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Monday, April 19, 2021

कोरोना आपका धर्म नहीं पूछता


पिछले वर्ष कोरोना ने जब अचानक दस्तक दी तो पूरी दुनिया थम गई थी। सदियों में किसी को कभी ऐसा भयावह अनुभव नहीं हुआ था। तमाम तरह की अटकलें और अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया। एक दूसरे देशों पर कोरोना फैलाने का आरोप लगने लगे। चीन को सबने निशाना बनाया। पर कुछ तो राज की बात है कोरोना कि दूसरी लहर में। जब भारत की स्वास्थ्य और प्रशासनिक व्यवस्था लगभग अस्त-व्यस्त हो गई है तो चीन में इस दूसरी लहर का कोई असर क्यों नहीं दिखाई दे रहा? क्या चीन ने इस महामारी के रोकथाम के लिए अपनी पूरी जनता को टीके लगवा कर सुरक्षित कर लिया है? 


कोविड की पिछली लहर आने के बाद से ही दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इसके मूल कारण और उसका तोड़ निकालने की मुहिम छेड़ दी थी। पर भारत में जिस तरह कुछ टीवी चैनलों और राजनैतिक दलों ने कोविड फैलाने के लिए तबलीकी जमात को ज़िम्मेदार ठहराया और उसके सदस्यों को शक की नज़र से देखा जाने लगा वो बड़ा अटपटा था। प्रशासन भी उनके पीछे पड़ गया। जमात के प्रांतीय अध्यक्ष के ख़िलाफ़ ग़ैर ज़िम्मेदाराना भीड़ जमा करने के आरोप में कई क़ानूनी नोटिस भी जारी किए गये। दिल्ली के निज़ामुद्दीन क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया गया। यही मान लिया गया कि चीन से निकला यह वाइरस सीधे तबलीकी जमात के कार्यक्रम का हिस्सा बनने के लिए ही आया था। ये बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया था। माना कि मुसलमानों को लक्ष्य करके भाजपा लगातार हिंदुओं को अपने पक्ष में संगठित करने में जुटी है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि जानता के बीच गैरवैज्ञानिक अंधविश्वास फैलाया जाए।   



जो भी हो शासन का काम प्रजा की सुरक्षा करना और समाज में सामंजस्य स्थापित करना होता है। इस तरह के ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये से समाज में अशांति और अराजकता तो फैली ही, जो ऊर्जा और ध्यान कोरोना के उपचार और प्रबंधन में लगना चाहिए थी वो ऊर्जा इस बेसिरपैर के अभियान में बर्बाद हो गई। हालत जब बेक़ाबू होने लगे तो सरकार ने कड़े कदम उठाए और लॉकडाउन लगा डाला। उस समय लॉकडाउन का उस तरह लगाना भी किसी के गले नहीं उतरा। सबने महसूस किया कि लॉकडाउन लगाना ही था तो सोच समझ कर व्यावहारिक दृष्टिकोण से लगाना चाहिए था। क्योंकि उस समय देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इस महामारी का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए देश भर में काफ़ी अफ़रा तफ़री फैली। जिसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाजा करोड़ों गरीब मज़दूरों को झेलना पड़ा। बेचारे अबोध बच्चों के लेकर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर अपने गाँव पहुँचे। लॉकडाउन में सारा ध्यान स्वास्थ्य सेवाओं पर ही केंद्रित रहा। जिसकी वजह से धीरे धीरे स्थित नियंत्रण में आती गई। उधर वैज्ञानिकों के गहन शोध के बाद कोरोना की वैक्सीन तैयार कर ली और टीका अभियान भी चालू हो गया। जिससे एक बार फिर समाज में एक उम्मीद की किरण जागी। इसलिए सभी देशवासी वही कर रहे थे जो सरकार और प्रधान मंत्री उनसे कह रहे थे। फिर चाहे कोरोना भागने के लिए ताली पीटना हो या थाली बजाना। पूरे देश ने उत्साह से किया। 


ये बात दूसरी है कि इसके बावजूद जब करोड़ों का प्रकोप नहीं थमा तो देश में इसका मज़ाक़ भी खूब उड़ा। क्योंकि लोगों का कहना था कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था।


