Monday, January 24, 2022

पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ‘राज्यों को प्रोत्साहन’ !


पिछले दिनों केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक विवादास्पद कदम में, "पर्यावरण मंजूरी देने में दक्षता और समय सीमा" के आधार पर राज्यों को रैंकिंग देकर "प्रोत्साहन" देने का फैसला किया है।


इस फ़ैसले के अनुसार, जो भी राज्य किसी भी परियोजना के लिए राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए) के से पर्यावरण मंजूरी जल्द से जलद लेगा उस राज्य को सर्वोत्तम स्थान दिया जाएगा। एसईआईएए कम से कम समय में परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देता है और इसके द्वारा दी गई मंज़ूरी उच्च मानकों द्वारा की जाती है।  



ईसी (पर्यावरण मंजूरी) के अनुदान में दक्षता और समयसीमा के आधार पर राज्यों को स्टार-रेटिंग प्रणाली के माध्यम से प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया गया है। मंत्रालय ने पिछले हफ़्ते जारी एक आदेश में कहा, यह मान्यता और प्रोत्साहन के साथ-साथ जहां आवश्यक हो, सुधार के लिए भी है।


यदि एक एसईआईएए को मंजूरी देने में औसतन 80 दिन से कम समय लगता है तो उसे 2 अंक मिलेंगे। यदि उसे मंजूरी देने में 105 दिन से कम समय लगता है तो 1 अंक। उसी तरह 105-120 दिनों के लिए 0.5; और 120 से अधिक दिनों के लिए 0 अंक मिलेंगे।


ग़ौरतलब है कि राज्य प्राधिकरण प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए अधिकांश पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करते हैं। जबकि प्रमुख 'श्रेणी ए' की परियोजनाओं को केंद्र द्वारा मंजूरी दी जाती है। बड़ी परियोजनाओं को छोड़कर शेष, खनन, थर्मल प्लांट, नदी घाटी और बुनियादी परियोजनाओं सहित, राज्य निकायों के दायरे में ही आते हैं।


इसके साथ ही, 100 दिनों से अधिक समय से लंबित पर्यावरण संशोधन प्रस्तावों के निपटारे के लिए भी, एसईआईएए को अंक दिए जाएँगे। 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी के लिए 1 अंक मिलेगा; 80-90 प्रतिशत निकासी के लिए 0.5; और 80 प्रतिशत से कम के लिए शून्य अंक।


इस फ़ैसले में यह भी कहा गया है की एसईआईएए द्वारा मंजूरी देने के लिए कम पर्यावरणीय विवरण मांगने पर भी राज्य के अधिकारियों को पुरस्कृत किया जाएगा। यदि ईडीएस (आवश्यक विवरण) मामलों का प्रतिशत 10 प्रतिशत से कम है, तो एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; अगर यह 20 प्रतिशत है, तो उन्हें 0.5 मिलेगा; और अगर यह 30 प्रतिशत से अधिक है, तो उन्हें 0 अंक मिलेगा। 


5 दिनों से कम समय में प्रस्ताव स्वीकार करने पर एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; 5-7 दिनों के लिए 0.5; और 7 दिनों से अधिक के लिए 0 अंक दिए जाएँगे। 


इस रेटिंग प्रणाली शिकायतों के निपटान को भी ध्यान में रखा गया है। इसके तहत यदि सभी शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 1 अंक; यदि 50% शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 0.5; और 50%से कम के लिए 0 अंक।


इन मापदंडों के आधार पर, यदि कोई एसईआईएए 7 से अधिक अंक प्राप्त करता है, तो उसे 5-स्टार (उच्चतम रैंकिंग) के रूप में स्थान दिया जाएगा। राज्य के अधिकारियों को भी उनके संचयी स्कोर के आधार पर 5,4,3,2 और 1-स्टार के रूप में स्थान दिया जा सकता है। इसी तरह यदि कोई भी एसईआईएए जिसे कुल 3 से कम अंक प्राप्त होते हैं उसे कोई स्टार नहीं मिलेगा। 


दरअसल, मंत्रालय का यह निर्णय पिछले साल 13 नवंबर को कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में हुई एक बैठक की पृष्ठभूमि में लिया गया है। जिसमें विशेष रूप से "कारोबार करने में आसानी" को सक्षम करने के लिए की गई कार्रवाई का मुद्दा उठाया गया था। जिसके तहत मंजूरी के अनुसार लगने वाले समय के आधार पर राज्यों की ‘रैंकिंग’ की जाएगी।


पर्यावरणविदों ने, इस कदम की आलोचना करते हुए, चेतावनी दी है कि राज्य के अधिकारी, जिनका कार्य पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करना है, अब राज्य की रैंकिंग बढ़ाने के लिए परियोजनाओं को बिना पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित किए हुए तेजी से पूरा करने के लिए "प्रतिस्पर्धा" करेंगे। एसईआईएए बुनियादी ढांचे, विकासात्मक और औद्योगिक परियोजनाओं के एक बड़े हिस्से के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण और लोगों पर प्रस्तावित परियोजना के प्रभाव का आकलन करना और इस प्रभाव को कम करने का प्रयास करना है। 


दिल्ली के पर्यावरण वकील ऋत्विक दत्ता के अख़बार को दिए बयान के अनुसार यह आदेश बिल्कुल बेतुका है। जिस गति से परियोजनाओं को मंजूरी दी जाती है, उसके अनुसार पर्यावरण की रक्षा के लिए ज़िम्मेदार संस्था को आप कैसे ग्रेड दे सकते हैं? मंजूरी के लिए समय सीमा को वैसे भी 75 दिनों तक लाया गया था, जो चिंता का विषय था, और पर्यावरण की कीमत पर परियोजनाओं को मंजूरी देने के स्पष्ट उद्देश्य से किया गया था। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में, सबसे बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा श्रेणी ए के तहत पर्यावरण मंजूरी दी जाती है। एसईआईएए, मुख्य रूप से निर्माण परियोजनाओं के लिए, देश भर में 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी देते हैं। विश्व बैंक ने खुद व्यापार करने में आसानी के सिद्धांत को खारिज कर दिया है, यह स्वीकार करते हुए कि यह काम नहीं करता है। यह आदेश किसी वन अधिकारी को यह बताने जैसा है कि वह जितना ज़्यादा जंगल में जाएगा, उसे उतने ही कम अंक मिलेंगे। यह पर्यावरण कानून के हर प्रावधान का उल्लंघन करता है। 


दरअसल इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं जिनमें राजनेता, अफ़सर और निर्माण कम्पनियाँ प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफ़ा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, जितनी जल्दी मंज़ूरी, उतना ही ज़्यादा कमीशन। यह कोई नयी बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोग़ा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं। अब सोचना यह है कि पर्यावरण मंत्रालय के इस नए आदेश से राज्यों को प्रोत्साहन मिलेगा या पर्यावरण का विनाश होगा।

Monday, January 17, 2022

योगी क्यों हुए अलोकप्रिय?


