Monday, October 19, 2020

हर किसान महर्षि फ़िल्म ज़रूर देखे

सरकार द्वारा पारित किए गए कृषि उत्पाद क़ानूनों को लेकर आज देश में भारी विवाद उठ खड़ा हुआ है। जहां मोदी सरकार का दावा है कि इन क़ानूनों से किसानों को फ़ायदा होगा। वहीं विपक्षी दल इसके नुक़सान गिनाने में जुटे हैं। देश के कई प्रांतों में इन मुद्दों पर आंदोलन भी चल रहे हैं। इसी दौरान ‘एमेज़ोन प्राइम’ टीवी चैनल पर 2019 में आई तेलगू फ़िल्म ‘महर्षि’ देखी। इससे पहले कि इस फ़िल्म के विषय में मैं आगे चर्चा करूँ, सभी पाठकों से कहना चाहूँगा कि अगर उनके टीवी में ‘एमेज़ोन प्राइम’ है तो उस पर अन्यथा उनके जिस मित्र के घर ‘एमेज़ोन प्राइम’ हो वहाँ जा कर ये फ़िल्म अवश्य देखें। ख़ासकर कृषि व्यवसाय से जुड़े परिवारों को तो यह फ़िल्म देखनी ही चाहिए। वैसे फ़िल्म थोड़ी लम्बी है, लगभग 3 घंटे की, लेकिन बिलकुल उबाऊ नहीं है। आधुनिक युवाओं को भी यह फ़िल्म आकर्षित करेगी, क्योंकि इसमें उनकी रुचि का भी बहुत कुछ है। 


मूल फ़िल्म तेलगू में है, पर हिंदी के ‘सबटाइटिल’ साथ-साथ चलते हैं, जिससे हिंदी भाषी दर्शकों को कोई दिक्कत नहीं होती। फ़िल्म का मुख्य किरदार ऋषि नाम का एक माध्यम वर्गीय युवा है जो लाखों अन्य युवाओं की तरह सूचना प्रौदयोगिकी की पढ़ाई करके अमरीका नौकरी करने जाता है और वहाँ अपनी कुशाग्र बुद्धि और मज़बूत इरादों से कुछ ही वर्षों में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सीईओ बन जाता है। इसमें असम्भव कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तमाम भारतीय अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सीईओ बन कर दुनिया में नाम और बेशुमार दौलत कमा चुके हैं। ऋषि भी उसी मंज़िल को हासिल कर लेता है और दुनिया का हर ऐशो-आराम उसके कदमों में होता है। तभी उसकी ज़िंदगी में एक नाटकीय मोड़ आता है। जब वो अचानक अपने निजी हवाई जहाज़ में बैठ कर हैदराबाद के पास एक गाँव में अपने सहपाठी से मिलने आता है, जो किसानों के हक़ के लिए मुंबई के एक बड़े औद्योगिक घराने से अकेला संघर्ष कर रहा होता है। 


यह औद्योगिक घराना उस ग्रामीण क्षेत्र में मिले प्राकृतिक तेल के उत्पादन का एक बड़ा प्लांट लगाने जा रहा है, जिसके लिए उस क्षेत्र के हरे भरे खेतों से लहलहाते पाँच दर्जन गाँवों को जड़ से उखाड़ा जाना है। मुआवज़ा भी इतना नहीं कि उजाड़े गए किसानों के परिवार दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें। ऋषि इस समस्या का हल ढूँढने में जुट जाता है जिसमें उसका सीधा संघर्ष मुंबई के उसी औद्योगिक घराने से हो जाता है। पर अपनी बुद्धि, युक्ति, समझ और धन के बल पर ऋषि यह लड़ाई जीत जाता है। हालाँकि इससे पहले उसके संघर्ष में कई उतार चढ़ाव आते हैं। जैसे जिन किसानों के लिए ऋषि और उसका मित्र, जान जोखिम में डाल कर दिन-रात लड़ रहे थे, वही किसान उद्योगपति और नेताओं की जालसाज़ी में फँसकर इनके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। पर जब ऋषि अपनी सैंकड़ों करोड़ रुपए की आय का 90 फ़ीसदी इन किसानों की मदद के लिए खुले दिल से लुटाने को तैय्यार हो जाता है, तब किसानों को ऋषि की निष्ठा और त्याग की क़ीमत समझ में आती है। तब सारे इलाक़े के किसान ऋषि के पीछे खड़े हो जाते हैं। यह ऋषि की बहुत बड़ी ताक़त बन जाती है।

 

अपनी अकूत दौलत और राजनैतिक दबदबे के बावजूद मुंबई का वह उद्योगपति हाथ मलता रह जाता है। इस सफलता के बाद ऋषि अमरीका वापिस जाने को अपने जहाज़ में बैठ जाता है। पर तभी उसे पिछले दिनों के अनुभव चलचित्र की तरह दिखाई देने लगते हैं और तब वह क्षण भर में फ़ैसला लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सीईओ पद से इस्तीफ़ा दे देता है। वह शेष जीवन किसानों के हक़ के लिए और उनकी मदद के लिए ख़ुद किसान बन कर जीने का फ़ैसला करता है। 



