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Monday, December 21, 2020

किसानों की समस्या: समाधान जरूरी है



इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में किसानों की हालत लगातार खराब हुई है। गत 73 वर्षों में उनकी स्थिति सुधारने के लिए अगर कोई प्रयास किए गए हैं तो उसका फायदा नहीं हुआ है। किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के लिए 2004 में तब की सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया था। ‘नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स’ को स्वामीनाथन आयोग के नाम से भी जाना जाता है। इस आयोग ने पांच रिपोर्ट दी हैं। अंतिम व पांचवीं रिपोर्ट चार अक्तूबर, 2006 को दी गयी थी। इस रिपोर्ट की सिफारिशें आज तक लागू नहीं की जा सकी हैं। प्रधान मंत्री श्री मोदी का कहना है कि नए कृषि क़ानून किसानों के हक़ में हैं।  



इसलिए किसानों की माँग न होते हुए भी, सरकार ने अचानक बिना घोषित तैयारी के जल्दबाजी में तीन कृषि कानून पास कर दिए। संसद में इन पर चर्चा नहीं होना और इन्हें पास किए जाने का तरीका विवादास्पद रहा। पर सरकार इन क़ानूनों के आलोचकों को भ्रमित बता रही है। जबकि दूसरी ओर विपक्षी दल इसे नोटबंदी की तरह ही जल्दीबाज़ी में बनाया गया क़ानून कह कर सरकार से इस पर संसद में बहस की माँग कर रहे हैं। उनका आरोप है कि इस बहस से बचने के लिए ही सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र कोविड के बहाने रद्द किया है। जबकि बिहार, हैदराबाद चुनावों व सिंधु सीमा पर जमी किसानों की भारी भीड़ कोविड के भय को आईना दिखा रही है। किसानों, सरकार व विपक्ष के बीच ऐसे अविश्वास के माहौल में अगर बातचीत नहीं होगी तो समस्या का हल निकलने की संभावना नहीं दिखती है। उधर कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं द्वारा किसानों को खालिस्तानी और न जाने क्या क्या कहा जा रहा है। जबकि आंदोलनकारी सरकार पर पूंजीपतियों के हित में काम करने का आरोप लगा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी किसानों के आंदोलन के हक़ को संवैधानिक बताते हुए सरकार को वार्ता जारी रखने का निर्देश दिया है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर व रेल मंत्री पीयूष गोयल, यहाँ तक की गृह मंत्री अमित शाह तक किसानों से वार्ता कर चुके हैं पर अभी तक हल नहीं निकला है। अब तो किसान बात करने को भी तैयार नहीं हैं। तो बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। पर कोशिशें जारी हैं। 


यह दिलचस्प है कि उत्पादन कम होना खेती की समस्या की नहीं है। अगर ऐसा होता तो उसे उत्पादन बढ़ाकर ठीक किया जा सकता था। हरित क्रांति के बाद देश में अनाज का पर्याप्त उत्पादन हो रहा है और इस मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। पर खेती करने वाले किसान आत्मनिर्भर नहीं हैं। जरूरत उन्हें आत्म निर्भर बनाने की है और इसके लिए उन्हें उत्पाद का वाजिब मूल्य मिलना जरूरी है। अभी तक यह न्यूनतम समर्थन मूल्य से सुनिश्चित किया जाता था। पर नए कानून में इसका प्रावधान नहीं है। हालांकि सरकार कह रही है कि वह व्यवस्था बनी रहेगी। विरोध और विवाद का मुद्दा यही है और यह सरकार की साख तथा भरोसे से भी जुड़ा है। 

 

वैसे, यह समझने वाली बात है कि किसान को जरूरत न्यूनतम समर्थन मूल्य की है न कि कहीं भी बेचने की आजादी। किसान खराब होने वाली अपनी फसल लेकर बाजार में घूमे भी तो खरीदने वाला उसे उचित कीमत नहीं देगा क्योंकि वह जानता है कि पैदावार कुछ दिन में खराब हो जाएगा और किसान की मजबूरी है कि वह उसे जो कीमत मिल रही है उसपर बेचे। कोई भी खरीदार इसका लाभ उठाएगा और यही किसान की समस्या है। न्यूनतम समर्थन मूल्य आसान उपाय है। दूसरा उपाय यह हो सकता था कि किसानों की पैदावार को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की व्यवस्था हो और वह सही समय पर अपनी उपज सही मूल्य पर (सही बाजार में) बेच पाए। पर खुले ट्रक या ट्रैक्टर पर किसानों की ज्यादातर फसल कुछ दिन में बेकार हो जाती है। 


