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Monday, July 25, 2022

अम्मा ने बनाया भारत का सबसे बड़ा अस्पताल


 

आम तौर पर ज़्यादातर मशहूर धर्माचार्य कोरपोरेट ज़िंदगी जीते हैं। महलनुमा आश्रमों में रहते हैं। महंगी गाड़ियों में घूमते हैं। हीरे जवाहरात से लदे रहते हैं। सैंकड़ों करोड़ रुपए के निवेश करते हैं। अमीरों के पीछे भागते हैं और ग़रीबों को हिक़ारत की नज़र से देखते हैं। पर दक्षिण भारत के केरल राज्य में मछुआरों की बस्ती में एक दरिद्र परिवार में जन्मीं माता अमृतानंदमयी मां ‘अम्मा’ एक अपवाद हैं। जिनका पूरा जीवन ग़रीबों और ज़रूरतमंदों की सेवा के लिए ही समर्पित है। पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों के जीवन में सुख देने वाली ‘अम्मा’ जनसेवा के क्षेत्र में एक और ऐतिहासिक कदम रखने जा रही हैं। आगामी 24 अगस्त को फ़रीदाबाद में अम्मा के नए अस्पताल का उद्घाटन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। 


133 एकड़ भूमि में फैला ये अस्पताल भारत का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र का अस्पताल है। कोच्चि,(केरल) में प्रतिष्ठित 1,200 बिस्तरों वाले अमृता अस्पताल के बाद यह देश में अम्मा का दूसरा बड़ा अस्पताल होगा। केरल के इस अस्पताल को 25 साल पहले माता अमृतानंदमयी मठ द्वारा स्थापित किया गया था। फरीदाबाद के सेक्टर-88 में फैला यह अस्पताल 1 करोड़ वर्ग फुट का होगा। जिसमें एक 14 मंजिल ऊंची टॉवर है, जहां प्रमुख चिकित्सा सुविधाओं की मदद से विभिन्न बीमारियों के रोगियों का इलाज होगा।



अम्मा के इस अस्पताल की 81 विशिष्टताओं में न्यूरोसाइंसेस, गैस्ट्रो-साइंसेस, ऑन्कोलॉजी, रीनल साइंस, हड्डी रोग, कार्डियक साइंस और स्ट्रोक और मां व बच्चे जैसे उत्कृष्टता के आठ केंद्र शामिल होंगे। 2400 बिस्तरों के लक्ष्य वाले इस अस्पताल में इस साल 500 बिस्तरों के साथ मरीज़ों का इलाज चरणबद्ध तरीक़े से चालू किया जाएगा। आने वाले दो वर्षों में, यह संख्या बढ़कर 750 बिस्तरों और पांच वर्षों में 1,000 बिस्तरों तक हो जाएगी। ग़ौरतलब है कि पूरी तरह से चालू होने पर अस्पताल में 800 से अधिक डॉक्टरों सहित 10,000 लोगों का स्टाफ तैनात होगा। अस्पताल में कुल 2,400 बेड होंगे, जिसमें 534 क्रिटिकल केयर बेड शामिल हैं, जो भारत में सबसे अधिक होंगे।


64 मॉड्यूलर ऑपरेशन थिएटर, सबसे उन्नत इमेजिंग सेवाएं, पूरी तरह से स्वचालित रोबोट प्रयोगशाला, उच्च-सटीक विकिरण ऑन्कोलॉजी, सबसे आधुनिक परमाणु चिकित्सा और नैदानिक सेवाओं के लिए अत्याधुनिक 9 कार्डियक और इंटरवेंशनल कैथ लैब भी होंगे।


फरीदाबाद में अल्ट्रा-आधुनिक अमृता अस्पताल कम कार्बन पदचिह्न के साथ भारत की सबसे बड़ी ग्रीन-बिल्डिंग हेल्थकेयर परियोजनाओं में से एक होगा। यह एक एंड-टू-एंड पेपरलेस सुविधा है, जिसमें शून्य अपशिष्ट निर्वहन होता है। मरीजों के तेजी से परिवहन के लिए परिसर में एक हेलीपैड और एक 498 कमरों वाला गेस्ट हाउस भी है, जहां मरीजों के साथ आने वाले परिचारक रह सकते हैं।

      

अम्मा की संस्था द्वारा चलाई जा रही सेवाओं का मुख्य उद्देश्य दीनहीन लोगों की निःस्वार्थ मदद करना है। मसलन, उनके सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में गरीब और अमीर दोनों का एक जैसा इलाज होता है। पर गरीब से फीस उसकी हैसियत अनुसार नाम मात्र की ली जाती है। आज जब राम रहीम, आसाराम, राधे मां, रामलाल, जैसे वैभव में आंकठ डूबे ढोंगी धर्मगुरूओं का जाल बिछ चुका है, तब गरीबों के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाली ये अम्मा कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं हो सकतीं। 


