Monday, May 24, 2021

जहाँ मुसलमान वहाँ हिंसा क्यों?


भारी दावों के विपरीत पश्चिम बंगाल का चुनाव बुरी तरह हारने के बाद बौखलाई भाजपा और उसकी ट्रोल आर्मी हाथ धो कर ममता सरकार के पीछे पड़े हैं। किसी तरह वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हो जाए तो फिर विधायकों को तोड़ने का काम आसानी से हो पाएगा। सारा बवाल बंगाल के मुसलमानों को लेकर है। आरोप है कि ममता बनर्जी की सरकार में
  मुसलमान हिंदुओं के साथ मार-काट कर रहे हैं। भाजपा का प्रचार तंत्र देश-विदेश में रात दिन अपने समर्थन में विडीओ  क्लिप सोशल मीडिया पर डाल रहा है। ये बता कर कि ये आज के हालत हैं। कल एक ऐसी ही विडीओ क्लिप मेरे पास आई जिसमें दिखाया था कि घायल सैनिक को उपचार के लिए ले जाती हुई फ़ौज की गाड़ियों तक को ये लोग अपने इलाक़े से नहीं गुजरने दे रहे। जीप पर नम्बर प्लेट बंगला भाषा में थी तो मैंने वो क्लिप कलकत्ता में अपने कुछ मित्रों को भेज कर उसकी हक़ीक़त जाननी चाही।जवाब आया कि न तो ये आज की क्लिप है और न ही पश्चिम बंगाल की। बल्कि यह क्लिप बांग्लादेश की है और बहुत पुरानी है। जिस ‘भक्त’ ने यह क्लिप मुझे भेजी थी जब उसे मैंने यह बताया तो उसका जवाब था कि मुसलमान तो हर जगह हिंसा ही करते हैं। इस बात का वो कोई जवाब नहीं दे सका कि बंगलादेश की क्लिप को पश्चिम बंगाल की बता कर यह ज़हर क्यों फैलाया जा रहा है? ऐसा नहीं है कि वहाँ हिंसा की वारदातें नहीं हुई हों। पर जितनी हाइप बनाई जा रही है, वैसा नहीं है।  


कुछ अप्रवासी भारतीय भी इस मुद्दे को लेकर उतने ही उत्तेजित हैं जितने महीनों तक सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ को लेकर थे। सब एक ही रट लगा रहे हैं कि बंगाल के हिंदुओं का जीना मुहाल है। जबकि वहाँ के शहरों में अगर अपने सम्पर्कों से आप बात करें तो ऐसा कुछ भी समाचार नहीं मिलता। 



उधर दशकों से राज्यपाल केंद्र सरकार की कठपुतली की तरह काम करते आएँ हैं। राज्यपाल बनाया ही उन्हें जाता है जो अपनी संविधान प्रदत्त स्वायत्तता को दर किनार कर केंद्रीय सरकार के इशारे पर अनैतिकता और झूठ की हदें पार करने में संकोच न करे। इसमें कोई अपवाद नहीं है। कांग्रेस के राज में भी यही होता था और भाजपा के राज में भी यही हो रहा है। 


शपथग्रहण समारोह से शुरू करके आज तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल महामहिम जगदीप धनकड़ ममता सरकार पर सीधा हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे। कई बार तो उनकी भाव भंगिमा बहुत नाटकीय नज़र आती है। धनकड जी मेरे पुराने स्नेही हैं और सर्वोच्च न्यायालय के वकील रहे हैं। ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1993 में जिस ‘जैन हवाला कांड’ को मैंने उजागर किया था, उसमें दुबई और लंदन से कश्मीर के आतंकवादियों को हवाला से आ रही आर्थिक मदद का एक अंश जगदीप धनकड जी को भी मिलने का आरोप था और वे हवाला कांड में चार्जशीट भी हुए थे। भाजपा और संघ के जो लोग मुसलमानों की हिंसक वृत्ति और भारत को इस्लामी देश बनाने का ख़तरा बता-बता कर हिंदू वोट बैंक को संगठित कर रहे हैं उनसे मेरा लगातार एक ही सवाल रहता है। कि जब इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ 1993 से लड़ाई लड़ी जा रही थी तो ये लोग एक ख़तरनाक खामोशी क्यों साधे बैठे थे ? 


संघ के संस्थापक डाक्टर केशव हेडगेवार जी कहा था कि परिवार के हित के लिए व्यक्ति का हित। समाज के हित के लिए संगठन का हित और राष्ट्र के हित के लिए अपने दल के हित को त्याग देना चाहिए। पर संघ और भाजपा ने तो तब उल्टा ही काम किया। अपने चंद नेताओं को बचाने में उन्होंने राष्ट्र के हित को बलिदान कर दिया। वरना ये  इस्लामिक आतंकवाद 27 बरस पहले ही नियंत्रित हो जाता। मेरे इन प्रश्नों का जवाब संघ और भाजपा के बड़े से बड़े नेता आजतक देने का नैतिक साहस नहीं दिखा पाए। पर आज वे इतिहास  से अनभिज्ञ और विवेकहीन अपने युवा समर्थकों से हर उस व्यक्ति को देशद्रोही कहलवाते हैं जो उनके ग़लत कामों पर ऊँगली उठाता है। तो बहुत दया आती है कि युवा कैसे मानसिक ग़ुलाम बन रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि हर नागरिक मीडिया के झूठ  से बच कर हर परिस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन करे।


यहाँ मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान समय में जहां-जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहाँ वहाँ अशांति है, हिंसा है, अल्पसंख्यकों की उपेक्षा या दमन है। जिस तरह कश्मीर, असम, प.बंगाल के अलावा अन्य प्रांतों में भी अपनी बढ़ती जनसंख्या के बल पर मुसलमानों ने राजनीति में अपना दबदबा बढ़ाया है वहाँ-वहाँ हिंदू उनके आक्रामक व्यवहार से उत्तेजित हुआ है। जब सेकूलर मीडिया कश्मीर के हिंदुओं पर हुए अत्याचार को नहीं दिखाता और  उनके समर्थन में उतने ही ज़ोर शोर से आवाज़ नहीं उठाता जैसी मुसलमानों के लिए उठाता रहा है, तब मजबूरन  हिंदुओं को भाजपा की छत्र-छाया में जाना पड़ता है। फिर भी बंगाल की आधी हिंदू आबादी ने भाजपा को वोट नहीं दिया। 


मुसलमानों की शिकायत है कि उनके प्रति पक्षपात का आरोप ग़लत है। जिसके प्रमाण में वे अपने समाज के पिछड़ेपन और सेना या प्रशासन में अपनी नगण्य उपस्थिति का हवाला देते हैं। इसके कई सामाजिक कारण भी हैं जिन पर अलग से चर्चा की जा सकती है। पर यह तो स्पष्ट है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर, यहाँ तक कि भारी ट्राफ़िक वाली सड़कों पर भी मुसलमान अपना मुसल्ला बिछा कर नमाज़ पढ़ने लग जाते हैं। जिससे आम जन जीवन में व्यवधान पैदा होता है और अन्य धर्मावलम्बियों में आक्रोश। सरकार के मंत्रियों और राज्यपालों द्वारा इफ़्तार की दावतें देना, जबकि दिवाली, वैसाखि, गुरूपूरब, पोंगल आदि जैसे अन्य धर्मों के त्योहारों पर ऐसा कोई आयोजन नहीं करना या हज यात्रा पर जाने वालों को सब्सिडी देना, कुछ ऐसे काम होते रहे हैं जिनसे हर हिंदू उत्तेजित हुआ है। 


