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Monday, February 15, 2021

भारत कैसे फिर बने गणराज्य


दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र, अमरीका नहीं भारत है। 600 ई॰पू॰ भारत में सैंकड़ों गणराज्य थे। जहां बिना लिंग और जाति भेद के समाज के हर वर्ग के प्रतिनिधि खुली चर्चाओं के बाद शासन के नियम और क़ानून तय करते थे। फिर राजतंत्र की स्थापना हुई और दो हज़ार से ज़्यादा वर्षों तक चली। माना यह जाता है कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान पश्चिमी विचारों से प्रभावित हो कर समानता, स्वतंत्रता व बंधुत्व का भारत में प्रचार हुआ और उसी से जन्मा हमारा आज का लोकतंत्र। जिसे आज पूरी दुनिया में  इसलिए सराहा जाता है क्योंकि इसमें बिना रक्त क्रांतियों के चुनाव के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीक़े से सरकारें बदल जाती हैं। जबकि हमारे साथ ही आज़ाद हुए पड़ोसी देशों में आए दिन सैनिक तख्ता पलट होते रहते हैं। आज पूरी दुनिया मानती है कि शासन का सबसे बढ़िया प्रारूप लोकतंत्र है। क्योंकि इसमें किसी के अधिनायकवादी बनने की संभावना नहीं रहती। एक चाय बेचने वाला भी देश का प्रधान मंत्री बन सकता है या एक दलित भारत का राष्ट्रपति या मुख्य न्यायाधीश बन सकता है। अपनी इस खूबी के बावजूद भारत के लोकतंत्र की ख़ामियों पर सवाल उठते रहे हैं। 


सातवें दशक में गुजरात के छात्र आंदोलन और फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संघर्षवाहिनी के माध्यम से पैदा हुए जनआक्रोश की परिणिति पहले आपातकाल की घोषणा और फिर केंद्र में सत्ता पलटने से हुई। तब से आजतक अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों और क्षेत्रीय आंदोलनों के कारण प्रांतों और केंद्र में सरकारें चुनावों के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीक़े से बदलती रही हैं। लेकिन हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता नहीं सुधरी। इसके विपरीत राजनीति में जवाबदेही और पारदर्शिता का तेज़ी से पतन हुआ है। आज राजनीति में न तो विचारधारा का कोई महत्व बचा है और न ही ईमानदारी का। हर दल में समाज के लिए जीवन खपाने वाले कार्यकर्ता कभी भी अपना उचित स्थान नहीं पाते। उनका जीवन दरी बिछाने और नारे लगाने में ही समाप्त हो जाता है। हर दल चुनाव के समय टिकट उसी को देता है जो करोड़ों रुपया खर्च करने को तैयार हो या उसके समर्थन में उसकी जाति का विशाल वोट बैंक हो। फिर चाहे उसका आपराधिक इतिहास रहा हो या उसने बार-बार दल बदले हों, इसका कोई विचार नहीं किया जाता। 


यही कारण है कि आज भारत में भी लोकतंत्र सही मायने में जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर रहा। हर दल और हर सरकार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अधिनायकवादी प्रवृतियाँ ही देखी जाती हैं। परिणामतः भारत हमेशा एक चुनावी माहौल में उलझा रहता है। चुनाव जीतने के सफल नुस्ख़ों को हरदम हर दल द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। नतीजतन देश में साम्प्रदायिक, जातिगत हिंसा या तनाव और जनसंसाधनों की खुली लूट का तांडव चलता रहता है। जिसके कारण समाज का हर वर्ग हमेशा असुरक्षित और अशांत रहता है। ऐसे में आम जन के सम्पूर्ण विकास की कल्पना करना भी बेमानी है। मूलभूत आवश्यकताओं के लिए आज भी हमारा बहुसंख्यक समाज रात दिन संघर्षरत रहता है।

पिछले कुछ हफ़्तों से चल रहे किसान आंदोलन को मोदी जी किसानों का पवित्र आंदोलन बताते हैं और आंदोलनजीवियों पर प्रहार करते हैं। अपनी निशपक्षता खो चुका मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आंदोलनकारियों को आतंकवादी, खलिस्तानी या नकसलवादी बताता है। विपक्षी दल सरकार को पूँजीपतियों का दलाल और किसान विरोधी बता रहे हैं। पर सच्चाई क्या है? कौनसा दल है जो पूँजीपतियों का दलाल नहीं है? कौनसा दल है जिसने सत्ता में आकर किसान मज़दूरों की आर्थिक प्रगति को अपनी प्राथमिकता माना हो? धनधान्य से भरपूर भारत का मेहनतकश आम आदमी आज अपने दुर्भाग्य के कारण नहीं बल्कि शासनतंत्र में लगातार चले आ रहे भ्रष्टाचार के कारण गरीब है। इन सब समस्याओं के मूल में है संवाद की कमी। 

आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच जो परिस्थिति आज पैदा हुई है वह भी संवाद की कमी के कारण हुई है। अगर ये कृषि क़ानून समुचित संवाद के बाद लागू किए जाते तो शायद यह नौबत नहीं आती। आज दिल्ली बोर्डर से निकल कर किसानों की महा-पंचायतों का एक क्रम चारों ओर फैलता जा रहा है और ये सिलसिला आसानी से रुकने वाला नहीं लगता। क्योंकि अब इसमें विपक्षी दल भी खुल कर कूद पड़े हैं। हो सकता है कि इन महा-पंचायतों के दबावों में सरकार इन क़ानूनों को वापिस ले ले। पर उससे देश के किसान मज़दूर और आम आदमी को क्या उसका वाजिब हक़ मिल पाएगा? ऐसा होना असंभव है। इसलिए लगता है कि अब वो समय आ गया है कि जब दलों की दलदल से बाहर निकल कर लोकतंत्र को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत किया जाए। जिसके लिए हमें 600 ई॰पू॰ भारतीय गणराज्यों से प्रेरणा लेनी होगी। जहां संवाद ही लोकतंत्र की सफलता की कुंजी था। 