आज टी.वी. चैनलों पर स्वयं को परम पूज्य बताकर या बाइबल की शिक्षा के नाम पर जादू-टोने दिखाकर या इस्लाम पर मंडरा रहे खतरे बताकर, धर्म की दुकानें चलाने वालों की एक लंबी कतार है। ये ऐसे ‘धर्मगुरू’ हैं, जिनके सानिध्य में आपकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत नहीं होती, बल्कि भौतिक इच्छाएं बढ़ जाती हैं। जबकि होना इसके विपरीत चाहिए था। पर, प्रचार का जमाना है। चार आने की लागत वाले स्वास्थ्य विरोधी शीतल पेयों की बोतल 20 रूपए की बेची जा रही है। इसी तरह धर्मगुरू विज्ञापन एजेंसियों का सहारा लेकर टीवी, चैनलों के माध्यम से, अपनी दुकान अच्छी चला रहे हैं और हजारों करोड़ के साम्राज्य को भोग रहे हैं। 


जबकि दूसरी ओर केरल की ये अम्मा गरीबों का दुख निवारण करने के लिए सदैव तत्पर रहती है। इसका ही परिणाम है कि केरल में जहां गरीबी व्याप्त थी और उसका फायदा उठाकर भारी मात्रा में धर्मांतरण किए जा रहे थे, वहीं आज अम्मा की सेवाओं के कारण धर्मांतरण बहुत तेजी से रूका है। हिंदू धर्मावलंबी अब अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए मिशनरियों के प्रलोभनों में फंसकर अपना धर्म नहीं बदलते। पर, इस स्थिति को पाने के लिए अम्मा ने वर्षों कठिन तपस्या की है। 


कृष्ण भाव में तो वे जन्म से ही डूबी रहती थीं। पर उनके रूप, रंग और इस असामान्य व्यवहार के कारण उन्हें अपने परिवार से भारी यातनाएं झेलनी पड़ीं। वयस्क होने तक अपने घर में नौकरानी से ज्यादा उनकी हैसियत नहीं थी। जिसकी दिनचर्या सूर्योदय से पहले शुरू होती और देर रात तक खाना बनाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना, गाय चराना, नाव खेकर दूर से मीठा पानी लाना, क्योंकि गांव में खारा पानी ही था, गायों की सेवा करना, बीमारों की सेवा करना, यह सब कार्य अम्मा को दिन-रात करने पड़ते थे। ऊपर से उनके साथ हर वक्त मारपीट की जाती थी। उनके बाकी भाई-बहिनों को खूब पढ़ाया लिखाया गया। पर, अम्मा केवल चौथी पास रह गईं। इन विपरीत परिस्थितियों में भी अम्मा ने कृष्ण भक्ति और मां काली की भक्ति नहीं त्यागी। इतनी तीव्रता से दिन-रात भजन किया कि उनकी साधना सिद्ध हो गई। कलियुग के लोग चमत्कार देखना चाहते हैं, पर अम्मा स्वयं को सेविका बताकर चमत्कार दिखाने से बचती रहीं। पर ये चमत्कार क्या कम है कि वे आज तक दुनिया भर में जाकर 5 करोड़ से अधिक लोगों को गले लगा चुकी हैं। उनको सांत्वना दे चुकी हैं, उनके दुख हर चुकी हैं और उन्हें सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती रही हैं। 


इस चमत्कार के बावजूद हमारी ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था ने एक महान आत्मा को मछुआरिन मानकर वो सम्मान नहीं दिया, जो संत समाज में उन्हें दिया जाना चाहिए था। ये बात दूसरी है कि ढोंगी गुरूओं के मायाजाल के बावजूद दुनिया भर के तमाम पढ़े-लिखे लोग, वैज्ञानिक, सफल व्यवसायी, सिने कलाकार, नेता और पत्रकार भारी मात्रा में उनके शिष्य बन चुके हैं और उनके आगे बालकों की तरह बिलख-बिलख कर अपने दुख बताते हैं। मां सबको अपने ममतामयी आलिंगन से राहत प्रदान करती हैं। उनके आचरण में न तो वैभव का प्रदर्शन है और न ही अपनी विश्वव्यापी लोकप्रियता का अहंकार। जबकि वे संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व की सबसे बड़ी सम्मानित संत हैं। उनके द्वार पर कोई भी, कभी भी, अपनी फरियाद लेकर जा सकता है।

Monday, November 1, 2021

केरल में जीने का ये नायाब तरीक़ा


केरल के वायनाड का नाम चर्चा में तब आया था जब राहुल गांधी वहाँ से लोक सभा चुनाव लड़ने गए। इससे पहले मुझे वायनाड के बारे में कुछ पता नहीं था। इत्तेफ़ाक देखिए कि पिछला हफ़्ता हम दोनों ने वायनाड की पहाड़ियों पर बिताया। यूँ तो दुनिया के तमाम देशों में यात्रा करने या छुट्टियाँ बिताने का मौक़ा मिला है। पर वायनाड का यह अनुभव बिल्कुल अनूठा था। ख़ासकर इसलिए कि इस यात्रा ने ज़िंदगी जीने का एक नया तरीक़ा दिखाया। वायनाड की अलौकिक खबसूरती की चर्चा बाद में करूँगा, पहले इस नए अनुभव को साझा कर लूँ।

   

