Monday, December 22, 2025

अमेरिकी लोकतंत्र की पारदर्शिता और भारतीय संसद! 

अमेरिकी राजनीति में हाल ही में एक बार फिर एक ऐसी घटना घटी जब एफबीआई निदेशक काश पटेल को कांग्रेस की हाउस ज्यूडिशियरी कमिटी के समक्ष सुनवाई के लिए बुलाया गया। यह सुनवाई दिसंबर 2025 में हुई, जहां पटेल को जेफरी एपस्टीन फाइलों, एफबीआई की पारदर्शिता और अन्य विवादास्पद मुद्दों पर कड़े सवालों का सामना करना पड़ा। सुनवाई के दौरान एक एपस्टीन वीडियो चलाया गया, जिसने सदन में हंगामा मचा दिया। पटेल ने दावा किया कि एपस्टीन की फाइलों में कोई विश्वसनीय सबूत नहीं है कि उन्होंने अन्य लोगों को ट्रैफिकिंग की गई पीड़िताएं प्रदान की थीं और जांच पुराने गैर-अभियोजन समझौतों से बंधी हुई है। उन्होंने कहा कि ट्रंप प्रशासन ने ही एपस्टीन के खिलाफ मामले को फिर से खोला था, जबकि पहले के प्रशासन (ओबामा और बाइडेन) ने फाइलें जारी नहीं कीं। डेमोक्रेट सांसदों ने पटेल पर ट्रंप को बचाने का आरोप लगाया, जबकि पटेल ने इनकार किया और कहा कि सभी कानूनी रूप से जारी करने योग्य जानकारी साझा की जा रही है। सुनवाई में एजेंटों की पुनर्नियुक्ति, चार्ली किर्क की हत्या की जांच और एफबीआई के राजनीतिकरण जैसे मुद्दे भी उठे, जहां पटेल ने अपराध दर में कमी और गिरफ्तारियों में वृद्धि का हवाला दिया।


यह सुनवाई अमेरिकी लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता को दर्शाती है। कांग्रेस द्वारा कार्यकारी अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से जवाबदेह ठहराना एक परंपरा रही है। काश पटेल, जो ट्रंप के करीबी सहयोगी हैं और एफबीआई निदेशक के रूप में नियुक्त हुए, को सितंबर 2025 में भी सीनेट और हाउस कमिटियों के समक्ष पेश होना पड़ा था, लेकिन दिसंबर की सुनवाई अधिक विवादास्पद रही क्योंकि इसमें एपस्टीन स्कैंडल पर फोकस था। सुनवाई के दौरान सांसदों ने पटेल से सीधे सवाल किए, जैसे एपस्टीन फाइलों में ट्रंप का नाम कितनी बार आया और क्यों रेडैक्शन (संशोधन) के लिए लगभग 1,000 एजेंटों को लगाया गया। पटेल ने इनकार किया कि संसाधनों का दुरुपयोग हुआ और कहा कि जांच चल रही है, लेकिन अदालती आदेशों से बंधे हैं। इस तरह की सुनवाई लाइव प्रसारित होती हैं, जो जनता को सीधे देखने का अवसर देती हैं और यह अमेरिकी संविधान की जांच और संतुलन की व्यवस्था का हिस्सा है।


यदि तुलना की जाए तो भारत में भी संसद द्वारा किसी अधिकारी को बुलाने की प्रक्रिया है। लेकिन यह अमेरिकी कांग्रेस की तरह सार्वजनिक और नाटकीय नहीं होती। भारतीय संसद की स्थायी समितियां, जैसे लोक लेखा समिति (पीएसी), अनुमान समिति या संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी), अधिकारियों को बुला सकती हैं और पूछताछ कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेपीसी ने अधिकारियों को समन किया था, लेकिन ये कार्यवाहियां बंद दरवाजों के पीछे होती हैं, मीडिया को अनुमति नहीं होती और कोई लाइव ब्रॉडकास्ट भी नहीं होता। अमेरिका में जहां सुनवाई टीवी पर लाइव होती है और सांसद अधिकारियों को कड़े सवाल भी कर सकते हैं, भारत में यह गोपनीय रहती है ताकि जांच प्रभावित न हो। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 और 118 के तहत समितियां स्वतंत्र हैं, लेकिन सार्वजनिक सुनवाई की परंपरा नहीं है।


क्या भारत में कभी ऐसी सुनवाई हो सकती है? यह संभव है, लेकिन राजनीतिक घोटालों के बावजूद मुश्किल। भारत संसदीय प्रणाली पर आधारित है, जहां कार्यकारी और विधायिका में फ्यूजन है, जबकि अमेरिका राष्ट्रपति प्रणाली में पृथक्करण है। जबकि यहां प्रधानमंत्री और मंत्री संसद के सदस्य होते हैं, इसलिए अधिकारी को बुलाना मंत्री की जिम्मेदारी पर सवाल उठा सकता है, जो राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर सकता है। यदि कोई बड़ा घोटाला हो, जैसे राफेल डील या कोयला घोटाला आदि, तो जेपीसी तो अवश्य बन सकती है, लेकिन सार्वजनिक सुनवाई से राजनीतिक पार्टियां डरती हैं क्योंकि इससे संसद में हंगामा, इस्तीफे या सरकार गिरने का खतरा होता है। हालांकि, डिजिटल युग में पारदर्शिता की मांग बढ़ रही है। यदि संसद नियमों में संशोधन करे, जैसे सुनवाई को लाइव प्रसारित करने का प्रावधान, तो यह संभव हो सकता है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में, जहां विपक्ष और सत्ता पक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, ऐसी सुनवाई से घोटाला ही फूट सकता है, जैसे संसद में अवरोध या मीडिया ट्रायल। फिर भी, लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह विचारणीय है।