इसलिये समझदार और पढ़े लिखे मुसलमानों को समाज में पारस्परिक सौहार्द का वातावरण तैयार करने की सक्रिय पहल करनी चाहिए। अन्यथा दोनों पक्षों की साम्प्रदायिक ताक़तें राष्ट्र को तबाह कर देगी। 


यही बात मैं संघ और भाजपा के नेतृत्व से भी कहना चाहता हूँ। आप किस हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं? हज़ारों साल से हिंदू धर्म की ध्वजा को चारों पीठों के शंकराचार्यों ने वहन कर समाज को दिशा दी है। सनातन धर्म के स्थापित सम्प्रदायों जैसे श्री, रुद्र, ब्रह्म और कुमार सम्प्रदाय और इनकी शाखाओं में एक से बढ़ कर एक ज्ञानी, प्रतिष्ठित और सिद्ध संत हुए हैं और आज भी हैं। इनके अलावा मध्य-युग के भक्ति क़ालीन संत जैसे गुरु नानक देव, मीराबाई, तुलसीदास, सूरदास, रसखान, रहीम, कबीर, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम और अलवर जैसे महान संतों को छोड़ कर आप लोग पैसे, प्रचार और सत्ता के पीछे भागने वाले आत्मघोषित सदगुरुओं को, जो यशोदा मईया को भगवान कृष्ण की प्रेयसी बताने की धृष्टता करते हैं, क्यों हिंदू समाज पर थोपने पर तुले हैं ? इनसे हिंदुत्व का भला नहीं हो रहा बल्कि उसकी जड़ों में छाछ डालने का काम हो रहा है। आप लोगों को भी अपना मूल्यांकन करना चाहिए। क्योंकि ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सत्ता के लालच में आप सनातन धर्म के स्थापित सिद्धांतों और मान्यताओं की बार-बार उपेक्षा कर रहे हैं और एक ‘सिन्थेटिक हिंदुत्व’ हम हिंदुओं पर थोपने की दुर्भाग्यपूर्ण कोशिश कर रहे हैं। इससे किसी का भला नहीं होगा न हिंदू समाज का  न राष्ट्र का।

Monday, May 17, 2021

आपदा में अवसर: एयर एम्बुलेंस


हाल ही में दिल्ली का एक नामी व्यापारी काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा। इस व्यापारी नवनीत कालरा के दिल्ली में कई कारोबार हैं। इसके कारोबारों में दिल्ली के खान मार्केट में कबाब का एक मशहूर रेस्टोरेंट, चश्मों की एक चर्चित दुकान और अंतर्राष्ट्रीय व्यंजन के कई और रेस्टोरेंट शामिल हैं। इन सबके अलावा कालरा की एक अंतर्राष्ट्रीय मोबाइल सिम सेवा भी शामिल है। लेकिन कालरा इन सभी व्यवसायों के कारण सुर्ख़ियों में नहीं था। वो तो कोविड आपदा में अवसर ढूँढने के चक्कर में विवादों में आया।
 


कोविड की दूसरी लहर के चलते मरीज़ों में ऑक्सीजन की कमी की पूर्ति के लिए ऑक्सीजन कॉन्सेंट्रेटर की माँग अचानक बहुत बढ़ गई थी। इसी यंत्र को विदेशों से मंगा कर दिल्ली और आस पास के मरीज़ों को मुह माँगे दामों पर बेचने के कारण नवनीत कालरा सुर्ख़ियों में आया। चूँकि ये मामला अभी अदालत के विचाराधीन है इसलिए इस पर अभी कुछ नहीं कहें तो बेहतर होगा। हाँ अगर अदालत मानती है कि उसने कोई अपराध किया है तो नवनीत कालरा सज़ा पाएगा। 


इसी बीच पिछले हफ़्ते दो ऐसे हादसे हुए जिन्हें गम्भीरता से लेने की ज़रूरत है। पहला हादसा नागपुर से मुंबई आ रही एक एयर एम्बुलेंस का था। जिसमें नागपुर से उड़ान भरते समय विमान का एक पहिया हवाई पट्टी के पास गिर गया था। ग़नीमत है कि हवाई अड्डों की सुरक्षा में तैनात सीआईएसएफ के एक सतर्क सिपाही ने इसकी सूचना तुरंत नागपुर एटीसी को दी, जिन्होंने विमान चालक से सम्पर्क किया। यह एयर एम्बुलेंस एक निजी कम्पनी द्वारा संचालित की जा रही थी। हैरानी वाली बात यह है कि इस एयर एम्बुलेंस के कप्तान को विमान द्वारा ऐसा कुछ भी संकेत नहीं मिला कि उसका पहिया नागपुर में ही गिर चुका है। उस सिपाही की सतर्कता के कारण ही विमान को मुंबई में आपातकाल लैंडिंग से उतारा गया, बिना किसी जान माल के नुक़सान के। उस विमान में सवार मरीज़ को भी समय पर कोविड की चिकित्सा के लिए अस्पताल ले जाया गया। 


अगर एयर एम्बुलेंस की बात करें तो नवनीत कालरा की तरह इन्हें चलाने वाली निजी कम्पनियाँ भी आजकल आपदा के दौर में खूब अवसर खोज रही हैं। पर इस हादसे से यह साबित होता है कि अंधा  पैसा कमाने के चक्कर में वे विमान के रख रखाव पर भी ध्यान नहीं दे रही हैं। इसीलिए ऐसे हादसे होते हैं। इतना ही नहीं एयर एम्बुलेंस चलाने वाली इन निजी कम्पनियों की कई बड़े अस्पतालों के साथ साँठगाँठ है जिसके कारण वे सवारियों से मुह माँगे दाम वसूल रही हैं। 


मिसाल के तौर पर अगर किसी मरीज़ को पटना से किसी बड़े अस्पताल में ले जाना है तो बजाय कोलकाता या किसी नज़दीक शहर में ले जाने के ये कम्पनियाँ उस मरीज़ को हैदराबाद जैसे दूर दराज के शहर ले जाती हैं और उसके बदले में मरीज़ के घरवालों से 25-30 लाख रुपय ऐंठती हैं। जबकि आम तौर पर ऐसी चार्टेड यात्रा का खर्च 2 से 3 लाख रुपय आता है। ऐसे समय में मरीज़ों से मुह माँगे दाम ऐंठना कालाबाज़ारी से कम अपराध नहीं है। 


इतना ही नहीं इन विमानों में मरीज़ों को ले जाए जाने के लिए तय मापदंडों की भी धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। ये लापरवाही जान बचाने की बजाय जानलेवा भी हो सकती हैं। नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) को इस दिशा में कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए और निजी कम्पनियों द्वारा चलाई जा रही एयर एम्बुलेंस की निगरानी सख़्ती से होनी चाहिए। पर आश्चर्य है कि ऐसा नहीं हो रहा।    


