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Monday, June 27, 2022

तेलंगाना ने बनाया तिरुपति जैसा भव्य मंदिर



क्या आपको पता है कि हैदराबाद से 60 किलोमीटर दूर यदाद्रीगिरीगुट्टा क्षेत्र में भगवान लक्ष्मी-नृसिंह देव का एक अत्यंत भव्य मंदिर पिछले वर्षों में बना है। पिछले हफ़्ते जब मैं इसके दर्शन करने गया तो इसकी भव्यता और पवित्रता देख कर दंग रह गया। दरअसल 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद तेलंगाना में ये एक कमी थी। प्रसिद्ध तिरुमाला तिरुपति मंदिर आंध्र प्रदेश के हिस्से में चला गया था। तेलंगाना सरकार ने इस कमी को पूरा करने के लिए पौराणिक महत्व के यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह मंदिर का 1800 करोड़ रुपए की लागत से तिरुपति की तर्ज पर भव्य निर्माण करवाया है। आज यहाँ लाखों दर्शनार्थियों का मेला लगा रहता है। 


यदाद्री लक्ष्मी-नृसिंह गुफा का उल्लेख 18 पुराणों में से एक स्कंद पुराण में मिलता है। शास्त्रों के अनुसार त्रेता युग में महर्षि ऋष्यश्रृंग के पुत्र यद ऋषि ने यहां भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। उनके तप से प्रसन्न विष्णु ने उन्हें नृसिंह रूप में दर्शन दिए थे। महर्षि यद की प्रार्थना पर भगवान नृसिंह तीन रूपों ज्वाला नृसिंह, गंधभिरंदा नृसिंह और योगानंदा नृसिंह में यहीं विराजित हो गए। दुनिया में एकमात्र ध्यानस्थ पौराणिक नृंसिंह प्रतिमा इसी मंदिर में है। भगवान नृसिंह की ये तीन और माता लक्ष्मी की एक प्रतिमाएं, करीब 12 फीट ऊंची और 30 फीट लंबी एक गुफा में आज भी मौजूद हैं। इस गुफा में एक साथ 500 लोग दर्शन कर सकते हैं। इसके साथ ही आसपास हनुमान जी और अन्य देवताओं के भी स्थान हैं। इसी गुफा के ऊपर व चारों ओर ये विशाल मंदिर परिसर बनाया गया है। 



मंदिर के निर्माण में कहीं भी ईंट, सीमेंट या कंक्रीट का प्रयोग नहीं हुआ है। सारा मंदिर ग्रेनाइट की भारी-भारी श्री कृष्ण शिलाओंसे बना है जिन्हें पुराने  तरीक़े के चूने के मसाले से जोड़ा गया है। मंदिर के निर्माण में 80 हज़ार टन पत्थर लगा है। जो ये सुनिश्चित करेगा कि ये मंदिर सदियों तक रहेगा। नवनिर्मित मंदिर का सारा निर्माण कार्य आगम, वास्तु और पंचरथ शास्त्रों के सिद्धांतों पर किया गया है। जिनकी दक्षिण भारत के खासी मान्यता है। पारम्परिक नक्काशी से सुसज्जित यह मंदिर कुल साढ़े चार साल में बन कर तैयार हुआ है जो अपने आप में एक आश्चर्य है। इसके लिए इंजीनियरों और आर्किटेक्ट्स ने करीब 1500 नक्शों और योजनाओं पर काम किया। मंदिर का सात मंज़िला ग्रेनाइट का बना मुख्य द्वार, जिसे राजगोपुरम कहा जाता है, करीब 84 फीट ऊंचा है। इसके अलावा मंदिर के 6 और गोपुरम हैं। राजगोपुरम के आर्किटेक्चर में 5 सभ्यताओं द्रविड़, पल्लव, चौल, चालुक्य और काकातिय की झलक मिलती है।    