सत्तारूढ़ दलों सहित देश के हर दल को इसमें पहल करनी होगी और साथ ही समाज के हर वर्ग के जागरूक लोगों आगे आना होगा। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी महा-पंचायत हर तीन महीने में हर ज़िले के स्तर पर आयोजित की जाए जिनमें स्थानीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर जनता के बीच संवाद हो। इन महा-पंचायतों में कोई भी राजनैतिक दल या संगठन अपना झंडा या बैनर न लगाए, केवल तिरंगा झंडा ही लगाया जाए और न ही कोई नारेबाज़ी हो। महा-पंचायतों का आयोजन एक समन्वय समिति करे। जिसमें चर्चा के लिए तय किए हुए मुद्दे मीडिया के माध्यम से क्षेत्र में पहले ही प्रचारित कर दिए जाएँ और उन पर अपनी बात रखने के लिए क्षेत्र के लोगों को खुला निमंत्रण दिया जाए। इन महा-पंचायतों में उस क्षेत्र के सांसद और विधायकों की केवल श्रोता के रूप में उपस्थिति अनिवार्य हो, वक्ता के रूप में नहीं। क्योंकि विधान सभा और संसद में हर मुद्दे के लिए बहस का समय नहीं मिलता। इस तरह जनता की बात शासन तक पहुँचेगी और फिर धरने, प्रदर्शनों और हड़तालों की सार्थकता क्रमशः घटती जाएगी। अगर ईमानदारी से यह प्रयास किया जाए तो निश्चित रूप से हमारा लोकतंत्र सुदृढ़ होगा और हर भारतवासी लगातार सक्रिय रहकर अपने हक़ को पाने के लिए सचेत रहेगा। फिर उसकी बात सुनना सरकारों की मजबूरी होगी।      

Monday, January 4, 2021

खेती के असली मुद्दों पर ध्यान क्यों नहीं?


एक समय था जब भारत को अपन पेट भरने के लिए अनाज की भीख माँगने विदेश जाना पड़ता था। हरित क्रांति के बाद हालात बदल गए। अब भारत में अनाज के भंडार भर गए। पर क्या इससे बहुसंख्यक, छोटी जोत वाले किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरी? क्या वजह है कि आज भी देश में इतनी बड़ी तादाद में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है? गेहूं का कटोरा माने जाने वाले पंजाब तक में ज़मीन की उर्वरकता घटी है और अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूजल स्तर 700 फुट नीचे तक चला गया है। दरअसल, यह सब हुआ उस कृषि क्रांति के कारण जिसके सूत्रधार थे अमेरिका के कृषि विशेषज्ञ नॉर्मन बोरलोह, जिन्होंने रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का उपयोग कर एवं ट्रैक्टर से खेत जोत कर कृषि उत्पादन को दुगना चौगुना कर दिखाया। इधर
भारत में कृषि वैज्ञानिक डॉ स्वामीनाथन ने तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को राजी कर लिया और बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं का आयात शुरू हो गया। इसके साथ ही कुछ देसी कंपनियों ने ट्रेक्टर ओर अन्य कृषि उपकरण बनाने शुरू कर दिए। शास्त्री जी के बाद जो सरकारें आईं उन्होंने इसे आमदनी का अच्छा स्रोत मान कर इन कंपनियों के साथ सांठगांठ कर भारत के किसानों को रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं की ओर ले जाने का काम किया। नतीजतन सदियों से गाय, गोबर और गो मूत्र का उपयोग कर नंदी से हल चलाने वाले किसान ने महंगी खाद और उपकरणों के लिए ऋण लेना शुरू किया।


इससे एक तरफ़ तो कृषि महंगी हो गई क्योंकि उसमें भारी पूँजी की ज़रूरत पड़ने लगी। दूसरा किसान बैंकों के क़र्ज़े के जाल फँसते गए। तीसरा, सदियों से कृषि की रीढ़ बने बैल अब कृषि पर भार बन गए। जिससे उन्हें बूचड़खानों की तरफ़ खदेड़ा जाने लगा। इस सब प्रक्रिया में ग्रामीण बेरोज़गारी भी तेज़ी से बढ़ी। क्योंकि इससे गाँव की आत्मनिर्भरता का ढाँचा ध्वस्त हो गया। अब हर गाँव शहर के बाज़ार पर निर्भर होता गया। जिससे गाँव की आर्थिक स्थिति कमजोर होती चली गई। क्योंकि उपज के बदले जो आमदनी गाँव में आती थी उससे कहीं ज़्यादा खर्चा महंगे उपकरणों, रासायनिक खाद, कीटनाशक, डीज़ल आदि पर होने लगा। इस सबके दुष्परिणाम स्वरूप सीमांत किसान अपने घर और ज़मीन से हाथ धो बैठा। मजबूरन उसे शहरों की ओर पलायन करना पड़ा। इस तरह भारतीय कृषि व्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का षड्यंत्र सफल हो गया।  


