Monday, September 20, 2021

अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को जो कड़े शब्द कहे वो उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यप्रणाली पर बहुत शर्मनाक टिप्पणी थी। दो साल पहले मैनपुरी में बलात्कार के बाद मार दी गई एक लड़की के मामले में आजतक उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो लापरवाही दिखाई उससे माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय सख़्त नाराज़ हुआ। पुलिस महानिदेशक का यह कहना कि उन्होंने इस केस की एफ़आईआर तक नहीं पढ़ी है, उत्तर प्रदेश सरकार के नम्बर वन होने के दावों पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है।
 



दरअसल छोटी लड़कियों या महिलाओं की स्थित दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया और अफ़्रीका के देशों में बहुत दयनीय है। ताज़ा उदाहरण अफगानिस्तान का ही लें। वहाँ के तालिबान शासकों ने महिलाओं पर जो फ़रमान जार किए हैं वो दिल हिला देने वाले हैं। महिलाएँ आठ साल की उम्र के बाद पढ़ाई नहीं कर सकेंगी। आठ साल तक वे केवल क़ुरान ही पढ़ेंगी। 12 साल से बड़ी सभी लड़कियों और विधवाओं को जबरन तालिबानी लड़ाकों से निकाह करना पड़ेगा। बिना बुर्के या बिना अपने मर्द के साथ घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं को गोली मार दी जाएगी। महिलाएँ कोई नौकरी नहीं करेंगी और शासन में भागीदारी नहीं करेंगी। दूसरे मर्द से रिश्ते बनाने वाली महिलाओं को कोड़ों से पीटा जाएगा। महिलाएँ अपने घर की बालकनी में भी बाहर नहीं झाँकेंगीं। इतने कठोर और अमानवीय क़ानून लागू हो जाने के बावजूद अफगानिस्तान की पढ़ी लिखी और जागरूक महिलाएँ बिना डरे सड़कों पर जगह-जगह प्रदर्शन कर रही हैं।


भारत में भी जब कुछ धर्म के ठेकेदार हिंसात्मक और आक्रामक तरीक़ों से महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं तो वे भी तालिबानी ही नज़र आते हैं। कोई क्या पहने, क्या खाए, किससे प्रेम करे और किससे शादी करे, ये फ़ैसले हर व्यक्ति या हर महिला का निजी मामला होता है। ये अदातें भी कह चुकीं हैं। इसमें दख़ल देना लोकतांत्रिक मूल्यों के ख़िलाफ़ है। रोचक बात यह है कि जो लोग ये नैतिक शिक्षा देने का दावा करते हैं उनमें से बहुत से लोग या उनके नेता महिलाओं के प्रति कितनी कुत्सित मानसिकता का परिचय देते आये हैं, ये तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है। इनके चरित्र का यह दोहरापन अब जगज़ाहिर हो चुका है। इनके विरुद्ध भारत की पढ़ी लिखी, कामकाजी और जागरूक महिलाएँ भी खुल कर लिखती और बोलती हैं। उन्हें सोशल मीडिया पर अभद्र शब्दों से गलियाने की एक नई ख़तरनाक प्रवृत्ति देश में विकसित हो चुकी है। 


हम दुनिया की महिलाओं को तीन वर्गों में बाँट सकते हैं। पहला वर्ग उन महिलाओं का है जो अपने पारम्परिक सांस्कृतिक परिवेश के अनुरूप जीवन जीती हैं। फिर वो चाहे भारत की महिला हो या अफ़्रीका की। बच्चों का लालन-पालन और परिवार की देखभाल ही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। अपवादों को छोड़ कर ज़्यादातर महिलाएँ अपनी पारम्परिक भूमिका में संतुष्ट रहती हैं । चाहे उन्हें जीवन में कुछ कष्ट भी क्यों न भोगने पड़ें। 


दूसरे वर्ग की महिलाएँ वे हैं जो घर और घर के बाहर, दोनों दुनिया सम्भालती हैं। वे पढ़ी लिखी और कामक़ाज़ी होती हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाढ़ती हैं। फिर वो चाहे प्रशासन हो, सैन्य बल हो, शिक्षा, चिकित्सा, मीडिया, विज्ञान, व्यापार, प्रबंधन कोई क्षेत्र क्यों न हो वे किसी मामले में पुरुषों से पीछे नहीं रहती। सभ्य समाजों में इनका प्रतिशत क्रमशः लगातार बड़ता जा रहा है। फिर भी पूरे समाज के अनुपात में ये बहुत कम है। महिलाओं का यही वर्ग है जो दुनिया के हर देश में अपनी आवाज़ बुलंद करता है, लेकिन शालीनता की सीमाओं के भीतर रहकर। 


महिलाओं का तीसरा वर्ग, उन महिलाओं का है जो महिला मुक्ति के नाम पर हर मामले में अतिवादी रवैया अपनाती हैं। चाहे वो अपना अंग प्रदर्शन करना हो या मुक्त रूप से काम वासना को पूरा करना हो। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत पश्चिमी देशों तक में नगण्य है। विकासशील देशों में तो ये और भी कम है। पर इनका ही उदाहरण देकर समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का ठेका लेने वाले धर्म के ठेकेदार पूरे महिला समाज को कठोर नियंत्रण में रखने का प्रयास करते हैं। 