किसी भी लोकतंत्र में, सत्ता में कोई भी पार्टी क्यों न हो, ऐसे अधिकारियों को बुलाने के कई लाभ हैं। सबसे पहले, यह जवाबदेही सुनिश्चित करता है। चुने हुए प्रतिनिधि कार्यकारी अधिकारियों से सवाल कर सकते हैं, जो जनता की ओर से होता है। इससे भ्रष्टाचार, दुरुपयोग या नीतिगत असफलताओं पर रोशनी पड़ती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में पटेल की सुनवाई से एपस्टीन फाइलों पर जनता को जानकारी मिली, जो अन्यथा छिपी रह सकती थी। भारत में यदि ऐसा हो, तो सरकारी योजनाओं या जांचों की पारदर्शिता अवश्य बढ़ेगी।

दूसरा, यह जांच और संतुलन की व्यवस्था को मजबूत करता है। लोकतंत्र में कोई भी शाखा निरंकुश नहीं होनी चाहिए। विधायिका द्वारा कार्यकारी को बुलाना सत्ता के दुरुपयोग को रोकता है। सत्ता में चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, यह प्रक्रिया नीतियों को जनहित में रखती है। तीसरा, जनता की भागीदारी बढ़ती है। सार्वजनिक सुनवाई से लोग सूचित होते हैं, जो मतदान और सक्रिय नागरिकता को प्रोत्साहित करता है। चौथा, यह राजनीतिक पार्टियों को पारदर्शी बनाता है, क्योंकि सत्ता पक्ष को अपनी नीतियों का बचाव करना पड़ता है, जबकि विपक्ष को रचनात्मक सवाल करने पड़ते हैं। इससे लोकतंत्र की गुणवत्ता सुधरती है।

हालांकि, इस सब के नुकसान भी हो सकते हैं, जैसे राजनीतिकरण या मीडिया ट्रायल, लेकिन देखा जाए तो लाभ अधिक हैं। पटेल की सुनवाई से अमेरिका में एफबीआई की विश्वसनीयता पर बहस हुई, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है। भारत में यदि ऐसी व्यवस्था आए, तो घोटालों के बावजूद, यह देश को मजबूत बनाएगा और जवाबदेही व पारदर्शिता को बढ़ावा मिलेगा।  

Monday, December 15, 2025

खाद्य मिलावट का गहराता संकट! 

सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक चेतावनी दी जा रही है कि 15 साल में देश का हर व्यक्ति कैंसर का शिकार हो जाएगा…! वीडियो में यह दावा किया गया है कि मिलावटी खाने से पूरे समाज को धीरे-धीरे मार दिया जा रहा है। इसी तरह, एक और वीडियो में चीन के किसी लैब में फल-सब्ज़ियों पर रसायन और रंग छिड़कते हुए दिखाया गया है, जो तुरंत पक जाते हैं। ये वीडियो भय पैदा कर रहे हैं, लेकिन सवाल यह है: क्या ये सिर्फ अतिशयोक्ति हैं, या वास्तविकता का आईना? भारत में खाद्य मिलावट की समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ इसे ‘धीमी हत्या’ कह रहे हैं। कैंसर, हृदय रोग और किडनी फेलियर जैसी बीमारियों का बढ़ता ग्राफ इसी का नतीजा है। लेकिन हम कितने प्रभावित होंगे? समस्या कितनी गंभीर है? और सरकार को क्या कदम उठाने चाहिए?



खाद्य मिलावट कोई नई समस्या नहीं है। प्राचीन काल से ही व्यापारी लाभ के लिए अनाज में पत्थर, दूध में यूरिया और मसालों में कृत्रिम रंग मिलाते आए हैं। लेकिन 2025 में यह महामारी का रूप ले चुकी है। खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के अनुसार, त्योहारों के मौसम में मिलावट के मामले 30 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं। दूध, घी, पनीर, मावा, तेल और मसाले – ये रोज़मर्रा के सामान अब ज़हर की तरह बन चुके हैं। हाल ही में गुजरात में 198 दूध और पनीर के नमूने असुरक्षित पाए गए, जिनमें स्टार्च और सिंथेटिक फैट मिले थे। आगरा में 2 क्विंटल मिलावटी खोआ नष्ट किया गया, जबकि सूरत के पास 745 किलो नकली पनीर जब्त हुआ। तिरुपति के प्रसिद्ध लड्डू के घी मिलावट कांड में सीबीआई ने 12 लोगों को गिरफ्तार किया, जहां वनस्पति तेल, बीटा कैरोटीन और एसिड एस्टर जैसे रसायनों से घी बनाया जा रहा था। पतंजलि का घी भी गुणवत्ता परीक्षण में फेल हो गया, जिसमें मिलावट की पुष्टि हुई। 



ये मामले सिर्फ़ तो सिर्फ़ संकेत हैं। जम्मू-कश्मीर में 2025 में 13,944 निरीक्षण हुए, जिनमें 21 आपराधिक मामले दर्ज किए गए। लखनऊ में केएफसी, मैकडॉनल्ड्स और हल्दीराम जैसे ब्रांडों के 36 नमूने फेल हुए, जहां बैक्टीरिया और बासी सामग्री मिली। सोशल मीडिया पर हाल के पोस्ट्स में गोरखपुर की फैक्ट्री से 40 क्विंटल नकली पनीर (पोस्टर कलर, डिटर्जेंट और सल्फ्यूरिक एसिड से बना) जब्त होने की बात है, जो सड़क किनारे के ठेलों पर बिकता था। पाली में 4660 किलो मिलावटी मावा, देवली में मूंगफली तेल के नमूने – ये उदाहरण बताते हैं कि मिलावट अब छोटे-बड़े सभी स्तरों पर फैल चुकी है। 