फ़िल्म का आख़िरी आधा घंटा बहुत गम्भीरता से देखने वाला है। इसमें देश के किसानों की दुर्दशा का व्यापक वर्णन हुआ है। ऋषि ने किसानों, नेताओं, अधिकारियों, मंत्रियों और मीडिया के सामने जिस प्रभावशाली किंतु सरल तरीक़े से किसानों की समस्या को बताया है उससे शहर में रहने वाले लोग, जिनका कृषि से कोई सम्बंध नहीं है, वे भी सोचने पर मजबूर होते हैं कि हम किसानों की ज़िंदगी के बारे में कितने अनपढ़ हैं। जबकि हम कार के बिना रह सकते हैं लेकिन भोजन के बिना नहीं। अन्नदाता की उपेक्षा करके या अपने औद्योगिक लाभ के लिए किसानों का हक़ छीनने वाले लोगों को भी यह फ़िल्म कुछ सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी। 


वैसे तो किसानों की समस्याओं पर बिमल राय की ‘दो बीघा ज़मीन’ या बॉलीवुड की ‘मदर इंडिया’ और ‘लगान’ जैसी दर्जनों फ़िल्में पिछले 73 सालों में आईं हैं। इन फ़िल्मों ने किसानों की दुर्दशा का बड़ी गहराई, संजीदगी और ईमानदारी से प्रस्तुतिकरण भी किया है। पर आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय युवा फ़िल्मी सितारे और फ़िल्म निर्माता महेश बाबू ने इस फ़िल्म को इस तरह बनाया है कि हर वो आदमी जिसका किसानी से कोई नाता नहीं, वो भी इस फ़िल्म को बड़े चाव से अंत तक देखता है और उसे समाधान भी मिलता है। फ़िल्म में ऋषि का किरदार ख़ुद महेश बाबू ने बखूबी निभाया है। उनके खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व और जुनून ने इस फ़िल्म को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं को और ग्रामीण स्कूलों के शिक्षकों को प्रयास करके यह फ़िल्म हर गाँव में दिखानी चाहिए।       

       

Monday, October 12, 2020

अफ़सरशाही बनाम नौकरशाही

वैसे तो यह कोई नया विषय नहीं है। जबसे हमें अंग्रेजों की ग़ुलामी से मुक्ति मिली है, तबसे यह चर्चा का विषय रहा है कि देश का ‘स्टील फ्रेमवर्क’ मानी जाने वाली कार्यपालिका किसके प्रति जवाबदेह है? उस जनता के प्रति जिसके कर के पैसे से इसे वेतन और सुविधाएँ मिलती हैं या राजनेताओं के प्रति जो हर चुनाव में बदलते रहते हैं? 

आम व्यवहार में देखने में यह आता है कि जिस जनता की सेवा के लिए इस तंत्र को खड़ा किया गया है और पाला पोसा जाता है, उस जनता के प्रति इन तथाकथित जनसेवकों का व्यवहार बहुत निराशाजनक और सामंतवाद की दुर्गंध लिए होता है। ऐसा नहीं है कि इसके अपवाद नहीं हैं। पर उनका प्रतिशत लगातार घटता जा रहा है। 


कार्यपालिका के इस तंत्र को नौकरशाही कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, नौकर यानी सेवक, जो अपने मालिक की विनम्रता से और ईमानदारी से सेवा करे। इस परिभाषा के अनुसार हर नौकरशाह को आम जनता यानी गरीब से गरीब आदमी की सेवा करने, उसकी फ़रियाद सुनने और उसकी समस्याओं का हल करने के लिए 24 घंटे खुले दिल से तत्पर रहना चाहिए। जबकि होता इसका उल्टा है। नौकरशाहों के सरकारी बंगलों पर प्रायः गरीब या आम आदमी को फटकार, तिरस्कार या उपेक्षा मिलती है। जबकि भ्रष्ट, अपराधी या माफिया क़िस्म के लोगों को, उनके राजनैतिक सम्पर्कों के कारण, विशिष्ट व्यक्तियों का सा सम्मान मिलता है। जबकि दुत्कारा जाने वाला व्यक्ति अपने खून पसीने की कमाई से नौकरशाही का भरण पोषण करता है और सार्वजनिक संसाधनों और बेंकों को अवैध तरीक़े से लूटने वाला तथाकथित बड़ा आदमी समाज पर जोंक की तरह होता है। फिर भी नौकरशाही अपने असली मालिकों की उपेक्षा करके इन नक़ली मालिकों के आगे झुकती है। उसके इसी रवैय्ये के कारण देश तरक़्क़ी नहीं कर पा रहा और लुटता रहता है। 