लेकिन हाल के कुछ महीनों में जब देश की अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर चलने लगी थी तो कोरोना की दूसरी लहर ने फिर से उम्मीद तोड़ दी है। आज हर तरफ़ से ऐसी सूचनाएँ आ रही हैं कि हर दूसरे घर में एक न एक संक्रमित व्यक्ति है। अब ऐसा क्यों हुआ? इस बार क्या फिर से उस धर्म विशेष के लोगों ने क्या एक और बड़ा जलसा किया? या सभी धर्मों के लोगों ने अपने-अपने धार्मिक कार्यक्रमों में भारी भीड़ जुटा ली और सरकार या मीडिया ने उसे रोका नहीं? तो क्या फिर अब इन दूसरे धर्मावलम्भियों को कोरोना भी दूसरी लहर के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाए? ये फिर वाहियात बात होगी। 


कोरोना का किसी धर्म से न पहले कुछ लेना देना था न आज है। सारा मामला सावधानी बरतने, अपने अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने और स्वास्थ्य सेवाओं के कुशल प्रबंधन का है। जिसमें कोताही से ये भयावह स्थित पैदा हुई है।


इस बार स्थित वाक़ई बहुत गम्भीर है। लगभग सारे देश से स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने की खबरें आ रही है। संक्रमित लोगों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है और अस्पतालों में इलाज के लिए जगह नहीं है। आवश्यक दवाओं का स्टॉक काफ़ी स्थानों पर ख़त्म हो चुका है। नई आपूर्ति में समय लगेगा। शमशान घाटों तक पर लाईनें लग गई हैं। स्थिति बाद से बदतर होती जा रही है। मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ़ के हाथ पैर फूल रहे हैं। 


इस अफ़रा तफ़री के लिए लोग चुनाव आयोग, केंद्र व राज्य सरकारों, राजनेताओं और धर्म गुरुओं को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। जिन्होंने चुनाव लड़ने या बड़े धार्मिक आयोजन करने के चक्कर में सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया। आम जनता में इस बात का भी भारी आक्रोश है कि देश में हुक्मरानों और मतदाताओं के लिए क़ानून के मापदंड अलग अलग हैं। जिसके मतों से सरकार बनती है उसे तो मास्क न लगाने पर पीटा जा रहा है या आर्थिक रूप से दंडित किया जा रहा है। जबकि हुक्मरान अपने स्वार्थ में सारे नियमों को तोड़ रहे हैं। सोशल मीडिया पर नॉर्वे का एक उदाहरण काफ़ी वाईरल हो रहा है वहाँ सरकार ने आदेश जारी किया था कि 10 से ज़्यादा लोग कहीं एकत्र न हों पर वहाँ की महिला प्रधान मंत्री ने अपने जन्मदिन की दावत में 13 लोगों को आमंत्रित कर लिया। इस पर वहाँ की पुलिस ने प्रधान मंत्री पर 1.75 लख रुपय का जुर्माना थोक दिया, यह कहते हुए अगर यह गलती किसी आम आदमी ने की होती तो पुलिस इतना भारी दंड नहीं लगाती। लेकिन प्रधान मंत्री ने नियम तोड़ा, जिनका अनुसरण देश करता है, इसलिए भारी जुर्माना लगाया। प्रधान मंत्री ने अपनी गलती मानी और जुर्माना भर दिया। हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते हुए नहीं थकते। पर क्या ऐसा कभी भारत में हो सकता है? हो सकता तो आज जनता इतनी बदहाली और आतंक में न जी रही होती।

Monday, March 15, 2021

कुंभ का बदलता स्वरूप


हरिद्वार में कुम्भ शुरू हो चुका है। वृंदावन में कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक पूरा महीना चली पर आज कुम्भ का स्वरूप कितना बदल गया है इस पर मंथन करने की ज़रूरत है। भगवत गीता में भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनकी शरण में 4 तरह के लोग आते हैं, आर्त, अर्थारतु, जिज्ञासु व ज्ञानी। यह सिद्धांत हर कुम्भ में लागू होता है। एक तरफ उन लोगों का समूह उमड़ता है, जो अपने जीवन में कुछ भौतिक उपलब्धि हासिल करना चाहते हैं। कुंभ में आकर उन्हें लगता है कि उनके पुण्य की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि उनके कष्ट स्वतः दूर हो जाएंगे।


दूसरी भीड़ उन साधन संपन्न सेठ और व्यापारियों की होती है, जो अपने व्यापार की वृद्धि की कामना लेकर कुंभ में विराजे हुए संतों के अखाड़ों में नतमस्तक होते हैं। तीसरी भीड़ उन लोगों की होती है, जो वहां इस उद्देश्य से आते हैं  कि उन्हें संतों का सानिध्य मिले और वे भगवान के विषय में कुछ जानें और अंतिम श्रेणी में वे लोग होते हैं, जिन्हें संसार से कुछ खास लेना-देना नहीं। उनको तो धुन लगी है, केवल भगवत् प्राप्ति की। स्पष्ट है कि चारों श्रेणी के लोगों को अपनी मनोकामना पूर्ण होती दिखाई देती  होगी, तभी तो वे ऐसे हर कुंभ या उत्सव में कष्ट उठाकर भी शामिल होते हैं।