इसी क्रम में दूसरा हादसा मध्य प्रदेश में हुआ जिसमें करोड़ों रुपये का सरकारी जहाज़ बर्बाद हो गया है। मध्य प्रदेश सरकार के विमान में ले जाए जा रहे कोविड के जीवन रक्षक इंजेक्शन ‘रेमडेसिविर’ की एक बड़ी खेप इस जहाज़ में थी। करोड़ों रुपय की लागत से ख़रीदे गए इस राज्य सरकार के सवारी विमान, जोकि राज्य सरकार के अति विशिष्ट व्यक्तियों के इस्तेमाल के लिए होता है, इस हादसे के बाद, बुरी तरह से क्षतिग्रस्त होने के कारण अब किसी काम का नहीं रहा। ग़नीमत है इसमें लाए जा रहे जीवन रक्षक ‘रेमडेसिविर’ इंजेक्शन और पाइलट सुरक्षित हैं। सूत्रों की मानें तो प्राथमिक जाँच से यह पता चला है कि इस हादसे के लिए इसका पाइलट कैप्टन माज़िद अख़्तर ही ज़िम्मेदार है। 


दरअसल ऐसे सवारी वाले छोटे विमानों में कार्गो या सामान की ढ़ुलाई करने के लिए यदि विमान की सीटों को निकाला जाता है तो विमान निर्माता व डीजीसीए से विशेष अनुमति लेना अनिवार्य होता है। आपात स्थिति बताकर इस विमान में ऐसा नहीं किया गया था। यह सब भी कैप्टन माजिद अख़्तर के रसूख़ के चलते उसकी ही देख रेख में हुआ।


ग़ौरतलब है कि इस विमान के पाइलट कैप्टन माजिद अख़्तर के ख़िलाफ़ दिल्ली के ‘कालचक्र समाचार ब्यूरो’ के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने डीजीसीए को कई महीने पहले पत्र लिख कर शिकायत की थी। जिसमें कैप्टन माजिद की क़ाबिलियत एवं अनुशासनहीनतापूर्ण कार्यप्रणाली को लेकर सप्रमाण कई सवाल उठाए थे। लेकिन कैप्टन माजिद के रसूख़ के चलते उन शिकायतों की अनदेखी कर न तो उसे विमान उड़ाने से रोका गया और न ही शिकायत पर कोई कार्यवाही हुई। ऐसी लापरवाही क्यों की गई? 


उल्लेखनीय है कि कैप्टन माजिद अख़्तर मध्य प्रदेश शासन के पाइलट होने के साथ साथ डीजीसीए द्वारा ‘बी 200’ विमान के परीक्षक के पद पर भी नियुक्त था। इस कार्यवाही को अंजाम देते हुए इसने कई पाइलटों के प्रशिक्षण एवं जाँच में धांधली की और ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतों को अंजाम दिया। जिसकी शिकायत कालचक्र द्वारा समय-समय पर डीजीसीए से लिखकर की गई। यदि समय रहते डीजीसीए इन शिकायतों का संज्ञान लेता और जाँच करता तो इस तरह की लापरवाही भरे आचरण पर लगाम लगती और जान-माल के नुक़सानों से बचा जा सकता था।  


कैप्टन माज़िद द्वारा एक और संगीन अपराध किया गया। डीजीसीए द्वारा दिए गए दिशा निर्देश के तहत किसी भी पाइलट या क्रू, जिसने कोविड का वैक्सीन लगवाया हो, उसे अगले 48 घंटे तक उड़ान भरने की मनाई है। लेकिन कैप्टन माजिद अख़्तर के लिए सभी नियम और क़ानून केवल किताबी हैं। उसने इस नियम की भी धज्जियाँ उड़ाते हुए 17 मार्च 2021 को कोविड वैक्सीन लगवाने के कुछ ही घंटों में मध्य प्रदेश के राज्यपाल के साथ उड़ान भरी। जिसकी शिकायत डीजीसीए से की गयी। लेकिन इस शिकायत के बाद भी डीजीसीए ने माज़िद पर कोई भी कार्यवाही क्यों नहीं की ? 


ठीक उसी तरह, कैप्टन अख़्तर ने बतौर परीक्षक उत्तर प्रदेश सरकार के कई पाइलटों को उड़ान जाँच योग्यता में पास कर दिया जिसमें से अधिकतर पाइलटों का आपदा प्रबंधन का अनिवार्य सर्टिफिकेट अवैध था। बिना इस गम्भीर बात की जाँच किए हुए उन्होंने ये गैर ज़िम्मेदाराना कार्य किया और इस प्रकार के दर्जनों अनुशासनहीन प्रशिक्षण कार्य कराते आए हैं। इस शिकायत को भी डीजीसीए द्वारा अनदेखा किया गया।


डीजीसीए के अधिकारियों को ऐसी गम्भीर लापरवाही करने वाले अपने लोगों के विरुद्ध कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। इसी तरह अनुशासनहीन पाइलटों को भी विमान उड़ाने की इजाज़त न दी जाए। 


उधर निजी चार्टर विमानों में अगर सवारी की जगह मरीज़ और डाक्टर को ले जाने का प्रबंध करना है तो तय मापदंडों के अनुसार ही विमान में फेर बदल किया जाए न कि निजी कम्पनी की इच्छा अनुसार। ऐसा करने से कालाबाज़ारी कर रहे लोगों पर लगाम कसेगी और जान माल की भी रक्षा होगी।

Monday, May 10, 2021

ममता बनर्जी : व्यक्तित्व व चुनौतियाँ


बेहद ताकतवर, भारी साधन सम्पन्न और हरफ़नमौला भाजपा के इतने तगड़े हमले के बावजूद एक महिला का बहादुरी से लड़ कर इतनी शानदार जीत हासिल करना साधारण बात नहीं है। इसीलिए आज पश्चिम बंगाल के चुनावों के परिणामों को पूरे देश में एक ख़ास नज़रिए से देखा जा रहा है। आज ममता बनर्जी की छवि अपने आप एक राष्ट्रीय नेता की बन गई है। इससे पहले कि हम ममता बनर्जी के सामने खड़ी चुनौतियों की चर्च करें, उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को जानना अच्छा रहेगा।
 

गत दस वर्षों से पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री होते हुए भी वे आलीशान सरकारी बंगले में नहीं बल्कि गरीब लोगों की बस्ती में छोटे से निजी मकान में रहते हैं। जब वे केंद्र में रेल मंत्री थीं तब उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ। तब भी वे मंत्री के बंगले में न जा कर सांसदों के फ़्लैट में ही रहीं। जिसकी आंतरिक सज्जा एक सरकारी बाबू के घर से भी निम्न स्तर की थी। जहां कोई भी बिना रोकटोक के कभी भी जा सकता था। रेल मंत्रालय की गाड़ियों और सुरक्षा क़ाफ़िले के बजाय वे अपनी पुरानी मारुति में आती जाती थीं। 



