पिछला हफ़्ता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अवसादों से भरा रहा। जो घटनाएँ घटीं उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष असर भारत पर भी पड़ेगा। इस क्रम में सबसे ज़्यादा दुखद घटना जापान के पूर्व प्रधान मंत्री शिंजो आबे की नृशंस हत्या है। वे न केवल जापान के सशक्त और लोकप्रिय नेता थे बल्कि विश्व राजनीति में भी उनका सर्वमान्य प्रभावशाली व्यक्तित्व था। इस तरह की हिंसा जापान की संस्कृति में अनहोनी घटना है। कुछ लोगों को अंदेशा है कि इसके पीछे चीन का हाथ हो सकता है। जिसने हत्यारे को मनोवैज्ञानिक रूप से इस हाराकिरी के लिए उकसाया होगा। ऐसे षड्यंत्रों का प्रमाण आसानी से जग-ज़ाहिर नहीं होता, इसलिए दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा अंदेशा लगाने वालों का तार्किक आधार यह है कि ‘साउथ एशिया सी’ में चीन की बढ़ती दादागिरी को रोकने की जो पहल शिंजो आबे ने की उससे चीन जाहिरन बहुत विचलित था।
दुनिया के राजनैतिक पटल पर चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाएं और परोक्ष दादागिरी पर लगाम कसने का साहस अगर किसी में था तो वह शिंजो आबे थे। आबे की आकस्मिक मृत्यु भारत के लिए भी चिंता का विषय है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि शिंजो आबे की मृत्यु ने भारत का एक सशक्त शुभचिंतक खो दिया। चीन को घेरने की शिंजो आबे की नीति में सक्रिय रह कर श्री मोदी ने भी सहयोग किया था। क्योंकि यह भारत के भी हित में है, वरना चीन का आर्थिक नव-साम्राज्यवाद दक्षिण एशिया को निगलने को तैयार बैठा है।
उधर श्रीलंका में पिछले कुछ महीनों से जो चल रहा है और विशेषकर पिछले हफ़्ते जो हुआ, वो भी काफ़ी चिंताजनक है। समाज के एक बड़े हिस्से की ओर हिक़ारत से देखना और उसके प्रति घृणा, द्वेष व हिंसा को प्रोत्साहित करके चुनाव जीतने की जो रणनीति श्रीलंका की श्रीलंका पीपुल्स पार्टी और इसके नेताओं महिंदा राजपक्षे और गोटबाया राजपक्षे ने अपनाई थी, उससे वे सत्ता पर तो क़ाबिज़ हो गए, पर विकास के किए वायदे पूरे न कर पाने के कारण जल्दी ही जनता की नज़र में गिर गए। उस पर भी राजपक्षे परिवार के भारी भ्रष्टाचार ने आग में घी का काम किया। लाखों की तादाद में श्रीलंका की जनता का, फ़ौज की मौजूदगी में, राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास पर हमला करना और राष्ट्रपति का छिप कर भाग निकलना, किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए बड़ी चेतावनी है। बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और दैनिक वस्तुओं की भारी कमी जैसी समस्याओं से जूझती श्रीलंका की आम जनता ने अबसे कुछ हफ़्तों पहले इसी तरह प्रधान मंत्री के आवास पर हमला करके उसे जला दिया था। ये वही जनता है जो कल तक इन्हीं नेताओं की दीवानी थी और इनके एक इशारे पर समाज के एक ख़ास हिस्से को समुद्र तक में फेंकने को तैयार थी।
दुनिया भर के राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि भावनात्मक मुद्दों का जीवनकाल बहुत लम्बा नहीं होता। ये तभी तक सफल होते हैं जब तक आम लोगों को बुनियादी सुविधाएँ, संसाधन और रोज़मर्रा की वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध होती रहें। पुरानी कहावत है, ‘भूखे भजन न होय गोपाला। ले लो अपनी कंठी माला।।’, यानी भजन भी भरे पेट के बाद ही हो पाता है।
