Monday, December 14, 2020

भ्रष्टाचार : नए कानून की नहीं, निष्पक्ष अनुपालन की जरूरत


हाल ही में दो अलग जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने शुक्रवार को कहा कि समाज या व्यवस्था की सारी बुराइयां सुप्रीम कोर्ट दूर नहीं कर सकता है। ना ही यह जिम्मेदारी अकेले सुप्रीम कोर्ट की है। अदालत ने कहा कि कार्यपालिका और विधायिका की अपनी जिम्मेदारी है और यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट सारी भूमिकाएं संभाल ले तथा सब कुछ करे।
 

याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट से मांग की गई थी कि केन्द्र सरकार को ‘बेनामी’ संपत्ति, बेहिसाब वाली संपत्ति तथा काला धन जब्त करने से संबंधित कानून बनाने की संभावना तलाशने का निर्देश दिया जाए। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय की पीठ ने समाज में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि, ‘‘पैसा लेने वाले हर व्यक्ति को पैसे देने वाला कोई दूसरा व्यक्ति भी है।’’


एक अन्य जनहित याचिका में यह भी एक मांग थी कि केंद्र सरकार को 1993 की वोहरा समिति की रिपोर्ट भिन्न केंद्रीय एजेंसियों को देने का निर्देश दिया जाए ताकि इनकी व्यापक जांच हो सके। याचिकाकर्ता, जो कि भाजपा नेता भी हैं, ने आरोप लगाया कि तत्कालीन गृहसचिव एनएन वोहरा ने अपराध सिंडिकेट, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के कथित संपर्कों पर एक रिपोर्ट दी थी जिसका कोई फॉलो अप नहीं हुआ। 



इसपर अदालत ने कहा, आप ऐसी प्रार्थना क्यों कर रहे हैं। इसपर किताब लिखिए। ऐसी याचिकाएं मत दाखिल कीजिए। पीठ ने कहा कि कानून बनाना संसद का काम है और हम ऐसा आदेश नहीं दे सकते। पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को चाहिए कि जन प्रतिनिधियों को ऐसा कानून बनाने के लिए तैयार करें।  


पीठ ने जनहित के मामले में याचिका दायर करने के याचिकाकर्ता के अच्छे कामों की सराहना की और यह भी कहा कि जनहित याचिकाएं अब प्रचार याचिकाएं बनती जा रही हैं। याचिकाकर्ता ने अच्छे काम किये हैं लेकिन इस पर हम विचार नहीं कर सकते।’’ पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को जन प्रतिनिधियों को इस बारे में कानून बनाने के लिये तैयार करना चाहिए। पीठ ने याचिकाकर्ता को यह जनहित याचिका वापस लेने और विधि आयोग में प्रतिवेदन देने की अनुमति दी।


इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अकेले सब कुछ ठीक नहीं कर सकता है। जब ज्यादातर राजनेता और नौकरशाह अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करें या सच कहिए तो इसका कारण बन जाएं तब न्यायपालिका से अजूबे की उम्मीद नहीं की जा सकती है। भ्रष्टाचार सामाजिक बुराई है और अगर कोई पैसे लेकर काम करता है तो कोई है जो काम कराने के पैसे देता भी है। बुराई दोनों तरफ से है, एक तरह की मिलीभगत है। ऐसे में कानून बहुत उपयोगी नहीं हो सकता है। 


कहने की जरूरत नहीं है कि बहुत सारे कानूनों का उल्लंघन खुलेआम होता है क्योंकि उन्हें रोकने के लिए ना सरकार इच्छुक है ना समाज। ऐसे कुछ कानून को वापस लेने की भी मांग हुई और वापस लिए भी गए हैं। जिस कानून का अनुपालन संभव नहीं हो उसे वापस लिया जाना गलत नहीं है पर वापस लेने का एक मतलब यह भी लगाया और प्रचारित किया जाता है कि अब उसकी अनुमति है जबकि बात ऐसी नहीं होती है। अनैतिक और गैर कानूनी में भी अंतर होता है। 


भ्रष्टाचार के मामले में भी कानून तो हैं ही। सजा कम या ज्यादा हो सकती है। पर भ्रष्टाचार के किन मामलों की जांच हो और किनकी नहीं – यह तय करने में भी भ्रष्टाचार और राजनीति है। ऐसे में कानून बनाने या कार्रवाई का निर्देश देने से ज्यादा जरूरी है कि समाज इस मामले में खुद जागरूक हो और अव्वल तो भ्रष्टाचार हो ही नहीं और हो तो बिना किसी भेदभाव के जांच हो और कार्रवाई की जाए। जबतक यह स्थिति बहाल नहीं हो जाती है तब तक कानून जो हैं और जो बनेंगे उनके दुरुपयोग की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। 


चुनाव लड़ने वालों के मामले में ही बहुत सारे कानून बने हैं लेकिन इनका अनुपालन भी ठीक नहीं होता है। इससे संबंधित शिकायतों की जांच और कार्रवाई के मामले में जन प्रतिनिधियों से भी समान व्यवहार नहीं होता है। फर्जी डिग्री के मामले में एक राजनीतिक दल के विधायक का जो हाल किया गया वैसा सत्तारूढ़ दल के मामले में नहीं हुआ। यह मामला सर्वविदित है। ऐसे में जरूरत नए कानून की नहीं, कानून के निष्पक्ष अनुपालन की है। 


यही नहीं, सत्तारूढ़ दल के लोग अगर अपने हिसाब से कानून बनवाएं (या बना लें) तो वह भी ठीक नहीं है। उदाहरण के लिए आतंकवाद के आरोपी को चुनाव लड़ने का टिकट देने का मामला लीजिए। कायदे से किसी पर कोई आरोप लगे तो उसे स्वयं पद छोड़ देना चाहिए ताकि निष्पक्ष जांच हो सके और अगर निर्दोष पाया जाए तो वह वापस अपने पद पर आ जाए। 