रेल मंत्री के कार्यालय में बहुत वैभवपूर्ण आतिथ्य की व्यवस्था होती है तब भी ममता दीदी कैंटीन के काँच के ग्लास में ही चाय पिलाती थीं और उसका भुगतान अपने पैसे से करती थीं। एक बार जाड़े की कोहरे भरी अंधेरी रात को दो बजे वो जयपुर के रेलवे स्टेशन पहुँची और स्टेशन मैनेजर से कहा कि वो रेल मंत्री हैं और उनका हवाई जहाज़ कोहरे की वजह से जयपुर हवाई अड्डे पर उतर गया था। अब उन्हें किसी भी ट्रेन में किसी भी श्रेणी की बर्थ दे कर दिल्ली पहुँचवा दें। स्टेशन मैनेजर बिना गर्म कपड़े पहने, सूती धोती और हवाई चप्पल में एक साधारण महिला को इस तरह देख कर उनकी बात पर विश्वास नहीं कर सका। उसने जयपुर में तैनात रेलवे के महा प्रबंधक श्री अजित किशोर, जो मेरी पत्नी के मामा हैं, को फ़ोन किया और ममता बनर्जी से बात करवाई। अजित मामा हड़बड़ा कर स्टेशन दौड़े आए और ममता बनर्जी से बार-बार अनुरोध किया कि वे जीएम के सैलून में दिल्ली चली जायें, जो किसी भी गाड़ी में जोड़ दिया जाएगा। जिन पाठकों को जानकारी नहीं है, यह सैलून रेल का एक डब्बा होता है, जिसमें दो बेडरूम, बाथरूम, ड्राइंगरूम, डाइनिंग रूम, ऑफ़िस और सहायकों के सहित रसोई होती है। हर महाप्रबंधक का एक सैलून होता है। पर ममता बनर्जी किसी क़ीमत पर ये सुविधा लेने को राज़ी नहीं हुईं। उन्होंने ज़िद्द की कि उन्हें अगली दिल्ली जाने वाली ट्रेन के 2 एसी या 3 टियर में भी एक बर्थ दे दी जाए, पर इसके लिए किसी यात्री को परेशान न किया जाए। 


मधु दंडवते और जार्ज फ़र्नांडीज़ को छोड़ कर हर रेल मंत्री उसके लिए चलाए जाने वाली विशेष ट्रेन ‘एम आर स्पेशल’ में यात्रा करता है। जो बिना रोक टोक के प्राथमिकता से अपने गंतव्य को जाती है। ममता बनर्जी ने भी कभी इसका प्रयोग नहीं किया। यहाँ तक कि उन्होंने लोक सभा से मिलने वाली लाख रुपए महीने की सांसद पेंशन भी नहीं ली। 


जिस देश की करोड़ों जनता बदहाली में जी रही हो या जिस देश की जनता कोरोना महामारी में दवाई, अस्पताल व ऑक्सिजन के लिए बदहवास हो कर ठोकरें खा रही हो उस देश में ममता बनर्जी का जीवन हर राजनैतिक दल के नेता के लिए अनुकरणीय है। मशहूर विद्वान चाणक्य पंडित ने भी कहा है, ‘जिस देश का राजा महलों में रहता है उसकी प्रजा झोंपड़ियों में वास करती है। जिस देश का राजा झौंपड़ी में रहता है उसकी प्रजा महलों में वास करती है।’ ऐसी ममता दीदी को इस चुनाव में जिस तरह तंग किया गया और उनका मज़ाक़ उड़ाया गया उसका विपरीत प्रभाव आम बंगाली के मन पर पड़ा और वो ममता बनर्जी के साथ खड़ा हो गया।



भाजपा का आरोप है कि ममता बनर्जी के राज में मुसलमानों को ज़्यादा संरक्षण मिलता है और उनके अपराधों को अनदेखा कर दिया जाता है। इस आरोप में भी कुछ सच्चाई है। कुछ वर्ष पहले मैं कोलकाता की ‘नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी’ में ‘अदालत की अवमानना क़ानून का दुरुपयोग’ विषय पर छात्रों और शिक्षकों को सम्बोधित करने गया था। तब मैंने अपने गेस्ट हाउस के कमरे में ही लंच पर पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक, कोलकाता के पुलिस आयुक्त और पश्चिम बंगला के सतर्कता आयुक्त को बुलाया था, ताकि बंद कमरे में खुल कर बंगाल की राजनैतिक स्थिति पर चर्चा की जा सके। तब उन लोगों ने भी दबी ज़ुबान से ममता दीदी के मुसलमानों के प्रति विशेष प्रेम की शिकायत की थी। जिसका उल्लेख बाद में मैंने अपने इसी साप्ताहिक कॉलम में भी किया था। 


इस चुनाव के बाद भाजपा अप्रत्याशित हार से हताश हो कर इस आरोप को ज़ोर शोर से उठा रही है। जिस पर ममता दीदी को ध्यान देना चाहिए और क़ानून तोड़ने वालों और हिंसा करने वालों के साथ कड़ाई से निपटना चाहिए। जिससे उनकी छवि एक निष्पक्ष नेता की बने। मुसलमान हो या हिंदू दोनों ही वर्गों की साम्प्रदायिक ताक़तों को जब बढ़ावा मिलता है तो स्वास्थ्य सेवाएँ, बेरोज़गारी, महंगाई शिक्षा और भ्रष्टाचार जैसी बड़ी समस्याएँ पीछे धकेल दी जाती हैं और आम जनता को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंक दिया जाता है। इसलिए सबको ही इस वृत्ति से बचना चाहिए। 


जहां तक पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद की राजनैतिक हिंसा का आरोप है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश का कोई भी राजनैतिक दल इस दुर्गुण से अछूता नहीं है। सत्ता क़ब्ज़ाने के लालच में या अपने राजनैतिक विरोधियों को दबाने के लिए सभी राजनैतिक दल समय-समय पर हिंसा का सहारा लेते आए हैं। वैसे त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास छह दशक पुराना है। त्रिपुरा के पिछले चुनावों के बाद सत्ता में आई भाजपा के कार्यकर्ताओं ने सीपीएम के विरुद्ध जो हिंसा और तोड़फोड़ की थी उस पर वो मीडिया ख़ामोश रहा जो आज बंगाल की हिंसा पर शोर मचा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को हत्या बता कर महीनों शोर मचाया गया था। या फिर कोरोना फैलाने के लिए तबलीकी जमात को आरोपित करने का हास्यास्पद प्रचार उछल-उछल कर किया गया। अगर हम लोकतंत्र के चौथे खम्बे हैं तो हमें भय और लालच के बिना कबीरदास जी के शब्दों में, ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ वाले भाव से राष्ट्र और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाहन करना चाहिए।

Monday, May 3, 2021

विपदा क़ानून क्या ढिंढोरा पीटने को बनाये थे ?