वैसे मानव सभ्यता के आरम्भ से आजतक पुरुषों का रवैया बहुत दक़ियानूसी रहा है। उन्हें हमेशा दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। उनकी हैसियत समाज में केवल सम्पत्ति के रूप में होती है। उनकी भावनाओं की कोई कद्र नहीं की जाती। अनादिकाल से युद्ध जीतने के बाद विजेता चाहे राजा हो या उसकी सेना, हारे हुए राज्य की महिलाओं पर गिद्धों की तरह टूट पड़ते हैं। बलात्कार और हत्या आम बात है। वरना उन्हें ग़ुलाम बना कर अपने साथ ले जाते हैं और उनका हर तरह से शोषण करते हैं। शायद इसीलिए महिलाओं को अबला कह कर सम्बोधित किया जाता है। 


नेता, प्रशासक और राजनैतिक दल महिलाओं के हक़ पर बोलते समय अपने भाषणों में बड़े उच्च विचार व्यक्त करते हैं। किंतु आए दिन ऐसे नेताओं के विरुद्ध ही महिलाओं के साथ अश्लील या पाशविक व्यवहार करने के समाचार मिलते हैं। हाल के दशकों में दरअसल, पश्चिम से आई उपभोक्ता संस्कृति ने महिलाओं को भोग की वस्तु बनाने का बहुत निकृष्ट कृत्य किया है। ऐसे में समाज के समझदार व जागरूक पुरुषवर्ग को आगे आना चाहिए। महिलाओं को सम्मान देने के साथ ही उन पर होने वाले हमलों का सामूहिक रूप से प्रतिरोध करना चाहिए। संत विनोबा भावे कहते थे कि एक पुरुष सुधरेगा तो केवल स्वयं को सुधारेगा पर अगर एक महिला सुधरेगी तो तीन पीढ़ियों को सुधार देगी। भारत भूमि ने महिलाओं को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती के रूप में पूजा है। सृष्टि के रचैया ब्रह्मा जी के पश्चात इस भूतल पर मानव को वितरित करने वाली नारी का स्थान सर्वोपरि है। फिर भी यहाँ हज़ारों महिलाएँ हर रोज़ बलात्कार या हिंसा का शिकार होती हैं और समाज मूक दृष्टा बना देखता रहता है। जब तक हम जागरूक और सक्रिय हो कर महिलाओं का साथ नहीं देंगे, उनकी बुद्धि को कम आंकेंगे, उनका उपहास करेंगे, तो हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे।  

Monday, September 13, 2021

जब चिड़िया चुग गई खेत


आजकल एक प्रदेश के ताकतवर बताए जा रहे मुख्य मंत्री के मुख्य सलाहकार और वरिष्ठतम अधिकारियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन की भारी चर्चा है। मीडिया ही नहीं, प्रदेश के नौकरशाह और राजनेता चटखारे लेकर इन क़िस्सों को एक दूसरों को सुना रहे हैं। यूँ तो स्टिंग ऑपरेशन देश में लगातार होते रहते हैं। पहले ये काम मीडिया अपने जुनून में करता था। बाद में ये ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया। पिछले दो दशकों से राजनैतिक दल एक दूसरे के विरुद्ध और एक ही दल के बड़ी राजनेता, एक दूसरे के विरुद्ध करवाने लगे। जिसका मक़सद अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी की छवि ख़राब करके उसे रास्ते से हटाना होता है। जिसके ख़िलाफ़ सफल स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है वो किसी भी क़ीमत पर उसे दबाने की जीतोड़ कोशिश करता है।
 



सुना है कि जिस स्टिंग ऑपरेशन की आजकल चर्चा है उसमें फँसा प्रदेश का वरिष्ठ अधिकारी, उसे दबाने के लिए, 20 करोड़ रुपए देने को राज़ी हो गया है। अब अगर ये डील हो जाती है तो ज़ाहिर है कि स्टिंग ऑपरेशन की खबर आम जनता तक नहीं पहुँच पाएगी। ये बात दूसरी है कि डील करने वाला पहले ही अपने हाथ काट चुका हो और सबूतों को अपनी टीम के किसी साथी के साथ साझा कर चुका हो। ऐसे में डील होने के बाद भी मामला प्रकाशित होने से नहीं रुकेगा। खबर यह भी है कि उक्त स्टिंग ऑपरेशन में कई आला अफ़सर बेनक़ाब हुए हैं। जिनमें चरित्र से लेकर भारी भ्रष्टाचार के प्रमाण जुटाए जा चुके हैं। जिसका जाहिरन उनके आका मुख्य मंत्री की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर उन राज्यों में जहां आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं। 

ऐसी स्थित ही क्यों आती है जब पानी सिर से गुजर जाता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’। ऐसा तो नहीं है कि प्रदेश का शासन चलाने वाला कोई मुख्य मंत्री इतना अयोग्य हो कि उसे पता ही न चले कि उसकी इर्दगिर्द साये की तरह मंडराने वाले उसके खासमख़ास वरिष्ठतम अधिकारी दुकान खोल कर बैठे हैं और हर वर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपया कमा रहे हैं। जब ये घोटाले सामने आएँगे तो ऐसे मुख्य मंत्री का दामन कैसे साफ़ रहेगा? हर तरफ़ यही शोर होगा की ये सब उस मुख्य मंत्री की मिलीभगत से हो रहा था। फिर अपनी क़मीज़ दूसरों की क़मीज़ से साफ़ बताने वाला दावा भी तो फुर्र से उड़ जाएगा।  