चिंता की बात यह है कि भ्रष्टाचार से अदालतें भी अछूती नहीं हैं। निचली अदालतों में तो भारी भ्रष्टाचार है ही। उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय तक में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण सामने आ चुके हैं। पर उन मामलों में, कुछ अपवादों को छोड़ कर, कभी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। अदालत की अवमानना क़ानून का डर दिखा कर भ्रष्ट न्यायाधीश  शिकायतकर्ताओं को डराते धमकाते हैं। ऐसे न्यायाधीशों को पद  से हटाने के लिए संसद के पास महाभियोग चलाने का अधिकार है। पर सांसद इस अधिकार का उपयोग नहीं करना चाहते। जब कभी ऐसी परिस्थिति आती है तो वे ये कह कर बच निकलते हैं कि हमारे दल में बहुत सारे कार्यकर्ताओं पर आपराधिक मुक़दमें चल रहे हैं। अगर हम न्यायपालिका के ख़िलाफ़ बोलेंगे तो हमारे लोगों को ही पकड़ कर बन्द करवा दिया जाएगा। जब कुएँ में ही भांग पड़ी हो तो कहाँ से शुरू किया जाए? काका हाथरसी की एक कविता है, ‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर - छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।’

Monday, December 7, 2020

किसान आन्दोलन साम दाम दंड भेद की कसौटी पर?


आज देश भर में किसान आंदोलन को लेकर बहुत चर्चा हो रही है। लेकिन आज हम सरकार और किसानों के बीच हो रहे इस आंदोलन के हल निकालने के लिए अपनाए जा रहे तरीक़ों पर चर्चा करेंगे। और इसी से अंदाज़ा लगेगा कि यह आंदोलन किस ओर जा रहा है। दरअसल यह विश्लेषण हमारे मित्र, चिंतक और समाज वैज्ञानिक सुधीर जैन ने किया है। 

श्री जैन का कहना है कि पारम्परिक ज्ञान है कि, किसी भी समस्या या परेशानी से निपटने के लिए कौटिल्य द्वारा बताए गए साम, दाम, दंड व भेद का रास्ता ही सबसे उचित है। अगर हम इनको एक-एक करके देखें तो हो सकता है कि हमें कुछ अंदाज़ा लगे कि इस आंदोलन में आगे क्या हो सकता है। साम, दाम, दंड व भेद में एक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि ये सब एक क्रम में हैं। 

सबसे पहले साम यानी समझौते या संवाद को अपनाया जाता है। लेकिन इस समस्या में साम कि बात करें तो ये देखा जाएगा कि साम के बजाए बाक़ी तीनों विकल्पों को पहले अपनाया जा रहा है। इस बात से आप सभी भी सहमत होंगे कि जो भी स्थितियाँ पिछले दिनों में बनीं उनमें दंड और भेद ज़्यादा  दिखाई दिए। लेकिन इस बात का विरोध करने वाले यह कहेंगे कि साम यानी संवाद वाले औज़ार का प्रयोग हो तो रहा है। लेकिन पिछले दिनों की गतिविधियों को देखें तो साम का इस्तेमाल कोई ज़्यादा दिखाई नहीं दे रहा। न तो किसानों की ओर से और न ही सरकार की ओर से। अलबत्ता बाक़ी तीन चीजों का इस्तेमाल ज़्यादा दिखाई देता है।


दाम की स्थित यह है कि वर्षों से स्थापित किसान नेताओं को इस आंदोलन में कोई ज़्यादा छूट नहीं दी गई है। जिस तरह से देश भर के किसानों के प्रतिनिधियों को इस आंदोलन में देखा जा रहा है, 35 संगठन कम नहीं होते। इन 35 संगठनों को घटा कर एक संगठन या मंडल में सीमित करना कोई आसान काम नहीं है। किसान इस बात पर राज़ी नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि यह आंदोलन राजनैतिक आंदोलन कम और सामूहिक या सामाजिक आंदोलन ज़्यादा नज़र आता है। सरकार को इसमें दाम के औज़ार को इस्तेमाल करने में काफ़ी कठिनाई आ सकती है। अगर सारे आंदोलन का एकमुश्त नेतृत्व चंद लोगों के हाथ में होता तो सरकार उनसे डील कर सकती थी। जैसा अक्सर होता है। पर यहाँ सभी बराबर के दमदार समूह हैं। इसलिए उसकी संभावना कम नज़र आती है। 

दंड की बात करें तो इसमें थोड़ी कोशिश ज़रूर की गई है। इस आंदोलन में जिस तरह अड़चन डाली गई या किसानों को भयभीत किया गया कि किसी तरह इस आंदोलन को शुरू न होने दिया जाए। लेकिन दंड का औज़ार इस आंदोलन में ज़्यादा असरदार नहीं दिखा। आज देश की स्थितियाँ काफ़ी संवेदनशील हैं और इन स्थितियों ऐसी दबिश या ज़बरदस्ती करना सम्भव नहीं दिखता। लेकिन इस आंदोलन में अगर दंड के रूप में थोड़ा आगे देखें तो अदालत एक ऐसा रास्ता दिखाई देता है जिसे सरकार आने वाले समय में अपना सकती है। ऐसा पहले हुआ भी है जब किसी आंदोलन में कोई समझौता, दबिश या दंड का रास्ता नहीं काम आया तो अदालत का दरवाज़ा खटखटाया जाता है। कोविड के नाम पर अदालत से किसानों को हटाने के आदेश माँगे जा सकते हैं। पर तब सवाल खड़ा होगा कि बिहार और हैदराबाद  सहित जिस तरह लाखों लोगों की भीड़ कंधे से कंधा सटाकर जनसभाओं में हफ़्तों जमा होती रही उनपर कोविड का महामारी के रूप में क्या कोई असर हुआ? अगर नहीं तो अदालत में किसानों के वकील ये सवाल खड़ा कर सकते हैं।  


