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Monday, November 9, 2020

अमरीकी टीवी से सीखें भारतीय टीवी चैनल

अमरीका में चुनाव का जो भी नतीजा हो मतगणना के दौरान डॉनल्ड ट्रम्प ने जो जो नाटक किए उससे उनका पूरी दुनिया में मज़ाक़ उड़ा है। अपनी हार की आशंका से बौखलाए ट्रम्प ने कई बार संवाददाता सम्मेलन करके विपक्ष पर चुनाव हड़पने के तमाम झूठे आरोप लगाए और उनके समर्थन में एक भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। उनके इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्रपति के पद की गरिमा को भारी ठेस लगी है। 

पर हमारा आज का विषय ट्रम्प नहीं बल्कि अमरीकी टीवी चैनल हैं। जिन्होंने गत शुक्रवार को ट्रम्प के संवाददाता सम्मेलन का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक दिया। यह कहते हुए कि राष्ट्रपति ट्रम्प सरासर झूठ बोल रहे हैं और बिना सबूत के दर्जनों झूठे आरोप लगा रहे हैं। इन टीवी  चैनलों के एंकरों ने यह भी कहा ट्रम्प के इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से अमरीकी समाज में अफ़रातफ़री फैल सकती है और संघर्ष पैदा हो सकता है, इसलिए जनहित में हम राष्ट्रपति ट्रम्प के भाषण का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक रहे हैं। 


अमरीका के समाचार टीवी चैनलों की इस बहादुरी और ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता की सारी दुनिया में तारिफ़ हो रही है। दरअसल अपनी इसी भूमिका के लिए ही मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। ये भारत के समाचार टीवी चैनलों के लिए बहुत बड़ा तमाचा है। दूरदर्शन तो अपने जन्म से ही सरकार का भोंपू रहा है। प्रसार भारती बनने के बाद उस स्थिति में थोड़ा बदलाव ज़रूर आया है। पर कमोबेश वो आज भी सरकार का भोंपू बना हुआ है। भारत में स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता इंडिया टुडे समूह ने अंग्रेज़ी विडीओ न्यूज़ पत्रिका ‘न्यूज़ट्रैक’ से और मैंने ‘कालचक्र’ हिंदी विडीओ समाचार पत्रिका से 30 वर्ष पहले शुरू की थी। तब अंग्रेज़ी दैनिक पायनियर में मेरा और न्यूज़ट्रैक की संपादिका मधु त्रेहान का एक इंटरव्यू छपा था। जिसमें मधु ने कहा था, ‘हम मीडिया के व्यापार में हैं और व्यापार लाभ के लिए किया जाता है।’ और मैंने कहा था, ‘हम जनता के प्रवक्ता हैं इसलिए जो भी सरकार में होगा उसकी ग़लत नीतियों की आलोचना करना और जनता के दुःख दर्द को सरकार तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है और हम हमेशा यही करेंगे।’ 


जब से निजी टीवी चैनलों की भरमार हुई है तबसे लोगों को लगा कि अब टीवी समाचार सरकार के शिकंजे से मुक्त हो गए। पर ऐसा हुआ नहीं। व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए ज़्यादातर समाचार चैनल राजनैतिक ख़ेमों में बट गए हैं। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी था। क्योंकि जितना आडम्बरयुक्त और खर्चीला साम्राज्य इन टीवी चैनलों ने खड़ा कर लिया है उसे चलाने के लिए मोटी रक़म चाहिए। जो राजनैतिक दलों या औद्योगिक घरानों के सहयोग के बिना मिलनी असम्भव है। फिर भी कुछ वर्ष पहले तक कुल मिलाकर सभी टीवी चैनल एक संतुलन बनाए रखने का कम से कम दिखावा तो कर ही रहे थे। पर पिछले कुछ वर्षों में भारत के ज़्यादातर समाचार चैनलों का इतनी तेज़ी से पतन हुआ कि रातों रात टीवी पत्रकारों की जगह चारण और भाटों ने ले ली। जो रात दिन चीख-चीख कर एक पक्ष के समर्थन में दूसरे पक्ष पर हमला करते हैं। 


