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Monday, February 22, 2021

क्या ट्विटर की जगह ले पाएगा भारत का ‘कू’?


पिछले कुछ हफ़्तों से भारत सरकार और ट्विटर में जो विवाद चल रहा है वह जग ज़ाहिर है। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि ट्विटर सरकार की आँख की किरकिरी क्यों बना हुआ है। दरअसल सरकार काफ़ी समय से ट्विटर पर दबिश डाले हुए है कि अगर भारत में ट्विटर चलाना है तो उसे सरकार के हिसाब से ही चलाना होगा। लेकिन अमेरिकी कम्पनी ट्विटर पर इस दबिश का कुछ ख़ास असर पड़ता हुआ नहीं दिख रहा था। उधर दूसरी ओर भारत सरकार ने एक मुहिम के तहत ट्विटर के मुक़ाबले एक देसी ऐप ‘कू’ को खड़ा कर दिया है। जहां ट्विटर पर अपनी बात कहने को ‘ट्वीट’ कहा जाता है वहीं ‘कू’ पर अपनी बात को कहने को क्या कहा जाएगा यह अभी स्पष्ट नहीं है।



देखा जाए तो दस महीने पहले शुरू हुए ‘कू’ ने अचानक कुछ हफ़्तों से रफ़्तार पकड़ ली है। बस इसी रफ़्तार के कारण कोतूहल पैदा हो रहा है कि आख़िर यह हुआ कैसे? दरअसल सरकार ने ट्विटर पर दबाव बनाया था कि लगभग एक हज़ार से अधिक ट्विटर के अकाउंटों को बंद कर दिया जाए क्योंकि इन अकाउंट्स को इस्तेमाल करने वाले लोग माहौल ख़राब कर रहे हैं। लेकिन इस ग्लोबल माइक्रोब्लॉग साइट के मालिकों के जवाब दिया कि ट्विटर पर आपत्तिजनक सामग्री को पहचानने और रोकने की हमारे पास एक पुख़्ता प्रणाली है और ऐसी सामग्री को हम पहले ही हटा देते हैं। इस तरह ट्विटर ने सरकार इस माँग को पूरा करने से इनकार कर दिया। इसके साथ ही अमरीकी कम्पनी ट्विटर ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनका काम स्वस्थ सार्वजनिक संवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखना ही है।



ट्विटर के ऐसे जवाब के बाद सरकार ने एक ओर ट्विटर पर कड़ाई बरतने के संकेत दिए और साथ ही दूसरी ओर देसी ऐप ‘कू’ को बढ़ावा देने में लग गई। ‘कू’ पर एकाएक मंत्रालयों, मंत्रियों, नेताओं, अभिनेता और सेलेब्रिटियों, के जाने की होड़ सी लग गई है। माना यह जा रहा है कि इससे ट्विटर पर अप्रत्यक्ष दबाव बनेगा। दबाव पड़ने की अटकलें फ़िज़ूल भी नहीं है क्योंकि अमरीका और जापान के बाद भारत में ही ट्विटर के सबसे ज़्यादा यूज़र्ज़ हैं। या यूँ कहें कि एक कम्पनी के रूप में ट्विटर का बहुत कुछ दांव पर लगा है। जहां दुनिया में ट्विटर के 130 करोड़ खाते हैं जिसमें से ऐक्टिव यूज़र्ज़ लगभग 34 करोड़ हैं। भारत में इन ऐक्टिव खातों की संख्या लगभग 2 करोड़ है। जबकि एक नए ऐप ‘कू’ के एक्टिव यूज़र्ज़ केवल 10 लाख तक ही पहुँच पाए हैं। जहां ‘कू’ केवल दस महीने पुराना है वहीं ट्विटर 2006 में शुरू हुआ था। इसलिए 15 साल पुराने और लोकप्रिय ट्विटर के प्रतिद्वंदी के रूप में ‘कू’ का आँकलन करना अभी जल्दबाज़ी माना जाएगा।


अगर ‘कू’ की कामयाबी की गुंजाइश देखना चाहें तो चीन का उदाहरण सबके सामने है। वहाँ बहुत पहले से ही ट्विटर, फ़ेसबुक, यूट्यूब जैसे सभी सोशल मीडिया प्लैट्फ़ोर्म सालों से बंद हैं। वहाँ ट्विटर की जगह उनका देसी ऐप ‘वीबो’ है और वाट्सएप की जगह ‘वी-चैट’ चलता है। चीन की जनता कई सालों से इन्हीं का इस्तेमाल कर रही है। 


इस विवाद से हमें सेंसर बोर्ड की याद आती है। जिसे बनाने का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि समाज के हित के विरूद्ध कोई फिल्म जन प्रदर्शन के लिए न जाए। माना जाता था कि जिन फिल्मों में हिंसा या कामुकता दिखाई जाती है या जिनसे साम्प्रदायिक उन्माद फैलता हो या देश की सुरक्षा को खतरा पैदा होता हो या समाज के किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचती हो तो ऐसी फिल्मों को प्रदर्शन की अनुमति न दी जाए। जिस दौर में सेटैलाईट चैनलों का अवतरण नहीं हुआ था तब सेंसर बोर्ड का काफी महत्व होता था। पर सेटैलाईट चैनलों और सोशल मीडिया के आने के बाद से सेंसर बोर्ड की सार्थकता ख़त्म हो गई है। 


आरोप लागत रहा है कि सेंसर बोर्ड को आज तक आए सभी सत्तारूढ़ दलों ने अपने विरोधियों की कलाई मरोड़ने के लिए इस्तेमाल किया है। आपात काल में ‘किस्सा कुर्सी का’ फिल्म को इसी तरह रोका गया। बाद में उस पर काफी विवाद हुआ। उन दिनों ऐसा लगता था मानो कांग्रेस ही मीडिया की स्वतंत्रता का हनन करती है बाकी विपक्षी दल तो मीडिया की स्वतंत्रता के हामी है, खासकर भाजपा के नेता खुद को बहुत उदारवादी बताते थे। पर यह सही नहीं है। 


एक तरफ तो हम मुक्त बाजार और मुक्त आकाश की हिमायत करते हैं और दूसरी तरफ देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी को सरकार की कैंची से पकड़कर रखना चाहते हैं, यह कहां तक सही है ? यही आज विवाद का विषय है। अब देखना यह है कि ट्विटर और ‘कू’ को लेकर देश की जनता का रवैया क्या रहता है। यानी पुरानी और लोकप्रिय ट्विटर और एक नई देसी ऐप ‘कू’ के सामने टिके रहने के लिए चुनौती कम नहीं रहने वाली है इतना तो तय है।