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के नेता भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी की तरफ़ दौड़ रहे है उसे साधारण भगदड़ नहीं कहा जा सकता। इसका नुक़सान देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी को हो रहा है जो केंद्र और राज्य में सरकार चला रही है। उत्तर प्रदेश में इस ‘डबल इंजन’ की सरकार का चेहरा बने योगी आदित्यनाथ की अलोकप्रियता ही इस पतन का कारण है। 





भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी यह समझ नहीं आ रहा कि उतर प्रदेश के चुनावों से ठीक पहले ऐसा क्यों हो रहा है? क्या योगी जी की कुछ कठोर नीतियाँ इसका कारण हैं? क्या उत्तर प्रदेश में दिल्ली हाई कमान के जासूस इस भगदड़ का अनुमान लगाने में नाकामयाब रहे? भाजपा और संघ का विशाल नेटवर्क भी इस सबका अनुमान नहीं लगा सका? क्या कारण है कि भाजपा के पास इतना बड़ा संगठन और तमाम संसाधन भी इन नेताओं का पलायन नहीं रोक पाए? क्या भाजपा ने इस बात का विश्वास कर लिया था कि जो नेता पिछड़ी जातियों से आए हैं वो उनके साथ लम्बे समय तक रहेंगे और पिछले पाँच सालों में योगी जी के कठोर रवैए से आहत नहीं होंगे?


दरअसल शुरू से योगी का रवैया उनकी ‘ठोको’ नीति के अनुरूप दम्भी और अतिआत्मविश्वास से भरा हुआ रहा है। जिसमें उनके चुनिंदा कुछ नौकरशाहों की भूमिका भी बहुत बड़ा कारण रही है। इस बात को इसी कॉलम में शुरू से मैंने कई बार रेखांकित किया। बार-बार योगी जी को सलाह भी दी कि कान और आँख खोल कर रखें और सही और ग़लत का निर्णय लेने के लिए अपने विवेक और अपने स्वतंत्र सूचना तंत्र का सहारा लें। सत्ता के मद में योगी कहाँ सुनने वाले थे। उनके चाटुकार अफ़सर उनसे बड़े-बड़े आयोजनों में फ़ीते कटवाते रहे और खुद चाँदी काटते रहे। 


जिस तरह से योगी सरकार ने पिछले पाँच सालों में उत्तर प्रदेश में अहम मुद्दों की परवाह किए बिना केवल हिंदुत्व के एजेंडे को ही सबसे ऊपर रखा शायद वह भी एक कारण रहा। मिसाल के तौर पर अयोध्या में पाँच लाख दिये जलाने के अगले ही दिन जिस तरह की तस्वीरें सामने आईं जहां लोग दियों के तेल को समेट रहे थे उससे यह बात तो साफ़ है लोग बढ़ती हुई महंगाई और युवा बेरोज़गारी से परेशान थे। लम्बे समय तक चले किसान आंदोलन ने सरकार की नीतियों उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने बेनक़ाब कर दिया और किसानों ने भी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। 


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के कई छोटे दलों के नेता जो 2017 में भाजपा से जुड़े थे उन्हें जब योगी सरकार में मंत्री या अन्य पद मिले तो उन्हें लगा कि सरकार में उनकी सुनवाई भी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें केवल शो-पीस बना कर रखा गया। जब पानी सर से ऊपर चला गया और उनकी कहीं सुनवाई न हुई तो उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ना ही बेहतर समझा। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इसका आभास शायद इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने सोचा कि किसी भी नेता के लिए सरकार में रुतबा और पद छोड़ना इतना आसान नहीं होता। इसलिए शीर्ष नेतृत्व ने भी उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया।


योगी सरकार के नौकरशाहों ने जिस तरह मीडिया को बड़े-बड़े विज्ञापन देकर असली मुद्दों से परे रखा वो भी एक बड़ा कारण रहा। ज़्यादातर मीडिया ने भी इन नौकरशाहों की बात सुनकर जनता के बीच दुष्प्रचार फैलाया और जनता को गुमराह करने का भी काम किया। फिर वो चाहे ज़ेवर हवाई अड्डे के विज्ञापन में चीन के हवाई अड्डे की तस्वीर हो या फिर बंगाल के फ़्लाईओवर की तस्वीर। इस तरह के झूठे विज्ञापनों से योगी सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई। ग़नीमत है सोशल मीडिया ने इस सब की पोल खोल दी और जनता को भी समझ में आने लगा कि विज्ञापन की आड़ में क्या चल रहा है।


2017 से ही योगी और उनकी ‘टीम इलेवन’ ही सरकार चला रही थी। किसी भी विधायक की कहीं भी कोई सुनवाई नहीं थी। इतना ही नहीं योगी मंत्रीमंडल के एक मंत्री तो ऐसे हैं जो अपनी इच्छा से किसी अधिकारी नियुक्ति या निलम्बन भी नहीं करवा सकते थे। एक चर्चा तो यह भी आम हो चुकी है कि यदि किसी विधायक को दो किलोमीटर की सड़क भी बनवानी पड़ती थी तो उसे यह कह कर डाँट दिया जाता था कि ‘क्या सड़क बनवाने में कमीशन कमाना चाहते हो?’ इतना ही नहीं यदि किसी विधायक को कुछ काम करवाना होता था तो वह इस ‘टीम इलेवन’ के बैचमेट से कहलवाता था तब जा कर शायद वो काम होता। वो विधायक तो जन प्रतिनिधि केवल नाम का ही था। 


उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की सफलता या विफलता के बारे में सरकारी तंत्र के अलावा संघ का एक बड़ा तंत्र है जो ज़मीनी हक़ीक़त का पता लगाता है। परंतु उत्तर प्रदेश में संघ के इस तंत्र का एक बड़ा हिस्सा वैश्य और ब्राह्मण समाज से आता है। पिछड़ी जातियों से बहुत कम लोग इस तंत्र का हिस्सा हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों की पीड़ा संघ के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँची ही नहीं। सवर्णों के प्रतिनिधियों ने संघ के शीर्ष नेतृत्व को योगी सरकार की बढ़ाई कर उन्हें असलियत से दूर रखा। संघ के नेतृत्व यह तो नज़र आया कि 2017 की उत्तर प्रदेश की सरकार में पिछड़ी जातियों के मंत्री व विधायक तो बड़ी मात्रा में हैं परंतु प्रचारक नहीं। यदि ऐसा होता तो संघ अपनी कमर कस लेता और शायद इस भगदड़ की नौबत न आती। इसके साथ ही जातिगत जनगणना पर जो यू टर्न भाजपा सरकार ने लिया है उसने आग में घी डालने का काम किया है। 


योगी जी तो भगवा धारण कर इतना भी नहीं समझे कि वो अब एक मठ के मठाधीश नहीं बल्कि सूबे के मुख्य मंत्री हैं। भगवा धारी या साधु तो अहंकार में रह सकते हैं। लेकिन एक मुख्य मंत्री को तो हर तरह के व्यक्ति से मुख़ातिब होना पड़ता है। फिर वो चाहे मीडिया हो, उनके अपने मंत्री मंडल के सदस्य हों, विधायक हों, केंद्र द्वारा भेजे गए विशेष दूत हों या फिर आम जनता। अगर आप सभी को अपने मठ का सहायक समझ कर उससे अपशब्द कहेंगे या उनको अहमियत नहीं देंगे तो इसका फल भी आपको भोगना पड़ेगा। अब देखना यह है कि आने वाली 10 मार्च को योगी जी को उत्तर प्रदेश की जनता कौनसा फल अर्पित करेगी। 

Monday, January 10, 2022

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक


प्रधान मंत्री मोदी के क़ाफ़िले के साथ जो फ़िरोज़पुर में हुआ उससे कई सवाल उठते हैं। इस घटना का संज्ञान अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी लिया है। घटना की जाँच होगी और पता चलेगा चूक कहाँ हुई। लेकिन इस बीच सोशल मीडिया पर तमाम तरह के विश्लेषण भी आने लग गए हैं। इसमें ऐसे कई पत्रकार हैं जो काफ़ी समय से गृह मंत्रालय को कवर करते आए हैं। उनका गृह मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से अच्छा संपर्क होता है। उसी संपर्क के चलते कुछ पत्रकारों प्रधान मंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रूप ‘एसपीजी’ की कार्यप्रणाली से सम्बंधित सवाल भी उठाए हैं। दूसरे पंजाब सरकार को ही दोषी बता रहे हैं।
 



विभिन्न राजनैतिक दलों ने भी इस घटना की निंदा करते हुए पंजाब की सरकार व केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि इस घटना को लेकर अभी तक किसी भी तरह की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई है। 


आरोप प्रत्यारोप के बीच पंजाब के मुख्य मंत्री ने अपनी सफ़ाई भी दे डाली है। आनन-फ़ानन में फ़िरोज़पुर के एसएसपी को सस्पेंड कर दिया गया है।उधर सोशल मीडिया पर कई तरह के विडीयो भी सामने आ रहे हैं। जहां भाजपा का झंडा लिए हुए कुछ लोग ‘मोदी ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं और एसपीजी वाले चुप-चाप खड़े हैं। कुछ लोगों का तो यह तक कहना है कि प्रधान मंत्री बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के लाहोर चले गए तो उनकी जान कोई ख़तरा नहीं था। लेकिन अचानक उनके रास्ते में एक किलोमीटर आगे किसान आ गए तो उनकी जान को ख़तरा कैसे हो गया? औपचारिक घोषणा के न होने से अटकलों का बाज़ार गर्म होता जा रहा है। ऐसे में एक गम्भीर घटना भी मज़ाक़ बन कर रह जाती है। चूक कहाँ हुई इसकी जानकारी नहीं मिल पा रही। 


वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी जानकारी भी साझा की जा रही है जहां पूर्व प्रधान मंत्रियों पर हुए ‘हमले’ के विडीयो भी सामने आए हैं। फिर वो चाहे इंदिरा गांधी के साथ हुई भुवनेश्वर की घटना हो या राजीव गांधी पर राजघाट पर हुए हमले की हो या फिर मनमोहन सिंह पर अहमदाबाद में जूता फेंके जाने की घटना हुई हो। इन में से किसी भी घटना में किसी भी प्रधान मंत्री ने अपना कार्यक्रम रद्द नहीं किया। बल्कि उनकी सुरक्षा में तैनात कमांडो ने बहुत फुर्ती दिखाई। फ़िरोज़पुर की घटना के बाद एक न्यूज़ एजेंसी के हवाले से ऐसा पता चला है कि प्रधान मंत्री ने एक अधिकारी से कहा कि अपने सीएम को थैंक्स कहना कि मैं ज़िंदा लौट पाया। ये अधिकारी कौन है इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हुई है, क्योंकि उस अधिकारी द्वारा ऐसा संदेश औपचारिक रूप से नहीं भिजवाया गया। लेकिन घटना के बाद से ही यह लाइन काफ़ी प्राथमिकता से मीडिया में घूमने लग गई। जिससे आम जनता में एक अलग ही तरह का संदेश जा रहा है। 


फ़रवरी 1967 में जब चुनावी रैली के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी भुवनेश्वर पहुँची तो वहाँ की उग्र भीड़ में से एक ईंट आ कर उनकी नाक पर लगी और खून बहने लगा। इंदिरा गांधी ने अपनी नाक से बहते हुए खून को अपनी साड़ी से रोका और अपनी चुनावी सभा पूर्ण की। उस सभा में उन्होंने उपद्रवियों से कहा, ‘ये मेरा अपमान नहीं है बल्कि देश का अपमान है। क्योंकि प्रधान मंत्री के नाते मैं देश का प्रतिनिधित्व करती हूं।’ इस घटना ने भी उनके चुनावी दौरे में परिवर्तन नहीं होने दिया और वे भुवनेश्वर के बाद कलकत्ता भी गयीं। उन्होंने अपने पर हुए हमले के बाद ऐसा कोई भी बयान नहीं दिया कि ‘मैं ज़िंदा लौट पाई!’। बल्कि एक समझदार राजनीतिज्ञ के नाते उन्होंने इस घटना को एक ‘मामूली घटना’ बताते हुए कहा कि चुनावी सभाओं ऐसा होता रहता है। 


