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Monday, December 15, 2025

खाद्य मिलावट का गहराता संकट! 

सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक चेतावनी दी जा रही है कि 15 साल में देश का हर व्यक्ति कैंसर का शिकार हो जाएगा…! वीडियो में यह दावा किया गया है कि मिलावटी खाने से पूरे समाज को धीरे-धीरे मार दिया जा रहा है। इसी तरह, एक और वीडियो में चीन के किसी लैब में फल-सब्ज़ियों पर रसायन और रंग छिड़कते हुए दिखाया गया है, जो तुरंत पक जाते हैं। ये वीडियो भय पैदा कर रहे हैं, लेकिन सवाल यह है: क्या ये सिर्फ अतिशयोक्ति हैं, या वास्तविकता का आईना? भारत में खाद्य मिलावट की समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ इसे ‘धीमी हत्या’ कह रहे हैं। कैंसर, हृदय रोग और किडनी फेलियर जैसी बीमारियों का बढ़ता ग्राफ इसी का नतीजा है। लेकिन हम कितने प्रभावित होंगे? समस्या कितनी गंभीर है? और सरकार को क्या कदम उठाने चाहिए?



खाद्य मिलावट कोई नई समस्या नहीं है। प्राचीन काल से ही व्यापारी लाभ के लिए अनाज में पत्थर, दूध में यूरिया और मसालों में कृत्रिम रंग मिलाते आए हैं। लेकिन 2025 में यह महामारी का रूप ले चुकी है। खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के अनुसार, त्योहारों के मौसम में मिलावट के मामले 30 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं। दूध, घी, पनीर, मावा, तेल और मसाले – ये रोज़मर्रा के सामान अब ज़हर की तरह बन चुके हैं। हाल ही में गुजरात में 198 दूध और पनीर के नमूने असुरक्षित पाए गए, जिनमें स्टार्च और सिंथेटिक फैट मिले थे। आगरा में 2 क्विंटल मिलावटी खोआ नष्ट किया गया, जबकि सूरत के पास 745 किलो नकली पनीर जब्त हुआ। तिरुपति के प्रसिद्ध लड्डू के घी मिलावट कांड में सीबीआई ने 12 लोगों को गिरफ्तार किया, जहां वनस्पति तेल, बीटा कैरोटीन और एसिड एस्टर जैसे रसायनों से घी बनाया जा रहा था। पतंजलि का घी भी गुणवत्ता परीक्षण में फेल हो गया, जिसमें मिलावट की पुष्टि हुई। 



ये मामले सिर्फ़ तो सिर्फ़ संकेत हैं। जम्मू-कश्मीर में 2025 में 13,944 निरीक्षण हुए, जिनमें 21 आपराधिक मामले दर्ज किए गए। लखनऊ में केएफसी, मैकडॉनल्ड्स और हल्दीराम जैसे ब्रांडों के 36 नमूने फेल हुए, जहां बैक्टीरिया और बासी सामग्री मिली। सोशल मीडिया पर हाल के पोस्ट्स में गोरखपुर की फैक्ट्री से 40 क्विंटल नकली पनीर (पोस्टर कलर, डिटर्जेंट और सल्फ्यूरिक एसिड से बना) जब्त होने की बात है, जो सड़क किनारे के ठेलों पर बिकता था। पाली में 4660 किलो मिलावटी मावा, देवली में मूंगफली तेल के नमूने – ये उदाहरण बताते हैं कि मिलावट अब छोटे-बड़े सभी स्तरों पर फैल चुकी है। 



अब सवाल है कि हम कितने प्रभावित होंगे? मिलावट का असर तत्काल और दीर्घकालिक दोनों है। तत्काल प्रभाव में उल्टी, दस्त, फूड पॉइज़निंग शामिल हैं, जैसा कि हाल के कफ सिरप कांड में 14 बच्चों की मौत हुई। लेकिन दीर्घकालिक खतरा और भी भयानक है। कैडमियम, पेस्टीसाइड्स और मेटानिल येलो जैसे रसायन कैंसर, लीवर-किडनी डैमेज और हृदय रोग का कारण बनते हैं।  यूरोपीय संघ ने 2019-2024 के बीच 400 से ज़्यादा भारतीय उत्पादों को कैंसरकारी पदार्थों से दूषित पाया, जिनमें मसाले, मछली और फल शामिल थे। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के अनुसार, मिलावट से जुड़े गैर-संक्रामक रोगों में 20 प्रतिशत वृद्धि हुई है। दक्षिण भारत में दूध और फलों में मिले रसायन गॉलब्लैडर कैंसर और ड्रॉप्सी के मामलों को बढ़ा रहे हैं। बैकरी आइटम्स में कृत्रिम रंगों से कैंसर का जोखिम दोगुना हो गया है। 