साम, दाम, दंड के बाद अब अगर भेद की बात करें तो उसमें दो तीन बातें आती हैं जैसे कि भेद लेना, तो किसानों से भेद लेना कोई आसान सी बात नहीं दिखती। सब कुछ टिकैत के आंदोलन की तरह एकदम स्पष्ट है। इतने सारे किसान नेता हैं, प्रवक्ता हैं, इनमें भेद करना या फूट डालना मुश्किल होगा। फिर भी वो कोशिश ज़रूर होगी। इस दिशा में जितनी भी कोशिश हों रही हैं अगर उनको आप ध्यान से देखेंगे या उससे सम्बंधित खबरों को देखेंगे तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भेद डालने के क्या-क्या उपक्रम हुए हैं। ये काम भी हर सरकार हर जनआंदोलन के दौरान करती आई है। इसलिए इस हथकंडे को मौजूदा सरकार भी अपनाने की कोशिश करेगी। 

लेकिन इन सब से हट कर एक गुंजाइश और बचती है और वो है वक्त। ऐसे आंदोलनों से निपटने के लिए जो भी सरकार या नौकरशाही या कारपोरेट घराने हों वो इस इंतज़ार में रहते हैं कि किसी तरह आंदोलन को लम्बा खिंचवाया जाए तो वो धीरे-धीरे ठंडा पड़ जाता है। ये विकल्प अभी बाक़ी है कि किस तरह से इस आंदोलन को अपनी जगह पर ही रहने दें और इंतज़ार किया जाए। यानी मुद्दे को वक्त के साथ मरने दिया जाए। अलबत्ता किसानों ने आते ही इस बात का ऐलान भी कर दिया था कि वो तैयारी के साथ आए हैं। वो 4-5 महीनों का राशन भी साथ लेकर आए हैं। इनके उत्साह को देखते हुए यह पता लग रहा है कि किसान एक लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए इस औज़ार का इस्तेमाल करने में भी मुश्किल आएगी। अगर आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश के करोड़ों बेरोज़गार नौजवान भी इस आंदोलन से जुड़ गए तो ये विकराल रूप धारण कर सकता है। ये तो वक्त ही बताएगा की ऊंट किस करवट बैठेगा।

जहां तक आंदोलन के खलिस्तान समर्थक होने का आरोप है तो यह चिंता की बात है। ऐसे कोई भी प्रमाण अगर सरकार के पास हैं तो उन्हें अविलंब सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ की तर्ज़ पर कुछ टीवी चैनलों का ये आरोप लगाना बचकाना और ग़ैर ज़िम्मेदाराना लगता है। जब तक कि वे इसके ठोस प्रमाण सामने प्रस्तुत न करें। यूँ तो हर जन आंदोलन में कुछ विघटनकारी तत्व हमेशा घुसने की कोशिश करते हैं। अब ये किसान आंदोलन के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वो ऐसे तत्वों को हावी न होने दें और अपना ध्यान मुख्य मुद्दों पर ही केंद्रित रखें। सरकार भी खुले मन से किसानों की बात सुने और वही करे जो उनके और देश के हित में हो।           

Monday, November 30, 2020

अलविदा अहमद भाई


यूँ तो हर जाने वाले के बाद उसकी अकीदत में क़सीदे गढ़े जाते हैं। राजनीति में तो दुश्मन भी आकर घड़ियाली आंसू बहाते हैं। काश मरने वाले को अपनी इन तारीफ़ों का ट्रेलर उसके जीते जी मिल जाए तो उसके दिल को कितना सुकून मिले। ब्रज में पिछली सदी में एक महान संत हुए थे, ग्वारिया बाबा। उन्होंने वृंदावन वसियों की सभा बुला कर कहा कि जो कुछ श्रद्धांजलि तुम मेरे मरने के बाद मुझे दोगे वो आज मेरे सामने ही दे दो। सब ने इसे मज़ाक़ समझा पर बाबा गम्भीर थे। फ़र्श बिछाए गए और शोक सभा प्रारम्भ हो गई। बाबा दूर कौने में बैठ कर सुनते रहे और बोलने वाले एक के बाद एक उनके गुणों का यशगान करते गये। सभा समाप्ति पर बाबा ने सबका धन्यवाद किया। इत्तफ़ाक देखिए कि कुछ दिनों बाद ही बाबा ने समाधि ले ली।
 

अहमद भाई पटेल कोई संत नहीं थे, राजनीतिज्ञ थे। राजनीति में ऊँच-नीच सबसे होती है। ग़लत और सही निर्णय भी होते हैं। दोस्त और दुश्मन भी बनते-बिगड़ते रहते हैं। क्योंकि राजनीति एक ऐसी काजल की कोठरी है कि जिसमें, ‘कैसो ही सयानो जाए - काजल को दाग भाई लागे रे लागे’। न पहले के सत्तारूढ़ दल में संत थे और न आज हैं। संतों का राजनीति से क्या काम? इसलिए अहमद भाई का मूल्यांकन एक राजनीतिज्ञ की तरह ही किया जाना चाहिए। जैसे साम, दाम, दंड, भेद अपना कर अमित भाई शाह ने भाजपा को मज़बूत बनाया है और अपने नेता नरेंद्र भाई मोदी के प्रति पूर्ण निष्ठा का प्रमाण दिया है, वैसे ही अहमद भाई पटेल ने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के प्रति अपनी निष्ठा रखते हुए कांग्रेस को मज़बूत बनाया और उसे सत्ता में बनाए रखा। लेकिन उन्होंने खुद कभी कोई मंत्रिपद नहीं लिया और अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा भी मीडिया में नहीं मचने दिया। 


अब तक बहुत सारे राजनेता, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी, मीडियाकर्मी और कांग्रेस के करोड़ों कार्यकर्ता अहमद भाई की बेमिसाल शख़्सियत का गुणगान अपने शोक संदेशों में कर चुके हैं। इसलिए मैं उन्हें यहाँ नहीं दोहरा रहा हूँ कि वो कितने सहृदय थे, अहंकार शून्य थे, विनम्र थे, सबकी मदद करने के लिए तय्यार रहते थे और सभी राजनैतिक दलों से उनके मधुर सम्बंध थे। मैं तो अहमद भाई पटेल की उस बात को रेखांकित करना चाहूँगा जो भाजपा सहित सभी राजनेताओं को उनसे सीखनी चाहिए।वो थी अपने दुश्मन की भी योग्यता का सम्मान करना। 