जिन राजनैतिक आकाओं के सामने इस तंत्र को अफ़सरशाही दिखानी चाहिए, वहाँ ये दुम दबा कर नौकरशाह बन जाते हैं। अफ़सरशाही मतलब हर मुद्दे को क़ानून के दायरे में समझ कर और उसके व्यवहारिक हल ढूँढ कर मंत्री के आगे प्रस्तुत करना, अफ़सरशाही का कर्तव्य होता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि बिना राग द्वेष के हर मुद्दे पर अफ़सर अपनी निष्पक्ष राय प्रस्तुत करेगा, जिससे मंत्री को सही निर्णय लेने में सुविधा होगी। इतना ही नहीं, अगर मंत्री अपने दल या स्वयं के लाभार्थ अफ़सर पर अनुचित दबाव डालकर कुछ अवैध या अनैतिक काम करवाना चाहता है तो अफ़सर का फ़र्ज़ होता है कि वो उसे ऐसा करने से रोके या उसे फ़ाइलों के पेचों में उलझाकर उसके इरादों को कामयाब न होने दे। जिससे जनता और देश का भला हो। 



पर होता इसका उल्टा है। अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने के लिए अफ़सरशाही झुकना तो छोटी बात है, उनके आगे साष्टांग लेटने में भी संकोच नहीं करती। स्पष्ट है कि ऐसा अनैतिक कृत्य करने के पहले अफ़सर को यह विश्वास होता है कि इस ‘सेवा’ का उसे अपेक्षा से ज़्यादा व्यक्तिगत लाभ मिलेगा। इसलिए वह लालच के अंधे कुएँ में डूबता चला जाता है। ऐसा कम ही होता है कि इस तरह का भ्रष्ट आचरण करने वाला अफ़सर कभी क़ानून के शिकंजे में फँसता हो। हास्य कवि काका हाथरसी की एक मशहूर कविता है, ‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर - छूट जाएगा तू भी रिश्वत दे कर’। अच्छी और कमाऊ पोस्टिंग के लालच में अफ़सरशाही अपने राजनैतिक आकाओं के आगे दुम हिलती हुई नौकरशाह बनी सेवा को तत्पर खड़ी रहती है। इसीलिए देश में आए दिन हज़ारों बड़े-बड़े घोटाले होते रहते हैं। और किसी का कुछ नहीं बिगड़ता। 


एक बार फिर मध्य प्रदेश की आईएएस अधिकारी दीपाली रस्तोगी की इस स्वीकारोक्ति को यहाँ लाना सार्थक होगा। अपने एक लेख में दीपाली लिखती हैं :  

हम अपने बारे में, अपनी बुद्धिमता के बारे में और अपने अनुभव के बारे में बहुत ऊँची राय रखते हैं और सोचते हैं कि लोग इसीलिए हमारा सम्मान करते हैं। जबकि असलियत यह है कि लोग हमारे आगे इसलिए समर्पण करते हैं क्योंकि हमें फ़ायदा पहुँचाने या नुक़सान करने की ताक़त दी गई है। पिछले दशकों में हमने एक आदत डाल ली है कि हम बड़ी तादाद में ख़ैरात बाँटने के अभ्यस्त हो गाए हैं, चाहें वह वस्तु के रूप में हो या विचारों के रूप में। असलियत यह है कि जो हम बाँटते हैं वो हमारा नहीं होता। 

हमें वेतन और सुविधाएँ इसलिए मिलती हैं कि हम अपने काम को कुशलता से करें और ‘सिस्टम’ विकसित करें। सच्चाई यह है कि हम कुप्रबंध और अराजकता फैला कर पनपते हैं क्योंकि ऐसा करने से हम कुछ को फ़ायदा पहुँचाने के लिए चुन सकते हैं और बाक़ी की उपेक्षा कर सकते हैं। हमें भारतीय गणतंत्र का ‘स्टील फ्रेम’ माना जाता है। सच्चाई यह है कि हममें दूरदृष्टि ही नहीं होती। हम अपने राजनैतिक आकाओं की इच्छा के अनुसार औचक निर्णय लेते हैं। 

हम पूरी प्रशासनिक व्यवस्था का अपनी जागीर की तरह अपने फ़ायदे में या अपने चहेते लोगों के फ़ायदे में शोषण करते हैं। हम काफ़ी ढोंगी हैं क्योंकि हम यह सब करते हुए यह दावा करते हैं कि हम लोगों की ‘मदद’ कर रहे हैं। हम जानते हैं कि अगर हम ऐसी व्यवस्था बनाएँ जिसमें हर व्यक्ति आसानी से हमारी सेवाओं का लाभ ले सके, तो हम फ़ालतू हो जाएँगे। इसलिए हम अव्यवस्था को चलने देते हैं। 

हम अपने कार्यक्षेत्र को अनावश्यक विस्तार देते जाते हैं। बिना इस बात की चिंता किए कि हमारे द्वारा बनाई गई व्यवस्था में कुशलता है कि नहीं। सबसे ख़राब बात यह है कि हम बहुत दिखावटी, दूसरों को परेशान करने वाले और बिगड़ैल लोगों का समूह हैं। बावजूद इसके हम यह कहने में संकोच नहीं करते कि हम इस देश की जनता के लिए काम करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस देश से हमें कोई लेना देना नहीं है क्योंकि हमारे बच्चे विदेशों में पड़ते हैं और हमने जो भी सुख सुविधाएँ, इस व्यवस्था में मिल सकती हैं उन्हें अपने लिए जुटा कर अपने सुखी जीवन का प्रबंध कर लिया है। हमें आम जनता के लिए कोई सहानुभूति नहीं होती हालाँकि हम सही प्रकार का शोर मचाने के लिए सतर्क रहते हैं।

अगर इस देश में न्याय किया जाता तो हम बहुत पहले ही लुप्त हो जाते। पर हम इतने ज़्यादा ताक़तवर हैं कि हम अपने अस्तित्व को कभी समाप्त नहीं होने देते। क्योंकि हम भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं।

Monday, October 5, 2020

दामिनी के बाद कितनी और मनीषा दरिंदगी का शिकार बनेंगी ?

