अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के बाद देश भर में धार्मिक पर्यटन में अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिली है। अनुमान है कि आने वाले वर्षों में यहाँ प्रतिवर्ष करोड़ों पर्यटक पहुंचेंगे। इसी तरह काशी विश्वनाथ कॉरिडोर ने बनारस की ऐतिहासिक गलियों को व्यवसायिक जीवन दिया है; होटल, रेस्टोरेंट, परिवहन और हस्तशिल्प उद्योगों को भी नई सांस मिली है। वृंदावन और मथुरा में हर त्योहार अब अंतरराष्ट्रीय आयोजन का रूप ले चुका है। आर्थिक दृष्टि से यह परिवर्तन शुभ संकेत है, रोजगार बढ़े हैं, स्थानीय व्यापार में तेजी आई है और बुनियादी ढाँचे पर निवेश भी हुआ है।
लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि इस तेज़ी ने धार्मिक नगरीय संतुलन को डगमगा दिया है। छोटे नगरों की सीमित सड़कों, आवासों और संसाधनों पर अचानक लाखों की भीड़ का दबाव प्रशासन के लिए बड़ा सिरदर्द बन गया है। पर्यावरणीय दबाव, कचरा प्रबंधन और जल संकट जैसी समस्याएँ अब इन नगरों के स्थायी साथी बन चुके हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत में भीड़ प्रबंधन का ढाँचा अभी भी विकासशील स्तर पर है। चाहे कुंभ मेले का आयोजन हो या अयोध्या में दीपोत्सव, प्रशासनिक तैयारियाँ अक्सर अनुमान से कम पड़ ही जाती हैं। पश्चिमी देशों जैसे इटली, फ्रांस या स्पेन में धार्मिक पर्यटन अत्यधिक संगठित ढंग से संचालित होता है। वेटिकन सिटी या लूर्ड जैसे स्थानों पर पर्यटकों की संख्या भले लाखों में हो, लेकिन वहाँ डिजिटल टिकटिंग, समय-वार प्रवेश प्रणाली, स्पष्ट दिशानिर्देश और प्रशिक्षित स्वयंसेवकों का जाल पूरी व्यवस्था को सुचारु बनाए रखता है। इन्हीं से प्रेरित हो कर हमारे देश में भी कुछ स्वघोषित गुरुओं के स्थानों पर भी व्यवस्था काफ़ी हद तक सुचारू दिखाई देती है।
वहीं इसके विपरीत भारत के धार्मिक नगरों में तीर्थयात्रियों का आगमन प्रायः अनियोजित होता है। ट्रेन, बस, सड़कों पर भीड़ एक साथ उमड़ती है जिससे जाम, दुर्घटनाएँ और अव्यवस्था आम हो जाती है। सुरक्षा बलों और प्रशासनिक कर्मचारियों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है, और अक्सर स्थानीय निवासियों का सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।
धार्मिक पर्यटन का यह उभार स्थानीय नागरिकों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। अयोध्या या वाराणसी की गलियों में रहने वाले निवासियों को अब अपने ही घरों तक पहुंचने में कठिनाई होती है। सड़कों पर निरंतर भीड़, बढ़ते वाहन और लगातार चल रहे निर्माण कार्यों ने जीवन-स्तर को प्रभावित किया है। किराए आसमान छू गए हैं, स्थानीय दुकानों की जगह बड़े ब्रांडों ने ले ली है और धार्मिक शांति की जगह अब व्यावसायिक कोलाहल ने ले ली है। धार्मिक नगरों का जो आत्मिक वातावरण कभी लोगों को भीतर तक आस्था से जोड़ता था, वह अब सजावटी प्रकाशों और सेल्फ़ी प्वाइंट्स में खोता जा रहा है। श्रद्धा के स्थलों का ‘पर्यटन स्थल’ में बदल जाना विकास के नाम पर एक सांस्कृतिक ह्रास भी है।
अयोध्या, वाराणसी या वृंदावन जैसे नगरों की आत्मा उनकी प्राचीनता, उनकी पवित्रता और उनके पारंपरिक जीवन में बसती है। लेकिन आज ये नगर तेजी से ‘आधुनिक तीर्थ’ में तब्दील किए जा रहे हैं। चौड़ी सड़कों, चमकीले कॉरिडोर, आधुनिक गेस्टहाउस और मॉल जैसी परियोजनाएं विकास के प्रतीक मानी जा रही हैं। निःसंदेह इनसे सुविधा बढ़ी है, लेकिन इसके साथ-साथ धार्मिक अनुभव का मूल स्वरूप भी धीरे-धीरे बदल गया है।
वह आध्यात्मिक संवेदना, वह साधु-संतों के भजनों की सुगंध और घाटों पर बहती शांति, ये सब अब पर्यटक आकर्षण के दृश्य में सिमट गए हैं। भवनों के रंग, पारंपरिक स्थापत्य और स्थानीय शिल्प को आधुनिक डिज़ाइन ने विस्थापित कर दिया है। यह भीड़ केंद्रित विकास कहीं न कहीं नगरों की ‘आस्था आधारित पहचान’ को बाज़ारीकरण में बदल रहा है।
धार्मिक पर्यटन का बढ़ना अपने आप में बुरा नहीं है। यह सांस्कृतिक एकता, लोक व्यवसाय और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए वरदान है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब तीर्थस्थलों का विकास केवल संरचनात्मक दृष्टि से किया जाए और उसमें सांस्कृतिक संरक्षण की भावना गायब हो। भारत को पश्चिमी देशों से यह सीखने की जरूरत है कि आध्यात्मिक धरोहर को आधुनिक सुविधाओं के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है।
इसके लिए तीन स्तरों पर ठोस पहल जरूरी है: स्मार्ट प्लानिंग: पर्यटन की पूर्वानुमानित योजना बनाई जाए। डिजिटल टिकटिंग, भीड़ नियंत्रण एप्स और समयबद्ध दर्शनों की व्यवस्था लागू की जाए। स्थानीय सहभागिता: नगर के विकास में स्थानीय निवासियों की राय और सहभागिता सुनिश्चित हो, ताकि विकास उनके जीवन को प्रभावित न करे। सांस्कृतिक संरक्षण: निर्माण कार्यों में पारंपरिक स्थापत्य, स्थानीय कला और जीवन शैली को प्राथमिकता दी जाए, ताकि नगर की आत्मा जीवित रहे।
भारतीय धार्मिक पर्यटन आज देश की अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक पहचान का नया प्रतीक बन गया है। अयोध्या, काशी, मथुरा, वृंदावन जैसे नगर आस्था की ऊर्जा से भरे हुए हैं, लेकिन उसी आस्था के संरक्षण की जिम्मेदारी भी उतनी ही व्यापक है। यदि हम केवल पर्यटक बढ़ाने पर ध्यान देंगे और तीर्थ के मूल भाव को नजरअंदाज करेंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ इन नगरों में केवल चमक देख पाएंगी, वह अनुभूति नहीं, जिसके लिए हमारे पूर्वज तीर्थ यात्रा करते थे। विकास का अर्थ केवल इमारतों का निर्माण नहीं, बल्कि उस भावना को सहेजना है जो हमें भीतर से जोड़ती है। अगर आधुनिकता और आध्यात्मिकता के बीच यह संतुलन साध लिया गया, तभी धार्मिक पर्यटन भारत की सांस्कृतिक आत्मा को मजबूत करेगा, न कि उसकी मूल पहचान को मिटाएगा।