जैन हवाला कांड में कांग्रेस के दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व सांसदों को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। इस दृष्टि से 1996 के बाद मैं कांग्रेस का दुश्मन ‘नम्बर एक’ माना जा सकता था। पर आश्चर्य है कि ऐसा नहीं हुआ। चाहे माधव राव सिंधिया हों, राजेश पाइलट हों, कमाल नाथ हों, अर्जुन सिंह हों। ऐसे किसी भी बड़े नेता ने मेरे साथ कभी असम्मानजनक व्यवहार नहीं किया। बल्कि ये कहा कि तुमने अपना पत्रकारिता धर्म निभाया इसलिए हमें तुमसे कोई शिकायत नहीं। हद्द तो तब हो गई जब हवाला कांड के कुछ वर्ष बाद ही तब की मेरी राष्ट्रीय छवि को ध्यान में रखते हुए अहमद भाई ने मुझे कांग्रेस में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश की राजनीति सम्भालने का प्रस्ताव रखा। पता चला कि सोनिया गांधी ने इसका विरोध ये कह कर किया कि, ‘विनीत नारायण ने हमारे दल की छवि का सबसे ज़्यादा नुक़सान किया है। वो कैसे हमारे दल में नेता बन सकता है?’ इस पर अहमद भाई का कहना था कि, ‘विनीत नारायण ने जो कुछ भी किया वो एक पत्रकार के नाते किया। वो जब दल में शामिल हो जाएगा तो दल के हिसाब से काम करेगा।’ इस पर तय यह हुआ कि अम्बिका सोनी मुझे चाय पर बुलाएँ और मुझसे लम्बी बात करके ये तय करें कि मेरी कांग्रेस में क्या भूमिका रहेगी। अहमद भाई के सुझाव पर मैं अम्बिका जी के साथ डेढ़ घंटा बैठा पर उनसे मैंने साफ़ कहा कि मेरी रुचि रचनात्मक कार्यों में है, राजनीति में नहीं। और मैं हर दल से मधुर सम्बंध बना कर सही दूरी रखना चाहता हूँ। ये उन दिनों की बात है जब मैं ब्रज सेवा शुरू कर चुका था। इसलिए भी मेरी ब्रज के अलावा कहीं और रुचि नहीं थी। 



इसके 7 साल बाद मेरे पुत्र के विवाह के स्वागत समारोह में 9 तुग़लक़ रोड, नई दिल्ली पर केंद्र सरकार के अनेक मंत्री व भाजपा सहित अनेक दलों के राष्ट्रीय नेता भी बधाई देने आए। उस समय अहमद भाई पटेल की सत्ता के गलियारों में तूती बोलती थी। पर वे चुपचाप आए, वर वधू को आशीर्वाद दिया और एक कोने में सोफ़े पर जा कर बैठ गए। वहाँ कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और अधिकारियों से कहने लगे कि हमने तो विनीत जी को उत्तर प्रदेश का ज़िम्मा सौंपने का प्रस्ताव दिया था। पर इन्होंने हमारी बात नहीं मानी। वरना आज ये कांग्रेस के बड़े नेता होते। ऐसे तमाम अवसर आए जब अहमद भाई मेरे पारिवारिक उत्सवों में चुपचाप आए और बिना हड़बड़ी के काफ़ी देर बैठ कर गए। इस मामले में मैं आडवाणी जी की भी दाद दूँगा कि वे मेरे सभी पारिवारिक उत्सवों में आशीर्वाद देने आए। बिना ये सोचे कि हवाला कांड में आरोपित होने से उनके राजनैतिक कैरियर को कितना बड़ा झटका लगा था। 


मैंने 35 वर्ष की पत्रकारिता में लगभग सभी दलों के बड़े राजनेताओं के साथ समय बिताया है। पर कभी किसी की अंधभक्ति नहीं की। कभी किसी की आलोचना करने में कसर नहीं छोड़ी। जो सही लगा उसे सही कहा और जो ग़लत लगा उसे ग़लत। पर मानना पड़ेगा कि उन सब राजनेताओं की पीढ़ी बहुत गम्भीर, सौम्य, सहनशील और उदार थी। अहमद भाई पटेल उसी पीढ़ी के एक चमचमाते सितारे थे। जिनकी कमीं उनके राजनैतिक दुश्मनों को भी खलेगी। आज की राजनीति में इस शालीनता और लोकतांत्रिक मूल्य की भारी कमी महसूस की जा रही है। अलविदा अहमद भाई।      

Monday, November 23, 2020

कोरोना : नज़रिया अपना अपना


पूरी दुनिया बड़ी बेसब्री से कोरोना के क़हर से निजात मिलने का इंतेज़ार कर रही है। पर कोरोना को लेकर अलग-अलग लोगों के अलग-अलग नज़रिए हैं। दुनिया में जिन परिवारों ने कोरोना के चलते अपने प्रियजनों को खो दिया है उनके लिए ये त्रासदी गहरे ज़ख़्म दे चुकी है। जो मामूली बुख़ार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही पॉज़िटिव से नेगेटिव हो गए वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ़्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं। जिनको कोरोना ने अबतक नहीं पकड़ा है वे पशोपेश में हैं। या तो लापरवाह हैं या किसी अनहोनी की आशंका से सहमे सहमे से दिन काट रहे हैं।
 

