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Monday, January 4, 2021

खेती के असली मुद्दों पर ध्यान क्यों नहीं?


एक समय था जब भारत को अपन पेट भरने के लिए अनाज की भीख माँगने विदेश जाना पड़ता था। हरित क्रांति के बाद हालात बदल गए। अब भारत में अनाज के भंडार भर गए। पर क्या इससे बहुसंख्यक, छोटी जोत वाले किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरी? क्या वजह है कि आज भी देश में इतनी बड़ी तादाद में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है? गेहूं का कटोरा माने जाने वाले पंजाब तक में ज़मीन की उर्वरकता घटी है और अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूजल स्तर 700 फुट नीचे तक चला गया है। दरअसल, यह सब हुआ उस कृषि क्रांति के कारण जिसके सूत्रधार थे अमेरिका के कृषि विशेषज्ञ नॉर्मन बोरलोह, जिन्होंने रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का उपयोग कर एवं ट्रैक्टर से खेत जोत कर कृषि उत्पादन को दुगना चौगुना कर दिखाया। इधर
भारत में कृषि वैज्ञानिक डॉ स्वामीनाथन ने तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को राजी कर लिया और बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं का आयात शुरू हो गया। इसके साथ ही कुछ देसी कंपनियों ने ट्रेक्टर ओर अन्य कृषि उपकरण बनाने शुरू कर दिए। शास्त्री जी के बाद जो सरकारें आईं उन्होंने इसे आमदनी का अच्छा स्रोत मान कर इन कंपनियों के साथ सांठगांठ कर भारत के किसानों को रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं की ओर ले जाने का काम किया। नतीजतन सदियों से गाय, गोबर और गो मूत्र का उपयोग कर नंदी से हल चलाने वाले किसान ने महंगी खाद और उपकरणों के लिए ऋण लेना शुरू किया।


इससे एक तरफ़ तो कृषि महंगी हो गई क्योंकि उसमें भारी पूँजी की ज़रूरत पड़ने लगी। दूसरा किसान बैंकों के क़र्ज़े के जाल फँसते गए। तीसरा, सदियों से कृषि की रीढ़ बने बैल अब कृषि पर भार बन गए। जिससे उन्हें बूचड़खानों की तरफ़ खदेड़ा जाने लगा। इस सब प्रक्रिया में ग्रामीण बेरोज़गारी भी तेज़ी से बढ़ी। क्योंकि इससे गाँव की आत्मनिर्भरता का ढाँचा ध्वस्त हो गया। अब हर गाँव शहर के बाज़ार पर निर्भर होता गया। जिससे गाँव की आर्थिक स्थिति कमजोर होती चली गई। क्योंकि उपज के बदले जो आमदनी गाँव में आती थी उससे कहीं ज़्यादा खर्चा महंगे उपकरणों, रासायनिक खाद, कीटनाशक, डीज़ल आदि पर होने लगा। इस सबके दुष्परिणाम स्वरूप सीमांत किसान अपने घर और ज़मीन से हाथ धो बैठा। मजबूरन उसे शहरों की ओर पलायन करना पड़ा। इस तरह भारतीय कृषि व्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का षड्यंत्र सफल हो गया।  


चिंता की बात यह है कि आज की भारत सरकार को भी भारत की कृषि की कमर तोड़ने के इस अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र के बारे में सब कुछ पता है। मगर इन कंपनियों ने शायद सबके मुँह पर दशकों से चांदी का जूता मार रखा है। इसीलिए ये लोग दिखाने को यूरिया में नीम मिला कर देने की बात करते है। पर उर्वरक मंत्रालय केमिकल मंत्रालय के साथ जुड़ा हुआ है। जबकि उर्वरक कृषि मंत्रालय का विषय है।


एक ओर कृषि मंत्रालय, ‘नेशनल सेन्टर फ़ॉर आर्गेनिक फार्मिंग’ के केंद्र हर जगह स्थापित कर रहा है। दूसरी तरफ़ यही केंद्र जोर शोर से ‘वेस्ट डिकॉम्पोज़र’ का प्रचार भी कर रहा हैं। वहीं सारे एग्रीकल्चर कॉलेजों के पाट्यक्रम में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के प्रयोग का विधि सिखाई जाती है न कि प्राकृतिक कृषि की। आप किसी भी एग्रीकल्चर कॉलेज का यूट्यूब वीडियो देख लें, वे आपको रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के ही प्रयोग की विधि बताएंगे।