इनकी एंकरिंग या रिपोर्टिंग में तथ्यों का भारी अभाव होता है या वे इकतरफ़ा होते हैं। इनकी भाषा और तेवर गली मौहल्ले के मवालियों जैसी हो गई है। इनके ‘टॉक शो’ चौराहों पर होने वाले छिछले झगड़ों जैसे होते हैं। और तो और कभी चाँद पर उतरने का एस्ट्रोनॉट परिधान पहन कर और कभी राफ़ेल के पाइलट बन कर जो नौटंकी ये एंकर करते हैं, उससे ये पत्रकार कम जोकर ज़्यादा नज़र आते हैं। इतना ही नहीं दुनिया भर के टीवी चैनलों के पुरुष और महिला एंकरों और संवाददाताओं के पहनावे, भाषा और तेवर की तुलना अगर भारत के ज़्यादातर टीवी चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं से की जाए तो स्थिति स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगी। भारत के ज़्यादातर समाचार टीवी चैनल पत्रकारिता के अलवा सब कुछ कर रहे हैं। यह शर्मनाक ही नहीं दुखद स्थिति है। गत शुक्रवार को अमरीका के राष्ट्रपति के झूठे बयानों का प्रसारण बीच में रोकने की जो दिलेरी अमरीका के टीवी एंकरों ने दिखाई वैसी हिम्मत भारत के कितने समाचार टीवी एंकरों की है? 


उधर अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी को लेकर भी जो विवाद हुआ है उसे भी इसी परिपेक्ष में देखने की ज़रूरत है। अगर आप यूट्यूब पर मेरे नाम से खोजें तो आपको तमाम टीवी शो ऐसे मिलेंगे जिनमें एंकर के नाते अर्नब ने हमेशा मुझे पूरा सम्मान दिया है और मेरे संघर्षों का गर्व से उल्लेख भी किया है। ज़ाहिर है कि मैं अर्नब के विरोधियों में से नहीं हूँ। टीवी समाचारों के 31 बरस के अपने अनुभव और उम्र के हिसाब से मैं उस स्थिति में हूँ कि एक शुभचिंतक के नाते अर्नब की कमियों को उसके हित में खुल कर कह सकूं। पिछले कुछ वर्षों में अर्नब ने पत्रकारिता की सीमाओं को लांघ कर जो कुछ किया है उससे स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता कलंकित हुई है। अर्नब के अंधभक्तों को मेरी यह टिप्पणी अच्छी नहीं लगेगी। पर हक़ीक़त यह है कि अर्नब भारतीय टीवी का एक जागरूक, समझदार और ऊर्जावान एंकर था। लेकिन अब उसने अपनी वह उपलब्धि अपने ही व्यवहार से नष्ट कर दी। कहते हैं जब जागो तब सवेरा। हो सकता है कि अर्नब को इस आपराधिक मामले में सज़ा हो जाए या वो बरी हो जाए। अगर वो बरी हो जाता है तो उसे एकांत में कुछ दिन पहले ध्यान करना चाहिए और फिर चिंतन और मनन कि वो पत्रकारिता की राह से कब और क्यों भटका? यही चेतावनी बाक़ी समाचार चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं के लिए भी है कि वे लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का सदस्य होने की गरिमा और मर्यादा को समझें और टीवी पत्रकार की तरह व्यवहार करें, चारण और भाट की तरह नहीं।


Monday, October 26, 2020

अदालत और मीडिया ही बचा सकते हैं लोकतंत्र को

पिछले दिनों जिस तरह मुंबई हाई कोर्ट ने, सुशांत सिंह राजपूत कांड को इकतरफ़ा कैम्पेन बना कर उत्तेजक और ग़ैर ज़िम्मेदाराना कवरेज करने के लिए कुछ मीडिया चैनलों को फटकार लगाई है, उससे एक आशा की किरण जागी है। सारा देश यह देखकर हैरान था कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत का बेवजह कितना बड़ा बवंडर ये मीडिया चैनल मचा रहे थे। दर्शकों के कान और आँख इन्हें झेल-झेल कर पक गए थे। 