एक बार फिर भारत शर्मसार है। हाथरस पुलिस की लापरवाही और स्वर्णों की दरिंदगी की दास्तान आज सारे देश की ज़ुबान पर है। इस भयावय त्रासदी के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार देश का वो मीडिया है जो पिछले तीन महीने से सुशांत सिंह राजपूत और बॉलीवुड के ड्रग के मायाजाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। रिया चक्रवर्ती के पास कितने ग्राम ड्रग बरामद हुई, ये ढूँढने वाले खोजी पत्रकार आज डेढ़ साल बाद भी ये नहीं खोज पाए कि पुलवामा में 300 किलोग्राम आरडीएक्स कहाँ से और कैसे पहुँचा? जिसमें देश के 40 जाँबाज़ सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए गए। क्या उनकी हत्या सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित हत्या से काम महत्वपूर्ण थी? अगर मीडिया ने निर्भया कांड की तरह हाथरस की मनीषा के सवाल को भी उसी तत्परता से उठाया होता तो शायद मनीषा की जान बच सकती थी।


जहां तक बलात्कार की समस्या का प्रश्न है तो कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं, तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कमोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं। 


पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। 


इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। आठ वर्ष पहले मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह एक प्रमुख अंग्रेजी टीवी चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है। 


बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो धीरे धीरे बलात्कार की समस्या पर कुछ क़ाबू पाया जा सकता है।


सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि हमारे देश की वो महिलाएँ जो राजनीति में सफल हैं, वो भी दामिनी या मनीषा जैसे कांडों पर अपने दल का रुख़ देख कर बयानबाज़ी करती हैं। जिस दल की सत्ता होती है उस दल की नेता, विधायक, सांसद या मंत्री ऐसे दर्दनाक कांडों पर भी चुप्पी साधे रखती हैं। केवल विपक्षी दलों की ही महिला नेता आवाज़ उठाती हैं। ज़ाहिर हैं कि इनमें अपनी ही जमात के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है। महिलाओं के प्रति ऐसी दुर्दांत घटनाओं के बावजूद उनके हक़ में एक जुट हो कर आवाज़ न उठाना और ऐसे समय में अपने राजनैतिक जोड़-घटा लगाना बेहद शर्मनाक है। इसीलिए समाज के हर वर्ग को इस समस्या से निपटने के लिए सक्रिय होना पड़ेगा वरना कोई बहु बेटी सुरक्षित नहीं रह पाएगी।   

Monday, September 28, 2020

व्यापार और उद्योग जगत में भारी हताशा क्यों है?

कोविड में चीन की संदिग्ध भूमिका के बाद उम्मीद जताई जा रही थी विदेशी निवेशक चीन से अपना कारोबार समेट कर भारत में भारी मात्रा में विनियोग करेंगे। क्योंकि यहाँ श्रम सस्ता है और एक सशक्त प्रधान मंत्री देश चला रहे हैं। पर अभी तक इसके कोई संकेत नहीं हैं। दुनिया की मशहूर अमरीकी मोटरसाइकिल निर्माता कम्पनी ‘हार्ले-डेविडसन’ जो 10-15 लाख क़ीमत की मोटरसाइकिलें बनाती है भारत से अपना कारोबार समेट कर जाने की तैयारी में हैं। पिछले दशक में भारत में तेज़ी से हुई आर्थिक प्रगति ने दुनिया के तमाम ऐसे निर्माताओं को भारत की ओर आकर्षित किया था। जिन्हें उम्मीद थी कि उनके महँगे उत्पादनों का भारत में एक बड़ा बाज़ार तैयार हो गया है। पर आज ऐसा नहीं है। व्यापार और उद्योग जगत के लोगों का कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी व लॉकडाउन ने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी है। 


लॉकडाउन हटने के बाद से देश के छोटे बड़े हर नगर में बाज़ारों को पूरी तरह खुले दो महीने हो चुके हैं फिर भी बाज़ार से ग्राहक नदारद है। रोज़मर्रा की घरेलू ज़रूरतों जैसे राशन और दवा आदि को छोड़ कर दूसरी सब दुकानों में सन्नाटा पसरा है। सुबह से शाम तक दुकानदार ग्राहक का इंतेज़ार करते हैं पर उन्हें निराशा हाथ लगती है। जबकि बिजली बिल, दुकान का किराया, व कर्मचारियों का वेतन पहले की तरह ही है। यानी खर्चे पहले जैसे और आमदनी ग़ायब। इससे व्यापारियों और छोटे कारख़ानेदारों में भारी निराशा व्याप्त है। एक सूचना के अनुसार अकेले बेंगलुरु शहर में हज़ारों छोटे दुकानदार दुकानों पर ताला डाल कर भाग गए हैं क्योंकि उनके पास किराया और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। होटल, पर्यटन, वायुसेवा, परिवहन आदि क्षेत्रों में तो भारी मंदी व्याप्त है ही। हर वर्ष पितृपक्ष के बाद शदियों और त्योहारों का भारी सीज़न शुरू हो जाता था, माँग में तेज़ी से उछाल आता था, जहां आज पूरी तरह अनिश्चिता छाई है। 