वायरल पोस्ट में दावा किया गया कि 15 साल में सबको कैंसर होगा – यह अतिशयोक्ति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कभी ऐसा नहीं कहा कि 87 प्रतिशत भारतीयों को मिलावटी दूध से कैंसर होगा। लेकिन समस्या गंभीर है। फ्रंटलाइन पत्रिका के अनुसार, मिलावट से क्रॉनिक डिज़ीज़ेज़ में उछाल आया है, खासकर कैंसर और कार्डियोवस्कुलर डिसऑर्डर में।  भारत पहले से ही एशिया में कैंसर के मामलों में तीसरा सबसे बड़ा देश है, और मिलावट इसे और बढ़ावा दे रही है। ग्रामीण इलाकों में जहां जैविक खेती कम है, प्रभाव ज़्यादा पड़ता है। शहरीकरण और प्रोसेस्ड फूड के बढ़ते उपयोग से मध्यम वर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहा है।


चीन वाले वीडियो पर बात करें तो वह एआई-जनरेटेड फेक है। टिकटॉक पर मूल वीडियो को एआई कंटेंट के रूप में चिह्नित किया गया था और फैक्ट-चेकर्स ने असंगतताओं (जैसे अस्वाभाविक रंग परिवर्तन) की पुष्टि की। लेकिन यह वीडियो वास्तविक समस्या को उजागर करता है। चीन में अंगूरों पर 24 बार पेस्टीसाइड स्प्रे और चेरीज़ से आईसीयू के मामले सामने आए हैं। वैश्विक व्यापार में भारतीय निर्यात भी प्रभावित हो रहा है। लेकिन घरेलू स्तर पर समस्या ज़्यादा चिंताजनक है, जहां नियमन कमज़ोर है।


उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मिलावट को ‘सामाजिक अपराध’ कहा और तीन नई माइक्रोबायोलॉजी लैब्स शुरू कीं।  एफएसएसएआई ने त्योहारों पर विशेष अभियान चलाए, लेकिन सज़ाएं कमज़ोर हैं। रामेश्वरम कैफे मामले में कीड़े मिलने पर एफआईआर दर्ज हुई, लेकिन मालिकों को सज़ा मिलना मुश्किल।  हज़ारीबाग में डेयरी सील हुई, लेकिन दोबारा खुलने का डर रहता है।  समस्या यह है कि दंड अपर्याप्त हैं – अधिकतम 10 लाख का जुर्माना या 7 साल की सज़ा, लेकिन लागू नहीं होता। लैब्स की कमी से टेस्टिंग देरी से होती है।


ऐसे में सरकार को क्या करना चाहिए? सबसे पहले, सख्त कानून: मिलावट पर न्यूनतम 20 साल की सज़ा और संपत्ति जब्ती। एफएसएसएआई को स्वायत्त बनाएं, न कि स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन। हर जिले में मोबाइल टेस्टिंग वैन और एआई-आधारित निगरानी शुरू करें। जैविक खेती को सब्सिडी दें – गोबर से उर्वरक बनाने पर प्रोत्साहन।  जन जागरूकता अभियान चलाएं: स्कूलों में मिलावट की पहचान सिखाएं। आयातित फलों पर सख्त जांच। और सबसे ज़रूरी, भ्रष्टाचार पर प्रहार – निरीक्षक जो रिश्वत लेते हैं, उन्हें बर्खास्त करें।


वायरल पोस्ट्स भय पैदा करते हैं, लेकिन वे सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। मिलावट सिर्फ़ व्यापारिक लालच नहीं, बल्कि जन स्वास्थ्य पर हमला है। अगर 15 साल में कैंसर न फैले, तो इसके लिए सरकार, उद्योग और उपभोक्ता सबको जागना होगा। घर पर टेस्ट किट्स इस्तेमाल करें, ब्रांडेड उत्पाद चुनें और शिकायत दर्ज कराएं। अन्यथा, हमारा भोजन ही हमारी कब्र बन जाएगा। समय आ गया है – मिलावट रोकें, जीवन बचाएं! 