उधर सरकारें और चिकित्सकों की जमात भी अलग-अलग ख़ेमों में बटी हुई है। सबका सिरमौर बना विश्व स्वास्थ्य संगठन, कोरोना को लेकर शुरू से विवादों के घेरों में है। इसके अध्यक्ष पर चीन से मिलीभगत के आरोप लगते रहे हैं। जिस तरह कोरोना को लेकर इस संगठन ने शुरू में निर्देश जारी किए थे और आनन फानन में सारी दुनिया में लॉकडाउन थोप दिया गया।जिस तरह इस महामारी को लेकर चीन की रहस्यमी भूमिका रही है, उस सबसे तो ये पूरा मामला एक वैश्विक षड्यंत्र जैसा लगता है, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है। इस जमात में बहुत बड़ी तादाद में दुनिया के अनेक देशों के डाक्टर, शोधकर्ता और समाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं। जो हर दिन सोशल मीडिया पर अनेक वक्तव्यों, साक्षात्कारों या तर्कों के ज़रिए कोरोना को षड्यंत्र सिद्ध करने में जुटे हैं। 

पर जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो षड्यंत्र के सिद्धांत को कोरी बकवास बताते हैं।वे हरेक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जिस तरह अतीत में ऐसे कई वैश्विक षड्यंत्र हुए हैं जिनमें नाहक दुनिया में आतंक फैलाया गया और उससे दवा कंपनियों ने खर्बों रुपय का मुनाफ़ा कमाया। 


1984 की बात है जब मै लंदन में था तो अचानक पेरिस से ख़बर उड़ी कि सुप्रसिद्ध बॉलीवुड सेलिब्रिटी रॉक हडसन को एड्स हो गया है। अगले ही वर्ष, वह अपनी एड्स की बीमारी का खुलासा करने वाली हॉलीवुड की कुछ पहली हस्तियों में से एक बन गये। 1985 में, 59 साल की उम्र में, हडसन एड्स से मरने वाली पहली प्रमुख हस्ती थे। उसके बाद पूरे विश्व में एड्स को लेकर जो भारी प्रचार हुआ, आतंक फैलाया गया, एचआईवी टेस्ट का जाल फैलाया गया। उसके मुक़ाबले एड्स से मारने वालों की संख्या नगण्य थी, अगर एड्स कोई बीमारी थी तो। पर तभी दुनिया के 1000 मशहूर डाक्टरों, जिनमें 3 नोबल पुरस्कार विजेता भी थे, ने बयान जारी करके (पर्थ उद्घोषणा) दुनिया को चेताया था कि एड्स कोई बीमारी नहीं है। ऐसी सब वैश्विक (तथाकथित) बीमारियों से मारने वालों की संख्या से कई गुना ज़्यादा लोग अशुद्ध पेयजल, सड़क दुर्घटनाओं, कुपोषण, मधुमेय और हृदयाघात से मरते हैं। जितना पैसा भारत सरकार ने एड्स के प्रचार-प्रसार पर खर्च किया, उसका एक हिस्सा अगर आम आदमी को शुद्ध पेयजल मुहैया कराने पर खर्च किया जाता तो बहुत जानें बच सकती थीं। इन सब सवालों को 20 बरस पहले अपने इसी कॉलम में मैंने ज़ोर शोर से उठाया थ और मणिपुर और हरियाणा जैसे राज्यों में एड्स संक्रमण के ‘नाको’ के आँकड़ों को झूठा सिद्ध किया था। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दिनों में कोरोना को लेकर भी किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय घोटाले का सप्रमाण पर्दाफ़ाश हो जाए।

जहां तक मौजूदा दिशा निर्देशों का सवाल है, वैश्विक माहौल को देखते हुए इन हिदायतों को मानने में कोई नुक़सान भी नहीं है। मास्क पहनना, बार-बार साबुन से हाथ धोना या सामाजिक दूरी बनाए रखना ऐसे निर्देश हैं जिन्हें मानना बहुत कठिन काम नहीं है। पर एक बात सभी चिकित्सक एक मत हो कर कह रहे हैं। चाहे वो ऐलोपैथि के हों, आयुर्वेद के हों या होमयोपैथि के - और वो ये कि शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने से कोविड ही नहीं अनेक दूसरी बीमारियों से भी सफलतापूर्वक लड़ा जा सकता है। लगातार गर्म पानी पीना, दिन में कम से कम दो बार भाप लेना, आयुर्वेद में सुझाए गये काढ़े पीना, नियमित व्यायाम करना और घर का शुद्ध पौष्टिक खाना खाना। 

कोविड के आतंककारी दौर में पश्चिमी देशों ने पूर्वी देशों की, ख़ासकर वैदिक संस्कृति की , श्रेष्ठता को स्वीकार किया है और अब अपना रहे हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के हर प्रांत में भोजन में हल्दी सदियों से प्रयोग होती आ रही है। पर 2 दशक पहले तक पश्चिमी देशों के लोग भारतीय सब्ज़ी की करी (तरी) को घृणा की निगाह से देखते थे। गोरे बच्चे भारतीय सहपाठियों के लंच बॉक्स में हल्दी पड़ी सब्ज़ी को देख कर उसे ‘टट्टी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाते थे। आज पूरी दुनिया हल्दी की वकालत कर रही है। दूसरे व्यक्तियों से अकारण या सामाजिक शिष्टाचार के तहत गले या हाथ मिलाना वैदिक संस्कृती में वर्जित था। इसलिए भारतीय समाज में छुआछूत की प्रथा थी। घर में बालक का जन्म हो या किसी की मृत्यु या चेचक या पीलिया जैसा बुख़ार, इन सब परिस्थितियों में 15 से 40 दिन का सूतक मानने की प्रथा आज भी भारत में प्रचलित है। जिसे आज बड़े ढोल ताशे के साथ ‘कुआरंटाइन’ कह कर प्रचारित किया जा रहा है। इसी तरह भोजन पकाने और खिलाने की भारतीय संस्कृति में शुद्धता का विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। आम भारतीय हरेक जगह, हर परिस्थिति में बना भोजन खाना पसंद नहीं करता था, जिसे आधुनिकता की मार ने भ्रष्ट कर दिया। 

कोरोना के आतंक में दुनिया इस बात के महत्व को भी समझ रही है। भविष्य में जो भी हो कोरोना ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है। 