भवन निर्माण क्षेत्र का तो और भी बुरा हाल है। पहले जब भवन निर्माताओं ने लूट मचा रखी थी तब भी ग्राहक लाईन लगा कर खड़े रहते थे। वहीं आज ग्राहक मिलना तो दूर भवन निर्माताओं को अपनी डूबती कम्पनीयां बचाना भारी पड़ रहा है। सरकार का यह दावा सही है कि भवन निर्माण के क्षेत्र में काला धन और रिश्वत के पैसे का बोल बाला था। जो मौजूदा सरकार की कड़ी नीतियों के कारण ख़त्म हो गया है। मगर चिंता की बात यह है कि सरकार की योजनाओं के क्रियाँवन में कमीशन और रिश्वत कई गुना बढ़ गई है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के आँकलन के अनुसार भी भारत में भ्रष्टाचार घटा नहीं, बढ़ा है। जिस पर मोदी जी को ध्यान देना चाहिए। 


सरकार के आर्थिक पैकेज का देश की अर्थव्यवस्था पर उत्तप्रेरक जैसा असर दिखाई नहीं दिया। कारोबारियों का कहना है कि सरकार बैंकों से क़र्ज़ लेने की बात करती है पर क़र्ज़ लेकर हम क्या करेंगे जब बाज़ार में ग्राहक ही नहीं है। लॉकडाउन के बाद करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई है। उनको आज परिवार पालना भारी पड़ रहा है। ऐसे में बाज़ार में माँग कैसे बढ़ेगी? माँग ही नहीं होगी तो क़र्ज़ लेकर व्यापारी या कारख़ानेदार और भी गड्ढे में गिर जाएँगे। क्योंकि आमदनी होगी नहीं और ब्याज सिर पर चढ़ने लगेगा। 


व्यापारी और उद्योगपति वर्ग कहना ये है कि वे न केवल उत्पादन करते हैं, बल्कि सैकड़ों परिवारों का भी भरण-पोषण भी करते हैं, उन्हें रोजगार देते हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियों और कोविड ने उनकी हालत इतनी पतली कर दी है कि वे अब अपने कर्मचरियों की छटनी कर रहे हैं। इससे गांवों में बेरोजगारी और पढ़े लिखे युवाओं में हताशा फैल रही है। लोग नहीं सोच पा रहे हैं कि ये दुर्दिन कब तक चलेंगे और उनका भविष्य कैसा होगा?


मीडिया के दायरों में अक्सर ये बात चल रही है कि मोदी सरकार के खिलाफ लिखने या बोलने से देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। हमने इस कॉलम में पहले भी संकेत किया था कि आज से 2500 वर्ष पहले मगध सम्राट अशोक और उसके जासूस भेष बदल-बदलकर जनता से अपने बारे में राय जानने का प्रयास करते थे। जिस इलाके में विरोध के स्वर प्रबल होते थे, वहीं राहत पहुंचाने की कोशिश करते थे। मैं समझता हूं कि मोदी जी को मीडिया को यह साफ संदेश देना चाहिए कि अगर वे निष्पक्ष और संतुलित होकर ज़मीनी हक़ीक़त बताते हैं, तो मोदी सरकार अपने खिलाफ टिप्पणियों का भी स्वागत करेगी। इससे लोगों का गुबार बाहर निकलेगा और समाधान की तरफ़ सामूहिक प्रयास से कोई रास्ता निकलेगा। एक बात और महत्वपूर्ण है, इस सारे माहौल में नौकरशाही को छोड़ कर शेष सभी वर्ग ख़ामोश बैठा लिए गए हैं। जिससे नौकरशाही का अहंकार, निरंकुशता और भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। ये ख़तरनाक स्थिति है, जिसे नियंत्रित करना चाहिए। हर क्षेत्र में बहुत सारे योग्य व्यक्ति हैं जो चुपचाप अपने काम में जुटे रहे हैं, उन्हें ढूँढकर बाहर निकालने की जरूरत है और उन्हें विकास के कार्यों की प्रक्रिया से जोड़ने की जरूरत है। तब कुछ रास्ता निकलेगा। केवल नौकरशाही पर निर्भर रहने से नहीं।

Monday, September 21, 2020

पहले चौकीदार और अब बेरोज़गार

मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया है जिसे आम पाठकों के लाभ के लिए सरल भाषा में यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। उनका कहना है 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। वे कब वापस शहर लौटेंगे या नहीं लौटेंगे, अभी कहा नहीं जा सकता। जिस तरह पूर्व चेतावनी के बिना लॉकडाउन की घोषणा की गई उससे निचले स्तर के अनौपचारिक रोज़गार क्षेत्र में करोड़ों मज़दूरों पर गाज गिर गई। उनके मालिकों ने उन्हें बेदर्दी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बेचारे अपने परिवारों को लेकर सड़क पर आ गए। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 6 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है कि उन्होंने अब अपने नाम के पहले ‘चौकीदार’ की जगह ‘बेरोज़गार’ जोड़ लिया है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर इन नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते। कोरोना लॉकडाउन तो मार्च 2020 से हुआ है, जिसने स्थित और बिगाड़ दी।      

    

Monday, September 14, 2020

राज्यों के उड्डयन विभागों में हो रही कोताही को क्यों अनदेखा कर रहा है डीजीसीए?