पर जो बात आजकल होने वाले कुंभ के आयोजनों में दिखाई देती है उससे तो यह लगता है कि हमारी सनातन परम्परा के सशक्त स्तंभ कुंभ अपने मूल उद्देश्य से भटक गये हैं। पहले कुंभ एक अवसर होता था, जहां सारे देश के संत-महात्मा और विद्वतजन बैठकर उन प्रश्नों के समाधान खोजते थे, जिनमें प्रांतीय स्तर पर हिंदू समाज उद्वेलित रहता था। कुंभ से जो समाधान मिलता था, वह सारा देश अपना लेता था। अब शायद ऐसा कुछ नहीं होता और अगर होता भी है, तो उसका स्वरूप आध्यात्मिक कम और राजनैतिक ज्यादा होता है। यही बात अखाड़ों पर भी लागू होती है। शुद्ध मन से कुंभ आने वाले संत अपनी साधना में जुटे रहते हैं, उनके अखाड़ों में वैभव की छाया भी नहीं रहती। पर दूसरी तरफ इतने विशाल और वैभवशाली अखाड़े बनते हैं कि पांच सितारा होटल के निर्माता भी शरमा जाएं। इस प्रकार की आर्थिक असमानता कुंभ के सामाजिक ताने-बाने को असंतुलित कर देती है, जिसकी टीस कई संतों के मन में देखी जाती है।


कलियुग का प्रभाव कहकर हम भले ही अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लें, पर हकीकत यह है कि अपने सभी तीज-त्यौहारों का स्वरूप अब व्यवसायिक होता जा रहा है। कुंभ में इसका प्रभाव व्यापक रूप से देखने को मिलता है। यह स्वस्थ लक्षण नहीं है। इस पर सरकार को या धर्माचार्यों को विचार करके पूरे कुंभ का स्वरूप आध्यात्मिक बनाना चाहिए। अन्यथा कुंभ और शहरों में लगने वाली आम नुमाइशों में कोई भेद नहीं रह जाएगा। जैसे नुमाइशों में तरह-तरह के विशाल बिजली के झूले, अनेक तरह के उत्पादों की दुकानें और दूसरे मनोरंजन के साधन उपलब्ध होते हैं वही सब अब कुम्भ में भी होने लगा है। इसके कारण कुम्भ में आने वाली भीड़ का अधिकतर हिस्सा वहाँ केवल मौज मस्ती और चाट पकौड़ी के लिए आता है। सरकारें कह सकती हैं कि जनता का मनोरंजन करना कोई अपराध नहीं है। पर सोचने वाली बात यह है कि आज मनोरंजन के संसाधन इतनी भारी मात्रा में हर जगह उपलब्ध हैं कि जनता के पास काफ़ी विकल्प मौजूद हैं। इसलिए इस मानसिकता से बचना चाहिए। कुम्भ में इन सबके प्रवेश से उसका उद्देश्य और आध्यात्मिक स्वरूप दोनों नष्ट हो रहे हैं। इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पहले कुम्भ में सरकार के कुछ मंत्रालयों के प्रचार के लिए कुछ पंडाल लगते थे। जैसे स्वास्थ्य मंत्रालय, कृषि मंत्रालय या सूचना विभाग वहाँ तक तो ठीक था। पर अब तो हर कुम्भ में हर तीसरा होर्डिंग सरकार की योजनाओं को प्रचारित करने वाला लगाया जाने लगा है। जिसमें सत्तारूढ दल के नेताओं के बड़े-बड़े चित्र भी लगे होते हैं। ज़रा सोचिए जिन चेहरों को रात दिन टीवी पे देखते हैं उन्हें ही अगर कुम्भ में आकर भी देखना पड़े तो इसका मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? वहाँ तो संतों की वाणी, वैदिक साहित्य, भारत के तीर्थ स्थलों और विभिन सम्प्रदायों की सूचना देने वाले होर्डिंग होने चाहिए जिससे वहाँ आने वालों की आध्यात्मिक चेतना बढ़े। राजनैतिक होर्डिंग तो कुम्भ को चुनावी माहौल में रंग देते हैं। इसलिए सरकारों और नेताओं को इस लोभ से बचना चाहिए।   