दिल्ली के प्रतिष्ठित मॉडर्न स्कूल में मेरी जीवन साथी मीता नारायण की एक सहपाठी रहीं सुजाता गुप्ता और उनके कुछ साथियों ने वायनाड के एक पहाड़ पर अपने आशियाने बनाए हैं। इसका नाम ‘इलामाला इस्टेट’ है। समुद्र तल से 3000 फूट ऊँचे पहाड़ पर सघन वन में रहने का यह अनूठा अन्दाज़ हर किसी को आह्लादित करता है। सात मित्रों की सात कौटेज बहुत कलात्मक रुचि से बनाई और सजाई गई है जिनके हर ओर सुंदर फूल और घने वृक्ष दिखाई देते हैं। किसी भी घर में भोजन नहीं पकता केवल चाय - कॉफ़ी बनाने की व्यवस्था है। सातों मित्रों ने पहाड़ की चोटी पर एक ‘लोंग हाउस’ बनाया है। जिसकी रसोई में पारम्परिक से लेकर आधुनिक तरीक़े तक से खाना पकाने की अनेक व्यवस्थाएँ हैं।

 


इस रसोई में 10-12 जने एक साथ भोजन पका सकते हैं। वहाँ का नियम यह है कि हर दिन भोजन पकवाने और खिलवाने का ज़िम्मा एक साथी का होता है। जिसके निर्देशन में रोज़ तीनों वक्त नाश्ता और खाना बनाया जाता है। चूँकि ये सातों सदस्य अलग-अलग प्रांतों से हैं इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के भोजन कक्ष में हर दिन विविध व्यंजनों का स्वाद मिलता है। जहां सातों कौटेज के लोग दिन में तीन बार जमा होते हैं और भोजन के साथ विविध विषयों पर गम्भीर चर्चा या ‘इंडोर गेम्स’ का आनंद लेते हैं। इस ‘लोंग हाउस’ की बाल्कनी से चारों तरफ़ जहां भी निगाह जाती है 50-50 मील दूर तक घना जंगल और सुंदर पहाड़ हैं, जिनमें दिन भर बादल, बारिश, इंद्रधनुष अटखेलियाँ करते रहते हैं।

 

यहाँ चंदन, रोज़वुड, सुपारी, नारियल जैसे अनेक बहुमूल्य उत्पादों के हज़ारों वृक्ष हैं। यहाँ का वन्य जीवन भी कम रोमांचक नहीं। अक्सर हिरन आपके वरांडे में आकर खड़े हो जाते हैं। हिंसक पशु, कोबरा और जंगली हाथी भी यदा-कदा चक्कर लगा लेते हैं, जिनसे सावधानी बरतनी होती है। ‘लोंग हाउस’ में परिवार के मित्रों के ठहरने के लिए चार आधुनिक कक्ष भी हैं, जिनकी साज-सज्जा ‘ताज रिज़ॉर्टस’ से कम नहीं। पर यह व्यवस्था व्यावसायिक नहीं है, जहां किराया देकर ठहरा जा सके। सात दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं लगा। प्रकृति के इतना निकट इस अलौकिक वातावरण में शेष दुनिया से सम्पर्क रखने की इच्छा ही नहीं होती। हमारी उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के लिए जीवन जीने का ये तरीक़ा बहुत सुखद और अदभुत है। जब आप एक दूसरे के साथ अपना जीवन इस तरह साझा कर लेते हैं कि फिर किसी और की ज़रूरत ही नहीं होती।

 

अनजाने प्रदेश में जहां बोली जाने वाली मलयालम भाषा कोई न जानता हो और स्थानीय लोग अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी बोलते हों, वहाँ उत्तर भारतीय लोगों का रहना कितना मुश्किल होगा? पर ऐसा नहीं है। ‘इलामाला इस्टेट’ के सभी कर्मचारी बेहद शालीन और काम के प्रति समर्पित हैं। हां केरल में व्याप्त कर्मचारी यूनियनों की संस्कृति के कारण कर्मचारियों से काम करवाने की शर्तें बिल्कुल साफ़ हैं। उनमें कोई ढील बर्दाश्त नहीं की जाती। पर जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वो ये, कि पूरा केरल बेहद अनुशासित राज्य है। जहां के लोग नियम और क़ानूनों का पूरी ज़िम्मेदारी से पालन करते हैं। जैसे शेष भारत में आपको शायद ही कोई दुकान ऐसी मिले जिसका सामान दुकान के बाहर फुटपाथ या सड़क पर फैला न हो। जबकी केरल में कैसी भी दुकान क्यों न हो, सड़क पर आपको कुछ भी रखा नहीं मिलेगा। सब कुछ दुकान के शटर के अंदर तक ही सीमित रहता है।

 