प्रश्न है कि उस मुख्य मंत्री ने समय रहते सही कड़े कदम क्यों नहीं उठाए? हम सभी पत्रकारों का चार दशकों से ये अनुभव रहा है कि, चुनाव जीतते ही, मुख्य मंत्री हो या प्रधान मंत्री, अपने चाटुकारों व चहेते अफ़सरों से ऐसे घिर जाते हैं, कि उन्हें सब ओर हरा ही हरा दिखाई देता है। क्योंकि वही उन्हें दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि समय समय पर जागरूक नागरिक या पत्रकार उनको सचेत न करते हों। पर सत्ता का अहंकार उनके सिर चढ़ कर बोलता है। वे सही सलाह भी सुनना नहीं चाहते। इस तरह वे ज़मीन से भी कट जाते हैं और अपने मतदाताओं से भी। पर जो मुख्य मंत्री वास्तव में ईमानदार होते हैं और प्रदेश की जनता का भला करना चाहते हैं, वे सुरक्षा के घेरे तोड़ कर और अपने पुराने विश्वासपात्र मित्रों की मदद से अपनी छवि का जनता में मूल्यांकन करवाते रहते हैं। जिस इलाक़े में उनकी या उनकी सरकार की छवि गिरने का संकेत मिलता है, वहाँ जाहिरन लोगों की बहुत सारी शिकायतें होती हैं। जिन्हें दूर करना एक अनुभवी मुख्य मंत्री की प्राथमिकता होती है। पर जहां सार्थक व उचित प्रश्न करने वालों का मुँह बंद कर दिया जाए, उन पर झूठे आरोप लगा कर अवैध तरीक़ों से पुलिस कार्यवाही की जाए या उनके प्रतिष्ठानों पर आयकर के छापे डलवाए जाएं, वहाँ भीतर ही भीतर हालात इतने बगड़ जाते हैं कि बहुमत का दावा करने वाले नेता अपनी सत्ता छोड़, इज़्ज़त तक नहीं बचा पाते। 


पिछले तीस वर्षों में सत्ताधीशों को एक उदाहरण मैं अपने इसी कॉलम में कई बार पहले दे चुका हूँ। एक बार फिर दोहरा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद किसी को तो बुद्धि शुद्ध हो और वो अपने तौर-तरीक़े बदलने को राज़ी हों। ये उदाहरण वो है जो ईसा से तीन सदी पूर्व मगध सम्राट देवानाम पियदस्सी अशोक ने खोजा था। वे जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। जमीनी सच्चाई जानने के लिए मुख्य मंत्रियों को गैर पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजेंसियां या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद कर पाएँगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाऐं होती हैं। इसलिए भी इन्हें गैर पारंपरिक ‘फीड बैक मैकेनिज्म’ या ‘सोशल ऑडिट’ का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा। पहला तो ये कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाऐगा। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। 


‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि आजकल ज़्यादातर नेता ‘जवाबदेही’ व ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आना चाहिए।

Monday, September 6, 2021

मुसलमान क्यों रोकें गोवंश की हत्या ?


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले हफ़्ते गौ माता को राष्ट्रीय पशु घोषित कर उसके वध पर पूरे देश में प्रतिबंध लगाने को कहा। आम धारणा ऐसी बनाई गई है कि गौ हत्या के लिए सबसे ज़्यादा मुसलमान ज़िम्मेदार हैं। जबकि सच्चाई कुछ और है। गौ हत्या एक संवेदनशील मुद्दा है।महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि हम हिंदुओं के लिए गौ माँ के समान है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय नस्ल की देशी गाय कुदरत की एक ऐसी नियामत है जिसका दूध ही नहीं मूत्र और गोबर भी पूरी मानव जाति के
  लिए जीवन रक्षक है। यह बात वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध हो चुकी है। 


भारतीय परम्परा के सुविख्यात इतिहासकार धर्मपाल जी अपने शोध के आधार पर अपनी किताब ‘गौ वध और अंग्रेज’ में लिखते हैं कि महारानी विक्टोरिया ने तत्कालीन वायसराय लैंस डाऊन को लिखे एक पत्र में कहा था, हालांकि मुसलमानों द्वारा की जा रही गौ हत्या आंदोलन का कारण बनी है, लेकिन हकीकत में यह आंदोलन हमारे खिलाफ है, क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज्यादा हम गौ हत्या कराते हैं। इस पत्र से यह बात साफ़ है कि न केवल ज़्यादातर भारतीय हिन्दू, मुसलमान और ईसाई उस समय इसे साफ़ तौर पर देख रहे थे, बल्कि ब्रिटिश अफसरों का एक बड़ा वर्ग भी इस बात को जानता था कि पशु वध बंदी का यह आन्दोलन जिस गो-हत्या के विरोध में है वह वास्तव में भारत में एक लाख से भी अधिक अंग्रेज सैनिकों एवं अफसरों के भोजन के काम आता है। उस समय के दौरान ब्रिटिश खुफिया विभाग के दस्तावेजों का एकाग्र अध्ययन यह बताता है कि मुसलमान गो हत्या छोड़ने के पक्ष में थे, पर अंग्रेजों के इशारे पर ऐसा कर रहे थे। यह भी कहा जा सकता है कि गो-हत्या पर मुसलमानों का जोर 1880 से बढ़ा, जो कि ब्रिटिश उकसावे का ही परिणाम था। साथ ही अंग्रेजों का इस पर जोर भी रहा कि ‘मुसलमानों की गोवध प्रथा’ जारी रहनी चाहिए।



इस्लाम का जन्म पश्चिम एशिया में जहां हुआ वहाँ रेगिस्तानों में गाय की उपलब्धता लगभग न के बराबर थी। इसलिये मुस्लिम समाज में गौ मांस भक्षण की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है। कुरान शरीफ़ में सात आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाने की सलाह दी गई है। इतना ही नहीं गौवंश से मानव जाति को मिलने वाली सौगातों के लिए उनका आभार तक जताया गया है। इसलिये पश्चिम एशिया के इस्लामिक देशों में ऊँट की क़ुर्बानी देने की प्रथा है। पर आश्चर्य की बात है कि गोमांस का भारत आज भी दुनियाँ में सबसे बड़ा निर्यातक देश है। इस धंधे में हिंदुओं की भारी हिस्सेदारी है । इन कम्पनियों में हिस्सेदारी वाले हिंदुओं के नामों और हिस्सेदारी के प्रतिशत का खुलासा भारत सरकार को फ़ौरन करना चाहिये। 