जब से उत्तर प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन के घोटाले सामने आएँ हैं तब से भारत सरकार का  नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) भी सवालों के घेरे में आ गया है। कई राज्यों के नागरिक उड्डयन विभागों में हो रही ख़ामियों को जिस तरह डीजीसीए के अधिकारी अनदेखा कर रहे हैं  उससे वे न सिर्फ़ उस राज्य के अतिविशिष्ट व्यक्तियों की जान जोखिम में डाल रहे हैं। बल्कि राज्य की सम्पत्ति और वहाँ के नागरिकों की जान से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। हाल ही में उत्तराखंड सरकार का नागरिक उड्डयन विकास प्राधिकरण (उकाडा) एक नियुक्ति को लेकर विवाद में आया। वहाँ हो रही पाइलट भर्ती प्रक्रिया में यूँ तो उकाडा ने भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के सेवा निवृत उपमहानिदेशक को विशेषज्ञ के रूप में बुलाया गया था। लेकिन विशेषज्ञ की सलाह को दर किनार करते हुए चयन समिति ने एक संदिग्ध पाइलट को इस पद पर नियुक्त करना लगभग तय कर ही लिया था। 

ग़नीमत है कि समय रहते दिल्ली के कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन सचिव को इस विषय में एक पत्र लिख कर इस चयन में हुई अनियमित्ताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया। कपूर के अनुसार जिस कैप्टन चंद्रपाल सिंह का चयन इस पद के लिए किया जा रहा था उनके ख़िलाफ़ डीजीसीए में पहले से ही कई अनियमित्ताओं की जाँच चल रही है, जिसे अनदेखा कर उकाडा के चयनकर्ता उसकी भर्ती पर मुहर लगाने पर अड़े हुए थे। कपूर ने अपने पत्र में नागरिक उड्डयन सचिव को इस चयन में हो रहे भ्रष्टाचार की जाँच की माँग भी की थी।  



विगत कुछ महीनों में राज्य सरकारों के उड्डयन विभागों के और विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा से जुड़े ऐसे कई मामले कालचक्र ब्यूरो द्वारा डीजीसीए में उठाए गए हैं। इसकी सीधी वजह यह रही कि यदि मामले नियम और सुरक्षा का आदर करने वाले उन राज्यों के पाइलट या कर्मचारी उठाते हैं, तो बौखलाहट में उन पर डीजीसीए झूठे आरोप ठोक कर और अकारण दंडात्मक कार्यवाही कर के उल्टे शिकायतकर्ता के ही पीछे पड़ जाता है। 


ग़ौरतलब है कि वीवीआईपी व्यक्तियों के विमानों को उड़ाने के लिए पाइलट के पास एक निश्चित अनुभव के साथ-साथ साफ़ सुथरी छवि का होना ज़रूरी होता है। उन पर किसी भी तरह की आपराधिक मामले की जाँच से मुक्त होना भी अनिवार्य होता है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में मौसम के मिज़ाज और भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहाँ विशेष अनुभव वाले पाइलट ही उड़ान भर सकते हैं। 


संतोष की बात है कि इस भर्ती में हो रही अनियमित्ताओं की शिकायत को जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाया गया, उन्होंने इस गम्भीरता से लेते हुए उस संदिग्ध पाइलट की नियुक्ति पर रोक लगा दी। 


यहाँ सवाल उठता है कि भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के अधिकारी राज्य सरकारों के नागरिक उड्डयन विभाग में हो रही ख़ामियों की ओर ध्यान क्यों नहीं देते? क्या वो तब जागेंगे जब फिर कोई बड़ा हादसा होगा? या फिर राज्यों के उड्डयन विभाग में हो रहे घोटालों में डीजीसीए के अधिकारी भी शामिल हैं?