इसी तरह सड़क पर आप यह देख कर हैरान रह जाएँगे कि लोगों के घर के बाहर सड़क के किनारे एलपीजी के लाल सिलेंडर 24 घंटे पड़े रहते हैं और कोई उनकी चोरी नहीं करता। गैस की आपूर्ति वाली गाड़ी भरा सिलेंडर रख जाती है और ख़ाली सिलेंडर उठा कर ले जाती है। इसी तरह दूध के बड़े-बड़े कैन सड़क के किनारे रखे रहते हैं और दूधिया उन्हें उठा कर घर-घर दूध बाँट कर फिर सड़क पर रख देता है और दूध की गाड़ी ख़ाली कैन उठा लेती है और भरे छोड़ देती है। अड़ोस-पड़ोस के बीच विश्वास का रिश्ता इस कदर है कि दो घरों के बीच कोई बाउंड्री वॉल नहीं बनती। हर घर के चारों तरफ़ सुपारी या नारियल आदि के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं। केरल में ज़्यादातर सड़कें घुमावदार हैं और केवल दो लेन की ही होती हैं। एक जाने की और एक आने की। पर उत्तर भारत की तरह कभी ट्रैफ़िक जाम की समस्या नहीं होती। क्योंकि सभी वाहन चालक एक सीधी क़तार में चलते हैं। कोई भी जल्दीबाज़ी में ओवरटेक करके सामने से आ रहे वाहनों का रास्ता नहीं रोकता। वायनाड में हिंदूओँ की आबादी आधी है, शेष मुसलमान और ईसाई हैं और सभी एक दूसरे के साथ हिल-मिल कर रहते हैं। इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के हमारे इन मित्रों को अपने इलाक़े से 2000 मील दूर रहकर भी कोई दिक्कत नहीं होती।

 

वायनाड में बाणासुर बांध, प्राग ऐतिहासिक गुफाएँ, पहाड़ों पर सुंदर जल प्रपात, प्राचीन मंदिर और वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरी जैसे अनेक पर्यटक स्थल भी हैं। पर यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ होने वाली चाय, कॉफ़ी और मसालों की खेती। जहां तक आपकी निगाह जाती है वहाँ तक आपको यही हरा-भरा दृश्य दिखाई देता है। पर इन बाग़ानों में काम करने के लिए श्रमिक बिहार, बंगाल और आसाम से बड़ी तादाद में यहाँ आते हैं। दक्षिणी केरल की तरह यहाँ गर्मी और मच्छरों का प्रकोप नहीं होता। बल्कि एक पहाड़ी ज़िला होने के कारण अप्रैल-मई छोड़ कर यहाँ का मौसम सुहावना ही रहता है। पर अभी तक वायनाड में पर्यटकों का आना सीमित मात्रा में ही होता है। क्योंकि इस ज़िले का विकास पर्यटन की दृष्टि से नहीं किया गया है। ऐसी जगह में जाकर वरिष्ठ नागरिकों का रहना और सामूहिक जीवन जीने के प्रयोग करना रोमांचक ही नहीं सुखद है। शेष भारत में भी जहां वरिष्ठ नागरिकों को अकेलापन लगता हो या उनके बच्चे उनका ध्यान रखने के लिए हर समय उपलब्ध न हों वहाँ भी इस तरह मिलजुलकर साथ रहने के प्रयोग किए जाने चाहिए, जिससे बुढ़ापा आनन्द से कट सके।

Monday, April 26, 2021

द ग्रेट इण्डियन किचन


कल मलयालम भाषा की एक फ़िल्म देखी ‘द ग्रेट इण्डियन किचन’, जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। कहानी सपाट है और घर-घर की है। ग्रहणी कितनी भी पढ़ी लिखी और समझदार क्यों न हो उसकी सारी ज़िंदगी चौका-चूल्हा सम्भालने और घर के मर्दों के नख़रे उठाने में बीत जाती है। ज़्यादातर
  महिलाएँ इसे अपनी नियति मान कर सह लेती हैं। नारी मुक्ति की भावना से जो इसका विरोध करती हैं या तो उनके घर में तनाव पैदा हो जाता है या तो उन्हें घर छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। ऐसा ही कुछ इस फ़िल्म में दिखाया गया है।

 

ऐसा लगता है कि यह फ़िल्म वामपंथियों ने बनाई है और उस दौर में बनाई है जब केरल के सबरिमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में एक बड़ा विवाद छिड़ा हुआ था। ज़ाहिर है वामपंथियों का उद्देश्य हिंदू समाज की उन कुरीतियों पर हमला करना था जो उनकी दृष्टि में महिला विरोधी है। जैसे माहवारी के समय महिलाओं को अछूत की तरह रखना। ये फ़िल्म में दिखाया है। हो सकता है कि उन पाँच दिनों भारतीय पारम्परिक समाज में महिलाओं को यातना शिविर की तरह रहना पड़ता हो। पर क्या इसमें संदेह है कि वो पाँच दिन हर महिला की ज़िंदगी में न सिर्फ़ कष्टप्रद होते हैं बल्कि संक्रमण की सभी संभावना लिए हुए भी। अगर महिलाओं पर उन दिनों की जाने वाली ज़्यादतियों को दूर कर दिया जाए और महिला को उन पाँच दिन उसी तरह सम्मानित तरीक़े से घर में रखा जाए जैसे आज परिवार के किसी कोरोना संक्रमित सदस्य को रखा जाता है, तो क्या इसमें पूरे परिवार की भलाई नहीं होगी ? 