दरअसल इतिहास के पन्नों में यह बात अंकित है कि अंग्रेजों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच फूट पड़वाने के लिए गाय और सूअर के माँस की कटाई को बढ़ावा दिया था। अंग्रेजों के पहले मुग़ल राज में भारत में गोकशी नहीं होती थी। मुगल बादशाह बाबर ने जहां गाय की कुर्बानी से परहेज करने का हुक्म दिया था, वहीं अकबर ने तो गोकशी करने वालों के लिये सजा-ए-मौत मुकर्रर कर रखी थी। 1921 में प्रकाशित ख्वाजा हसन निजामी देहलवी की किताब ‘तर्क-ए-कुरबानी-ए-गऊ’ के मुताबिक भोपाल रियासत के पुस्तकालय में मुगल शहंशाह बाबर का ऐसा ही एक फरमान मौजूद है जिसमें गाय की कुरबानी से परहेज करने को कहा गया था।


इतना ही नहीं गो हत्या के खिलाफ मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भी समय समय पर फतवे जारी किये हैं। इनमें फिरंगी महल के मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महली और मौलाना अब्दुल हई फिरंगी महली का फ़तवा प्रमुख हैं। मौलाना अब्दुल हई फिरंगी महली के एक फतवे में कहा गया था कि गाय के बजाय ऊंट की कुरबानी करना बेहतर है। मौलाना बारी ने महात्मा गांधी को 20 अप्रैल 1919 को एक तार भेज कहा था हिन्दू और मुसलमानों में एकता हो, इसलिये इस बकरीद में फिरंगी महल (लखनऊ) में गो-हत्या नहीं हुई। अगर खुदा चाहेगा, तो गाय आइंदा कुर्बान ना की जाएगी। 


सन 1700 में जब अंग्रेज़ भारत में व्यापारी बनकर आए थे, उस समय भारत में गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था। हिन्दू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते थे। परंतु अंग्रेज़ इन दोनों ही पशुओं के मांस के शौकीन थे। लिहाज़ा भारत पर कब्जा करने हेतु अंग्रेजों ने ऐसी विघटनकारी नीतियों का बीज बोना शुरू किया। अंग्रेजों ने मुसलमानों को भड़काया कि कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि गौवध नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं उन्होंने मुसलमानों को गौ मांस का व्यापार करने का लालच भी दिया। ठीक इसी तरह दलित हिन्दुओं को सुअर के मांस की बिक्री करने का लालच देकर अपने मक़सद को पूरा किया।  


यूरोप दो हज़ार सालों से गाय के मांस का प्रमुख उपभोक्ता रहा है। अंग्रेजों ने भारत में अपने आगमन के साथ ही यहां गौ हत्या शुरू करा दी। 18वीं सदी के आखिर तक अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई की  प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों में बड़े पैमाने पर कसाईखाने बने जहां बड़ी तादाद में गौ हत्या होने लगी। समय के चलते जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजी सेना और अफ़सरों की तादाद बढ़ने लगी वैसे-वैसे ही गोकशी में भी बढ़ोतरी हुई। इसी दौरान हिन्दू संगठनों ने पशु वध के ख़िलाफ़ एक आंदोलन शुरू किया।


धर्म के नाम पर सियासत की रोटियाँ सेकने वाले नेता चाहे हिंदू हों या मुसलमान या और किसी धर्म के हों, उनका एक ही लक्ष्य होता है, समाज को बाँटना और अपना उल्लू सीधा करना। ये बात हम दशकों से देखते और अनुभव करते आ रहे हैं। आज जब देश को आर्थिक प्रगति और युवाओं को रोज़गार की ज़रूरत है, ऐसे में साम्प्रदायिकता का ज़हर हमारे अस्तित्व के लिए ख़तरा बन चुका है। इसलिए यह ज़रूरी है कि हर धर्म के समझदार लोग इस ज़हर से अपने समाज को बचाने का काम करें। अगर मुसलमान तय कर लेते हैं कि गौ हत्या नहीं करेंगे और गौ मांस का व्यापार भी नहीं  करेंगे तो पूरे देश में एक ऐसा भाईचारा क़ायम होगा, जिसमें हम सब अपना ध्यान और ऊर्जा अपनी आर्थिक प्रगति के लिए लगा सकेंगे। 1980 में मुरादाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद महीनों कर्फ़्यू रहा जिससे बर्तन के कारीगर और निर्यातक दोनों तबाह हो गए। तबसे वहाँ के लोगों ने दंगों से तौबा कर ली। माना कि सनातन धर्म और इस्लाम में कोई समानता नहीं है। फिर भी हम 1000 सालों से साथ रहते आए हैं और आगे भी शांति से रह सकें इसलिए मुसलमानों को ही गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने की माँग करनी चाहिए।  