उत्तराखंड के बाद अब बात हरियाणा की करें यहाँ के नागरिक उड्डयन विभाग में एक वरिष्ठ पाइलट द्वारा नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मार्च 2019 में एक नहीं दो बार ऐसी अनियमित्ताएं की जिसकी सज़ा केवल निलम्बन ही है। लेकिन क्योंकि इस पाइलट के बड़े भाई डीजीसीए में एक उच्च पद पर तैनात थे इसलिए उनपर किसी भी तरह की कार्यवाही नहीं की गई। ग़ौरतलब है कि हरियाणा राज्य सरकार के पाइलट कैप्टन डी एस नेहरा ने सरकारी हेलीकॉप्टर पर अवैध ढंग से टेस्ट फ्लाइट भरी। ऐसा उन्होंने सिंगल (अकेले) पायलट के रूप में किया और उड़ान से पहले के दो नियामक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट (शराब पीए होने का पता लगाने के लिए सांस की जांच) भी खुद ही कर डाली। एक अपने लिए और दूसरी, राज्य सरकार के एक पाइलट कैप्टन दिद्दी के लिए, जो कि उस दिन उनके साथ पिंजौर में मौजूद नहीं थे। आरोप है कि कैप्टन नेहरा ने कैप्टन दिद्दी के फर्जी दस्तखत भी किए। इस घटना के दो दिन बाद ही कैप्टन नेहरा ने एक बार फिर ग्राउंड रन किया और फिर से सिंगल पायलट के रूप में राज्य सरकार के हेलीकॉप्टर की मेनटेनेंस फ्लाइट भी की। इस बार उन्होंने उड़ान से पहले होने वाले नियामक और आवश्यक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट नहीं किया, बल्कि उस टेस्ट को उड़ान के बाद किया। जोकि नागरिक उड्डयन की निर्धारित आवश्यकताओं (सीएआर) का सीधा उल्लंघन है। इस बार भी उन्होंने फर्जीवाड़ा करते हुए, कैप्टन पी के दिद्दी के नाम पर प्री फ्लाइट ब्रेथ एनालाइजर एक्जामिनेशन किया और रजिस्टर पर उनके फर्जी हस्ताक्षर भी किए, क्योंकि उस दिन भी कैप्टन दिद्दी पिंजौर में नहीं थे। वे मोहाली में डीजीसीए के परीक्षा केंद्र में एटीपीएल की परीक्षा दे रहे थे।


इस गम्भीर उल्लंघन के प्रमाण को एक शिकायत के रूप में डीजीसीए को भेजा गया, लेकिन मार्च 2019 से इस मामले को डीजीसीए आज तक दबाए बैठी है। इसके पीछे का कारण केवल भाई भतीजावाद ही है। 



सवाल यह है की चाहे वो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की सुरक्षा में सेंध लगाने वाले और 203 शेल कम्पनियाँ चलाने वाले कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा हों या हरियाणा सरकार के कैप्टन नेहरा हों, भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय में तैनात उच्च अधिकारी, इनके द्वारा की गई अनियमत्ताओं को गम्भीरता से क्यों नहीं लेते? कहीं तो छोटी-छोटी अनियिमत्ताओं पर डीजीसीए तुरंत कार्यवाही करते हुए बेक़सूर पाइलटों या अन्य कर्मचारियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देता है और कहीं कैप्टन नेहरा और कैप्टन मिश्रा जैसे ‘सम्पर्क’ वाले पाइलटों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने में महीनों गुज़ार देता है। ऐसा दोहरा मापदंड अपनाने के पीछे डीजीसीए के अधिकारी भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितना कि एयरलाइन या राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग पर नियंत्रण रखने वाले आला अफ़सर। मोदी सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्री हों या राज्यों के मुख्यमंत्री उन्हें इस ओर ध्यान देते हुए इन दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। जिससे यह संदेश जा सके कि गलती करने और दोषी पाये जाने पर किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो व्यक्ति कितना भी रसूखदार हो। क़ानून सबसे ऊपर है क़ानून से ऊपर कोई नहीं।

Monday, September 7, 2020

संसद सत्र में ‘शून्य काल’ क्यों नहीं?


श्री नरेंद्र मोदी भारत के अकेले ऐसे प्रधान मंत्री हैं जिन्होंने जब पहली बार प्रधान मंत्री के रूप में संसद में प्रवेश किया तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेक कर प्रणाम किया। यह भावुक दृश्य देख कर देश विदेश में बैठा हर भारतीय गद गद हो गया था। श्री मोदी ने दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र के संसद को मंदिर मानते हुए यह भाव प्रस्तुत किया। स्पष्ट है कि संसदीय परम्पराओं के लिए उनके माँ में पूर्ण सम्मान है। वैसे भारत में लोकतंत्र की परम्परा केवल अंग्रेजों की देन नहीं है। ईसा से छह सदी पूर्व सारे भारत में सैंकड़ों गणराज्य थे जहां समाज के प्रतिनिधि इसी तरह खुली सार्वजनिक चर्चा के द्वारा अपने गणराज्यों का संचालन करते थे। मध्य युग के राजतंत्र में भी जो राजा चरित्रवान थे और जिनके हृदय में जनता के लिए स्नेह था और जनता को अपनी संतान समझते थे, वे आम आदमी की भी बात को बड़ी गम्भीरता से सुनते और उसका निदान करते थे।
 


भारत की मौजूदा संसद की प्रक्रिया में कई देशों के लोकतांत्रिक शिष्टाचार का सम्मिश्रण है। जिसमें सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सार्थक संवाद से क़ानून बनते हैं और समस्याओं के हल भी निकलते हैं। 


हर संसदीय क्षेत्र के लाखों मत्तदाता टीवी पर ये देखने को उत्सुक रहते हैं कि उनके सांसद ने संसद में क्या बोला। संवाद की इस प्रक्रिया में शालीन नौक-झौंक और टीका-टिप्पणी का आनंद भी दोनो पक्ष लेते हैं। विपक्ष, जो सत्तापक्ष को कटघरे में खड़ा करता है और सत्तापक्ष, जो मुस्कुरा कर इन हमलों को झेलता है और अपनी बारी आने पर हर प्रश्न का जवाब देश के सामने रखता है। कोई किसी का बुरा नहीं मानता।