चिंता की बात यह है कि आज की भारत सरकार को भी भारत की कृषि की कमर तोड़ने के इस अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र के बारे में सब कुछ पता है। मगर इन कंपनियों ने शायद सबके मुँह पर दशकों से चांदी का जूता मार रखा है। इसीलिए ये लोग दिखाने को यूरिया में नीम मिला कर देने की बात करते है। पर उर्वरक मंत्रालय केमिकल मंत्रालय के साथ जुड़ा हुआ है। जबकि उर्वरक कृषि मंत्रालय का विषय है।


एक ओर कृषि मंत्रालय, ‘नेशनल सेन्टर फ़ॉर आर्गेनिक फार्मिंग’ के केंद्र हर जगह स्थापित कर रहा है। दूसरी तरफ़ यही केंद्र जोर शोर से ‘वेस्ट डिकॉम्पोज़र’ का प्रचार भी कर रहा हैं। वहीं सारे एग्रीकल्चर कॉलेजों के पाट्यक्रम में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के प्रयोग का विधि सिखाई जाती है न कि प्राकृतिक कृषि की। आप किसी भी एग्रीकल्चर कॉलेज का यूट्यूब वीडियो देख लें, वे आपको रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के ही प्रयोग की विधि बताएंगे।


क्योंकि रासायनिक खाद, कीटनाशक और तथाकथित उन्नत किस्म के बीज का एक अंतरराष्ट्रीय माफिया काम कर रहा है। जो कृषि प्रधान भारत को दूसरे देशों पर निर्भर होने के लिए मजबूर कर रहा है। इस माफिया के साथ प्रशासन के लोगों की भी साँठ-गाँठ है। अगर इस माफिया पर भारत सरकार का नियंत्रण होता तो देश मे दस लाख किसान आत्महत्या नहीं करते। आँकड़ों की मानें तो अकेले महाराष्ट्र में साढ़े तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अब इस माफियाओं के गुट में एक और माफिया शामिल हो गया है जो शराब बनाने वाले कम्पनियों और राजनीतिज्ञों की साँठ गाँठ से सक्रिय है। एक ओर गरीब लोग मुट्ठी भर अनाज के लिए तरसते हैं, तो वहीं गेंहू 20 किलो के दर से खरीद कर ‘भारतीय खाद्य निगम’ के गोदामों या खुले मैदानों में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर उसी गेंहू को 2.00 किलो के भाव से शराब बनाने वाली इन कम्पनियों को बेच दिया जाता हैं। 


इस पूरी दानवी व्यवस्था का विकल्प महात्मा गांधी अपनी पुस्तक ‘ग्राम स्वराज’ में बता चुके हैं। कैसे गाँव की लक्ष्मी गाँव में ही ठहरे और गान के लोग स्वास्थ्य, सुखी और निरोग बनें। इसके लिए ज़रूरत है भारतीय गोवंश आधारित कृषि की व्यापक स्थापना की। हर गाँव या कुछ गाँव के समूह के बीच भारतीय गोवंश के संरक्षण व प्रजनन की व्यवस्था होनी चाहिए। गाँव के राजस्व रिकोर्ड में दर्ज चारागाहों की भूमि को पट्टों और अवैध क़ब्ज़ों से मुक्त करवा कर वहाँ गोवंश के लिए चारे का उत्पादन करना चाहिए। इस उपाय से गाँव के भूमिहीन लोगों को रोज़गार भी मिलेगा।  


देश मे सात लाख गाँव है और अगर दस-दस समर्थक भी एक एक गाँव के लिए काम करें तो केवल 70 लाख समर्थकों की मदद से हर गाँव में गौ विज्ञान केंद्र की स्थापना हो सकती है। क्या हम सब पहल कर एक एक गांव को इसके लिए प्रेरित नहीं कर सकते? सड़कों व जंगलों में छोड़ दिए गए गौवंश को बूचड़खाने की तरफ़ न भेज कर क्या उनके गोबर और गौमूत्र से जैविक खेती करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते? 


आशा है सभी किसान हितैषी संघटन इस सुझाव पर ध्यान देंगे। जैसा मैंने इस कॉलम में पहले भी लिखा है कि गौवंश की रक्षा गौशालाएँ बनाकर नहीं हो सकती। क्योंकि ये तो ज़मीन हड़पने और भ्रष्टाचार के केंद्र बन जाते हैं। गौवंश की रक्षा तभी होगी जब हर किसान के घर कम से कम एक या दो गाय ज़रूर पाली जाएं। इससे न सिर्फ़ भारतीय कृषि उत्पादनों की गुणवत्ता बढ़ेगी बल्कि उस कृषक का परिवार भी स्वस्थ और सम्पन्न बनेगा।

Monday, December 21, 2020

किसानों की समस्या: समाधान जरूरी है



इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में किसानों की हालत लगातार खराब हुई है। गत 73 वर्षों में उनकी स्थिति सुधारने के लिए अगर कोई प्रयास किए गए हैं तो उसका फायदा नहीं हुआ है। किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के लिए 2004 में तब की सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया था। ‘नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स’ को स्वामीनाथन आयोग के नाम से भी जाना जाता है। इस आयोग ने पांच रिपोर्ट दी हैं। अंतिम व पांचवीं रिपोर्ट चार अक्तूबर, 2006 को दी गयी थी। इस रिपोर्ट की सिफारिशें आज तक लागू नहीं की जा सकी हैं। प्रधान मंत्री श्री मोदी का कहना है कि नए कृषि क़ानून किसानों के हक़ में हैं।  