अब फ़िरोज़पुर की घटना को लें तो प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले से काफ़ी आगे किसानों का एक शांतिपूर्ण धरना चल रहा था। प्रधान मंत्री मोदी अपनी गाड़ी में बैठे हुए थे और क़रीब 20 मिनट तक उन्हें रुकना पड़ा। न तो कोई भी प्रदर्शनकारी उनकी गाड़ी तक पहुँचा और न ही उन पर किसी भी प्रकार का हमला हुआ। इतनी देर तक प्रधान मंत्री को एक फ़्लाईओवर पर खड़े रहना पड़ा इसकी जवाबदेही तो एसपीजी की है। क्योंकि सुरक्षा के जानकारों के मुताबिक़ प्रधान मंत्री की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी एसपीजी की है न कि किसी भी राज्य पुलिस की। प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले में कई गाड़ियाँ उनकी गाड़ी से आगे भी चलती हैं। अगर एसपीजी को प्रदर्शन की जानकारी लग गई थी तो प्रधान मंत्री की गाड़ी को आगे तक आने क्यों दिया गया? दिल्ली में जब भी प्रधान मंत्री का क़ाफ़िला किसी जगह से गुजरता है तो जनता को काफ़ी दूर तक और देर तक रोका जाता है। इसका मतलब एसपीजी इसे सुनिश्चित कर लेती है कि कोई भी प्रधान मंत्री के क़ाफ़िले के मार्ग में नहीं आएगा। 


यहाँ एक बात कहना चाहता हूँ जिसे मैंने भी अपने ट्विटर पर प्रधान मंत्री को सम्बोधित करते हुए लिखा है। अच्छा होता कि प्रधान मंत्री एसपीजी से कह कर प्रदर्शन करने वालों के एक प्रतिनिधि को अपने पास बुलवाते और उससे बात करते। इससे किसानों के बीच एक अच्छा संदेश जाता और आने वाले चुनावों में भी शायद इसका फ़ायदा मिलता। एक साल तक प्रदर्शन करते किसानों से तो आप मिले नहीं। अगर एक छोटे से समूह के प्रतिनिधि से मिल लेते तो सोशल मीडिया पर चल रहे मेघालय के राज्यपाल श्री सत्यपाल मालिक द्वारा आपके मेरे लिए थोड़ी मरे वाले बयान पर थोड़ी मरहम लग जाती। पर देश के प्रधानमंत्री के मुँह से मैं ज़िंदा बच कर लौट आया जैसा बयान किसी के गले नहीं उतर रहा। विपक्ष इसे नौटंकी और सत्ता पक्ष जान लेवा साज़िश बता रहा है। ये बयान प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के अनुरूप नहीं था।

Monday, January 3, 2022

कानपुर छापा : काला धन या टर्नओवर?


पिछले दिनों कानपुर के इत्र व्यापारी पीयूष जैन के यहाँ जीएसटी का छापा बहुत चर्चा में रहा। इस छापे में क़रीब 300 करोड़ का ‘काला धन’, सोना, चाँदी, चंदन व अन्य सामान पकड़ा गया था। क्योंकि ये चुनाव का माहौल है और समाजवादी पार्टी का एक विधान परिषद सदस्य भी जैन है और इत्र का व्यापारी है इसलिए बिना तथ्यों को जाँचे सत्ता पक्ष के नेताओं, मीडिया व भाजपा की आईटी सेल ने सोशल मीडिया इस मामले को समाजवादी पार्टी का भ्रष्टाचार कहकर उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं देश के प्रधान मंत्री तक ने कानपुर की जनसभा में इसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कह कर तालियाँ पिटवायीं ।



पीयूष जैन का मामला शायद सामने नहीं आता अगर गुजरात में कुछ दिनों पहले जीएसटी ने ‘शिखर पान मसाला’ ले जा रहे ट्रकों को न पकड़ा होता। इस ट्रक में पान मसाले के साथ करीब 200 फर्जी ई-वे बिल भी पकड़े गए। इसके बाद डायरेक्ट्रेट जनरल ऑफ जीएसटी इंटेलीजेंस (डीजीजीआई) के अधिकारियों ने कानपुर का रुख़ किया और वहाँ डेरा डाल दिया। जो ट्रक पकड़ा गया था वह प्रवीण जैन का था। जो की इत्र कारोबारी पीयूष जैन के भाई अंबरीष जैन का बहनोई है। प्रवीण जैन के नाम पर करीब 40 से ज्यादा फर्में हैं। 


ग़ौरतलब है कि प्रवीण जैन के यहां छापेमारी में ही पीयूष जैन का सुराग मिला। पीयूष जैन को जैसे ही छापे की खबर मिली तो वो भाग गया। परिजनों के दबाव के बाद ही वह वापस लौट कर आया। पीयूष जैन के घर में छिपे हुए नोटों के बंडलों को देखकर जीएसटी की छापामार टीम की आंखें फटी की फटी रह गई। शायद इन अधिकारियों ने इससे पहले ऐसी अकूत दौलत देखी नहीं थी। इस छापे के  ट्रेल को देखें तो यह एक सामान्य सा छापा ही प्रतीत होता है। शुरुआती दौर में इस छापे में कोई भी राजनैतिक नज़रिया नज़र नहीं आता। लेकिन जैसे ही ‘जैन’ और ‘इत्र कारोबारी’ को जोड़ा गया वैसे ही अतिउत्साह में इसे समाजवादी पार्टी से भी जोड़ दिया गया और खूब शोर मचाया गया। भाजपा के सरकार में केंद्रीय  मंत्रियों ने भी इस पर ट्वीट की झड़ी लगा दी। 


यहाँ बताना ज़रूरी है कि 1991 में जब दिल्ली में हिज़बुल मुजाहिद्दीन के आतंकी पकड़े गए थे, तो उनकी जाँच कर रही दिल्ली पुलिस व बाद में सीबीआई कई जगह छापे मारने के बाद ‘जैन बंधुओं’ के घर और फार्म हाउस पहुँची। वहाँ पर पड़े छापे से एक डायरी (नम्बर दो के खाते) भी मिली जिसमें आतंकवादियों के साथ-साथ हर बड़े दल के तमाम बड़े नेताओं और देश के कई नौकरशाहों के भी नाम के साथ भुगतान की तारीख़ और रक़म लिखा था। छापे में बरामद इतने बड़े मामले की भनक जब तत्कालीन सरकार को लगी तो उस मामले को वही दबा दिया गया। 1993 में जब यह मामला मेरे हाथ लगा तब मैंने इसे उजागर ही नहीं किया बल्कि इसे सर्वोच्च न्यायालय तक ले गया। जो आगे चल कर ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से चर्चित हुआ। इस कांड ने भारत की राजनीति में इतिहास भी रचा और कई प्रभावशाली नेताओं और अफ़सरों को सीबीआई द्वारा चार्जशीट किया गया। 


