Monday, November 25, 2024

उड़ता भारत


कुछ वर्ष पहले एक फ़िल्म आई थी ‘उड़ता पंजाब’, जिसमें दिखाया गया था कि प्रदेश सरकार की लापरवाही से पंजाब के घर-घर में मादक दवाओं का प्रयोग फैल गया है। जिसके चलते पंजाब कि पूरी युवा पीढ़ी तबाह हो रही है। जिनमें हर वर्ग के युवा शामिल हैं। ग़रीब-अमीर का कोई भेद नहीं। उस वक्त पंजाब में अकाली दल की सरकार थी, तो आम आदमी पार्टी ने सरकार को इस तबाही के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर अपना चुनाव अभियान चलाया। इधर पिछले दस वर्षों से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है, पर क्या ये सरकार दावे से कह सकती है कि दिल्ली में मादक पदार्थों की बिक्री सारे आम नहीं हो रही? कुछ महीने पहले हरियाणा के सोनीपत में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी स्थानीय डिग्री कॉलेज के छात्रों को नशीली दवाओं के सेवन के विरुद्ध भाषण दे रहे थे। तभी एक छात्र ने उनसे पूछा कि हमारे कॉलेज के बाहर पान की दुकान पर नशीली दवाएँ रात-दिन बिकती हैं तो आपकी पुलिस क्या कर रही है? जब हर युवा को पता है कि उनके शहर में कहाँ-कहाँ नशीली दवाएँ बिकती हैं तो आपका पुलिस विभाग इतना नकारा कैसे है कि वो इन बेचनेवालों को पकड़ नहीं पाता। पुलिस अधिकारी निरुत्तर हो गये।



मेरे एक पत्रकार मित्र ने 1996 में मुझे बताया था कि देश के एक प्रतिष्ठित औद्योगिक घराने के मुखिया के विरुद्ध मादक दवाएँ अवैध रूप से उत्पादन करने और अफ़ग़ानिस्तान भेजने के आरोप पर उनकी जनहित याचिका सारे सबूतों के बावजूद दो दशकों से ठंडे बस्ते में पड़ी है। क्योंकि उस घराने के गहरे संबंध हर प्रमुख दल के बड़े नेताओं से हैं। सबको इस कांड का पता भी है। पर कोई कुछ नहीं करता।


उधर पिछले कुछ वर्षों से गुजरात के एक पोर्ट से बार-बार भारी मात्रा में नशीली दवाएँ पकड़ी जा रही हैं। पर इसके पीछे कौन है वो सामने नहीं आ रहा।आए दिन देश में ऐसी अनेकों खबरें आती रहती हैं कि करोड़ों के मूल्य के नशीले पदार्थ पकड़े जाते हैं। इन पकड़ी गई ड्रग्स की मात्रा इतनी ज़्यादा होती है कि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ये ड्रग्स देश भर में वितरण के लिये ही आई हैं। पर ये कारोबार बिना रोक टोक जारी है। जबकि सिंगापुर में ड्रग्स के विरुद्ध इतना सख़्त क़ानून है कि वहाँ ड्रग्स को छूने से भी ये लोग डरते हैं। क्योंकि पकड़े जाने पर सज़ा-ए-मौत मिलती है, बचने का कोई रास्ता नहीं। 



गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, भोपाल, अमृतसर और चेन्नई, यूपी के हापुड़ और गुजरात के अंकलेश्वर तक ड्रग्स तस्करों का नेटवर्क का भांडाफोड़ हुआ है. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 13 दिनों में 13,000 करोड़ रुपये कीमत की कोकीन और 40 किलो हाइड्रोपोनिक थाईलैंड मारिजुआना जब्त की। इतना ही नहीं 2004 से 2014 के बीच जब्त की गई ड्रग्स का मूल्य 5,900 करोड़ रुपए था, जबकि 2014 से 2024 के बीच जब्त की गई ड्रग्स का मूल्य 22,000 करोड़ रुपये है।



दूसरी तरफ़ दुनियाँ भर में दादागिरी दिखाने वाला अमरीका जो ख़ुद को बहुत ताकतवर मानता है वहाँ ड्रग्स का खूब प्रचलन है। ज़ाहिर है ड्रग माफिया की पकड़ बहुत ऊँची है। यही हाल दुनियाँ के तमाम दूसरे देशों का है जहां इस कार्टल के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों को दबा दिया जाता है या ख़त्म कर दिया जाता है। चाहे वो व्यक्ति न्यायपालिका या सरकार के बड़े पद पर ही क्यों न हो।