इसलिए किसानों की माँग न होते हुए भी, सरकार ने अचानक बिना घोषित तैयारी के जल्दबाजी में तीन कृषि कानून पास कर दिए। संसद में इन पर चर्चा नहीं होना और इन्हें पास किए जाने का तरीका विवादास्पद रहा। पर सरकार इन क़ानूनों के आलोचकों को भ्रमित बता रही है। जबकि दूसरी ओर विपक्षी दल इसे नोटबंदी की तरह ही जल्दीबाज़ी में बनाया गया क़ानून कह कर सरकार से इस पर संसद में बहस की माँग कर रहे हैं। उनका आरोप है कि इस बहस से बचने के लिए ही सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र कोविड के बहाने रद्द किया है। जबकि बिहार, हैदराबाद चुनावों व सिंधु सीमा पर जमी किसानों की भारी भीड़ कोविड के भय को आईना दिखा रही है। किसानों, सरकार व विपक्ष के बीच ऐसे अविश्वास के माहौल में अगर बातचीत नहीं होगी तो समस्या का हल निकलने की संभावना नहीं दिखती है। उधर कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं द्वारा किसानों को खालिस्तानी और न जाने क्या क्या कहा जा रहा है। जबकि आंदोलनकारी सरकार पर पूंजीपतियों के हित में काम करने का आरोप लगा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी किसानों के आंदोलन के हक़ को संवैधानिक बताते हुए सरकार को वार्ता जारी रखने का निर्देश दिया है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर व रेल मंत्री पीयूष गोयल, यहाँ तक की गृह मंत्री अमित शाह तक किसानों से वार्ता कर चुके हैं पर अभी तक हल नहीं निकला है। अब तो किसान बात करने को भी तैयार नहीं हैं। तो बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। पर कोशिशें जारी हैं। 


यह दिलचस्प है कि उत्पादन कम होना खेती की समस्या की नहीं है। अगर ऐसा होता तो उसे उत्पादन बढ़ाकर ठीक किया जा सकता था। हरित क्रांति के बाद देश में अनाज का पर्याप्त उत्पादन हो रहा है और इस मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। पर खेती करने वाले किसान आत्मनिर्भर नहीं हैं। जरूरत उन्हें आत्म निर्भर बनाने की है और इसके लिए उन्हें उत्पाद का वाजिब मूल्य मिलना जरूरी है। अभी तक यह न्यूनतम समर्थन मूल्य से सुनिश्चित किया जाता था। पर नए कानून में इसका प्रावधान नहीं है। हालांकि सरकार कह रही है कि वह व्यवस्था बनी रहेगी। विरोध और विवाद का मुद्दा यही है और यह सरकार की साख तथा भरोसे से भी जुड़ा है। 

 

वैसे, यह समझने वाली बात है कि किसान को जरूरत न्यूनतम समर्थन मूल्य की है न कि कहीं भी बेचने की आजादी। किसान खराब होने वाली अपनी फसल लेकर बाजार में घूमे भी तो खरीदने वाला उसे उचित कीमत नहीं देगा क्योंकि वह जानता है कि पैदावार कुछ दिन में खराब हो जाएगा और किसान की मजबूरी है कि वह उसे जो कीमत मिल रही है उसपर बेचे। कोई भी खरीदार इसका लाभ उठाएगा और यही किसान की समस्या है। न्यूनतम समर्थन मूल्य आसान उपाय है। दूसरा उपाय यह हो सकता था कि किसानों की पैदावार को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की व्यवस्था हो और वह सही समय पर अपनी उपज सही मूल्य पर (सही बाजार में) बेच पाए। पर खुले ट्रक या ट्रैक्टर पर किसानों की ज्यादातर फसल कुछ दिन में बेकार हो जाती है। 


इसलिए किसानों को कॉरपोरेट की तरह एमआरपी यानी अधिकत्तम खुदरा मूल्य की सुविधा नहीं मिलती है बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा थी जो अब खत्म होती लग रही है। ऐसे में उनका परेशान होना वाजिब है। समस्या इतनी ही नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य जब जरूरी है और उसे खत्म किया जा रहा है तो यह कौन बताए और कौन सुनेगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य भी लागत और आवश्यक मुनाफे के लिहाज से कम होता है और इसे बढ़ाने की जरूरत है पर अभी तो उसकी बात ही नहीं हो रही है। पूरी व्यवस्था ही उलट-पुलट हो गई लगती है।  

   

यह दिलचस्प है कि एक तरफ सरकार किसानों को नकद आर्थिक सहायता दे रही है और दूसरी ओर उसे सरकार की नीति का विरोध करने वाले किसान संपन्न नजर आ रहे हैं। इसे खूब प्रचारित किया जा रहा है। आम जनता को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि सरकार का विरोध करने वाले गरीब, परेशान या प्रभावित नहीं हैं और जो गरीब, परेशान या प्रभावित हैं वे नकद सहायता से खुश हैं। अव्वल तो यह वास्तविकता नहीं हो सकती है पर हो भी तो स्थायी समाधान नहीं है। यह अनवरत नहीं चलता रह सकता है कि किसान सबसिडी से काम चलाएं। कुछ उपाय तो किया ही जाना चाहिए। और अगर इतने बड़े आंदोलन से भी इस जरूरत को नहीं महसूस किया गया है तो यह चिंता की बात है। जैसा केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि कृषि बिल के हर बिंदु पर सरकार और किसानों के बीच खुले मान से विमर्श होना चाहिए जिससे, अगर कोई भ्रम है तो वो दूर हो जाए और अगर क़ानून ग़लत बन गया है तो उसका संशोधन हो जाए। इसलिए दोनो पक्षों के बीच वार्ता होना बहुत ज़रूरी है।


Monday, December 7, 2020

किसान आन्दोलन साम दाम दंड भेद की कसौटी पर?


