अमरीका में चुनाव का जो भी नतीजा हो मतगणना के दौरान डॉनल्ड ट्रम्प ने जो जो नाटक किए उससे उनका पूरी दुनिया में मज़ाक़ उड़ा है। अपनी हार की आशंका से बौखलाए ट्रम्प ने कई बार संवाददाता सम्मेलन करके विपक्ष पर चुनाव हड़पने के तमाम झूठे आरोप लगाए और उनके समर्थन में एक भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। उनके इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्रपति के पद की गरिमा को भारी ठेस लगी है।
पर हमारा आज का विषय ट्रम्प नहीं बल्कि अमरीकी टीवी चैनल हैं। जिन्होंने गत शुक्रवार को ट्रम्प के संवाददाता सम्मेलन का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक दिया। यह कहते हुए कि राष्ट्रपति ट्रम्प सरासर झूठ बोल रहे हैं और बिना सबूत के दर्जनों झूठे आरोप लगा रहे हैं। इन टीवी चैनलों के एंकरों ने यह भी कहा ट्रम्प के इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से अमरीकी समाज में अफ़रातफ़री फैल सकती है और संघर्ष पैदा हो सकता है, इसलिए जनहित में हम राष्ट्रपति ट्रम्प के भाषण का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक रहे हैं।
अमरीका के समाचार टीवी चैनलों की इस बहादुरी और ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता की सारी दुनिया में तारिफ़ हो रही है। दरअसल अपनी इसी भूमिका के लिए ही मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। ये भारत के समाचार टीवी चैनलों के लिए बहुत बड़ा तमाचा है। दूरदर्शन तो अपने जन्म से ही सरकार का भोंपू रहा है। प्रसार भारती बनने के बाद उस स्थिति में थोड़ा बदलाव ज़रूर आया है। पर कमोबेश वो आज भी सरकार का भोंपू बना हुआ है। भारत में स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता इंडिया टुडे समूह ने अंग्रेज़ी विडीओ न्यूज़ पत्रिका ‘न्यूज़ट्रैक’ से और मैंने ‘कालचक्र’ हिंदी विडीओ समाचार पत्रिका से 30 वर्ष पहले शुरू की थी। तब अंग्रेज़ी दैनिक पायनियर में मेरा और न्यूज़ट्रैक की संपादिका मधु त्रेहान का एक इंटरव्यू छपा था। जिसमें मधु ने कहा था, ‘हम मीडिया के व्यापार में हैं और व्यापार लाभ के लिए किया जाता है।’ और मैंने कहा था, ‘हम जनता के प्रवक्ता हैं इसलिए जो भी सरकार में होगा उसकी ग़लत नीतियों की आलोचना करना और जनता के दुःख दर्द को सरकार तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है और हम हमेशा यही करेंगे।’
जब से निजी टीवी चैनलों की भरमार हुई है तबसे लोगों को लगा कि अब टीवी समाचार सरकार के शिकंजे से मुक्त हो गए। पर ऐसा हुआ नहीं। व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए ज़्यादातर समाचार चैनल राजनैतिक ख़ेमों में बट गए हैं। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी था। क्योंकि जितना आडम्बरयुक्त और खर्चीला साम्राज्य इन टीवी चैनलों ने खड़ा कर लिया है उसे चलाने के लिए मोटी रक़म चाहिए। जो राजनैतिक दलों या औद्योगिक घरानों के सहयोग के बिना मिलनी असम्भव है। फिर भी कुछ वर्ष पहले तक कुल मिलाकर सभी टीवी चैनल एक संतुलन बनाए रखने का कम से कम दिखावा तो कर ही रहे थे। पर पिछले कुछ वर्षों में भारत के ज़्यादातर समाचार चैनलों का इतनी तेज़ी से पतन हुआ कि रातों रात टीवी पत्रकारों की जगह चारण और भाटों ने ले ली। जो रात दिन चीख-चीख कर एक पक्ष के समर्थन में दूसरे पक्ष पर हमला करते हैं।
इनकी एंकरिंग या रिपोर्टिंग में तथ्यों का भारी अभाव होता है या वे इकतरफ़ा होते हैं। इनकी भाषा और तेवर गली मौहल्ले के मवालियों जैसी हो गई है। इनके ‘टॉक शो’ चौराहों पर होने वाले छिछले झगड़ों जैसे होते हैं। और तो और कभी चाँद पर उतरने का एस्ट्रोनॉट परिधान पहन कर और कभी राफ़ेल के पाइलट बन कर जो नौटंकी ये एंकर करते हैं, उससे ये पत्रकार कम जोकर ज़्यादा नज़र आते हैं। इतना ही नहीं दुनिया भर के टीवी चैनलों के पुरुष और महिला एंकरों और संवाददाताओं के पहनावे, भाषा और तेवर की तुलना अगर भारत के ज़्यादातर टीवी चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं से की जाए तो स्थिति स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगी। भारत के ज़्यादातर समाचार टीवी चैनल पत्रकारिता के अलवा सब कुछ कर रहे हैं। यह शर्मनाक ही नहीं दुखद स्थिति है। गत शुक्रवार को अमरीका के राष्ट्रपति के झूठे बयानों का प्रसारण बीच में रोकने की जो दिलेरी अमरीका के टीवी एंकरों ने दिखाई वैसी हिम्मत भारत के कितने समाचार टीवी एंकरों की है?
उधर अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी को लेकर भी जो विवाद हुआ है उसे भी इसी परिपेक्ष में देखने की ज़रूरत है। अगर आप यूट्यूब पर मेरे नाम से खोजें तो आपको तमाम टीवी शो ऐसे मिलेंगे जिनमें एंकर के नाते अर्नब ने हमेशा मुझे पूरा सम्मान दिया है और मेरे संघर्षों का गर्व से उल्लेख भी किया है। ज़ाहिर है कि मैं अर्नब के विरोधियों में से नहीं हूँ। टीवी समाचारों के 31 बरस के अपने अनुभव और उम्र के हिसाब से मैं उस स्थिति में हूँ कि एक शुभचिंतक के नाते अर्नब की कमियों को उसके हित में खुल कर कह सकूं। पिछले कुछ वर्षों में अर्नब ने पत्रकारिता की सीमाओं को लांघ कर जो कुछ किया है उससे स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता कलंकित हुई है। अर्नब के अंधभक्तों को मेरी यह टिप्पणी अच्छी नहीं लगेगी। पर हक़ीक़त यह है कि अर्नब भारतीय टीवी का एक जागरूक, समझदार और ऊर्जावान एंकर था। लेकिन अब उसने अपनी वह उपलब्धि अपने ही व्यवहार से नष्ट कर दी। कहते हैं जब जागो तब सवेरा। हो सकता है कि अर्नब को इस आपराधिक मामले में सज़ा हो जाए या वो बरी हो जाए। अगर वो बरी हो जाता है तो उसे एकांत में कुछ दिन पहले ध्यान करना चाहिए और फिर चिंतन और मनन कि वो पत्रकारिता की राह से कब और क्यों भटका? यही चेतावनी बाक़ी समाचार चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं के लिए भी है कि वे लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का सदस्य होने की गरिमा और मर्यादा को समझें और टीवी पत्रकार की तरह व्यवहार करें, चारण और भाट की तरह नहीं।
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