इसलिए किसानों को कॉरपोरेट की तरह एमआरपी यानी अधिकत्तम खुदरा मूल्य की सुविधा नहीं मिलती है बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा थी जो अब खत्म होती लग रही है। ऐसे में उनका परेशान होना वाजिब है। समस्या इतनी ही नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य जब जरूरी है और उसे खत्म किया जा रहा है तो यह कौन बताए और कौन सुनेगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य भी लागत और आवश्यक मुनाफे के लिहाज से कम होता है और इसे बढ़ाने की जरूरत है पर अभी तो उसकी बात ही नहीं हो रही है। पूरी व्यवस्था ही उलट-पुलट हो गई लगती है।  

   

यह दिलचस्प है कि एक तरफ सरकार किसानों को नकद आर्थिक सहायता दे रही है और दूसरी ओर उसे सरकार की नीति का विरोध करने वाले किसान संपन्न नजर आ रहे हैं। इसे खूब प्रचारित किया जा रहा है। आम जनता को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि सरकार का विरोध करने वाले गरीब, परेशान या प्रभावित नहीं हैं और जो गरीब, परेशान या प्रभावित हैं वे नकद सहायता से खुश हैं। अव्वल तो यह वास्तविकता नहीं हो सकती है पर हो भी तो स्थायी समाधान नहीं है। यह अनवरत नहीं चलता रह सकता है कि किसान सबसिडी से काम चलाएं। कुछ उपाय तो किया ही जाना चाहिए। और अगर इतने बड़े आंदोलन से भी इस जरूरत को नहीं महसूस किया गया है तो यह चिंता की बात है। जैसा केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि कृषि बिल के हर बिंदु पर सरकार और किसानों के बीच खुले मान से विमर्श होना चाहिए जिससे, अगर कोई भ्रम है तो वो दूर हो जाए और अगर क़ानून ग़लत बन गया है तो उसका संशोधन हो जाए। इसलिए दोनो पक्षों के बीच वार्ता होना बहुत ज़रूरी है।


Monday, December 7, 2020

किसान आन्दोलन साम दाम दंड भेद की कसौटी पर?


आज देश भर में किसान आंदोलन को लेकर बहुत चर्चा हो रही है। लेकिन आज हम सरकार और किसानों के बीच हो रहे इस आंदोलन के हल निकालने के लिए अपनाए जा रहे तरीक़ों पर चर्चा करेंगे। और इसी से अंदाज़ा लगेगा कि यह आंदोलन किस ओर जा रहा है। दरअसल यह विश्लेषण हमारे मित्र, चिंतक और समाज वैज्ञानिक सुधीर जैन ने किया है। 

श्री जैन का कहना है कि पारम्परिक ज्ञान है कि, किसी भी समस्या या परेशानी से निपटने के लिए कौटिल्य द्वारा बताए गए साम, दाम, दंड व भेद का रास्ता ही सबसे उचित है। अगर हम इनको एक-एक करके देखें तो हो सकता है कि हमें कुछ अंदाज़ा लगे कि इस आंदोलन में आगे क्या हो सकता है। साम, दाम, दंड व भेद में एक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि ये सब एक क्रम में हैं। 

सबसे पहले साम यानी समझौते या संवाद को अपनाया जाता है। लेकिन इस समस्या में साम कि बात करें तो ये देखा जाएगा कि साम के बजाए बाक़ी तीनों विकल्पों को पहले अपनाया जा रहा है। इस बात से आप सभी भी सहमत होंगे कि जो भी स्थितियाँ पिछले दिनों में बनीं उनमें दंड और भेद ज़्यादा  दिखाई दिए। लेकिन इस बात का विरोध करने वाले यह कहेंगे कि साम यानी संवाद वाले औज़ार का प्रयोग हो तो रहा है। लेकिन पिछले दिनों की गतिविधियों को देखें तो साम का इस्तेमाल कोई ज़्यादा दिखाई नहीं दे रहा। न तो किसानों की ओर से और न ही सरकार की ओर से। अलबत्ता बाक़ी तीन चीजों का इस्तेमाल ज़्यादा दिखाई देता है।


दाम की स्थित यह है कि वर्षों से स्थापित किसान नेताओं को इस आंदोलन में कोई ज़्यादा छूट नहीं दी गई है। जिस तरह से देश भर के किसानों के प्रतिनिधियों को इस आंदोलन में देखा जा रहा है, 35 संगठन कम नहीं होते। इन 35 संगठनों को घटा कर एक संगठन या मंडल में सीमित करना कोई आसान काम नहीं है। किसान इस बात पर राज़ी नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि यह आंदोलन राजनैतिक आंदोलन कम और सामूहिक या सामाजिक आंदोलन ज़्यादा नज़र आता है। सरकार को इसमें दाम के औज़ार को इस्तेमाल करने में काफ़ी कठिनाई आ सकती है। अगर सारे आंदोलन का एकमुश्त नेतृत्व चंद लोगों के हाथ में होता तो सरकार उनसे डील कर सकती थी। जैसा अक्सर होता है। पर यहाँ सभी बराबर के दमदार समूह हैं। इसलिए उसकी संभावना कम नज़र आती है। 