चूँकि इस घोटाले में कई बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता और अफ़सर आदि शामिल थे इसलिए सीबीआई ने चार्जशीट में इनके बच निकलने का रास्ता भी छोड़ दिया। अब कानपुर के कांड में भी ऐसा ही होता दिखाई दे रहा है। 


दरअसल, जब जीएसटी के अधिकारियों को पीयूष जैन के यहाँ इतनी बड़ी मात्रा में नगदी और सोना-चाँदी मिला तो ज़ाहिर सी बात है की आयकर विभाग को भी सूचित करना पड़ा। जब और जाँच हुई और पीयूष जैन से पूछ-ताछ हुई तो कई और राज खुले। यहाँ एक बात का ज़िक्र करना रोचक है कि हमारे वृन्दावन को उत्तर भारत के व्यापारियों की सूचना का केंद्र माना जाता है। उत्तर भारत के अधिकतर व्यापारी श्री बाँके बिहारी जी के मंदिर लगातार आते हैं और व्यापार में तरक़्क़ी की भिक्षा माँगते हैं। इन सभी व्यापारियों के वृन्दावन में तीर्थ पुरोहित या पंडे होते हैं। जिस दिन से कानपुर में यह छापा पड़ा है उस दिन से बिहारीजी के पंडों से में लगातार ये बात-चीत हो रही है कि पीयूष जैन के बारे में कानपुर के अन्य व्यापारियों ने बताया कि पीयूष जैन तो एक लम्बे अरसे से भाजपा और संघ को बड़ी मात्रा में धन और साधन प्रदान करता आया है। इसके यहाँ तो छापा गलती से पड़ गया। 


यहाँ पर वो कहावत - ‘जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है वो खुद खाई में गिरता है’ सही साबित होती है। यदि अधिकारियों को समय रहते उसके भाजपाई होने का पता चल जाता तो शायद यह इतना ये  छापा ही न पड़ता।


जानकारों की मानें तो इस मामले को भी जल्दी दबाया जाएगा। अख़बारों से ऐसा पता चला है कि अब इस छापे में बरामद हुई भारी नकदी को अहमदाबाद के जीएसटी विभाग ने ‘टर्नओवर’ की रकम माना लिया है। हालाँकि इस बात की कोई औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है लेकिन अगर ऐसा है तो टैक्स के जानकारों के मुताबिक यह भ्रष्टाचार के प्रति अधिकारियों की रहमदिली की पहली सीढ़ी है। 


इस ‘टर्नओवर’ में 31.50 करोड़ की टैक्स चोरी की बात कही जा रही है। टैक्स चोरी की पेनल्टी और उस पर ब्याज मिलाकर यह रकम क़रीब 52 करोड़ रुपये हो जाती है। ऐसे में पीयूष जैन केवल टैक्स व पेनल्टी की रकम अदा कर जमानत पर रिहा हो सकता है। पेनल्टी की रक़म जमा होने पर आयकर विभाग भी इस ‘काले धन’ के मामले में कार्रवाई नहीं कर पाएगा। पीयूष जैन का फिर सारा तथाकथित ‘काला धन’ पेनल्टी की गंगा नहा कर एक सफ़ेद हो जाएगा। जैसी चर्चा हो रही है कि यह सारा ‘काला धन’ जिन लोगों का है उनकी भी चाँदी हो जाएगी। मगर सोचने वाली बात यह है कि जब नोट बंदी से काले धन की समाप्ति का दावा किया गया था तो ये काला कहाँ से आ गया। भाजपा जिसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कहने लगी थी वह रातों-रात ‘टर्नओवर’ में कैसे बदल गया?

Monday, December 27, 2021

काशी : गंगा तेरा पानी अमृत


काशी विश्वनाथ मंदिर कोरिडोर बन जाने से विदेशों में रहने वाले भारतीय और देश में रहने वाले कुछ लोग बहुत उत्साहित हैं। वे मानते हैं कि इस निर्माण से मोदी जी ने मुसलमान आक्रांताओं से हिसाब चुकता कर दिया। नए कोरिडोर का भव्य द्वार और तंग गलियों को तोड़कर बना विशाल प्रांगण अब पर्यटकों के लिए बहुत आकर्षक व सुविधाजनक हो गया है। वे इस प्रोजेक्ट को मोदी जी की ऐतिहासिक उपलब्धि मान रहे हैं । 


वहीं काशीवासी गंगा मैया की दशा नहीं सुधारने से बहुत आहत हैं। जिस तरह गंगा मैया में मलबा पाटकर गंगा के घाटों का विस्तार काशी कोरिडोर परियोजना में किया गया है उससे गंगा के अस्तित्व को ही ख़तरा उत्पन्न हो गया है। हज़ारों करोड़ रुपया ‘नमामी गंगे’ के नाम पर खर्च करके भी गंगा आज भी मैली है। मल-मूत्र से युक्त ‘अस्सी नाला’ आज भी गंगा में बदबदा कर गिर रहा है। लोगों का कहना है कि मोदी जी के डुबकी लगा लेने से गंगा निर्मल नहीं हो गयी। पिछली भाजपा सरकार में गंगा शुद्धि के लिये मंत्री बनी उमा भारती ने कहा था कि अगर मैं गंगा की धारा को अविरल और इसे प्रदूषण मुक्त नहीं कर पायी तो जल समाधि के लूँगी। आज वे कहाँ हैं ?