135 करोड़ के मुल्क में जहां लगातार गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोज़गारी व महंगाई और ऊपर से कोरोना की मार से त्रस्त जनता त्राहि-त्राहि कर रही है, वहाँ इन चैनलों को रिया चक्रवर्ती से बड़ा कोई मुद्दा नहीं मिला? 


सोशल मीडिया पर एक देहाती क़िस्म का मज़ाक़ आया था । जिसमें पुलवामा के हत्या कांड की जाँच न करवा पाने के लिए, चीनियों की भारत में घुसपैठ के लिए, बेरोज़गारी दूर करने का समाधान न निकालने के लिए और कोरोना का वैकसीन न ईजाद कर पाने के लिए रिया चक्रवर्ती को ही दोषी बताया गया था। प्रस्तुतकर्ता ने इन अपराधों के लिए रिया चक्रवर्ती को कड़ी से कड़ी सज़ा देने की सिफ़ारिश की थी। वैसे तो ये एक मज़ाक़ था पर आम आदमी की पीड़ा व्यक्त कर रहा था। जो इस बात से परेशान था कि इन टीवी चैनलों ने रिया चक्रवर्ती का मुद्दा बेवजह इतना उछल कर देश के सारे महत्वपूर्ण मुद्दों पर झाड़ू फेर रखी है। 


कोरोना काल में अपनी फ़ेसबुक पोस्ट पर मैंने कई बार इस पर टिप्पणी भी की थी और इन टीवी पत्रकार साथियों को ट्विटर पर संदेश भेज कर भी सम्भालने की सलाह दी थी, जो शायद मेरा नैतिक हक़ बनता है। 


क्योंकि इस देश में हिंदी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने ही 1989 में कालचक्र विडीओ  मैगजीन के मध्यम से की थी। उस वक्त देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था।जितने मशहूर चेहरे आज टीवी चैनलों पर दिखाई दे रहे हैं ये सब मुझसे कई वर्ष बाद इस क्षेत्र में आए। तब बीएआरसी जैसी कोई नियामक संस्था भी नहीं थी। फिर भी हमने अपने ऊपर स्वयं अंकुश रखने के लिए कुछ नियम बनाए थे, जो आज भी उतने ही सार्थक हैं। 


हमारा पहला नियम था कि हम किसी भी बड़े औद्योगिक घराने के पैसे से टीवी पत्रकारिता नहीं करेंगे। क्योंकि उससे हमारी सम्पादकीय स्वतंत्रता उस घराने के आर्थिक लाभ के लिए गिरवी हो जाएगी। अगर मैं औद्योगिक घरानों का पैसा ले लेता तो कालचक्र देश का पहला हिंदी टीवी  समाचार चैनल होता। पर मैं दूसरों की बंदूक़ अपने कंधों पर चलाने को राज़ी न था। क्योंकि मुझे अपने देश और देशवासियों के हक़ में टीवी पत्रकारिता करनी थी, एकतरफ़ा रिपोर्टिंग, चारण या भांड़गिरी नहीं। इसलिये साधनहीनता के कारण मैंने बहुत कठिन संघर्ष किया पर अपनी निडर, निर्भीक और खोजी पत्रकारिता से कालचक्र ने देश में झंडे गाड़ दिये थे। 


मुझे याद है मुम्बई में अनिल अम्बानी की शादी में शामिल होकर लौटे तत्कालीन केंद्रीय मंत्री वसंत साठे ने मुझे बताया था कि वहाँ शादी में उद्योगपतियों और नेताओं के बीच तुम्हारे कालचक्र की ही चर्चा प्रमुखता से हो रही थी। 