भारत के लिए यह एक अच्छी बात है कि हमारा देश कृषि प्रधान है। इसलिए श्रीलंका की तरह भारतवासियों को भूखे सड़कों पर उतरने की नौबत नहीं आएगी। 1994 की बात है मेरे सहपाठी और केंद्र में मंत्री रहे दिवंगत दिग्विजय सिंह से मैंने कहा कि ‘राजनेता इतना भ्रष्टाचार क्यों करते हैं? क्या उन्हें जनक्रांति की संभावना के बारे में सोच कर डर नहीं लगता?’ इस पर दिग्विजय सिंह का उत्तर था, “तुम किस दुनिया में रहते हो? भारत के आम लोगों को दो वक्त भरपेट अनाज मिलने में कमी नहीं रहेगी और वे भाग्यवादी हैं, इसलिए अपनी हालत के लिए हमें नहीं, अपने भाग्य को दोष देते हैं। इसलिए यहाँ कभी क्रांति नहीं होगी।” उस समय दिग्विजय की ये बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया था। पर सब समय एक सा नहीं रहता। हालात बदलने से सोच बदल जाती है। पहले देश के नौजवान भारी मात्रा में अशिक्षित थे। इसलिए परिवार के पास खेती योग्य भूमि सीमित मात्रा में होने पर भी सारा परिवार उसी में जुटा रहता था। जिसे अर्थशास्त्रियों ने ‘प्रच्छन्न बेरोज़गारी’ कहा था। यानी वो बेरोज़गार जो सरकार के रोज़गार कार्यालय में पंजीकरण नहीं कराते। जबकि सही मायने में उनके पास उनकी क्षमता के अनुरूप रोज़गार नहीं होता।
लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। भारत की 40 फ़ीसद आबादी युवाओं की है। उनमें शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। सूचना क्रांति के चलते गाँव-गाँव तक जागृति फैली है। अब भारत का युवा कुएँ का मेंढक नहीं है। उसकी महत्वाकांक्षाओं को पर लग गए हैं। वो भी आर्थिक प्रगति के आसमान में उड़ना चाहता है। पिछले दिनों ‘अग्निवीर’ योजना को लेकर बरसों से सैन्य और अर्धसैन्य बलों में नौकरी के लिए तैयारी कर रहे करोड़ों युवाओं ने जिस तरह का आक्रोश व्यक्त किया उससे यही संकेत मिलता है कि अब भारत का युवा सपनों की दुनिया में जीना नहीं चाहता। वह अपने सपनों को धरातल पर उतरते देखना चाहता है।
राष्ट्र का जो नेता युवाओं के और आम लोगों के सपनों को साकार करने की क्षमता का ठोस प्रदर्शन करेगा, वही उनके दिल पर राज करेगा। कोरे आश्वासनों की घुट्टी पिलाने वाला नहीं। भारत के हर राजनैतिक दल के नेताओं को श्रीलंका के घटनाक्रम से सबक़ लेना चाहिए। उन्हें भारी भ्रष्टाचार के मोह जाल से निकल कर, कोरे वायदे और सपने दिखाना बंद करना चाहिए। दुर्भाग्य से आज हम सबके दिमाग़ और मीडिया का सारा समय उन मुद्दों पर बहस में नाहक बर्बाद हो रहा है, जिनसे इन समस्याओं का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। जबकि हमारा क़ीमती समय यह सोचने में लगना चाहिए कि भारत कैसे स्विट्ज़रलैंड जैसा सुंदर बने। कैसे हम तकनीकी शोध में पिद्दी से देश इज़राइल से आगे बढ़ें। कैसे हमारी अर्थव्यवस्था जापान जैसी मज़बूत बने और कैसे हमारे युवा ओलम्पिक खेलों में अमरीका से ज़्यादा मेडल लेकर आएँ। अगर हमने नकारात्मक और विघटनकारी मुद्दों से ध्यान हटा कर विकास के मुद्दों पर केंद्रित नहीं किया तो ‘सोने की चिड़िया’ रहा भारत ‘विश्वगुरु’ नहीं बन पाएगा।
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