यह सही है कि हम सब इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि सरलता का जीवन अब हमसे कोसों दूर हो गया है। जबकि तीर्थ जाना या कुंभ में जाना तपश्चर्या का एक भाग होना चाहिए, तभी हमारी आध्यात्मिकता चेतना और सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह पाएगी।


हमेशा से कुंभ के बारे में अंतिम निर्णय अखाड़ा परिषद् का रहता है। यह बात सही है कि सरकारें हजारों करोड़ रूपया कुंभ के आयोजन में खर्च करती हैं, पर वह तो उनका कर्तव्य है।


यही बात व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को भी सोचनी चाहिए कि हर चीज बिकाऊ माल नहीं होती। कम से कम धर्म का क्षेत्र तो व्यापार से अलग रखें। कुंभ ही क्या, आज तो हर तीर्थस्थल पर भवन निर्माताओं से लेकर अनेक उपभोक्ता सामिग्री बेचने वालों ने कब्जा कर लिया है। जो अपने विशाल होर्डिंग लगाकर उस स्थान की गरिमा को ही समाप्त कर देते हैं। इसका विरोध समाज की तरफ से भी होना चाहिए। तीर्थस्थलों व कुंभ-स्थलों पर जो भी विज्ञापन हों, वो धर्म से जुड़े हों। उसके प्रायोजक के रूप में कोई कंपनी अपना नाम भले ही दे दे, पर अपने उत्पादनों के प्रचार का काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इससे आने वाले श्रद्धालुओं का मन भटकता है और उनके आने का उद्देश्य कमजोर पड़ता है।


दरअसल धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार हमारी चेतना का अभिन्न अंग हैं। समाज कितना भी बदल जाए, राजनैतिक उठापटक कितनी भी हो ले, व्यक्तिगत जीवन में भी उतार-चढ़ाव क्यों न आ जाएं, पर यह चेतना मरती नहीं, जीवित रहती है। यही कारण है कि तमाम विसंगतियों के बावजूद मानव सागर सा ऐसे अवसरों पर उमड़ पड़ता है, जो भारत की सनातन संस्कृति की जीवंतता को सिद्ध करता है।


आवश्यकता इस बात की है कि सभी धर्मप्रेमी और हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले राजनैतिक लोग अपने उत्सवों, पर्वों और तीर्थस्थलों के परिवेश के विषय में सामूहिक सहमति से ऐसे मापदंड स्थापित करें कि इन स्थलों का आध्यात्मिक वैभव उभरकर आए। क्योंकि भारत का तो वही सच्चा खजाना है। अगर भारत को फिर से विश्वगुरू बनना है, तो उपभोक्तावाद के शिकंजे से अपनी धार्मिक विरासत को बचाना होगा। वरना हम अगली पीढ़ियों को कुछ भी शुद्ध देकर नहीं जाएंगे। वह एक हृदयविदारक स्थिति होगी।