अब सवाल है कि हम कितने प्रभावित होंगे? मिलावट का असर तत्काल और दीर्घकालिक दोनों है। तत्काल प्रभाव में उल्टी, दस्त, फूड पॉइज़निंग शामिल हैं, जैसा कि हाल के कफ सिरप कांड में 14 बच्चों की मौत हुई। लेकिन दीर्घकालिक खतरा और भी भयानक है। कैडमियम, पेस्टीसाइड्स और मेटानिल येलो जैसे रसायन कैंसर, लीवर-किडनी डैमेज और हृदय रोग का कारण बनते हैं।  यूरोपीय संघ ने 2019-2024 के बीच 400 से ज़्यादा भारतीय उत्पादों को कैंसरकारी पदार्थों से दूषित पाया, जिनमें मसाले, मछली और फल शामिल थे। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के अनुसार, मिलावट से जुड़े गैर-संक्रामक रोगों में 20 प्रतिशत वृद्धि हुई है। दक्षिण भारत में दूध और फलों में मिले रसायन गॉलब्लैडर कैंसर और ड्रॉप्सी के मामलों को बढ़ा रहे हैं। बैकरी आइटम्स में कृत्रिम रंगों से कैंसर का जोखिम दोगुना हो गया है। 


वायरल पोस्ट में दावा किया गया कि 15 साल में सबको कैंसर होगा – यह अतिशयोक्ति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कभी ऐसा नहीं कहा कि 87 प्रतिशत भारतीयों को मिलावटी दूध से कैंसर होगा। लेकिन समस्या गंभीर है। फ्रंटलाइन पत्रिका के अनुसार, मिलावट से क्रॉनिक डिज़ीज़ेज़ में उछाल आया है, खासकर कैंसर और कार्डियोवस्कुलर डिसऑर्डर में।  भारत पहले से ही एशिया में कैंसर के मामलों में तीसरा सबसे बड़ा देश है, और मिलावट इसे और बढ़ावा दे रही है। ग्रामीण इलाकों में जहां जैविक खेती कम है, प्रभाव ज़्यादा पड़ता है। शहरीकरण और प्रोसेस्ड फूड के बढ़ते उपयोग से मध्यम वर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहा है।


चीन वाले वीडियो पर बात करें तो वह एआई-जनरेटेड फेक है। टिकटॉक पर मूल वीडियो को एआई कंटेंट के रूप में चिह्नित किया गया था और फैक्ट-चेकर्स ने असंगतताओं (जैसे अस्वाभाविक रंग परिवर्तन) की पुष्टि की। लेकिन यह वीडियो वास्तविक समस्या को उजागर करता है। चीन में अंगूरों पर 24 बार पेस्टीसाइड स्प्रे और चेरीज़ से आईसीयू के मामले सामने आए हैं। वैश्विक व्यापार में भारतीय निर्यात भी प्रभावित हो रहा है। लेकिन घरेलू स्तर पर समस्या ज़्यादा चिंताजनक है, जहां नियमन कमज़ोर है।


उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मिलावट को ‘सामाजिक अपराध’ कहा और तीन नई माइक्रोबायोलॉजी लैब्स शुरू कीं।  एफएसएसएआई ने त्योहारों पर विशेष अभियान चलाए, लेकिन सज़ाएं कमज़ोर हैं। रामेश्वरम कैफे मामले में कीड़े मिलने पर एफआईआर दर्ज हुई, लेकिन मालिकों को सज़ा मिलना मुश्किल।  हज़ारीबाग में डेयरी सील हुई, लेकिन दोबारा खुलने का डर रहता है।  समस्या यह है कि दंड अपर्याप्त हैं – अधिकतम 10 लाख का जुर्माना या 7 साल की सज़ा, लेकिन लागू नहीं होता। लैब्स की कमी से टेस्टिंग देरी से होती है।


ऐसे में सरकार को क्या करना चाहिए? सबसे पहले, सख्त कानून: मिलावट पर न्यूनतम 20 साल की सज़ा और संपत्ति जब्ती। एफएसएसएआई को स्वायत्त बनाएं, न कि स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन। हर जिले में मोबाइल टेस्टिंग वैन और एआई-आधारित निगरानी शुरू करें। जैविक खेती को सब्सिडी दें – गोबर से उर्वरक बनाने पर प्रोत्साहन।  जन जागरूकता अभियान चलाएं: स्कूलों में मिलावट की पहचान सिखाएं। आयातित फलों पर सख्त जांच। और सबसे ज़रूरी, भ्रष्टाचार पर प्रहार – निरीक्षक जो रिश्वत लेते हैं, उन्हें बर्खास्त करें।


वायरल पोस्ट्स भय पैदा करते हैं, लेकिन वे सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। मिलावट सिर्फ़ व्यापारिक लालच नहीं, बल्कि जन स्वास्थ्य पर हमला है। अगर 15 साल में कैंसर न फैले, तो इसके लिए सरकार, उद्योग और उपभोक्ता सबको जागना होगा। घर पर टेस्ट किट्स इस्तेमाल करें, ब्रांडेड उत्पाद चुनें और शिकायत दर्ज कराएं। अन्यथा, हमारा भोजन ही हमारी कब्र बन जाएगा। समय आ गया है – मिलावट रोकें, जीवन बचाएं! 

Monday, December 8, 2025

राजधानी दिल्ली का भविष्य खतरे में! 

सर्वोच्च न्यायालय के ताज़ा आदेश ने दिल्लीवासियों और उनकी भविष्य की पीढ़ियों का जीवन खतरे में डाल दिया है। इस आदेश के अनुसार दिल्ली की सीमा से सटी अरावली पर्वत शृंखला की हरियाली पर दूरगामी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले ने अरावली पर्वतमाला को 100 मीटर की ऊंचाई के आधार पर परिभाषित कर दिया है, जिससे इसके विशाल भाग को कानूनी संरक्षण से बाहर रखा जा रहा है। यह फैसला उत्तर-पश्चिम भारत, ख़ासकर दिल्ली एनसीआर के पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि अरावली न केवल रेगिस्तानीकरण की एकमात्र रोक है, बल्कि यह जल संवर्धन क्षेत्र, प्रदूषण के लिए सिंक, वन्यजीवों के आवास और जन स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

अरावली दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। यह थार मरुस्थल से आने वाली धूल और प्रदूषण को रोकती है। अगर अरावली के बड़े हिस्से को संरक्षण से बाहर रखा गया, तो दिल्ली-एनसीआर में धूल तूफान, वायु प्रदूषण और जल संकट बढ़ सकता है। अरावली की चट्टानों में दरारें प्राकृतिक जल संवर्धन के लिए अहम हैं। यहां प्रति हेक्टेयर दो मिलियन लीटर जल संवर्धन की क्षमता है, जिससे पूरे क्षेत्र का भूजल स्तर बना रहता है। इसके अलावा, अरावली विविध वन्यजीवों का आवास है, जिसमें सैकड़ों प्रजातियां शामिल हैं।