इसी तरह पुरुष और स्त्री से हर परिस्थिति में समान व्यवहार की अपेक्षा करने वाले बुद्धिजीवी ज़रा सोचें कि नौ महीने जब महिला गर्भवती होती है तो क्या उसकी वही कार्य क्षमता होती है जो सामान्य परिस्थिति में रहती है? शिशु जन्म के बाद तीन वर्ष तक बच्चे को अगर माँ का दूध और 24 घंटे लाड़-प्यार मिले तो वो बच्चा ज़्यादा स्वस्थ और प्रसन्नचित्त होता है बमुक़ाबले उन बच्चों के जिन्हें उनकी माँ नौकरी के दबाव में ‘डे केयर सेंटर’ में डाल देती हैं। अगर आर्थिक मजबूरी न हो क्या माँ का नौकरी करना ज़रूरी है ? 


इसी तरह सोचने वाली बात यह है कि जिस तरह का मिलावटी, प्रदूषित और ज़हरीला भोजन फ़ास्ट फ़ूड के नाम पर आज सभी बच्चों को दिया जा रहा है उससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य चिंता का विषय बन गया है: विकासशील देशों में ही नहीं विकसित देशों में भी । 


हमारे ब्रज में कहावत है कि एक औरत तीन पीढ़ी सुधार देती है; अपने माँ-बाप या सास ससुर की, अपने पति और अपनी और अपने बच्चों की। पढ़ी लिखी महिला भी अगर घर पर रह कर पूरे परिवार के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आचरण और परिवेश पर ध्यान देती है तो वह समाज के लिए इतना बड़ा योगदान है कि किसी भी बड़ी से बड़ी नौकरी का वेतन इसकी बराबरी नहीं कर सकता। शर्त यह है कि उस महिला को परिवार में पूरा सम्मान और सामान अधिकार मिलें। 


वैदिक समाज में पुरुष और महिला एक से आभूषण और वस्त्र पहनते थे; अधोवस्त्र और अंगवस्त्र। महिलाओं के वक्ष भी उसी तरह खुले रहते थे जैसे पुरुषों के। अजन्ता एलोरा के भित्तिचित्र इसके प्रमाण हैं। हर राजनैतिक निर्णय, सामाजिक विवादों, धार्मिक कार्यक्रमों आदि में महिलाएँ बराबर की साझीदार होती थीं। इस व्यवस्था का पतन मध्ययुगीन सामंती  दौर में हो गया। पर आज आधुनिकता व बराबरी के नाम पर जो पनपाया जा रहा है उससे न तो महिलाएँ सुखी हैं और न परिवार। इसलिए फ़िल्म में जो वामपंथी समाधान दिखाया गया है वह उचित नहीं है। उस महिला का विद्रोह करके घर को छोड़ जाना कोई समाधान नहीं है। पर साथ ही उसके पति और ससुर का उसके प्रति व्यवहार भी निंदनीय है। जो प्रायः हर घर में देखा जाता है। हर परिवार के हर पुरुष को यह सोचना चाहिए कि अगर वे अपने परिवार की महिलाओं का सम्मान नहीं करेंगे तो उसका नुक़सान उस परिवार की तीन पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। 


आधुनिक समाज में बड़े शहरों में रहने वाले बहुत सारे पढ़े लिखे नौजवान स्वतः ही अपनी कामकाजी पत्नी के साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं। वे ना सिर्फ़ घर के काम काज में मदद करते हैं बल्कि बच्चे पालने में भी पूरा योगदान करते हैं। सन 2000 में मैं एक हफ़्ता अपने ममेरे भाई आनंद के घर न्यू यॉर्क में रहा। जो उन दिनों एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का अधिकारी था। उसकी पत्नी प्रीति संयुक्त राष्ट्र के एक प्रकाशन की संवाददाता थी और हफ़्ते में दो -तीन बार यूरोप के किसी प्रधान मंत्री का इंटरव्यू लेने या अंतराष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्टिंग करने यूरोप जाती थी। तब उनकी नई शादी हुई थी और मैं पहली बार उनके घर रहने गया था। मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि आनंद न सिर्फ़ नाश्ता खाना पकाता था बल्कि घर की साफ़ सफ़ाई भी बड़े क़ायदे से करता था। उसके बाद वे दोनों हॉंगकॉंग और सिंगापुर में भी तैनात रहे। उनके दो बच्चे हैं और वो ज़िंदगी में ऊँचे पदों पर रहे हैं। हम उनके घर हॉंगकॉंग और सिंगापुर भी रहने गए।हमें ये देख कर अच्छा लगा कि आज भी दोनों घर के सभी काम साझा करते हैं। हालांकि अब तो बरसों से उनके घर में एक हाउसकीपर महिला भी रहती है। पर ये उदाहरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि जब दो उच्च पदासीन व्यक्ति, अति व्यस्त अंतर्राष्ट्रीय जीवनशैली व आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद, बिना किसी आपसी तनाव के, अपने घर का संचालन और बच्चों का लालन-पालन मिल-जुलकर सहजता से कर सकते हैं तो वो जुगल जिनका जीवन इतना व्यस्त नहीं है ऐसा क्यों नहीं कर सकते? आज की शहरी ज़िंदगी में इस समझ की ज़्यादा ज़रूरत है।     