Monday, May 23, 2016

कुंभ मेरी नजर में

भगवत गीता में भगवान अर्जुन को बताते हैं कि उनकी शरण में 4 तरह के लोग आते हैं, आर्त, अर्थारतु, जिज्ञासु व ज्ञानी। यह सिद्धांत हाल ही में संपन्न हुए सिंहस्थ कुंभ में बहुत साफतौर पर उजागर हुआ। एक तरफ उन लाखों लोगों का समूह वहां उमड़ा, जो अपने जीवन में कुछ भौतिक उपलब्धि हासिल करना चाहते हैं। कुंभ में आकर उन्हें लगता है कि उनके पुण्य की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि उनके कष्ट स्वतः दूर हो जाएंगे।
दूसरी भीड़ उन साधन संपन्न सेठ और व्यापारियों की थी, जो अपने व्यापार की वृद्धि की कामना लेकर कुंभ में विराजे हुए संतों के अखाड़ों में नतमस्तक होते हैं। तीसरी भीड़ उन लोगों की थी, जो वहां इस उद्देष्य से आए थे कि उन्हें संतों का सानिध्य मिले और वे भगवान के विषय में कुछ जानें और अंतिम श्रेणी में वे लोग वहां थे, जिन्हें संसार से कुछ खास लेना-देना नहीं। उनको तो धुन लगी है, केवल भगवत प्राप्ति की। स्पष्ट है कि चारों श्रेणी के लोगों को अपनी मनोकामना पूर्ण होती दिखी होगी, तभी तो वे ऐसे हर कुंभ या उत्सव में कष्ट उठाकर भी शामिल होते हैं।
जो बात इस बात कुंभ में उभरी, वो यह कि कुंभ अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है। पहले कुंभ एक मौका होता था, जहां सारे देश के संत-महात्मा और विद्वतजन बैठकर उन प्रश्नों के समाधान खोजते थे, जिनमें प्रांतीयस्तर पर हिंदू समाज उद्वेलित रहता था। कुंभ से जो समाधान मिलता था, वह सारा देश अपना लेता था। अब शायद ऐसा कुछ नहीं होता और अगर होता भी है, तो उसका स्वरूप आध्यात्मिक कम और राजनैतिक ज्यादा होता है। यही बात अखाड़ों पर भी लागू होती है। शुद्ध मन से कुंभ आने वाले संत अपनी साधना में जुटे रहते हैं, उनके अखाड़ों में वैभव की छाया भी नहीं रहती। पर दूसरी तरफ इतने विशाल और वैभवशाली अखाड़े बनते हैं कि 5 सितारा होटल के निर्माता भी शर्मा जाएं। इस प्रकार की आर्थिक असमानता कुंभ के सामाजिक ताने-बाने को असंतुलित कर देती है, जिसकी टीस कई संतों के मन में देखी गई।
कलियुग का प्रभाव कहकर हम भले ही अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लें, पर हकीकत यह है कि अपने सभी तीज-त्यौहारों का स्वरूप अब व्यवसायिक होता जा रहा है। कुंभ में इसका प्रभाव व्यापक रूप से देखने को मिलता है। यह स्वस्थ लक्षण नहीं है। इस पर सरकार को या धर्माचार्यों को विचार करके पूरे कुंभ का स्वरूप आध्यात्मिक बनाना चाहिए। अन्यथा कुंभ और शहरों में लगने वाली आम नुमाइंशों में कोई भेद नहीं रह जाएगा।
यह सही है कि हम सब इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि सरलता का जीवन अब हमसे कोसों दूर हो गया है। जबकि तीर्थ जाना या कुंभ में जाना तपस्यचर्या का एक भाग होना चाहिए, तभी हमारी आध्यात्मिकता चेतना और सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह पाएगी।

हमेशा से कुंभ के बारे में अंतिम निर्णय अखाड़ा परिषद् का रहता है। यह बात सही है कि सरकारें हजारों करोड़ रूपया कुंभ के आयोजन में खर्च करती हैं, पर वह तो उनका कर्तव्य है।
यही बात व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को भी सोचनी चाहिए कि हर चीज बिकाऊ माल नहीं होती। कम से कम धर्म का क्षेत्र तो व्यापार से अलग रखें। कुंभ ही क्या, आज तो हर तीर्थस्थल पर भवन निर्माताओं से लेकर अनेक उपभोक्ता सामिग्री बेचने वालों ने कब्जा कर लिया है। जो अपने विशाल होर्डिंग लगाकर उस स्थान की गरिमा को ही समाप्त कर देते हैं। इसका विरोध समाज की तरफ से भी होना चाहिए। तीर्थस्थलों व कुंभस्थलों पर जो भी विज्ञापन हों, वो धर्म से जुड़े हों। उसके प्रायोजक के रूप में कोई कंपनी अपना नाम भले ही दे दे, पर अपने उत्पादनों के प्रचार का काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इससे आने वाले श्रद्धालुओं का मन भटकता है और उनके आने का उद्देश्य कमजोर पड़ता है।
दरअसल धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार हमारी चेतना का अभिन्न अंग हैं। समाज कितना भी बदल जाए, राजनैतिक उठापटक कितनी भी हो ले, व्यक्तिगत जीवन में भी उतार-चढ़ाव क्यों न आ जाएं, पर यह चेतना मरती नहीं, जीवित रहती है। यही कारण है कि तमाम विसंगतियों के बावजूद मानव सागर सा ऐसे अवसरों पर उमड़ पड़ता है, जो भारत की सनातन संस्कृति की जीवंतता को सिद्ध करता है।
आवश्यकता इस बात की है कि सभी धर्मप्रेमी और हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले राजनैतिक लोग अपने उत्सवों, पर्वों और तीर्थस्थलों के परिवेश के विषय में सामूहिक सहमति से ऐसे मापदंड स्थापित करें कि इन स्थलों का आध्यात्मिक वैभव उभरकर आए। क्योंकि भारत का तो वही सच्चा खजाना है। अगर भारत को फिर से विश्वगुरू बनना है, तो उपभोक्तावाद के शिकंजे से अपनी धार्मिक विरासत को बचाना होगा। वरना हम अगली पीढ़ियों को कुछ भी शुद्ध देकर नहीं जाएंगे। वह एक हृदयविदारक स्थिति होगी।