क्योंकि रासायनिक खाद, कीटनाशक और तथाकथित उन्नत किस्म के बीज का एक अंतरराष्ट्रीय माफिया काम कर रहा है। जो कृषि प्रधान भारत को दूसरे देशों पर निर्भर होने के लिए मजबूर कर रहा है। इस माफिया के साथ प्रशासन के लोगों की भी साँठ-गाँठ है। अगर इस माफिया पर भारत सरकार का नियंत्रण होता तो देश मे दस लाख किसान आत्महत्या नहीं करते। आँकड़ों की मानें तो अकेले महाराष्ट्र में साढ़े तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अब इस माफियाओं के गुट में एक और माफिया शामिल हो गया है जो शराब बनाने वाले कम्पनियों और राजनीतिज्ञों की साँठ गाँठ से सक्रिय है। एक ओर गरीब लोग मुट्ठी भर अनाज के लिए तरसते हैं, तो वहीं गेंहू 20 किलो के दर से खरीद कर ‘भारतीय खाद्य निगम’ के गोदामों या खुले मैदानों में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर उसी गेंहू को 2.00 किलो के भाव से शराब बनाने वाली इन कम्पनियों को बेच दिया जाता हैं। 


इस पूरी दानवी व्यवस्था का विकल्प महात्मा गांधी अपनी पुस्तक ‘ग्राम स्वराज’ में बता चुके हैं। कैसे गाँव की लक्ष्मी गाँव में ही ठहरे और गान के लोग स्वास्थ्य, सुखी और निरोग बनें। इसके लिए ज़रूरत है भारतीय गोवंश आधारित कृषि की व्यापक स्थापना की। हर गाँव या कुछ गाँव के समूह के बीच भारतीय गोवंश के संरक्षण व प्रजनन की व्यवस्था होनी चाहिए। गाँव के राजस्व रिकोर्ड में दर्ज चारागाहों की भूमि को पट्टों और अवैध क़ब्ज़ों से मुक्त करवा कर वहाँ गोवंश के लिए चारे का उत्पादन करना चाहिए। इस उपाय से गाँव के भूमिहीन लोगों को रोज़गार भी मिलेगा।  


देश मे सात लाख गाँव है और अगर दस-दस समर्थक भी एक एक गाँव के लिए काम करें तो केवल 70 लाख समर्थकों की मदद से हर गाँव में गौ विज्ञान केंद्र की स्थापना हो सकती है। क्या हम सब पहल कर एक एक गांव को इसके लिए प्रेरित नहीं कर सकते? सड़कों व जंगलों में छोड़ दिए गए गौवंश को बूचड़खाने की तरफ़ न भेज कर क्या उनके गोबर और गौमूत्र से जैविक खेती करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते? 


आशा है सभी किसान हितैषी संघटन इस सुझाव पर ध्यान देंगे। जैसा मैंने इस कॉलम में पहले भी लिखा है कि गौवंश की रक्षा गौशालाएँ बनाकर नहीं हो सकती। क्योंकि ये तो ज़मीन हड़पने और भ्रष्टाचार के केंद्र बन जाते हैं। गौवंश की रक्षा तभी होगी जब हर किसान के घर कम से कम एक या दो गाय ज़रूर पाली जाएं। इससे न सिर्फ़ भारतीय कृषि उत्पादनों की गुणवत्ता बढ़ेगी बल्कि उस कृषक का परिवार भी स्वस्थ और सम्पन्न बनेगा।

Monday, December 21, 2020

किसानों की समस्या: समाधान जरूरी है



इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में किसानों की हालत लगातार खराब हुई है। गत 73 वर्षों में उनकी स्थिति सुधारने के लिए अगर कोई प्रयास किए गए हैं तो उसका फायदा नहीं हुआ है। किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के लिए 2004 में तब की सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया था। ‘नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स’ को स्वामीनाथन आयोग के नाम से भी जाना जाता है। इस आयोग ने पांच रिपोर्ट दी हैं। अंतिम व पांचवीं रिपोर्ट चार अक्तूबर, 2006 को दी गयी थी। इस रिपोर्ट की सिफारिशें आज तक लागू नहीं की जा सकी हैं। प्रधान मंत्री श्री मोदी का कहना है कि नए कृषि क़ानून किसानों के हक़ में हैं।  