Monday, November 16, 2020

पर्यावरण के बचाव के लिए कुछ अनूठा करना होगा


नवम्बर आया नहीं कि दिल्ली का दम घुटना शुरू। दिल्ली में चलने वाले कारखानों और गाड़ियों का धुंआ पहले ही कम न था, कि अब पड़ोस के राज्यों से जलती हुई पराली का धुंआ भी उड़कर दिल्ली में घर करने लगा। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण की मानें तो इस प्रदुषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट जाती है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदुषण का यही हाल है। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकुलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पेस्टिसाईड, धरती और आकाश पर गाड़ियां और हवाईजहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। लॉकडाउन के दिनों में देशभर में आकाश एकदम साफ़ दिखाई दे रहा था। और तो और पंजाब के जालंधर में रहने वाले लोगों अपने घरों की छत से ही हिमालय की वादियां नजर आ रही थीं। यहां दशकों से रह रहे लोगों को पहले ये नजारा नहीं दिखा, बादल और प्रदूषण की वजह से हर तरफ धुआं-धुआं था लेकिन लॉकडाउन के कारण ये धुआं छंट गया। ग़ौरतलब है कि प्रदुषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना अत्यंत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़ों की अँधा-धुंध कटाई से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या बढ़ती जा रही है।


हाल ही के दिनों में ये देखने को मिला है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा ने पराली से होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए ‘बायो डिकम्पोज़र’ को विकसित किया है। इस तकनीक के अनुसार पराली को खाद में बदलने के लिए 20 रुपये की कीमत वाली 4 कैप्सूल का एक पैकेट तैयार किया है। पूसा के वैज्ञानिकों के अनुसार 4 कैप्सूल से छिड़काव के लिए 25 लीटर घोल बनाया जा सकता है और इसका इस्तेमाल 1 हेक्टेयर में किया जा सकता है। सबसे पहले 5 लीटर पानी मे 100 ग्राम गुड़ उबालना है और ठंडा होने के बाद घोल में 50 ग्राम बेसन मिलाकर कैप्सूल घोलना है। इसके बाद घोल को 10 दिन तक एक अंधेरे कमरे में रखना होगा, जिसके बाद पराली पर छिड़काव के लिए पदार्थ तैयार हो जाता है। इस घोल को जब पराली पर छिड़का जाता है तो 15 से 20 दिन के अंदर पराली गलनी शुरू हो जाती है और किसान अगली फसल की बुवाई आसानी से कर सकता है। आगे चलकर यह पराली पूरी तरह गलकर खाद में बदल जाती है और खेती में फायदा देती है। दिल्ली सरकार ने इस तकनीक के आँकलन के लिए एक समिति का गठन भी किया है और इसकी रिपोर्ट दीपावली के बाद आने की सम्भावना है। अगर यह तकनीक कामयाब हो जाती है तो देशभर के किसानों को इसे अपनाना चाहिए। जिससे हर साल इन दिनों होने वाले प्रदूषण से मुक्ति मिल सकती है।      

जिस तरह देश के कई बड़े शहरों में पटाखों पर रोक लगा दी गई है उसी तरह पराली को जलने से भी रोकने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। समय की माँग है कि ज़िला स्तर के अधिकारी सभी किसानों को जागरूक करें और ऐसी तकनीक का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करें। सोचने वाली बात है कि अगर हम बैलगाड़ी के दिनों से मोटर गाड़ी की ओर बढ़ेंगे तो इससे होने वाले प्रदूषण और पर्यावरण के नुक़सान से निपटने के लिए भी कुछ आधुनिक तरीक़े ही खोजने होंगे। 

पर्यावरण के विषय में देश भर में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखाई नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को नहीं समझे। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा।

पेयजल हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है। आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान के सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।


Monday, November 9, 2020

अमरीकी टीवी से सीखें भारतीय टीवी चैनल

अमरीका में चुनाव का जो भी नतीजा हो मतगणना के दौरान डॉनल्ड ट्रम्प ने जो जो नाटक किए उससे उनका पूरी दुनिया में मज़ाक़ उड़ा है। अपनी हार की आशंका से बौखलाए ट्रम्प ने कई बार संवाददाता सम्मेलन करके विपक्ष पर चुनाव हड़पने के तमाम झूठे आरोप लगाए और उनके समर्थन में एक भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। उनके इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्रपति के पद की गरिमा को भारी ठेस लगी है। 

पर हमारा आज का विषय ट्रम्प नहीं बल्कि अमरीकी टीवी चैनल हैं। जिन्होंने गत शुक्रवार को ट्रम्प के संवाददाता सम्मेलन का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक दिया। यह कहते हुए कि राष्ट्रपति ट्रम्प सरासर झूठ बोल रहे हैं और बिना सबूत के दर्जनों झूठे आरोप लगा रहे हैं। इन टीवी  चैनलों के एंकरों ने यह भी कहा ट्रम्प के इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से अमरीकी समाज में अफ़रातफ़री फैल सकती है और संघर्ष पैदा हो सकता है, इसलिए जनहित में हम राष्ट्रपति ट्रम्प के भाषण का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक रहे हैं। 


अमरीका के समाचार टीवी चैनलों की इस बहादुरी और ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता की सारी दुनिया में तारिफ़ हो रही है। दरअसल अपनी इसी भूमिका के लिए ही मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। ये भारत के समाचार टीवी चैनलों के लिए बहुत बड़ा तमाचा है। दूरदर्शन तो अपने जन्म से ही सरकार का भोंपू रहा है। प्रसार भारती बनने के बाद उस स्थिति में थोड़ा बदलाव ज़रूर आया है। पर कमोबेश वो आज भी सरकार का भोंपू बना हुआ है। भारत में स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता इंडिया टुडे समूह ने अंग्रेज़ी विडीओ न्यूज़ पत्रिका ‘न्यूज़ट्रैक’ से और मैंने ‘कालचक्र’ हिंदी विडीओ समाचार पत्रिका से 30 वर्ष पहले शुरू की थी। तब अंग्रेज़ी दैनिक पायनियर में मेरा और न्यूज़ट्रैक की संपादिका मधु त्रेहान का एक इंटरव्यू छपा था। जिसमें मधु ने कहा था, ‘हम मीडिया के व्यापार में हैं और व्यापार लाभ के लिए किया जाता है।’ और मैंने कहा था, ‘हम जनता के प्रवक्ता हैं इसलिए जो भी सरकार में होगा उसकी ग़लत नीतियों की आलोचना करना और जनता के दुःख दर्द को सरकार तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है और हम हमेशा यही करेंगे।’ 