लोकसभा के सत्रों में ऐसी अनेक रोचक घटनाएँ हुई हैं, जैसे समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर तीखे हमले करते थे तो लगता था कि दोनों में भारी दुश्मनी है। पर भोजन अवकाश में जब नेहरू जी सदन के बाहर निकलते तो लोहिया जी के कंधे पर हाथ रख कर कहते, लोहिया तुमने गाली तो बहुत दे दी अब मेरे घर चलो दोनों लंच साथ करेंगे। जब-जब देश पर संकट आया तो जो भी विपक्ष में था उसने सरकार का खुल कर साथ दिया। सरकारों की भी कोशिश रहती है कि संसद के हर सत्र से पहले विपक्षी दलों के नेताओं के साथ विचार विमर्श करके ख़ास मुद्दों पर सहमति बना लें।


शून्य काल सदन के सत्र का वह समय होता है जब सांसदों को सरकार से सीधे प्रश्न करने की छूट होती है। यही सदन का सबसे रोचक समय होता है। क्योंकि जो बात अन्य माध्यमों से सरकार तक नहीं पहुँच पाती, वह शून्य काल में पहुँच जाती है। फिर उन कमियों को सुधारना सरकार की ज़िम्मेदारी होती है। इसलिए संसद के सत्र में शून्य काल का स्थगन नहीं होना चाहिए। जैसा इस बार किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि कोरोना के कारण इस तरह के संवाद की परिस्थिति न हो। अगर सत्र चल रहा है तो शून्य काल भी चल ही सकता है। 

 

आज के दौर में जिस तरह मीडिया ने अपनी भूमिका का पतन किया है उससे आम जनता की बात सत्ता तक पहुँचना मुश्किल हो गया है। ऐसे में जनता में घुटन और आक्रोश बढ़ता है। जिससे हानि सत्तापक्ष की ही होती है। सुशांत सिंह राजपूत एक होनहार युवक था। उसकी हत्या या आत्महत्या की जाँच ईमानदारी से होनी चाहिए और जो कोई भी दोषी हो उसे सजा मिलनी चाहिए। पर क्या 135 करोड़ भारतवासियों के लिए आज यही सबसे बड़ा सवाल है? करोड़ों की बेरोजगारी, 40 साल में सबसे नीचे गिरती हुई जीडीपी और जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि के शाश्वत प्रश्न क्या इतने गौड़ हो गए हैं कि उन पर कोई चर्चा की आवश्यकता ही नहीं है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की गुत्थी सुलझते ही क्या इन सारी समस्याओं का हल एक रात में हो जाएगा?



लोकतंत्र में बस संसद ही तो है जहां जनता के वैध प्रतिनिधि सवाल पूछते है। सवालों के जरिए ही जनता का दुख-दर्द कहा जाता है। जवाबों से पता चलता है कि जनता की समस्याओं से सरकार का सरोकार कितना है। सरकार की जवाबदेही दिखाने के लिए संसद के अलावा और कोई जगह हो भी क्या सकती है? हालांकि कहने को तो कोई कह सकता है कि किसी को कुछ जानना हो तो वह सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांग सकता है। लेकिन प्रशासकों की जवाबदेही की हालत सबके सामने उजागर है। सूचना देने में हीलाहवाली और आनाकानी इतनी ज्यादा बढ़ती जा रही है कि आम जनता को यह तरीका थकाउ लगने लगा है। यानी संसद में प्रश्नकाल ही इकलौती कारगर व्यवस्था है। एकदम पारदर्शी भी है। 


बेशक देश इस समय चौतरफा संकटों की चपेट में है। अर्थव्यवस्था हो या महामारी से निपटने के इंतजाम हों या सीमा पर बढ़ते संकट हों, इतने सारे सवाल खड़े हो गए हैं कि जनता में बेचैनी और दुविधाएं बढ़ रही है। देश के कारोबारी माहौल पर ये दुविधाएं खासा असर डालती हैं। जबकि संसद में उठे सवालों का जवाब देकर बहुतेरी दुविधाएं खुद ब खुद खत्म हो जाती हैं। 



इतना ही नहीं, संसद में प्रश्नकाल सरकार के लिए भी एक अच्छा मौका होता है। खासतौर पर जनता के भीतर विश्वास पैदा करने में जिस तरह मंत्रालयों के बड़े अफसर और प्रवक्ता नाकाम हो रहे हैं वैसे में संसद में सत्तारूढ दल ही मोर्चा संभाल पाता है। संसद की कार्यवाही को मीडिया में अच्छी खासी जगह मिलती है। सरकार अपने जवाबों के जरिए जैसा प्रचार चाहे मीडिया में प्रचार भी करवा सकती है। सरकार को सवालों से डरना नहीं चाहिए यानी उसे आपदा नहीं मानना चाहिए बल्कि प्रश्नकाल को वह अवसर में बदल सकती है।