हजारों साल पुराने इस तीर्थ का क्षेत्रफल करीब 9 एकड़ था। मंदिर के विस्तार के लिए 1900 एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई। इसकी भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर में 39 किलो सोने और करीब 1753 टन चांदी से सारे गोपुरम (द्वार) और दीवारों को मढ़ा गया है। नवस्थापित भगवान के विशाल विग्रह व गरुड़स्तंभ भी सोने के बने हैं। मंदिर की पूरी परिकल्पना हैदराबाद के प्रसिद्ध आर्किटेक्ट आनंद साईं की है। यदाद्री मंदिर ऊँचे पहाड़ पर मौजूद है। मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की सनातन धर्म में गहरी आस्था है, ये इस बात से सिद्ध होता है कि उन्होंने मंदिर परिसर के आस-पास कोई भी दुकान या खान-पान की व्यवस्था नहीं होने दी। क्योंकि उससे मंदिर की पवित्रता भंग होती। इन सब गतिविधियों के लिए उन्होंने पहाड़ के नीचे तलहटी में पूरा व्यावसायिक परिसर बनाया है। जबकि उत्तर भारत में हो रहे धार्मिक नव निर्माणों में मंदिर परिसर या उसके आस-पास भोजनालय, दुकानें और अतिथि निवास बना कर अफ़सरों और इंजिनीयरों ने अनेकों सुप्रसिद्ध मंदिरों की पवित्रता और शांति को भंग कर दिया है।   


मंदिर तक पहुंचने के लिए हैदराबाद सहित सभी बड़े शहरों से जोड़ने के लिए फोरलेन सड़कें तैयार की गई हैं। मंदिर के लिए अलग से बस-डिपो भी बनाए गए हैं। इस इलाक़े में यात्रियों से लेकर वीआईपी तक सारे लोगों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए कई तरह की व्यवस्थाएं की गई हैं। यात्रियों के लिए मंदिर की पहाड़ से दूर अन्य पहाड़ों पर अलग-अलग तरह के गेस्ट हाउस और टेम्पल सिटी का निर्माण भी किया गया है। पूरे परिक्षेत्र में जो हरियाली और फुलवारी लगाई गई है वो अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। जैसी आपको सिंगापुर, शंघाई, वीयना जैसे शहरों में देखने को मिलती है। सफ़ाई और रख-रखाव भी पाँच सितारा स्तर का है। जिससे उत्तर भारत के मंदिरों के प्रशासकों व तीर्थ विकास में लगे अफ़सरों को प्रेरणा लेनी चाहिए। अच्छा होगा कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जी इस भव्य मंदिर और इसके परिसर का दर्शन व भ्रमण करके आएँ। तब वे तुलना कर सकेंगे कि पिछले सात सालों में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने तेलंगाना के अधिकारियों की तुलना में गुणवत्ता व कलात्मकता की दृष्टि से कैसा काम किया है। ज्ञान जहां से भी मिले बटोरना चाहिए, ये हमारा वेद-वाक्य है।   


आश्चर्य की बात यह है कि यदाद्रीगिरीगुट्टा के इस इलाक़े में जहां दूर-दूर तक एक बूंद पानी नहीं था। भूमि सूखी और पथरीली थी। जल का कोई स्रोत न था। वहाँ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव की विश्व भर में चर्चित ‘मिशन भागीरथ’ योजना से दस लाख लीटर शुद्ध जल प्रतिदिन पहुँचाया जा रहा है। यहाँ बने कल्याणकट्टा मंडप में प्रतिदिन 15 हज़ार भक्त मुंडन करवाने के बाद सामने लक्ष्मी सरोवर में दर्शनार्थी स्नान करते हैं। प्रसाद हॉल में एक बार में 750 और दिन भर में 15 हज़ार लोग प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं। इसके अलावा तिरुपति की तरह ही यदाद्री मंदिर में भी लड्डू प्रसादम् मिलता है। इसके लिए अलग से एक कॉम्प्लेक्स तैयार किया गया है, जहां लड्डू प्रसादम् के निर्माण से लेकर पैकिंग की व्यवस्था है। मंदिर में दर्शन के लिए क्यू कॉम्पलेक्स बनाया गया है। इसकी ऊंचाई करीब 12 मीटर है। इसमें रेस्टरूम सहित कैफेटेरिया की सुविधाएं भी हैं। अब आप जब चाहें तिरुपति के साथ ही स्कंद पुराण में वर्णित इस दिव्य तीर्थ स्थल का भी दर्शन करने हैदराबाद से यदाद्रीगिरीगुट्टा मंदिर जा सकते हैं। आपको दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी।