निष्पक्ष रहने के इसी तेवर के कारण ही मैं कालचक्र में 1993 में ‘जैन हवाला कांड’ उजागर कर सका। जिसने देश की राजनीति को बुरी तरह हिलाकर रख दिया। जबकि इतने बड़े-बड़े मीडिया घराने 1947 से 1993 तक इतना बड़ा ऐसा एक भी घोटाला उजागर करने की हिम्मत नहीं कर पाये थे, जिसमें लगभग हर प्रमुख दल के बड़े नेता आरोपित हुए हों। 


हमारा दूसरा नियम था कि हमारी व्यक्तिगत विचारधारा कुछ भी हो पर कालचक्र विडीओ   समाचार में हर विचारधारा के लोगों को जनहित में अपने विचार रखने का मौक़ा दिया जाएगा। इसलिए हमने चाहे कांग्रेस की विचारधारा हो या समाजवादियों की, संघ की हो या नक्सलवादिओं की, सबको समान अवसर दिया, जिसे दर्शकों ने बहुत सराहा। 


हमारा तीसरा नियम था कि किसी भी व्यक्ति के ख़िलाफ़ हम तब तक आरोप नहीं लगाएँगे जब तक कि हमारे पास पुख़्ता सबूत न हों। इतना ही नहीं हम आरोप लगाने से पहले उस व्यक्ति को अपना स्पष्टीकरण देने का पूरा अवसर भी देंगे। यही कारण है कि इस देश में आज़ादी के बाद उच्च पदों पर बैठे मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और अफ़सरों की सबसे ज़्यादा नौकरियाँ मैंने ही ली हैं। लेकिन कोई भी मुझ पर मानहानि का मुक़द्दमा नहीं कर पाया। जबकि आज शहरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक छिछली मानसिकता के लोग ,जो ख़ुद को पत्रकार कहते हैं, बड़ी बेशर्मआई से इकतरफ़ा आरोप लगाकर अपनी पीठ थपथपाते हैं। पर जब मुंबई हाई कोर्ट की तरह कोई अदालत या कोई मानहानि का मुक़द्दमा करने वाला इन्हें अदालत में घसीट ले तो इनके पास बच कर भागने का रास्ता नहीं होता। 


हमारा अगला नियम था कि हम हमेशा जनता की बात को ही तरजीह देंगे, सत्ता में जो भी दल हो हम उसकी ग़लत नीतियों की बेख़ौफ़ आलोचना करेंगे। यह तभी सम्भव है जब आप सरकारी विज्ञापन, सरकारी आतिथ्य, सरकार द्वारा प्रदत्त पद्म अलंकरणो, सरकारी पदों, संसद की सदस्यता या मंत्रियों की दलाली करने का लोभ न करें। तब आप लोकतंत्र में चौथा खम्बा होने का दावा कर सकते हैं। अन्यथा आप खुद को जो भी माने, पत्रकार तो नहीं हो सकते। हाँ चारण या भाट ज़रूर हो सकते हैं। अब यह फ़ैसला पाठक स्वयं करें कि आज देश में कितने लोग इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। 


उधर न्यायपालिका के सदस्यों को आजीवन वेतन या पेंशन और सेवाकाल में सारी सुविधाएँ मिलती हैं। वे न्यायमूर्ति कहलाते हैं। 135 करोड़ लोग उनकी ओर आशा से देखते हैं। फिर भी अगर वे व्यक्तिगत लाभ, लोभ या भय से अपने पद का दुरुपयोग करते हैं तो उनसे निकृष्ट कोई हो नहीं सकता। इसलिए मेरा मानना है कि मीडिया अगर ऋषि की तरह और न्यायाधीश अगर पंच परमेश्वर की तरह व्यवहार करें तो न केवल भारतीय लोकतंत्र सुदृढ़ होगा बल्कि आम हिंदुस्तानी भी सुखी व सम्पन्न होगा।