Monday, April 13, 2020

शाबाश केरल: कमाल कर दिया

कोरोना वायरस का भारत में सबसे पहला मामला 30 जनवरी 2020 को केरल में पाया गया था। तब से आज तक कोरोना के कारण केरल में केवल 2 मौतें हुई हैं। इस दौरान 1.5 लाख लोगों की टेस्टिंग हो चुकी है, 7447 लोगों में संक्रमण पाया गया और 643 लोग इलाज के बाद ठीक हो कर चले गए। 

जहां भारत के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कोरोना को लेकर हड़बड़ाहट में, रात दिन साम्प्रदायिक ज़हर उगल रहा है, वहीं दुनिया भर के मीडिया में कोरोना प्रबंधन को लेकर केरल सरकार द्वारा समय रहते उठाए गए प्रभावी कदमों की जमकर तारीफ़ हो रही है। विशेषकर केरल की स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर की, जो बिना डरे रात दिन इस माहमारी से लड़ने के सड़कों, घरों, अस्पतालों  में प्रभावशाली इंतजाम में जुटी रही हैं। 

अगर पूरे भारत की दृष्टि से देखा जाए तो केरल भारत का अकेला ऐसा राज्य है जिसके सामने कोरोना से लड़ने की चुनौती सबसे ज़्यादा थी। इसके तीन कारण प्रमुख हैं। भारत में  सबसे ज़्यादा विदेशी पर्यटक केरल में ही आते हैं और लम्बे समय तक वहाँ छुट्टियाँ मनाते हैं। चूँकि कोरोना विदेश से आने वाले लोगों के मध्यम से आया है इसलिए इसका सबसे बड़ा ख़तरा केरल को था। दूसरा; केरल का शायद ही कोई परिवार हो जिसका कोई न कोई सदस्य विदेशों में काम न करता हो और उसका लगातार अपने घर आना जाना न हो।  केरल की 17.5 फ़ीसदी आबादी विदेशों से रहकर आयी है। इसलिए इस बीमारी को केरल में फैलने ख़तरा सबसे ज़्यादा था। तीसरा; केरल भारत का सबसे ज़्यादा सघन आबादी वाला राज्य है। एक वर्ग किलोमीटर में रहने वाली आबादी का केरल का औसत शेष भारत के औसत से कहीं ज़्यादा है। इसलिए भी इस बीमारी के फैलने का यहाँ बहुत ख़तरा था। इसके बावजूद आज केरल सरकार ने हालात क़ाबू में कर लिए हैं। फिर भी स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर का कहना है, हम चैन से नहीं बैठ सकते, क्योंकि पता नहीं कब ये माहमारी, किस रूप में फिर से आ धमके। 

आम तौर पर हम सनातन धर्मी लोग वामपंथी विचारधारा का समर्थन नहीं करते क्योंकि हम ईश्वरवादी हैं और वामपंथी नास्तिक विचारधारा के होते हैं। पर पिछले तीन महीनों के केरल की वामपंथी सरकार के इन प्रभावशाली कार्यों ने यह सिद्ध किया है कि नास्तिक होते हुए भी अगर वे अपने मानवतावादी सिद्धांतों का निष्ठा से पालन करें तो उससे समाज का हित ही होता है।

सबसे पहली बात तो केरल सरकार ने ये करी कि उसने बहुत आक्रामक तरीक़े से फ़रवरी महीने में ही हर जगह लोगों के परीक्षण करने शुरू कर दिए थे। इस अभियान में स्वास्थ्य मंत्री ने अपने 30 हज़ार स्वास्थ्य सेवकों को युद्ध स्तर पर झौंक दिया। नतीजा यह हुआ कि अप्रेल के पहले हफ़्ते में पिछले हफ़्ते के मुक़ाबले संक्रमित लोगों की संख्या में 30% की गिरावट आ गई। आज तक केरल में कोरोना से कुल 2 मौत हुई हैं और संक्रमित लोगों में से सरकारी इलाज का लाभ उठाकर 34% लोग स्वस्थ हो कर घर लौट चुके हैं। उनकी यह उपलब्धि भारत के शेष राज्यों के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा और प्रभावशाली है। जबकि शेष भारत में लॉक्डाउन के बावजूद संक्रमित लोगों की संख्या व मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 

ये सही है कि इटली, स्पेन, जर्मनी, इंग्लेंड और अमरीका जैसे विकसित देशों के मुक़ाबले भारत का आँकड़ा प्रभावशाली दिखाई देता है। पर इस सच्चाई से भी आँखे नहीं मीचीं जा सकती कि शेष भारत में कोरोना संक्रमित लोगों के परीक्षण का सही आँकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। मेडिकल उपकरणों की अनुपलब्धता, टेस्टिंग सुविधाओं का आवश्यकता से बहुत कम होना और कोरोना को लेकर जो आतंक का वातावरण मीडिया ने पैदा किया उसके कारण लोगों का परीक्षण कराने से बचना। ये तीन ऐसे कारण हैं जिससे सही स्थिति का आँकलन नहीं किया जा सकता। इसलिए पिछले हफ़्ते ही मैंने प्रधान मंत्री श्री मोदी जी को सोशल मीडिया के मध्यम से सुझाव दिया था कि वे हर ज़िले के ज़िलाधिकारी को निर्देशित करें कि वे अपने ज़िले में हर दिन  किए गए परीक्षणों की संख्या और संक्रमित लोगों की संख्या अपनी वेबसाइट पर पोस्ट करें। जिसकी गणना करके फिर नैशनल इन्फ़र्मैटिक्स सेंटर (NIC) सही सूचना जारी करता रहे। उल्लेखनीय है कि प्रधान मंत्री जी की पहल पर शुरू किया गया ‘आरोग्य सेतु’ ऐप इस दिशा में एक सराहनीय कदम है पर यह भी उस कमी को पूरा नहीं करता जो ज़िलाधिकारी कर सकते हैं। 