इसलिए किसानों की माँग न होते हुए भी, सरकार ने अचानक बिना घोषित तैयारी के जल्दबाजी में तीन कृषि कानून पास कर दिए। संसद में इन पर चर्चा नहीं होना और इन्हें पास किए जाने का तरीका विवादास्पद रहा। पर सरकार इन क़ानूनों के आलोचकों को भ्रमित बता रही है। जबकि दूसरी ओर विपक्षी दल इसे नोटबंदी की तरह ही जल्दीबाज़ी में बनाया गया क़ानून कह कर सरकार से इस पर संसद में बहस की माँग कर रहे हैं। उनका आरोप है कि इस बहस से बचने के लिए ही सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र कोविड के बहाने रद्द किया है। जबकि बिहार, हैदराबाद चुनावों व सिंधु सीमा पर जमी किसानों की भारी भीड़ कोविड के भय को आईना दिखा रही है। किसानों, सरकार व विपक्ष के बीच ऐसे अविश्वास के माहौल में अगर बातचीत नहीं होगी तो समस्या का हल निकलने की संभावना नहीं दिखती है। उधर कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं द्वारा किसानों को खालिस्तानी और न जाने क्या क्या कहा जा रहा है। जबकि आंदोलनकारी सरकार पर पूंजीपतियों के हित में काम करने का आरोप लगा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी किसानों के आंदोलन के हक़ को संवैधानिक बताते हुए सरकार को वार्ता जारी रखने का निर्देश दिया है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर व रेल मंत्री पीयूष गोयल, यहाँ तक की गृह मंत्री अमित शाह तक किसानों से वार्ता कर चुके हैं पर अभी तक हल नहीं निकला है। अब तो किसान बात करने को भी तैयार नहीं हैं। तो बीच का रास्ता निकालना मुश्किल है। पर कोशिशें जारी हैं। 


यह दिलचस्प है कि उत्पादन कम होना खेती की समस्या की नहीं है। अगर ऐसा होता तो उसे उत्पादन बढ़ाकर ठीक किया जा सकता था। हरित क्रांति के बाद देश में अनाज का पर्याप्त उत्पादन हो रहा है और इस मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। पर खेती करने वाले किसान आत्मनिर्भर नहीं हैं। जरूरत उन्हें आत्म निर्भर बनाने की है और इसके लिए उन्हें उत्पाद का वाजिब मूल्य मिलना जरूरी है। अभी तक यह न्यूनतम समर्थन मूल्य से सुनिश्चित किया जाता था। पर नए कानून में इसका प्रावधान नहीं है। हालांकि सरकार कह रही है कि वह व्यवस्था बनी रहेगी। विरोध और विवाद का मुद्दा यही है और यह सरकार की साख तथा भरोसे से भी जुड़ा है। 

 

वैसे, यह समझने वाली बात है कि किसान को जरूरत न्यूनतम समर्थन मूल्य की है न कि कहीं भी बेचने की आजादी। किसान खराब होने वाली अपनी फसल लेकर बाजार में घूमे भी तो खरीदने वाला उसे उचित कीमत नहीं देगा क्योंकि वह जानता है कि पैदावार कुछ दिन में खराब हो जाएगा और किसान की मजबूरी है कि वह उसे जो कीमत मिल रही है उसपर बेचे। कोई भी खरीदार इसका लाभ उठाएगा और यही किसान की समस्या है। न्यूनतम समर्थन मूल्य आसान उपाय है। दूसरा उपाय यह हो सकता था कि किसानों की पैदावार को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की व्यवस्था हो और वह सही समय पर अपनी उपज सही मूल्य पर (सही बाजार में) बेच पाए। पर खुले ट्रक या ट्रैक्टर पर किसानों की ज्यादातर फसल कुछ दिन में बेकार हो जाती है। 


इसलिए किसानों को कॉरपोरेट की तरह एमआरपी यानी अधिकत्तम खुदरा मूल्य की सुविधा नहीं मिलती है बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा थी जो अब खत्म होती लग रही है। ऐसे में उनका परेशान होना वाजिब है। समस्या इतनी ही नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य जब जरूरी है और उसे खत्म किया जा रहा है तो यह कौन बताए और कौन सुनेगा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य भी लागत और आवश्यक मुनाफे के लिहाज से कम होता है और इसे बढ़ाने की जरूरत है पर अभी तो उसकी बात ही नहीं हो रही है। पूरी व्यवस्था ही उलट-पुलट हो गई लगती है।  

   