दंड की बात करें तो इसमें थोड़ी कोशिश ज़रूर की गई है। इस आंदोलन में जिस तरह अड़चन डाली गई या किसानों को भयभीत किया गया कि किसी तरह इस आंदोलन को शुरू न होने दिया जाए। लेकिन दंड का औज़ार इस आंदोलन में ज़्यादा असरदार नहीं दिखा। आज देश की स्थितियाँ काफ़ी संवेदनशील हैं और इन स्थितियों ऐसी दबिश या ज़बरदस्ती करना सम्भव नहीं दिखता। लेकिन इस आंदोलन में अगर दंड के रूप में थोड़ा आगे देखें तो अदालत एक ऐसा रास्ता दिखाई देता है जिसे सरकार आने वाले समय में अपना सकती है। ऐसा पहले हुआ भी है जब किसी आंदोलन में कोई समझौता, दबिश या दंड का रास्ता नहीं काम आया तो अदालत का दरवाज़ा खटखटाया जाता है। कोविड के नाम पर अदालत से किसानों को हटाने के आदेश माँगे जा सकते हैं। पर तब सवाल खड़ा होगा कि बिहार और हैदराबाद  सहित जिस तरह लाखों लोगों की भीड़ कंधे से कंधा सटाकर जनसभाओं में हफ़्तों जमा होती रही उनपर कोविड का महामारी के रूप में क्या कोई असर हुआ? अगर नहीं तो अदालत में किसानों के वकील ये सवाल खड़ा कर सकते हैं।  


साम, दाम, दंड के बाद अब अगर भेद की बात करें तो उसमें दो तीन बातें आती हैं जैसे कि भेद लेना, तो किसानों से भेद लेना कोई आसान सी बात नहीं दिखती। सब कुछ टिकैत के आंदोलन की तरह एकदम स्पष्ट है। इतने सारे किसान नेता हैं, प्रवक्ता हैं, इनमें भेद करना या फूट डालना मुश्किल होगा। फिर भी वो कोशिश ज़रूर होगी। इस दिशा में जितनी भी कोशिश हों रही हैं अगर उनको आप ध्यान से देखेंगे या उससे सम्बंधित खबरों को देखेंगे तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भेद डालने के क्या-क्या उपक्रम हुए हैं। ये काम भी हर सरकार हर जनआंदोलन के दौरान करती आई है। इसलिए इस हथकंडे को मौजूदा सरकार भी अपनाने की कोशिश करेगी। 

लेकिन इन सब से हट कर एक गुंजाइश और बचती है और वो है वक्त। ऐसे आंदोलनों से निपटने के लिए जो भी सरकार या नौकरशाही या कारपोरेट घराने हों वो इस इंतज़ार में रहते हैं कि किसी तरह आंदोलन को लम्बा खिंचवाया जाए तो वो धीरे-धीरे ठंडा पड़ जाता है। ये विकल्प अभी बाक़ी है कि किस तरह से इस आंदोलन को अपनी जगह पर ही रहने दें और इंतज़ार किया जाए। यानी मुद्दे को वक्त के साथ मरने दिया जाए। अलबत्ता किसानों ने आते ही इस बात का ऐलान भी कर दिया था कि वो तैयारी के साथ आए हैं। वो 4-5 महीनों का राशन भी साथ लेकर आए हैं। इनके उत्साह को देखते हुए यह पता लग रहा है कि किसान एक लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए इस औज़ार का इस्तेमाल करने में भी मुश्किल आएगी। अगर आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश के करोड़ों बेरोज़गार नौजवान भी इस आंदोलन से जुड़ गए तो ये विकराल रूप धारण कर सकता है। ये तो वक्त ही बताएगा की ऊंट किस करवट बैठेगा।

जहां तक आंदोलन के खलिस्तान समर्थक होने का आरोप है तो यह चिंता की बात है। ऐसे कोई भी प्रमाण अगर सरकार के पास हैं तो उन्हें अविलंब सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ की तर्ज़ पर कुछ टीवी चैनलों का ये आरोप लगाना बचकाना और ग़ैर ज़िम्मेदाराना लगता है। जब तक कि वे इसके ठोस प्रमाण सामने प्रस्तुत न करें। यूँ तो हर जन आंदोलन में कुछ विघटनकारी तत्व हमेशा घुसने की कोशिश करते हैं। अब ये किसान आंदोलन के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वो ऐसे तत्वों को हावी न होने दें और अपना ध्यान मुख्य मुद्दों पर ही केंद्रित रखें। सरकार भी खुले मन से किसानों की बात सुने और वही करे जो उनके और देश के हित में हो।