सब जानते हैं कि इन नशीली दवाओं के सेवन से लाखों घर तबाह हो जाते है। औरतें विधवा और बच्चे अनाथ हो जाते हैं। बड़े-बड़े घर के चिराग़ बुझ जाते हैं। पर कोई सरकार चाहें केंद्र की हो या प्रांतों की इसके ख़िलाफ़ कोई  ठोस और प्रभावी कदम नहीं उठाती। 


सनातन धर्म का बड़े तीर्थ श्री जगन्नाथ पुरी हो या पश्चिमी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र गोवा, हिमाचल प्रदेश के पर्यटक स्थल कुल्लू, मनाली हो या धर्मशाला, भोलेनाथ की नगरी काशी हो या केरल का प्रसिद्ध समुद्र तटीय नगर त्रिवेंद्रम, राजधानी दिल्ली का पहाड़गंज इलाक़ा हो या मुंबई के फार्म हाउसों में होने वाली रेव पार्टियाँ, हर ओर मादक दवाओं का प्रचलन खुले आम हो रहा है। आज से नहीं दशकों से। हर आम और ख़ास को पता है कि ये दवाएँ कहाँ बिकती हैं, तो क्या स्थानीय पुलिस और नेताओं को नहीं पता होगा। फिर ये सब कारोबार कैसे चल रहा है? जिसमें करोड़ों रुपये के वारे न्यारे होते हैं। 


नशीली दवाओं में प्रमुख हैं: अफ़ीम, पोस्त और इनसे बनने वाली मॉर्फिन, कोडीन, हेरोइन या सिंथेटिक विकल्प मेपरिडीन, मेथाडोन। इनकी भारी लोकप्रियता का कारण है कि इनके सेवन से भय, तनाव और चिंता से मुक्ति मिलती है। सदा असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहने वाले कलाकार और फ़िल्मी सितारों में ये इसीलिए जल्दी पैठ बना लेती हैं। इनमें से कुछ उत्पाद मेडिकल साइंस में भी चिकित्सा के लिये उपयोग किए जाते हैं। जैसे दर्द निवारक दवा बनाने के लिए। पर इस छूट का ग़लत फ़ायदा उठाकर प्रायः दवा कंपनियाँ नशीली दवाओं के नेटवर्क का हिस्सा बन जाती हैं और अरबों रुपया कमाती हैं। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इस व्यापार को करने वाले न सिर्फ़ क़ानून का उल्लंघन कर रहे हैं बल्कि एक सामाजिक और नैतिक संकट को भी जन्म दे रहे हैं। ऐसे में यदि सरकार और संबंधित एजेंसियाँ सख़्ती नहीं दिखाएँगी तो ऐसे अपराध और अपराधी बढ़ते ही जाएँगे। 


ये सब बंद हो सकता है अगर केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें अपने क़ानून कड़े बनायें और उन्हें सख्ती से लागू करें। अगर हर ज़िले के पुलिस अधीक्षक को ये आदेश मिले कि उसके ज़िले में ड्रग्स की बिक्री होती पायी गयी तो उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया जाएगा।फिर देखिए कैसे नशीली दवाओं का व्यापार बंद होता है। पर देश के जनता के हित में  ऐसा सोचने वाले नेता हैं ही कहाँ? अगर होते तो तपोभूमि भारत उड़ता भारत कैसे बनती ?  

Monday, November 18, 2024

रोज़गारपरक शिक्षा कैसे हो?


आय दिन अख़बारों में पढ़ने में आता है जिसमें देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक व एमबीए जैसी डिग्री धारकों की दुर्दशा का वर्णन किया जाता है। ऐसी हृदय विदारक खबर पर बहुत विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं भी आती हैं। सवाल है कि जो डिग्री नौकरी न दिला सके, उस डिग्री को बांटकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के तमाम ऐसे मशहूर नाम हैं, जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं की। पर पूरी दुनिया में यश और धन कमाने में झंडे गाढ़ दिए। जैसे स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कालेज पढ़ने नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हिनेरी फोर्ड के पास मैनेजमेंट की कोई डिग्री नहीं थी। जॉन डी रॉकफेलर केवल स्कूल तक पढ़े थे और विश्व के तेल कारोबार के सबसे बड़े उद्यमी बन गए। मार्क टुइन और शेक्सपीयर जैसे लेखक बिना कालेज की शिक्षा के विश्वविख्यात लेखक बने।