जब चारों तरफ़ मौत का भय, कोविड का आतंक, अस्पताल, ऑक्सिजन और दवाओं की कभी न पूरी होने वाली माँग के साये में आम ही नहीं ख़ास आदमी भी बदहवास भाग रहा है, तब हिंदी के कुछ मशहूर कवियों का आशा जगाने वाला एक गीत फिर से लोकप्रिय हो रहा है। पर्दे पर इस गीत को सुरेंद्र शर्मा, संतोष आनंद, शैलेश लोढ़ा, आदि ने गाया है। गीत का शीर्षक ‘फिर नई शुरुआत कर लेंगे’ है।


जब से कोविड का आतंक फैला है तब से सोशल मीडिया पर ज्ञान बाँटने वालों की भी भीड़ लग गई है। दुनिया भर से हर तरह का आदमी चाहे वो डाक्टर हो या ना हो, वैद्य हो या न हो या फिर स्वास्थ्य विशेषज्ञ हो या न हो, कोविड से निपटने या बचने के नुस्ख़े बता रहा है। उसमें कितना ज्ञान सही है और कितना ग़लत तय करना मुश्किल है। उधर देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस बुरी तरह से चरमरा गई हैं कि बड़े-बड़े प्रभावशाली आदमी भी मेडिकल सुविधाओं के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। सरकारों के हाथ पाँव फूल रहे हैं। दुनिया दिल थाम कर भारत में चल रहे मौत के तांडव का नजारा देख रही है। कल तक हम सीना ठोक कर कोविड पर विजय पाने का दावा कर रहे थे पर आज दुनिया के रहमोकरम के आगे घुटने टेक रहे है। अच्छी बात यह है कि हर सक्षम देश भारत की मदद को आगे आ रहा है। अब भारत सरकार ने भी तेज़ी से हाथ-पैर मारने शुरू कर दिए हैं। पर जिस तरह चेन्नई और प्रयाग में उच्च न्यायालयों ने सरकार की नाकामी पर करारा प्रहार किया है और चुनाव आयोग को हत्यारा तक कहा है। उससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि कहीं तो सरकार ने भी लापरवाही की है। पर जनता भी कम ज़िम्मेदार नहीं जिसने कोविड की पहली लहर मंद पड़ जाने के बाद खुलकर लापरवाही बरती। 



जहां तक इस आपदा से निपटने की तैयारी का सवाल है तो गौर करने वाली बात यह है कि 2005 में देश में ‘आपदा प्रबंधन क़ानून’ लागू किया गया था। जिसमें राष्ट्रीय व प्रांतीय आपदा प्रबंधन समितियों के गठन का प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 2 (ई) के तहत आपदा का मूल्यांकन तथा धारा 2 (एम) के तहत तैयारियों का प्रावधान है। धारा 3 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण के अध्यक्ष माननीय प्रधान मंत्री होते हैं। उक्त क़ानून की धारा 42 के तहत एक आपदा संस्थान भी स्थापित करने का प्रावधान है। इसी क़ानून के तहत आपदा कोश बनाने का भी प्रावधान है। उक्त क़ानून की धारा 11 के तहत राष्ट्रीय योजना बनाने का भी प्रावधान है। दुर्भाग्य से न तो कोई योजना बनी, न संस्थान स्थापित हुआ। यही नहीं उक्त क़ानून की धारा 13 के तहत ये भी प्रावधान बनाया गया था की ऋण अदायगी के तहत भी छूट दी जाएगी। इसके अलावा ‘नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फ़ोर्स’ की धारा 44 व 46 के तहत नेशनल डिज़ास्टर रेस्पॉन्स फंड, धारा 47 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड तथा धारा 48 के तहत नैशनल डिज़ास्टर लिटिगेशन फंड को राज्यों में भी बनाने का प्रावधान है। धारा 72 के तहत आपदा के तहत सभी मौजूदा क़ानून निशप्रभावी रहेंगे। 


2005 से 2014 तक देश में डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी और 2014 से श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है। आपदा प्रबंधन के इन क़ानूनों की उपेक्षा करने के लिए ये दोनों सरकारें बराबर की ज़िम्मेदार हैं। 



उक्त क़ानून के अध्याय 10 के तहत दंडनीय अपराधों का प्रावधान भी है। धारा 55, 56 तथा 57 के तहत यदि कोई प्रांतीय सरकार या सरकारी विभाग आपदा प्रबंधन के समय उक्त क़ानून के प्रावधानों की अवहेलना करता है तो यह उसका दंडनीय अपराध माना जाए। कोविड काल में देश में हुए विभिन्न धर्मों के सार्वजनिक आयोजन अन्य राजनैतिक कार्यक्रमों का इतने वृहद् स्तर पर, बिना सावधानियाँ बरते, आयोजन करवाना या उनकी अनुमति देना भी इस क़ानून के अनुसार सम्बंधित व्यक्तियों को अपराधी की श्रेणी में खड़ा करता है। ख़ासकर तब जबकि पिछले वर्ष मार्च से आपदा प्रबंधन क़ानून लागू कर दिया गया था तथा धार 72 के तहत समस्त दूसरे क़ानून निष्प्रभावी थे। ऐसे में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की अनुमति के बिना, विभिन्न धार्मिक, राजनैतिक व सामाजिक आयोजन कराना क्रमशः राज्य सरकारों तथा भारत के चुनाव आयोग के सम्बंधित अधिकारियों को दोषी ठहराता है।


फ़िलहाल जो आपदा सामने है उससे निपटना सरकार और जनता की प्राथमिकता है। जब विधायक और सांसद तक चिकित्सा सुविधाएँ नहीं जुटा पाने के कारण गिड़गिड़ा रहे हैं क्योंकि इनकी देश भर में सरेआम काला बाज़ारी हो रही है। नौकरशाही इस आपदा प्रबंधन में किस हद तक नाकाम सिद्ध हुई है इसका प्रमाण है कि उत्तर प्रदेश के राजस्व बोर्ड के अध्यक्ष तक को 12 घंटे तक लखनऊ के सरकारी अस्पताल में बिस्तर नहीं मिला और जब मिला तो बहुत देर हो चुकी थी और उनका देहांत हो गया। इसलिए समय की माँग है कि ऑक्सिजन, दवाओं और अस्पतालों में बिस्तर के आवंटन और प्रबंधन का ज़िम्मा एक टास्क फ़ोर्स को सौंप देना चाहिए। प्रधान मंत्री श्री मोदी को फ़ौज और टाटा समूह जैसे बड़े औद्योगिक संगठनों को मिलाकर एक राष्ट्रीय समन्वय टास्क फ़ोर्स गठित करनी चाहिए जो इस आपदा से सम्बंधित हर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो।



अब जब भारत सरकार भारतीय वायु सेना को इस आपदा प्रबंधन में लगा रही है तो उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि हवाई जहाज़ अन्य वाहन एवं वायु सेना के सम्बंधित कर्मचारी व अधिकारी पूरी तरह से कोविड से बचाव करते हुए काम में लगाए जाएं। ऐसा न हो कि लापरवाही के चलते वायु सेना के लोग इस महामारी की चपेट में आ जाएं। सावधानी यह भी बरतनी होगी कि कोविड उपचार में जुटे डाक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों का उनकी क्षमता से ज़्यादा दोहन न हो। अन्यथा ये व्यवस्था भी चरमरा जाएगी।


Monday, April 26, 2021

द ग्रेट इण्डियन किचन


कल मलयालम भाषा की एक फ़िल्म देखी ‘द ग्रेट इण्डियन किचन’, जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। कहानी सपाट है और घर-घर की है। ग्रहणी कितनी भी पढ़ी लिखी और समझदार क्यों न हो उसकी सारी ज़िंदगी चौका-चूल्हा सम्भालने और घर के मर्दों के नख़रे उठाने में बीत जाती है। ज़्यादातर
  महिलाएँ इसे अपनी नियति मान कर सह लेती हैं। नारी मुक्ति की भावना से जो इसका विरोध करती हैं या तो उनके घर में तनाव पैदा हो जाता है या तो उन्हें घर छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। ऐसा ही कुछ इस फ़िल्म में दिखाया गया है।