सुप्रीम कोर्ट ने अरावली को केवल उन्हीं भू-आकृतियों तक सीमित कर दिया है जो स्थानीय स्तर से 100 मीटर ऊंचाई पर हैं। इससे अरावली के लगभग 90% भाग को संरक्षण से बाहर रखा गया है, जिसमें छोटे टीले, ढलानें और बफर क्षेत्र शामिल हैं। यह निर्णय खनन, निर्माण और रियल एस्टेट गतिविधियों के लिए दरवाजे खोल देगा, जिससे जैव विविधता, जल संवर्धन और वायु गुणवत्ता पर गंभीर खतरा होगा। 


सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक संरक्षण के सिद्धांतों के खिलाफ भी जा सकता है। अदालतें पर्यावरणीय न्याय के लिए जानी जाती हैं। लेकिन इस निर्णय से ऐसा लगता है कि व्यावसायिक और विकासात्मक हितों को पर्यावरणीय और सामाजिक हितों पर प्राथमिकता दी जा रही है। यह भविष्य में अन्य पर्यावरणीय मामलों में भी खराब उदाहरण साबित हो सकता है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों की लूट को और बढ़ावा मिल सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह निर्णय भारत के पर्यावरणीय संतुलन को गहराई से प्रभावित करेगा। 


अरावली पर्वतमाला के संरक्षण का मुद्दा न केवल पर्यावरणीय और आर्थिक है, बल्कि यह नैतिक और न्यायिक भी है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 48A और 51A(g) में पर्यावरण संरक्षण का अधिकार और कर्तव्य शामिल है, जिसके तहत राज्य और नागरिकों की जिम्मेदारी है कि वे प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करें। जानकारों के अनुसार इस नए निर्णय से यह जिम्मेदारी और अधिकार कमजोर हो रहा है, क्योंकि अरावली के बड़े हिस्से को संरक्षण से बाहर रखकर इसकी प्राकृतिक संपदा का दोहन आसान हो जाएगा।  

अरावली के आसपास रहने वाले स्थानीय समुदाय, आदिवासी, किसान और ग्रामीण इस पर्वतमाला की सुरक्षा के लिए सबसे ज्यादा आवाज उठा रहे हैं। उनका तर्क है कि अरावली न केवल उनकी आजीविका का स्रोत है, बल्कि उनकी संस्कृति और पहचान का हिस्सा भी है। अगर इसकी सुरक्षा नहीं होगी, तो इन समुदायों की जीवन शैली, आस्था और भावनाएं भी खतरे में पड़ेंगी। यह निर्णय न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा, बल्कि सामाजिक असमानता और विस्थापन को भी बढ़ावा देगा। 

राजस्थान में जहाँ बादल उठते थे, वहीं अरावली के जंगल उन्हें बरसाते थे। खनन के कारण अरावली का तापमान 3 से 5 डिग्री तक बढ़ जाता है। पहले जयपुर की झालाना डूंगरी में खनन के कारण दोपहर बाद, जयपुर के अन्य हिस्सों की तुलना में, वहाँ का तापमान 1 से 3 डिग्री अधिक रहता था। सर्दियों में भी झालाना का तापमान जयपुर से अलग रहता था।

खनन अरावली की प्रकृति और संस्कृति — दोनों के विरुद्ध है। इससे हमारी पारिस्थितिकी बिगड़ती है। हाँ, कुछ खनन-मालिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है, परंतु अधिकतर लोगों को सिलिकोसिस जैसी भयानक बीमारियाँ हो जाती हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है और फिर बीमारी के कारण आर्थिक स्थिति भी खराब होने लगती है।

अरावली की हरियाली ही हमारी अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी का आधार है। जैसे हमारे शरीर का आधार हमारी रीढ़ है, वैसे ही अरावली भारत की रीढ़ है, इसलिए इसकी सुरक्षा आवश्यक है। अरावली को खनन-मुक्त करना ही भारत की समृद्धि का मार्ग है। समृद्धि केवल आर्थिक ढाँचा ही नहीं है; हमारे जीवन-ज्ञान ने हमें 200 वर्ष पूर्व तक 32% जीडीपी तक पहुँचाया था, तब भारत में बड़े पैमाने पर खनन नहीं था। हमारी खेती, संस्कृति और प्रकृति ने ही हमें समृद्ध बनाए रखा था।

अरावली की समृद्धि का ढाँचा खनन में नहीं, बल्कि हरियाली में है। हरियाली से बादल रूठकर बिना बरसे कहीं और नहीं जाते; अरावली में ही अच्छी वर्षा करते हैं। वर्षा का पानी खेतों में खेती करने हेतु रोजगार के अवसर देता है। अरावली के जवानों को अरावली के जल के सहारे खेती-किसानी करने का अवसर मिलेगा।

अरावली पर्वतमाला की परिभाषा को केवल ऊंचाई पर आधारित करना भू-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गलत है। इसकी वास्तविक पहचान उसकी भू-आकृति, जैव विविधता, जल संवर्धन क्षमता और पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित होनी चाहिए। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि अरावली के छोटे टीले और ढलानें भी जल संवर्धन और वायु गुणवत्ता के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन्हें संरक्षण से बाहर रखना पर्यावरणीय विज्ञान के सिद्धांतों के खिलाफ है। अरावली पर्वतमाला की नई परिभाषा न केवल पर्यावरण के लिए खतरनाक है, बल्कि इससे दिल्ली-एनसीआर के लिए जल सुरक्षा, वायु गुणवत्ता और जन स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा होगा। इस फैसले को समीक्षा के लिए तुरंत लाया जाना चाहिए ताकि उत्तर-पश्चिम भारत की जैव विविधता, जल संवर्धन और जन स्वास्थ्य की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