Monday, September 2, 2024

जंक फ़ूड खाने के ख़तरे


देश में उपलब्ध खाद्य पदार्थों में मिलावट और उनकी लगातार गिरती गुणवत्ता के कारण जागरूक और जानकार लोगों द्वारा अपने और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। कई सामाजिक संगठन आधुनिक खाद्य पदार्थों के देश में बढ़ते दुष्प्रभाव को लेकर जागृति पैदा करने में जुटे हैं। बर्गर हो या पिजा का बेस, सैंडविच हो या पावभाजी सबमें मैदा की डबल रोटी के ही विभिन्न रूपों का इस्तेमाल होता है। सारे फसाद की जड़ यह डबल रोटी ही है। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिणी आस्ट्रेलिया की सरकार ने बर्गर व पिजा जैसे आधुनिक खान-पान के विज्ञापनों के टेलीविजन पर प्रसारण पर रोक लगा दी थी। ग़ौरतलब है कि शीतल पेय और वो सारे आधुनिक व्यंजन जिनमें वसा, चीनी और नमक की मात्रा ज्यादा होती है बच्चों के लिए हानिकारक है। उनकी सरकार यह सुनिश्चित किया कि वहां के स्कूलों की कैंटीनों में बच्चों को केवल स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ ही मिलें।



भारत का शायद ही कोई शहर होगा जहां आम आदमी की सुबह डबलरोटी के साथ शुरू न होती हो। भारत में जैसे चाय की लत डालकर करोड़ों रूपए के मुनाफे कमाए जा रहे हैं लोगों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है वैसे ही डबलरोटी को सुविधाजनक बता कर आज हर घर में जबरन घुसा दिया गया है। जाने-अनजाने सब उसकी आदत के गुलाम बन गए हैं। खासकर शहरवासियों को बनी बनई रोटी यानी डबलरोटी से काफी लगाव है। डबलरोटी बनाने के लिए बारीक आटा या मैदे का इस्तेमाल किया जाता है। इसे बनाने की प्रक्रिया के दौरान आटे अथवा मैदे में उपस्थित सभी विटामिन और खनिज पदार्थ नष्ट हो जाते है। डबलरोटी स्वाद में तो अच्छी लगती है लेकिन रेशे रहित होने के कारण दांतों के लिए अत्यंत नुकसान देह है। यही नहीं यह हमारी पाचन प्रणाली के लिए भी हानिकारक है।



गेहूं के साबुत दाने में कार्बोहाईड्रेट्स के अलावा विटामिन और खनिज पदार्थ भी होते हैं। गेहूं विटामिन मध्यभाग के बाहरी हिस्से में पाया जाता है। मैदा बनाने की प्रक्रिया में कुछ कार्बोहाईड्रेट्स तो बच जाते हैं लेकिन विटामिन पूर्ण रूप से खत्म हो जाते है। इसी प्रकार गेहूं के दाने के बाहरी हिस्से में जिंक और अंदरूनी हिस्से में कौडमियम नामक तत्व पाए जाते हैं। मैदा बनाने के कारण जिंक नष्ट हो जाता है और कौडियम रह जाता है। इस तरह जितने भी जरूरी और लाभदायक तत्व हैं वह नष्ट हो जाते है और दूषित तत्व रह जाते हैं आपकी चहेती ब्रेड के लिए।



क्या कभी सोचा कि डबलरोटी ज्यादा समय तक क्यों रह पाती है? क्योंकि इसमें लगे आटे में पौष्टिक तेल तक नष्ट हो जाता है। यही नहीं इसमें किसी प्रकार के रेशे भी नहीं बचते। जिसका शरीर को नुकसान उठाना पड़ता है। बिना रेशे के खाद्य पदार्थ दांतों में चिपक जाते है। जिससे दांत सड़ सकते हैं। रेशे रहित भोजन कब्ज का भी कारण बनता है। आप अपने इलाके में एक सर्वेक्षण कर लें, तो पाएंगे कि ज्यादातर उन लोगों को ही कब्ज होता है, जो डबलरोटी खाते हैं। उन्हें नहीं जो ताजी रोटी खाते हैं। लेकिन चीनी, टेलीविजन और केबिल टीवी की तरह डबलरोटी भी आधुनिक सभ्यता की पहचान बन गई है। मार्डन मम्मियां समझती हैं कि बच्चों को ब्रेकफास्ट में टोस्ट, लंच में सैंडविच और डिनर में बर्गर देकर उन्होंने बच्चों का दिल जीत लिया है। वह नहीं जानतीं कि यह डबलरोटी उनके बच्चों की सेहत की कितनी बड़ी दुश्मन है?