यह दिलचस्प है कि एक तरफ सरकार किसानों को नकद आर्थिक सहायता दे रही है और दूसरी ओर उसे सरकार की नीति का विरोध करने वाले किसान संपन्न नजर आ रहे हैं। इसे खूब प्रचारित किया जा रहा है। आम जनता को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि सरकार का विरोध करने वाले गरीब, परेशान या प्रभावित नहीं हैं और जो गरीब, परेशान या प्रभावित हैं वे नकद सहायता से खुश हैं। अव्वल तो यह वास्तविकता नहीं हो सकती है पर हो भी तो स्थायी समाधान नहीं है। यह अनवरत नहीं चलता रह सकता है कि किसान सबसिडी से काम चलाएं। कुछ उपाय तो किया ही जाना चाहिए। और अगर इतने बड़े आंदोलन से भी इस जरूरत को नहीं महसूस किया गया है तो यह चिंता की बात है। जैसा केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि कृषि बिल के हर बिंदु पर सरकार और किसानों के बीच खुले मान से विमर्श होना चाहिए जिससे, अगर कोई भ्रम है तो वो दूर हो जाए और अगर क़ानून ग़लत बन गया है तो उसका संशोधन हो जाए। इसलिए दोनो पक्षों के बीच वार्ता होना बहुत ज़रूरी है।


Monday, October 19, 2020

हर किसान महर्षि फ़िल्म ज़रूर देखे

सरकार द्वारा पारित किए गए कृषि उत्पाद क़ानूनों को लेकर आज देश में भारी विवाद उठ खड़ा हुआ है। जहां मोदी सरकार का दावा है कि इन क़ानूनों से किसानों को फ़ायदा होगा। वहीं विपक्षी दल इसके नुक़सान गिनाने में जुटे हैं। देश के कई प्रांतों में इन मुद्दों पर आंदोलन भी चल रहे हैं। इसी दौरान ‘एमेज़ोन प्राइम’ टीवी चैनल पर 2019 में आई तेलगू फ़िल्म ‘महर्षि’ देखी। इससे पहले कि इस फ़िल्म के विषय में मैं आगे चर्चा करूँ, सभी पाठकों से कहना चाहूँगा कि अगर उनके टीवी में ‘एमेज़ोन प्राइम’ है तो उस पर अन्यथा उनके जिस मित्र के घर ‘एमेज़ोन प्राइम’ हो वहाँ जा कर ये फ़िल्म अवश्य देखें। ख़ासकर कृषि व्यवसाय से जुड़े परिवारों को तो यह फ़िल्म देखनी ही चाहिए। वैसे फ़िल्म थोड़ी लम्बी है, लगभग 3 घंटे की, लेकिन बिलकुल उबाऊ नहीं है। आधुनिक युवाओं को भी यह फ़िल्म आकर्षित करेगी, क्योंकि इसमें उनकी रुचि का भी बहुत कुछ है। 


मूल फ़िल्म तेलगू में है, पर हिंदी के ‘सबटाइटिल’ साथ-साथ चलते हैं, जिससे हिंदी भाषी दर्शकों को कोई दिक्कत नहीं होती। फ़िल्म का मुख्य किरदार ऋषि नाम का एक माध्यम वर्गीय युवा है जो लाखों अन्य युवाओं की तरह सूचना प्रौदयोगिकी की पढ़ाई करके अमरीका नौकरी करने जाता है और वहाँ अपनी कुशाग्र बुद्धि और मज़बूत इरादों से कुछ ही वर्षों में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सीईओ बन जाता है। इसमें असम्भव कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तमाम भारतीय अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सीईओ बन कर दुनिया में नाम और बेशुमार दौलत कमा चुके हैं। ऋषि भी उसी मंज़िल को हासिल कर लेता है और दुनिया का हर ऐशो-आराम उसके कदमों में होता है। तभी उसकी ज़िंदगी में एक नाटकीय मोड़ आता है। जब वो अचानक अपने निजी हवाई जहाज़ में बैठ कर हैदराबाद के पास एक गाँव में अपने सहपाठी से मिलने आता है, जो किसानों के हक़ के लिए मुंबई के एक बड़े औद्योगिक घराने से अकेला संघर्ष कर रहा होता है। 