अरावली की सुरक्षा न केवल वर्तमान पीढ़ी की जिम्मेदारी है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी एक नैतिक दायित्व है। इसकी रक्षा के लिए नागरिक जागरूकता, स्थानीय समुदायों की भागीदारी, वैज्ञानिक सलाह और नीतिगत समीक्षा जरूरी है। यह सिर्फ एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और नैतिक चुनौती है, जिसे हल करने के लिए सभी को एकजुट होना होगा। अरावली की रक्षा भारत की प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करने के बराबर है, जिसके लिए हर नागरिक को जिम्मेदारी लेनी होगी। 

Monday, December 1, 2025

‘डांसिंग भालू’: शोषण से संरक्षण तक की यात्रा 

स्लॉथ भालुओं का लंबे समय तक चला ‘डांसिंग भालू’ शोषण‑मॉडल आज लगभग समाप्त हो चुका है, और इसके केंद्र में एक संगठित, मानवीय व वैज्ञानिक दृष्टि से समर्थ संरक्षण आंदोलन खड़ा है। यह बदलाव केवल एक प्रजाति को बचाने की कहानी नहीं, बल्कि कानून, करुणा और समुदाय-आधारित पुनर्वास के अनोखे संतुलन का उदाहरण भी है। सदियों तक स्लॉथ भालुओं को सड़कों पर नचाने, करतब दिखाने और मनोरंजन का साधन बनाने की परंपरा जारी रही, जिसे कलंदर समुदाय की रोज़ी‑रोटी का आधार माना गया। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत यह प्रथा दंडनीय अपराध है, फिर भी सामाजिक‑आर्थिक निर्भरता और ढीले अमल के कारण यह व्यापार दशकों बाद तक जारी रहा।

ऐसे माहौल में वाइल्डलाइफ एसओएस जैसी संस्था का हस्तक्षेप केवल ‘रेस्क्यू ऑपरेशन’ भर नहीं था, बल्कि इसने राज्य, कानून और हाशिए पर खड़े समुदाय के बीच एक संवाद की नई भाषा गढ़ी। आगरा, बैंगलुरु, भोपाल और पुरुलिया में भालू संरक्षण केंद्रों की स्थापना ने दिखाया कि पशु‑कल्याण तभी टिकाऊ है जब उसके साथ मानवीय पुनर्वास की समांतर संरचना खड़ी की जाए। 

डांसिंग भालू प्रथा को समाप्त करने की सबसे बड़ी नैतिक चुनौती यह थी कि कलंदर समुदाय की आजीविका उसी शोषण पर टिकी थी, जिसे कानून रोकना चाहता था। केवल दमनकारी कार्रवाई से भालू तो शायद छिटपुट रूप से बचाए जा सकते थे, पर समुदाय और कानून दोनों के बीच अविश्वास और बढ़ता।


यहाँ वाइल्डलाइफ एसओएस का मॉडल उल्लेखनीय है, जिसने कलंदरों के लिए वैकल्पिक रोज़गार, कौशल‑विकास, सीड फंडिंग और विशेष रूप से महिलाओं के सशक्तीकरण पर ज़ोर दिया। लगभग 5,000 से अधिक कलंदर परिवारों को व्यावसायिक प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता देकर वन्यजीव शोषण से अलग आजीविका की ओर मोड़ना सामाजिक न्याय और संरक्षण को एक साथ आगे बढ़ाने का उदाहरण है।

डांसिंग भालू व्यापार के खात्मे के साथ‑साथ सवाल यह भी था कि बचाए गए सैकड़ों भालुओं की जीवन‑भर देखभाल कैसे हो। इन भालुओं पर वर्षों के शारीरिक‑मानसिक अत्याचार, दांत तोड़ने से लेकर नाक में छेद कर रस्सी डालने जैसी क्रूर प्रथाओं के गहरे घाव रहे हैं, जिनसे वे जंगली जीवन में लौट ही नहीं सकते।


आगरा भालू संरक्षण केंद्र सहित देश भर के रेस्क्यू फैसिलिटीज़ में 90 दिन का क्वारंटाइन, टीकाकरण, पोषण प्रबंधन, दंत उपचार, सर्जरी, थर्मल इमेजिंग, डिजिटल एक्स‑रे और वृद्ध भालुओं के लिए विशेष जेरियाट्रिक केयर जैसे प्रावधान दिखाते हैं कि आधुनिक पशु‑चिकित्सा और एथोलॉजी को गंभीरता से अपनाया गया है। बड़े प्राकृतिक बाड़ों में भोजन खोजने, पेड़ों पर चढ़ने, मिट्टी खोदने और सामाजिक संपर्क जैसे व्यवहारों को प्रोत्साहित करना ‘कैद’ नहीं, बल्कि पुनर्वास की वैज्ञानिक परिकल्पना को सामने लाता है।

भारत में अंतिम डांसिंग भालू अदित का 2009 में बचाया जाना इस कुप्रथा के औपचारिक अंत का प्रतीक है, लेकिन इससे जुड़े नैतिक और नीतिगत प्रश्न यहीं समाप्त नहीं होते। क्या वन्यजीव संरक्षण केवल कानून की भाषा में सीमित रह सकता है, या उसे सामाजिक सुधार, गरीबी उन्मूलन और शिक्षा की नीतियों के साथ जोड़कर देखना अनिवार्य है?


