नवम्बर आया नहीं कि दिल्ली का दम घुटना शुरू। दिल्ली में चलने वाले कारखानों और गाड़ियों का धुंआ पहले ही कम न था, कि अब पड़ोस के राज्यों से जलती हुई पराली का धुंआ भी उड़कर दिल्ली में घर करने लगा। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण की मानें तो इस प्रदुषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट जाती है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदुषण का यही हाल है। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकुलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पेस्टिसाईड, धरती और आकाश पर गाड़ियां और हवाईजहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। लॉकडाउन के दिनों में देशभर में आकाश एकदम साफ़ दिखाई दे रहा था। और तो और पंजाब के जालंधर में रहने वाले लोगों अपने घरों की छत से ही हिमालय की वादियां नजर आ रही थीं। यहां दशकों से रह रहे लोगों को पहले ये नजारा नहीं दिखा, बादल और प्रदूषण की वजह से हर तरफ धुआं-धुआं था लेकिन लॉकडाउन के कारण ये धुआं छंट गया। ग़ौरतलब है कि प्रदुषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना अत्यंत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़ों की अँधा-धुंध कटाई से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या बढ़ती जा रही है।
हाल ही के दिनों में ये देखने को मिला है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा ने पराली से होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए ‘बायो डिकम्पोज़र’ को विकसित किया है। इस तकनीक के अनुसार पराली को खाद में बदलने के लिए 20 रुपये की कीमत वाली 4 कैप्सूल का एक पैकेट तैयार किया है। पूसा के वैज्ञानिकों के अनुसार 4 कैप्सूल से छिड़काव के लिए 25 लीटर घोल बनाया जा सकता है और इसका इस्तेमाल 1 हेक्टेयर में किया जा सकता है। सबसे पहले 5 लीटर पानी मे 100 ग्राम गुड़ उबालना है और ठंडा होने के बाद घोल में 50 ग्राम बेसन मिलाकर कैप्सूल घोलना है। इसके बाद घोल को 10 दिन तक एक अंधेरे कमरे में रखना होगा, जिसके बाद पराली पर छिड़काव के लिए पदार्थ तैयार हो जाता है। इस घोल को जब पराली पर छिड़का जाता है तो 15 से 20 दिन के अंदर पराली गलनी शुरू हो जाती है और किसान अगली फसल की बुवाई आसानी से कर सकता है। आगे चलकर यह पराली पूरी तरह गलकर खाद में बदल जाती है और खेती में फायदा देती है। दिल्ली सरकार ने इस तकनीक के आँकलन के लिए एक समिति का गठन भी किया है और इसकी रिपोर्ट दीपावली के बाद आने की सम्भावना है। अगर यह तकनीक कामयाब हो जाती है तो देशभर के किसानों को इसे अपनाना चाहिए। जिससे हर साल इन दिनों होने वाले प्रदूषण से मुक्ति मिल सकती है।
जिस तरह देश के कई बड़े शहरों में पटाखों पर रोक लगा दी गई है उसी तरह पराली को जलने से भी रोकने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। समय की माँग है कि ज़िला स्तर के अधिकारी सभी किसानों को जागरूक करें और ऐसी तकनीक का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करें। सोचने वाली बात है कि अगर हम बैलगाड़ी के दिनों से मोटर गाड़ी की ओर बढ़ेंगे तो इससे होने वाले प्रदूषण और पर्यावरण के नुक़सान से निपटने के लिए भी कुछ आधुनिक तरीक़े ही खोजने होंगे।
पर्यावरण के विषय में देश भर में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखाई नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को नहीं समझे। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा।
पेयजल हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है। आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान के सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।