Monday, February 1, 2021

पधारो म्हारे देस


पूरा साल कोविड के चक्कर में कहीं घूमने जाना नहीं हुआ। इस हफ़्ते हिम्मत करके जैसलमेर, जोधपुर में छुट्टी बिताने का सोचा। थार के रेगिस्तान में बसा जैसलमेर, आमतौर पर इन दिनों हज़ारों विदेशी सैलानियों से पटा रहता है। लेकिन इस बार एक साल से कोई विदेशी पर्यटक नहीं आया, जिससे पर्यटन पर आधारित यहाँ की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ चुकी है। तमाम छोटे बड़े होटल बंद पड़े थे या बंद होने की कगार पे थे। पिछले तीन महीनों में जैसे ही कोविड का डर लोगों के मन से दूर हुआ तो गुजरात, राजस्थान और दिल्ली आदि के पर्यटकों का सैलाब टूट पड़ा। उससे यहाँ के पर्यटन उद्योग को कुछ आक्सीजन मिली है। स्थानीय लोगों का कहना था कि पूरे कोविड काल में जैसलमेर और आसपास के इलाक़े में इस महामारी का कोई ख़ास असर नहीं था। न तो लोगों ने मास्क पहने और न सामाजिक दूरी बनाई। कमोबेश यही हालत सारे देश की रही है। कोविड का जो भी घातक असर देखने को मिला वो केवल मुंबई, इंदौर, दिल्ली जैसे नगरों और मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय परिवारों में ही देखा गया। हमारे मथुरा ज़िले के किसी भी गाँव में कोविड महामारी के रूप में नहीं आया। पर कोविड के आतंक से जिस तरह के अप्रत्याशित कदम उठाए गए उससे अर्थव्यवस्था की रीढ़ पूरी तरह टूट गई। यही कारण है कि गरीब आदमी, मजदूर, किसान और छोटे दुकानदार और कारख़ानेदार हर शहर में ये प्रश्न करते हैं कि क्या वह सब ज़रूरी था? अगर यह माना जाए कि ऐसी कड़ी रोकथाम से ही भारत में कोविड पर क़ाबू पाया जा सका तो यह भी सही नहीं होगा। क्योंकि जब देश की बहुसंख्यक आबादी ने कोविड के प्रतिबंधों का पालन ही नहीं किया और फिर भी इस महामारी के प्रकोप से ईश्वर ने भारतवासियों की रक्षा की तो यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों में प्रतिरोधी क्षमता, पश्चिमी देशों के लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा है। क्योंकि हम बचपन से विपरीत परिस्थितियों से जूझ कर बड़े होते हैं और वे बहुत ज़्यादा सावधानियों के साथ। 