कभी गेहूं का आटा गूंथिए और उसमें से अपनी उंगलियों को निकाल कर साफ कीजिए। वहीं दूसरी तरफ़ मैदा आपकी उंगलियों पर इस तरह चिपक जाती है कि पानी से कई बार रगड़ने पर ही छूटती है। इसी तरह डबलरोटी की मैदा आपके और आपके बच्चों की आतों की अंदरूनी कोमल झिल्ली पर चिपक जाती है। उसकी स्वाभाविक क्रियाओं को रोक देती है। आसानी से बाहर नहीं निकलती। नया भोजन खा लेने से आतों में पहले से पड़ी मैदा और चिपक जाती है। आगे चलकर बड़ी-बड़ी बीमारियों का कारण बनती है।


जिस तकनीक से डबलरोटी का निर्माण किया जाता है वह उसकी पौष्टिकता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देती है। जबसे यह तथ्य साबित हुआ तभी से ही पश्चिमी देशों ने डबलरोटी बनाने के आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिलाने शुरू कर दिए है। उन देशों में जो डबलरोटी मिलती है उसमें काफी विटामिन ऊपर से मिलाए गए होते हैं। आज के पढ़े-लिखे लोगों की मूर्खता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि पहले तो गेहूं के आटे में से सभी महत्वपूर्ण पोष्टिक तत्व नष्ट कर देते है। फिर बाद मे उसी आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिला कर उसे डबलरोटी की सूरत में इस्तेमाल करते हैं। वह भी ताजी नहीं बासी।


भारतीयों को इस बात से सबक सीखना चाहिए। अकलमंदी गलती करते जाने में नहीं, समय रहते उसे सुधारने में है। युनाइटेड नेशन्स विश्वविद्यालय ने अपनी एक खोज से यह नतीजा निकाला है कि यदि सही मायनों में गेहूं व आटे का फायदा उठाना है तो पूरी दुनिया को भारतीयों से रोटी बनाने का तरीका सीखना होगा। हम भारतीय है जो अपनी ताकतवर रोटी भूलकर सुबह, दोपहर व शाम डबलरोटी के पीछे दीवाने है। योगासन सदियों भारत में धक्के खाता रहा और जब अमरीका और दूसरे विकसित देशों ने योग सीखकर अपनी सेहत और पैसे बनाना शुरू किया तो भारत में भी योग सीखने व सिखाने वालों की लाइन लग गई। क्या रोटी के मामले में भी हम यही करने वाले हैं?


पश्चिम के एक वैज्ञानिक रूडोल्फबैलन टाइम लिखते हैंः गेहूं के आटे में उपस्थित तरल तत्व के कारण आटा ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता। इसलिए रोटी खाने वालों को बार-बार आटे की चक्की की तरफ जाना पड़ता है। क्योंकि गेहूं को तो सालों तक रखा जा सकता है। इसलिए चक्की वाले भी एक समय में ज्यादा गेहूं न पीस कर थेड़े-थोड़े करके पीसते हैं। इससे आटे की ताजगी और पौष्टिकता दोनों बनी रहती है। मामला बिल्कुल साफ है। गेहूं रखना, आटा पिसवाना और ताजा रोटी बनाकर खाना, इससे ज्यादा फायदे की बात कोई हो नहीं सकती। पर हम सीधे और सरल रास्तों को न अपना कर आधुनिकता के पीछे भागते हैं और आधुनिकता को ही अपनाना चाहते हैं। फिर चाहे यह हमारे लिए नुकसानदायक ही क्यों न हो। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो पिछड़े हुए माने जाएंगे। बात केवल आधुनिक बनने की नहीं है, बात उन बेरोजगार दंत चिकित्सकों को रोजगार दिलवाने की भी है जो हजारों की तादाद में हर साल दंत चिकित्सा में डाक्टरी पास करके आते हैं। अगर हम डबलरोटी नहीं खाएंगे तो दांत सड़ेंगे ही नहीं और अगर दांत नहीं सड़ेंगे तो भला दंत चिकित्सक भूखे नहीं मर जाएंगे? इस तरह अपनी आंतों और अपने दांतों का नुकसान करके हम बनाने वालों को, डाक्टरों को, अस्पतालों को और दवा कंपनियों को अपनी मेहनत का पैसा बांटना चाहते हैं तो हमें कौन रोक सकता है?