यह औद्योगिक घराना उस ग्रामीण क्षेत्र में मिले प्राकृतिक तेल के उत्पादन का एक बड़ा प्लांट लगाने जा रहा है, जिसके लिए उस क्षेत्र के हरे भरे खेतों से लहलहाते पाँच दर्जन गाँवों को जड़ से उखाड़ा जाना है। मुआवज़ा भी इतना नहीं कि उजाड़े गए किसानों के परिवार दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें। ऋषि इस समस्या का हल ढूँढने में जुट जाता है जिसमें उसका सीधा संघर्ष मुंबई के उसी औद्योगिक घराने से हो जाता है। पर अपनी बुद्धि, युक्ति, समझ और धन के बल पर ऋषि यह लड़ाई जीत जाता है। हालाँकि इससे पहले उसके संघर्ष में कई उतार चढ़ाव आते हैं। जैसे जिन किसानों के लिए ऋषि और उसका मित्र, जान जोखिम में डाल कर दिन-रात लड़ रहे थे, वही किसान उद्योगपति और नेताओं की जालसाज़ी में फँसकर इनके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। पर जब ऋषि अपनी सैंकड़ों करोड़ रुपए की आय का 90 फ़ीसदी इन किसानों की मदद के लिए खुले दिल से लुटाने को तैय्यार हो जाता है, तब किसानों को ऋषि की निष्ठा और त्याग की क़ीमत समझ में आती है। तब सारे इलाक़े के किसान ऋषि के पीछे खड़े हो जाते हैं। यह ऋषि की बहुत बड़ी ताक़त बन जाती है।

 

अपनी अकूत दौलत और राजनैतिक दबदबे के बावजूद मुंबई का वह उद्योगपति हाथ मलता रह जाता है। इस सफलता के बाद ऋषि अमरीका वापिस जाने को अपने जहाज़ में बैठ जाता है। पर तभी उसे पिछले दिनों के अनुभव चलचित्र की तरह दिखाई देने लगते हैं और तब वह क्षण भर में फ़ैसला लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सीईओ पद से इस्तीफ़ा दे देता है। वह शेष जीवन किसानों के हक़ के लिए और उनकी मदद के लिए ख़ुद किसान बन कर जीने का फ़ैसला करता है। 



फ़िल्म का आख़िरी आधा घंटा बहुत गम्भीरता से देखने वाला है। इसमें देश के किसानों की दुर्दशा का व्यापक वर्णन हुआ है। ऋषि ने किसानों, नेताओं, अधिकारियों, मंत्रियों और मीडिया के सामने जिस प्रभावशाली किंतु सरल तरीक़े से किसानों की समस्या को बताया है उससे शहर में रहने वाले लोग, जिनका कृषि से कोई सम्बंध नहीं है, वे भी सोचने पर मजबूर होते हैं कि हम किसानों की ज़िंदगी के बारे में कितने अनपढ़ हैं। जबकि हम कार के बिना रह सकते हैं लेकिन भोजन के बिना नहीं। अन्नदाता की उपेक्षा करके या अपने औद्योगिक लाभ के लिए किसानों का हक़ छीनने वाले लोगों को भी यह फ़िल्म कुछ सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी। 


वैसे तो किसानों की समस्याओं पर बिमल राय की ‘दो बीघा ज़मीन’ या बॉलीवुड की ‘मदर इंडिया’ और ‘लगान’ जैसी दर्जनों फ़िल्में पिछले 73 सालों में आईं हैं। इन फ़िल्मों ने किसानों की दुर्दशा का बड़ी गहराई, संजीदगी और ईमानदारी से प्रस्तुतिकरण भी किया है। पर आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय युवा फ़िल्मी सितारे और फ़िल्म निर्माता महेश बाबू ने इस फ़िल्म को इस तरह बनाया है कि हर वो आदमी जिसका किसानी से कोई नाता नहीं, वो भी इस फ़िल्म को बड़े चाव से अंत तक देखता है और उसे समाधान भी मिलता है। फ़िल्म में ऋषि का किरदार ख़ुद महेश बाबू ने बखूबी निभाया है। उनके खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व और जुनून ने इस फ़िल्म को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं को और ग्रामीण स्कूलों के शिक्षकों को प्रयास करके यह फ़िल्म हर गाँव में दिखानी चाहिए।       

       

Monday, September 21, 2020

पहले चौकीदार और अब बेरोज़गार

मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया है जिसे आम पाठकों के लाभ के लिए सरल भाषा में यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। उनका कहना है 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। वे कब वापस शहर लौटेंगे या नहीं लौटेंगे, अभी कहा नहीं जा सकता। जिस तरह पूर्व चेतावनी के बिना लॉकडाउन की घोषणा की गई उससे निचले स्तर के अनौपचारिक रोज़गार क्षेत्र में करोड़ों मज़दूरों पर गाज गिर गई। उनके मालिकों ने उन्हें बेदर्दी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बेचारे अपने परिवारों को लेकर सड़क पर आ गए। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 6 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है कि उन्होंने अब अपने नाम के पहले ‘चौकीदार’ की जगह ‘बेरोज़गार’ जोड़ लिया है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर इन नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते। कोरोना लॉकडाउन तो मार्च 2020 से हुआ है, जिसने स्थित और बिगाड़ दी।      