पिछले 25 वर्षों में सरकार की उदार नीति के कारण देशभर में तकनीकि शिक्षा व उच्च शिक्षा देने के लाखों संस्थान छोटे-छोटे कस्बों तक में कुकरमुत्ते की तरह उग आए। जिनकी स्थापना करने वालों में या तो बिल्डर्स थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपने काले धन को इन संस्थानों की स्थापना में निवेश कर दिया। एक से एक भव्य भवन बन गए। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किए गए। पर न तो इन संस्थानों के पास योग्य शिक्षक उपलब्ध थे, न इनके पुस्तकालयों में ग्रंथ थे, न प्रयोगशालाएं साधन संपन्न थीं, मगर दावे ऐसे किए गए मानो गांवों में आईआईटी खुल गया हो। नतीजतन, भोले-भाले आम लोगों ने अपने बच्चों के दबाव में आकर उन्हें महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। लाखों रूपया इन पर खर्च किया। इनकी डिग्रियां हासिल करवाई। खुद बर्बाद हो गए, मगर संस्थानों के मालिकों ने ऐसी नाकारा डिग्रियां देकर करोड़ों रूपए के वारे न्यारे कर लिए।



दूसरी तरफ इस देश के नौजवान मैकेनिकों के यहां, बिना किसी सर्टिफिकेट की इच्छा के, केवल हाथ का काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि लकड़ी का अवैध खोखा सड़क के किनारे रखकर भी आराम से जिंदगी चला लेते हैं। हमारे युवाओं की इस मेधा शक्ति को पहचानकर आगे बढ़ाने की कोई नीति आजतक क्यों नहीं बनाई गई ? आईटीआई जैसी संस्थाएं बनाई भी गईं, तो उनमें से अपवादों को छोड़कर शेष बेरोजगारों के उत्पादन का कारखाना ही बनीं। क्योंकि वहां भी व्यवहारिक ज्ञान की बहुत कमी रही। इस व्यवहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए जो व्यवस्थाएं चाहिए, वे इतनी कम खर्चे की हैं कि सही नेतृत्व के प्रयास से कुछ ही समय में देश में शिक्षा की क्रांति कर सकती हैं। जबकि अरबों रूपए का आधारभूत ढांचा खड़ा करने के बाद जो शिक्षण संस्थान बनाए गए हैं, वे नौजवानों को न तो हुनर सिखा पाते हैं और न ज्ञान ही दे पाते हैं। बेचारा नौजवान न घर का रहता है, न घाट का।


कभी-कभी बहुत साधारण बातें बहुत काम की होती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। पर हमारे हुक्मरानों और नीति निर्धारकों को ऐसी छोटी बातें आसानी से पचती नहीं। एक किसान याद आता है, जो बांदा जिले से पिछले 20 वर्षों से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में सिर पटक रहा है। पर किसी ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया। जबकि उसने कुएं से पानी खींचने का एक ऐसा पंप विकसित किया है, जिसे बिना बिजली के चलाया जा सकता है और उसे कस्बे के लुहारों से बनवाया जा सकता है। ऐसे लाखों उदाहरण पूरे भारत में बिखरे पड़े हैं, जिनकी मेधा का अगर सही उपयोग हो, तो वे न सिर्फ अपने गांव का कल्याण कर सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान उपलब्ध करा सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं होगी। इसे तो गांव के नीम के पेड़ की छांव में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षा में सुधार के नाम पर आयोगों के सदस्य बनने वाले और आधुनिक शिक्षा को समझने के लिए बहाना बना-बनाकर विदेश यात्राएं करने वाले हमारे अधिकारी और नीति निर्धारक इस बात का महत्व कभी भी समझने को तैयार नहीं होंगे, यही इस देश का दुर्भाग्य है। 


