपने तौर-तरीक़े बदलने को राज़ी हों। ये उदाहरण वो है जो ईसा से तीन सदी पूर्व मगध सम्राट देवानाम पियदस्सी अशोक ने खोजा था। वे जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। जमीनी सच्चाई जानने के लिए मुख्य मंत्रियों को गैर पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजेंसियां या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद कर पाएँगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाऐं होती हैं। इसलिए भी इन्हें गैर पारंपरिक ‘फीड बैक मैकेनिज्म’ या ‘सोशल ऑडिट’ का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा। पहला तो ये कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाऐगा। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। 


‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि आजकल ज़्यादातर नेता ‘जवाबदेही’ व ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आना चाहिए।

Monday, August 16, 2021

बढ़ता जल संकट: एक ओर बाढ़ तो दूसरी ओर सूखा


आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ा हुआ है तो दूसरी ओर कई शहर बाढ़ की चपेट में हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकता है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है।
 


एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसके अलावा प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। 


दरअसल, चेन्नई हो या उस जैसा देश का कोई और नगर, असली समस्या वहाँ की वाटर बॉडीज पर अनाधिकृत क़ब्जे की है। जिस पर भवन आदि बनाकर जल को भूमि के अंदर जाने से रोक दिया जाता है। चूँकि चेन्नई समंदर के किनारे है इसलिए थोड़ी सी बारिश से भी पानी नालों व पक्की सड़को से बहकर समंदर में चला जाता है। भूमि के नीचे अगर पानी किसी भी रास्ते नहीं जाएगा तो जल स्रोत समाप्त हो ही जाएँगे। जल आपदा नियंत्रण सरकार की एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन जिस तरह अवैध भवन बन जाते हैं और हादसे होने के बाद ही सरकार जागती है। उसी तरह जल आपदा के संकट को भी यदि समय रहते नियंत्रित न किया जाए तो यह समस्या काफ़ी गम्भीर हो सकती है। 


अब बात करें सूखे और अकाल का पर्याय बन चुके बुंदेलखंड की जहां इस वर्ष भारी बारिश हुई है। आँकड़ों के अनुसार पिछले साल हुई 372 मिलीमीटर बारिश के मुक़ाबले इस साल अगस्त के दूसरे सप्ताह तक औसत 1,072 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी है। जो कि पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड है। ग़ौरतलब है कि बुंदेलखंड का यह संकट नया नहीं है। सूखे के बाद बाढ़ के संकट के पीछे बिगड़ते हुए पर्यावरण, खासकर अनियंत्रित खनन, नदियां से रेत का खनन, वनों के विनाश तथा परंपरागत जलस्रोतों के नाश जैसे कारणों को माना जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह पिछले कुछ सालों से प्राकृतिक पर्यावरण की उपेक्षा करके अपनाए गए विकास मॉडल की वजह से पैदा होने वाले दीर्घकालीन जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। सरकार द्वारा इसके लिए किए जाने वाले तात्कालिक उपाय नाकाफी हैं। 


सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दाबा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई।  


बुंदेलखंड का पंजाब कहा जाने वाला जालौन जिला, खेती की दृष्टि से सबसे उपयुक्त है। पंजाब की तरह यहां भी पांच नदियां-यमुना, चंबल, सिंध, कुमारी और पहुज आकर मिलती हैं। आज यह पूरा इलाका बाढ़ से जूझ रहा है। बेमौसम की बारिश ऐसी तबाही मचा रही है कि यहाँ के किसान बर्बादी की कगार पर पहुंच गए हैं। कर्ज लेकर तिल, मूंगफली, उड़द, मूंग की बुआई करने वाले किसानों का मूलधन भी डूब रहा है। 


इसी अगस्त माह की शुरुआत के दिनों में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण भारी संकट पैदा हो गया। इन क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने और बढ़ते जल स्तर को नियंत्रित करने के लिए राजस्थान के कोटा स्थित बैराज के 10 गेट खोलकर 80 हजार क्यूसेक पानी की निकासी की गई। जिसके कारण चंबल नदी के जल स्तर में अचानक वृद्धि हो गई। परिणामतः चंबल तथा इसकी सहायक नदियों-सिंध, काली सिंध एवं कूनो के निचले इलाकों में बाढ़ के हालात उत्पन्न हो गए। चंबल में आई बाढ़ ने राजस्थान के कोटा, धौलपुर तथा मध्य प्रदेश के मुरैना व भिंड आदि जिलों से होते हुए उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन को भी अपनी चपेट में ले लिया।