जब से निजी टीवी चैनलों की भरमार हुई है तबसे लोगों को लगा कि अब टीवी समाचार सरकार के शिकंजे से मुक्त हो गए। पर ऐसा हुआ नहीं। व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए ज़्यादातर समाचार चैनल राजनैतिक ख़ेमों में बट गए हैं। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी था। क्योंकि जितना आडम्बरयुक्त और खर्चीला साम्राज्य इन टीवी चैनलों ने खड़ा कर लिया है उसे चलाने के लिए मोटी रक़म चाहिए। जो राजनैतिक दलों या औद्योगिक घरानों के सहयोग के बिना मिलनी असम्भव है। फिर भी कुछ वर्ष पहले तक कुल मिलाकर सभी टीवी चैनल एक संतुलन बनाए रखने का कम से कम दिखावा तो कर ही रहे थे। पर पिछले कुछ वर्षों में भारत के ज़्यादातर समाचार चैनलों का इतनी तेज़ी से पतन हुआ कि रातों रात टीवी पत्रकारों की जगह चारण और भाटों ने ले ली। जो रात दिन चीख-चीख कर एक पक्ष के समर्थन में दूसरे पक्ष पर हमला करते हैं। 


इनकी एंकरिंग या रिपोर्टिंग में तथ्यों का भारी अभाव होता है या वे इकतरफ़ा होते हैं। इनकी भाषा और तेवर गली मौहल्ले के मवालियों जैसी हो गई है। इनके ‘टॉक शो’ चौराहों पर होने वाले छिछले झगड़ों जैसे होते हैं। और तो और कभी चाँद पर उतरने का एस्ट्रोनॉट परिधान पहन कर और कभी राफ़ेल के पाइलट बन कर जो नौटंकी ये एंकर करते हैं, उससे ये पत्रकार कम जोकर ज़्यादा नज़र आते हैं। इतना ही नहीं दुनिया भर के टीवी चैनलों के पुरुष और महिला एंकरों और संवाददाताओं के पहनावे, भाषा और तेवर की तुलना अगर भारत के ज़्यादातर टीवी चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं से की जाए तो स्थिति स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगी। भारत के ज़्यादातर समाचार टीवी चैनल पत्रकारिता के अलवा सब कुछ कर रहे हैं। यह शर्मनाक ही नहीं दुखद स्थिति है। गत शुक्रवार को अमरीका के राष्ट्रपति के झूठे बयानों का प्रसारण बीच में रोकने की जो दिलेरी अमरीका के टीवी एंकरों ने दिखाई वैसी हिम्मत भारत के कितने समाचार टीवी एंकरों की है? 


उधर अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी को लेकर भी जो विवाद हुआ है उसे भी इसी परिपेक्ष में देखने की ज़रूरत है। अगर आप यूट्यूब पर मेरे नाम से खोजें तो आपको तमाम टीवी शो ऐसे मिलेंगे जिनमें एंकर के नाते अर्नब ने हमेशा मुझे पूरा सम्मान दिया है और मेरे संघर्षों का गर्व से उल्लेख भी किया है। ज़ाहिर है कि मैं अर्नब के विरोधियों में से नहीं हूँ। टीवी समाचारों के 31 बरस के अपने अनुभव और उम्र के हिसाब से मैं उस स्थिति में हूँ कि एक शुभचिंतक के नाते अर्नब की कमियों को उसके हित में खुल कर कह सकूं। पिछले कुछ वर्षों में अर्नब ने पत्रकारिता की सीमाओं को लांघ कर जो कुछ किया है उससे स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता कलंकित हुई है। अर्नब के अंधभक्तों को मेरी यह टिप्पणी अच्छी नहीं लगेगी। पर हक़ीक़त यह है कि अर्नब भारतीय टीवी का एक जागरूक, समझदार और ऊर्जावान एंकर था। लेकिन अब उसने अपनी वह उपलब्धि अपने ही व्यवहार से नष्ट कर दी। कहते हैं जब जागो तब सवेरा। हो सकता है कि अर्नब को इस आपराधिक मामले में सज़ा हो जाए या वो बरी हो जाए। अगर वो बरी हो जाता है तो उसे एकांत में कुछ दिन पहले ध्यान करना चाहिए और फिर चिंतन और मनन कि वो पत्रकारिता की राह से कब और क्यों भटका? यही चेतावनी बाक़ी समाचार चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं के लिए भी है कि वे लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का सदस्य होने की गरिमा और मर्यादा को समझें और टीवी पत्रकार की तरह व्यवहार करें, चारण और भाट की तरह नहीं।


Monday, November 2, 2020

प्रधान मंत्री का पुतला जलाना ठीक नहीं


इस दशहरे पर देश के कई हिस्सों में आक्रोशित किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और उत्तेजित भीड़ ने रावण दहन के लिए बने पुतले पर प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का चेहरा लगा कर रावण दहन किया और उत्तेजक नारे लगाए। किसी भी प्रधान मंत्री के साथ ऐसा दुर्व्यवहार आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ। इसका जितनी निंदा की जाए कम है। प्रधान मंत्री भारत सरकार का सर्वोच्च मुखिया होता है। उसका अपमान देश का अपमान है। इसलिए आजतक कभी आंदोलनकारियों ने या विपक्षी दलों ने ऐसा काम नहीं किया था। यह बड़ी चिंता की बात है और यह देश के लोकतंत्र के तेज़ी से पतनशील होने का बड़ा प्रमाण है। प्रधान मंत्री का पुतला जलाने वाले वास्तव में उनकी नीतियों से आहत थे या उन्हें किसी ने राजनैतिक मक़सद से उकसाया? जो भी हो इससे एक ग़लत परम्परा की शुरुआत हो गई जो और भी ज़्यादा चिंता की बात है।
 

