हाल ही में दो अलग जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने शुक्रवार को कहा कि समाज या व्यवस्था की सारी बुराइयां सुप्रीम कोर्ट दूर नहीं कर सकता है। ना ही यह जिम्मेदारी अकेले सुप्रीम कोर्ट की है। अदालत ने कहा कि कार्यपालिका और विधायिका की अपनी जिम्मेदारी है और यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट सारी भूमिकाएं संभाल ले तथा सब कुछ करे।
याचिका के जरिए सुप्रीम कोर्ट से मांग की गई थी कि केन्द्र सरकार को ‘बेनामी’ संपत्ति, बेहिसाब वाली संपत्ति तथा काला धन जब्त करने से संबंधित कानून बनाने की संभावना तलाशने का निर्देश दिया जाए। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय की पीठ ने समाज में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया और कहा कि, ‘‘पैसा लेने वाले हर व्यक्ति को पैसे देने वाला कोई दूसरा व्यक्ति भी है।’’
एक अन्य जनहित याचिका में यह भी एक मांग थी कि केंद्र सरकार को 1993 की वोहरा समिति की रिपोर्ट भिन्न केंद्रीय एजेंसियों को देने का निर्देश दिया जाए ताकि इनकी व्यापक जांच हो सके। याचिकाकर्ता, जो कि भाजपा नेता भी हैं, ने आरोप लगाया कि तत्कालीन गृहसचिव एनएन वोहरा ने अपराध सिंडिकेट, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के कथित संपर्कों पर एक रिपोर्ट दी थी जिसका कोई फॉलो अप नहीं हुआ।
इसपर अदालत ने कहा, आप ऐसी प्रार्थना क्यों कर रहे हैं। इसपर किताब लिखिए। ऐसी याचिकाएं मत दाखिल कीजिए। पीठ ने कहा कि कानून बनाना संसद का काम है और हम ऐसा आदेश नहीं दे सकते। पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को चाहिए कि जन प्रतिनिधियों को ऐसा कानून बनाने के लिए तैयार करें।
पीठ ने जनहित के मामले में याचिका दायर करने के याचिकाकर्ता के अच्छे कामों की सराहना की और यह भी कहा कि “जनहित याचिकाएं अब प्रचार याचिकाएं बनती जा रही हैं। याचिकाकर्ता ने अच्छे काम किये हैं लेकिन इस पर हम विचार नहीं कर सकते।’’ पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता को जन प्रतिनिधियों को इस बारे में कानून बनाने के लिये तैयार करना चाहिए। पीठ ने याचिकाकर्ता को यह जनहित याचिका वापस लेने और विधि आयोग में प्रतिवेदन देने की अनुमति दी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट अकेले सब कुछ ठीक नहीं कर सकता है। जब ज्यादातर राजनेता और नौकरशाह अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करें या सच कहिए तो इसका कारण बन जाएं तब न्यायपालिका से अजूबे की उम्मीद नहीं की जा सकती है। भ्रष्टाचार सामाजिक बुराई है और अगर कोई पैसे लेकर काम करता है तो कोई है जो काम कराने के पैसे देता भी है। बुराई दोनों तरफ से है, एक तरह की मिलीभगत है। ऐसे में कानून बहुत उपयोगी नहीं हो सकता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि बहुत सारे कानूनों का उल्लंघन खुलेआम होता है क्योंकि उन्हें रोकने के लिए ना सरकार इच्छुक है ना समाज। ऐसे कुछ कानून को वापस लेने की भी मांग हुई और वापस लिए भी गए हैं। जिस कानून का अनुपालन संभव नहीं हो उसे वापस लिया जाना गलत नहीं है पर वापस लेने का एक मतलब यह भी लगाया और प्रचारित किया जाता है कि अब उसकी अनुमति है जबकि बात ऐसी नहीं होती है। अनैतिक और गैर कानूनी में भी अंतर होता है।
भ्रष्टाचार के मामले में भी कानून तो हैं ही। सजा कम या ज्यादा हो सकती है। पर भ्रष्टाचार के किन मामलों की जांच हो और किनकी नहीं – यह तय करने में भी भ्रष्टाचार और राजनीति है। ऐसे में कानून बनाने या कार्रवाई का निर्देश देने से ज्यादा जरूरी है कि समाज इस मामले में खुद जागरूक हो और अव्वल तो भ्रष्टाचार हो ही नहीं और हो तो बिना किसी भेदभाव के जांच हो और कार्रवाई की जाए। जबतक यह स्थिति बहाल नहीं हो जाती है तब तक कानून जो हैं और जो बनेंगे उनके दुरुपयोग की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता है।
चुनाव लड़ने वालों के मामले में ही बहुत सारे कानून बने हैं लेकिन इनका अनुपालन भी ठीक नहीं होता है। इससे संबंधित शिकायतों की जांच और कार्रवाई के मामले में जन प्रतिनिधियों से भी समान व्यवहार नहीं होता है। फर्जी डिग्री के मामले में एक राजनीतिक दल के विधायक का जो हाल किया गया वैसा सत्तारूढ़ दल के मामले में नहीं हुआ। यह मामला सर्वविदित है। ऐसे में जरूरत नए कानून की नहीं, कानून के निष्पक्ष अनुपालन की है।
यही नहीं, सत्तारूढ़ दल के लोग अगर अपने हिसाब से कानून बनवाएं (या बना लें) तो वह भी ठीक नहीं है। उदाहरण के लिए आतंकवाद के आरोपी को चुनाव लड़ने का टिकट देने का मामला लीजिए। कायदे से किसी पर कोई आरोप लगे तो उसे स्वयं पद छोड़ देना चाहिए ताकि निष्पक्ष जांच हो सके और अगर निर्दोष पाया जाए तो वह वापस अपने पद पर आ जाए।
चिंता की बात यह है कि भ्रष्टाचार से अदालतें भी अछूती नहीं हैं। निचली अदालतों में तो भारी भ्रष्टाचार है ही। उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय तक में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण सामने आ चुके हैं। पर उन मामलों में, कुछ अपवादों को छोड़ कर, कभी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। अदालत की अवमानना क़ानून का डर दिखा कर भ्रष्ट न्यायाधीश शिकायतकर्ताओं को डराते धमकाते हैं। ऐसे न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिए संसद के पास महाभियोग चलाने का अधिकार है। पर सांसद इस अधिकार का उपयोग नहीं करना चाहते। जब कभी ऐसी परिस्थिति आती है तो वे ये कह कर बच निकलते हैं कि हमारे दल में बहुत सारे कार्यकर्ताओं पर आपराधिक मुक़दमें चल रहे हैं। अगर हम न्यायपालिका के ख़िलाफ़ बोलेंगे तो हमारे लोगों को ही पकड़ कर बन्द करवा दिया जाएगा। जब कुएँ में ही भांग पड़ी हो तो कहाँ से शुरू किया जाए? काका हाथरसी की एक कविता है, ‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर - छूट जाएगा तू भी रिश्वत देकर।’
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