अमरीका के सबसे प्रथिष्ठित अख़बार ‘द वॉशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा है कि केरल का उदाहरण भारत सरकार के लिए अनुकरणीय है। क्योंकि पूरे देश का लॉक्डाउन करने के बावजूद भारत में संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है और इस लेख के लिखे जाने तक लगभग 7.5 हज़ार लोग संक्रमित हो चुके हैं और क़रीब 240 लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। 

हालाँकि केरल में भी स्वास्थ्य सेवाओं की दशा बहुत हाई क्लास  नहीं थी पर उसने जो कदम उठाए, जैसे लाखों लोगों को भोजन के पैकेट बाँटना, हर परिवार से लम्बी प्रश्नावली पूछना और आवश्यकता अनुसार उन्हें सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना, संक्रमित लोगों को तुरंत अलग कर उनका इलाज करना जैसे कुछ ऐसे कदम थे जिनसे केरल को इस माहमारी को नियंत्रित करने में सफलता मिली है। केरल के हवाई अड्डों पर भारत सरकार से भी दो हफ़्ते पहले यानी 10 फ़रवरी से ही विदेशों से आने वालों यात्रियों के परीक्षण शुरू कर दिए गए थे। ईरान और साउथ कोरिया जैसे 9 देशों से आने वाले हर यात्री को अनिवार्य रूप कवारंटाइन में भेज दिया गया। पर्यटकों और अप्रवासी लोगों को कवारंटाइन में रखने के लिए, पूरे राज्य में भारी मात्रा में अस्थाई आवास ग्रह तैयार कर लिए गए थे। 

इसका एक बड़ा कारण यह है कि पिछले 30 सालों में केरल की सरकार ने ‘सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य’ के लिए बहुत काम किया है। जबकि दूसरी तरफ़ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का व्यवसाईकरण करने के हिमायती विकसित पश्चिम देश अपनी इसी मूर्खता का आज ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं। अमरीका जैसे देश के राष्ट्रपति ट्रम्प का कहना कि अमरीका में इस महामारी से 1 से 2.5 लाख लोग मर सकते हैं, अगर 1 लाख से कम मरे तो हम इसे अपनी सफलता मानेंगे। ऐसा इसलिए है कि अमरीका में जनस्वास्थ्य सेवाओं का आभाव है और इसलिए वहाँ चिकित्सा बहुत महंगी होती है। केरल के इस अनुभव से सबक़ लेकर भारत सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यवसाईकरण पर रोक लगाने के लिए फिर  से सोचना होगा। क्योंकि पहले तो मौजूदा संकट से निपटना है फिर कौन जाने कौन सी विपदा फिर आ टपके ।

Monday, October 12, 2015

अमृतानंदमयी मां हमारी समझ से परे हैं

केरल के कोल्लम गांव जाने से पहले मैंने दिल्ली के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से माता अमृतानंदमयी मां के विषय में राय पूछी। केरल के ही एक राजनैतिक व्यक्ति ने यह कहकर बात हल्की कर दी कि अम्मा के पास बहुत पैसा है और वो खूब धन लुटाती हैं। मीडिया से जुड़े एक व्यक्ति ने कहा कि जिस तरह वे लोगों का आलिंगन करती हैं, उसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक तीसरे व्यक्ति ने कहा कि अम्मा को अज्ञात स्रोतों से विदेशों से भारी मात्रा में पैसा आ रहा है और वे ऐश्वर्य का जीवन जीती हैं। दूसरी तरफ तमाम ऐसे प्रतिष्ठित लोग थे, जिन्होंने अम्मा के उच्च आध्यात्मिक स्तर का यशगान किया। पेरिस में रहने वाले श्रीविद्या, जो मूलतः तमिलनाडु से हैं, पर पेरिस में वैदिक विज्ञान पर शोध कर रहे हैं और हर महीने भारत आते-जाते रहते हैं। जब उनसे मैंने अम्मा के विषय में पूछा, तो वे कपकपा उठे और बोले अम्मा अन्य आत्मघोषित संतों की तरह नहीं है। उनका चेतना का स्तर मानवीय सीमा के बाहर है। उनमें इतनी आध्यात्मिक शक्ति है कि मैं आज तक उनके दर्शन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया हूं। इतना कहकर वे रोने लगे। अब ऐसे विरोधाभासी बयानों के बीच मैं कोचीन से कोल्लम के रास्ते के बीच यही सोचता गया कि मुझे कैसा अनुभव होगा ?
 