आज देश भर में किसान आंदोलन को लेकर बहुत चर्चा हो रही है। लेकिन आज हम सरकार और किसानों के बीच हो रहे इस आंदोलन के हल निकालने के लिए अपनाए जा रहे तरीक़ों पर चर्चा करेंगे। और इसी से अंदाज़ा लगेगा कि यह आंदोलन किस ओर जा रहा है। दरअसल यह विश्लेषण हमारे मित्र, चिंतक और समाज वैज्ञानिक सुधीर जैन ने किया है। 

श्री जैन का कहना है कि पारम्परिक ज्ञान है कि, किसी भी समस्या या परेशानी से निपटने के लिए कौटिल्य द्वारा बताए गए साम, दाम, दंड व भेद का रास्ता ही सबसे उचित है। अगर हम इनको एक-एक करके देखें तो हो सकता है कि हमें कुछ अंदाज़ा लगे कि इस आंदोलन में आगे क्या हो सकता है। साम, दाम, दंड व भेद में एक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि ये सब एक क्रम में हैं। 

सबसे पहले साम यानी समझौते या संवाद को अपनाया जाता है। लेकिन इस समस्या में साम कि बात करें तो ये देखा जाएगा कि साम के बजाए बाक़ी तीनों विकल्पों को पहले अपनाया जा रहा है। इस बात से आप सभी भी सहमत होंगे कि जो भी स्थितियाँ पिछले दिनों में बनीं उनमें दंड और भेद ज़्यादा  दिखाई दिए। लेकिन इस बात का विरोध करने वाले यह कहेंगे कि साम यानी संवाद वाले औज़ार का प्रयोग हो तो रहा है। लेकिन पिछले दिनों की गतिविधियों को देखें तो साम का इस्तेमाल कोई ज़्यादा दिखाई नहीं दे रहा। न तो किसानों की ओर से और न ही सरकार की ओर से। अलबत्ता बाक़ी तीन चीजों का इस्तेमाल ज़्यादा दिखाई देता है।


दाम की स्थित यह है कि वर्षों से स्थापित किसान नेताओं को इस आंदोलन में कोई ज़्यादा छूट नहीं दी गई है। जिस तरह से देश भर के किसानों के प्रतिनिधियों को इस आंदोलन में देखा जा रहा है, 35 संगठन कम नहीं होते। इन 35 संगठनों को घटा कर एक संगठन या मंडल में सीमित करना कोई आसान काम नहीं है। किसान इस बात पर राज़ी नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि यह आंदोलन राजनैतिक आंदोलन कम और सामूहिक या सामाजिक आंदोलन ज़्यादा नज़र आता है। सरकार को इसमें दाम के औज़ार को इस्तेमाल करने में काफ़ी कठिनाई आ सकती है। अगर सारे आंदोलन का एकमुश्त नेतृत्व चंद लोगों के हाथ में होता तो सरकार उनसे डील कर सकती थी। जैसा अक्सर होता है। पर यहाँ सभी बराबर के दमदार समूह हैं। इसलिए उसकी संभावना कम नज़र आती है। 

दंड की बात करें तो इसमें थोड़ी कोशिश ज़रूर की गई है। इस आंदोलन में जिस तरह अड़चन डाली गई या किसानों को भयभीत किया गया कि किसी तरह इस आंदोलन को शुरू न होने दिया जाए। लेकिन दंड का औज़ार इस आंदोलन में ज़्यादा असरदार नहीं दिखा। आज देश की स्थितियाँ काफ़ी संवेदनशील हैं और इन स्थितियों ऐसी दबिश या ज़बरदस्ती करना सम्भव नहीं दिखता। लेकिन इस आंदोलन में अगर दंड के रूप में थोड़ा आगे देखें तो अदालत एक ऐसा रास्ता दिखाई देता है जिसे सरकार आने वाले समय में अपना सकती है। ऐसा पहले हुआ भी है जब किसी आंदोलन में कोई समझौता, दबिश या दंड का रास्ता नहीं काम आया तो अदालत का दरवाज़ा खटखटाया जाता है। कोविड के नाम पर अदालत से किसानों को हटाने के आदेश माँगे जा सकते हैं। पर तब सवाल खड़ा होगा कि बिहार और हैदराबाद  सहित जिस तरह लाखों लोगों की भीड़ कंधे से कंधा सटाकर जनसभाओं में हफ़्तों जमा होती रही उनपर कोविड का महामारी के रूप में क्या कोई असर हुआ? अगर नहीं तो अदालत में किसानों के वकील ये सवाल खड़ा कर सकते हैं।  


साम, दाम, दंड के बाद अब अगर भेद की बात करें तो उसमें दो तीन बातें आती हैं जैसे कि भेद लेना, तो किसानों से भेद लेना कोई आसान सी बात नहीं दिखती। सब कुछ टिकैत के आंदोलन की तरह एकदम स्पष्ट है। इतने सारे किसान नेता हैं, प्रवक्ता हैं, इनमें भेद करना या फूट डालना मुश्किल होगा। फिर भी वो कोशिश ज़रूर होगी। इस दिशा में जितनी भी कोशिश हों रही हैं अगर उनको आप ध्यान से देखेंगे या उससे सम्बंधित खबरों को देखेंगे तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि भेद डालने के क्या-क्या उपक्रम हुए हैं। ये काम भी हर सरकार हर जनआंदोलन के दौरान करती आई है। इसलिए इस हथकंडे को मौजूदा सरकार भी अपनाने की कोशिश करेगी। 