प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं के दौरान इस बात को पकड़ा था। पर ‘मेक इन इंडिया’ की जगह अगर वे ‘मेड बाई इंडिया’ का नारा देते, तो इस विचार को बल मिलता। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से जो विदेशी विनियोग आने की हम आस लगा रहे हैं, वे अगर आ भी गया, तो चंद शहरों में केंद्रित होकर रख जाएगा। उससे खड़े होने वाले बड़े कारखाने भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करके मुट्ठीभर लोगों को रोजगार देंगे और कंटेनरों में भरकर मुनाफा अपने देश ले जाएंगे। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को भी सुख, सम्मान व अभावमुक्त जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब ये फैसला तो प्रधानमंत्री जी और देश के नीति निर्धारकों को करना है कि वे औद्योगिकरण के नाम पर प्रदूषणयुक्त, झुग्गी झोपड़ियों वाला भारत बनाना चाहते हैं या ‘मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला भारत। 

Monday, November 11, 2024

कैसे बने देश अपराध मुक्त ?


चुनाव संपन्न होने के बाद हर दल जो सरकार बनाता है या विपक्ष में होता है जनता के हित में किये गये चुनावी वादों को साकार करने की बात पर ज़ोर देता है। हाल ही में संपन्न हुए कुछ विधान सभा चुनावों और इससे पहले हुए लोकसभा 
के नतीजों से इस बात का स्पष्ट संकेत मिला है कि जनता नारों में बहकने वाली नहीं, उसे जिम्मेदार सरकार चाहिए। पिछले 75 वर्षों में हज़ारों अधिकारी जनता के पैसे पर अनेक प्रशिक्षण, अध्ययन व आदान-प्रदान कार्यक्रमों में दुनिया भर के देशों में जाते रहे हैं। पर वहाँ से क्या सीख कर आये, इसका देशवासियों को कुछ पता नहीं लगता। मुझे याद है 2009 में एक हवाई यात्रा के दौरान गुजरात के एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी से मुलाकात हुई तो उसने बताया कि वह छः हफ्ते के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद विदेश से लौटा है। प्रशिक्षण के बाद उसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के सामने यह बताना है कि इन छः हफ्तों में उसने जो कुछ सीखा, उसका लाभ उसके राज्य को कैसे मिल सकता है। मेरे लिये ये यह एक रोचक किन्तु प्रभावशाली सूचना थी। जिसका उल्लेख मैंने तब भी इस कॉलम में किया था। 



हम भारतीयों की एक आदत है कि हम विदेश की हर चीज की तारीफ करते हैं। वहाँ सड़के अच्छी हैं। वहाँ बिजली कभी नहीं जाती। सफाई बहुत है। आम जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। सरकारी दफ्तरों में काम बड़े कायदे से होता है। आम आदमी की भी सुनी जाती है, वगैरह-वगैरह। मैं भी अक्सर विदेश दौरों पर जाता रहता हूँ। मुझे भी हमेशा यही लगता है कि हमारे देशवासी कितने सहनशील हैं जो इतनी अव्यवस्थाओं के बीच भी अपनी जिन्दगी की गाड़ी खींच लेते हैं। पर मुझे पश्चिमी जगत की चमक-दमक प्रभावित नहीं करती। बल्कि उनकी फिजूल खर्ची देखकर चिंता होती है। पिछले हफ्ते जब मैं सिंगापुर गया तो जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित की, वह थी, इस देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति। वहाँ की आबादी में चीनी, मलय व तमिल मूल के ज्यादा नागरिक हैं। जिनसे कोई बहुत अनुशासित और परिपक्व आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। पर आश्चर्य की बात है कि सिंगापुर की सरकार ने  कानून का पालन इतनी सख्ती से किया है कि वहाँ न तो कभी जेब कटती है, न किसी महिला से कभी छेड़खानी होती है, न कोई चोरी होती है और न ही मार-पिटाई। बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि सिंगापुर में अपराध का ग्राफ शून्य के निकट है। एक आम टैक्सी वाला भी बात-बात में अपने देश के सख्त कानूनों का उल्लेख करना नहीं भूलता। वह आपको लगातार यह एहसास दिलाता है कि अगर आपने कानून तोड़ा तो आपकी खैर नहीं।



हमें लग सकता है कि कानून का पालन आम आदमी के लिए होता होगा, हुक्मरानों के लिए नहीं। पर आश्चर्य की बात ये है कि बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी कानून का उल्लंघन करके बच नहीं सकता। 1981-82 में सिंगापुर  के एक मंत्री तेह चींग वेन पर आठ लाख डॉलर की रिश्वत लेने का आरोप लगा। नवम्बर 1986 में सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने उसके विरूद्ध एक खुली जाँच करने सम्बन्धी आदेश पारित कर दिया। हालाँकि एटोर्नी जनरल को संबंधित कागजात 11 दिसम्बर को जारी किये गये। परन्तु फिर भी वह अपने आप को निर्दोष बताता रहा तथा 14 दिसम्बर को ही अपने बचाव हेतु पक्ष रखने से पूर्व उसने आत्महत्या कर ली।