पिछले दो दशकों में गंगा की देखरेख की बात तो हुई, लेकिन कर कोई कुछ खास नहीं पाया। यह बात अलग है कि इतना बड़ा अभियान शुरू करने से पहले जिस तरह के सोच-विचार और शोध की जरूरत पड़ती है, उसे तो कभी किया ही नहीं जा सका। विज्ञान और टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जितनी ज्यादा चर्चा होती रही, उसे ऐसे काम में बड़ी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता था। जबकि जो कुछ भी हुआ, वो ऊपरी तौर पर और फौरीतौर पर हुआ। नारेबाजी ज्यादा हुई और काम कम हुआ। इससे यह पता चलता है कि देश की धमनियां मानी जाने वाली गंगा-यमुना जैसे जीवनदायक संसाधनों की हम किस हद तक उपेक्षा कर रहे हैं। इससे हमारे नजरिये का भी पता चलता है।


यहां यह दर्ज कराना महत्वपूर्ण होगा कि बिना यमुना का पुनरोद्धार करे गंगा का पुनरोद्धार नहीं होगा। क्योंकि अंततोगत्वाः प्रयाग पहुंचकर यमुना का जल गंगा में ही तो गिरने वाला है। इसलिए अगर हम अपना लक्ष्य ऐसा बनाए, जो सुसाध्य हो, तो बड़ी आसनी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यमुना शुद्धीकरण को ही गंगा शुद्धि अभियान का प्रस्थान बिंदु माना जाए। यहां से होने वाली शुरूआत देश के जल संसाधनों के पुनर्नियोजन में बड़ी भूमिका निभा सकती है। अब देश के सामने समस्या यह है कि एक हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी यमुना के शुद्धीकरण के लिए कोई व्यवस्थित योजना हमारे सामने नहीं है। मतलब साफ है कि यमुना के लिए हमें गंभीरता से सोच विचार के बाद एक विश्वसनीय योजना चाहिए। ऐसी योजना बनाने के लिए मंत्रालयों के अधिकारियों को गंगा और यमुना को प्रदूषित करने वाले कारणों और उनके निदान के अनुभवजन्य समाधानों का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान की छोड़ो कम से कम तथ्यों की जानकारी तो होनी चाहिए। समस्या जटिल तो है ही लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दे दें। अगर यह दावा किया जा रहा है कि आज हमारे पास संसाधनों का इतना टोटा नहीं है कि हम अपने न्यूनतम कार्यक्रम के लिए संसाधनों का प्रबंध न कर सकें, तो गंगा-यमुना के पुनरोद्धार के लिए किसी भी अड़चन का बहाना नहीं बनाया जा सकता।


एक ओर गंगोत्री के पास विकास के नाम पर हिमालय का जिस तरह नृशंस विनाश हुआ है, जिस तरह वृक्षों को काटकर पर्वतों को नंगा किया गया है, जिस तरह डाइनामाइट लगाकर पर्वतों को तोड़ा गया है और बड़े-बड़े निर्माण किये गये हैं, उससे नदियों का जल संग्रहण क्षेत्र लगातार संकुचित होता गया। इसलिए स्रोत से ही नदियों में जल की भारी कमी हो चुकी है। नदियों में जल की मांग करने से पहले हमें हिमालय को फिर से हराभरा बनाना होगा। 


वहीं दूसरी ओर मैदान में आते ही गंगा कई राज्यों के शहरीकरण की चपेट में आ जाती है। जो इसके जल को बेदर्दी से प्रयोग ही नहीं करते, बल्कि भारी क्रूरता से इसमें पूरे नगर का रासायनिक व सीवर जल प्रवाहित करते हैं। इस सबके बावजूद गंगा इन राज्यों को इनके नैतिक और कानूनी अधिकार से अधिक जल प्रदान कर उन्हें जीवनदान कर रही है। पर काशी तक आते-आते उसकी कमर टूट जाती है। गंगा में प्रदूषण का काफ़ी बड़ा हिस्सा केवल कानपुर व काशी वासियों की देन है। जब तक गंगा जल के प्रयोग में कंजूसी नहीं बरती जायेगी और जब तक उसमें गिरने वाली गन्दगी को रोका नहीं जायेगा, तब तक उसमें निर्मल जल प्रवाहित नहीं होगा।  


आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है। अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाए। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शांत करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। 


वैसे सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर पिछले चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने मतदाताओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते , तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है । जिसके बिना न प्रदेश आगे बढ़ता है और ना बन सकेगा गंगा का पानी अमृत। 


Monday, December 13, 2021

क्या हेलिकॉप्टर हादसे रोके जा सकते हैं?

देश के प्रथम सीडीएस जनरल बिपिन रावत व अन्य सैनिकों की शहादत से पूरा देश सदमे में है। कुन्नुर में हुआ यह दर्दनाक हादसा पहला नहीं है। भारत के इतिहास में ऐसे दर्जनों हादसे हुए हैं जिनमें देश के सैनिक, नेता व अन्य अति विशिष्ट व्यक्तियों ने अपनी जान गवाई है। सवाल यह है कि क्या हम इन हादसों से कुछ सबक़ ले पाए हैं? जिस एमआई सीरिज़ के रूसी हेलिकॉप्टर में जनरल रावत सवार थे वो एक बेहद भरोसेमंद हेलिकॉप्टर माना जाता है। दुर्घटना का कारण क्या था यह तो जाँच के बाद ही सामने आएगा। परंतु जिस तरह हम अन्य विषयों में तकनीक की मदद से तरक़्क़ी कर रहे हैं उसी तरह वीआईपी हेलिकॉप्टर यात्रा में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे ?


इस हादसे के कारण पर तमाम तरह के क़यास लगाए जा रहे हैं। पिछले कुछ हादसों की सूची को देखें तो ऐसा भी माना जा रहा है कि वीआईपी उड़ानों में, ख़राब मौसम के चलते, पाइलट के मना करने पर भी वीआईपी द्वारा उड़ान भरने का दबाव डाला जाता रहा है। फिर वो चाहे 2001 का कानपुर का हादसा हो, जिसमें माधवराव सिंधिया ने अपनी जान गवाईं थी या फिर 2011 में अरुणाचल प्रदेश के तवांग में हुआ हादसा जिसमें मुख्य मंत्री खंडू की मौत हुई थी। जानकारों की मानें तो रूस में बने इस अत्याधुनिक हेलिकॉप्टर को यदि ख़तरा हो सकता था तो वो केवल ख़राब मौसम का ही। ग़ौरतलब है कि वीआईपी उड़ानों में इस हेलिकॉप्टर को केवल अनुभवी पाइलट ही उड़ाते हैं और ऐसा ही इस उड़ान के लिए भी किया गया। 