Monday, August 30, 2021

नंद घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की


भादों के इस महीने में सारी दुनिया के हिंदुओं का मन मथुरा की ओर स्वतः ही आकर्षित हो जाता है। 5500 वर्ष पहले कंस के कारागार में जन्म लेने वाले ब्रह्मांड नायक का जन्मोत्सव हज़ारों वर्ष बाद भी उसी उत्साह से मनाया जाता है, मानो ये आज की ही घटना हो। हम ब्रजवासियों के लिए तो बालकृष्ण आज भी हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। वृंदावन में कोई अपनी कन्या का विवाह के लिए रिश्ता ले कर आएगा तो बेटे का पिता पहले बिहारी जी के मंदिर दौड़ेगा और ठाकुर जी के सामने खड़े हो कर कहेगा,
तुम कहो तौ हां कर दऊ और तुम कहो तो नाईं कर दऊ। तब आ कर कन्या के पिता से कहेगा कि, बिहारी जी ने हाँ कर दई है। 
ऐसी दिव्य है ब्रज की भूमि, जो बार -बार उजड़ी और कई बार सजी। जब भगवान धरा धाम को छोड़ कर अपने लोक चले गए तब उनके वियोग में उनके प्रपौत्र वज्रनाभ जी द्वारिका से मथुरा आए। यहाँ उन्हें उपदेश देते हुए शांडिल्य मुनि जी ने कहा, व्रज का अर्थ है व्यापक। सतो, रजो और तमो गुण से अतीत जो परब्रह्म है वही सर्वव्यापक है। कण-कण में व्याप्त है और उसी ब्रह्म का धाम है ये व्रज है जहां सगुण रूप में नंदनंदन भगवान श्री कृष्ण का नित्य वास है। यहाँ उनकी लीलाएँ हर क्षण होती रहती हैं। जो हमें इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं देती। केवल प्रेम रस में गहरे डूबे हुए रसिक संत जन ही उसका अनुभव करते हैं। तब शांडिल्य मुनि ने वज्रनाभ जी को भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थलियाँ  प्रकट करने और उनको सजाने संवारने का आदेश दिया। मुनिवर ने कहा भगवान की लीलाएँ ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना के तटों पर हुई थी। इन्हें तुम सजाओ। वज्रनाभ जी ने इन सबको पुनः प्रकट किया और इनका जीर्णोद्धार किया।

उनके बाद हज़ारों वर्षों तक ब्रज प्रदेश उजड़ा पड़ा रहा। जहां सघन वन थे जिनमें जंगली पशु विचरण करते थे। फिर व्यापक स्तर पर ब्रज का जीर्णोद्धार श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर 16वीं सदी में तब शुरू हुआ, जब उन्होंने बंगाल से अपने दो शिष्यों लोकनाथ गोस्वामी व भूगर्भ गोस्वामी को ब्रज भेजा। इसी दौर में मुग़ल बादशाह अकबर ने ब्रज में जज़िया समाप्त कर दिया और देश भर के हिंदू राजाओं को यहाँ आकर यमुना के घाट, कुंड, वन या मंदिर आदि निर्माण करने की छूट दे दी। इस परिवर्तन के कारण देश भर के रसिक संत भी ब्रज में आकर बसने लगे। किंतु उसके बाद औरंगज़ेब की नीतियों का यहाँ विपरीत प्रभाव पड़ा। तब बहुत से मंदिर तोड़े गए।
 
पूरे ब्रज के विकास की एक विहंगम दृष्टि बीस बरस पहले बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा ने दी। उन्होंने भी ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना घाटों को ही सजाने और संवारने का हम सबको आह्वान किया। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया। जिसका परिणाम ब्रजवासियों और दुनिया भर के कृष्ण भक्तों ने देखा और अनुभव किया। 
इसी दिशा में ब्रज की आध्यात्मिक चेतना और इसके माहात्म को केंद्र में रखते हुए हमने ब्रज के समेकित विकास के लिए एक संवैधानिक संस्था के गठन का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री अखिलेश यादव को दिया। जिन्होंने इस संस्था का संवैधानिक गठन किया। बाद में उसी संस्था का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ रख दिया और बड़ी उदारता से बहुत बड़ी रक़म इस परिषद को सौंपी। पर यहाँ वे दो भारी भूल कर गए। पहली इस परिषद के संचालन का ज़िम्मा उन्होंने ऐसे सेवा निवृत अधिकारी को सौंपा जिन्हें न तो ब्रज संस्कृति की कोई समझ है और न ऐसे ऐतिहासिक कार्य करने का कोई अनुभव। इतना ही नहीं इस परिषद के कुल दो अधिकारियों ने इस परिषद के संविधान को भी उठाकर ताक पर रख दिया। परिषद का वैधानिक रूप से वांछित नियमों के तहत गठन किए बिना ही बड़े-बड़े निर्णय स्वयं ही लेने शुरू कर दिए। जिनमें पानी की तरह जनता का पैसा बहाया गया। बावजूद इसके, ये सरकारी संस्था ब्रज की धरोहरों व संस्कृति के संरक्षण की दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं कर पाई। इसकी परियोजनाओं से ब्रज की संस्कृति का विनाश ही हुआ है, संरक्षण नहीं। इस परिषद के किए गए कामों और खर्च की गई रक़म की अगर निष्पक्ष खुली जाँच हो जाए तो सब घोटाला सामने आ जाएगा। 
आजकल चुनावी मूड में आ चुके उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जनसभाओं में ताल ठोक कर इस परिषद की उपलब्धियाँ गिना रहे हैं। जबकि ब्रज के अनेक साधु संत, सामाजिक संस्थाएँ और खुद भाजपा व संघ के कार्यकर्ता तक गत 4 वर्षों में योगी जी से बार-बार विकास और संरक्षण के नाम पर परिषद द्वारा मथुरा में किए जा रहे विनाश की शिकायतें कर चुके हैं। पर योगी ने आज तक ईमानदारी से जाँच किए जाने का कोई आदेश जारी नहीं किया। इससे ब्रज में रह रहे संत और ब्रजवासी ही नहीं बल्कि यहाँ आने वाले लाखों तीर्थ यात्री भी बहुत व्यथित हैं। इसी कॉलम में 6 नवंबर 2017 को मैंने लिखा था ‘ऐसे नहीं होगी ब्रज धाम की सेवा योगी जी’। पर उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की। होर्डिंग व विज्ञापनों के ज़ोर पर ही अगर विकास दिखाना है तो फिर कोई काम करने की ज़रूरत ही क्या है। दुःख और पीड़ा तो इस बात की है कि हिंदू धर्म के नाम पर बनीं योगी सरकार का सार ज़ोर विज्ञापनों पर है। न तो योजनाओं के निर्माण में पारदर्शिता और कल्पनाशीलता रही है और न ही उनके क्रियांवन में। इससे हल्ला चाहें कितना मचा लें, हिंदू धर्म का कोई हित नहीं हो रहा। पर किसे फ़ुरसत हैं सच को जानने और कुछ ठोस करने के लिए? जब बारहों महीने सबका लक्ष्य केवल चुनाव जीतना हो तो ऐसे में हम कब तक ब्रज के लिये आँसूँ बहाएँ? चलो आओ श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाएँ।