    

Monday, October 30, 2017

किसानों के साथ धोखाधड़ी


हमारे देश में अगर कोई सबसे अधिक मेहनत करता है, तो वो इस देश के किसान हैं, जो दिन-रात, जाड़ा, गर्मी और बरसात झेलकर फसल उगाते हैं और 125 करोड़ देशवासियों का पेट भरते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा उपेक्षा भी उनकी ही होती है। चुनावों के माहौल में हर राजनैतिक दल किसानों के दुख-दर्द का रोना रोता है और ये जताने की कोशिश करता है कि मौजूदा सरकार के शासन में किसानों का बुरा हाल है और वो आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। जबकि हकीकत यह है कि वही राजनैतिक दल जब सत्ता में होते हैं, तो ऐसी नीतियां बनाते हैं, जिनसे किसान की तरक्की हो ही नहीं सकती। चाहे वह बिजली की आपूर्ति हो या सिंचाई के जल की, चाहे वह समर्थन मूल्य की बात हो या खाद के दाम की। हर नीति की नींव में एक बड़ा घोटाला छिपा होता है। जिसका खामियाजा, इस देश के करोड़ों किसानों को झेलना पड़ता है। जबकि इन नीतियों को बनाने वाले नेता और अफसर, मोटी चांदी काटते हैं।


दरअसल किसानों के प्रति उपेक्षा का ये भाव सत्ताधीशों का ही नहीं होता, हम सब शहरी लोग भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अब मीडिया को ही ले लीजिए, अखबार हो या टी.वी., कुल खबरों की कितनी फीसदी खबर, किसानों की जिंदगी पर केंद्रित होती हैं? सारी खबरें औद्योगिक जगत, बहुर्राष्ट्रीय कंपनियां, सिनेमा या खेल पर केंद्रित होती है। किसानों पर खबर नहीं होती, किसान खुद खबर बनते हैं, जब वे भूख से तड़प कर मरते हैं या कर्ज में डूबकर आत्महत्या करते है।


ये कैसा समाजवाद है? कहने को श्रीमती गांधी ने भारतीय संविधान में संशोधन करके समाजवाद शब्द को घुसवाया। पर क्या यूपीए सरकार की नीतियां ऐसी थीं कि किसानों की दिन-दूगनी और रात-चैगुनी तरक्की होती? अगर ऐसी हुआ होता, तो किसानों की हालत इतनी खराब कैसे हो गयी कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये? ये रातों-रात तो हुआ नहीं, बल्कि वर्षों की गलत नीतियों का परिणाम है। हमारी सरकारों ने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की बजाए, याचक बना दिया। ताकि वो हमेशा सत्ताधीशों के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहे। छोटे-छोटे कर्जों में डूबा किसान तो अपनी इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या करता आ रहा है, पर क्या किसी उद्योगपति ने बैंकों का कर्जा न लौटाने पर आत्महत्या की? लाखों-करोडों का कर्जा उद्योग जगत पर है। पर उन्हें आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि वे मंहगे वकील खड़े करके, बैंकों को मुकदमों में उलझा देते हैं। जिसमें दशकों का समय यूं ही निकल जाता है।


प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लग रहा है कि उनकी परोक्ष मदद के कारण अंबानी और अडानी की प्रगति दिन-दूनी और रात-चैगुनी हो रही है। पर क्या ये बात किसी से छिपी है कि पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में भी अंबानी समूह की बेइंतहां वृद्धि हुई? सारा औद्योगिक जगत ये तमाशा देखता रहा कि कैसे सरकार से निकटता का लाभ लेकर, धीरूभाई अंबानी ने ये विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था।  इसमें नया क्या है?


मैं पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हूं। मैं मानता हूं कि व्यक्तिगत पुरूषार्थ के बिना, आर्थिक प्रगति नहीं होती। सरकारों की सहायता पर पलने वाला समाज कभी आत्मविश्वास से नहीं भर सकता। वह हमेशा परजीवि बना रहेगा। साम्यवादी देश इसका स्पष्ट उदाहरण है। जबकि पूंजीपति बुद्धि लगाता है, मेहनत करता है, खतरे मोल लेता है और दिन-रात जुटता है, तब जाकर उसका औद्योगिक साम्राज्य खड़ा होता है। इसलिए पूंजीपतियों की प्रगति का विरोध नहीं है। विरोध है, उनके द्वारा गलत तरीके अपनाकर धन कमाना और टैक्स की चोरी करना। इससे समाज का अहित होता है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ऐसी व्यवस्था लाना चाह रहे हैं, जिससे टैक्स की चोरी भी न हो और लोग अपना आर्थिक विकास भी कर सकें। इस तरह सरकार के पास, सामाजिक कार्यों के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हो जायेंगे।

