आज की युवा पीढ़ी किताबें पढ़ना नहीं चाहती। हर वक्त स्मार्ट फ़ोन या कम्प्यूटर के सामने गर्दन झुकाए जुटी रहती है। जिसका काफ़ी बुरा असर आँखों, कंधों, गर्दन और दिमाग़ पर पड़ता है। वैसे तो हम सब भी इसी बुरी आदत के ग़ुलाम बन चुके हैं।
इस समस्या का एक सरल सा हल खोजा है, तीन पीढ़ी के तीन लेखकों ने। नाना, माँ और बेटी ने मिलकर ‘ड्रैबल्स’ को भारत में साकार किया। आप पूछेंगे ये ‘ड्रैबल्स’ क्या बला है? यह 100 शब्दों में लिखी जाने वाली कहानी है जिसमें न एक शब्द ज़्यादा हो सकता है न कम। ‘ड्रैबल्स’ लिखना चुनौती के साथ-साथ मज़ेदार भी होता है। ‘ड्रैबल्स’ पढ़ना ख़ुशी देता है। कोई व्यक्ति जो कुछ हलका-फुलका और जल्दी ख़त्म होने वाला पढ़ना चाहता है, उसके लिए यह ‘ड्रैबल्स’ लेखन उत्तम विधा है। साहित्यिक दुनिया में यह एक नये प्रकार के लेखन की प्रणाली है जो अभी भारत देश में ज़्यादा प्रचलित नहीं हुई है। वर्ष 1980 में यूनाइटेड किंगडम में इसकी शुरुआत हुई थी। यह ‘माइक्रो- फ़िक्शन’ कहानियाँ हैं जो केवल सौ शब्दों में लिखी जाती हैं। सौ शब्दों में ही कहानी के आदि, मध्य और अंत को रोचक बनाए रखना होता है।
2020-21 में कोरोना काल में जब हम सब अपने घरों में क़ैद थे और बाहर जाने को छटपटा रहे थे तब दुनिया में बहुत से लोगों ने कई अनूठे काम किए। ऐसे ही ये तीन लोग हैं, नाना बिशन सहाए, माँ रुचि रंजन और बेटी इशिका रंजन, जिन्होंने ‘हमारी दुनिया ड्रैबल्स की’ नाम की एक पुस्तक लिखी जो आज भारत में लोकप्रियता के कारण खूब बिक रही है। इस संग्रह में जीवन के हर रंग और रस की 87 कहानियाँ हैं। कुछ हँसी की मज़ेदार हैं, कुछ विलक्षण और अव्यावहारिक और चंद साई-फ़ाई के इर्द-गिर्द घूमती हैं। कुछ यादें कुरेदती हैं तो कुछ सहानभूति जगाती हम को इंसानियत की याद दिलाती हैं।कभी-कभी उन में जीवन की तरह से, उनका अंत नायाब और अप्रत्याशित होता है। सुंदर आकर्षित चित्रों से सँवारी गई यह पुस्तक हिंदी के पाठकों के लिए एक नया व उत्तम तोहफ़ा है।
सौ शब्दों की इन कहानियों के चार नमूने देखिए। ‘लुका-छिपी’ शीर्षक की यह कहानी यूँ लिखी गई है- पलंग के नीचे, मेज़ के नीचे दरवाज़े के पीछे... मेरा परिवार आज लुका-छिपी खेल रहा था। सामाजिक दूरी और लॉकडाउन के कारण हमारा घूमना-फिरना कम हो गया था। वह कहीं तो होगा! दो मंज़िलें घर में उसे ढूँढना मुश्किल था और वह हमारे कॉल करने पर भी जवाब नहीं दे रहा था। उसकी चुप्पी परेशानी को ज्यादा उलझा रही थी। पारे गरम थे। उसके बिना ‘वर्क फ्रॉम होम’ असंभव था। कोविड-19 में सब वर्चुअल होना था... क्लास हो या वेबिनार। थक कर मैं कद्दू मसाला लाते बनाने चली। जैसे ही प्याला प्लेट उठाने लगी। पीछे चुपचाप छिपा छिपाया पड़ा था... मेरा स्मार्ट फोन!
इसी तरह एक और कहानी का लुत्फ़ उठाइए। इसका शीर्षक है ‘ची-ची।’ यह घटना चीनी क्रांति से पहले की है जब चीनी पश्चिमी रंग में रंग रहे थे और अंग्रेज़ कृपालु मगर नकचढ़े थे। लंदन के सरकारी रात्रिभोज में कुओमिंतांग के विदेश मंत्री डॉ. सूँग, अंग्रेज़ लॉर्ड के बगल में बैठे थे। लॉर्ड अनभिज्ञ थे कि वह अंग्रेज़ी के ज्ञाता हैं। अतः बात-चीत नहीं हुई। सूप के बाद अंग्रेज़ ने विनम्रता वश पूछाः 'लाइकी सूपी?’ सूँग ने मुस्कुरा कर सिर हिला दिया। खाने के बाद, भाषणों के दौरान, डॉ. सँग से बोलने का अनुरोध किया गया। भाषण उत्तम, फर्राटेदार अंग्रेज़ी में था। अंग्रेज़ सटपटा गया। बैठते ही सँग ने उससे पूछा, 'लाइकी स्पीची?”