Monday, August 23, 2021

जन सहयोग से ही रोक सकती है पुलिस अपराध


पुलिस-जनता के संबंधों में सुधार लाने में सामुदायिक पुलिसिंग एक अहम किरदार निभा सकती है। ऐसा माना जाता है कि जनता और पुलिस के बीच अगर अच्छे सम्बंध हों तो पूरे पुलिस फ़ोर्स को बिना वर्दी के ऐसे हज़ारों सिपाही मिल जाएँगे जो न सिर्फ़ अपराध को रोक पाएँगे बल्कि पुलिस की ख़राब छवि को भी सुधार सकेंगे। ऐसा नहीं है कि पुलिस अपनी छवि जान बूझ कर ख़राब करती है। असल में पुलिस की वर्दी के नीचे होता तो एक इंसान ही है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना होता है कि वो हर हाल में अपने देश और समाज की रक्षा करने के कटिबद्ध होता है। फिर वो चाहे कोई त्योहार हो या किसी भी तरह का मौसम हो, अगर ड्यूटी निभानी है तो निभानी है। 


हाल ही में नियुक्त हुए दिल्ली पुलिस के कमिश्नर राकेश अस्थाना ने दिल्ली के श्यामलाल कॉलेज में ‘उम्मीद’ कार्यक्रम में कहा कि जहां एक ओर पुलिस को हर तरह की क़ानून व्यवस्था और उनसे जुड़े मुद्दों से निपटने की ट्रेनिंग मिलती है वहीं बिना समाज के समर्थन के इसे प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि आज हम प्रौद्योगिकी के युग में रहते हैं और आर्थिक प्रगति केवल शांतिपूर्ण वातावरण में ही प्राप्त की जा सकती है। पुलिस और जनता को मिल जुलकर ही रहने का प्रयास करना चाहिए। 


आज के दौर में ज़्यादातर लोगों के हाथ में एक स्मार्टफ़ोन तो होता ही है, यदि इसका उपयोग सही तरह से किया जाए तो क़ानून व्यवस्था बनाने में नागरिक पुलिस की काफ़ी सहायता कर सकते हैं। देखा जाए तो हर जगह, हर समय पुलिस की तैनाती संभव तो नहीं हो सकती है, इसलिए बेहतर क़ानून व्यवस्था और सौहार्द की दृष्टि से यदि पुलिस को समाज का सहयोग मिल जाए तो फ़ायदा समाज का ही होगा।


उदाहरण के तौर पर जून 2010 में जब दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस ने जब फ़ेसबुक पर अपना पेज बनाया तो मात्र 2 महीनों में ही 17 हज़ार लोग इससे जुड़ गए और 5 हज़ार से ज़्यादा फ़ोटो और विडीओ इस पेज पर डाले गए। इन फ़ोटो और विडीओ में ट्रैफ़िक नियमों के उलंघन की तस्वीरें, उलंघन की तारीख़ व समय और जगह का विवरण होता था। नतीजतन जहां एक ओर नियम उलंघन करने वालों के घर चालान जाने लगे वहीं दूसरी ओर वहाँ चालक और ज़्यादा चौकन्ने होने लग गए। इस छोटी सी पहल से पुलिस को बिना वर्दी ऐसे लाखों सिपाही मिल गए। इस प्रयास से जहां एक ओर समाज का भला हुआ वहीं दिल्ली की सड़कें भी सुरक्षित होने लग गई। 


असल में करोड़ों की आबादी वाले इस देश में यदि पुलिस और जनता के बीच कुछ प्रतिशत के सम्बंध किसी कारण से बिगाड़ जाते हैं तो उसका असर पूरे देश पर पड़ता है। पुलिसकर्मी किस तरह की तनावपूर्ण माहौल में काम करते हैं उसका अंदाज़ा केवल पुलिसकर्मी ही लगा सकते हैं, आम जनता नहीं। स्वार्थी तत्व इस सब का नाजायज़ उठा कर पुलिस को बदनाम करने का काम करते आए हैं। 


आमतौर पर यह देखा जाता है कि यदि कोई अपराधी पुलिस द्वारा पकड़ा जाए और फिर बाद में अदालत द्वारा छोड़ दिया जाए तो दोषी पुलिस ही ठहराई जाती है। जबकि असल में भारत की दंड संहिता और न्यायिक प्रणाली में ऐसे कई रास्ते होते हैं जिसका सहारा लेकर अपराधी का वकील उसे छुड़ा लेता है। यदि असल में अपराधी दोषी है और पुलिस ने सही कार्यवाही कर उसे हवालात में डाला है तो समाज का भी यह दायित्व होता है की यदि किसी नागरिक ने अपराध होते हुए देखा है तो उसे अदालत में जा कर साक्ष्य देना चाहिए। ऐसा करने से पुलिस और समाज का एक दूसरे पर विश्वास बढ़ेगा ही। 