 
हर परिवर्तन कुछ आशंका लिए होता है। ढर्रे पर चलने वाले लोग, हर बदलाव का विरोध करते हैं। परंतु बदलाव अगर उनकी भलाई के लिए हो, तो क्रमशः उसे स्वीकार कर लेते हैं। आज देश के समझदार लोगों को किसानों और देश की आर्थिक स्थिति पर मंथन करना चाहिए और ये तय करना चाहिए कि भारत का आर्थिक विकास किस माडल पर होगा? क्या देश का केवल औद्योगिकरण होगा या किसानों मजदूरों के आर्थिक उत्थान को साथ लेकर चलते हुए औद्योगिक विकास होगा? क्योंकि समाज के बहुसंख्यक लोगों को अभावों में रखकर मुट्ठीभर लोग वैभव पर एकाधिकार नहीं कर सकते। उन्हें गांधी जी के ‘ट्रस्टीशिप’ वाले सिद्धांत को मानना होगा। जिसका मूल है कि धन इसलिए कमाना है कि हम समाज का भला कर सकें। ऐसी सोच विकसित होगी, तो किसान भी खुश होगा और शेष समाज भी।



भारत के आर्थिक विकास के माडल पर बहुत कुछ सोचा-लिखा जा चुका है। उसी पर अगर एकबार फिर मंथन कर लिया जाए, तो तस्वीर साफ हो जायेगी। जरूरत है कि हम विकास के पश्चिमी माडल से हटकर देशी माडल को विकसित करें, जिसमें सबका साथ हो-सबका विकास हो।

Monday, April 10, 2017

केवल कर्ज माफी से नहीं होगा किसानो का उद्धार

Punjab Kesari 10 April 2017
यूपीए-2 से शुरू हुआ किसानों की कर्ज माफी का सिलसिला आज तक जारी है। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी ने चुनावी वायदों को पूरा करते हुए लघु व सीमांत किसानों की कर्ज माफी का एलान कर दिया है। निश्चित रूप से इस कदम से इन किसानों को फौरी राहत मिलेगी। पर  इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उनके दिन बदल जायेंगे। केंद्रीय सरकार ने किसानों की दशा सुधारने के लिए ‘बीज से बाजार तक’ छः सूत्रिय कार्यक्रम की घोषणा की है। जिसका पहला बिंदू है किसानों को दस लाख करोड़ रूपये तक ऋण मुहैया कराना। किसानों को सीधे आनलाईन माध्यम से क्रेता से जोड़ना, जिससे बिचैलियों को खत्म किया जा सके। कम कीमत पर किसानों की फसल का बीमा किया जाना। उन्हें उन्नत कोटि के बीज प्रदान करने। 5.6 करोड़ ‘साईल हैल्थ कार्ड’ जारी कर भूमि की गुणवत्तानुसार फसल का निर्णय करना। किसानों को रासायनिक उर्वरकों के लिए लाईन में न खड़ा होना पड़े, इसकी व्यवस्था सुनिश्चित करना। इसके अलावा उनके लिए सिंचाई की माकूल व्यवस्था करना। विचारणीय विषय यह है कि क्या इन कदमों से भारत के किसानों की विशेषकर सीमांत किसानों की दशा सुधर पाएगी?

सोचने वाली बात यह है कि कृषि को लेकर भारतीय सोच और पश्चिमी सोच में बुनियादी अंतर है। जहां एक ओर भारत की पांरपरिक कृषि किसान को विशेषकर सीमांत किसान को उसके जीवन की संपूर्ण आवश्यक्ताओं को पूरा करते हुए, आत्मनिर्भर बनाने पर जोर देती है, वहीं पश्चिमी मानसिकता में कृषि को भी उद्योग मानकर बाजारवाद से जोड़ा जाता है। जिसके भारत के संदर्भ में लाभ कम और नुकसान ज्यादा हैं। पश्चिमी सोच के अनुसार दूध उत्पादन एक उद्योग है। दुधारू पशुओं को एक कारखानों की तरह इकट्ठा रखकर उन्हें दूध बढ़ाने की दवाऐं पिलाकर और उस दूध को बाजार में बड़े उद्योगों के लिए बेचकर पैसा कमाना ही लक्ष्य होता है। जबकि भारत का सीमांत कृषक, जो गाय पालता है, उसे अपने परिवार का सदस्य मानकर उसकी सेवा करता है। उसके दूध से परिवार का पोषण करता है। उसके गोबर से अपने खेत के लिए खाद् और रसोई के लिए ईंधन तैयार करता है। बाजार की व्यवस्था में यह कैसे संभव है? इसी तरह उसकी खेती भी समग्रता लिए होती है। जिसमें जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर का समावेश और पारस्परिक निर्भरता निहित है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानवतावाद इसी भावना को पोषित करता है। बाजारीकरण पूर्णतः इसके विपरीत है।