बुंदेलखंड में लगातार पड़ने वाले सूखे से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकार हजारों करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है यह बात दूसरी है कि इस सबके बावजूद जल प्रबंधन की कोई भी योजना अभी तक सफल नहीं हुई है। बाढ़ के इस प्रकोप के बाद भी अगर जल संचय की उचित और प्रभावी योजना नहीं बनाई गई तो हालात कभी नहीं सुधरेंगे। इतनी वर्षा के बाद बुंदेलखंड में, अनेक वर्षों से किसानों के लिए प्रतिकूल होते हुए मौसम का कुछ भी फ़ायदा किसानों को नहीं मिल पाएगा। इसलिए समय की माँग है कि बुंदेलखंड व ऐसे अन्य इलाकों में स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल जल संरक्षण और संचयन की दीर्घकालीन योजना बनाई जाए। एक समस्या और है और वो शाश्वत है। योजना कितनी भी अच्छी हो अगर उसके क्रियान्वयन में भारी भ्रष्टाचार होगा, जैसा कि आज तक होता आ रहा है तो फिर रहेंगे वही ढाक के तीन पात।  

Monday, August 2, 2021

बरसो राम धड़ाके से


हिमाचल की सांगला वैली में बिटसेरी इलाक़े में, बिना बारिश, के अचानक, पर्वतों के टूटने से जो भूस्खलन हुआ उसने एक बार फिर हमारी विनाश लीला को रेखांकित किया। इस हादसे में 8 निर्दोष पर्यटक मारे गए और नदी के आर-पार जाने वाला पुल भी टूट कर बह गया। सोशल मीडिया पर इस भयावह हादसे का विडीओ देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। क्योंकि जून 2018 में ठीक उसी जगह हम भी सपरिवार थे। शिमला से बिटसेरी के 8 घंटे के ड्राइव में सारे रास्ते विकास के नाम पर विनाश का जो तांडव देखा उससे मन बहुत विचलित हुआ। हर ओर सड़क और विद्युत परियोजनाओं के लिए डाइनामाईट लगा कर जिस बेदर्दी से पहाड़ों को काटा जा रहा था उससे हरे-भरे हिमालय का ये क्षेत्र किसी परमाणु हमले के शिकार से कम नज़र नहीं आ रहा था।


आज भारत का हर पहाड़ी पर्यटन केंद्र बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहा है। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया है। कल-कल करती पहाड़ी नदियां और झरने जिनके किनारे, जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित हुआ करते थे, आज होटलों और इमारतों से भरे पड़े हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी नदियों के निर्मल जल में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई देता। जगह-जगह कूड़े के ढेर, पहाड़ों के ढलानों पर झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। 


ये सही है कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। 


नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। पहाड़ों के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल होती है कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना न करना पड़े। पहाड़ों पर घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा पहाड़ों के लोग प्रायः मकानों को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं। सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। 


ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से पहाड़ी लोगों की आमदनी बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। इन पहाड़ों को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। 


ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 37 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 37 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?


यही बात प्रधान मंत्री जी द्वारा घोषित सौ ‘स्मार्ट सिटीज़’ के संदर्भ में भी लागू होती है। ऊपरी टीम-टाम के चक्कर में बुनियादी ढाँचे को सुधारने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वाराणसी का उदाहरण सामने है। जिसे जापान के प्राचीन शहर क्योटो जैसा बनाने के लिए भारत सरकार ने पिछले सात सालों में दिल खोल कर रुपया भेजा। पर काशीवासियों से पूछिए कि क्या सैंकड़ों करोड़ रुपया खर्च होने के बाद भी उनके शहर की बुनियादी समस्याएँ हल हुई? यही प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधान मंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद्' भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। पर किसी ने नहीं सुना और परिणाम सामने है।  


जरूरत इस बात की थी कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नगरों के विकास की अवधारणा को अनुभवी लोगों की एक राष्टव्यापी समझ के अनुसार मूर्त रूप दिया जाता। फिर उससे हटने की आजादी किसी को न होती। पर सत्ता में बैठा क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों और ताश के महलों में परिवर्तित करता रहेगा ?