कलंदर समुदाय में बाल विवाह पर रोक, महिलाओं के लिए सिलाई‑शिल्प केंद्र और बच्चों के लिए ट्यूशन सेंटरों से जुड़े प्रयास दिखाते हैं कि जब संरक्षण नीति समुदाय‑केंद्रित होती है, तब वह समानांतर रूप से मानवाधिकार, शिक्षा और लैंगिक न्याय के एजेंडा को भी आगे बढ़ा सकती है। 17,000 से अधिक बच्चों को शिक्षा सहायता और 4,000 से अधिक महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण दिलाना वन्यजीव नीति को ‘सिर्फ जानवरों की नीति’ मानने की संकीर्ण दृष्टि को चुनौती देता है।



12 अक्टूबर को विश्व स्लॉथ भालू दिवस के रूप में मान्यता मिलना, और उसमें वाइल्डलाइफ एसओएस की पहल का योगदान, इस संघर्ष को वैश्विक संरक्षण विमर्श से जोड़ता है। यह दिन न केवल एक प्रजाति के संरक्षण का प्रतीक है, बल्कि उन समुदायों की भी याद दिलाता है जिन्हें नई शुरुआत देने के लिए सामाजिक‑आर्थिक हस्तक्षेप अनिवार्य थे।

भारतीय संदर्भ में यह उपलब्धि दिखाती है कि जब नागरिक समाज, राज्य और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मिलकर काम करती हैं, तो अवैध शिकार, वन्यजीव तस्करी और मानवीय शोषण जैसी जटिल समस्याओं के भी स्थायी समाधान संभव हैं। ‘फॉरेस्ट वॉच’ जैसी एंटी‑पोचिंग इकाइयाँ यह स्पष्ट करती हैं कि केवल भालू नचाने की प्रथा खत्म कर देना काफी नहीं, अवैध शिकार की अर्थव्यवस्था पर लगातार निगरानी और कार्रवाई भी उतनी ही ज़रूरी है।

डांसिंग भालू प्रथा का अंत एक उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर इसे सफलता की अंतिम रेखा नहीं, बल्कि एक मॉडल के रूप में देखा जाना चाहिए जिसे अन्य वन्यजीवों और समुदायों पर भी लागू किया जा सकता है। सर्कसों में जंगली जानवरों के इस्तेमाल से लेकर हाथियों, बड़े बिल्ली प्रजातियों और पक्षियों के अवैध व्यापार तक, अनेक क्षेत्र हैं जहाँ इसी तरह की समुदाय‑आधारित, वैकल्पिक आजीविका वाली योजनाएँ अपनाई जा सकती हैं।

डांसिंग भालू प्रथा के उन्मूलन से एक और महत्वपूर्ण पाठ यह मिलता है कि संरक्षण केवल संकट के समय चलाया गया अभियान नहीं, बल्कि निरंतर निगरानी और जन‑भागीदारी पर टिका लंबा राजनीतिक‑सामाजिक प्रोजेक्ट होना चाहिए। स्कूलों, मीडिया और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के पाठ्यक्रम और कार्ययोजनाओं में वन्यजीव‑कल्याण और समुदाय‑आधारित पुनर्वास जैसे उदाहरणों को शामिल करना ज़रूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह क्रूरता सिर्फ इतिहास की किताबों में दर्ज चेतावनी बनकर रह जाए, ज़मीनी हकीकत नहीं। इसी के साथ, नीति‑निर्माताओं के लिए यह एक स्पष्ट संकेत है कि जब भी किसी पारंपरिक, लेकिन अमानवीय प्रथा को समाप्त करने की बात हो, तो विकल्प, गरिमा और न्याय के बिना लागू की गई ‘प्रतिबंध‑राजनीति’ न टिकाऊ होती है, न ही नैतिक।

भारत जैसे देश में, जहाँ गरीबी, परंपरा और मनोरंजन की विकृत मांग मिलकर वन्यजीव शोषण को हवा देते हैं, डांसिंग भालू के खिलाफ संघर्ष यह सिखाता है कि संवेदना और संरचना, दोनों की ज़रूरत है – कानून की सख्ती के साथ‑साथ पुनर्वास की कोमलता भी। यह कहानी आखिरकार इस आशा को मजबूत करती है कि जब समाज निर्णय ले ले, तो सदियों पुरानी क्रूर परंपराएँ भी इतिहास बन सकती हैं और मनुष्य‑वन्यजीव संबंध अधिक न्यायपूर्ण और करुणामय दिशा में बढ़ सकते हैं। 

Monday, November 24, 2025

सेना बनाम सर्वोच्च न्यायालय बनाम मानवाधिकार

पिछले दिनों एक पोस्ट सोशल मीडिया पर तेज़ी से वायरल हुई। इस पोस्ट में सेवानिवृत्त कर्नल ए. एन. रॉय का बयान सेना के उस वर्ग की भावना को स्पष्ट करता है, जो लगातार आतंकवाद, हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता वाले इलाकों में डटा रहता है। जब सैनिक सीमाओं या कश्मीर जैसे ‘संवेदनशील क्षेत्रों’ में आतंकवाद का सामना करते हैं, तब उन्हें कुछ फैसले अक्सर सेकंडों में लेने पड़ते हैं। इसमें औपचारिकताओं के लिए समय नहीं होता। जो भी निर्णय लेना होता है वह उन सैनिकों को दिए गए प्रशिक्षण और अपने विवेक से ही लेना पड़ता है। 

इस पोस्ट ने सीधे सवाल उठाया, क्या आपने कभी अपने बेटे को खोया है? — यह व्यवस्था से उपजी पीड़ा और असंतोष की प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। इसका मूल भाव यही है कि जब सैनिक आतंकवादी का सामना करता है, तो वह कानून या न्यायालय की व्याख्याओं से अधिक, अपने प्रशिक्षण और परिस्थिति पर ही निर्भर करता है। बाद में उस पर अभियोग या अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगना उसे अपमानजनक महसूस होता है।


दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय की दृष्टि संविधान की मूल भावना, ‘हर नागरिक के मौलिक अधिकार’ से निर्देशित होती है। न्यायालय किसी सेना या व्यक्ति का विरोध नहीं करता, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि ‘राज्य की शक्ति’ जवाबदेही से परे न हो। कश्मीर या किसी अशांत क्षेत्र में नागरिकों पर अत्याचार या फर्जी मुठभेड़ों के आरोप अक्सर सामने आते हैं। यदि जांच का हक छीन लिया जाए, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं की पारदर्शिता पर सवाल उठेंगे। न्यायालय यह नहीं कहता कि आतंकवादी को बचाया जाए, बल्कि यह मांगता है कि निर्दोष लोग आतंकवादी समझकर मारे न जाएं। यही ‘न्याय का नैतिक आधार’ है।