आश्चर्य की बात ये है कि तेह चींग वेन सिंगापुर को विकसित करने के लिए जिम्मेदार और उसके 40 वर्ष तक प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति रहे, ली क्वान यू का सबसे ज्यादा चहेता था। दोनों में गहरी मित्रता थी। यदि ली चाहते तो उसे पहली गलती पर माफ कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। तेह चींग वेन अपने प्रधानमंत्री को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या के नोट में लिखा, मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रहा हूँ तथा पिछले दो सप्ताह से तनाव में हूँ। मैं इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए अपने आप को जिम्मेदार मानता हूँ तथा मुझे लगता है कि इसकी सारी जिम्मेदारी मुझे ले लेनी चाहिए। एक सम्माननीय एवं जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे लगता है कि अपनी गलती के लिए मुझे बड़ी से बड़ी सजा मिलनी चाहिए।’’


उसके इस कदम से सिंगापुर वासियों का दिल पिघल गया। उन्हें लगा कि अब तो ली उसे माफ कर देंगे और उसके जनाजे में शिरकत करेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। लोगों को आश्चर्य हुआ कि अपने इतने प्रिय मित्र और लम्बे समय से सहयोगी के द्वारा प्रायश्चित के रूप में इतना कठोर कदम उठाने के बाद भी ली उसके जनाजे में शामिल क्यों नहीं हुए? इसका उत्तर कुछ दिन बाद ली ने यह कहकर दिया कि मैं अगर तेह चींग वेन के जनाजे में जाता तो इसका अर्थ होता कि मैंने उसकी गलती माफ कर दी। न जाकर मैं यह सन्देश देना चाहता हूँ कि जिस व्यवस्था को खड़ा करने में हमने 40 साल लगाये, वो एक व्यक्ति की कमजोरी से धराशायी हो सकती है। हम गैरकानूनी आचरण और भ्रष्टाचार के एक भी अपराध को माफ करने को तैयार नहीं है। ऐसा इसी सदी में, एशिया में ही हो रहा है, तो भारत में हमारे हुक्मरान अपने अफ़सरों और मंत्रियों पर ऐसे मानदण्ड क्यों नहीं स्थापित कर सकते?


बातें सब बड़ी-बड़ी करते हैं। पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश के 58 फीसदी लोग मानते हैं कि आजतक हमारे हुक्मरान बेहद भ्रष्ट रहे हैं। हर दल भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वायदा करके सत्ता में आता है और सत्ता में आने के बाद अपने असहाय होने का रोना रोता है। इस देश का आम आदमी जानता है कि कानून सिर्फ उस पर लागू होता है। हुक्मरानों और उनके साहबजादों पर नहीं। सी.बी.आई. और सी.वी.सी. इस बात के गवाह हैं कि ताकतवर लोगों की रक्षा में इस लोकतंत्र का हर स्तम्भ मजबूती से खड़ा है और वे कितना भी बड़ा जुर्म क्यों न करें, उन्हें बचाने का रास्ता निकाल ही लेता है। इसीलिए हमारे यहाँ अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि जितने अपराध होते हैं, उसके नगण्य मामले पुलिस के रजिस्टरों में दर्ज होते हैं। ज्यादातर अपराध प्रकाश में ही नहीं आने दिये जाते। फिर गुड गवर्नेंस कैसे सुनिश्चित होगी? क्या हमारे नेता सिंगापुर के निर्माता व चार दशक तक प्रधानमंत्री रहे, ली क्वान यू से कोई सबक लेंगे? आम जनता को लगातार क़ानून का डर दिखाने से पहले हुक्मरानों का आचरण, उनके निर्णय और उनकी नीतियाँ पारदर्शी व आम जनता के हित में होनी चाहिए। 

भगवतगीता के तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ अर्थात्- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वैसा ही व्यवहार अन्य लोग भी करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण छोड़ देता है, लोग उसी के अनुसार आचरण करते हैं।माना कि हमारा देश बहुत बड़ा है और तमाम विविधताओं वाला है, पर ‘जहाँ चाह वहाँ राह।’ 

Monday, November 4, 2024

त्योहारों की तिथियों में विवाद क्यों?