मानवीय संवेदनाओं को छूती इस कहानी ‘चाहत’ को पढ़िए - पानी भरने के लिए लम्बी कतार, सार्वजनिक टॉयलेट के सामने झगडा, सब्जियाँ काटती महिलाएँ, इस दृश्य ने परिसर में कदम रखते ही मेरा अभिवादन किया। आश्रम में रहने वाली शांताबाई मेरे पास आई और फुसफुसाई, 'किसी को याद नहीं... आज मेरा जन्मदिन है।' मैंने उसे गले लगाया और उसने मेरे हाथ कसकर पकड़ लिए। उसका झुर्रीदार चेहरा और आँखें चाहत से भरी थीं, जैसे किसी को खोज रही हों। मेरे मन को भाँप कर बोली, 'मुझे अपने बेटे के फोन का इंतजार नहीं है, अब यही मेरा घर है।' आँसू उसके गालों तक बहते रहे और वह मुझसे लिपट गई।
आपमें से जो लोग कम्पनियों में नौकरी करते हैं, उन्हें कोरपोरेट कल्चर की ये कहानी पढ़कर मज़ा आ जाएगा। वैसे भी एक पुरानी कहावत है, ‘घोड़े की पिछाड़ी और बॉस की अगाड़ी से हमेशा बच कर चलना चाहिए।’ इस कहानी का शीर्षक है ‘हुज़ूर ज़िंदाबाद!’ - हमारी सीलोन की कम्पनी के अध्यक्ष सर सिरिल डि जोयसा से सभी सहयोगी डरते थे। एक सुबह मैंने देखा कि उनकी कंपनियों के सभी डायरेक्टरों की हँसी रुक नहीं रही थी। हुआ यूँ कि सर सिरिल अपने बंगले से दनदनाते हुए निकले और चिल्लाये, 'मेरी चीजें क्यों छुई जाती हैं? मेरा चश्मा कहाँ गया?' सब लोग उसे ढूँढने में लग गए, जब तक कि चश्मा उनकी तनी हुई भौंहों से लुढ़क कर नाक पर नहीं आ गया। ऐसा संभव नहीं था कि सबको वह लगा हुआ न दिखा हो, परंतु सर की बात काटने का साहस कौन करता? हुज़ूर ज़िंदाबाद! इसी बात को हमारे ब्रज में यूँ कहते हैं, ‘बग़ल में छोरा - नगर में ढिंडोरा।’ क्यों यही होता है न आपकी भी कम्पनी में रोज़ाना?
ऐसी ही 83 रोचक कहानियाँ रूपा पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में और हैं जिसकी तारीफ़ करने वालों में सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्ज़ा और शशि थरूर सहित तमाम अख़बार भी शामिल हैं। बच्चों के लिए अंग्रेज़ी में रोचक उपन्यास लिखने वाले विश्व विख्यात लेखक रस्किन बॉंड का कहना है कि “यह लघु- कथाओं का मनमोहक संग्रह कोविड-19 से परेशान हुए लोगों के लिए है। हर मर्ज़ को दूर रखेगी, हर दिन एक ड्रैबल की खुराक।”
इस पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि, “समुद्र के पानी का एक छोटा-सा चम्मच ही उसका डीएनए बता देता है। इसी प्रकार इंसान के शरीर का छोटा-सा बाल अथवा नाखून का टुकड़ा एवं किसी भी अंग का अंश मात्र पूरे शरीर के डीएनए का अनुक्रम हो जाता है। संक्षेप में यही सत्य कि हमारे शरीर का सार तत्व लगभग अदृश्य अणु पर निर्भर करता है, जो कि विकसित होने पर जीवन की बड़ी से बड़ी कहानी बन जाता है। हिन्दुस्तान के वेदों, शास्त्रों और ग्रंथों में भरी सामग्री को आधुनिक विज्ञान अभी तक नहीं जान पाया है। हज़ारों साल पहले सुश्रुत ने प्लास्टिक सर्जरी में जिस सामग्री का प्रयोग किया था, उसका विवरण दिया था। केवल एक पंक्ति पढ़कर मुझमें पूरा ग्रंथ पढ़ने की इच्छा जागी।” मुझे विश्वास है कि इस लेख को पढ़कर आपके भी मन में इस अनूठी किताब को खोजने और पढ़ने की इच्छा जागेगी। क्योंकि तभी हम अपने बच्चों को कम्प्यूटर और स्मार्ट फ़ोन से हटा कर एक बार फ़िर किताबों की दुनिया में लौटा पाएँगे। जो उनके बौद्धिक विकास के लिए बहुत ज़रूरी है।