पोस्ट में आतंकवादियों के मानवाधिकारों को लेकर जो कटाक्ष किया गया है, वह भावनात्मक प्रतिक्रिया है। लेकिन मानवाधिकारों का सार आतंकवादी के प्रति करुणा नहीं, बल्कि बिना भेदभाव सिद्धांतों पर आधारित न्याय को सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में है। जब किसी संदिग्ध की मौत की जांच होती है, तो लक्ष्य अपराधियों को बचाना नहीं, बल्कि सत्ता के दुरुपयोग को रोकना होता है। वैश्विक संदर्भ में भी अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस जैसे देशों में वॉर क्राइम्स या एक्सेसिव फोर्स पर सवाल उठते रहे हैं। सशक्त लोकतंत्र वे हैं जो अपने संस्थानों से प्रश्न पूछने का साहस रखते हैं।

यह साफ है कि सेना को अपराधी न मानें और न्यायपालिका को देशविरोधी न कहें। दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा और संवैधानिक निष्ठा के दो मजबूत स्तंभ हैं। समस्या तब आती है जब संवैधानिक प्रक्रिया को देश विरोधी साजिश या सैनिक कार्रवाई को न्याय की हत्या मान लिया जाता है। इससे संवाद में विघटन और अविश्वास बढ़ता है।


समुचित समाधान यही है कि सेना को ‘ऑपरेशनल प्रोटेक्शन’ मिले, ताकि तत्काल कार्रवाई में की गई गलती अपराध न माना जाए, लेकिन शक्ति का दुरुपयोग करने पर न्यायिक जांच की प्रक्रिया बनी रहे। ऐसे पोस्ट सोशल मीडिया पर राष्ट्रभक्ति की भावना को सीधा स्पर्श करते हैं। खतरा इस बात में है कि भावनाओं की लहरों में तथ्य और कानूनी सीमाओं की अनदेखी होने लगती है। न्यायपालिका, सेना और मानवाधिकार, ये विरोधी नहीं बल्कि लोकतंत्र के पूरक अंग हैं। सोशल मीडिया पर एकांगी नैरेटिव अंततः सार्वजनिक विश्वास को कमजोर करता है। 

भारत में सेना, सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार को लेकर टकराव की घटनाएँ केवल हाल ही की नहीं, बल्कि देश के इतिहास में समय-समय पर सामने आई हैं। 18वीं शताब्दी में, कोलोनियल शासन के दौरान सुप्रीम कोर्ट और गवर्नर जनरल इन काउंसिल के बीच अधिकार को लेकर पहली बड़ी भिड़ंत कोसिजुरा मामला में देखने को मिली। सुप्रीम कोर्ट ने सेना का इस्तेमाल करते हुए अपनी शक्तियाँ बढ़ाने का प्रयास किया, जबकि गवर्नर जनरल इन काउंसिल ने अदालत के आदेशों को चुनौती दी और सेना को अदालत के खिलाफ तैनात कर दिया। यह विवाद बंगाल ज्यूडिकेचर एक्ट 1781 के पास होने तक चलता रहा, जिसने अदालत की सीमाएँ तय कर दीं और टकराव का अंत किया। इस मामले ने जता दिया कि अधिकारों की अस्पष्टता शक्ति संघर्ष का हमेंशा केंद्र रही है। 


1945 में आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों पर देशद्रोह और हत्या के आरोप लगे और उन पर कोर्ट मार्शल चलाया गया। ब्रिटिश सरकार ने इन सैनिकों की गतिविधियों को किंग के खिलाफ युद्ध माना, जबकि भारतीय जनता और नेताओं ने देशभक्ति की भावना को कानूनी प्रक्रिया के विरोध में जोरदार तरीके से रखा। इस संघर्ष में अदालत के आदेशों और जनता के मानस के बीच गहरा विभाजन आया। 

नगा पीपल्स मूवमेंट बनाम भारत सरकार केस में सर्वोच्च न्यायालय में AFSPA की वैधता को चुनौती दी गई, लेकिन अदालत ने यह माना कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सेना को अतिरिक्त अधिकार देने का प्रावधान संविधान के खिलाफ नहीं। फिर भी, अदालत ने सेना के अधिकारों पर निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करने के उद्देश्य से दिशानिर्देश जारी किए। इस मामले में मानवाधिकार और सैन्य अधिकार की सीमा को लेकर बड़ी बहस छिड़ी। 

2023 में मणिपुर में जातीय हिंसा के दौरान सर्वोच्च न्यायालय से सेना/पैरामिलिट्री तैनात करने की मांग की गई थी। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे आदेश देना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। यह कार्यकार्यपालिका का दायित्व है। बावजूद इसके, कभी-कभी अदालत ने सुरक्षा बलों की तैनाती के निर्देश दिए हैं, जैसे 2008 के ओडिशा के दंगों या 2023 के पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों के दौरान हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों में भी कभी-कभी सेना और मानवाधिकार संस्थाओं के बीच टकराव सामने आते हैं। मगर वहीं बार-बार यह सुनिश्चित किया जाता है कि जनहित और राज्यहित के बीच संतुलन बना रहे। 

मणिपुर अथवा कश्मीर में जारी घटनाओं में, अदालत के आदेश, सेना के अधिकार और जनता का विश्वास—तीनों पहलू परस्पर टकरा सकते हैं। मगर, लोकतंत्र की खूबसूरती इनमें संतुलन बनाना और संवाद की प्रक्रिया में सही समाधान ढूंढना ही होना चाहिए। जरूरत इसी बात की है कि अतीत के अनुभवों से सीखकर, आज के तात्कालिक विवादों को अंधी भावनाओं के बजाय गहन विश्लेषण और खुले संवाद द्वारा हल किया जाए। संविधान की साझा जिम्मेदारी मानते हुए सुरक्षा और अधिकार दोनों के बीच संतुलन जरूरी है। संवाद के बिना, नफरत और अविश्वास बढ़ते हैं। सेना का आत्मसम्मान वही रख सकेगा, जो न्यायपालिका पर भरोसा रखे और न्यायपालिका वही सम्मान पाएगी जो सैनिक के त्याग को समझ सके। इसीलिए, सवाल पूछना गलत नहीं है लेकिन, एक दूसरे पर दोषारोपण करना लोकतंत्र के लिए रचनात्मक नहीं। 

Monday, November 17, 2025

क्यों नहीं रुकते आतंकी हमले ?