देश  की जमीनी सोच से जुड़े और वैदिक संस्कृति में आस्था रखने वाले विचारकों की चिंता का विषय यह है कि विकास की दौड़ में कहीं हम व्यक्ति केन्द्रित विकास की जगह बाजार केंद्रित विकास तो नहीं कर रहे। पंजाब जैसे राज्य में भूमि उर्वरकता लगातार कम होते जाना, भू-जल स्तर खतरनाक गति से नीचा होते जाना, देश में जगह-जगह लगातार सूखा पड़ना और किसानों को आत्महत्या करना एक चिंताजनक स्थिति को रेखांकित करता है। ऐसे में कृषि को लेकर जो पांरपरिक ज्ञान और बुनियादी सोच रही है, उसे परखने और प्रयोग करने की आवश्यकता है। गुजरात का ‘पुनरोत्थान ट्रस्ट’ कई दशकों से देशज ज्ञान पर गहरा शोध कर रहा है। इस शोध पर आधारित अनेक ग्रंथ भी प्रकाशित किये गये हैं। जिनको पढ़ने से पता चलता है कि न सिर्फ कृषि बल्कि अपने भोजन, स्वास्थ, शिक्षा व पर्यावरण को लेकर हम कितने अवैज्ञानिक और अदूरदर्शी हो गये हैं। हम देख रहे हैं कि आधुनिक जीवन पद्धति लगातार हमें बीमार और कमजोर बनाती जा रही है। फिर भी हम अपने देशज ज्ञान को अपनाने को तैयार नहीं हैं। वो ज्ञान, जो हमें सदियों से स्वस्थ, सुखी और संपन्न बनाता रहा और भारत सोने की चिड़िया कहलाता रहा। जबसे अंग्रेजी हुकुमत ने आकर हमारे इस ज्ञान को नष्ट किया और हमारे अंदर अपने ही अतीत के प्रति हेय दृष्टि पैदा कर दी, तब से ही हम दरिद्र होते चले गये। कृषि को लेकर जो भी कदम आज उठाये जा रहें हैं, उनकी चकाचैंध में देशी समझ पूरी तरह विलुप्त हो गयी है। यह चिंता का विषय है। कहीं ऐसा न हो कि ‘चैबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनकर लौटे’।

यह सोचना इसलिए भी महत्वपूर्णं है क्योंकि बाजारवाद व भोगवाद पर आधारित पश्चिमी अर्थव्यवस्था का ढ़ाचा भी अब चरमरा गया है। दुनिया का सबसे विकसित देश माना जाने वाला देश अमरिका दुनिया का सबसे कर्जदार है और अब वो अपने पांव समेट रहा है क्योंकि भोगवाद की इस व्यवस्था ने उसकी आर्थिक नींव को हिला दिया है। समूचे यूरोप का आर्थिक संकट भी इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि बाजारवाद और भोगवाद की अर्थव्यवस्था समाज को खोखला कर देती है। हमारी चिंता का विषय यह है कि हम इन सारे उदाहरणों के सामने होेते हुए भी पश्चिम की उन अर्थव्यवस्थाओं की विफलता की ओर न देखकर उनके आडंबर से प्रभावित हो रहे हैं।

आज के दौर में जब भारत को एक ऐसा सशक्त नेतृत्व मिला है, जो न सिर्फ भारत की वैदिक संस्कृति को गर्व के साथ विश्व में स्थापित करने सामथ्र्य रखता है और अपने भावनाओं को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने में संकोच नहीं करता, फिर क्यों हम भारत के देशज ज्ञान की ओर ध्यान नहीं दे रहे? अगर अब नहीं दिया तो भविष्य में न जाने ऐसा समय फिर कब आये? इसलिए बात केवल किसानों की नहीं, पूरे भारतीय समाज की है, जिसे सोचना है कि हमें किस ओर जाना है?