इस इलाक़े में आने से पहले, एक कल्पना थी कि चारों ओर रेत के टीले ही टीले होंगे। पर राजमार्ग के दोनों तरफ़ हरयाली और खेत देख कर आश्चर्य हुआ। पता चला ये कमाल है इंदिरा नहर का। जिसके आने के बाद से अब यहाँ बारिश भी साल में 10-12 बार हो जाती है। जबकि पहले बारिश सालों में एक बार होती थी। इससे ये सिद्ध होता है कि समुचित जल प्रबंधन से देश का कायाकल्प हो सकता था। आज़ादी के बाद खर्बों रुपया बहुउद्देशीय नदी परियोजनाओं पर खर्च हुआ। बावजूद इसके आज भी हम वर्षा के मात्र 10 फ़ीसदी जल का ही संचयन कर पाते हैं। जबकि 90 फ़ीसदी जल बह कर नदियों के रास्ते समुद्र में चला जाता है। जल संचयन के राजस्थान के इतिहास को सराहना पड़ेगा। जहां पानी की एक एक बूँद को सोने से भी ज़्यादा क़ीमती मानकर सहेजने की स्थानीय तकनीकी विकसित की गई जो आजतक कारगर हैं। जबकि पाइपलाइन से जल आपूर्ति की ज़्यादातर योजनाएँ समय से पहले ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई। जल के विषय में इतना शोर मच रहा है पर हम अनुभव से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। कुंडों, सरोवरों और तालाबों के जीर्णोद्धार के नाम पर कैसे काग़ज़ी घोड़े दौड़ाए जा रहे हैं इस पर हम पहले भी काफ़ी लिख चुके हैं। आधुनिक जीवन शैली में हमारे बाथरूम पानी की आपराधिक बर्बादी करते हैं। जबकि जैसलमेर की सबसे धनी सेठों की ‘पटवों की हवेली’ में जिस पानी से नहाया जाता था, उसी को एकत्र करके कपड़े धुलते थे और कपड़े धुलने के बाद उसी पानी से फिर फ़र्श और गली धोए जाते थे। आज हम ऐसा नहीं कर सकते पर पानी की बर्बादी पर रोक लगाने की मानसिकता भी विकसित करने को तैयार नहीं हैं। जबकि हर शहर का भूजल स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है और जल संकट गहराता जा रहा है। 


पर्यटन की दृष्टि से अब भारत के मध्यमवर्गीय परिवारों ने एक बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया है। इसलिए इस वर्ग को भी पर्यटन के शिष्टाचार सीखने की ज़रूरत है। आप दुबई के रेगिस्तान में बने ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में जाएं तो आपको प्लास्टिक छोड़ ऊँटों की लीद भी देखने को नहीं मिलेगी। जबकि जैसलमेर के पास मशहूर ‘डेज़र्ट रिज़ॉर्ट’ सम नाम के क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय हो गया है। हज़ारों टेंटों में पर्यटक यहाँ रात बिताते हैं पर पूरे क्षेत्र को प्लास्टिक की बोतलों, थैलों, शराब की बोतलों व दूसरे कचरों से पाट कर चले जाते हैं। ऊँट की लीद तो सारे इलाक़े में फैली पड़ी है। इस पर राजस्थान सरकार के पर्यटन विभाग को ध्यान देना चाहिए। 


हमारी इस यात्रा का ‘हाई पोईंट’ था भारत पाकिस्तान के बॉर्डर पर सीमा सुरक्षा बल की पोस्ट पर जा कर उनके जीवन को देखना। जिस गलवान घाटी में बर्फ़ की तहों के अंदर खड़े हो कर हमारे सैनिक सीमा की रक्षा करते हैं। उससे कम नहीं है थार के रेगिस्तान में 55 डिग्री सेल्सियस की तपती लू और कई दिनों चलने वाली काली आँधी में बीएसएफ़ के जवानों का पाकिस्तान के विरुद्ध मोर्चा लेना। इन जवानों और अफ़सरों के हौसले को सलाम हैं। रोचक बात यह पता चली कि जहां भारत ने 1751 किलोमीटर की पूरी सीमा पर कटीले तारों की मज़बूत बाड़, हर 100 मीटर पर सर्च लाइट के खम्बे और निरीक्षण कक्ष बना रखे हैं, वहीं अपनी आर्थिक तंगी के चलते पाकिस्तान ऐसा कुछ भी नहीं किया। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि पाकिस्तान गुरिल्ला युद्ध या आतंकवाद पनपाने का काम तो कर सकता है पर कोई बड़ा युद्ध लड़ने की उसकी औक़ात नहीं है। यह हमारे लिए संतोष की बात है। कुल मिलाकर ‘पधारो म्हारे देस’ का ये अनुभव बहुत रोचक रहा और उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले महीनों में देश की हालत और सुधरेगी और फिर हम सब भारतवासी आनंद और उमंग से वैसे ही जिएँगे जैसा सदियों से जीते आए हैं।