 

ऐसा लगता है कि यह फ़िल्म वामपंथियों ने बनाई है और उस दौर में बनाई है जब केरल के सबरिमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में एक बड़ा विवाद छिड़ा हुआ था। ज़ाहिर है वामपंथियों का उद्देश्य हिंदू समाज की उन कुरीतियों पर हमला करना था जो उनकी दृष्टि में महिला विरोधी है। जैसे माहवारी के समय महिलाओं को अछूत की तरह रखना। ये फ़िल्म में दिखाया है। हो सकता है कि उन पाँच दिनों भारतीय पारम्परिक समाज में महिलाओं को यातना शिविर की तरह रहना पड़ता हो। पर क्या इसमें संदेह है कि वो पाँच दिन हर महिला की ज़िंदगी में न सिर्फ़ कष्टप्रद होते हैं बल्कि संक्रमण की सभी संभावना लिए हुए भी। अगर महिलाओं पर उन दिनों की जाने वाली ज़्यादतियों को दूर कर दिया जाए और महिला को उन पाँच दिन उसी तरह सम्मानित तरीक़े से घर में रखा जाए जैसे आज परिवार के किसी कोरोना संक्रमित सदस्य को रखा जाता है, तो क्या इसमें पूरे परिवार की भलाई नहीं होगी ? 



इसी तरह पुरुष और स्त्री से हर परिस्थिति में समान व्यवहार की अपेक्षा करने वाले बुद्धिजीवी ज़रा सोचें कि नौ महीने जब महिला गर्भवती होती है तो क्या उसकी वही कार्य क्षमता होती है जो सामान्य परिस्थिति में रहती है? शिशु जन्म के बाद तीन वर्ष तक बच्चे को अगर माँ का दूध और 24 घंटे लाड़-प्यार मिले तो वो बच्चा ज़्यादा स्वस्थ और प्रसन्नचित्त होता है बमुक़ाबले उन बच्चों के जिन्हें उनकी माँ नौकरी के दबाव में ‘डे केयर सेंटर’ में डाल देती हैं। अगर आर्थिक मजबूरी न हो क्या माँ का नौकरी करना ज़रूरी है ? 


इसी तरह सोचने वाली बात यह है कि जिस तरह का मिलावटी, प्रदूषित और ज़हरीला भोजन फ़ास्ट फ़ूड के नाम पर आज सभी बच्चों को दिया जा रहा है उससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चिंता का विषय बन गया है: विकासशील देशों में ही नहीं विकसित देशों में भी । 


हमारे ब्रज में कहावत है कि एक औरत तीन पीढ़ी सुधार देती है; अपने माँ-बाप या सास ससुर की, अपने पति और अपनी और अपने बच्चों की। पढ़ी लिखी महिला भी अगर घर पर रह कर पूरे परिवार के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आचरण और परिवेश पर ध्यान देती है तो वह समाज के लिए इतना बड़ा योगदान है कि किसी भी बड़ी से बड़ी नौकरी का वेतन इसकी बराबरी नहीं कर सकता। शर्त यह है कि उस महिला को परिवार में पूरा सम्मान और सामान अधिकार मिलें। 


वैदिक समाज में पुरुष और महिला एक से आभूषण और वस्त्र पहनते थे; अधोवस्त्र और अंगवस्त्र। महिलाओं के वक्ष भी उसी तरह खुले रहते थे जैसे पुरुषों के। अजन्ता एलोरा के भित्तिचित्र इसके प्रमाण हैं। हर राजनैतिक निर्णय, सामाजिक विवादों, धार्मिक कार्यक्रमों आदि में महिलाएँ बराबर की साझीदार होती थीं। इस व्यवस्था का पतन मध्ययुगीन सामंती  दौर में हो गया। पर आज आधुनिकता व बराबरी के नाम पर जो पनपाया जा रहा है उससे न तो महिलाएँ सुखी हैं और न परिवार। इसलिए फ़िल्म में जो वामपंथी समाधान दिखाया गया है वह उचित नहीं है। उस महिला का विद्रोह करके घर को छोड़ जाना कोई समाधान नहीं है। पर साथ ही उसके पति और ससुर का उसके प्रति व्यवहार भी निंदनीय है। जो प्रायः हर घर में देखा जाता है। हर परिवार के हर पुरुष को यह सोचना चाहिए कि अगर वे अपने परिवार की महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो उसका नुक़सान उस परिवार की तीन पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। 


आधुनिक समाज में बड़े शहरों में रहने वाले बहुत सारे पढ़े लिखे नौजवान स्वतः ही अपनी कामकाजी पत्नी के साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं। वे ना सिर्फ़ घर के काम काज में मदद करते हैं बल्कि बच्चे पालने में भी पूरा योगदान करते हैं। सन 2000 में मैं एक हफ़्ता अपने ममेरे भाई आनंद के घर न्यू यॉर्क में रहा। जो उन दिनों एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का अधिकारी था। उसकी पत्नी प्रीति संयुक्त राष्ट्र के एक प्रकाशन की संवाददाता थी और हफ़्ते में दो -तीन बार यूरोप के किसी प्रधान मंत्री का इंटरव्यू लेने या अंतराष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने यूरोप जाती थी। तब उनकी नई शादी हुई थी और मैं पहली बार उनके घर रहने गया था। मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि आनंद न सिर्फ़ नाश्ता खाना पकाता था बल्कि घर की साफ़ सफ़ाई भी बड़े क़ायदे से करता था। उसके बाद वे दोनों हॉंगकॉंग और सिंगापुर में भी तैनात रहे। उनके दो बच्चे हैं और वो ज़िंदगी में ऊँचे पदों पर रहे हैं। हम उनके घर हॉंगकॉंग और सिंगापुर भी रहने गए।हमें ये देख कर अच्छा लगा कि आज भी दोनों घर के सभी काम साझा करते हैं। हालांकि अब तो बरसों से उनके घर में एक हाउसकीपर महिला भी रहती है। पर ये उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि जब दो उच्च पदासीन व्यक्ति, अति व्यस्त अंतर्राष्ट्रीय जीवनशैली व आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद, बिना किसी आपसी तनाव के, अपने घर का संचालन और बच्चों का लालन-पालन मिल-जुलकर सहजता से कर सकते हैं तो वो जुगल जिनका जीवन इतना व्यस्त नहीं है ऐसा क्यों नहीं कर सकते? आज की शहरी ज़िंदगी में इस समझ की ज़्यादा ज़रूरत है।     

Monday, April 19, 2021

कोरोना आपका धर्म नहीं पूछता


पिछले वर्ष कोरोना ने जब अचानक दस्तक दी तो पूरी दुनिया थम गई थी। सदियों में किसी को कभी ऐसा भयावह अनुभव नहीं हुआ था। तमाम तरह की अटकलें और अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया। एक दूसरे देशों पर कोरोना फैलाने का आरोप लगने लगे। चीन को सबने निशाना बनाया। पर कुछ तो राज की बात है कोरोना कि दूसरी लहर में। जब भारत की स्वास्थ्य और प्रशासनिक व्यवस्था लगभग अस्त-व्यस्त हो गई है तो चीन में इस दूसरी लहर का कोई असर क्यों नहीं दिखाई दे रहा? क्या चीन ने इस महामारी के रोकथाम के लिए अपनी पूरी जनता को टीके लगवा कर सुरक्षित कर लिया है? 