एक बार फिर आतंकवादी हमलों ने देश की राजधानी दिल्ली को दहला दिया। लाल क़िले के भीड़ भरे इलाक़े में ये जानलेवा विस्फोट उस साज़िश से कहीं कम थे जो पूरी दिल्ली को दहलाने के लिए रची गई थी। इन आतंकी हमलों के पीछे पढ़े लिखे ऐसे लोग शामिल हैं जिनसे ऐसी वैशियाना हरकत की उम्मीद नहीं की जा सकती। प्रश्न है कि जब देश की सुरक्षा एजेंसियां हर समय अपने पंजों पर रहती हैं उसके बावजूद भी देश की राजधानी जो कि सुरक्षा के लिहाज़ से काफ़ी मुस्तैद मानी जाती है, वहाँ पर इतनी भारी मात्रा विस्फोटक सामग्री लेकर एक आतंकी कैसे घूम रहा था? कैसे इन विस्फोटक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पहुंचा? हमारी रक्षा और गृह मंत्रालय की खुफिया एजेंसियां  क्या कर रही थी?

इन हमलों से सारा देश हतप्रभ है पहलगाम में हुई आतंकवादी वारदात के छह महीने बाद ही ये दूसरा बड़ा झटका लगा है। सवाल उठता है कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाए? हमारा देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है। ऐसे में सरकार अगर कोई ठोस कदम उठाती है, तो देश उसके साथ खड़ा होगा। उधर तो हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तैयारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। मैं पिछले 30 वर्षों से अपने लेखों में लिखता रहा हूं कि देश की खुफिया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है। प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें।



गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में हुए धमाके के बाद अपने बयान में यह साफ कहा कि आतंकियों को ऐसा सबक सिखाया जाएगा कि पूरी दुनिया देखेगी। उल्लेखनीय है कि कश्मीर के खतरनाक आतंकवादी संगठन ‘हिजबुल मुजाईदीन’ को दुबई और लंदन से आ रही अवैध आर्थिक मदद का खुलासा 1993 में मैंने ही अपनी विडियो समाचार पत्रिका ‘कालचक्र’ के 10वें अंक में किया था। इस घोटाले की खास बात यह थी कि आतंकवादियों को मदद देने वाले स्रोत देश के लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेताओं और बड़े अफसरों को भी यह अवैध धन मुहैया करा रहे थे। इसलिए सीबीआई ने इस कांड को दबा रखा था। घोटाला उजागर करने के बाद मैंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आतंकवादियों को आ रही आर्थिक मदद के इस कांड की जांच करवाने को कहा।



सर्वोच्च अदालत ने मेरी मांग का सम्मान किया और भारत के इतिहास में पहली बार अपनी निगरानी में इस कांड की जांच करवाई। बाद में यही कांड ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से मशहूर हुआ। जिसने भारत की राजनीति में भूचाल ला दिया। पर मेरी चिंता का विषय यह है कि इतना सब होने पर भी इस कांड की ईमानदारी से जांच आज तक नहीं हुई और यही कारण है कि आतंकवादियों को हवाला के जरिये, पैसा आना जारी रहा और आतंकवाद पनपता रहा।



उन दिनों हॉंगकॉंग से ‘फार ईस्र्टन इकोनोमिक रिव्यू’ के संवाददाता ने ‘हवाला कांड’ पर मेरा इंटरव्यू लेकर कश्मीर में तहकीकात की और फिर जो रिर्पोट छपी, उसका निचोड़ यह था कि आतंकवाद को पनपाए रखने में बहुत से प्रभावशाली लोगों के हित जुड़े हैं। उस पत्रकार ने तो यहां तक लिखा कि कश्मीर में आतंकवाद एक उद्योग की तरह है। जिसमें बहुतों को मुनाफा हो रहा है।


उसके दो वर्ष बाद जम्मू के राजभवन में मेरी वहाँ के तत्कालीन राज्यपाल गिरीश सक्सैना से चाय पर वार्ता हो रही थी। मैंने उनसे आतंकवाद के बारे में पूछा, तो उन्होंने अंग्रेजी में एक व्यग्यात्मक टिप्पणी की जिसका अर्थ था कि मुझे ‘घाटी के आतंकवादियों’ की चिंता नहीं है, मुझे ‘दिल्ली के आतंकवादियों’ से परेशानी है। अब इसके क्या मायने लगाए जाए?



आतंकवाद को रसद पहुंचाने का मुख्य जरिया है हवाला कारोबार। अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया। नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुइ। जबकि भारत में हवाला कारोबार बेरोकटोक जारी है। इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता। एक कदम संसद को उठाना है, ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सजा सुनाई जा सके। जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा।


ये चिंता का विषय है कि तमाम दावों और आश्वासनों के बावजूद पिछले चार दशक में कोई भी सरकार आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है। हर देश के नेता आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक हमला मानते रहे हैं और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद यही कहते रहे हैं कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। पर कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें दिखाई नहीं देता।


नए हालात में जरूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए। हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाय न हो। क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की जरूरत पड़ेगी। अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचारदृष्टि अपनी कार्यपद्धति पर नजर डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा है। इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है।

यदि विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व एकजुट होकर कुछ ठोस कदम उठाऐं, तो उम्मीद है कि हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें। देश इस समय गंभीर हालत से गुजर रहा है। मातम की इस घड़ी में रोने के बजाए सीमा सुरक्षा पर गिद्धदृष्टि और दोषियों को कड़ा जबाब देने की कार्यवाही की जानी चाहिए। पर ये भी याद रहे कि हम जो भी करें, वो दिलों में आग और दिमाग में बर्फ रखकर करें।