बीते कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी कोई त्योहार आता है तो उसकी स्थिति को लेकर काफ़ी विवाद पैदा हो जाते हैं। इन विवादों को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में आज के लेख का विषय कई पाठकों की उत्सुकता के कारण चुना है। इस दीपावली पर मुझे कई फ़ोन आए और सभी ने इस विषय को छेड़ा और मुझे इस मुद्दे पर लिखने को कहा। मैंने शास्त्र आधारित तथ्यों पर वृंदावन में जानकारों से चर्चा की। उन विद्वानों के अनुसार इसके पीछे कई कारण हैं। 


कई वर्षों के अनुभवी और ज्योतिष व कर्मकांड के विशेषज्ञ आचार्य राजेश पांडेय जी का कहना है कि, इसका मुख्य कारण है भारत की भौगोलिक स्थिति। सूर्योदय और सूर्यास्त होने के समय में अंतर होने से तिथियों का घटना व बढ़ना हो जाता है। इससे त्योहार मनाने का समय बदल जाता है। कहीं पर वही त्योहार पहले मनाया लिया जाता है और कहीं पर बाद में। इसके साथ ही एक अन्य कारण है पंचांग का गणित भेद। कुछ पंचांगकर्ता ‘सौर पंचांग’ के अनुसार गणित रचना कर त्योहारों को स्थापित करते हैं। लेकिन अधिकतर अनन्य पंचांग द्रिक पद्धति से देखे जाते हैं। इसीलिए त्योहारों में मतेकता नहीं हो पाती है। 



सौर पंचांग एक ऐसा कालदर्शक है जिसकी तिथियां ऋतु या लगभग समतुल्य रूप से तारों के सापेक्ष सूर्य की स्पष्ट स्थिति को दर्शाती हैं। ग्रेगोरी पंचांग, जिसे विश्व में व्यापक रूप से एक मानक के रूप में स्वीकार किया गया है, सौर कैलेंडर का एक उदाहरण है। पंचांग के अन्य मुख्य प्रकार चन्द्र पंचांग और चन्द्रा-सौर पंचांग हैं, जिनके महीने चंद्रकला के चक्रों के अनुरूप होते हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीने चन्द्रमा के चरण चक्र के अनुरूप नहीं होते।


इसके अलावा त्योहारों की तिथि के भेद का एक अन्य कारण संप्रदाय भेद भी है। विभिन्न संप्रदायों में मतभेद के पीछे कई कारण हैं। संप्रदायों में विभिन्नता या ज़िद्द के कारण भी त्योहारों की तिथि में अंतर आने लग गये हैं। एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय की तिथि से अक्सर अलग ही तिथि की घोषणा कर देता है और उस संप्रदाय को मानने वाले आँख मूँद कर उसका पालन करते हैं। इसके साथ ही संप्रदायों में धृष्टता होना भी एक कारण माना गया है। कई मठ-मंदिर आदि के मानने वाले इतने कट्टर होते हैं कि वे अपने मठाधीशों के फ़रमान के अनुसार ही त्योहारों को मनाने की ठान लेते हैं। फिर वो चाहे पंचांग आधारित हो या स्वयंभू सद्गुरुओं या जगद्गुरुओं की सुविधानुसार हो, उसी का पालन किया जाता है।      

 


इन सबसे हट कर एक और अहम कारण है सोशल मीडिया पर चलने वाला अधपका ‘ज्ञान’। ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी द्वारा बाँटे जा रहे इस ज्ञान ने भी तिथि विवाद की आग में घी डालने का काम किया है। अधपके ज्ञान को इस कदर फॉरवर्ड किया जाता है कि मानो वही वास्तविक और शास्त्र आधारित तथ्य हो। इतना ही नहीं एक घर परिवार में भी इस सोशल मीडिया की महामारी ने ऐसा असर किया है कि बाप-बेटे में ही विवाद उत्पन्न हो चले हैं। जबकि इस विवाद और ऐसे अन्य विषयों पर विवाद पैदा होने के पीछे ‘भेड़-चाल’ प्रवृत्ति एक मूल कारण है। किसी भी स्थिति में अधपके ज्ञान और संदेश को सत्य मन लेना नासमझी ही कहलाती है। वहीं यदि हम तथ्यों पर आधारित प्रमाणों को माने तो अधपके ज्ञान से बच सकते हैं। 