कोविड की पिछली लहर आने के बाद से ही दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इसके मूल कारण और उसका तोड़ निकालने की मुहिम छेड़ दी थी। पर भारत में जिस तरह कुछ टीवी चैनलों और राजनैतिक दलों ने कोविड फैलाने के लिए तबलीकी जमात को ज़िम्मेदार ठहराया और उसके सदस्यों को शक की नज़र से देखा जाने लगा वो बड़ा अटपटा था। प्रशासन भी उनके पीछे पड़ गया। जमात के प्रांतीय अध्यक्ष के ख़िलाफ़ ग़ैर ज़िम्मेदाराना भीड़ जमा करने के आरोप में कई क़ानूनी नोटिस भी जारी किए गये। दिल्ली के निज़ामुद्दीन क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया गया। यही मान लिया गया कि चीन से निकला यह वाइरस सीधे तबलीकी जमात के कार्यक्रम का हिस्सा बनने के लिए ही आया था। ये बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया था। माना कि मुसलमानों को लक्ष्य करके भाजपा लगातार हिंदुओं को अपने पक्ष में संगठित करने में जुटी है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि जानता के बीच गैरवैज्ञानिक अंधविश्वास फैलाया जाए।   



जो भी हो शासन का काम प्रजा की सुरक्षा करना और समाज में सामंजस्य स्थापित करना होता है। इस तरह के ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये से समाज में अशांति और अराजकता तो फैली ही, जो ऊर्जा और ध्यान कोरोना के उपचार और प्रबंधन में लगना चाहिए थी वो ऊर्जा इस बेसिरपैर के अभियान में बर्बाद हो गई। हालत जब बेक़ाबू होने लगे तो सरकार ने कड़े कदम उठाए और लॉकडाउन लगा डाला। उस समय लॉकडाउन का उस तरह लगाना भी किसी के गले नहीं उतरा। सबने महसूस किया कि लॉकडाउन लगाना ही था तो सोच समझ कर व्यावहारिक दृष्टिकोण से लगाना चाहिए था। क्योंकि उस समय देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस महामारी का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए देश भर में काफ़ी अफ़रा तफ़री फैली। जिसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाजा करोड़ों गरीब मज़दूरों को झेलना पड़ा। बेचारे अबोध बच्चों के लेकर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर अपने गाँव पहुँचे। लॉकडाउन में सारा ध्यान स्वास्थ्य सेवाओं पर ही केंद्रित रहा। जिसकी वजह से धीरे धीरे स्थित नियंत्रण में आती गई। उधर वैज्ञानिकों के गहन शोध के बाद कोरोना की वैक्सीन तैयार कर ली और टीका अभियान भी चालू हो गया। जिससे एक बार फिर समाज में एक उम्मीद की किरण जागी। इसलिए सभी देशवासी वही कर रहे थे जो सरकार और प्रधान मंत्री उनसे कह रहे थे। फिर चाहे कोरोना भागने के लिए ताली पीटना हो या थाली बजाना। पूरे देश ने उत्साह से किया। 


ये बात दूसरी है कि इसके बावजूद जब करोड़ों का प्रकोप नहीं थमा तो देश में इसका मज़ाक़ भी खूब उड़ा। क्योंकि लोगों का कहना था कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था।


लेकिन हाल के कुछ महीनों में जब देश की अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर चलने लगी थी तो कोरोना की दूसरी लहर ने फिर से उम्मीद तोड़ दी है। आज हर तरफ़ से ऐसी सूचनाएँ आ रही हैं कि हर दूसरे घर में एक न एक संक्रमित व्यक्ति है। अब ऐसा क्यों हुआ? इस बार क्या फिर से उस धर्म विशेष के लोगों ने क्या एक और बड़ा जलसा किया? या सभी धर्मों के लोगों ने अपने-अपने धार्मिक कार्यक्रमों में भारी भीड़ जुटा ली और सरकार या मीडिया ने उसे रोका नहीं? तो क्या फिर अब इन दूसरे धर्मावलम्भियों को कोरोना भी दूसरी लहर के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाए? ये फिर वाहियात बात होगी। 


कोरोना का किसी धर्म से न पहले कुछ लेना देना था न आज है। सारा मामला सावधानी बरतने, अपने अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने और स्वास्थ्य सेवाओं के कुशल प्रबंधन का है। जिसमें कोताही से ये भयावह स्थित पैदा हुई है।


इस बार स्थित वाक़ई बहुत गम्भीर है। लगभग सारे देश से स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने की खबरें आ रही है। संक्रमित लोगों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है और अस्पतालों में इलाज के लिए जगह नहीं है। आवश्यक दवाओं का स्टॉक काफ़ी स्थानों पर ख़त्म हो चुका है। नई आपूर्ति में समय लगेगा। शमशान घाटों तक पर लाईनें लग गई हैं। स्थिति बाद से बदतर होती जा रही है। मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ़ के हाथ पैर फूल रहे हैं। 


इस अफ़रा तफ़री के लिए लोग चुनाव आयोग, केंद्र व राज्य सरकारों, राजनेताओं और धर्म गुरुओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। जिन्होंने चुनाव लड़ने या बड़े धार्मिक आयोजन करने के चक्कर में सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया। आम जनता में इस बात का भी भारी आक्रोश है कि देश में हुक्मरानों और मतदाताओं के लिए क़ानून के मापदंड अलग अलग हैं। जिसके मतों से सरकार बनती है उसे तो मास्क न लगाने पर पीटा जा रहा है या आर्थिक रूप से दंडित किया जा रहा है। जबकि हुक्मरान अपने स्वार्थ में सारे नियमों को तोड़ रहे हैं। सोशल मीडिया पर नॉर्वे का एक उदाहरण काफ़ी वाईरल हो रहा है वहाँ सरकार ने आदेश जारी किया था कि 10 से ज़्यादा लोग कहीं एकत्र न हों पर वहाँ की महिला प्रधान मंत्री ने अपने जन्मदिन की दावत में 13 लोगों को आमंत्रित कर लिया। इस पर वहाँ की पुलिस ने प्रधान मंत्री पर 1.75 लख रुपय का जुर्माना थोक दिया, यह कहते हुए अगर यह गलती किसी आम आदमी ने की होती तो पुलिस इतना भारी दंड नहीं लगाती। लेकिन प्रधान मंत्री ने नियम तोड़ा, जिनका अनुसरण देश करता है, इसलिए भारी जुर्माना लगाया। प्रधान मंत्री ने अपनी गलती मानी और जुर्माना भर दिया। हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते हुए नहीं थकते। पर क्या ऐसा कभी भारत में हो सकता है? हो सकता तो आज जनता इतनी बदहाली और आतंक में न जी रही होती।