लेकिन इन सब से हट कर एक गुंजाइश और बचती है और वो है वक्त। ऐसे आंदोलनों से निपटने के लिए जो भी सरकार या नौकरशाही या कारपोरेट घराने हों वो इस इंतज़ार में रहते हैं कि किसी तरह आंदोलन को लम्बा खिंचवाया जाए तो वो धीरे-धीरे ठंडा पड़ जाता है। ये विकल्प अभी बाक़ी है कि किस तरह से इस आंदोलन को अपनी जगह पर ही रहने दें और इंतज़ार किया जाए। यानी मुद्दे को वक्त के साथ मरने दिया जाए। अलबत्ता किसानों ने आते ही इस बात का ऐलान भी कर दिया था कि वो तैयारी के साथ आए हैं। वो 4-5 महीनों का राशन भी साथ लेकर आए हैं। इनके उत्साह को देखते हुए यह पता लग रहा है कि किसान एक लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए इस औज़ार का इस्तेमाल करने में भी मुश्किल आएगी। अगर आर्थिक मंदी की मार झेल रहे देश के करोड़ों बेरोज़गार नौजवान भी इस आंदोलन से जुड़ गए तो ये विकराल रूप धारण कर सकता है। ये तो वक्त ही बताएगा की ऊंट किस करवट बैठेगा।

जहां तक आंदोलन के खलिस्तान समर्थक होने का आरोप है तो यह चिंता की बात है। ऐसे कोई भी प्रमाण अगर सरकार के पास हैं तो उन्हें अविलंब सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित ‘हत्या’ की तर्ज़ पर कुछ टीवी चैनलों का ये आरोप लगाना बचकाना और ग़ैर ज़िम्मेदाराना लगता है। जब तक कि वे इसके ठोस प्रमाण सामने प्रस्तुत न करें। यूँ तो हर जन आंदोलन में कुछ विघटनकारी तत्व हमेशा घुसने की कोशिश करते हैं। अब ये किसान आंदोलन के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वो ऐसे तत्वों को हावी न होने दें और अपना ध्यान मुख्य मुद्दों पर ही केंद्रित रखें। सरकार भी खुले मन से किसानों की बात सुने और वही करे जो उनके और देश के हित में हो।           

Monday, November 2, 2020

प्रधान मंत्री का पुतला जलाना ठीक नहीं


इस दशहरे पर देश के कई हिस्सों में आक्रोशित किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और उत्तेजित भीड़ ने रावण दहन के लिए बने पुतले पर प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का चेहरा लगा कर रावण दहन किया और उत्तेजक नारे लगाए। किसी भी प्रधान मंत्री के साथ ऐसा दुर्व्यवहार आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ। इसका जितनी निंदा की जाए कम है। प्रधान मंत्री भारत सरकार का सर्वोच्च मुखिया होता है। उसका अपमान देश का अपमान है। इसलिए आजतक कभी आंदोलनकारियों ने या विपक्षी दलों ने ऐसा काम नहीं किया था। यह बड़ी चिंता की बात है और यह देश के लोकतंत्र के तेज़ी से पतनशील होने का बड़ा प्रमाण है। प्रधान मंत्री का पुतला जलाने वाले वास्तव में उनकी नीतियों से आहत थे या उन्हें किसी ने राजनैतिक मक़सद से उकसाया? जो भी हो इससे एक ग़लत परम्परा की शुरुआत हो गई जो और भी ज़्यादा चिंता की बात है।
 

दरअसल पिछले कुछ वर्षों में राजनीति का जो विमर्श बना है और जिस तरह की भाषा राजनैतिक कार्यकर्ता और उनके सहयोगी मीडिया कर्मी अपने विरोधियों के प्रति प्रयोग कर रहे हैं, उससे वो दिन दूर नहीं जब राजनीति में बातचीत से नहीं लाठी, गोली और डंडों से ही बात हुआ करेगी। फिर तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। फिर न तो कोई विचारधारा बचेगी और न कोई सामाजिक सरोकार का मुद्दा। घोर अराजकता की स्थिति होगी। इस पतन की शुरुआत बहुत सीमित मात्रा में तीन दशक पहले हुई थी, जब राजनैतिक दलों ने अपराधियों को चुनावों में उम्मीदवार बनाना शुरू किया था। तब मैंने अपनी कालचक्र विडीओ मैगज़ीन में एक रिपोर्ट तैयार की थी ‘क्या भारत पर माफिया राज करेगा?’ पर तब हालत इतने बुरे नहीं थे जितने आज हो गए हैं। 



पिछले कुछ वर्षों से देश के स्तर से लेकर गाँव और क़स्बे तक राजनैतिक आक्रामकता बढ़ती जा रही है। कोई अपने विरोधी की बात न तो शांति से सुनने को तैयार है और न उस पर तर्क करने को। ज़रा सा विरोध भी किसी को बर्दाश्त नहीं है। बात बात पर अपने विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करना, उन्हें धमकी देना या उन्हें देशद्रोही बताना आम बात हो गई है। इससे समाज में तनाव और असुरक्षा बढ़ रही है। यह भारत की सनातन संस्कृति नहीं हैं। ऐसा आचरण तो पश्चिम एशियाई देशों में देखने में आता है, जहां छोटी छोटी बातों पर मारकाट, गोली-बारी और सर कलम करने जैसे हादसे रोज़ होते रहते हैं। 