वीआईपी यात्राओं के लिए विभिन्न हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल वायुसेना व नागरिक उड्डयन दोनों में होता है। परंतु भारत में अभी तक इन उड़ानों के लिए ‘विज़ूअल फ़्लाइट रूल्ज़’ (वीएफ़आर) ही लागू किए जाते हैं। वीएफ़आर नियम और क़ानून के तहत विमान उड़ाने वाले पाइलट को कॉक्पिट से बाहर के मौसम की स्थिति साफ़-साफ़ दिखाई देनी चाहिए जिससे कि वह विमान के बीच आने वाले अवरोध, विमान की ऊँचाई आदि का पता चलता है। इन नियम को लागू करने वाले नियंत्रक नियम लागू करते समय इन बातों को सुनिश्चित करते हैं कि विमान की उड़ान के लिए मौसम की स्थिति, विज़िबिलिटी, विमान की बादलों से दूरी आदि उड़ान के लिए अनुरूप हैं। मौसम के मुताबिक़ इन सभी परिस्थितियों के अनुसार विमान की उड़ान जिस इलाक़े में होनी है वह उस इलाक़े के अधिकार क्षेत्र के मुताबिक़ बदलती रहती है। कुछ देशों में तो वीएफ़आर की अनुमति रात के समय में भी दी जाती है। परंतु ऐसा केवल प्रतिबंधात्मक शर्तों के साथ ही होता है। 


वीएफ़आर पाइलट को इस बात का विशेष ध्यान देना होता है कि उसका विमान न तो किसी अन्य विमान के रास्ते में आ रहा है और न ही उसके विमान के सामने कोई अवरोध हैं। यदि उसे ऐसा कुछ दिखाई देता है तो अपने विमान को इन सबसे बचा कर उड़ाना केवल पाइलट की ज़िम्मेदारी होती है। ज़्यादातर वीएफ़आर पाइलट ‘एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल’ या एटीसी से निर्धारित रूट पर नहीं उड़ते। लेकिन एटीसी को वीएफ़आर विमान को अन्य विमानों के मार्ग से अलग करने के लिए वायुसीमा अनुसार, विमान में एक ट्रान्सपोंडर का होना अनिवार्य होता है। ट्रान्सपोंडर की मदद से रेडार पर इस विमान को एटीसी द्वारा देखा जा सकता है। यदि वीएफ़आर विमान की लिए मौसम व अन्य परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं होती हैं तो वह विमान 'इंस्ट्रुमेंट फ़्लाइट रूल्ज़' (आईएफ़आर) के तहत उड़ान भरेगा। आईएफ़आर की उड़ान ज़्यादा सुरक्षित मानी जाती है।


जिन इलाक़ों में मौसम अचानक बिगड़ जाता है वहाँ पर उड़ान भरने के लिए पाइलट को विशेष ट्रेनिंग दी जाती है। अन्य देशों में जिन पाइलट्स के पास केवल वीएफ़आर की उड़ानों की योग्यता होती है उन्हें बदलते मौसम वाले क्षेत्र में उड़ान भरने की अनुमति नहीं दी जाती। 


जनरल रावत के हेलिकॉप्टर को वायुसेना के विंग कमांडर पृथ्वी सिंह चौहान उड़ा रहे थे। वे सुलुर में 109 हेलिकॉप्टर यूनिट के कमांडिंग ऑफ़िसर भी थे। उन्हें इस तरह की उड़ानों का अच्छा-ख़ासा  अनुभव था। विषम परिस्थितियों में उन्होंने इस तरह के हेलिकॉप्टर को कई बार सुरक्षित उड़ाया। हेलिकॉप्टर को ख़राब मौसम का सामना करना पड़ा या उसमें कुछ तकनीकी ख़राबी हुई इसका पता तो जाँच के बाद ही लगेगा। लेकिन आमतौर पर ऐसे में जाँच आयोग पाइलट की गलती बता देते हैं। लेकिन जानकारों की माने तो इस हादसे में पाइलट की गलती नहीं लगती। 


ऐसे हादसों में जाँच को कई पहलुओं से गुजरना पड़ता है। इनमें तकनीकी ख़राबी, पाइलट की गलती, मौसम और हादसे की जगह की स्थिति महत्वपूर्ण होती हैं। इन सभी विषयों की गहराई से जाँच होती है तभी किसी निर्णय पर पहुँचा जा सकता है। जाँच का केवल एक ही मक़सद होता है, आगे से ऐसे हादसे फिर न हों। 


जब भी कोई हादसा होता है तो तमाम टीवी चैनलों पर स्वघोषित विशेषज्ञों की भरमार हो जाती है जो इस पर अपनी राय व्यक्त करते हैं। परंतु कोई भी इस बात पर ध्यान नहीं देता कि भारत में अन्य देशों की तरह वीआईपी हेलिकॉप्टर उड़ानों के लिए वीएफ़आर को लागू क्यों किया जा रहा? भारत के नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) और वायुसेना को इस बात पर भी गौर करना चाहिए। कब तक हम ऐसे और हादसों के साक्षी बनेंगे?


यह हादसा पिछले हादसों से अलग नहीं है। बल्कि उन्हीं हादसों की सूची में एक बड़ता हुआ अंक है। बरसों से वीएफ़आर के नियम, जिन्हें केवल हवाई अड्डों के नियंत्रण वाली सीमा में ही प्रयोग में लाया जाता है, के द्वारा ही हवाई अड्डों के बाहर व अन्य स्थानों में प्रयोग में लाया जा रहा है। जबकी होना यह चाहिए कि डीजीसीए और वायुसेना के साझे प्रयास से वीएफ़आर की समीक्षा होनी चाहिए और ऐसे हादसों को रोकने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।  

Monday, December 6, 2021

क्या पुलिस कमिश्नर प्रणाली से कम हुआ अपराध?


देश में पुलिस प्रणाली, पुलिस अधिनियम, 1861 पर आधारित है। आज भी ज्यादातर शहरों की पुलिस प्रणाली इसी अधिनियम से चलती है। लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में टाइगर सरकार ने लखनऊ और नॉएडा में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी। दावा यह किया गया था कि इससे अपराध को रोकने और क़ानून व्यवस्था सुधारने में लाभ होगा। पर असल में
हुआ क्या ? 

कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर सर्वोच्च पद होता है।वैसे ये व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने की है। जो तब कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में ही हुआ करता थी। जिसे धीरे-धीरे और राज्यों में भी लाया गया।  

भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 के भाग (4) के तहत हर जिला अधिकारी के पास पुलिस पर नियंत्रण रखने के कुछ अधिकार होते हैं। साथ ही, दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को कानून और व्यवस्था को विनियमित करने के लिए कुछ शक्तियाँ भी प्रदान करता है। साधारण शब्दों में कहा जाये तो पुलिस अधिकारी कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नही हैं, वे आकस्मिक परिस्थितियों में डीएम या मंडल कमिश्नर या फिर शासन के आदेश तहत ही कार्य करते हैं। परन्तु पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू हो जाने से जिला अधिकारी और एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के ये अधिकार पुलिस आयुक्त को ही मिल जाते हैं। जिससे वे किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहता है । 

बड़े शहरों में अक्सर अपराधिक गतिविधियों की दर भी उच्च होती है। ज्यादातर आपातकालीन परिस्थितियों में लोग इसलिए उग्र हो जाते हैं क्योंकि पुलिस के पास तत्काल निर्णय लेने के अधिकार नहीं होते। कमिश्नर प्रणाली में पुलिस प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के लिए खुद ही मजिस्ट्रेट की भूमिका निभाती है। पुलिसवालों की मानें तो प्रतिबंधात्मक कार्रवाई का अधिकार पुलिस को मिलेगा तो आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर जल्दी कार्रवाई हो सकेगी। इस सिस्टम से पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के पास सीआरपीसी के तहत कई अधिकार आ जाते हैं और वे कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होते है। साथ ही साथ कमिश्नर सिस्टम लागू होने से पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही भी बढ़ जाती है। हर दिन के अंत में पुलिस कमिश्नर, जिला पुलिस अधीक्षक, पुलिस महानिदेशक को अपने कार्यों की रिपोर्ट अपर मुख्य सचिव (गृह मंत्रालय) को देनी होती है, इसके बाद यह रिपोर्ट मुख्य सचिव को दी जाती है।

पुलिस आयुक्त शहर में उपलब्ध स्टाफ का उपयोग अपराधों को सुलझाने, कानून और व्यवस्था को बनाये रखने, अपराधियों और असामाजिक लोगों की गिरफ्तारी, ट्रैफिक सुरक्षा आदि के लिये करता है। इसका नेतृत्व डीसीपी और उससे ऊपर के रैंक के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा किया जाता है। साथ ही साथ पुलिस कमिश्नर सिस्टम से त्वरित पुलिस प्रतिक्रिया, पुलिस जांच की उच्च गुणवत्ता, सार्वजनिक शिकायतों के निवारण में उच्च संवेदनशीलता, प्रौद्योगिकी का अधिक से अधिक उपयोग आदि भी बढ़ जाता है। 

उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन और उससे भड़की हिंसा के समय यह देखा गया था कि कई ज़िलों में एसएसपी व डीएम के बीच तालमेल नहीं था। इसलिए भीड़ पर क़ाबू पाने में वहाँ की पुलिस नाकामयाब रही। इसके बाद ही सुश्री मायावती के शासन के दौरान 2009 से लम्बित पड़े इस प्रस्ताव को गम्भीरता से लेते हुए योगी सरकार ने पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को लागू करने का विचार बनाया। 

सवाल यह आता है की इस व्यवस्था से क्या वास्तव में अपराध कम हुआ? जानकारों की माने तो कुछ हद तक अपराध रोकने में यह व्यवस्था ठीक है जैसे दंगे के समय लाठी चार्ज करना हो तो मौक़े पे मौजूद पुलिस अधिकारी को डीएम से अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी। इसके साथ ही कुछ अन्य धाराओं के तहत जैसे धारा-144 लगाने, कर्फ्यू लगाने, 151 में गिरफ्तार करने, 107/16 में चालान करने जैसे कई अधिकार भी सीधे पुलिस को मिल जाते हैं। प्रायः देखा जाता है की यदि किसी मुजरिम को गिरफ़्तार किया जाता है तो साधारण पुलिस व्यवस्था में उसे 24 घंटो के भीतर डीएम के समक्ष पेश करना अनिवार्य होता है। दोनो पक्षों को सुनने के बाद डीएम के निर्णय पर ही मुजरिम दोषी है या नहीं यह तय होता है। लेकिन कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस के आला अधिकारी ही यह तय कर लेते हैं कि मुजरिम को जेल भेजा जाए या नहीं। 

चौंकाने वाली बात ये है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार जिन-जिन शहरों में ये व्यवस्था लागू हुई है वहाँ प्रति लाख व्यक्ति अपराध की दर में कोई कमी नहीं आई है। मिसाल के तौर पर, जयपुर में 2011 में जब यह व्यवस्था लागू हुई उसके बाद से अपराध की दर में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है। 2009 के बाद से लुधियाना में यही आँकड़ा 30 प्रतिशत है। फ़रीदाबाद में 2010 के बाद से यह आँकड़ा 40 प्रतिशत से अधिक है। गोहाटी में 2015 में जब कमिश्नर व्यवस्था लागू हुई तो वहाँ भी 50 प्रतिशत तक अपराध दर में वृद्धि हुई। इन आँकड़ों से एक गम्भीर सवाल ज़रूर उठता है कि इस व्यवस्था को लागू करने से पहले क्या इस विषय में गहन चिंतन हुआ था या नहीं? 

ब्यूरो के आँकड़ों के एक अन्य टेबल से यह भी पता चलता है कि कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए गए लोगों में से दोषसिद्धि दर में भी भारी गिरावट आई है। पुणे में 14.14 प्रतिशत, चेन्नई में 7.97, मुंबई में 16.36, दिल्ली में 17.20, बेंगलुरु में 17.32, वहीं इंदौर जहां सामान्य पुलिस व्यवस्था है वहाँ इसका दर 40.13 प्रतिशत है। यानी पुलिस कमिश्नर व्यवस्था में पुलिस द्वारा नाहक गिरफ़्तार किए गए लोगों की संख्या दोषियों से काफ़ी अधिक है।

जिस तरह आनन-फानन में सरकार ने बिना गम्भीर विचार किए कृषि क़ानूनों को लागू करने के बाद वापिस लिया। उसी तरह देश के अन्य शहरों में पुलिस व्यवस्था में बदलाव लाने से पहले सरकार को इस विषय में जानकारों के सहयोग से इस मुद्दे पर गम्भीर चर्चा कर ही निर्णय लेना चाहिए, रातों-रात बदलाव नहीं करना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह को विशेषज्ञों की एक टीम गठित कर इस बात पर अवश्य गौर करना चाहिए कि आँकड़ों के अनुसार पुलिस कमिश्नर व्यवस्था से अपराध घटे नहीं बल्कि बढ़े हैं और निर्दोष नागरिकों को नाहक प्रताड़ित किया गया है।