जहां राजनीतिज्ञ लोग पुलिस प्रशासन को अपना हथियार समझ कर उन पर दबाव डालते हैं वहीं पुलिसकर्मी अपने तनाव और दबाव के बारे में किसी से भी नहीं कहते हैं और आम जनता के सामने बुरे बनते हैं। पुलिस कर्मियों पे अगर कुछ नाजायज़ करने का दबाव आता है तो पुलिस अफ़सर को मीडिया या आजकल के दौर में सोशल मीडिया की मदद से अपने पर पड़ने वाले दबाव का खुलासा कर देना चाहिए। इससे जनता के बीच एक सही संदेश जाएगा और पुलिस को अपना हथियार बनाकर राजनैतिक रोटियाँ सेकने वाले नेताओं का भांडाफोड़ भी होगा। 


ग़ौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1861 के एक्ट के अधीन कार्य करने वाली भारतीय पुलिस में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं भी वर्णन नहीं था। यह तो सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का असर है कि हर राज्य के पास एक राज्य पुलिस एक्ट है। हर राज्य पुलिस एक्ट में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं न कहीं ज़िक्र ज़रूर है परंतु इसे कोई विशेष तवज्जो नहीं दिया जाता। यदि सामुदायिक पुलिसिंग का सही ढंग से उपयोग हो तो पुलिस अपना कार्य तनाव मुक्त हो कर काफ़ी कुशलता से करेगी। 20वीं शताब्दी में भारत के उत्तरी राज्यों में ‘ठीकरी पहरा’ नामक योजना प्रचलन में थी जिसके अंतर्गत गांव के सभी युवा रात्रि के समय पहरा देते थे तथा डाकू व लुटेरों को पकड़ने में पुलिस की मदद करते थे। पंजाब ने ‘सांझ’, चंडीगढ़ में ‘युवाशक्ति प्रयास’ तथा तमिलनाडु में ‘मोहल्ला कमेटी आंदोलन’ के नाम से ऐसी योजनाएं चलाई जा रही हैं तथा हर राज्य में अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे हैं।

  

शुरू में इन योजनाओं के माध्यम से राज्यों की पुलिस ने जहां बड़े-बड़े अपराधी गिरोहों को पकड़ा था वहीं ऐसे पुलिस वालों की भी पहचान हुई थी जो अपराध में खुद संलिप्त थे। लेकिन समय गुज़ारते इन योजनाओं की तरफ अब शायद कोई ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा। आज के दौर में जहां देश के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरों की नज़र है वहीं अगर सामुदायिक पुलिसिंग पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाए तो अपराध घटेंगे और जनता और पुलिस के बीच सम्बन्धों में भी सुधार होगा। नागरिक पुलिस को अपने परिवार का ही एक हिस्सा मानेंगे।   

Monday, August 16, 2021

बढ़ता जल संकट: एक ओर बाढ़ तो दूसरी ओर सूखा


आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ा हुआ है तो दूसरी ओर कई शहर बाढ़ की चपेट में हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकता है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है।
 


एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसके अलावा प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। 


दरअसल, चेन्नई हो या उस जैसा देश का कोई और नगर, असली समस्या वहाँ की वाटर बॉडीज पर अनाधिकृत क़ब्जे की है। जिस पर भवन आदि बनाकर जल को भूमि के अंदर जाने से रोक दिया जाता है। चूँकि चेन्नई समंदर के किनारे है इसलिए थोड़ी सी बारिश से भी पानी नालों व पक्की सड़को से बहकर समंदर में चला जाता है। भूमि के नीचे अगर पानी किसी भी रास्ते नहीं जाएगा तो जल स्रोत समाप्त हो ही जाएँगे। जल आपदा नियंत्रण सरकार की एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन जिस तरह अवैध भवन बन जाते हैं और हादसे होने के बाद ही सरकार जागती है। उसी तरह जल आपदा के संकट को भी यदि समय रहते नियंत्रित न किया जाए तो यह समस्या काफ़ी गम्भीर हो सकती है। 


अब बात करें सूखे और अकाल का पर्याय बन चुके बुंदेलखंड की जहां इस वर्ष भारी बारिश हुई है। आँकड़ों के अनुसार पिछले साल हुई 372 मिलीमीटर बारिश के मुक़ाबले इस साल अगस्त के दूसरे सप्ताह तक औसत 1,072 मिलीमीटर वर्षा हो चुकी है। जो कि पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड है। ग़ौरतलब है कि बुंदेलखंड का यह संकट नया नहीं है। सूखे के बाद बाढ़ के संकट के पीछे बिगड़ते हुए पर्यावरण, खासकर अनियंत्रित खनन, नदियां से रेत का खनन, वनों के विनाश तथा परंपरागत जलस्रोतों के नाश जैसे कारणों को माना जा सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह पिछले कुछ सालों से प्राकृतिक पर्यावरण की उपेक्षा करके अपनाए गए विकास मॉडल की वजह से पैदा होने वाले दीर्घकालीन जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। सरकार द्वारा इसके लिए किए जाने वाले तात्कालिक उपाय नाकाफी हैं। 


सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दाबा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई।  


बुंदेलखंड का पंजाब कहा जाने वाला जालौन जिला, खेती की दृष्टि से सबसे उपयुक्त है। पंजाब की तरह यहां भी पांच नदियां-यमुना, चंबल, सिंध, कुमारी और पहुज आकर मिलती हैं। आज यह पूरा इलाका बाढ़ से जूझ रहा है। बेमौसम की बारिश ऐसी तबाही मचा रही है कि यहाँ के किसान बर्बादी की कगार पर पहुंच गए हैं। कर्ज लेकर तिल, मूंगफली, उड़द, मूंग की बुआई करने वाले किसानों का मूलधन भी डूब रहा है। 