दरअसल पिछले कुछ वर्षों में राजनीति का जो विमर्श बना है और जिस तरह की भाषा राजनैतिक कार्यकर्ता और उनके सहयोगी मीडिया कर्मी अपने विरोधियों के प्रति प्रयोग कर रहे हैं, उससे वो दिन दूर नहीं जब राजनीति में बातचीत से नहीं लाठी, गोली और डंडों से ही बात हुआ करेगी। फिर तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। फिर न तो कोई विचारधारा बचेगी और न कोई सामाजिक सरोकार का मुद्दा। घोर अराजकता की स्थिति होगी। इस पतन की शुरुआत बहुत सीमित मात्रा में तीन दशक पहले हुई थी, जब राजनैतिक दलों ने अपराधियों को चुनावों में उम्मीदवार बनाना शुरू किया था। तब मैंने अपनी कालचक्र विडीओ मैगज़ीन में एक रिपोर्ट तैयार की थी ‘क्या भारत पर माफिया राज करेगा?’ पर तब हालत इतने बुरे नहीं थे जितने आज हो गए हैं। 



पिछले कुछ वर्षों से देश के स्तर से लेकर गाँव और क़स्बे तक राजनैतिक आक्रामकता बढ़ती जा रही है। कोई अपने विरोधी की बात न तो शांति से सुनने को तैयार है और न उस पर तर्क करने को। ज़रा सा विरोध भी किसी को बर्दाश्त नहीं है। बात बात पर अपने विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करना, उन्हें धमकी देना या उन्हें देशद्रोही बताना आम बात हो गई है। इससे समाज में तनाव और असुरक्षा बढ़ रही है। यह भारत की सनातन संस्कृति नहीं हैं। ऐसा आचरण तो पश्चिम एशियाई देशों में देखने में आता है, जहां छोटी छोटी बातों पर मारकाट, गोली-बारी और सर कलम करने जैसे हादसे रोज़ होते रहते हैं। 


भारत की संस्कृति में तो राजा से भी एक आम नागरिक उसके दरबार में अपना विरोध प्रकट कर सकता था। पौराणिक गोवर्धन पर्वत की तलहटी में 500 वर्ष पहले एक प्रसिद्ध भजन गायक संत कुंभन दास जी रहते थे। बादशाह अकबर ने उनकी तारीफ़ सुनी तो उनका गायन सुनने के लिए सिपाही भेज कर उन्हें अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरि बुलवा लिया। इससे कुंभन दास जी बहुत दुखी हुए। बादशाह के हुक्म पर उन्होंने दरबार में अपना प्रसिद्ध पद गाया, संत कू कहा सीकरी सों काम। आवत जात पनहैया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। बादशाह अकबर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो कुंभन दास जी बोले, आज के बाद अपना मनहूस चेहरा मुझे मत दिखाना, क्योंकि इसके चक्कर में आज मेरा भजन भंग हो गया। इस पर दरबारियों ने तलवारें खींच लीं, तो अकबर ने उन्हें रोका और कहा, ये सच्चे फ़क़ीर हैं, ये शहनशाहों के शहनशाह (भगवान श्री कृष्ण) के लिए गाते हैं, हमारे लिए नहीं। मतलब ये कि अगर शासक में अपनी आलोचना सुनने की उदारता होगी, तो जनता का आक्रोश इतना नहीं भड़केगा कि वो मर्यादा की सीमा लांघ जाए। 


आजकल थाईलैंड के राजतंत्र के ख़िलाफ़ भारी जन आक्रोश ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया है। जबकि थाईलैंड के क़ानून के अनुसार राजा की निंदा करना भी ग़ैर क़ानूनी है। ऐसा इसलिए हुआ कि पिछले राजा उदार थे और लोकप्रिय भी। जबकि वर्तमान राजा के आचरण और नीतियों से जनता त्रस्त है। वैसे सारी जनता को हर समय कोई भी शासक पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता। कुछ न कुछ लोग तो हमेशा असंतुष्ट होंगे ही। पर अगर शासक वर्ग आम जनता के प्रति सम्वेदनशील है और जनता को भी लगता है कि उसकी नीतियों से जनता को लाभ मिल रहा है, तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। किंतु अगर जनता को लगे कि शासक वर्ग की नीतियाँ और आचरण आम जनता के हितों के विरोध में हैं और केवल कुलीन या सम्पन्न लोगों के हित में हैं तो उसका आक्रोश बढ़ जाता है। जिसकी परिणिति हिंसक आंदोलन का रूप भी ले सकती है। 


मध्य युग की छोड़ दें तो भी आधुनिक युग में और इसी सदी में दुनिया के जिन-जिन देशों में शासकों ने तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाया, विरोध के स्वरों को दबाया और जनसंचार के माध्यमों से अपना झूठा प्रचार करवाया उन-उन तानाशाहों को खूनी क्रांति का सामना करना पड़ा। इसलिए लोकतंत्र में जो चार स्तंभ बनाए गए हैं - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया, चारों की स्वायत्तता समविधान में सुरक्षित की गई है। इन चारों स्तंभों को एक दूसरे के ऊपर निगरानी रखने का दायित्व भी लोकतांत्रिक परम्पराओं ने प्रदान किया है। जिससे समाज में संतुलन बना रहे। 


इसलिए यह हम सब का दायित्व है कि हम देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं में तजी से आई इस गिरावट को रोकने का काम तुरंत करें। इसमें ज़्यादा ज़िम्मेदारी स्वयं प्रधान मंत्री श्री मोदी जी की है। वे सत्ता के सिरमौर हैं और एक नए भारत का सपना देख रहे हैं। उन्हें इस परीस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन कर इस गिरावट को रोकने के लिए ठोस और प्रभावी कदम उठाने चाहिएँ। जिससे हमारा समाज भयमुक्त हो, अनुशासित हो और ज़िम्मेदारी से व्यवहार करे, ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत न करे।