विस्तार में न जाकर अगर निचोड़ प्रस्तुत करूं तो कहना अतिशोक्ति न होगी कि अम्मा का दिल एक विशाल सागर की तरह है। जिसमें छोटी मछली से लेकर व्हेल मछली तक सबको उन्होंने समा रखा है। उनके आलिंगन का लाभ धनिकों और सत्ता के निकट रहने वालों तक सीमित नहीं है। उनका दरबार तो खुला है। पहले आओ पहले पाओ। उनके दर्शनार्थ आने वालों में बहुसंख्यक लोग दरिद्र हैं, जो अपनी बेबसी का, लाइलाजी का या पारिवारिक कलह का रोना लेकर आते हैं। मां सबको गले लगाती है, उनके आंसू पोंछती है और अपने स्वयंसेवकों से ऐसे लोगों की हर तरह से मदद करने का निर्देश देती हैं। गरीबों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के क्षेत्र में अम्मा ने अभूतपूर्व कार्य किया है और आज भी कर रही हैं। यह सुनकर बहुत रोमांच हुआ कि कोल्लम के आश्रम के शौचालय से जुड़े ‘सोकपिट’ जब साफ करने होते हैं, तो उसमें भरे मल और मूत्र को बाल्टी से बाहर निकालने के काम में अम्मा सबसे आगे खड़ी होती हैं। सबरीमलई एक ऐसा तीर्थ है केरल में, जहां सालाना करोड़ों लोग आते हैं और स्थानीय मान्यता के अनुरूप अपने वस्त्र वहीं उतार देते हैं। नतीजतन, वहां की नदी, बगीचे और खुली जगह कूड़े-करकट और उतारे हुए कपड़ों के पहाड़ से ढक जाती है। यह है हमारी धार्मिक आस्था का प्रमाण। हम जिस भी तीर्थ स्थल पर जाते हैं, वहां ढे़रों कूड़ा छोड़कर आते हैं। पर अम्मा, जिनके शिष्यों की संख्या पूरे विश्व में करोड़ों में है, वो हर साल डेढ़ हजार स्वयंसेवकों को लेकर सबरीमलई जाते हैं और उत्सव के बाद जमा हुआ सारा कूड़ा भारी मशीनों की मदद से तीन दिन में साफ कर देते हैं। आप बताइये कि आपकी दृष्टि में भारत में ऐसा कौन-सा संत है, जो भगवान कृष्ण के उस उदाहरण का अनुकरण करता हो, जब उन्होंने महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में झूठे पत्तल उठाने की सेवा ली थी। ऐसा कोई संत या भागवताचार्य दिखाई नहीं देता।
 
चैथी कक्षा पढ़ी अम्मा सिर्फ मलयालम बोलती हैं। पर, कोल्लम के समुद्रतट पर, नारियल के पेड़ों की छांव में एक तख्त पर बैठकर हजारों देशी-विदेशी शिष्यों के आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर वे इतने विस्तार से देती हैं कि बड़े-बड़े शास्त्र पारंगत नतमस्तक हो जाएं। इसमें अचम्भा भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सूर, कबीर व तुलसी जैसे संत ने बिना पढ़े-लिखे होकर भी ऐसा साहित्य रच गए, जिस पर आज पीएचडी के लिए शोध किया जाता है। अम्मा का आध्यात्मिक ज्ञान किताबों से पढ़ा हुआ नहीं लगता। ये तो उनकी चेतना है, जो ब्रह्मांड की शक्तियों से संपर्क साधकर अपने चैत्य गुरू के निर्देश पर सारे दर्शन का निचोड़ जान चुकी हैं। मैं तीन बार अम्मा से मिला और तीनों बार उन्होंने आलिंगन कर मेरे सिर पर हाथ फेरे और मुझे लगा कि मैं साक्षात् यशोदा मैया की गोद में आ गया हूं। आंखों से बरबस आंसू झलक आए। वह माहौल ही कुछ ऐसा था, जहां एक मां की हजारों संतानें सामने बैठकर भजन सुन रही थीं। अम्मा का गायन और भजन में तल्लीनता इहलौकिक नहीं है। अम्मा के आश्रम में हर व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा या व्यवसाय की सर्वश्रेष्ठ स्थिति से निकलकर अम्मा के पास आकर बस गए हैं और निष्काम भावना से शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन जैसे कार्यों में रात-दिन दरिद्र नारायण की सेवा कर रहे हैं। सबके चेहरे पर एक पारलौकिक मुस्कान हमेशा दिखाई देती है।
 
मैं तो यही कहूंगा कि अम्मा का व्यक्तित्व देखकर यह लगता है कि वे वास्तव में जगतजननी हैं। ग्रामीण विकास के और ग्रामीण स्वास्थ्य के जितने बड़े अभियान देश में दिख रहे हैं, उन सबसे कहीं आगे है अम्मा का ग्राम विकास का सार्थक प्रारूप। ऐसी भगवती स्वरूपा को हम अम्मा न कहें तो और क्या कहें। जैसा सोचा था उससे कहीं ज्यादा मिलीं अम्मा, जो भी उनके पास जाएगा, उनका कृपा प्रसाद अवश्य पाएगा।