इसी अगस्त माह की शुरुआत के दिनों में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण भारी संकट पैदा हो गया। इन क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने और बढ़ते जल स्तर को नियंत्रित करने के लिए राजस्थान के कोटा स्थित बैराज के 10 गेट खोलकर 80 हजार क्यूसेक पानी की निकासी की गई। जिसके कारण चंबल नदी के जल स्तर में अचानक वृद्धि हो गई। परिणामतः चंबल तथा इसकी सहायक नदियों-सिंध, काली सिंध एवं कूनो के निचले इलाकों में बाढ़ के हालात उत्पन्न हो गए। चंबल में आई बाढ़ ने राजस्थान के कोटा, धौलपुर तथा मध्य प्रदेश के मुरैना व भिंड आदि जिलों से होते हुए उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन को भी अपनी चपेट में ले लिया।


बुंदेलखंड में लगातार पड़ने वाले सूखे से निपटने के लिए केंद्र व राज्य सरकार हजारों करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है यह बात दूसरी है कि इस सबके बावजूद जल प्रबंधन की कोई भी योजना अभी तक सफल नहीं हुई है। बाढ़ के इस प्रकोप के बाद भी अगर जल संचय की उचित और प्रभावी योजना नहीं बनाई गई तो हालात कभी नहीं सुधरेंगे। इतनी वर्षा के बाद बुंदेलखंड में, अनेक वर्षों से किसानों के लिए प्रतिकूल होते हुए मौसम का कुछ भी फ़ायदा किसानों को नहीं मिल पाएगा। इसलिए समय की माँग है कि बुंदेलखंड व ऐसे अन्य इलाकों में स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल जल संरक्षण और संचयन की दीर्घकालीन योजना बनाई जाए। एक समस्या और है और वो शाश्वत है। योजना कितनी भी अच्छी हो अगर उसके क्रियान्वयन में भारी भ्रष्टाचार होगा, जैसा कि आज तक होता आ रहा है तो फिर रहेंगे वही ढाक के तीन पात।  

Monday, August 2, 2021

बरसो राम धड़ाके से


हिमाचल की सांगला वैली में बिटसेरी इलाक़े में, बिना बारिश, के अचानक, पर्वतों के टूटने से जो भूस्खलन हुआ उसने एक बार फिर हमारी विनाश लीला को रेखांकित किया। इस हादसे में 8 निर्दोष पर्यटक मारे गए और नदी के आर-पार जाने वाला पुल भी टूट कर बह गया। सोशल मीडिया पर इस भयावह हादसे का विडीओ देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। क्योंकि जून 2018 में ठीक उसी जगह हम भी सपरिवार थे। शिमला से बिटसेरी के 8 घंटे के ड्राइव में सारे रास्ते विकास के नाम पर विनाश का जो तांडव देखा उससे मन बहुत विचलित हुआ। हर ओर सड़क और विद्युत परियोजनाओं के लिए डाइनामाईट लगा कर जिस बेदर्दी से पहाड़ों को काटा जा रहा था उससे हरे-भरे हिमालय का ये क्षेत्र किसी परमाणु हमले के शिकार से कम नज़र नहीं आ रहा था।


आज भारत का हर पहाड़ी पर्यटन केंद्र बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहा है। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया है। कल-कल करती पहाड़ी नदियां और झरने जिनके किनारे, जो कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित हुआ करते थे, आज होटलों और इमारतों से भरे पड़े हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी नदियों के निर्मल जल में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई देता। जगह-जगह कूड़े के ढेर, पहाड़ों के ढलानों पर झरनेनुमा एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं। 


ये सही है कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं। 


नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं। केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। पहाड़ों के शहरों को देखकर यही आशंका प्रबल होती है कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना न करना पड़े। पहाड़ों पर घर बनाने की पारंपरिक तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार भूचालों में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा पहाड़ों के लोग प्रायः मकानों को एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था, जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है, वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है, पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना पड़ता है।  क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं। सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं, जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण प्रोत्साहित करते हैं। 


ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से पहाड़ी लोगों की आमदनी बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। इन पहाड़ों को देखकर मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है...’। 


ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 37 वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 37 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?


यही बात प्रधान मंत्री जी द्वारा घोषित सौ ‘स्मार्ट सिटीज़’ के संदर्भ में भी लागू होती है। ऊपरी टीम-टाम के चक्कर में बुनियादी ढाँचे को सुधारने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वाराणसी का उदाहरण सामने है। जिसे जापान के प्राचीन शहर क्योटो जैसा बनाने के लिए भारत सरकार ने पिछले सात सालों में दिल खोल कर रुपया भेजा। पर काशीवासियों से पूछिए कि क्या सैंकड़ों करोड़ रुपया खर्च होने के बाद भी उनके शहर की बुनियादी समस्याएँ हल हुई? यही प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और भारत के प्रधान मंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद्' भी नई बोतल में पुरानी शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं रहेगा। पर किसी ने नहीं सुना और परिणाम सामने है।  


जरूरत इस बात की थी कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण नगरों के विकास की अवधारणा को अनुभवी लोगों की एक राष्टव्यापी समझ के अनुसार मूर्त रूप दिया जाता। फिर उससे हटने की आजादी किसी को न होती। पर सत्ता में बैठा क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें गंदी बस्तियों और ताश के महलों में परिवर्तित करता रहेगा ?