तिथियों के विवाद को लेकर विद्वानों का मानना है कि सौर पंचांग को मानने वाले इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जिस रात्रि में दीपावली मिलती है वे उसी के अनुसार दीपावली मनाएँगे। वहीं द्रिक पद्धति और धर्म शास्त्र के अनुसार जिस तिथि में सूर्योदय हुआ है और उसी तिथि में सूर्यास्त हुआ है तो वह तिथि संपूर्ण मानी जाती है। परंतु जहां पर दो अमावस्या पड़ रहीं हों, तो धर्मशास्त्र के अनुसार परे विग्राहिया का पालन करना चाहिये । यदि दो अमावस्या परदोष को स्थापित हो रही हैं तो प्रथम दिवस की अमावस्या को छोड़ कर दूसरे दिन की अमावस्या को ही मानना चाहिए। 



देखा जाए तो शास्त्रों के अनुसार दीपावली का अर्थ केवल नए कपड़े पहनना, मिठाई बाँटना, दीपोत्सव और आतिशबाजी ही नहीं है। दीपावली पितरों के स्वर्ग प्रस्थान का पर्व है और हम दीपक इसलिए प्रज्ज्वल्लित करते हैं ताकि पितरों का मार्ग प्रकाशित हो सके पद्म-पुराण के उत्तर खण्ड में दीपावली का वर्णन है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी से अमावस्या तक दीप जलाने का विशेष उल्लेख किया गया है। इन पाँच दिनों में भी अन्तिम दिन को वहाँ विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसके महात्म्य में इसे पितृ कर्म मानते हुए कहा गया है कि स्वर्ग में पितर इस दीप-दान से प्रसन्न होते हैं। 


ज्वलते यस्यसेनानीरश्वमेधेन तस्य किम् । 

तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वैः कृतं तीर्थावगाहनम् ॥ 

पितरश्चैव वाञ्छन्ति सदा पितृगणैर्वृतः। 

भविष्यति कुलेऽस्माकं पितृभक्तः सुपुत्रकः॥ 

कार्तिके दीपदानेन यस्तोषयति केशवम् । 

घृतेन दीपको यस्य तिलतैलेन वा पुनः ॥ 


कार्तिक मास के इन दिनों में सूर्यास्त के बाद रात्रि में घर, गोशाला, देवालय, श्मशान, तालाब, नदी आदि सभी स्थानों पर घी और तिल के तेल से दीप जलाने का महत्व है। ऐसा करने से दीप जलाने वाले के उन पितरों को भी मुक्ति मिलती है जिन्होंने पापाचरण किया हो या जिनका श्राद्ध उचित ढंग से नहीं हुआ हो। 

पापिनः पितरो ये च ये च लुप्तपिण्डोदकक्रियाः

तेऽपि यान्ति परां मुक्तिं दीपदानस्य पुण्यतः ॥


दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली प्रेतचतुर्दशी उत्तर भारत में व्यापक रूप से मनाई जाती है। वर्षक्रियाकौमुदी में उद्धृत एक कथा के अनुसार, एक धार्मिक व्यक्ति को तीर्थ यात्रा के दौरान पाँच प्रेत मिले, जो भयंकर कष्ट में थे। प्रेतों ने उसे बताया कि वे उन घरों में रहते हैं जहां गंदगी फैली हो, सामान बिखरा हो, झूठे  बरतन हों और लोग शोक व गंदगी में डूबे हों। इस कथा का उद्देश्य लोगों को स्वच्छता और सकारात्मक वातावरण बनाए रखने की शिक्षा देना है।


कुल मिलाकर यह कहना सही होगा कि हमारे शास्त्रों में हर त्योहार के पीछे जो आधार हैं स्थापित हैं उन्हें सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर संशोधन करना सही नहीं है। इसलिए फिर वो चाहे पंचांग भेद हो या संप्रदाय भेद हो इनका समाधान निकालना है तो सभी संप्रदायों और विभिन्न पंचांग पद्धति के मानने वालों को एकजुट हो कर ही इसका हल निकालना होगा नहीं तो हर वर्ष इसी तरह के विवाद होते रहेंगे।