भारत की संस्कृति में तो राजा से भी एक आम नागरिक उसके दरबार में अपना विरोध प्रकट कर सकता था। पौराणिक गोवर्धन पर्वत की तलहटी में 500 वर्ष पहले एक प्रसिद्ध भजन गायक संत कुंभन दास जी रहते थे। बादशाह अकबर ने उनकी तारीफ़ सुनी तो उनका गायन सुनने के लिए सिपाही भेज कर उन्हें अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरि बुलवा लिया। इससे कुंभन दास जी बहुत दुखी हुए। बादशाह के हुक्म पर उन्होंने दरबार में अपना प्रसिद्ध पद गाया, संत कू कहा सीकरी सों काम। आवत जात पनहैया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। बादशाह अकबर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो कुंभन दास जी बोले, आज के बाद अपना मनहूस चेहरा मुझे मत दिखाना, क्योंकि इसके चक्कर में आज मेरा भजन भंग हो गया। इस पर दरबारियों ने तलवारें खींच लीं, तो अकबर ने उन्हें रोका और कहा, ये सच्चे फ़क़ीर हैं, ये शहनशाहों के शहनशाह (भगवान श्री कृष्ण) के लिए गाते हैं, हमारे लिए नहीं। मतलब ये कि अगर शासक में अपनी आलोचना सुनने की उदारता होगी, तो जनता का आक्रोश इतना नहीं भड़केगा कि वो मर्यादा की सीमा लांघ जाए। 


आजकल थाईलैंड के राजतंत्र के ख़िलाफ़ भारी जन आक्रोश ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया है। जबकि थाईलैंड के क़ानून के अनुसार राजा की निंदा करना भी ग़ैर क़ानूनी है। ऐसा इसलिए हुआ कि पिछले राजा उदार थे और लोकप्रिय भी। जबकि वर्तमान राजा के आचरण और नीतियों से जनता त्रस्त है। वैसे सारी जनता को हर समय कोई भी शासक पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता। कुछ न कुछ लोग तो हमेशा असंतुष्ट होंगे ही। पर अगर शासक वर्ग आम जनता के प्रति सम्वेदनशील है और जनता को भी लगता है कि उसकी नीतियों से जनता को लाभ मिल रहा है, तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। किंतु अगर जनता को लगे कि शासक वर्ग की नीतियाँ और आचरण आम जनता के हितों के विरोध में हैं और केवल कुलीन या सम्पन्न लोगों के हित में हैं तो उसका आक्रोश बढ़ जाता है। जिसकी परिणिति हिंसक आंदोलन का रूप भी ले सकती है। 


मध्य युग की छोड़ दें तो भी आधुनिक युग में और इसी सदी में दुनिया के जिन-जिन देशों में शासकों ने तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाया, विरोध के स्वरों को दबाया और जनसंचार के माध्यमों से अपना झूठा प्रचार करवाया उन-उन तानाशाहों को खूनी क्रांति का सामना करना पड़ा। इसलिए लोकतंत्र में जो चार स्तंभ बनाए गए हैं - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया, चारों की स्वायत्तता समविधान में सुरक्षित की गई है। इन चारों स्तंभों को एक दूसरे के ऊपर निगरानी रखने का दायित्व भी लोकतांत्रिक परम्पराओं ने प्रदान किया है। जिससे समाज में संतुलन बना रहे। 


इसलिए यह हम सब का दायित्व है कि हम देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं में तजी से आई इस गिरावट को रोकने का काम तुरंत करें। इसमें ज़्यादा ज़िम्मेदारी स्वयं प्रधान मंत्री श्री मोदी जी की है। वे सत्ता के सिरमौर हैं और एक नए भारत का सपना देख रहे हैं। उन्हें इस परीस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन कर इस गिरावट को रोकने के लिए ठोस और प्रभावी कदम उठाने चाहिएँ। जिससे हमारा समाज भयमुक्त हो, अनुशासित हो और ज़िम्मेदारी से व्यवहार करे, ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत न करे।

Monday, October 19, 2020

हर किसान महर्षि फ़िल्म ज़रूर देखे

सरकार द्वारा पारित किए गए कृषि उत्पाद क़ानूनों को लेकर आज देश में भारी विवाद उठ खड़ा हुआ है। जहां मोदी सरकार का दावा है कि इन क़ानूनों से किसानों को फ़ायदा होगा। वहीं विपक्षी दल इसके नुक़सान गिनाने में जुटे हैं। देश के कई प्रांतों में इन मुद्दों पर आंदोलन भी चल रहे हैं। इसी दौरान ‘एमेज़ोन प्राइम’ टीवी चैनल पर 2019 में आई तेलगू फ़िल्म ‘महर्षि’ देखी। इससे पहले कि इस फ़िल्म के विषय में मैं आगे चर्चा करूँ, सभी पाठकों से कहना चाहूँगा कि अगर उनके टीवी में ‘एमेज़ोन प्राइम’ है तो उस पर अन्यथा उनके जिस मित्र के घर ‘एमेज़ोन प्राइम’ हो वहाँ जा कर ये फ़िल्म अवश्य देखें। ख़ासकर कृषि व्यवसाय से जुड़े परिवारों को तो यह फ़िल्म देखनी ही चाहिए। वैसे फ़िल्म थोड़ी लम्बी है, लगभग 3 घंटे की, लेकिन बिलकुल उबाऊ नहीं है। आधुनिक युवाओं को भी यह फ़िल्म आकर्षित करेगी, क्योंकि इसमें उनकी रुचि का भी बहुत कुछ है। 