Monday, April 12, 2021

कोरोना की दूसरी लहरः सरकार और जनता


पिछले साल हम अति उत्साह में अपना सीना तान रहे थे कि कोरोना को नियंत्रित करने में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल गया है। लेकिन आज हम फिर भयाक्रांत हैं। कोरोना से लड़ने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अपने अपने तरीके से भिन्न-भिन्न कदम उठा रही हैं। जहां असम, बंगाल और केरल जैसे चुनावी राज्यों में कोई प्रतिबंध नहीं है, वहीं दूसरे कई राज्यों में मास्क न पहनने पर पुलिस पिटाई भी कर रही है और चालान भी। ये बात लोगों की समझ में नहीं आ रही कि जिन राज्यों में चुनाव होता है वहाँ घुसने से कोरोना क्यों डरता है? इसका जवाब न तो किसी सरकार के पास है न तो किसी वैज्ञानिक के पास है।  


जिस तरह कुछ राज्यों में कोरोना की रोकथाम के लिए रात का कर्फ्यू लगाया गया है, उससे लोगों को भय सता रहा है कि कहीं चुनावों के बाद फिर से लॉकडाउन न लगा दिया जाए। पिछले लॉकडाउन का उद्योग और व्यापार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ा था, जिससे देश की अर्थव्यवस्था अभी उबर नहीं पाई है। सबसे ज्यादा मार तो छोटे व्यापारियों और कामगारों ने झेली। इसलिए आज कोई भी लॉकडाउन के पक्ष में नहीं है।  



छोटे व्यापारी की तो समझ में आती है लेकिन उद्योगपति अनिल अम्बानी के बेटे अनमोल अम्बानी तक ने ट्वीट की एक श्रृंखला पोस्ट कर पूछा है कि, ‘जब फिल्म अभिनेता शूटिंग कर सकते हैं, क्रिकेटर देर रात तक क्रिकेट खेल सकते हैं, नेता भारी जनसमूह के साथ रैलियां कर सकते हैं, तो व्यापार पर ही रोक क्यों? हर किसी का काम उनके लिए महत्वपूर्ण है।’ अनमोल ने इसके साथ ही अपने ट्वीट में कोरोना श्पैनडेमिकश् के प्रसार को रोकने के लिए लगाए जाने वाले लॉकडाउन को श्स्कैमडेमिकश् तक कह दिया। 


उधर भारत के वैज्ञानिकों ने दिन रात शोध और कड़ी मेहनत के बाद कोरोना का वैक्सीन बनाया है। पर बहुत कम लोगों को यह पता है कि कोरोना महामारी को वैक्सीन की ढाल देकर भारतीय कम्पनी भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोरोना की वैक्सीन ‘कोवैक्सिन’ की सफलता के पीछे हैदराबाद के समीप ‘जिनोम वैली’ का हाथ है। ‘जिनोम वैली’ असल में एक जीव विज्ञान के शोध का केंद्र है। इस समय यह दुनिया में तीसरे दर्जे पर है, जहां लाखों की तादाद में वैक्सीन की ईजाद और निर्माण होता है। 1996 में जब एक प्रवासी भारतीय वैज्ञानिक डा कृष्णा इला ने भारत बायोटेक कम्पनी की स्थापना ‘जिनोम वैली’ में की थी तो उन्हें इस बात की जरा भी कल्पना नहीं होगी कि एक दिन श्जिनोम वैली’ ही दुनिया को कोरोना महामारी से लड़ने वाली वैक्सीन प्रदान करेगी।


‘जिनोम वैली’ को विकसित करने में तेलंगाना काडर के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी बी पी आचार्य और उनकी टीम महत्वपूर्ण योगदान रहा। जिन्होंने रात-दिन एक कर के इसे कामयाबी को हासिल किया है। आज ‘जिनोम वैली’ जीव विज्ञान का एक ऐसा केंद्र बन चुका है जहां 300 से अधिक दवा कम्पनियाँ हैं। जो न सिर्फ कोरोना व अन्य बीमारियों के वैक्सीन का निर्माण कर रही हैं, बल्कि 20 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार भी दे रही है। यह देश के लिए एक गर्व की बात है। कई दशकों पहले उठाए गए इस कदम की बदौलत आज हम कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में सक्षम हुए हैं। यह डा कृष्णा इला की दूरदर्शिता और बी पी आचार्य जैसे कर्मठ अधिकारियों की वजह से ही संभव हुआ है।

 

बावजूद इस सबके कोरोना की दूसरी लहर के साथ कोरोना पूरे दम से लौट आया है। कुछ ही महीनों पहले जब इसका असर कम होता दिखा तो लोगों ने इस विषय में सावधानी बरतना कम कर दिया था। चोटिल अर्थव्यवस्था, राज्यों में चुनाव और अन्य मुद्दों पर जनता का ध्यान ज्यादा जा रहा था। लेकिन हाल की कुछ हफ्तों में कोरोना ने जो तेजी पकड़ी है उससे आम आदमी और सरकारी तंत्र एक बार फिर से चिंता में है।


उधर दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। इस फैसले के अनुसार यदि आप अपनी बंद गाड़ी में अकेले भी सफर कर रहे हैं तो भी मास्क लगाना अनिवार्य है। यह बात समझ से परे है इसलिए सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर काफी बहस छिड़ गई है। लोग प्रश्न पूछ रहे हैं कि बंद गाड़ी में अकेले सफर करने वाले को कोरोना के संक्रमण का खतरा अधिक है या राजनैतिक रैलियों और कार्यक्रमों में बिना मास्क आने वाली भीड़ को? उधर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का एक वीडियो वायरल हो रहा है जहां कुछ अधिकारी एक दुकानदार को ठीक से मास्क न पहनने पर धमकाते हुए नजर आ रहे हैं। गर्मागर्मी  के बाद मामला शांत तो हो जाता है लेकिन उस वीडियो में यह स्पष्ट दिखाई देता है कि जो अधिकारी उस व्यापारी को धमका रहा है उसने स्वयं मास्क ठीक से नहीं लगा रखा। ऐसे दोहरे मापदंड क्यों अपनाए जा रहे हैं? कई शहरों में पुलिस वाले मास्क न पहनने पर आम लोगों की बेरहमी से पिटाई भी कर रहे हैं जिससे भड़की जनता ने भी पुलिसवालों की पिटाई की है। सरकारों को पुलिसवालों को ये निर्देश देना होगा कि वे नियमों के पालन में कड़ाई तो बरतें पर मानवीय संवेदनशीलता के साथ। अन्यथा समाज में अराजकता फैल जाएगी। पर साथ ही कोरोना की दूसरी लहर में बढ़ते हुए मरीजों और मौतों को भी हमें गम्भीरता से लेना होगा और सभी सावधानियाँ बरतनी होगी। लॉकडाउन की स्थित न आए इसके लिए हम सबको भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।


संतोष की बात यह है कि कोरोना की दूसरी लहर भारत में तब आई है जब हमारे पास इससे लड़ने के लिए वैक्सीन के रूप में एक नहीं बल्कि दो-दो हथियार हैं। पर अभी तो देश के कुछ ही लोगों को वैक्सीन मिली है। फिर भी भारत ने कोरोना वैक्सीन को दूसरे देशों में भेज दिया है। यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दृष्टि से सराहनीय कदम हो सकता है, पर देशवासियों की सेहत और जिंदगी बचाने की दृष्टि से सही कदम नहीं था। सरकारों को वैक्सीन लगाने की मुहिम को और तेज करना होगा, जिससे इस महामारी के कहर से बचा जा सके।