मूल फ़िल्म तेलगू में है, पर हिंदी के ‘सबटाइटिल’ साथ-साथ चलते हैं, जिससे हिंदी भाषी दर्शकों को कोई दिक्कत नहीं होती। फ़िल्म का मुख्य किरदार ऋषि नाम का एक माध्यम वर्गीय युवा है जो लाखों अन्य युवाओं की तरह सूचना प्रौदयोगिकी की पढ़ाई करके अमरीका नौकरी करने जाता है और वहाँ अपनी कुशाग्र बुद्धि और मज़बूत इरादों से कुछ ही वर्षों में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सीईओ बन जाता है। इसमें असम्भव कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तमाम भारतीय अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सीईओ बन कर दुनिया में नाम और बेशुमार दौलत कमा चुके हैं। ऋषि भी उसी मंज़िल को हासिल कर लेता है और दुनिया का हर ऐशो-आराम उसके कदमों में होता है। तभी उसकी ज़िंदगी में एक नाटकीय मोड़ आता है। जब वो अचानक अपने निजी हवाई जहाज़ में बैठ कर हैदराबाद के पास एक गाँव में अपने सहपाठी से मिलने आता है, जो किसानों के हक़ के लिए मुंबई के एक बड़े औद्योगिक घराने से अकेला संघर्ष कर रहा होता है। 


यह औद्योगिक घराना उस ग्रामीण क्षेत्र में मिले प्राकृतिक तेल के उत्पादन का एक बड़ा प्लांट लगाने जा रहा है, जिसके लिए उस क्षेत्र के हरे भरे खेतों से लहलहाते पाँच दर्जन गाँवों को जड़ से उखाड़ा जाना है। मुआवज़ा भी इतना नहीं कि उजाड़े गए किसानों के परिवार दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें। ऋषि इस समस्या का हल ढूँढने में जुट जाता है जिसमें उसका सीधा संघर्ष मुंबई के उसी औद्योगिक घराने से हो जाता है। पर अपनी बुद्धि, युक्ति, समझ और धन के बल पर ऋषि यह लड़ाई जीत जाता है। हालाँकि इससे पहले उसके संघर्ष में कई उतार चढ़ाव आते हैं। जैसे जिन किसानों के लिए ऋषि और उसका मित्र, जान जोखिम में डाल कर दिन-रात लड़ रहे थे, वही किसान उद्योगपति और नेताओं की जालसाज़ी में फँसकर इनके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। पर जब ऋषि अपनी सैंकड़ों करोड़ रुपए की आय का 90 फ़ीसदी इन किसानों की मदद के लिए खुले दिल से लुटाने को तैय्यार हो जाता है, तब किसानों को ऋषि की निष्ठा और त्याग की क़ीमत समझ में आती है। तब सारे इलाक़े के किसान ऋषि के पीछे खड़े हो जाते हैं। यह ऋषि की बहुत बड़ी ताक़त बन जाती है।

 

अपनी अकूत दौलत और राजनैतिक दबदबे के बावजूद मुंबई का वह उद्योगपति हाथ मलता रह जाता है। इस सफलता के बाद ऋषि अमरीका वापिस जाने को अपने जहाज़ में बैठ जाता है। पर तभी उसे पिछले दिनों के अनुभव चलचित्र की तरह दिखाई देने लगते हैं और तब वह क्षण भर में फ़ैसला लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सीईओ पद से इस्तीफ़ा दे देता है। वह शेष जीवन किसानों के हक़ के लिए और उनकी मदद के लिए ख़ुद किसान बन कर जीने का फ़ैसला करता है। 



फ़िल्म का आख़िरी आधा घंटा बहुत गम्भीरता से देखने वाला है। इसमें देश के किसानों की दुर्दशा का व्यापक वर्णन हुआ है। ऋषि ने किसानों, नेताओं, अधिकारियों, मंत्रियों और मीडिया के सामने जिस प्रभावशाली किंतु सरल तरीक़े से किसानों की समस्या को बताया है उससे शहर में रहने वाले लोग, जिनका कृषि से कोई सम्बंध नहीं है, वे भी सोचने पर मजबूर होते हैं कि हम किसानों की ज़िंदगी के बारे में कितने अनपढ़ हैं। जबकि हम कार के बिना रह सकते हैं लेकिन भोजन के बिना नहीं। अन्नदाता की उपेक्षा करके या अपने औद्योगिक लाभ के लिए किसानों का हक़ छीनने वाले लोगों को भी यह फ़िल्म कुछ सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी। 


वैसे तो किसानों की समस्याओं पर बिमल राय की ‘दो बीघा ज़मीन’ या बॉलीवुड की ‘मदर इंडिया’ और ‘लगान’ जैसी दर्जनों फ़िल्में पिछले 73 सालों में आईं हैं। इन फ़िल्मों ने किसानों की दुर्दशा का बड़ी गहराई, संजीदगी और ईमानदारी से प्रस्तुतिकरण भी किया है। पर आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय युवा फ़िल्मी सितारे और फ़िल्म निर्माता महेश बाबू ने इस फ़िल्म को इस तरह बनाया है कि हर वो आदमी जिसका किसानी से कोई नाता नहीं, वो भी इस फ़िल्म को बड़े चाव से अंत तक देखता है और उसे समाधान भी मिलता है। फ़िल्म में ऋषि का किरदार ख़ुद महेश बाबू ने बखूबी निभाया है। उनके खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व और जुनून ने इस फ़िल्म को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं को और ग्रामीण स्कूलों के शिक्षकों को प्रयास करके यह फ़िल्म हर गाँव में दिखानी चाहिए।